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यंत्र साधना ।।


साधना विज्ञान में विशेषकर वाममार्गी ताँत्रिक साधनाओं में ‘यंत्र-साधना’ का बड़ा महत्व है। जिस तरह देवी देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, प्रेरणाओं की अवधारणा की जाती है, उसी तरह ‘यंत्र’ भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। इनकी रचना ज्यामितीय होती है। यह बिंदु, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और पद्मदलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं। कई का तो बनाना भी कठिन होता है। इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है। इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है। जिस तरह से देवी-देवताओं के रंग, रूप, आयुध, वाहन आदि विशेष गुणों का प्रेरणाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है। रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को ‘मंडल’ कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किंतु ‘यंत्र’ किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। 

 तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान हैं। ये सामान्यतया स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं पर बनाये जाते हैं। भोजपत्र पर बने यंत्र भी उत्तम माने जाते हैं। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगें उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं। ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बन ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है। जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं। इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है। भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देवशक्तियां पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। मानवी काया-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती हैं। यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करते हुए ब्रह्माण्ड का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है। एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है। उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है। वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है। वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता। वह अद्वैत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं। साधक चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर लेती है। यंत्र पूजा में यही भाव निहित है। 

 ‘यंत्र’ का अर्थ ‘ग्रह’ होता है। यह ‘यम्’ धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यहीं नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए मोटर कार, रेलगाड़ी, वायुयान, सेटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं। इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है। इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है। ताँत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है।

अध्यात्मवेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-”जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है। तंत्र परंपरा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में देखा जाता है। यंत्र उस देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है।” इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा। इसके द्वारा मन को केन्द्रित और नियंत्रित किया जाता है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार-”यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे ‘यंत्र’ कहा जाता है। यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुखों का नियंत्रण करता है। इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।” सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपनी कृति “प्रिंसिपल्स ऑफ तंत्र” में लिखा है कि इसका नाम ‘यंत्र’ इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है। 

 यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता की सिद्धि प्राप्त करना है। यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं। इनका संकेत-सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है। उनका चिंतन-मनन करना होता है। विचार परिष्कार एवं भाव-साधना से ही उत्कर्ष होता है। यंत्र के बीच में बिंदु होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है। शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत् चक्कर काट रहा हैं यह सर्वव्यापक है। अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन् हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील रहना है, तभी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा गतिशील हो सकते हैं। बिंदु आकाशतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है। बिंदु यंत्र का आदि और अंत भी होता है अतः यह उस परात्पर परम चेतना का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं। 

 वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है। इसमें उलटा त्रिकोण ‘शक्ति’ का और सीधा त्रिकोण ‘शिव’ का प्रतीक माना जाता है। एक दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है। त्रिभुज का शीर्षकोण जब ऊपर की ओर बना होता है तो अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है। जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्व का द्योतक माना जाता है,क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है। यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत्त-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है। इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत्त में चक्राकार गति के लक्षण पाये जाते हैं। जब एक बिंदु दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत्त बनता है। वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है। अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है। 

 यंत्र में इस गोलाकार वृत्त के सबसे बाहर जो चार ‘द्वार’ वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे ‘भूपुर’ कहते हैं। इसमें बहुमुखता का भाव है। यह पृथ्वी का भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है। किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिंदु तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है। यह बिंदु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है। वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है। 

 आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों का निर्माण होता है। इन यंत्रों में 36 तत्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ और पाँच इनके विषय-रूप, रस, गंध आदि तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं। जिस तरह मंत्रों में बीजाक्षर होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी 1 से लेकर 36 तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है। ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर 36 तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देवशक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं। इन्हीं 36 तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो 25 तत्व हैं, वे वर्णमाला के 25 वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं।

यंत्र विज्ञान में 1, 9 तथा (0) की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं। ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं। मीमाँसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती। वे मंत्र मूर्ति होते हैं। वे यंत्रों में आबद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रों पर भी पड़ता है। यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्दीप्त उत्तेजित करता है। मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है। यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तद्नुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोत्कर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है। 

 मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविधि एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है। तंत्रशास्त्रों में इस तरह के 960 प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विषद व्याख्या भी की गयी है। इनमें से कुछ यंत्रों को ‘दिव्य यंत्र’ कहा जाता है। ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं। उदाहरण के लिए वीसोयंत्र, श्रीयंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है। इनमें से ‘श्री यंत्र’ सबसे प्रसिद्ध है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में ‘योगिनी हृदय’ में कहा गया है कि “जब परात्पर शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्माँड का रूप धारण करती और अपने स्वरूप को निहारती है तभी ‘श्री यंत्र’ का आविर्भाव होता है।” 

 ‘श्री यंत्र’ आद्यशक्ति का बोधक है। इसका आकार ब्रह्मांडाकार है जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास का प्रदर्शन किया गया है। यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपनी महिमा-महत्ता है। इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिंदु स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं। इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है। ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है। नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ‘श्री कंठ’ कहते हैं। ऊर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा के प्रतीक हैं और ब्रह्माँड में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिकोण के बाहर या पश्चात् जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं। इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है। सबसे बाहर चार द्वारों वाला ‘भूपुर’ है जो विश्व ब्रह्माँड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है। 
 इस यंत्र में ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिंदु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। यह तंत्र सृष्टिक्रम का है।

 “आनंद लहरी” में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। वे स्वयं इसके उपासक थे। उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है। योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है। सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान का संकेत है।

यंत्रों में बिंदु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है। इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्त्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला (कुछ शब्द मिसप्रिंट हैं) यह घोषणा लिखवादी थी कि जो विद्यार्थी ज्यामिति से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें। आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पॉवर-एवं अद्भुत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं। मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्साई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर ‘श्री यंत्र’ के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतर्निहित नौ त्रिभुजों से बनी है। उच्च बीज गणित, सांख्यिकी-विश्लेषण, ज्यामिति एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए। उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पत्ति की ‘बिग-बैंग’ वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा ‘तप्त विश्व’ के सिद्धाँतों से मिलती जुलती हैं। यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों के लिए अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतर्निहित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं।

अंतर्द्वंद ।।

      आध्यात्मिक लोगो और सामान्यजनों में अधिकांशतः सभी अपने जीवन के किसी न किसी काल में अध्यात्म के प्रति सशंकित रहते हैं। मानव मस्तिष्क ही कुछ ऐसा है आत्मा की आवाज कहती है कि अध्यात्म ही सत्य का मार्ग है परन्तु मस्तिष्क माया संसार की तरफ मनुष्य को खींचता है। बड़े-बड़े साधक डिग जाते हैं। अब तो कलयुग है प्रत्येक का मानस अंतद्वंद से ग्रसित है। हजारों महाभारत को एक तरफ रख लीजिए और अंतद्वंद को एक तरफ निश्चित ही अंतद्वंद भारी पड़ेगा। अंतर्द्वद के निराकरण के पश्चात ही महाभारत का अभ्युदय हुआ। सर्वप्रथम अर्जुन अंतद्वंद से ग्रसित हुआ उसके अंदर विचारों और तर्कों का तूफान उठा सब कुछ उलझ गया, संकल्प शक्ति क्षीण पड़ गई। पथ भ्रष्ट होने ही वाला था तभी श्रीकृष्ण ने गीता का प्रकाश आलोकित कर दिया। अंतद्वंद मिट गया। अर्जुन पुनः कर्मशील बन पाया। 

          नीचे एक कथा वर्णित कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी भी अंतद्वंद से ग्रसित हो एक बार नास्तिक हो बैठे थे। यह कहानी फार्मूला पद्धति पर चल रहे साधकों के लिए एक प्रकाश पुंज का कार्य करेगी। आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी ने अपने गुरु के निर्देशानुसार ग्यारह अनुष्ठान किये पर कोई परिणाम नहीं निकला। कुछ भी चमत्कार नहीं हुआ। तब उन्होंने स्थण्डिल पर अग्नि प्रज्वलित कर झोली, माला, आसन, पुस्तक आदि सबको अग्निसात् कर दिया। बस, केवल एक श्री यंत्रमय शिवलिङ्ग ही हाथ में बचा था। उसे भी वे अग्नि में डाल ही रहे थे कि एक स्त्री वहाँ आ गयी और बोली महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पूजा-पाठ, उपासना सब पाखण्ड है, इसलिये मैं इन सबों को जलाकर लोगों को सचेत करूंगा कि वे उपासना छोड़कर अन्य पुरुषार्थ एवं परिश्रमों का आश्रय लें। इस पर वह स्त्री बोली कि यह सब तो ठीक है, पर जरा आप अपने पीछे देखिए कि वहाँ क्या हो रहा है, विद्यारण्य ने जब पीछे देखा तो वह स्थण्डिलाग्नि उनके पीछे ही दिखायी दी और उसमें ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर गिरकर फूटने लगे। 

       वे घबराकर खड़े हो गये और धीरे-धीरे अग्नि से दूर हटने लगे। तब तक लगातार ग्यारह पत्थर आकाश से गिरकर भयंकर ध्वनि करते हुए अग्नि में नष्ट हो गये। उन्होंने सोचा कि यह स्त्री इस विषय में कुछ अवश्य जानती होगी, क्योंकि उसी ने ही पीछे देखने को कहा है पर जब वे स्त्री को खोजने लगे तो वह कहीं न दिखी। निकट के उपवन की झाड़ियों में भी उसे चिल्लाकर पुकारा पर वह नहीं आयी। अंत में आकाश से एक ध्वनि आयी कि तुम घोर नास्तिक हो। मैं तो ठीक समय पर आ गयी थी। पर तुम्हारी गुरु और शास्त्रों में श्रद्धा नहीं थी। अतः तुमने सबको जला दिया, गुरु का अपमान किया और नास्तिकता का प्रचार करने को उद्यत हो गये थे। अब भला बताओ तुम्हें किस देवता का दर्शन होगा और कौन सी सिद्धि प्राप्त होनी चाहिए। तुम्हारे ग्यारह जन्मों के पाप थे जो ग्यारह पहाड़ के रूप में गिरकर अग्नि में नष्ट हुए। अब पुनः गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करो। विद्यारण्य अपने गुरु के चरणों में गिरकर यह सारी घटना सुनाई। उनके गुरु अत्यंत कृपालु थे उन्होंने उन्हें पुन: दूसरी माला, झोली और पुस्तकें आदि दे दीं और कहा कि तुम्हे एक ही अनुष्ठान से भगवती का सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। फिर सब कुछ वैसा ही हुआ। 

            शंकराचार्य के सम्प्रदाय में वे ही सबसे बड़े विद्वान् हुए। फिर उन्होंने श्रीविद्यार्णव, नृसिंहोत्तरतापिनी उपनिषद्-भाष्य आदि विशाल मंत्रोपासना ग्रंथ, जीवन्मुक्ति विवेक, उपनिषद् भाष्य, वेद, आरण्यक भाष्य और पंचदशी आदि प्रायः शताधिक छोटे- बड़े ग्रंथ लिखे तथा देवी से यह भी प्रार्थना की कि जो शुद्ध हृदय से गुरु न मिलने पर मुझे ही गुरु मानकर इस ग्रंथ की विधिपूर्वक उपासना करे तो उसे आप शीघ्र दर्शन दें, अन्यथा कलियुग में सभी नास्तिक हो जायेंगे। ये ही विद्यारण्य भगवान् शंकर की कृपा से शृंगेरी मठ के आचार्य हुए और प्रायः सौ वर्षों से अधिक दिनों तक जीवित रहे। इन्होंने काश्मीर तथा विजयनगर दो विशाल साम्राज्यों की स्थापना की थी, जिनकी राजधानियाँ श्री यंत्र पर स्थित होने के कारण श्री नगर तथा विद्यानगर (विजय नगर ) के नाम से प्रसिद्ध हुई।

         दोनों के शासक नरेश इनके अत्यन्त अनुगत शिष्य थे और साम्राज्यों का सीधा संचालन इनके ही हाथों में था। यों ही हाथों में था। यों देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र में मया पञ्चशीतेरधिकमपनीते तु वयसि इसमें पचासी वर्ष से अधिक जीने की जो बात कही गयी है, वह इन्हीं की रचना सिद्ध होती है, क्योंकि शंकराचार्य जी 32 वर्ष तक ही जीवित थे। 

       देवता का ध्यान प्रायः हृदय में होता है, यदि हृदय शुद्ध नहीं है, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि से तनिक भी दूषित हैं तो वहाँ देवता कैसे आयेंगे। जिस गंदे तालाब में सुअर, गदहे, कुत्ते, गीध, कौए, बगुले आदि लोट लोटकर स्नान आदि कर दूषित करेंगे, वहाँ राजहंस कैसे आ सकते हैं? गोस्वामी जी ने भी कहा है 
जेहि सर काक कंक बक सूकर क्यों मराल तहँ आवत।।
 शैवागमों में शिव-ज्ञान की बहुत चर्चा है। तदनुसार अभ्यास, ज्ञान, वैराग्य ही शिव की प्रसन्नता के लिये मूल स्रोत बतलाये गये हैं। शिवगीता एवं भगवद्गीता में प्रायः यही बात कही गयी है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि शिवरूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित ही हैं। पर विनम्रता और श्रद्धारूपी भवानी तथा त्याग, वैराग्य, दैन्य और विश्वासरूपी शिव के अभाव में वह प्रत्यक्ष नहीं होता

 भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरू पिणौ । 
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम् ॥ 
देवो भूत्वा यजेद्देवम् शिवो भूत्वा शिवं यजेत् के अनुसार विष्णु बनकर विष्णु की आराधना होती है अतः शिव की प्राप्ति के लिये अपने को निरन्तर ऊपर उठाते हुए शिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, सहिष्णु और काम, क्रोध, लोभ आदि से शून्य होकर केवल विज्ञानमय, साधनामय एवं उपासनामय ही बनना पड़ेगा। गीता के नासतो विद्यतो भावो नाभावो विद्यते सतः के आधार पर मानसिक योग्यता न होने तथा अर्थ, काम लिप्सा के कारण ही अन्तर-बाह्य व्याप्त शिव नहीं दिखते। शुद्ध उपासना का आश्रय लेने पर सभी दोष धीरे-धीरे दूर होकर एकमात्र शांत शिव ही सर्वत्र उद्भासित होते दिखेंगे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

उत्पादन ।।

        गुरु उद्यमशीलता का पर्यायवाची है। गुरु का कर्तव्य है जनमानस को अध्यात्म के उद्यम हेतु प्रेरित करना संचालित करना एवं क्रियाशील करवाना। उद्यम से ही उत्पादन होता है। इस सृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति का भी उत्पादन किया जाता है। मनुष्य एक परम उद्यमशील संरचना है सृष्टि के विकास क्रम में जीव सबसे परिष्कृत और शक्तिशाली इकाई है। यह ईश्वर का प्रतिरूप है। ब्रह्माण्ड की समस्त झलकियाँ मनुष्य के अंदर निहित कर दी गई हैं एवं एक अकेला मनुष्य आध्यात्मिक उद्यम, का स्तोत्र बन सकता है। एक अकेला मनुष्य अध्यात्म की धारा प्रवाहमान करने में सक्षम है और वह भी कई कल्पों तक एक अवतार या एक महापुरुष एक वृहद धर्म संस्थान की स्थापना कर सकता है। एक कृष्ण हुए हैं पर आज भी अनंत जनमानस, साधक एवं कृष्ण भक्त उनके द्वारा प्रवाहित गीता ज्ञान को आधार मानकर। आध्यात्मिक शक्ति का उत्पादन कर रहे हैं जो उत्पादन कर रहे हैं वही कृष्ण को प्रिय है। 

      प्रत्येक व्यक्ति का अपना मानस है, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग आवश्यकता है। अतः सभी से कृष्णोपासना नहीं करवाई जा सकती और यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति जीवन में अनेकों प्रकार की साधनाएँ सम्पन्न करे। अतः ईश्वर विभिन्न ॐ स्वरूपों में प्रकट होता है। जिसे जो स्वरूप पसंद आता है वह उसी स्वरूप में ध्यानस्थ हो अध्यात्म का उत्पादन करता है। अध्यात्म ही श्री है। चाहे भैरव उपासना करो,शिव उपासना करो या विष्णु उपासना मूलभूत रूप से अध्यात्म का ही उत्पादन होता है। जब तक अध्यात्म का उत्पादन होता रहता है जीव ईश्वर को प्यारा होता है। अनुत्पादक मनुष्य से गुरु को क्या काम? जो धरती मरु भूमि बन जाती है वहाँ से मनुष्य भी पलायन कर जाता है। ठीक इसी प्रकार जब जीव धर्मोपासना नहीं करता तो परम शक्ति पलायन कर जाती है। अध्यात्म की शक्ति ईश्वर को नहीं चाहिए बल्कि ईश्वर के द्वारा रचित इस जगत को चाहिए होता है। 

       सूर्य, चंद्र, आकाश, नक्षत्र इन सबको गतिमान रखने । के लिए यथा स्थिति बनाये रखने के लिए अध्यात्म बल की ही जरूरत पड़ती है। केवल मनुष्य अकेला अध्यात्म का उत्पादन नहीं करता है अपितु सभी ग्रह- नक्षत्र, पिण्ड, सूर्य इत्यादि भी आध्यात्मिक बल के उत्पादन की एक इकाई हैं। मनुष्य तो बहुत बाद में आता है। जैसे ही कोई आध्यात्मिक बल के उत्पादन से विमुख होता है उसकी संरचना खण्डित होने लगती है। गुरु के लिए प्रत्येक शिष्य मात्र अध्यात्म के उत्पादन की एक इकाई है। उससे किस प्रकार की साधना करवानी है, उसे किस प्रकार फल देना है इत्यादि यह गुरु का विषय है। गुरु शिष्य की परम्परा के अंतर्गत फल का विधान अनंत गुना होता है। आध्यात्मिक उत्पादन की इकाई बनने की स्थिति में जो फल प्राप्त होता है वह कई पीढ़ियों तक संरक्षित रहता है एवं उसी का भोग आने वाली पीढ़ियाँ करती हैं। जिसमें जितनी ज्यादा । उत्पादन की क्षमता होती है उसे उसी के हिसाब से पद प्राप्ति होती है। चाहे ब्रह्मा का पद हो या फिर विष्णु पद या फिर रुद्र गणों के पद इत्यादि यह सब निरंतर बदलते रहते हैं। 

          साधक अपनी उत्कृष्ट उत्पादन क्षमता के हिसाब से कोई भी पद प्राप्त कर सकता है। जीवन इसी शर्त पर मिलता है कि उत्पादन करो अन्यथा जीवन की प्राप्ति नहीं होगी। उत्पादन की विभिन्नता के हिसाब से ही लोक निर्मित होते हैं। महालक्ष्मी सर्वलोकों में सुपूजित हैं। इनकी विशुद्धतम एवं पवित्रतम मूल शक्ति । बैकुण्ठ में महाविष्णु के साथ शोभायमान हैं। वह दिव्यता केवल बैकुण्ठ में जाकर ही अनुभव की जा सकती है। समुद्र मंथन के समय इन्होंने मात्र अपनी दृष्टि स्वर्गलोक की तरफ केन्द्रित की थी एवं उसी से स्वर्ग पूर्ण ऐश्वर्यशाली बन गया और वहाँ पर ये स्वर्ग लक्ष्मी के नाम से प्रतिष्ठित हुई परन्तु पराकाष्ठा तो बैकुण्ठधाम में ही हैं। महालक्ष्मी तो माया हैं। दृश्यों को जन्म देने वाली जगत प्रसूतिका हैं एवं एक क्षण में दृश्य को बदलकर रख देती हैं। 

गरीब के झोपड़े का दृश्य कुछ और है तो वहीं राजा के महल के दृश्य कुछ और हैं। दृश्य इन्द्रियों का विषय है एवं इन्द्रियों को दृश्य बहुत प्रिय हैं। दृश्य संस्पर्शित भी किये जाते हैं दृश्यों के आयाम ध्वनि, स्पर्श, गंध इत्यादि से युक्त हैं। दृश्य ही सुख और दुख का कारण बनते हैं। अत: व्यक्ति सुखद दृश्यों को निर्मित करने हेतु लक्ष्मी का अनुसंधान करता है। मनुष्य दृश्य जगत में जीता है इसलिए लक्ष्मी को दृश्यों के अधीन समझता है परन्तु यह अर्ध सत्य है। लक्ष्मी दृश्यों से भी परे हैं, सुख से भी ऊपर हैं। वह परम तृप्तिका हैं एवं इन्द्रियों के अलावा अन्य अंतेन्द्रिय चक्षुओं और तंतुओं को भी तृप्ति प्रदान करती हैं। लक्ष्मी पूर्णता हैं। पूर्णता इसलिए हैं क्योंकि वह विष्णु की अर्धांगिनी हैं, विष्णु की शक्ति हैं। विष्णु नारायण हैं, पुरुषोत्तम हैं, वे परम हैं वे शिव केद्वारा निर्मित प्रथम पुरुष हैं। अतः पुरुषोत्तम के साथ पुरुषोत्तमा ही होंगी, नारायण के साथ नारायणी ही सुशोभित होती हैं। एक खास बात यह है कि विष्णु और लक्ष्मी ने संतानोत्पत्ति व्यक्तिगत तौर पर नहीं की है। यही सबसे विशेष बात है इसलिए वे जगत पुरुष और जगतमाता हैं, व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। व्यक्तिगतता मनुष्यों का विषय है। विष्णु और लक्ष्मी व्यक्तिगत कारणों से क्रियाशील नहीं होते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में जगत कल्याण का लक्ष्य छिपा हुआ होता है। महाविद्या साधनाओं के अंतर्गत सबसे कल्याणकारी साधना कमला सांधना ही है।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नवग्रह रथाय नमः ।।

         सूर्य तो सुबह उगेगा ही अब कोई हो सकता है ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाये, कोई 6 बजे उठे, कोई 9 बजे उठे पर उठना तो उसे पड़ेगा ही, उठने से वह नहीं बच सकता। यह प्रज्ञा का विषय है एवं दूसरा विषय छाया का है। सूर्य की दो पत्नियाँ हैं प्रथम का नाम प्रज्ञा है और प्रज्ञा से यमराज एवं अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ है, छाया से शनि एवं तप्ति का जन्म हुआ है। प्रज्ञा से ही प्रथम मनु भी उत्पन्न हुए हैं, भगवान मनु सूर्य पुत्र हैं एवं उन्होंने मनु स्मृति नामक ग्रंथ लिखा। मनु स्मृति ग्रंथ कुछ भी नहीं केवल सौर अभियांत्रिकी के अंतर्गत किस प्रकार जीव श्रेष्ठतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है का वर्णन है। यह एक तरह से मनुष्य का संविधान है, जब जब मनुष्य मनु-स्मृति से भटकेगा वह सर्वप्रथम तो मनुष्य ही नहीं रह जायेगा और उसके ऊपर प्राकृतिक रूप से कालचक्र क्रियाशील हो जायेगा पुनः उसे मनुष्यता के रास्ते पर लाने हेतु साथ ही उसे एहसास एवं अनुभव रूपी दण्डों को भी भोगना पड़ेगा। 

         मैं नाम नहीं लिखना चाहता, अनेक लोग केवल मनु स्मृति मनुवाद को गाली एवं अपशब्द कहने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं परन्तु यह सब आधा-अधूरा ज्ञान है, आधा-अधूरा व्यर्थ का चिंतन है एवं किसी शास्त्र की गहनता और वास्तविकता के गूढ़ार्थ में जाने की अपेक्षा उसे युग एवं समय के अनुसार तोड़-फोड़कर समझने की प्रक्रिया है। मनु स्मृति जैसे ग्रंथ किसी काल विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं, किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं। मनु स्मृति की रचना तो युग युगान्तरों पूर्व हुई है। मैं यह भी नहीं कर रहा कि वर्तमान में जिसे हम वास्तविक मनु स्मृति ग्रंथ मान रहे हैं वह भी पूर्ण शुद्ध या अपने वास्तविक रूप में है वास्तविक गीता वास्तव में 120 श्लोक की थी कालान्तर उसमें अनेक विद्वानों ने युग एवं कालानुसार दुनियाभर के श्लोक ठूस दिए। आप जब गीता पढ़ेंगे तो अनेकों श्लोक ऐसे हैं जो पढ़ते से ही समझ में आ जाते हैं कि ये परम परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से नहीं निकले हुए हैं अतः युग और काल के दोष तो आ ही जाते हैं।

         इसलिए प्राचीन काल में ऋषि-मुनि सीधे सूर्य मण्डल में ध्यान करके सूर्य रश्मियों के द्वारा अपने हृदय में वेदों को आर्भिभूत करते थे। महर्षि याज्ञवल्कक्य ने सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद सूर्य रश्मियों के माध्यम से प्राप्त किये थे। सौर उपासना का तात्पर्य है सीधे प्राप्त करना एवं माध्यम को बीच से हटा देना। कृतिका नक्षत्र में भगवान सूर्य अपनी दिव्य रश्मियों से वर्षा करते हैं तब न कोई बादल होते हैं, न ही वर्षा का मौसम फिर भी बरसात होती है और योगीजन इस दिव्य स्नान का इंतजार करते रहते हैं इसे ही वे अमृत स्नान कहते हैं। भगवान सूर्य के लिए सब कुछ सम्भव है। पूर्णिमा के दिन ही लोगों को ज्ञान प्राप्त क्यों होता है ? जिन्हें ज्ञान, मोक्ष, कैवल्य पद इत्यादि प्राप्त होता है वे पोथे नहीं बांचते अपितु सीधे ध्यानस्थ हो सोम मण्डल, सूर्य मण्डल एवं अग्नि मण्डल के माध्यम से परम शुद्ध एवं चैतन्य ज्ञान अपने अंदर समाहित करते हैं। 

           विश्वामित्र ने यही किया, उन्होंने गायत्री मंत्र के माध्यम से सीधे-सीधे सूर्य के तेज को अपने अंदर उतार लिया, स्वयं वेदमयी हो गये, स्वयं तेजमयी हो गये, ब्रह्मज्ञानी बन गये। सीधे प्राप्त करने की क्षमता जब आ जाती है तब सौर अभियांत्रिकी से जातक युक्त हो जाता है, वह साक्षात् मंत्र दृष्टा बन जाता है, साक्षात् सूर्य बन जाता है। स्वामी विशुद्धानंद जी सौर विद्या में दक्ष थे अतः वे सूर्य किरणों के माध्यम से गेंदे के फूल को गुलाब के फूल में परिवर्तित कर देते थे। लोग कहते हैं कि मृत्यु दण्ड या फाँसी की सजा खत्म कर देना चाहिए पर जरा सोच कर देखिए वर्ष में मात्र एकाध दो लोगों को सरकार फाँसी देती है, वह भी जब वे अत्यंत ही जघन्य अपराध करते हैं कितना धन खर्च होता है, एक अदालत से दूसरी अदालत यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक क्षमा याचना की जाती है कितना हो हल्ला मचता है परन्तु प्रतिदिन प्रत्येक मानव बस्ती रूपी शहरों इत्यादि में अनेको लोग स्वयं अपने हाथ से बिना जल्लाद की सहायत से फाँसी का फंदा लगाते हैं और झूल जाते हैं कितने जहर खाते हैं, कितने स्वयं को दग्ध करते हैं,कितनी हत्याएं होती हैं इसे कहते हैं आत्मघात। 

           समस्त चिकित्सालय रोगियों से भरे पड़े हैं इसे कहते हैं आत्मघात। यह सब इसलिए हो रहा है मनुष्य यह नहीं समझ रहा कि वह एक सौर मण्डल विशेष के अधीन है एवं उसकी शारीरिक संरचना कालचक्र के अधीन है, वह सौर अभियांत्रिकी का एक अभिन्न हिस्सा है, वह वास्तविक मनु स्मृति को अपनी स्मृति में जगह नहीं दे रहा इसलिए जो सौर अभियांत्रिकी एक मनुष्य को सौ वर्ष तक देखने,समझने, जीवित रहने इत्यादि के लिए निर्मित कर रही है वही उसे बेकार समझ नष्ट कर रही है।

             स्वयं नष्ट करवा रही है। कालचक्र को सौर आधारित जीवन का अनुसरण करने वाले जीव की आवश्यकता है न कि सौर प्रणाली के अंतर्गत पनपने वाले विषाणुओं की जो कि सम्पूर्ण सौर प्रणाली को क्षतिग्रस्त या नष्ट करने की प्रवृत्ति से युक्त हैं। स्वामी विशुद्धानंद जी ने कहा प्रत्येक पंजीकृत भूत के अंतर्गत अपंजीकृत भूत छिपे हुए हैं अर्थात जल के अंदर आठवे अंश में वायु, अग्नि, भूमि एवं आकाश निहित हैं और सौर किरणें जब चाहें तब इन अपंजीकृत भूतों को उदित कर सकती हैं। उन्होंने यह विद्या तिब्बत में लामाओं से सीखी थी वे कालचक्र में पारंगत थे। रावण की लंका में विभीषण भी छिपे हुए थे एवं राम ने विभीषण को उदित कर दिया और वे लंकेश बन गये। 

       आप ऊपर से भूमि को देखिए गर्मी में वह सूखी दिखाई देगी परन्तु वर्षा ऋतु में वही भूमि हरितिमा से ढँक जायेगी, सूर्य देव अपनी किरणों के माध्यम से उसमें कुछ उदित कर देंगे। यमराज ने नचिकेता से कहा तू सिद्धि ले ले, राजपाट ले ले, अप्सरा ले ले, धन-दौलत ले ले, जो चाहे वो ले ले, सौ वर्ष की आयु ले ले परन्तु ब्रह्म विद्या के बारे में मत पूछ । मृत्यु के बाद क्या होता है? यह मत पूछ इस पर पर्दा पड़ा रहने दे। नचिकेता नहीं माने एवं उन्होंने सौर मण्डल के अंतर्गत तथाकथित प्राप्ति को अस्वीकार कर दिया और ब्रह्म को जानना चाहा आखिरकार थकहारकर यमराज ने उन्हें श्रीविद्योपासना बता दी। इस प्रकार नचिकेता मुक्त हो गये एवं उन्होंने यमराज के पास बैठकर समस्त मैट्रिक्स देख ली, वे गुलामी से मुक्त हुए और सूर्य मण्डल को भेदकर निकल गये। 

           वैसे तो भगवान सूर्य को अनंत रश्मियाँ हैं परन्तु उनकी सप्त रश्मियाँ प्रमुख मानी गई हैं। इन सप्त रश्मियों का पूजन कालचक्र के अंतर्गत होता है। ये सात रश्मियाँ हैं सुषुम्ना यह रश्मि कृष्ण पक्ष में क्षीण चंद्र कलाओं पर नियंत्रण करती हैं और शुक्ल पक्ष में उनमें कलाओं का आभिर्भाव करती हैं। चन्द्रमा सूर्य की सुषुम्ना रश्मि से पूर्ण कला प्राप्त करके अमृत का प्रसारण करते हैं। संसार के सभी जड़ चेतन प्राणी चंद्रमा की पूर्ण कला से क्षारित अमृत हैं। सूर्य की दूसरी प्रमुख रश्मि है सुरादना। चंद्रमा की उत्पत्ति इसी सूर्य रश्मि से होती है। 33333 देवता चंद्र मण्डल में निरंतर अमृत पान करते रहते हैं चंद्रमा में जो शीत किरणें हैं वे सूर्य की रश्मियाँ हैं एवं इसी से चंद्रमा अमृत की रक्षा करते हैं। उदन्वसु सूर्य रश्मि से मंगल ग्रह का आभिर्भाव हुआ है। मंगल प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन करते हैं, इसी रश्मि से प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन होता है। यह सूर्य रश्मि सभी प्रकार के रक्त दोषों से प्राणियों को मुक्त कराकर आरोग्य, ऐश्वर्य, तेज का अभ्युदय करती है। इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदन्वसु रश्मि मण्डलाय नमः । 

            विश्वकर्मा नाम की रश्मियाँ बुध ग्रह का निर्माण करती हैं। बुध ग्रह प्राणियों के शुभ चिंतक ग्रह हैं। इस रश्मि के उपयोग से मनुष्य की मानसिक अशांति शांत होती हैं एवं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्वकर्मा रश्मि मण्डलाय नमः । उदावसु नामक सौर रश्मियाँ बृहस्पति ग्रह का निर्माण करती हैं। बृहस्पति प्राणी मात्र के अभ्युदय निश्रेयष प्रदायक हैं। गुरु की अनुकूलता प्रतिकूलता में ही मनुष्य का उत्थान पतन होता है इस सूर्य रश्मि मण्डल के पूजन से प्रतिकूल वातावरण निरस्त होते हैं और अनुकूल वातावरण उपस्थित होते हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदावसु रश्मि मण्डलाय नमः

           विश्वव्या रश्मि मण्डल से शुक्र एवं शनि नामक ग्रह उत्पन्न होते हैं। शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं एवं मनुष्य का जीवन शुक्र से ही निर्मित होता है तो दूसरी | तरफ शनि देव मृत्यु के अधिष्ठाता हैं। जीवन एवं मृत्यु दोनों का नियंत्रण सूर्य के उक्त रश्मि मण्डल से होता है। शुक्र ग्रह एवं शनि ग्रह के अनुकूलन हेतु तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्व्च्या रश्मि मण्डलाय नमः । आकाश के सम्पूर्ण नक्षत्र हरिकेश नामक सूर्य रश्मि से उत्पन्न हुए हैं। नक्षत्रों का कार्य प्राणियों में तेज, बल वीर्य का क्षरण, द्रवण से रक्षण करना है। यह रश्मियाँ प्राणियों में तेज, बल-वीर्य के प्रभाव को बढ़ाती है एवं मरणोपरांत परलोक प्रदान करती हैं। इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हरिकेश रश्मि मण्डलाय नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सुरादना रश्मि मण्डलाय नमः मंत्र के जाप से चंद्रग्रह जातक पर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।

            भगवान सूर्य देव के रथ पूजन का अपना विशेष तांत्रिक महत्व है। मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के रथ का पूजन किया जाता है एवं सूर्य के साथ-साथ उनके नौ ग्रहों के भी रथ पूजित किए जाते हैं। ये नौ ग्रह महारथी हैं, हमेशा रथ पर सवार रहते हैं और निरंतर परिक्रमा रत रहते हैं। स्वयं भगवान सूर्य रथ पर सवार हो ध्रुव भण्डल की परिक्रमा करते रहते हैं और ध्रुव मण्डल शिशुमार चक्र की शिशुमार चक्र में भगवान नारायण विराजित हैं। ध्वज भंग नहीं होना चाहिये, किसी भी राजा के रथ पर आरुढ़ ध्वज जब भंग हो जाता है तो उसका राजपाट जाता रहता है अतः जीवन के सभी क्षेत्रों में ध्वज भंग होने से बचने हेतु नीचे लिखित मंत्रों के जप का अत्यधिक महत्व है। 

         चन्द्रमा का रथ तीन पहियों वाला है एवं उसमें श्वेत वर्ण के दस घोड़े जुते हुए हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं दस श्वेत अश्व युक्ताय चंद्र रथाय नमः । चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्यों का बना हुआ है एवं उसमें आठ पिशंग वर्ण वाले घोड़े जुते हुए हैं, इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट पिशंग अश्व युक्ताय बुध रथाय नमः । शुक्र का रथ लौह निर्मित है एवं पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के द्वारा खींचा जाता है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं लौह निर्मित शुक्र रथाय नमः । मंगल का रथ स्वर्ण निर्मित है एवं अग्नि से उत्पन्न पद्म राग मणि के समान अरुण वर्ण के आठ घोड़ों से युक्त है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय मंगल रथाय नमः । बृहस्पति का रथ भी स्वर्ण से निर्मित है एवं इसे भी आठ पाडुंर वर्ण वाले घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय बृहस्पति रथाय नमः । शनि के रथ को आकाश से उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े धीरे-धीरे खींच रहे हैं इनका मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विचित्र वर्ण अश्व युक्ताय शनि रथाय नमः । राहु का रथ मटमैले वर्ण का है एवं उसे कृष्ण वर्ण के आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय राहु रथाय नमः । केतु का रथ धुंए की आभा लिए हुए है एवं इसे भी आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय केतु रथाय नमः । 

        इस प्रकार इन मंत्रों से जब हम इन ग्रहों के रथों का पूजन करते हैं तो ये समस्त ग्रह अतिशीघ्र कृपावान हो हमारे लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर देते हैं भगवान सूर्य की दो पत्नियाँ हैं संज्ञा एवं छाया। हम सारा जीवन क्या करते हैं? सिर्फ छाया तलाशते हैं। वृक्ष की छाया मिल जाये, हमारे मकान क्या हैं? वे मात्र छाया में रहने के स्थान हैं। हमें छाया को विस्तृतता से समझना होगा। असुरक्षा की भावना छाया में रहने की प्रवृत्ति के कारण ही विकसित होती है। चाहे आर्थिक तल हो, सामाजिक तल हो, तल हो या कोई अन्य तल जब हम संग चाहते हैं, साथ चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं तब हम सिर्फ छाया की शरण में जा रहे हैं। कहीं न कहीं हम में कुछ कमी है, कुछ भय है, कुछ कोमलता है, कहीं हम छिपना चाह रहे हैं, कहीं हम बचना चाह रहे हैं, कहीं कुछ असहनीय हो रहा है इसलिए हमें छाया चाहिए, ओंट चाहिए।

 ऐसा नहीं कि छाया दिन में ही चाहिए होती है रात्रि में भी छाया चाहिए होती है। क्या हम रात्रि में खुले आकाश के नीचे सो सकते हैं? कालचक्र में भी हमारे ऊपर ग्रह, नक्षत्रों इत्यादि की छाया पड़ जाती है। जब सूर्य स्वयं छाया से मुक्त नहीं हैं तब हमारा किसी अन्य ग्रह, नक्षत्र इत्यादि का छाया से मुक्त होना बेमानी है। छाया, सूर्य और जीव के बीच एक अलौकिक आवरण है जिसके कारण सूर्य सीधे जीव के सम्पर्क में नहीं आते। दूसरी तरफ संज्ञा या प्रज्ञा हैं जो छाया मुक्त हैं। जैसे-जैसे मनुष्य साधक बनता है वह छाया को त्यागता जाता है, निकल पड़ता है

निकल पड़ता है सब कुछ छोड़कर प्रत्यक्ष की तरफ ।काल अपना काम करता रहे तो उसे करने दो, आप आत्मज्ञानी बनो एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी की शरण में जाओ, आत्मानुसंधान करो यही श्रेष्ठतम देवयान का मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलेगा उसे भगवान सूर्य आदर के साथ ऊर्ध्वगामी मार्ग प्रदान करते हैं। अंत में यही कहना चाहूंगा कि गुरु के पीछे-पीछे चलते रहे सूर्य मण्डल को भेद जाओगे। 


त्रिपुर भैरवी ।।


       भैरव शब्द भर व से बना है भ का मतलब भरण, र का मतलब रमण और व का मतलब वमन । अर्थात भरण, रमण, वमन । भैरव जी भरण करते हैं, रमण करते हैं और वमन भी करते हैं अर्थात प्रदान भी करते हैं। भर व+ई = भैरवी, भैरव की शक्ति भैरवी । जो भैरव को भी क्रियाशील बनाये वही भैरवी । शिव और भैरव के बीच भैरवी मौजूद है। शिव को भैरव में परिवर्तित भैरवी ही करती हैं। आद्य और आद्या को जोड़ने वाली शक्ति का नाम है भैरवी । माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की रथ वाहिनी त्रिपुरभैरवी कहलाती हैं। 

          त्रिपुर भैरवी अर्थात श्री ललिताम्बा की प्रमुख सहायिका, सखी, परम विश्वसनीय सहयोगिनी के रूप में क्रियाशील होती हैं। यह एक तरह से सृष्टि में क्रियात्मकता का प्रतीक हैं। उन्मुक्तता, निर्द्वन्ता, नृत्यता, आनंदता, घोरता, रुदनता, विलापता इत्यादि इनके प्रमुख चारित्रिक लक्षण हैं। सृष्टि को बुदबुदाहट इन्हीं के माध्यम से सदैव प्राप्त होती रहती है, यह अग्नि का प्रतीक है। जल को अग्नि के ऊपर रख दो वह बुदबुदाने लगेगा क्योंकि उसमें क्रियाशीलता बढ़ गई अगर यह न हो तो सृष्टि मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी। मृत्यु को प्राप्त हो रही सृष्टि को नित्य युवा, यौवनवान बनाये रखने की निरंतरता त्रिपुरभैरवी ही सम्पन्न करती हैं। सारथी जिस तरफ रथ मोड़ दे, सारथी जहाँ चाहे वहाँ रथ ले चले, सारथी चाहे तो रथ में बैठी महाराज्ञी को ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ले चले या फिर आरामदेह मार्ग पर सारथी की योग्यता । पारंगतता, चैतन्यता पर ही रथ में सवार महाराज्ञी का जीवन टिका हुआ होता है।

          कृष्ण, अर्जुन के सारथी बन गये एवं अर्जुन समस्त प्रकार के मृत्यु भय से, मृत्यु संकट से महाभारत के युद्ध में उबर गये । ठीक इसी प्रकार श्री ललिताम्बा एवं सदाशिव की सारथी त्रिपुरभैरवी उन्हें सुगमता के साथ तीनों लोकों में भ्रमण कराती रहती हैं, उनके मार्ग को निष्कंटक बनाती रहती हैं । त्रिपुर भैरवी की साधना से आध्यात्मिक जातक इस पृथ्वी पर समस्त प्रकार के उत्पीड़नों से मुक्त होकर परम आनंद को प्राप्त करता है। छीन कर, झपटकर मारकर छीन लेती हैं भैरवियाँ अगर ये चाहे तो समस्त प्रतिकूलताओं के चलते वह सब उपलब्ध करा देती हैं जिसकी जातक ने कल्पना भी नहीं की है। इन्हें अपरा डाकिनी भी कहा जाता है अत: यह किसी भी प्रकार के नियम में नहीं बंधी होती अपितु सबके सब इनकी मर्जी के अनुसार 'चलते हैं। अचानक मृत्यु हो जाना, अपघात, घोर दरिद्रता, सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देना, राजा को रंक कर देना, पौरुषवान को नपुंसक बना देना इत्यादि ये कुछ भी कर सकती है। करती क्या करती ही हैं। सभी नियमों से परे हैं त्रिपुर भैरवी । साधक और शिव के बीच रास्ता रोके त्रिपुर भैरवी खड़ी हैं इन्हीं से रास्ता मांगो।
                           शिव शासनत: शिव शासनत: