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ॐ आदायायै विद्ममहे परमेश्वयै धीमहि तन्नो काली प्रचोदयात्।।

     तीन महाशुन्यों पर भगवती महाकाली विराजमान है तो वही साथ महाशुन्यों पर तारा विराजमान है तारा अर्थात प्रकाश। तीन और सात का अनुपात है सात प्रतिशत जगत प्रकाशमान है और तीन प्रतिशत जगत अप्रकाशवान है अदृश्य है। इस तीन प्रतिशत अदृश्य एवं अप्रकाशवान का ही नाम अद्वैत है परंतु यह अद्वैत इतना शक्तिशाली है कि इसमें 7% जगत कहां विलुप्त हो जाता है पता ही नहीं चलता है। एक रत्न होता है काला हकीक, बिल्कुल काला अब यह दुर्लभ हो गया है अब इसकी जगह नकली लीपे पुते हकीक मिलते हैं ठीक इसी प्रकार एक रत्न होता है काला तुरमुलीन जो कि दुर्लभ है इसी श्रृंखला में काला हीरा भी आता है अधिकांशत: काले हीरे मानव निर्मित या रंग किए हुए होते हैं परंतु काला हीरा अपने आप में परम तांत्रिक वस्तु है। जापानी लोग पाश्चात्य लोग हमेशा से महाकाली के परम उपासक रहे हैं वह समझ गए कि जो कुछ मिलेगा अद्वैत में से ही मिलेगा और जो कुछ हमें विलुप्त करना है उसके लिए भी हमें अद्वैत सिद्ध करना होगा अर्थात काली को सिद्ध करना होगा। 
               इन तीनों रत्नों में इतनी दुर्लभ कालिका सिद्धि है कि यह मस्तिष्क में बेवजह उठ रही विचार तरंगों विद्युतीय तरंगों अदृश्य तरंगों को खींच लेते हैं सोख लेते हैं अपने आप में विलीन कर लेते हैं। यह मस्तिष्क की समस्त विकृतियों को रोकने में सक्षम है इन के माध्यम से परम नकारात्मक शक्तियों का शोषण भी हो सकता है उन्हें किसी स्थान विशेष पर प्रक्षेपित भी किया जा सकता है। अधिकांशतः अंतरिक्ष वायुयानो मे लड़ाकू जहाजों में रडारो मे इन विशुद्ध काले रत्नों का उपयोग गोपनीय कारणों से किया जाता है यह तीनों रत्न प्रकृति द्वारा प्रदत महा प्रत्यंगिरा तत्वों से युक्त है। मनुष्य का मस्तिष्क बहुत खतरनाक है मनुष्य का मस्तिष्क परम उत्पादक है यह कुछ भी उत्पादित कर सकता है इसमें अनंत कारखाने लगे हुए हैं। कोई भी विलक्षण एवं शक्तिशाली मस्तिष्क चाहे तो विवाद उत्पन्न कर दें एवं विवाद ऐसा बवाल ऐसा घटना ऐसी परिस्थिति ऐसी की समस्त विश्व उससे हैरान परेशान होकर रह जाए। कोई शक्तिशाली मस्तिष्क ऐसा खतरनाक षड्यंत्र किताब विष समायोजन उत्पन्न कर सकता है जिससे कि संपूर्ण विश्व लहूलुहान हो सकता है परमाणु बम हाइड्रोजन बम दुनिया भर के अस्त्र-शस्त्र का उत्पादन मनुष्य ने ही किया है। लड़ाकू धर्म, लड़ाकू हिंसा, लड़ाकू पंथ, आध्यात्मिक विचार धाराएं नास्तिक चिंतन इत्यादि सब कुछ मनुष्य के मस्तिष्क रूपी कारखाने में ही उद्दीप्त होता है।
           महाकाली ऐसे काले पुरुषों ऐसी काली स्त्रियों ऐसे काले कर्म करने वाले मस्तिष्क को ढूंढती रहती है और उनका मुंड मर्दन करती है। काली करतूत काले कर्म कालिख पुती विचारधाराएं कालीमा युक्त चरित्र इत्यादि ही काले जादू है। काला जादू का क्या तात्पर्य है? काले जादू का तात्पर्य है ठगी, आंखों में धूल झोंकना, धोखा, पाखंड, हरण, काले कारनामे इत्यादि इत्यादि। इस पृथ्वी पर काले जादू के बड़े-बड़े अनुसंधानकर्ता है वह नकल करने में माहिर हैं नकल को असल सिद्ध कर दे रूप बदलकर भेष बदलकर छद्म रूप में खूब काला धन इकट्ठा करते हैं इन सब के पीछे खड़ग लेकर दौड़ती है महाकाली। रावण ने भी तो भेष बदलकर सीता जी का अपहरण कर लिया था राहु केतु ने भेष बदलकर अमृत पान कर लिया था। बहुत कुछ होता है जादू सिर्फ तकनीक है प्रबंधन है आंखों के सामने धोखा उत्पन्न करने का इसलिए काली दिगंबरा है वह दिगंबर कर देती है छल को। 
                        
   शिव शासनत: शिव शासनत:

सर्वज्ञ - सर्वत्रम्

       कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कहा कि वेदांत का भिक्षां देही सिद्धांत मनुष्यों को शिथिल बना देगा कर्महीन बना देगा इस बात को लेकर उन्होंने आदि शंकर के मत का भी खंडन किया परंतु भिक्षां देही के अर्थ में निष्काम छिपा हुआ है परम बौद्धिकता छिपी हुई है आदि शंकर का जीवन वृतांत आप उठा कर देखिए मात्र 32 वर्ष की उम्र में उन्होंने कर्म की एक ऐसी धारा बहाई की कोई सात जन्मों में भी नहीं बहा सकता। संपूर्ण जीवन में देशाटन करते रहे भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमते रहे स्वयं की संपत्ति रिश्तेदारों मे बांट दी एक तरफ ब्रह्मसूत्र पर महाभाष्य लिखा गीता पर भाष्य लिखा सैकड़ों स्तुतिया बनाई सौंदर्य लहरी लिखी सैकड़ों ग्रंथों का उद्धार किया तो वही निर्वाण षटकम् भी लिखा।
                 ना जाने कितने तीर्थों का उद्धार किया मंदिरों का निर्माण करवाया असंख्य मनुष्य को वरदान दिए उनकी समस्याओं का निवारण किया चारों तीर्थों को पुनः प्रतिष्ठित किया एवं पृथ्वी पर फैले नाना प्रकार के संप्रदाय एवं धर्मों में आई विकृतियों का निदान किया उन्हें एक सूत्र में बांधा। अप्राकृत धर्मों का भारत भूमि से पलायन करवाया शिष्यों की लंबी फौज खड़ी की गहन तांत्रिक अनुसंधान किए। एक तरफ हुए निष्ठुर सन्यासी हैं तो दूसरी तरफ अत्यंत भावुक हृदय के कवि भी हैं। एक तरफ वे बाल ब्रह्मचारी हैं तो दूसरी तरफ अमरूक शतक जैसे परम गोपनीय काम शास्त्र के रचयिता भी हैं।
                 हाँ जब मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य में वाद विवाद की प्रतियोगिता हुई तब उभय भारती ने दोनों के गले में पुष्प माला डाल दी और कहा जो उत्तेजित होगा जो खीजेगा जो क्रोधित होगा जो दुखी होगा जो भयभीत होगा उसके गले की माला सर्वप्रथम खुलेगी। आदि शंकराचार्य के पास जैसे ही कोई वाद-विवाद के लिए आता सर्वप्रथम उसे कहते हैं कहो क्या कहना है? कौन सा सिद्धांत रचना है तुमने? क्या सुनाने आए हो करो व्याख्या अपने सिद्धांत की। वे धीर-गंभीर शांत निश्चल अधिर बनकर सर्वज्ञाता के साथ आगंतुक का प्रलाप सुनते और फिर पूर्ण सज्जनता पूर्ण विद्वता पूर्ण पूर्ण सत्यता पूर्ण निर्भयता पूर्ण भद्रथा के साथ एक-एक करके उसके तथाकथित महिमामंडन का खंडन कर देते। वह सर्वज्ञ इसलिए हैं क्योंकि उन्हें प्रत्येक विषय में गहनता के साथ गंभीरता के साथ गुढ़ता के साथ प्राप्त है। वे सभी धर्मों का गहन एवं सार पूर्वक अध्ययन कर चुके थे। उभय भारती समझ गई कि शंकराचार्य से मंडन मिश्र कभी नहीं जीत सकते एवं उनका कर्मवाद अवश्य पुराहित होगा क्योंकि आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र के दरवाजे पर कहा था भिक्षां देही परंतु उन्होंने उसमें एक वाक्य और जोड़ दिया कि हे मंडल में मैं तेरे दरवाजे पर आन्न की भिक्षा मांगने नहीं आया हूं। अन्न की भिक्षा तो सर्वत्र उपलब्ध है मुझे तो वाद-विवाद की भिक्षा चाहिए और उसी समय उभय भारतीय समझ गई थी कि साक्षात शिव आ गए। हां शंकराचार्य ने वाद विवाद भी भिक्षा में मांगा विजय भी भिक्षा में मांगी।
                   क्या मांगते हो शिव-गुरु एक सर्वज्ञ पुत्र या फिर 100 वर्ष तक जीने वाला सामान्य पुरुष भगवान शिव ने शंकराचार्य के पिता से पूछा शिव-गुरु ने कहा हे शिव भले ही अल्पायु हो पर मुझे भिक्षा में सर्वज्ञ पुत्र चाहिए। शिव ने कहा तथास्तु। दिव्य ऋषि मुनियों ने केवल 8 वर्ष की आयु वाले शंकराचार्य को 8 वर्ष की आयु अऔर प्रदान कर दी 8 वर्ष की आयु में जैसे ही नदी में नहाते समय मगर ने शंकराचार्य का पैर पकड़ा वे बोल उठे माँ भिक्षा में सन्यास दें अन्यथा मेरी मृत्यु निश्चित है। मां ने भिक्षा में सन्यास की आज्ञा दे दी। जो सर्वज्ञ होते हैं सर्व समर्थ होते हैं वह सिर्फ भिक्षा मांगता है। वह चाहे तो झपटकर कपट के द्वारा योजना के द्वारा कुछ भी प्राप्त कर सकता है परंतु वह भिक्षा में लेता है। भिक्षा में एक आंवला मिला और सर्वज्ञ ने उस गरीब ब्राह्मणी के घर को सोने के आंवलो से पाट दिया। शंकर ने स्पष्ट कहा कि हे महालक्ष्मी इस दरिद्र ब्राह्मणी के सभी कर्म कट गए क्योंकि इसने मुझे भिक्षा दी। महालक्ष्मी को मानना पड़ा उन्हें कर्म का सिद्धांत एक कोने में रखना पड़ा। आचार्य शंकर ने सन्यास भिक्षा में अपनी मां से मांगा ब्राह्मणी से आंवले की भिक्षा ली गुरु से ज्ञान भिक्षा में मांगा मंडन मिश्र से लेकर समस्त विद्वानों, धर्माचार्य, आचार्य इत्यादि से भिक्षा में वाद-विवाद मांगा।

           जैसे ही आचार्य 16 वर्ष के हुए उन्होंने बद्रीनाथ में ब्रह्म सूत्र के साथ-साथ अन्य भाष्यों पर अपना कार्य संपूर्ण कर लिया वेदव्यास प्रकट हो गये उन्होंने शंकराचार्य के कार्यों की भूरी भूरी सराहना की। आदि गुरु शंकराचार्य वेदव्यास जी से बोले भगवन दो मिनट और ठहर जाइए मैं आपके सामने ही प्राण त्याग ना चाहता हूं मेरी आयु पूर्ण हुई। वेदव्यास बोले ऐसा मत करो शंकराचार्य लो मैं तुम्हें16 वर्ष की और आयु प्रदान करता हूं फैलाओ अपना हाथ मैं तुम्हें भिक्षा में 16 वर्ष देता हूं मेरी भिक्षा को अस्वीकार मत करो अभी तुम्हें बहुत कार्य करने हैं और इस प्रकार आदि गुरु शंकराचार्य जी को भिक्षा में 16 और वर्ष प्राप्त हो गए।
                       सर्वज्ञ थे परकाया प्रवेश करना जानते थे परंतु भिक्षा में आयु प्राप्त कर रहे थे। मंडन मिश्र एवं शंकराचार्य के बीच 7 दिनों तक शास्त्रार्थ चला प्रतिदिन उभय भारतीय कहती शंकराचार्य से आइए दीक्षा ग्रहण करिए और अपने पति से कहती आइए भोजन ग्रहण कीजिए परंतु जैसे ही मंडन मिश्र पराजित हुए उभय भारती कह उठीं आप दोनों भिक्षा ग्रहण कीजिए। मेरे पति का गुरु सर्वज्ञ हो पूर्ण हो बस यही एक महत्वकांक्षा उभय भारती जो कि साक्षात सरस्वती का अंश थी के मन में थी। अतः उन्होंने शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ किया और जानबूझकर काम शास्त्र से संबंधित प्रश्न पूछे। शंकराचार्य जी निरुत्तर हो गए गर्दन झुका कर बैठ गए क्योंकि वह बाल ब्रह्मचारी थे एवं कामशास्त्र से सर्वथा अनभिज्ञ थे। उभय भारती के पति का गुरु एक दिन सर्वज्ञ पीठ का आरोहण करेगा श्री यंत्र के बिंदु तक पहुंचेगा और अगर वह पूर्ण नहीं हुआ तो उसका पतन निश्चित है। कामशास्त्र भी शास्त्रों की गिनती में आता है इसके अभाव में सर्वज्ञता कदापि नहीं आ सकती। शंकर ने उभय भारतीय से कहा कि माता एक माह का समय भिक्षा में दे दो मैं आपके काम संबंधित प्रश्नों का उत्तर दूंगा। उभय भारती जी बोली एक क्या 2 महीने ले लो परंतु सर्वज्ञ बनो।
        कैसा दोष कैसा पाप और पुण्य कैसी परंपरा कैसा सिद्धांत कैसी लोक लज्जा कैसा भाय। हे पदमपाद यह सब बकवास बंद कर मुझे मत सिखा। मैं कामशास्त्र में पारंगत होउगा सन्यासी हूं तो क्या हुआ मेरा सन्यास धर्म भी बचा रहेगा मेरी शुद्धता भी बची रहेगी और मैं कामशास्त्र में पारंगत होकर तुझे दिखाऊंगा। जो सर्वज्ञ हो जाते हैं वह समस्त बंधनों से मुक्त हो जाते हैं एवं उसके कर्म उसका विधान पाप और पुण्य की परिधि से बाहर चले जाते हैं। वह दूसरों को दिखाने के लिए नहीं जीता उसके जीवन के क्षण लोक मर्यादा के हिसाब से नहीं चलते वह किसी परंपराओं में नहीं बंधता उस पर किसी धर्म विशेष का नियम लागू नहीं होता। वह पूर्णता स्वतंत्र होता है एवं समस्त शारीरिक व सामाजिक धार्मिक मानसिक आध्यात्मिक नियम उस पर लागू नहीं होते। आदि शंकराचार्य ने राजा अमरूक के शरीर में परकाया प्रवेश किया और अमरूक शतक नामक कामशास्त्र का निर्माण किया। एक तरफ कामशास्त्र पर ग्रंथ एक तरफ निर्वाण षटकम् एक तरफ सौंदर्य लहरी यह शंकराचार्य की विविधता।
            उपासना बड़ी विचित्र है उपासना के माध्यम से ही भगवती त्रिपुरसुंदरी जीव का विकास करती है यही श्री यंत्रम रहस्य है। मस्तिष्क एवं हृदय यह दो भाग हैं जहां पर ईश्वर के विभिन्न रूपों में से किसी भी रूप को स्थापित करके उपासना करने से उस देवता विशेष के गुण शरीर में उपस्थित होते हैं। कुछ लोग मस्तिष्क से उपासना करते हैं, कुछ लोग हृदय से उपासना करते हैं, कुछ लोग कंठ से उपासना करते हैं, कुछ लोग मूलाधार से उपासना करते हैं, कुछ लोग मणि चक्र से उपासना करते हैं, कुछ लोग स्वाधिष्ठान से उपासना करते हैं, कुछ लोग आज्ञा चक्र से उपासना करते हैं। जिस चक्र से उपासना करो जिस चक्र में देवता विशेष को स्थापित करो वैसा ही परिणाम सामने आता है परंतु पूर्ण पुरुष अपने सभी चक्रों में निर्गुण निर्विकार ब्रह्म को स्थापित कर उपासना करते हैं वही वास्तविक सन्यासी होते हैं।
                          
 शिव शासनत: शिव शासनत:

अमृतप्राप्ति व पाप निवारण मणिपुर भेदनस्तोत्र।।

          प्रत्येक साधना के मार्ग में योग सिद्धि सर्वातिशायी उपकरण है।इस चक्र के अधिपति देव लाकिनीश मृत्यंजय हैं। श्रावण में शिव के इन 31नामों से जो परमेश्वर की स्तुति करता है।उनकी कृपा होने पर चक्र भेदन एवं अमृत प्राप्ति सहज संम्भाव्य वह मणिपुर का भेदन कर रुद्र कुल को प्राप्त होता है शंकर जी प्रसन्न होकर साधक को देवत्व प्रदान करते हैं।
 
                           ।।स्तोत्र।।

          ॐ नमः परमकल्याण नमस्ते विश्वभावन।
          नमस्ते पार्वती नाथ उमाकांत नमोऽस्तुते।।

          विश्वात्मने विचिन्ताय गुणाय निर्गुणाय च। 
          धर्माय ज्ञानमक्षाय नमस्ते सर्व योगिने।।            

          नमस्ते कालरुपाय त्रैलोक्य रक्षणाय च। 
          गोलोकघातकायैव चण्डे्शाय नमोस्तुते।।        

          सधोजाताय देवाय नमस्ते शूलधारिणे।       
          कालान्ताय च कांन्ताय चैतन्याय नमो नमः।। 

         कुलात्मकाय कौलाय चन्द्रशेखर ते नमः।  
         उमानाथ नमस्तुभ्यं योगीन्द्राय नमो नमः।।

         शर्वाय सर्वपूज्याय ध्यानस्थाय गुणात्मने।       
         पार्वती प्राणनाथाय नमस्ते परमात्मने।। 

विशेष:-इसकी108 वारआवृत्ति 21दिन करने से अनुकूलता रहती है। या फिर यथा शक्ति पाठ संपन्न करें। इस स्तोत्र का नित्य 51 पाठ करने से दिव्य अनुभूतियां होनी शुरू हो जाती है।
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शास्त्रोक्त शिवपूजन ।।

        देवाधिदेव महादेव की कृपा जिसे प्राप्त हो जाय संसार में उसके लिये कुछ भी असंभव नहीं है । भगवान शिव की कृपा से मनुष्य इस लोक में नाना प्रकार के सुखों का उपभोग करते हुये मोक्ष को प्राप्त होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है । भगवान शिव जिनके तीन नेत्र हैं. मस्तक पर चन्द्रमा शुसोभित है, सांप बिच्छू आदि जिनके आभूषण हैं, अंगों में भस्म लपेटे हुये हैं, हाथ में डमरू और त्रिशूल धारण करते हैं ऐसे भक्त वत्सल भगवान शिव का स्मरण मात्र ही प्राणियों के लिये अत्यन्त कल्याणकारी है । शास्त्र साक्षी है कि जिस किसी ने भी सच्ची श्रद्धा व लगन से भगवान भोले नाथ की आराधना की है उन्होंने - प्रसन्न होकर उसे अभीष्ट सिद्धि का वरदान दिया है भले ही वह असुर ही क्यों न हो । भगवान शिव इतने दयालु हैं कि वे सामान्य या लघुत्तम विधि से आराधना करने पर भी प्रसन्न हो जाते हैं। शायद ही ऐसा कोई शास्त्र हो जिसने।।।भगवान शिव की महत्ता व श्रेष्ठता को स्वीकार न किया हो । शास्त्रों में ऐसे कई वृतान्त आये हैं कि जब-जब देवताओं पर कोई संकट आया है देवाधिदेव महादेव ने ही देवताओं की रक्षा की है। ऐसे भगवान शिव की आराधना अपने आप में ही मंगलकारक है। । 

पूजन कैसे करें -
 साधक को चाहए कि वह स्नानादि नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर पूजा स्थल में कुसासन अथवा कंबल के आसन पर बैठ जाय । पूजा स्थल का स्वच्छ एवं पवित्र होना आवश्यक है। पूजन के लिये सभी आवश्यक सामग्री अक्षत कुंकुम, रोली, चन्दन, धूप, दीप, बिल्व पत्र, दूध, दही, मधु, शक्कर, पान, सुपारी आदि अपने पास रख लें। अब उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके आसन पर बैठने के पश्चात अपने समक्ष चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर भगवान शिव की प्रतिमा या लिंग (पिण्डी) को स्थापित कर दें। धूप-दीप आदि जला लें ताकि वातावरण शुद्ध हो जाय । 
आचमन - अब आचमनी से दाहने हाथ में जल लेकर तीन बार, पियें हर बार क्रमश: निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
ॐ केशवाय नमः । 
ॐ माधवाय नमः । 
ॐ नारायणाय नमः । 

पवित्रीकरण
 आचमन के हाथ धो लें तत्पश्चात निम्न मंत्र बोलते हुये पुष्प से जल लेकर अपने ऊपर छिड़कें 
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि व । यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स वाहयाभ्यान्तरः शुचिः ।। 

अब दाहिने हाथ में पुष्प-अक्ष व जल लेकर संकल्प करें 

संकल्प - ॐ विष्णु र्विष्णुः विष्णु श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्री श्वेत वाराह कल्पेकलियुगे कलि प्रथम चरणे "अमुक" मासे 'अमुक' तिथौ 'अमुक' वासरे अमुक शर्माऽहं सर्वमंगल सिद्धि निमितं, सकल वाधा निवारणाय, सर्वपापक्षयार्थं श्री साम्ब सदाशिव प्रीत्यर्थं भगवत: श्री साम्ब सदाशिवस्य पूजनमहं करिष्ये अब जल को भूमि पर छोड़ दें।

 अब सबसे पहले सभी देवताओं में प्रथम पूज्य विघ्नहर्ता गणेश जी का स्मरण करें । दोनों हाथ जोड़कर निम्न मंत्र का उच्चारण करें। 

 गणपति स्मरण - गौरीपते नमस्तुभ्यमिहागच्छ महेश्वरः । निर्विघ्न कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥ गजाननं भूतगणाधि सेवितं कपित्थजम्बू फल चारु भक्षणम् । उमासुतं शोक विनाश कारकं, नमामि विध्नेश्वर पाद पंकज ॥ 
अब अपने गुरु का स्मरण करें । दोनों हाथ जोड़ लें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें. 

ध्यान - गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः । 

अब देवाधिदेव महादेव का ध्यान करें :-

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरि निभं चारु चन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशु मृगवराभीति हस्तंप्रसन्नम् पद्मासीनं समन्तात स्तुतममरगण्रर्व्याघ्रकृतिंवसानं विश्वाद्यं विश्ववन्धं निखिलभय हरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् आवाहन 

अब दाहिने हाथ में अक्षत लेकर भगवान शिव का आह्वान करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें

 आवाहयामि देवेशमादिमध्यान्तवर्जितम् आधारं सर्वलोकानामाभ्रितार्थ प्रदानियम ॥
 
उक्त श्लोक का उच्चारण करने के पश्चात् 'ॐ उमामहेश्वराय नम: आवाहनम् समर्पयामि” बोलते हुयए अक्षत को भूमि पर छोड़ दें। 
आसन अब भगवान शिव को आसन समर्पित करें। 
निम्न मंत्र का उच्चारण करें - 

रम्यं सुशोभनं दिव्यं सर्व सौरव्यकरं शुभम् आसन न गया दत्तं गृहाण परमेश्वर । (आसनं समर्पयामि) 

पाद्य 
आचमनी में जल लेकर भगवान शिव के चरणों में दो बार चढ़ायें । 
निम्न मंत्र का उच्चारण करें - 

उष्णोदकं निर्मलं च सर्व सौगन्ध संयुतम् । पाद प्रक्षालनार्थाय दत्तं ते प्रति गृह्यताम् ॥ (पाद्यं समर्पयामि)

 अर्ध्य 
अब दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें पुष्प अक्षत मिलाकर भगवान शिव के हाथों में अर्पित करें

तान्त्रय हरं दिव्यं परमानन्दलक्षणम् । तापत्रय विनिर्मुक्तं तवार्घ्यं कल्पयाम्हम् ॥ (अर्घ्यं समर्पयामि ) 

आचमन 
अब आचमनी में जल लेकर भगवान को तीन बार आचमन करायें 
सर्वतीर्थ समायुक्तं सुगन्धिं निर्मलं जलम् । आचमनार्थं मया दत्तं गृहीत्वा परमेश्वर ॥ (आचमनीयं जलं समर्पयामि )

 स्नान 

अब पुष्प से जल लेकर भगवान को स्नान करायें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें ।

गंगा सरस्वती रेवा पयोष्णी नर्मदा जलैः । स्नापितोऽसि मया देव तथा शातिं कुरुष्व में || (स्नानं समर्पयामि)

दुग्ध स्नान
किसी पात्र में दूध लेकर भगवान को स्नान करायें

 कामधेनु समुत्पनं सर्वेषां जीवनं परम् पावनं यज्ञ हेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् । ( दुग्ध स्नानं समर्पयामि) 

दधिस्नान 
अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये दही से स्नान कराएं

 पयसस्तु समुद्भूतं मधुराम्लं शशिप्रभम् । दध्यानीतं मया देव स्नानार्थं प्रति गृह्यताम् ॥ (दधि स्नानं समर्पयामि ) 

घृत 
स्नान अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये घृत (घी) से स्नान करायें। 

नवनीत समुत्पन्नं सर्वसंतोष कारकम् । घृतं तुभ्वं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम ॥ (घृत स्नानं समर्पयामि ) 

मधु स्नान
 निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये मधु (शहद) से स्नान करायें।

 तरुपुष्प समुद्भूतं सुस्वादु मधुरं मधु । तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम ॥ ( मधु स्नानं समर्पयामि) 

शर्करा स्नान 
अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये शक्कर से स्नान करायें।

 इक्षुसार समुद्भूता शर्करा पुष्टिकारिका । मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम ॥ (शर्करा स्नानं समर्पयामि ) 

पञ्चामृत स्नान 
अब पंचामृत (दूध, दही, शहद, पंचमेवा के मिश्रण) से स्नान करायें । निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
पयोदधि घृतं चैव मधु च शर्करायुतम् ।पञ्चामृतं मयानीवं स्नामार्थं प्रतिगृह्यताम ॥ ( पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि ) 

शुद्धोदक स्नान 
अब किसी पात्र में जल लेकर भगवान की प्रतिमा पर जलधारा छोड़ें । निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

 मन्दाकिन्यातु यद्धारि सर्वपापहरं शुभम् । तदिदं कल्पितं देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम ॥ (स्नानं समर्पयामि ) 

वस्त्र 
अब वस्त्र अर्पित करें। निम्न मंत्र का । उच्चारण करें ।

सर्वभूषादिके सौम्ये लोकलज्जा निवारणे । मयापसादिते तुभ्यं वाससी प्रति गृह्यताम् ॥ (वस्त्रं समर्पयामि) 

यज्ञोपवीत 
अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये यज्ञोपवीत अर्पित करें।

 नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम् । उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर ॥ ( यज्ञोपवीतं समर्पयामि) 

गंध 
अब धूप अगरबत्ती आदि जला लें तथा चन्दन अर्पित करें 

श्री खण्डं चन्दन दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम ॥ ( गन्धं समर्पयामि ) 

अक्षत
 निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये अक्षत (चावल) चढ़ाएं

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ता सुशोभिताः । मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर ॥ ( अक्षतं समर्पयामि ) 

इसी प्रकार पुष्प, बिल्व पत्र, तुलसी दल, दूर्वा (दूब एक प्रकार की घास). धूप, दीप, नैवेद्य, फत्नादि अर्पित करें। क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करें।

 पुष्प माल्यादीनि सुगन्धीनि मलत्यादीनि वै प्रभो मयानीतानि पुष्पाणि गृहाण परमेश्वर ॥ (पुष्पाणि समर्पयामि) 

विल्व पत्र त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रंच विधायुधं । त्रिजन्मपाप सहारं विल्व पत्रं शिर्वापर्णम् ॥ (विल्वपत्र समर्पयामि)

 तुलसी तुलसीं हेमरूपांच रत्न रूपांच मञ्जरीम् । भव मोक्षप्रदां तुभ्यमपयामि हरिप्रियाम् ॥ ( तुलसीदलं समर्पयामि)

 दूर्वा विष्ण्वादि सर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यतः । क्षीरसागर सम्भूते वंश वृद्धिकरी भव || ( दुर्वाकुरान् समर्पयामि ) 

वनस्पति रसोद्भूतो गन्धादयो गंध उत्तम । आधेय: सर्व देवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम | (धूपमाघ्रापयामि) 

दीप

आज्यं च वर्तिसयुक्तंवह्निना योजिंत मया । दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥ (दीपं दर्शयामि) 

नैवेद्य 

शर्कराघृत समाक्तं मधुरं स्वादुचोत्तमम | उपहार समुयुक्तं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम ॥ (नैवेद्यं समर्पयामि ) 

अब पुन: आचमन हेतु जल अर्पत करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

 गंङ्गाजलं समानीतं सुवर्ण कलश स्थितम् । आचम्यतां सुरश्रेष्ठ शुद्धमाचमनीयकम ॥ (आचमनीयं समर्पयामि)

 ताम्बूल पुंगीफलं अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये पान, सुपारी लौंग इलायची आदि अर्पित करें।

 पुंगीफलं महादिव्यं नागवल्ली दलैर्युतम् । एलाचुर्णादिसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥ (ताम्बूलं पुंगीफलं समर्पयामि ) 

दक्षिणा 

न्यूनातिरिक्त पूजायां सम्पूर्ण फल हेतवे । दक्षिणां कांचनीं देव स्थापयामि तवाग्रतः ॥ (द्रव्य दक्षिणां समर्पयामि)

अब शिवजी की आरती करें - 

जै शिव ओंकारा हर जै शिव ओंकारा । ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अद्धाङ्गी धारा || जै०।।

एकानन चतुरानन पंचानन राजे । हंसासन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ।। जै० ।। 

दो भुज चार चतुर्भुज दशभुज अति सोहै । तीनों रूप निरखता त्रिभुवन मन मोहै | जै० ।। 

अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी । चन्दन मृगमद चन्दा भाले शुभकारी ॥ जै० ।। 

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे । सनकादिक प्रभुतादिक भूतादिक संगे । जै०॥ 

कर के मध्य कमण्डलु चक्र त्रिशुल धर्ता । जन-कर्ता जगभर्ता जग संहार कर्ता ॥ जै०॥ 

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका । प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका । जै० ।। 

त्रिगुण स्वामीजी की आरती को कोई नर गावै। कहत शिवानन्दस्वामी मन वांछित फल पावै ॥जै० शिव ओंकारा ।। 

अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये पूजास्थल में प्रदक्षिणा करें।

 यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानिच । तानि तानि प्रणश्न्ति प्रदक्षिणा पदे पदे ॥ 

और अंत में भगवान शिव का स्मरण करते हुये क्षमा प्रार्थना करें । निम्न मंत्र का उच्चारण करें

 आवाहनं न जानामि च जानामि विसर्जनम | पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्मेव शरणं ममं । तस्मात कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष महेश्वर

नर्मदेश्वर शिवलिङ्ग का महत्व ।।



नर्मदा के कंकर सब शिव शंकर, अर्थात विश्व में यही एक मात्र अमृतदायी नदी है जिसमें प्रत्येक पत्थर लिंङ्ग का आकार ले लेता है। शास्त्रों में केवल नर्मदा में जन्मे वाण लिंङ्गों की पूजा ही गृहस्थों के लिए अति फलदायी बताई गई है। इसके प्रत्येक तट पर प्रसिद्ध शिव तीर्थों का निर्माण हुआ है। ओमकारेश्वर, ममलेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग शूल मालेश्वर मण्डलेश्वर, सिद्धनाथ, बद्रिकानाथ व्यास, अनसुईया भ्रमुक्षेत्र, आज भी प्रसिद्ध है। हरी, हर, विधि, कुबेर, स्कंध नचिकेत, नारद, वशिष्ठ व्यास, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, मारकण्डेय, पुरुरवा हिरण्यरेता आदि अगणित देवर्षि. महर्षि एवं राज ऋषियों ने अपने जीवन काल में नर्मदा के तट पर तपस्या के साथ-साथ इनका सेवन भी किया। 
               नर्मदा क्षेत्र को सम्पूर्ण तंत्रमय शिव क्षेत्र माना गया है। शिव साधकों के लिए शिव रहस्य और शिव दर्शन प्राप्त करने के लिए नर्मदा तट से बढ़कर विश्व में कोई और दिव्य स्थान नहीं है । 
             आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी नर्मदा तट पर ही दीक्षा प्राप्त की थी और उन्हीं के शब्दों में नर्मदा का महत्व यह है। 
सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु यत्फलम् । 
सर्ववेदेषु यज्ज्ञानं तत्सर्व नर्मदातटे ॥
अर्थात सम्पूर्ण तीर्थों में स्नानादि से होने वाला पुण्य तथा समस्त यज्ञों के हो चुकने पर जो फल एवं समन्त वेदाध्ययन करने पर जो ज्ञान मिलता है, वह नर्मदा जी के तट विद्यमान है। अर्थान रेवातट पर निवास करने से भोग और मोक्ष दोनों सुलभ हो जाते हैं। 
            पूजन योग्य वाणलिंङ्ग : नर्मदेश्वर लिंङ्ग जानने के लिए ऋषियों ने एक विशेष पद्धति का निर्माण किया है जिसका वर्णन नीच किया जा रहा है। सर्वप्रथम नर्मदा से प्राप्त वाणलिंङ्ग की एक अच्छे तराजू के द्वारा चावलों से तौल लीजिए। थोड़ी देर बाद उन्हीं चावलों से लिंङ्ग को पुनः तौलिये यदि कुछ चावल लिंङ्ग के वजन से बड़ जाते हैं तो उपरोक्त लिंङ्ग गृहस्थ को ऐश्वर्य देने वाला है एवं उसके लिए पूज्य है। 
          यदि कुछ चावल घटते हैं तो उपरोक्त वाणलिंङ्ग साधक के मन में वैराग्य के भाव का निर्माण करेगा। किन्तु शिव लिंङ्ग यदि दो या तीन बार तौलने पर भी चावल के समान वजन का ही है तो ऐसे लिंङ्ग का पूजन नहीं करना चाहिए अर्थात लिंङ्ग अभी पूर्ण रूप से स्वरुप में नहीं आया है अतः उसे पवित्र भाव से पुनः नर्मदा में विसर्जित कर देना चाहिए।
         खुरदरा, केवल एक और गोल छिद्रित, चिपटा, सिर की तरफ नुकीला या टेढ़ा वाणलिंङ्ग गृहस्थ पूजन में उपयुक्त नहीं है । अत्यंत काला भौरें के समान शिव लिंङ्ग ही पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है । बादल के समान श्याम रंग एवं दूधिया धारियों से युक्त, श्वेत रंग का वाणलिंङ्ग भी पूजा के लिए उपयुक्त होता है। कमल गट्टे के बराबर या फिर जामुन के फल के बराबर वाणलिंङ्ग जो कि सोने, चाँदी, तांबे किसी धातु की पीठिका में स्थापित हों तो गृहस्थ के घर में रखकर पूजा के लिए श्रेष्ठ माना गया है ।     
           पञ्चाक्षर जप : ॐ नमः शिवाय इस मंत्र को प्रणव के साथ जब गिनते हैं तो इसे षडक्षर कहते हैं और बिना प्रणव के गिनने पर इसे पञ्चाक्षर कहते हैं। इस महामंत्र का जाप सभी वर्ण के मनुष्य सभी समय कर सकते । शिव पूजन में यदि आह्वान, आचमन, स्नान, कुसा समर्पण आदि के मंत्र न आते हो तो सब क्रियाएं इस पञ्चाक्षर मंत्र के जप से ही की जा सकती है। इस मंत्र के जाप के लिए दीक्षा, संस्कार, अर्पण समय शुद्धि आवश्यक नहीं है अत: मंत्र यदा पवित्र है। 
              उपलिंग स्वयं भू लिंङ्ग का अर्थ है वह लिंङ्ग जिसकी किसी ने स्थापना नहीं की है जो कि शिव भक्त की उत्कृष्ठतम तपस्या एवं श्रद्धा से स्वयं प्रकट हुआ है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही लिंङ्गमय है । भारतवर्ष का यह सौभाग्य है कि इस धरा पर द्वादस ज्योतिर्लिंङ्ग उपस्थित हैं परंतु पृथ्वी पर और ब्रह्माण्ड के अनेकों ग्रहमण्डलों पर एक से बढ़कर एक लिंङ्ग उपस्थित हैं।

Importance of Narmadeshwar Shivling
        
            The kankars of Narmada are all Shiva Shankar, that is, this is the only nectar-daily river in the world in which every stone takes the shape of a linga. In the scriptures, only the worship of the Van Lingas born in Narmada is said to be very fruitful for the householders. Famous Shiva shrines have been built on each of its banks. Omkareshwar, Mamleshwar Jyotirlinga Shool Maleshwar Mandleshwar, Siddhanath, Badrikanath Vyas, Anasuiya Bhramukshetra, are still famous today. Hari, Har, Vidhi, Kubera, Skandha, Nachiket, Narada, Vashistha Vyasa, Kashyapa, Gautam, Bharadwaja, Markandeya, Pururava Hiranyreta etc. Countless gods. Maharishi and Raj Rishis consumed them along with penance on the banks of Narmada during their lifetime.
                The Narmada region is considered to be the entire Tantramay Shiva Kshetra. There is no other divine place in the world than the banks of Narmada for Shiva seekers to get Shiva secrets and Shiva darshan.
              Adi Guru Shankaracharya ji had also received initiation on the banks of Narmada and in his words the importance of Narmada is this.
 Sarvatirtheshu yatpunyam sarvayagyeshu yatfalam.
 Sarvavedeshu Yajgyanam Tatsarva Narmadatte Om.
 That is, the merit that comes from bathing in all the pilgrimages and the fruit of all the sacrifices and the knowledge that one gets from studying the Vedas, is present on the banks of Narmada ji. Meaning, by residing on Revat, both enjoyment and salvation become accessible.
             Worshipable Vanaling: To know the Narmadeshwar Linga, the sages have created a special method, which is being described below. First of all, weigh the Vanalinga obtained from Narmada with rice using a fine scale. After a while, weigh the linga again with the same rice, if some rice becomes bigger than the weight of the ling, then the above linga is supposed to give opulence to the householder and is worshiped for him.
           If some rice decreases then the above Vanalinga will create a feeling of dispassion in the mind of the seeker. But if the Shiva linga is of the same weight as rice even after being weighed twice or thrice, then such a linga should not be worshipped, that is, the linga has not yet come in its full form, so it should be immersed again in the Narmada with a holy spirit.
          Rough, only one round perforated, flabby, pointed or crooked wanling towards the head is not suitable in household worship. Like the very black brows, the Shiva linga is the best for worship. White colored Vanalinga is also suitable for worship. Vanaling equal to the Lotus seed or equal to the fruit of berries, if gold, silver, copper are installed in the back of any metal, then keeping it in the house of the householder is considered best for worship.
            Panchakshara Japa: Om Namah Shivaya When this mantra is counted with Pranava it is called Shadakshara and if it is counted without Pranava it is called Panchakshara. Humans of all castes can chant this Mahamantra at all times. If the mantras of invocation, achaman, bath, kusa surrender etc. do not come in Shiva worship, then all the actions can be done only by chanting this Panchakshara mantra. For the chanting of this mantra, initiation, sanskar, offering time, purification is not necessary, so the mantra is sometimes holy.
               The Upalinga swayambhu linga means the linga which has not been established by anyone, which has manifested itself by the supreme penance and devotion of the devotee of Shiva. This entire universe is lingamaya. It is the good fortune of India that Dwadas Jyotirlinga are present on this earth, but there is more than one linga present on earth and on many planets of the universe.
         
   Shiv shaasanatah Shiv shaasanatah