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नर्मदेश्वर शिवलिङ्ग का महत्व ।।



नर्मदा के कंकर सब शिव शंकर, अर्थात विश्व में यही एक मात्र अमृतदायी नदी है जिसमें प्रत्येक पत्थर लिंङ्ग का आकार ले लेता है। शास्त्रों में केवल नर्मदा में जन्मे वाण लिंङ्गों की पूजा ही गृहस्थों के लिए अति फलदायी बताई गई है। इसके प्रत्येक तट पर प्रसिद्ध शिव तीर्थों का निर्माण हुआ है। ओमकारेश्वर, ममलेश्वर ज्योतिर्लिंङ्ग शूल मालेश्वर मण्डलेश्वर, सिद्धनाथ, बद्रिकानाथ व्यास, अनसुईया भ्रमुक्षेत्र, आज भी प्रसिद्ध है। हरी, हर, विधि, कुबेर, स्कंध नचिकेत, नारद, वशिष्ठ व्यास, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, मारकण्डेय, पुरुरवा हिरण्यरेता आदि अगणित देवर्षि. महर्षि एवं राज ऋषियों ने अपने जीवन काल में नर्मदा के तट पर तपस्या के साथ-साथ इनका सेवन भी किया। 
               नर्मदा क्षेत्र को सम्पूर्ण तंत्रमय शिव क्षेत्र माना गया है। शिव साधकों के लिए शिव रहस्य और शिव दर्शन प्राप्त करने के लिए नर्मदा तट से बढ़कर विश्व में कोई और दिव्य स्थान नहीं है । 
             आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी नर्मदा तट पर ही दीक्षा प्राप्त की थी और उन्हीं के शब्दों में नर्मदा का महत्व यह है। 
सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वयज्ञेषु यत्फलम् । 
सर्ववेदेषु यज्ज्ञानं तत्सर्व नर्मदातटे ॥
अर्थात सम्पूर्ण तीर्थों में स्नानादि से होने वाला पुण्य तथा समस्त यज्ञों के हो चुकने पर जो फल एवं समन्त वेदाध्ययन करने पर जो ज्ञान मिलता है, वह नर्मदा जी के तट विद्यमान है। अर्थान रेवातट पर निवास करने से भोग और मोक्ष दोनों सुलभ हो जाते हैं। 
            पूजन योग्य वाणलिंङ्ग : नर्मदेश्वर लिंङ्ग जानने के लिए ऋषियों ने एक विशेष पद्धति का निर्माण किया है जिसका वर्णन नीच किया जा रहा है। सर्वप्रथम नर्मदा से प्राप्त वाणलिंङ्ग की एक अच्छे तराजू के द्वारा चावलों से तौल लीजिए। थोड़ी देर बाद उन्हीं चावलों से लिंङ्ग को पुनः तौलिये यदि कुछ चावल लिंङ्ग के वजन से बड़ जाते हैं तो उपरोक्त लिंङ्ग गृहस्थ को ऐश्वर्य देने वाला है एवं उसके लिए पूज्य है। 
          यदि कुछ चावल घटते हैं तो उपरोक्त वाणलिंङ्ग साधक के मन में वैराग्य के भाव का निर्माण करेगा। किन्तु शिव लिंङ्ग यदि दो या तीन बार तौलने पर भी चावल के समान वजन का ही है तो ऐसे लिंङ्ग का पूजन नहीं करना चाहिए अर्थात लिंङ्ग अभी पूर्ण रूप से स्वरुप में नहीं आया है अतः उसे पवित्र भाव से पुनः नर्मदा में विसर्जित कर देना चाहिए।
         खुरदरा, केवल एक और गोल छिद्रित, चिपटा, सिर की तरफ नुकीला या टेढ़ा वाणलिंङ्ग गृहस्थ पूजन में उपयुक्त नहीं है । अत्यंत काला भौरें के समान शिव लिंङ्ग ही पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ होता है । बादल के समान श्याम रंग एवं दूधिया धारियों से युक्त, श्वेत रंग का वाणलिंङ्ग भी पूजा के लिए उपयुक्त होता है। कमल गट्टे के बराबर या फिर जामुन के फल के बराबर वाणलिंङ्ग जो कि सोने, चाँदी, तांबे किसी धातु की पीठिका में स्थापित हों तो गृहस्थ के घर में रखकर पूजा के लिए श्रेष्ठ माना गया है ।     
           पञ्चाक्षर जप : ॐ नमः शिवाय इस मंत्र को प्रणव के साथ जब गिनते हैं तो इसे षडक्षर कहते हैं और बिना प्रणव के गिनने पर इसे पञ्चाक्षर कहते हैं। इस महामंत्र का जाप सभी वर्ण के मनुष्य सभी समय कर सकते । शिव पूजन में यदि आह्वान, आचमन, स्नान, कुसा समर्पण आदि के मंत्र न आते हो तो सब क्रियाएं इस पञ्चाक्षर मंत्र के जप से ही की जा सकती है। इस मंत्र के जाप के लिए दीक्षा, संस्कार, अर्पण समय शुद्धि आवश्यक नहीं है अत: मंत्र यदा पवित्र है। 
              उपलिंग स्वयं भू लिंङ्ग का अर्थ है वह लिंङ्ग जिसकी किसी ने स्थापना नहीं की है जो कि शिव भक्त की उत्कृष्ठतम तपस्या एवं श्रद्धा से स्वयं प्रकट हुआ है। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही लिंङ्गमय है । भारतवर्ष का यह सौभाग्य है कि इस धरा पर द्वादस ज्योतिर्लिंङ्ग उपस्थित हैं परंतु पृथ्वी पर और ब्रह्माण्ड के अनेकों ग्रहमण्डलों पर एक से बढ़कर एक लिंङ्ग उपस्थित हैं।

Importance of Narmadeshwar Shivling
        
            The kankars of Narmada are all Shiva Shankar, that is, this is the only nectar-daily river in the world in which every stone takes the shape of a linga. In the scriptures, only the worship of the Van Lingas born in Narmada is said to be very fruitful for the householders. Famous Shiva shrines have been built on each of its banks. Omkareshwar, Mamleshwar Jyotirlinga Shool Maleshwar Mandleshwar, Siddhanath, Badrikanath Vyas, Anasuiya Bhramukshetra, are still famous today. Hari, Har, Vidhi, Kubera, Skandha, Nachiket, Narada, Vashistha Vyasa, Kashyapa, Gautam, Bharadwaja, Markandeya, Pururava Hiranyreta etc. Countless gods. Maharishi and Raj Rishis consumed them along with penance on the banks of Narmada during their lifetime.
                The Narmada region is considered to be the entire Tantramay Shiva Kshetra. There is no other divine place in the world than the banks of Narmada for Shiva seekers to get Shiva secrets and Shiva darshan.
              Adi Guru Shankaracharya ji had also received initiation on the banks of Narmada and in his words the importance of Narmada is this.
 Sarvatirtheshu yatpunyam sarvayagyeshu yatfalam.
 Sarvavedeshu Yajgyanam Tatsarva Narmadatte Om.
 That is, the merit that comes from bathing in all the pilgrimages and the fruit of all the sacrifices and the knowledge that one gets from studying the Vedas, is present on the banks of Narmada ji. Meaning, by residing on Revat, both enjoyment and salvation become accessible.
             Worshipable Vanaling: To know the Narmadeshwar Linga, the sages have created a special method, which is being described below. First of all, weigh the Vanalinga obtained from Narmada with rice using a fine scale. After a while, weigh the linga again with the same rice, if some rice becomes bigger than the weight of the ling, then the above linga is supposed to give opulence to the householder and is worshiped for him.
           If some rice decreases then the above Vanalinga will create a feeling of dispassion in the mind of the seeker. But if the Shiva linga is of the same weight as rice even after being weighed twice or thrice, then such a linga should not be worshipped, that is, the linga has not yet come in its full form, so it should be immersed again in the Narmada with a holy spirit.
          Rough, only one round perforated, flabby, pointed or crooked wanling towards the head is not suitable in household worship. Like the very black brows, the Shiva linga is the best for worship. White colored Vanalinga is also suitable for worship. Vanaling equal to the Lotus seed or equal to the fruit of berries, if gold, silver, copper are installed in the back of any metal, then keeping it in the house of the householder is considered best for worship.
            Panchakshara Japa: Om Namah Shivaya When this mantra is counted with Pranava it is called Shadakshara and if it is counted without Pranava it is called Panchakshara. Humans of all castes can chant this Mahamantra at all times. If the mantras of invocation, achaman, bath, kusa surrender etc. do not come in Shiva worship, then all the actions can be done only by chanting this Panchakshara mantra. For the chanting of this mantra, initiation, sanskar, offering time, purification is not necessary, so the mantra is sometimes holy.
               The Upalinga swayambhu linga means the linga which has not been established by anyone, which has manifested itself by the supreme penance and devotion of the devotee of Shiva. This entire universe is lingamaya. It is the good fortune of India that Dwadas Jyotirlinga are present on this earth, but there is more than one linga present on earth and on many planets of the universe.
         
   Shiv shaasanatah Shiv shaasanatah


सीखने की कला ।।

         आपको मैं अगर एक शहनाई, तबला या कुम्हार का बर्तन बनाने का यंत्र दे दूँ तो इससे क्या होगा? शहनाई से या तबले से पारंगतता के अभाव में इतनी बेसुरी आवाज उत्पन्न होगी कि लोग भाग जायेंगे। मिट्टी के बर्तन पारंगतता के अभाव में आड़े-तिरछे बनेंगे। इस देश का या विश्व का सर्वश्रेष्ठ शहनाई वादक, तबला वादक, कुशल नर्तक इत्यादि में से किसी ने भी किसी विद्यालय या व्यावसायिक शिक्षण संस्थान से कोई भी डिग्री हासिल नहीं की है। साधना के मार्ग में, सीखने के मार्ग में डिग्रियों का मूल्य शून्य है । यह साधना के नकारात्मक पक्ष का प्रमाणीकरण करती है। डिग्रीधारी अगर पारंगत हों तो इस विश्व की सभी भौतिक समस्याऐं सुलझ जाय । यह पाश्चात्य प्रणाली है एवं भारतवर्ष में यह कदापि सफल नहीं हुई है और न होगी क्योंकि इसमें व्यवसाय है । व्यवसाय से साधना पक्ष में अध्यात्म समाप्त हो जाता है। और व्यवस्था यंत्रवत हो जाती है। 

           कुछ नया उत्पन्न न कर पाने की अपूर्णता का नाम ही यंत्र है। यंत्रों में उत्पत्तिकरणकी प्रक्रिया नहीं है। यह तो मात्र शाश्वत अध्यात्म का विषय है। जैसे-जैसे मनुष्य यंत्र की भांति ढलता जायेगा उसमें संतान उत्पत्तिकरण अल्प होता जायेगा यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में अधिकांशत: स्त्री-पुरुष नपुंसक होते जा रहे हैं और अब यह इस देश में भी भी फैलता जा रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाता हूँ, इस ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियाँ हैं धनात्मक और ऋणात्मक दोनों की प्रवृत्तियाँ बिल्कुल भिन्न हैं इसी प्रकार प्रत्येक जैविक व्यवस्था में नर और मादा हैं। कभी-कभी एक ही जैविक व्यवस्था में नर मादा दोनों के गुण देखने को मिलते हैं पर अधिकांशत: दोनों विपरीत धाराऐं हैं। इन दोनों धाराओं के मिलन से कुछ नया उत्पन्न होता है । सृजन की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। इसे आप क्रिया योग भी कह सकते हैं। धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियों का योग, मिलन, सुसंयोग, कुसंयोग इत्यादि इत्यादि क्षणिक एवं अल्पकालीन हैं। कुछ समय पश्चात सृजन के समाप्त होते ही यह शक्तियाँ अलग हो जाती हैं। इनके मिलनका चर्मोत्कर्ष क्षणिक ही होगा एवं मिलन के पश्चात यह पुनः शक्तिकृत या एकीकृत होने की प्रक्रिया में जुट जाती हैं जिससे कि आने वाले समय में पुनः सृजन की प्रक्रिया सम्पन्न की जा सके।

            पौराणिक ग्रंथों के हिसाब से इन्हें आप सुर (देव) या असुर शक्ति कह सकते हैं इससे ऊपर उठकर यह शक्तियाँ भगवान और शैतान के नाम से जानी जाती हैं। अनंतकाल से भगवान शिव द्वारा ऐसी ही व्यवस्था निर्मित की गई है। भगवान या देवता किसी को दण्ड नहीं देते, किसी भी कार्य में अवरोध उत्पन्न नहीं करते हैं। देव शक्तियाँ अत्यंत ही धनात्मक प्रवृत्ति की होती है। इनका काम कल्याण और मात्र देना होता है। यह योगमयी शक्तियाँ हैं विध्वंस एवं भोग में इनका विश्वास नहीं होता है। विश्व इन्हीं शक्तियों के कारण चलायमान है। दूसरी तरफ विध्वंसक, नकारात्मक और भोगी शक्तियाँ हैं जो कि साधक के मार्ग में अवरोध, दण्ड और समस्याऐं उत्पन्न करती हैं। यह शक्तियाँ मायावी हैं प्रारम्भ में तीव्र फल देती हैं परन्तु साधक के लिए धीरे-धीरे जी का जंजाल और बोझ बन जाती हैं। इन शक्तियों को सिद्ध करने वाले साधक पतोन्मुखी होते हैं। उदाहरण के लिए कर्ण पिशाचनी साधना, इसमें साधक को पिशाचनी सिद्ध करनी पड़ती है। इस प्रकार की साधनाऐं गुरु घंटाल कराते हैं। जिस साधना से साधक का पतन हो वैसी साधनाऐं कदापि नहीं करानी चाहिए। देव मार्ग से, वेद मार्ग से इसी साधना को वाणी सिद्धि साधना कहते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने त्रिकालदर्शी साधनाऐं की हैं। अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान को देखने की शक्ति विकसित की है जबकि कर्ण पिशाचनी साधना में मात्र भूतकाल की जानकारी ही प्राप्त हो सकती है। ऐसी साधनाऐं किस काम की जिससे व्यक्ति विक्षिप्त हो जाये। अधिकांशत: साधक ऊटपटांग से ऐसी साधनाऐं सम्पन्न करने लगते हैं और अंत में भूत-प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस के ग्रास बन जाते हैं। लक्ष्मी कमाने के अनेकों तरीके हैं। जुऐ, सट्टे से त्वरित धन कमाया जा सकता है परन्तु अंत क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है और धीरे-धीरे यह विष आपको तो क्या आपके सम्पूर्ण परिवार एवं वंश को भी अभिशप्त वंश तो दूर आने वाली कई पीढ़ियाँ विष ग्रस्त हो जायेंगी फिर किसी सदमार्ग पर चलने वाले गुरु को अत्यधिक मेहनत करनी पड़ेगी आपको सामान्य बनाने में हमारे शरीर में धनात्मक शक्तियों को जिसे मैं देव शक्ति कहता हूँ को वैज्ञानिक सुरक्षात्मक प्रणाली के नाम से पुकारते हैं। लाल रक्त कोशिकाएं श्वेत रक्त कोशिकाऐं जो कि स्थूल रूप में दिखती हैं परन्तु इनके पीछे अति सूक्ष्म, प्रज्ञावान और चैतन्य देव शक्तियाँ ही हैं। जो कि आपके शरीर की रोग, विषाद; शोक इत्यादि से रक्षा करती हैं। साधनात्मक स्थिति बनते ही शरीर की अति सूक्ष्म देव शक्तियाँजागृत हो जाती हैं। देखिए योगियों, साधु-संतों और ब्रह्मचारियों को कभी कोई बीमारी नहीं होती। दवा-दारू से वे सदैव दूर रहते हैं। यह है धनात्मक या दैव शक्तियों की उपासना का परिणाम दूसरी तरफ नकारात्मक शक्तियों की उपासना करने वाले आपको सदैव बीमार मिलेंगे। 
              साधनाऐं करना इसीलिए आवश्यक है। क्योंकि अगर आप अपने खेत में सोयाबीन नहीं बोयेंगे तो फिर गाजर घास, खरपतवार और अनुपयोगी पौधे चारों तरफ दिखाई देंगे। सकारात्मक साधनाऐं नहीं करोगे तो फिर मस्तिष्क में नकारात्मक शक्तियाँ आकर बैठ जायेंगी । जैसे ही खेत को बोओगे खरपतवार भी साथ में उगने लगेगी। यही विघ्न है तुरंत ही इन्हें उखाड़ फेंकना होगा। उखाड़ फेंकने का कार्य शिव की शक्ति से ही सम्पन्न होगा। शिव साधना इसीलिए आवश्यक है। सभी देवगण इसीलिए शिव को भजते हैं साधक को भी शिव को ही भजना चाहिये। दो चीजें होती हैं सिंहवाहिनी दीक्षा में पहली माँ भगवती शेर की सवारी करती हैं। शेर की सवारी कर "लो या फिर सिंह के द्वारा मारे जाओगे असुरों के समान। जो साधक माँ भगवती की उपासना करते हैं पुत्र रूप में वे भरत के समान सिंह से खेलते हैं। सिंह माँ भगवती के अधीन है। वह देव और असुरों को अच्छी तरहपहचानता है।
              द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग क्या हैं? यह सब केवल स्थूल रूप में स्थित शिव के प्रारूप हैं। शिव सर्वज्ञ हैं। हमारे शरीर में भी द्वादश अंतःस्त्रावी ग्रंथियाँ हैं। यही रस विद्या है। इन्हीं से जो रस स्त्रावित होता है वही सम्पूर्ण शरीर को पोषण, स्वास्थ्य, पुष्टता और सबलता प्रदान करता है। सम्मोहन चेहरे पर उत्पन्न नहीं होता है, उसका केन्द्र तो नाभि स्थल है इसलिए श्री हनुमंत ने ब्रह्मचर्य का मार्ग अपनाया है। ब्रह्मचारी नाभि-स्थल को ही ब्रह्माण्ड का केन्द्र मान ब्रह्म साधना सम्पन्न करते हैं। यकृत शरीर में वह स्थान है जहाँ पर भगवान शिव त्र्यम्बकेश्वर के रूप में स्थित हैं | हृदय स्थल पर वह महाकाल के रूप में स्थित हैं । काल की गणना हृदय स्पंदन से भी की जाती है। ऐसे कितने ही अन्य उदाहरण हैं। सूर्य साधना के द्वारा या फिर द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग साधना के द्वारा शरीर में स्थित सभी अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के सूर्य केन्द्र चैतन्य हो जाते हैं ।
             यह सब बातें केवल गुरु ही बता सकता है इसलिए साधनायें सद्गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए। इससे कई गुना ज्यादा प्रभाव साधक को मिल जाता है। गुरु साधक को पूर्ण रूप से कवचित कर देता है, मस्तिष्क के प्रत्येक स्तर पर बैठी नकारात्मक खरपतवार को प्रवचनों, उपदेशों, क्रियाओं और शक्तिपात के माध्यम से उखाड़ फेंकता है। गुरु का सानिध्य इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे सीखने की प्राकृतिक कला विकसित होती है। हलवाई के साथ रहते रहते उसका चेला भी जलेबी बनाना सीख जाता है । सिंहनी के साथ रहते-रहते सिंह के शावक भी शिकार करना सीख जाते हैं। सद्गुरु नदी के समान है। नदी में आप स्नान भी कर सकते हैं, अनेकों आध्यात्मिक क्रियायें भी सम्पन्न कर सकते हैं। उसमें स्नान करने के लिए शुल्क नहीं लगता है। वह सदैव पवित्र रहती है। नदी से आप भोजन भी प्राप्त कर सकते हैं। इस पृथ्वी पर करोड़ों व्यक्तियों का भोजन चाहे वह मछली के रूप में हो या किसी अन्य रूप में सीधे-सीधे नदी से ही प्राप्त होता है । एक ढेला भी खर्च नहीं करना पड़ता है मनुष्य को । नदी की सारी प्रक्रियायें स्वचलित हैं। अनंतकाल से वहप्रवाहमान है, उसका विकास करोड़ों वर्षों में हुआ है । प्राकृत संरचनाओं के सानिध्य से प्राण शक्ति स्फूर्तिवान होती है।

दूसरी तरफ बड़े-बड़े शहरों में पाँच सितारा होटलों में तरण पुष्कर हैं। इनमें शुल्क भी लगता है, इनका पानी भी व्यक्ति को रोग से ग्रसित कर देता है, निरंतर इसकी सफाई करनी पड़ती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें जीव नहीं होते। यह जीवन विहीन प्रणाली है । आपने किसी को तरण पुष्कर में मछली पकड़ते देखा है । यही फर्क है सद्गुरु और गुरु घंटालों में इस ब्रह्माण्ड में अत्यंत ही परिष्कृत शक्ति अर्जन करने की व्यवस्थायें हैं। देखिए पेड़ सूर्य के प्रकाश से भी भोजन बना लेता है। कई सौ वर्ष जीता है। पशु विशेषकर हाथी जैसा विशालकाय प्राणी मात्र वनस्पतियाँ खाकर इस पृथ्वी का सबसे ताकतवर प्राणी बना हुआ है। यह तो व्यवस्था अपनाने की कला है। योग मार्ग में साधक योग शक्ति के द्वारा ब्रह्माण्ड से ही सब कुछ खींच लेता है। जितनी सूक्ष्म व्यवस्था होगी वह उतनी ही परिष्कृत होगी। साधक का तात्पर्य ही यह है कि वह इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्ति अर्जित करने की व्यवस्थाओं को सीखे और फिर एक से एक अद्भुत दैवीय शक्तियों को अपने आप में समाहित कर ले । जो साधक जितनी ज्यादा दैवीय शक्तियाँ स्वयं में समाहित कर लेगा वह उतना ही देव तुल्य होता जायेगा। शरीर को देव तुल्य बनाना ही साधक का परम कर्तव्य है। देव तुल्य साधक जहाँजायेगा सर्वत्र प्रतिष्ठित होगा इसीलिए दैव साधनायें सम्पन्न कीजिए आदि गुरु शंकराचार्य जी के बताये मार्ग पर चलिए । प्रभु श्री राम, माता भगवती, जगद्गुरु श्री कृष्ण, श्री हनुमंत इत्यादि सभी महाशक्तियाँ आप पर कृपा बरसायेंगी। सभी सद्गुरु आपको आशीर्वाद प्रदान करेंगे। साधनाऐं अमंगल को मंगल बनाती हैं। यही वेदान्त दर्शन हैं, वेदान्त दर्शन बैकुण्ठ का मार्ग है।
                     
     शिव शासनत: शिव शासनत:

आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा रचित शिव मानस पूजन ।।

        मानस पूजन एक ऐसा साधन है जो साधक को ईष्ट के निकट ले जाता है साधक का जितना समय मानस पूजन में बीतता है उतने समय वह इस जगत की सभी समस्याओं से विमुख हो ईश्वर के सम्पर्क में रहता है। वैदिक ग्रंथों में मानस पूजन का विशेष महत्व बताया गया है इस पूजन से सामान्य उपासना से हजार गुना अधिक फल मिलता है । वैसे भी भगवान को फूल, फल, नैवेद्य, पकवान,रत्न, द्रव्य, दक्षिणा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है वे तो बस भाव की अपेक्षा रखते हैं। वस्तुतः विभिन्न वस्तुयें अर्पित कर साधक अपना भाव ही प्रदर्शित करता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि अर्न्तमन से कल्पित एक भी पुष्प चढ़ा दिया जाय तो वह करोड़ों बाहरी फूल चढ़ाने के बराबर होता है। इसी प्रकार मन: कल्पित अर्थात मानसिक रूप से, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य आदि भगवान को करोड़ों गुना अधिक संतोष देंगे । वैसे भी इस संसार में जो कुछ भी है उसी ईश्वरीय सत्ता की देन है संसार में ऐसा कोई दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं है जिससे भगवान का पूजन किया जा सके इसीलिये वैदिक ग्रंथ मानस पूजन पर जोर देते हैं। मानस पूजन में साधक साम्बसदाशिव को सुधा सिन्धु से आप्लावित कैलाश शिखर पर कल्पवृक्षों से आवृत कदम्ब वृक्षों से युक्त मुक्तामणि मण्डित भवन में चिंतामणि से निर्मित सिंहासन पर विराजमान कर स्वर्ग लोक की मन्दाकिनी गङ्गाजल से स्नान कराता है, कामधेनु गाय के दुग्ध से पञ्चामृत कानिर्माण करता है । वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं । पृथिवीरूपी गन्ध का अनुलेपन करता है। अपने आराध्य के लिये कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्ण कमल पुष्पों का चयन करता है । भावना से वायुरूपी धूप, अग्नि रूपी दीपक तथा अमृत रूपी नेवैद्य भगवान को अर्पण करने की विधि है। इसके साथ ही त्रिलोक की सम्पूर्ण वस्तु, सभी उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्मप्रभु के चरणों में भावना से भक्त अर्पण करता है। यह है मानस-पूजा का स्वरूप । इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणों में वर्णित है । जो इस प्रकार है

 ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि । ..( प्रभो ! मैं पृथिवीरूप पुष्प गन्ध ( चन्दन) आपको अर्पित करता हूँ । )

 ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि । (प्रभो ! मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ।) 

ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि । (प्रभो ! मैं वायुदेव के रूप में धूप आपको प्रदान करता हूँ । ) 

ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं दर्शयामि । (प्रभो ! मैं अग्निदेव के रूप में दीपक आपको प्रदान करता हूँ ।) 

ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि । (प्रभो ! मैं अमृत के समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ ।) 

ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं समर्पयामि ।( प्रभो ! मैं सर्वात्मा के रूप में संसार के सभी उपचारों को आपके चरणों में समर्पित करता हूँ ।) 

          इन मन्त्रों से भावनापूर्वक मानस पूजन की जा सकती है । मानस पूजन से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजन में भी रस मिलने लगता है । यद्यपि इसका प्रचार कम है तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिये । यहाँ आप सभी के के लाभार्थ भगवान् शंकराचार्य विरचित 'मानस-पूजनस्तोत्र' मूल तथा हिन्दी अनुवाद के साथ दे रहा हूं।

शिवमानस पूजन -- 

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम् । जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा. दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥ 

           हे दयानिधे ! हे पशुपते ! हे देव ! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागन्धसमन्वित चन्दन, जुही, चम्पा और बिल्वपत्र रचित पुष्पाञ्जलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक ( पूजनोपहार ) ग्रहण कीजिये । 

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् । 
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥ 

            मैने नवीन रत्नखण्डों से रचित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधिसहित पाँच प्रकार का व्यञ्जन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और ताम्बूल - ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं, प्रभो ! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये ।

छत्रं चामरयोर्युग्मं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा । 
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजनं गृहाण प्रभो ॥ 

          छत्र, , दो चामर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदङ्ग, दुन्दुभी के वाद्य, गान और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविध स्तुति- ये सब मैं संकल्प से ही आपको समणि करता हूँ, प्रभो ! मेरा यह पूजन ग्रहण कीजिये ।

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं पूजन ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति: ।
 सञ्चर: पदयो: प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ 

          हे शम्भो ! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वती जी हैं, प्राण आप के गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय भोग की रचना आपका पूजन है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं, इस प्रकार मैं जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है । 

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् । 
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥ 

            प्रभो ! मैने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से जो भी अपराध किये हों, वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिये । हे करुणासागर श्री महादेव शंकर! आपकी जय हो ।

वार (दिन) के अनुसार प्रदोष व्रत का फल ।।

          रवि प्रदोष - यदि प्रदोष रविवार के दिन हो तो इसका व्रत मनुष्यों के लिये श्रेष्ठ है जो मनुष्य श्रद्धाभक्ति पूर्वक रवि प्रदोष का व्रत करता है तथा सायंकाल भगवान शिव की पूजा करता है उसकी समस्त कामना पूर्ण हो जाती है और वह सदा ही तेज से युक्त रहता है। 

        सोम प्रदोष - सोम प्रदोष और भी अधिक फल देने वाला है सोम प्रदोष को जो भी मनुष्य सायंकाल भगवान शिव की पूजा-अर्चना, जाप आदि करता है वह इस पृथ्वी पर सुखों का भोग करते हुये अंत में शिव स्वरूप को प्राप्त होता है।

         मंगल प्रदोष - भौम प्रदोष भी उत्तम फलदायक है। भौम प्रदोष का व्रत करने तथा संध्या के समय भगवान शिव का पूजन करने मात्र से मनुष्य सदा रोगों से मुक्त रहता है साथ ही उसका इस पृथ्वी पर कोई शत्रु नहीं होता और स्त्री, संतान, धन, यश से सदा पूर्ण रहता हैं।

        बुध प्रदोष - यदि कभी सौभाग्यवश बुध प्रदोष करने का अवसर मिले तो मनुष्य को चाहिये कि सायंकाल में भगवान शिव की पूजा करें तो उसके गृहगोचर सदा शांत रहते हैं और यश, प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है । 

        गुरु प्रदोष - गुरु प्रदोष तो स्वयं ही सिद्धि को प्रदान करने वाला होता है। गुरु प्रदोष में जो सायंकाल श्रद्धा भक्ति पूर्वक भगवान शिव की पूजा करता है उसे अष्ट सिद्धियों में से बहुत सी सिद्धियाँ शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है साथ ही वह इस पृथ्वी पर सदैव गुरु के समान पूज्यनीय रहता है । 

         शुक्र प्रदोष - शुक्र प्रदोष मनुष्य के लिये राशि के अनुसार फल को प्रदान करने वाला है। शुक्र प्रदोष में सायंकाल भगवान शिव का पूजन करने से मनुष्य को उसकी राशि के अनुसार शुभ फल की प्राप्ति होती है। 

         शनि प्रदोष - शनि प्रदोष को अन्य सभी प्रदोषों से श्रेष्ठ माना गया है। शनि प्रदोष को सायंकाल भगवान शिव का पूजन करने से मनुष्य को शीघ्र ही मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है तथा उसे कभी भी शनि महाराज का भय नहीं रहता ।

महामृत्युंजय शिव ।।

       "शिव-शक्ति" के मूलांश का उपयोग कर ब्रह्मा ने तत्व आधारित जीवन की संरचना की। आधारविहीन, निराधार, सर्वमुक्त, जन्म, मृत्यु, क्षय इत्यादि से सर्वथा मुक्त अमृतांश अर्थात शिव और शक्ति के अंश, शिव और शक्ति के मूलांश को ही मुमुक्षजन आत्मा कहते हैं। कृष्ण ने कहा आत्मा अजर अमर है। गीता में वृहदता के साथ आत्मा रूपी इसी मूलांश पर प्रभु श्रीकृष्ण ने दिव्य आख्यान दिया है। सनातन धर्म मूलांश पर केन्द्रित है इसलिए जीवन आधारित शरीर या तत्वों को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया है। "आत्मा अजर अमर है शरीर नश्वर है" सनातन धर्म के मूल में यह सिद्धांत पूर्ण रूप से सुशोभित है। जियों और जीने दो, जीने का अधिकार सबसे परम, सबसे चरम शैव चिंतन है। परम देव शिव का महामृत्युंजय स्वरूप उनके सभी शैव स्वरूपों में सबसे आदी स्वरूप है। महामृत्युंजय स्वरूप को इस सृष्टि का सबसे प्रथम बिन्दु माना जा सकता है क्योंकि इसी स्वरूप में शिव शस्त्रविहीन हैं, अस्त्रविहीन हैं। एक हाथ में अक्षयमाला है, एक हाथ मृगी मुद्रा दर्शा रहा है, चार हाथ अमृत कलशों को उनके मस्तक पर प्रवाहित कर रहे हैं तो दो हाथपूर्ण सुरक्षा के साथ अमृत कुम्भों को थामे हुए हैं, अमृतेश्वरी उनकी बायीं जंघा पर विराजमान हैं पूर्ण तन्मयता के साथ अस्वविहीन शिव ग्रास विहीनता का परिचायक हैं। अस्त्रों का अमृताभिषेक नहीं हुआ भगवान शिव के त्रिशूल, चाप, बाण, गदा, परशु पर अमृत नहीं छलका, शिव के समस्त वाहन, गण, क्षेत्रपाल इत्यादि भी इस स्वरूप में उनके पास नहीं हैं। अमृतमय कोश में केवल अमृतेश्वर और अमृतेश्वरी ही मौजूद हैं अन्य सबका प्रवेश निषिद्ध है। इस चर्मोत्कर्ष स्वरूप के समय समस्त ब्रह्माण्ड शिव में शयन करता है, सृष्टि का प्रपंच शून्य होता है, समस्त सृष्टि कोलाहल विहीन होती है। अमृत सिंचन के समय सृष्टि जो कि कई कल्प कल्पांतकों तक आघात, ग्रास, ग्रहण, प्रतिघात स्व घात, मृत्यु, रोग, विष इत्यादि से पीड़ित होती है वह पुनः समग्रता के साथ शिव में शयन करती हुई शुद्धता, चैतन्यता को प्राप्त होती है। सृष्टि का प्रारम्भ अमृताभिषेक के पश्चात् ही सम्पन्न होता है कालान्तर उसमें अनियमितता, नाना प्रकार के दोष, दूषितता एवं कुरुपता कर्म के सिद्धांत के कारण उदित हो उठती है। मलग्रस्त, मलोत्पादक, मलयुक्त सृष्टि का शुद्धिकरण भगवान मृत्युंजय शिव के द्वारा हीसम्पन्न होता है। मृत्युंजय स्वरूप मल शून्यता, ताप शून्यता का परिचायक है अतः साधक इस स्वरूप की उपासना के माध्यम से अपने आपको पुनः मल शून्य बनाने में सक्षम होता है जिसमें जितना अल्प जीवन के प्रत्येक तल पर मलोत्पादन होगा वह उतना ही उच्च कोटि का अमृत ग्रहणकर्ता बनेगा। मलोत्पादन उसी में अल्प होगा जो न्यूनतम् मात्रा में मलयुक्त, मल निर्माण में संलग्न ग्रासों को ग्रहण करेगा फिर भी मलोत्पादन तो हो ही जाता है। सनातन धर्म में से दो विलक्षण शाखायें निकली जैन धर्म और बौद्ध धर्म महावीर ने कहा जियो और जीने दो, बुद्ध ने अहिंसा का प्रतिपादन किया इन दोनों से पहले भी असंख्य ऋषि-जनों ने उपरोक्त सिद्धांतों का इनसे भी अधिक ऊपर की आवृत्तियों तक अनुसंधान किया, इनसे भी प्रचण्ड तप किया, इनसे भी प्रचण्ड आंतरिक रूप से वे परम शैव मागीय थे। व्यक्तिगत तौर पर ये सब अमृत्व को प्राप्त कर गये, ग्रहण, ग्रास, ग्रसित करने और होने की स्थिति से ऊपर उठ गये, मृत्युंजयी शिव में विलीन हो गये, अमृत्यु को प्राप्त हुए। यूं तो लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर भी ग्रसित होते हैं। कर्म बंधनों में बंध पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, स्वर्गारोहण से लेकर नर्कारोहण तक करते हैं परन्तु महामृत्युंजय साधना के द्वारा लिंग शरीर, सूक्ष्म शरीर अमृत्व को प्राप्त होता है एवं वह समस्त ब्रह्माण्ड में निर्विघ्न हो कहीं भी किसी भी लोक में क्रिया करने में सक्षम होता है। साथ ही साथ सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर के बीच एक निश्चित आयु तक सामंजस्य, अखण्डता भी महामृत्युंजय साधना के द्वारा साधक बनाने में सक्षम होता है। मूल रूप से महामृत्युंजय तंत्रम सर्वव्यापक है इसकी शक्ति से युक्त लिंग शरीर को ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण करने की पूर्ण आजादी होती है एवं इस प्रकार के दिव्य लिंग शरीर जब शिव आदेश के कारण पंचभूतीय शरीर धारण करते हैं तो उनके स्थूल शरीर की दैवीय रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं।
                                 
 शिव शासनत: शिव शासनत:

Maha Mrityunjay
               Using the radiance of "Shiva-Shakti", Brahma created the element based life. Baseless,baseless, all liberated, completely free from birth, death,decay etc. Amritansh i.e. parts of Shiva and Shakti,Moolansh of Shiva and Shakti is called mumukkshajan soul. Krishna said that the soul isimmortal. In the Gita, Lord Shri Krishna hasgiven a divine narration on this radiancein the form of soul with greatness.Sanatan Dharma is centered on Mulansha, so no special importance isgiven to the life based body orelements. 
          This principle is completely embellished at the core of SanatanDharma, "The soul is immortal, the body is mortal". Live and letlive, the right to live isthe ultimate, mostextreme Shaivite thought.The Mahamrityunjaya form ofthe supreme god Shiva is themost accustomed formamong allhis Shaivite forms.Mahamrityunjaya form can be considered as the first point of this creation because in this form Shiva is weaponless, weaponless. One hand is holding Akshayamala, one hand is showing mrigi mudra, four handsare pouring nectar urns on their heads and two hands.voice is holding the nectar Kumbhas with complete protection,Amriteshwari is seated on his left thigh, with perfecttautness, the impeccable Shiva is a symbol of era lessness. Amritabhishek of weapons was not done, Lord Shiva's trident, arc, arrow, mace, nectar was not spilled on Parashu, all the vehicles of Shiva, Gana, Kshetrapal etc.
         were also in this form.They don't have. Only Amriteshwar and Amriteshwariare present in Amritmay Kosh, entry of all othersis prohibited. At the time of this climax form, the entire universe sleeps in Shiva, theuniverse is devoid of noise, the whole creationis devoid of noise. At the time of nectar irrigation, the creation which has been there for many Kalpan taks of trauma, loss, eclipse, rebound, self-immolation, He who is afflicted by death,disease, poison etc., againattains purity,consciousness whilesleeping in totalityin Shiva. The beginning of the creation of Amritabhishek It is accomplished only after that, aftera time irregularity, various types of defects,contamination and ugliness arise due to the principle of karma. The purification of the excreted, excretory, excretory creation is done only by Lord Mrityunjay Shiva.
             It gets accomplished. The form of Mrityunjay is a sign of emptiness, heat emptiness, therefore,through the worship of this form, the seeker isable to make himself void again, in which the moreexcreta is produced at each level of his short life, the more he will become a recipient of nectarof a higher order. The production of excreta will beless in that which will take the least amount of feces,the wastes involved in the formation of sewage, yet the production of excreta is done. Two unique branches emerged from Sanatan Dharma, Jainism and Buddhism. Mahavira said live and let live ,Buddha propounded non-violence, even before these two innumerable sages researched the aboveprinciples to even higher frequencies, He did alot of penance even from them, even more intensethan these, internally he was the supreme Shaivite. Individually they all attained immortality, roseabove the state of being eclipsed, possessed, possessedand possessed, merged with Mrityunjayi Shiva, attainedimmortality. In this way, the linga body and the subtlebody are also affected. In the bonds of karma, the bondsare attained in rebirth, from ascension to heaven,but through the practice of Mahamrityunjaya, the linga body ,the subtle body attains immortality and it is able tofunction in any world, anywhere in the whole universe.Is. At the same time, harmony and integrity betweenthe subtle body and the gross body up toa certain age is also capable of making a seeker through Mahamrityunjaya sadhna. Basically MahamrityunjayaTantram is omnipresent, the linga body with its power has complete freedom to move anywhere in theuniverse and when such a divine linga body assumesthe Panchabhutiya body due to Shiva's order, the divine protection of his gross body itself. Lord Shiva does.