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देव दीपावली ।।

🪔 देव दीपावली पर्व उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में दीपावली के पंद्रह दिन पश्चात कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। गंगा नदी के किनारे रविदास घाट से लेकर राजघाट के अंत तक असंख्य दीपक प्रज्वलित करके गंगा नदी की पूजा अर्चना की जाती हैं। असंख्य दीपकों और झालरों के प्रकाश से तट एवं घाटों पर स्थित देवालय, भवन, मठ-आश्रम आदि जगमगा उठते हैं, मानों काशी में पूरी आकाशगंगा ही उतर आयी हों। दीप-दान करने के पश्चात, महाआरती दिन का मुख्य आकर्षण है जो दशाशव्मेध घाट पर आयोजित होता है। वाराणसी की महान हस्तियों द्वारा नृत्य प्रदर्शन भी किया जाता है।

भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय का जन्म इस दिन हुआ था इसलिए इस दिवस को कार्तिक पूर्णिमा कहते हैं। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। त्रिपुरासुर के अंत से प्रसन्न देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप प्रज्वलित कर दीपोत्सव मनाया था और तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली मनायी जाने लगी।

इस दिन भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था। कार्तिक पूर्णिमा को श्री हरि के बैकुण्ठ धाम में देवी तुलसी का मंगलमय पराकाट्य हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा को ही देवी तुलसी पृथ्वीलोक में अवतरित हुई थी। भगवान कृष्ण के धाम गोलोक में इस दिन राधा उत्सव मनाया जाता है तथा रासमण्डल का आयोजन होता है। 

सिख पंथ में कार्तिक पूर्णिमा का दिन प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सिख पंथ के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था। गुरु नानक के माता-पिता सनातन धर्मी थे, पिता का नाम कालूचंद मेहता और माता तृप्ता देवी थी। 

जैन पंथ में कार्तिक पूर्णिमा का दिन बहुत महत्वपूर्ण हैं। पहले तीर्थंकर आदिनाथ ने अपना पहला उपदेश कार्तिक पूर्णिमा को शत्रुंजय पर्वत पर दिया था, जैन ग्रंथो के अनुसार इस पर्वत पर सैकड़ों साधु साध्वियों ने मोक्ष प्राप्त किया है। कार्तिक पूर्णिमा को असंख्य जैन तीर्थयात्री शत्रुंजय पर्वत की तीर्थ यात्रा करते हैं और पर्वत पर स्थित भगवान आदिनाथ मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं।

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रक्षाबंधन और भाई दूज में अंतर ।।


भाई दूज का त्योहार आज देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई का तिलक करती हैं। उसका स्वागत सत्कार करती हैं और उनके लम्बी उम्र की कामना करतीं हैं। भाई दूज के दिन भाई के माथे पर तिलक लगाने की प्रथा के बारे में तो सब जानते हैं, इस त्योहार में कई अन्य लोग भी शामिल हो सकते हैं। भाई दूज का पवित्र त्योहार स्नेह और सम्मान का पर्व है। इसलिए घर के जिस भी सदस्य के प्रति आपका स्नेह ज्यादा है उनके माथे पर भी आप चंदन का टीका लगा सकती हैं। जैसे कि कई परिवारों में भाई के साथ-साथ भतीजे के माथे पर भी टीका करने का रिवाज होता है। भाई और भतीजे के अतिरिक्त महिलाएं घर के सबसे छोटे सदस्यों को भी टीका लगा सकती हैं। आप चाहें तो भाई के किसी प्रिय मित्र को भी भाई दूज पर तिलक लगा सकती हैं। इस दिन कई जगहों पर तो भगवान गणेश के माथे पर भी तिलक लगाया जाता है। ऐसा करके महिलाएं उनसे सुख-समृद्धि का वरदान पाती हैं। गणेश को तिलक लगाने के बाद भाई की तरह ही नारियल और मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं।

यह पर्व नहीं बल्‍कि एक ऐसी भावना है जो रेशम की कच्‍ची डोरी के द्वारा भाई-बहन के प्‍यार को हमेशा-हमेशा के लिए संजोकर रखती है। रक्षा बंधन का त्‍योहार हिन्‍दू धर्म के बड़े त्‍योहारों में से एक है, जिसे देश भर में धूमधाम और पूरे हर्षोल्‍लास के साथ मनाया जाता है। यह त्‍योहार भाई-बहन के अटूट रिश्‍ते, प्यार‍, त्याग और समर्पण को दर्शाता है। इस दिन बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी या रक्षा सूत्र बांधकर उसकी लंबी आयु और मंगल कामना करती हैं। वहीं, भाई अपनी प्यारी‍ बहन को बदले में भेंट या उपहार देकर हमेशा उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं। यह इस बहन को बदले में भेंट या उपहार देकर हमेशा उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं. यह इस त्योहार की विशेषता है कि न सिर्फ हिन्‍दू बल्‍कि अन्‍य धर्म के लोग भी पूरे जोश के साथ इस त्‍योहार को मनाते हैं। 

भाई दूज और रक्षा बंधन का त्योहार दोनों ही भाई बहन के रिश्तों से जुड़ा हुआ त्योहार है। रक्षा बंधन जहां हिन्दू माह श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है वहीं भाई दूज कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। भाई दूज दीपावली के पांच दिनी महोत्सव का अंतिम दिन होता है। 

>> रक्षा बंधन और भाई दूज में प्रमुख अंतर <<

1👉 भाई दूज का त्योहार यमराज के कारण हुआ था, इसीलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं, जबकि रक्षा बंधन का प्रारंभ जहां राजा बली, इंद्र और भगवान श्रीकृष्ण के कारण हुआ था वहीं।

2👉 रक्षा बंधन के दिन बहनों का विशेष महत्व होता है। रक्षा बंधन में भाई के घर जा कर बहने राखी बांधतीं हैं और भाई उन्हें उपहार देता है जबकि भाई दूज के दिन भाई बहनों के घर जा कर टिका कराता है और बहनें, उसे तिलक लगाकर उसकी आरती उतारकर उसे भोजन खिलाती है।

3👉 रक्षा बंधन को संस्कृत में रक्षिका या रक्षा सूत्र बंधन कहते हैं जबकि भाई दूज को संस्कृत में भागिनी हस्ता भोजना कहते हैं।

4👉 रक्षा बंधन 'रक्षा सूत्र' मौली या कलावा बांधने की परंपरा का ही एक रूप है आधुनिक युग में विभिन्न तरह की राखियाँ आ गयी है जिनसे इस पर्व की परम्परा को निभाया जाता है, जबकि भाई दूज में ऐसा नहीं है। भाई दूज किसी अन्य परंपरा से निकला त्योहार नहीं है, बल्कि यम द्वारा यमुना को दिए गए आशीर्वाद और वचन के फलस्वरूप इस पर्व को मनाया जाता है।

5👉 रक्षा बंधन को राखी का त्योहार भी कहते हैं और प्राय: इसे दक्षिण भारत में नारियल पूर्णिमा के नाम से अलग रूप में मनाया जाता है जबकि भाई दूज के अन्य प्रांत में नाम अलग अलग है लेकिन यह त्योहार भाई और बहन से ही जुड़ा हुआ है। इसे सौदरा बिदिगे (कर्नाटक), भाई फोटा (बंगाल) में भाई दूज को इस अन्य नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र में भाऊ बीज, गुजरात में भौ या भै-बीज कहते हैं तो अधिकतर प्रांतों में भाई दूज। भारत के बाहर नेपाल में इसे भाई टीका कहते हैं। मिथिला में इसे यम द्वितीया के नाम से ही मनाया जाता है।

6👉 रक्षा बंधन पर महाराजा बली की कथा सुनने का प्रचलन है जबकि भाईदूज पर यम और यमुना की कथा सुनने का प्रचलन है।रक्षा बंधन पर बहनें अपने भाई को राखी बांधती हैं जबकि भाई दूज पर सिर्फ तिलक लगाया जाता है।

7👉 रक्षा बंधन पर मिष्ठान खिलाने का प्रथा है जबकि भाई दूज पर भाई को भोजन के बाद पान खिलाने का प्रथा है। मान्यता है कि पान भेंट करने से बहने अखण्ड सौभाग्यवती रहती है।

8👉 भाई दूज पर जो भाई-बहन यमुनाजी में स्नान करते हैं, उनको यमराजजी यमलोक की प्रताड़ना नहीं देते हैं। इस दिन मृत्यु के देवता यमराज और उनकी बहन यमुना का पूजन किया जाता है जबकि रक्षा बंधन पर ऐसा नहीं होता है।



गोवत्स द्वादशी ( बछ बारस )।।

बछ बारस को गौवत्स द्वादशी और बच्छ दुआ भी कहते हैं। बछ बारस कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। आइये जानें इसका महत्त्व।
बछ यानि बछड़ा, गाय के छोटे बच्चे को कहते हैं। *इस दिन को मनाने का उद्देश्य गाय व बछड़े का महत्त्व समझाना है। यह दिन गोवत्स द्वादशी के नाम से भी जाना जाता है।* गोवत्स का मतलब भी गाय का बच्चा ही होता है।
          
कृष्ण भगवान को गाय व बछड़ा बहुत प्रिय थे तथा गाय में सैकड़ो देवताओं का वास माना जाता है। गाय व बछड़े की पूजा करने से कृष्ण भगवान का, गाय में निवास करने वाले देवताओं का और गाय का आशीर्वाद मिलता है जिससे परिवार में खुशहाली बनी रहती है ऐसा माना जाता है।
इस दिन महिलायें बछ बारस का व्रत रखती है। यह व्रत सुहागन महिलाएँ सुपुत्र प्राप्ति और पुत्र की मंगल कामना के लिए व परिवार की खुशहाली के लिए करती हैं। गाय और बछड़े का पूजन किया जाता है। 
           
इस दिन गाय का दूध और दूध से बने पदार्थ जैसे दही, मक्खन, घी आदि का उपयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा गेहूँ और चावल तथा इनसे बने सामान नहीं खाये जाते।
        
भोजन में चाकू से कटी हुई किसी भी चीज का सेवन नहीं करते है। इस दिन अंकुरित अनाज जैसे चना, मोठ, मूंग, मटर आदि का उपयोग किया जाता है। भोजन में बेसन से बने आहार जैसे कढ़ी, पकोड़ी, भजिये आदि तथा मक्के, बाजरे, ज्वार आदि की रोटी तथा बेसन से बनी मिठाई का उपयोग किया जाता है।
        
बछ बारस के व्रत का उद्यापन करते समय इसी प्रकार का भोजन बनाना चाहिए। उजरने में यानि उद्यापन में बारह स्त्रियाँ, दो चाँद सूरज की और एक साठिया इन सबको यही भोजन कराया जाता है। 
शास्त्रों के अनुसार इस दिन गाय की सेवा करने से, उसे हरा चारा खिलाने से परिवार में महालक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा परिवार में रोग, अकालमृत्यु की सम्भावना समाप्त होती है।

         बछ बारस की पूजा विधि 

सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर शुद्ध कपड़े पहने। दूध देने वाली गाय और उसके बछड़े को साफ पानी से नहलाकर शुद्ध करें। गाय और बछड़े को नए वस्त्र ओढ़ाएँ। फूल माला पहनाएँ। उनके सींगों को सजाएँ। उन्हें तिलक करें। 
           
गाय और बछड़े को भीगे हुए अंकुरित चने अंकुरित मूंग, मटर, चने के बिरवे, जौ की रोटी आदि खिलाएँ। गौ माता के पैरों धूल से खुद के तिलक लगाएँ। 
           
इसके बाद बछ बारस की कहानी सुने। इस प्रकार गाय और बछड़े की पूजा करने के बाद महिलायें अपने पुत्र के तिलक लगाकर उसे नारियल देकर उसकी लंबी उम्र और सकुशलता की कामना करें। उसे आशीर्वाद दें। 
           
बड़े बुजुर्ग के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लें। अपनी श्रद्धा और रिवाज के अनुसार व्रत या उपवास रखें। मोठ या बाजरा दान करें। सासुजी को बयाना देकर आशीर्वाद लें।
यदि आपके घर में खुद की गाय नहीं हो तो दूसरे के यहाँ भी गाय बछड़े की पूजा की जा सकती है। ये भी सम्भव नहीं हो तो गीली मिट्टी से गाय और बछड़े की आकृति बना कर उनकी पूजा कर सकते है। 
           
कुछ लोग सुबह आटे से गाय और बछड़े की आकृति बनाकर पूजा करते है। शाम को गाय चारा खाकर वापस आती है तब उसका पूजन–धूप, दीप, चन्दन, नैवेद्य आदि से करते है।

      बछ बारस की कहानी (1)

एक बार एक गाँव में भीषण अकाल पड़ा। वहाँ के साहूकार ने गाँव में एक बड़ा तालाब बनवाया परन्तु उसमे पानी नहीं आया। साहूकार ने पण्डितों से उपाय पूछा। पण्डितों ने बताया की तुम्हारे दोनों पोतों में से एक की बलि दे दो तो पानी आ सकता है। 
           
साहूकार ने सोचा किसी भी प्रकार से गाँव का भला होना चाहिए। साहूकार ने बहाने से बहु को एक पोते हंसराज के साथ पीहर भेज दिया और एक पोते को अपने पास रख लिया जिसका नाम बच्छराज था। बच्छराज की बलि दे दी गई। तालाब में पानी भी आ गया।
          
साहूकार ने तालाब पर बड़े यज्ञ का आयोजन किया। लेकिन झिझक के कारण बहू को बुलावा नहीं भेज पाये।
           
बहु के भाई ने कहा–‘तेरे यहाँ इतना बड़ा उत्सव है तुझे क्यों नहीं बुलाया ? मुझे बुलाया है, मैं जा रहा हूँ।’ 
           
बहू बोली–‘बहुत से काम होते हैं इसलिए भूल गए होंगें, अपने घर जाने में कैसी शर्म, मैं भी चलती हूँ।’
घर पहुँची तो सास ससुर डरने लगे कि बहु को क्या जवाब देंगे। 
सास बोली–‘बहु चलो बछ बारस की पूजा करने तालाब पर चलें।’ दोनों ने जाकर पूजा की।

सास बोली–‘बहु तालाब की किनार कसूम्बल से खण्डित करो।’ 
           
बहु बोली–‘मेरे तो हंसराज और बच्छराज है, मैं खण्डित क्यों करूँ ?’ 
           
सास बोली–‘जैसा मैं कहूँ वैसे करो।’ बहू ने सास की बात मानते हुए किनार खण्डित की और बोली।
           
बहु ने कहा–‘आओ मेरे हंसराज, बच्छराज लडडू उठाओ।’ सास मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी–‘हे बछ बारस माता मेरी लाज रखना।’
         
भगवान की कृपा हुई। तालाब की मिट्टी में लिपटा बच्छराज व हंसराज दोनों दौड़े आये। 
बहु पूछने लगी–‘सासूजी ये सब क्या है ?’ 
           
सास ने बहु को सारी बात बताई और कहा–‘भगवान ने मेरा सत रखा है। आज भगवान की कृपा से सब कुशल मंगल है। खोटी की खरी, अधूरी की पूरी। हे बछ बारस माता ! जैसे इस सास का सत रखा वैसे सबका रखना।’

       बछ बारस की कहानी (2)

एक सास बहु थीं। सास को गाय चराने के लिए वन में जाना था। 
सास ने बहु से कहा–‘आज बछ बारस है मैं वन जा रही हूँ तो तुम गेहूँ लाकर पका लेना और धान लाकर उछेड़ लेना।’
          
बहु काम में व्यस्त थी, उसने ध्यान से सुना नहीं। उसे लगा सास ने कहा गेहूंला धानुला को पका लेना। गेहूला और धानुला गाय के दो बछड़ों के नाम थे। 
           
बहु को कुछ गलत तो लग रहा था लेकिन उसने सास का कहा मानते हुए बछड़ों को काट कर पकने के लिए चढ़ा दिया ।
          
सास ने लौटने पर कहा–‘आज बछ बारस है, बछड़ों को छोड़ो पहले गाय की पूजा कर लें।’ बहु डरने लगी, भगवान से प्रार्थना करने लगी बोली–‘हे भगवान ! मेरी लाज रखना।’
          
भगवान् को उसके भोलेपन पर दया आ गई। हांड़ी में से जीवित बछड़े बाहर निकल आये। सास के पूछने पर बहु ने सारी घटना सुना दी। और कहा–‘भगवान ने मेरा सत रखा, बछड़ों को फिर से जीवित कर दिया। खोटी की खरी, अधूरी की पूरी। हे बछ बारस माता ! जैसे इस बहु की लाज रखी वैसे सबकी रखना।’ 
इसीलिए बछ बारस के दिन गेहूँ नहीं खाये जाते और कटी हुई चीजें नहीं खाते है। गाय बछड़े की पूजा करते है।
          

धनतेरस 2025: कैसे गरीब ब्राह्मण बने कुबेर.. देवताओं के धन कोषाध्यक्ष ।।

दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। इस बार धनतेरस का त्योहार 18 अक्टूबर 2025 शनिवार को मनाया जाएगा। इस पर्व पर मां लक्ष्मी और भगवान धनवंतरी के साथ-साथ धन के देवता कुबेर की भी विधिवत पूजा की जाती है। यक्षों के राजा कुबेर को धन का स्वामी और उत्तर दिशा का दिक्पाल माना जाता है। भगवार कुबेर रक्षक लोकपाल भी कहलाते हैं। कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी कहा जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुबेर रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई थे, लेकिन उन्हें अपने ब्राह्मण गुणों के कारण उन्हें देवता का दर्जा प्राप्त हुआ। कुबेर सुख-समृद्धि और धन प्रदान करने वाले देवता हैं, जिन्हें देवताओं का कोषाध्यक्ष यानी कैशियर माना गया है।

कुबेर का निवास उत्तर दिशा में होता है इसलिए घर में इस दिशा में कुबेर देवता की प्रतिमा स्थापित करने से परिवार पर उनकी कृपा बनी रहती है। भगवान कुबेर जो हम भक्तों की तिजोरिया भरते हैं, वो एक गरीब ब्राह्मण थे। आइए जानते हैं कुबेर देवता की पौराणिक कथा क्या है, वो कैसे एक गरीब ब्राह्मण से देवताओं का कोषाध्यक्ष बन गए?

>> गरीब ब्राह्मण थे भगवान कुबेर <<

पौराणिक कथा के अनुसार पूर्वजन्म में भगवान कुबेर एक गरीब ब्राह्मण थे, जिनका नाम गुणनिधि था। बचपन में उन्होंने अपने पिता से धर्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की लेकिन बुरी संगत में आकर वो जुआ खेलने लगे। उनके पिता ने उनकी ऐसी गलत आदतों और हरकतों से तंग आकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। घर से निकाले जाने के बाद गुणनिधि की हालत बहुत खराब हो गई, वो अपना पेट भरने के लिए लोगों के घरों में भोजन मांगने लगे।

>> भटकते हुए जंगल के शिवालय पहुंच गए <<

एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल होकर भटकते हुए एक जंगल में पहुंच गए। जंगल में उन्हें कुछ ब्राह्मण भोग सामग्री ले जाते हुए दिखाई दिया। भगवान की भोग सामग्री देखकर गुणनिधि की भूख और बढ़ गई और वो भोजन की लालसा में उस पंडित के पीछे-पीछे चलने लगे और एक शिवालय में पहुंच गए।

>> रात के अंधेरे में चुराया भोजन <<

शिवालय में उन्होंने देखा कि ब्राह्मण भगवान शिव की पूजा कर रहे थे और भोग अर्पित कर भजन-कीर्तन में मग्न थे। भोजन चुराने की ताक में गुणनिधि शिवालय में ही बैठ गए। जब भजन-कीर्तन समाप्त होने के बाद सभी ब्राह्मण सो गए तब उन्हें भोजन चुराने का मौका मिल गया और वो चुपके से शिव भगवान की प्रतिमा के पास पहुंचे लेकिन वहां खूब अंधेरा था इसलिए गुणनिधि को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

इसलिए उन्होंने एक दीपक जलाया, लेकिन वह हवा के कारण बुझ गया लेकिन वो बार-बार वो दीपक जलाते रहे। जब यह कई बार हुआ तो भोलेनाथ और औघड़दानी शंकर ने इसे अपनी दीपाराधना समझा और प्रसन्न होकर गुणनिधि को धनपति होने का आशीर्वाद दिया।

>> अनजाने में रखा महाशिवरात्रि का व्रत <<

गुणनिधि भूख से इतने व्याकुल थे कि भोजन चुराकर भागते समय ही उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन मृत्यु से पहले अनजाने में ही उनसे महाशिवरात्रि के व्रत का पालन हो गया था और उसका उन्हें शुभ फल मिला। अनजाने में ही सही महाशिवरात्रि का व्रत पालन करने के कारण गुणनिधि अपने अगले जन्म में कलिंग देश के राजा बने।

>> शिव की कृपा से गरीब ब्राह्मण धन के देवता 'कुबेर' कहलाए <<

इस जन्म में भी गुणनिधि भगवान शिव के परम भक्त थे और सदैव उनकी भक्ति में लीन रहते थे। उनकी इस कठिन तपस्या और भक्ति को देखकर भगवान शिव उन पर प्रसन्न हुए। यह भगवान शिव की ही कृपा थी, जिसके कारण एक गरीब ब्राह्मण धन के देवता कुबेर कहलाए और संसार में पूजनीय बन गए।

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धनतेरस पर्व ।।

धनतेरस या धनत्रयोदशी सनातन धर्म का एक प्रमुख पर्व हैं। पंचांग के अनुसार कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि (तेरहवे दिन) को यह पर्व मनाया जाता हैं, आमतौर पर दीपावली से दो दिन पहले। 

इस दिन प्राचीन समय में समुद्र मंथन हुआ था, भगवती लक्ष्मी और भगवान विष्णु के अवतार भगवान धनवंतरी अवतरित हुए थे। भगवती लक्ष्मी धन की देवी हैं, भगवान धनवंतरी आयुर्वेद के देवता है। भारत सरकार धनतेरस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाती हैं।

भगवान धनवंतरी समुद्र मंथन के समय पीतल के कलश में अमृत लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इस दिन नए पीतल के बर्तन क्रय (खरीद) ने की परंपरा हैं। इस दिन चाँदी क्रय करने की भी प्रथा हैं। इसका कारण यह माना जाता हैं चाँदी चंद्रमा का प्रतीक हैं, चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता हैं और मन में संतोष रूपी धन का वास होता हैं। संतोष को सबसे बड़ा धन माना गया है जिसके पास संतोष है वह सुखी हैं वही सबसे बड़ा धनवान हैं।

धनतेरस की रात को देवी लक्ष्मी और भगवान धनवंतरी के सम्मान में रात भर दीप प्रज्ज्वलित रहते हैं, भजन गाए जाते हैं, मुख्य द्वार पर रंगोली बनाई जाती हैं। धनतेरस पर धन के देवता कुबेर की भी पूजा की जाती हैं। सामान्य तौर पर लोग धनतेरस के दिन दीपावली के लिए गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा हेतु मूर्ति क्रय करते हैं।

जैन पंथ के तीर्थंकर महावीर स्वामी धनतेरस के दिन योग ध्यान अवस्था में चले गए थे तथा दीपावली के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए थे। तभी से जैन पंथ धनतेरस को ध्यान तेरस या धन्य तेरस के रूप में मनाता हैं।

धनतेरस की संध्या पर घर मुख्य द्वार और आंगन में दीप प्रज्ज्वलित करने की प्रथा भी है। यह दीप मृत्यु के देवता यमराज के लिए जलाए जाते हैं। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। 

कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक हेम नाम के राजा थे। ईश्वर कृपा से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। ज्योंतिष आचार्यो के अनुसार बालक अल्प आयु है तथा इसके विवाह के चार दिन पश्चात मृत्यु का योग है। राजा ने राजकुमार को एक गुप्त स्थान पर भेज दिया, जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। देवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उस गुप्त स्थान पर पहुंच गई और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये, उन्होंने गन्धर्व विवाह किया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन पश्चात यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार के प्राण ले जा रहे थे, उस समय नवविवाहित पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा, किंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमदूत ने पूरी घटना यमराज को बताई तथा एक यमदूत ने यम देवता से विनती की हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के अनुरोध करने पर यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक सरल उपाय मैं तुम्हें बताता हूं, सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात को जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि धनतेरस पर घर के मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर दीप प्रज्जवलित किया जाता हैं।

करवाचौथ व्रत से संबंधित दो मुख्य कथा ।।

1. एक समय की बात है एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे एक गाँव में रहती थी। अपने पति के प्रति गहन प्रेम और समर्पण से उसे आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया तब एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। पति करवा करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा, पति की पुकार सुनकर पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को रस्सी से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी - हे देव! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ। यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, इसलिए मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। यह सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।

2. दूसरी कथा वीरवती महिला की हैं। भारत के अलग - अलग क्षेत्रों में वीरवती से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलन में हैं, इसलिए जो महिला वीरवती की जिस कथा को पढ़ती सुनती आ रही हैं वह उसे ही पूरी श्रद्धा से पढ़ें सुने। उदाहरण के लिए वीरवती से संबंधित एक कथा

एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी वीरवती थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। भाई पहले बहन को भोजन खिलाते और उसके पश्चात स्वयं खाते थे। वीरवती विवाह के पश्चात अपने ससुराल में रहने लगी। एक बार वीरवती ससुराल से मायके आई हुई थी। करवा चौथ का दिन आया, वीरवती ने मायके में ही व्रत किया। संध्या को सभी भाई जब अपना व्यापार - व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई भोजन करने बैठे और अपनी बहन से भी भोजन का आग्रह करने लगे, किंतु बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह भोजन चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही ग्रहण करेंगी। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल है। सबसे छोटे भाई से अपनी बहन की स्थिति देखी नहीं गई और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर छलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके पश्चात भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देकर भोजन कर सकती हो। बहन सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है तथा अर्घ्‍य देकर भोजन करने बैठ जाती है। वह भोजन का पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है, दूसरा टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने का प्रयास करती है तो उसके पति के रोगग्रस्त होने का समाचार उसे मिलता है। वह तुरंत अपने ससुराल पहुँचती है। वीरवती का पति मर चुका होता है, वीरवती एक सच्ची पतिव्रता महिला थीं वह अपने पति के शव के पास बैठ कर देवी पार्वती को स्मरण करते हुए रातभर रोती रहती हैं। वीरवती की भक्ति की शक्ति से माँ पार्वती प्रकट होकर उसे बताती है कि उसके भाई के छल के कारण उसका व्रत अनुचित ढंग से टूट गया। वीरवती माँ पार्वती के पैरों में गिरकर क्षमा माँगती है तथा अपने पति को जीवित करने की विनती करती हैं। माँ पार्वती कहती हैं वीरवती तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर तेरे पति को जीवित तो कर रही हूँ किंतु तेरा पति पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रहेगा जब तक तू अपनी भूल सुधार नहीं लेती, अपनी भूल सुधारने के लिए तुझे हर महीने आने वाले चौथ व्रत करते हुए अगला करवा चौथ व्रत पूरी श्रद्धा से करना है तब करवा माता ही तेरे पति को पूर्ण स्वस्थ करेगी। 
वीरवती हर महीने के चौथ व्रत को करती हुई करवा चौथ का व्रत भी सफलता पूर्वक करती हैं। करवा माता वीरवती से प्रसन्न होकर उसके पति को पूर्ण स्वस्थ कर देती हैं। हे माँ पार्वती, माता करवा जिस प्रकार वीरवती को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।

कृषक बंधुओ को समर्पित ।।

भारतीय संस्कृति में नक्षत्रों का अपना महत्व है। इनमे भी रोहिणी नक्षत्र पर कई विद्वानों,कवियों ने वर्षा संबंधी दोहे,कहावतो पर कृषि से संबंधित बाते बताई। मालवा क्षेत्र के किसानों से कई रोचक तथ्य सुनने को मिले। जो आज भी गांव - चौपालों, हथाई - ओटलों पर किसान चर्चा करते मिल जायेंगे। वर्षा की भविष्यवाणी का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। प्रत्येक वर्ष जेठ सुदी 8,9,10,11 तिथियों पर वायु किस दिशा में बह रही है। यदि मृदु और स्निग्ध हो और बादलों को रोकने वाली हो,तो उत्तम वर्षा होती है। यदि इन तिथियों में बिजली चमके,धूलभरी आंधियाँ चले और बूंदाबांदी हो ,तो वर्षाकाल में उत्तम वृष्टि होती है।नौ तपा 25 मई से 3 तक था।इससे वर्षा और खेती - किसानी और फसल का पूर्वानुमान लगा लेते है। मालवा में कहावत है कि नौ तपा यानी रोहिणी नक्षत्र गल जाय यानी इसमें पानी की एक बूंद भी गिर जाय तो फसलों में नुक्सान की संभावना बन जाती है। जेठ महीने में पानी बोणी के पूर्व गिरता है तो उसे जेठी डूंगला कहते है। कहते है कि यह आलसी किसानों को जगा रहा है। कहते हैं कि रोहिणी में खूब गर्मी पड़नी चाहिए। यदि रोहिणी में पानी की बूंद भी नही गिरती तो फसल अच्छी होती है। बोनी अच्छी मंड जाती। *किसान चुक्यों बोणी और दाडक्यों चुक्यों लावणी*। यानी किसान समय पर बोणी और मजदूर दाड़की चूक जाता है तो साल भर उसे भूखे मरने की नौबत आ जाती है। रोहिणी नक्षत्र के बारे में हमारे पूर्वजों ने कई अनुमान लगाये थे और वर्षा की भविष्यवाणी भी की। नौ दिन रोहिणी खूब तपती और इसमें पानी नहीं आता तो फसल अच्छी होने के संकेत है। यदि इसमें छींटे - छांटे भी पड़ जाय तो बोणी में रोणा (फजीहत) नही होती। जेठ माह में जब सूर्य रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तब नौ तपा (रोहिणी) लग जाती है। प्रकृतिनुसार नौ तपा क्यों जरूरी है, नौ तपा यदि न तपे तो क्या होगा। 9 दिनों तक लू और सूर्य की गर्मी से धरती तपने लगती है। लू खेती के लिए जरूरी है।                
" दो मसा दो कातरा,दो तीडी दो ताव।                         
दो की बादी जल हरै, दो विश्वर दो वाव "।                

यदि नौ तपा के पहले दो दिन लू न चली तो चूहे बहुत बढ़ेंगे। अगले दो दिन लू न चली तो कातरा (फसल) को हानि पहुँचाने वाले कीट नष्ट नहीं होंगे। तीसरे दिन से दो दिन लू न चली तो टिड्डियों (तांतियाँ) के अंडे नष्ट नहीं होंगे। चौथे दिन से दो दिन नही तपा तो बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे। इसके बाद दो दिन तक लू न चली तो विश्वर यानी साँप - बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जायेंगे। आखिरी दो दिन भी लू नही चली तो आंधियाँ अधिक चलेगी। फैसले चौपट कर देगी। जेठ महिने के शुक्लपक्ष में आर्द्रा से नौ नक्षत्रों में वर्षा कैसी होगी इसका अर्थ लगाया जाता है। यदि नौ दिन में आकाश में बादल छाये,तो श्रेष्ठ वर्षा होगी। वायु परीक्षण आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को करना चाहिए। इस दिन शाम को गणेश पूजनकर सूर्यास्त समय ऊँचे स्थान पर खड़े हो हवा का रुख देखने हेतु झंडी फहराई जाती है। इस दिन पूर्वी वायु चले,तो उत्तम वर्षा,आग्नेय कोण में चले,तो अग्नि का भय तथा कम वर्षा के योग है। वायव्य कोण में चले, तो अल्पवर्षा तथा ईशान कोण में चले,तो उत्तम वर्षा होती है।यदि चारों दिशाओं में हवा एक - दूसरे को काटती हुए चले तो खण्डवृष्टि समझना चाहिये। वर्षा अनुमान की अन्य विधियाँ भी प्रचलित है, इनमे किसी देश, स्थान, मनुष्य,पशु - पक्षी और भौतिक वस्तुओं के द्वारा भी वर्षा ज्ञान किया जाता है। कवि घाघ और भडुरी की कहावते प्रचलित है :-            
जै दिन जैठ बहै पुरवाई         
तै दिन सावन धूरि उड़ाई।।      
यानी जितने दिन जेठ महिने में पूर्वी हवा चलेगी,उतने दिन तक सावन में धूल उड़ेगी अर्थात पानी नहीं पड़ेगा।                                    
अंबाझोर चले पुरवाई।            
तब जानौ बरखा ऋतुआई।। 
जब पूर्वी हवा इतनी जोर से चले कि आम के वृक्षों को भी झकझोर दे,तो समझे वर्षा ऋतु पास ही आ गई है 

शुक्रवार री बादरी रहे शनी चर छाय ,,
तो यौ भाखे भडुरी बिन बरसे ना जाय।।       
यानी शुक्रवार को बादली छाये और शनिवार को भी छाई रहे, तो वह बिना बरसे नही जाती,यानी पानी आता

करिया बादर जिउ डरावइ 
भूरा बादर पानी आवइ।।          
यानी काला बादल केवल डरावना होता है जबकि भूरा बादल पानी बरसाने वालाहै। 

 कल से पानी गरम हो चिड़ियाँ न्हावै धूर।
अंडा ले चींटी चलै,तो बरखा भरपूर।     
यानी घड़े में रखा पानी गरम मालूम पड़े और चिड़ियाँ धुल में नहाने लगे तथा चीटियाँ अंडे लेकर चल पड़े तो अच्छी वर्षा होगी

जेठ मास जो तपै निरासा। 
तो जानौ बरखा के आसा।।   
यानी जेठ का महीना इतना तपै कि उसमे मनुष्य निराश होने लगे तो अच्छी वर्षा होगी।                                     
धनुष पड़ै बंगाली। मेह सांझि या काली।।                   
यानी बंगाल की ओर (पूर्व की और) दिशा की और इंद्र धनुष निकले तो तो यह समझना चाहिये कि सांझ - सबेरे में ही वर्षा होगी।             

ढेले ऊपर चील जो बोले। गली - गली में पानी डोले।।
यानी यदि चील खेत में ढेले ऊपर बैठकर बोले तो समझे कि इतनी बरसात होगी कि खाल - खोदरे, छापरे और गली कूंचे तक पानी से भर जायेंगे।                                 
पूरब धनुही पच्छिम भान घाघा कहै बरखा नियरान।।       
अर्थात पूर्व दिशा में इंद्र धनुष दिखाई दे और उसी समय सूर्य पश्चिम में चले गए हो अथवा संध्या के समय इंद्र धनुष पड़े तो यह समझना चाहिए कि वर्षा समीप ही है।                         
इस प्रकार घाघ भडुरी कई वर्षा,मौसम, बोणी,फसल,पशु - पक्षी, बादल आदि पर कई कहावतें लिखी है।                      
इसके अलावा हमारे पूर्वजों के पास वर्षा संबंधी प्राकृतिक पेड़ - पौधो,पशु पक्षी से संबंधी जानकारी भी थी जो सटीक पूर्वानुमान थे।      
जैसे :- जब तक बैल और बौर में कोंपल(पत्ते) नही निकले और खेत में टिटोडी (टिटहरी) अपने अंडों से बच्चे न निकाल ले तब तक बोणी (खेत में बीज बोना) नही करनी चाहिए। ये प्राचीन संकेत है🙏

आत्महत्या करने वाले मनुष्य की आत्मा के साथ क्या होता है, गरुड़ पुराण में अकाल मृत्यु के सम्बंध में ।।


 गरुड़ पुराण के अनुसार आत्महत्या करने वाले मनुष्य के लिए दुखों का अंत नहीं होता बल्कि उसकी समस्या बढ़ जाती है। जो मनुष्य धरती पर आत्महत्या कर लेता है, उसे परलोक में भी जगह नहीं मिलती और उसकी आत्मा भटकती रह जाती है। गरुड़ पुराण में अकाल मृत्यु और आत्महत्या के बारे में क्या लिखा है 

गरुड़ पुराण में जीवन के बाद के लोक के बारे में लिखा गया है। धरती पर जीवन जीने के बाद मनुष्य के कर्मों के आधार पर उसके साथ कैसा न्याय किया जाता है, इन सभी बातों का विवरण गरुड़ पुराण में लिखा गया है। इसके अलावा गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु की भक्तिसे जुड़ीं बातें भी हैं। इसमें ज्ञान, वैराग्य और अच्छे आचरण की महिमा बताई गई है। साथ ही निष्काम कर्म, यज्ञ, दान, तप और तीर्थ यात्रा जैसे शुभ कर्मों का महत्व भी समझाया गया है। गरुड़ पुराण में आत्महत्या या अपना जीवन स्वंय समाप्त करने के विषय में भी लिखा गया है। आत्महत्या को अकाल मृत्यु की श्रेणी में रखा जाता है

 गरुड़ पुराण में आत्महत्या की सजा

 अकाल मृत्यु होने से 7 चक्र नहीं होते पूर्ण 

गरुड़ पुराण के अनुसार, जो लोग अपने जीवन के सभी 7 चक्रों को पूरा करते हैं, उन्हें मरने के बाद मोक्ष मिलता है लेकिन अगर कोई एक भी चक्र अधूरा छोड़ देता है, तो उसे अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ता है। ऐसी आत्मा को बहुत कष्ट झेलने पड़ते हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, भूख से तड़पकर मरना, हिंसा में मरना, फांसी लगाकर जान देना, आग से जलकर मरना, सांप के काटने से मरना, जहर पीकर या किसी दवा को खाकर आत्महत्या करना, ये सभी अकाल मृत्यु की श्रेणी में आते हैं। इसका मतलब है कि ये मौतें समय से पहले होती हैं।

 आत्महत्या को पाप की श्रेणी में रखा गया है 

पृथ्वी पर इंसान का जीवन बहुत मुश्किल से मिलता है। यह जीवन तपस्या का फल होता है। अगर कोई आत्महत्या करता है, तो उसे नर्क भोगना पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि हर किसी को इंसान के रूप में जन्म लेने का अवसर नहीं मिलता। जब एक इंसान मर जाता है और आत्मा बन जाता है, तो उसे 13 अलग-अलग जगहों में भेजा जाता है। अगर कोई आत्महत्या करता है, तो उसे 7 नरक में से किसी एक में भेजा जाता है। वहां उसे लगभग 60,000 साल बिताने पड़ते हैं।

आत्महत्या करने वाले मनुष्य की आत्मा भटकती रहती है 

आत्माएं आमतौर पर 3 से 40 दिनों में दूसरा शरीर ले लेती हैं लेकिन, जो लोग आत्महत्या करते हैं, उनकी आत्माएं लंबे समय तक भटकती रहती हैं। गरुड़ पुराण में आत्महत्या को भगवान का अपमान बताया गया है इसलिए, आत्महत्या करने वालों को स्वर्ग या नरक में जगह नहीं मिलती। वे लोक और परलोक के बीच में ही अटके रहते हैं।

 मरने के बाद भी कष्ट सहती है आत्महत्या करने वालों की आत्मा 

कहते हैं कि जीवन में लोगों को दुखों का सामना करना पड़ता है। धरतीलोक में जीवन जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है लेकिन गरुड़ पुराण के अनुसार आत्महत्या करने वाले मनुष्य की आत्मा को मरने के बाद भी दुख उठाने पड़ते हैं। उसकी आत्मा अशांत रहती है और मरने के बाद भी वो जीवन के संघर्षों, प्रेम, दुख आदि के बारे में सोचता रहता है। आत्महत्या करने वाला मनुष्य केवल एक भटकती आत्मा बनकर रह जाता है।

घर में तंत्र-बाधा के लक्षण ।।

 पारिवारिक सदस्यों में लगातार बीमारियाँ, लगातार आर्थिक तंगी, घर में कलह और झगड़े, अजीबोगरीब और डरावने सपने आना, और परिवार के सदस्यों में अकारण चिड़चिड़ापन और मानसिक तनाव होना हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, घर में अचानक से बदबू आना या जानवरों का बेवजह मर जाना भी इसके संकेत हो सकते हैं। 

घर और परिवार के लक्षण

आर्थिक समस्याएं

पैसा घर में टिकता नहीं है, लगातार कर्जा या तंगी बनी रहती है।

लगातार बीमारी

परिवार के सदस्य एक के बाद एक बीमार पड़ते हैं, या घर के मुखिया को कोई गंभीर या रहस्यमय बीमारी हो जाती है।

आपसी कलह

घर में बिना किसी कारण के लड़ाई-झगड़े और तनाव का माहौल रहता है।

अकारण चिड़चिड़ापन

घर के सदस्यों को बेवजह गुस्सा आता है और वे चिड़चिड़े हो जाते हैं।

मानसिक और शारीरिक तनाव

सदस्यों में मानसिक तनाव, भय, अवसाद और बेचैनी बनी रहती है। कभी-कभी शरीर अकड़ा हुआ महसूस होता है।

बच्चों और लड़कियों पर प्रभाव

बच्चों की संगत बिगड़ जाती है या घर की लड़कियों के प्रेम संबंधों में समस्याएँ आ सकती हैं। 

घर में दिखने वाले संकेत

अजीबोगरीब सपने 

परिवार के सदस्यों को लगातार डरावने और बुरे सपने आते हैं।

अचानक बदबू

घर के किसी हिस्से में अचानक से बदबू आने लगती है, जो थोड़ी देर में चली जाती है।

जानवरों की मृत्यु

घर में मौजूद छिपकली, कबूतर या अन्य पालतू जानवरों की अचानक और बेवजह मौत हो जाती है।

छोटी दुर्घटनाएं

घर के सदस्यों के साथ छोटी-मोटी दुर्घटनाएं होने लगती हैं, जिससे खून भी बह सकता है। 

"सनातन विद्या से 𝗖𝘆𝗯𝗲𝗿 𝘀𝗲𝗰𝘂𝗿𝗶𝘁𝘆"



जी हाँ, शास्त्रों में एक ऐसी भी विद्या है जिससे आप अपने pin को सुरक्षित और गोपनीय रख सकते हैं, 
उस विद्या का नाम है "कटपयादी सन्ख्या विद्या"

●कटपयादि संख्या 

हम में से बहुत से लोग अपना Password, या ATM PIN भूल जाते हैं इस कारण हम उसे कहीं पर लिख कर रखते हैं पर अगर वो कागज का टुकड़ा किसी के हाथ लग जाए या खो जाए तो परेशानी हो जाती
पर अपने Password या Pin No. को हम लोग “कटपयादि संख्या” से आसानी से याद रख सकते है।
“कटपयादि”( क ट प य आदि) संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है

चूँकि भारत में वैज्ञानिक/तकनीकी/खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, इसलिये संख्याओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त करने हेतु भारतीय चिन्तकों ने इसका समाधान 'कटपयादि' के रूप में निकाला।

कटपयादि प्रणाली के उपयोग का सबसे पुराना उपलब्ध प्रमाण, 869 AD में “शंकरनारायण” द्वारा लिखित “लघुभास्कर्य” विवरण में मिलता है

तथा “शंकरवर्मन” द्वारा रचित “सद्रत्नमाला” का निम्नलिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है -
इसका शास्त्रीय प्रमाण -

नज्ञावचश्च शून्यानि संख्या: कटपयादय:।
मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वर: ॥

[अर्थ: न, ञ तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरम्भ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। 
किसी संयुक्त व्यंजन में केवल बाद वाला व्यंजन ही लिया जायेगा। बिना स्वर का व्यंजन छोड़ दिया जायेगा।]

अब चर्चा करते हैं कि आधुनिक काल में इस की उपयोगिता क्या है और कैसे की जाए ? 
कटपयादि – अक्षरों के द्वारा संख्या को बताकर संक्षेपीकरण करने का एक शास्त्रोक्त विधि है, हर संख्या का प्रतिनिधित्व कुछ अक्षर करते हैं जैसे 

1 – क,ट,प,य 
2 – ख,ठ,फ,र 
3 – ग,ड,ब,ल 
4 – घ,ढ,भ,व 
5 – ङ,ण,म,श 
6 – च,त,ष 
7 – छ,थ,स 
8 – ज,द,ह 
9 – झ,ध 
0-ञ,न,अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ए,ऐ, ओ,औ 
 【 ऊपर चित्र देखें】 
हमारे आचार्यों ने संस्कृत के अर्थवत् वाक्यों में इन का प्रयोग किया, जैसे गौः = 3, श्रीः = 2 इत्यादि । 

इस के लिए बीच में विद्यमान मात्रा को छोड देते हैं । स्वर अक्षर ( vowel) यदि शब्द के आदि (starting) मे हो तो ग्राह्य ( acceptable) है, अन्यथा अग्राह्य (unacceptable) होता

जैसे समझिए कि मेरा ATM PIN 0278 है- पर कभी कभी संख्या को याद रखते हुए ATM में जाकर हम Confuse हो जातें हैं कि 0728 था कि 0278 ? यह भी अक्सर बहुत लोगों के साथ होता है, ये इन से बचने के उपाय हैं 

जैसे ATM PIN के लिए कोई भी चार अक्षर वाले संस्कृत शब्द को उस के कटपयादि मे परिवर्तन करें ( उस शब्द को सिर्फ अपने ही मन मे रखें, किसी को न बताएं )

उदाहरण के लिए –

इभस्तुत्यः = 0461

गणपतिः = 3516

गजेशानः = 3850

नरसिंहः = 0278

जनार्दनः = 8080

सुध्युपास्यः = 7111

शकुन्तला = 5163

सीतारामः = 7625

इत्यादि ( अपने से किसी भी शब्द को चुन लें )
ऐसे किसी भी शब्द को याद रखें और तत्काल “कटपयादि संख्या” मे परिवर्तन कर के अपना ATM PIN आदि में प्रयोग करें । 

सत्य सनातन धर्म की जय।

पूजा करने के नियम क्या हैं ?

✤ सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु, ये पंचदेव कहलाते हैं, सभी कार्यों में भगवान विष्णु की पूजा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। प्रतिदिन पूजन के समय इन पंचदेवों का ध्यान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी कृपा और समृद्धि प्राप्त होती है।


✤ शिवजी, गणेश जी और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।

✤ मां दुर्गा को दूर नहीं करना चाहिए। यह गणेश जी को विशेष रूप से निर्विकार की तरह माना जाता है।

✤ सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।

✤ तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोड़ना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति बिना नहाए ही तुलसी के अवशेषों को तोड़ता है तो पूजन में इन पुष्पों को भगवान द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है।

✤ प्लास्टिक की बोतल में या किसी भी अपवित्र धातु के पॉट में गंगाजल नहीं रखना चाहिए। अपवित्र धातु जैसे एल्युमिनियम और आयरन से बने पोइंटर। गंगाजल के भंडार में शुभ रहता है।

✤ शैतान को और अपवित्र अवस्था में पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। यहां इस नियम का पालन नहीं किया जाता है तो जहां शंख बजाया जाता है, वहां से देवी लक्ष्मी चली जाती हैं।

✤ मंदिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ नहीं दिखानी चाहिए।

✤ केतकी का फूल शिवलिंग पर नहीं करना चाहिए।

✤ किसी भी पूजा में मन की शांति के लिए दक्षिणा अवश्य लेनी चाहिए। दक्षिणा निकेत समय अपने दोषों को शामिल करने का संकल्प लेना चाहिए। दोषों को जल्दी से जल्दी अलग करने पर विचार अवश्य करें।

✤ दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।

✤ माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल दिया जाता है। इस फूल को पांच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ाया जा सकता है।

✤ शास्त्रों के अनुसार शिवजी को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक नहीं माने जाते हैं। अत: उदाहरण के लिए जल छिड़क कर पुन: लिंग पर निशान लगाया जा सकता है।

✤ तुलसी के दुकानदारों को 11 दिन तक बासी नहीं माना जाता है। इसके रिटायरमेंट पर हर रोज जल स्प्रेडर पुन: भगवान को बर्बाद किया जा सकता है।

✤ आम तौर पर फूलों को हाथ में लेकर भगवान को भगवान को समर्पित किया जाता है। ऐसा नहीं करना चाहिए। फूल चढाने के लिए फूलों को किसी भी पवित्र पात्र में रखना चाहिए और उसी पात्र में से लेकर देवी-देवताओं को बचाकर रखना चाहिए।

✤ कांच के बर्तन में चंदन, घीसा हुआ चंदन या चंदन का पानी नहीं रखना चाहिए।

✤ हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि कभी भी दीपक बात से दीपक न जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं।

✤ रविवार और रविवार को पीपल के पेड़ में जल संरक्षण नहीं करना चाहिए।

✤ पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख से करनी चाहिए। यदि संभव हो तो सुबह 6 से 8 बजे तक बीच में पूजा अवश्य करें।

✤ पूजा करते समय ध्यान दें कि आसन का आसन एक होगा तो श्रेष्ठ रहेगा।

✤ घर के मंदिर में सुबह और शाम को दीपक जलाएं। एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।

✤ पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद एक ही स्थान पर 3-3 बार पूजा-अर्चना करनी चाहिए।

✤ रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रांति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए।

✤ भगवान की आरती करते समय ध्यान दें ये बातें- भगवान के चरण की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान की समस्त क्रियाओं की कम से कम सात बार आरती करानी चाहिए।

✤ पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहिए, इससे बड़ी नहीं, लेकिन गणेश जी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।

✤ गणेश या देवी की प्रतिमा तीन तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की संख्या में कदापि न स्थान। घर में बीच बीच में घर बिल्कुल वैसा ही वातावरण शुद्ध होता है।

✤ अपने मंदिर में विशेष प्रतिष्ठित मूर्तियाँ ही उपहार, काँच, लकड़ी और फ़ाइबर की मूर्तियाँ न रखें और खंडित, जलीकटी फोटो और बर्तन काँच तुरंत हटा दें। शिलालेखों के अनुसार खंडित ज्वालामुखी की पूजा की जाती है। जो भी मूर्ति स्थापित है, उसे पूजा स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित भगवान की पूजा अशुभ मानी जाती है। इस संबंध में यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल भाषा ही कभी भी, किसी भी अवस्था में खंडित नहीं मानी जाती

अवतार और देवत्व : एक शास्त्रीय विवेचन 🍁

पञ्चदेव — रुद्र, मरुत, वसु, वासव आदि — के विविध अवतार यदि पृथ्वी पर हुए हों, तो मात्र अवतार-स्वरूप होना ही उन्हें पूज्य देवता सिद्ध कर देगा — ऐसा सामान्य जन मान लेते हैं, किंतु यह शास्त्रसम्मत नहीं।


◆ लोग कहते हैं – “गङ्गाजल यदि लौटे में रखा हो, तब भी वह गङ्गाजल ही कहलाता है।” इसी प्रकार “विष्णु या शिव के अवतार भी तो देवता ही होंगे।”
● यह भ्रान्ति है। देवत्व कोई साधारण बात नहीं है जिसे हर अवतार को सौंप दिया जाए। शास्त्रों में अवतारों के भी भेद स्पष्ट हैं — पूर्णावतार, अंशावतार, आवेशावतार, लीलावतार आदि।

● श्रीराम व श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं — समस्त कलाओं से युक्त, शाश्वत, पूज्य।
● किन्तु पृथु, ऋषभदेव, कपिल, नर-नारायण, सनकादि, दुर्वासा, पिप्लाद आदि — ये सभी अंशावतार अथवा ऋष्यवतार हैं — इनकी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है।

▪︎ महत्त्व का तथ्य यह है कि —
वह अवतार ही पूज्य है जिसका शास्त्रसम्मत पूजन-विधान, आगम-विधि, मन्त्र-विनियोग, मूर्तिस्थापन एवं प्रतिष्ठा का स्पष्ट विधान उपलब्ध हो।

● कालभैरव पूज्य हैं — तांत्रिक, यांत्रिक, लिंगात्मक विधियों सहित।
परंतु अर्जुन का परीक्षण करने आए किरात, या चाण्डालरूप धारी शिव — उनकी पूजा नहीं होती।

▪︎ अश्वत्थामा, गृहपति, वीरभद्र आदि आवेशावतार माने जाते हैं, किन्तु सभी की प्रतिष्ठा नहीं होती।

यदि भविष्य में किरात, चाण्डाल, वैश्य आदि जातियों से प्रेरित होकर कोई “शिवावतार” मानकर मंदिर निर्माण करने लगे — तो क्या वह धर्मसंगत होगा?

◆ यदि वे मूर्तिपूजनीय नहीं हैं, तो शास्त्र का उल्लंघन कर उनके नाम पर मूर्तियाँ स्थापित करना, उत्सव करना — क्या यह श्रद्धा है या उन्मत्त विकृति?
यह शिवभक्ति नहीं, अपितु शिवावतारों के नाम पर कुतर्कयुक्त विघटन है।

▪︎ यदि आपको किसी अमुक अवतार से गहन अनुराग हो, तो प्रत्यक्ष शिवलिंग की आराधना कीजिए, रुद्राभिषेक कीजिए, सहस्रपार्थिव लिंगों का पूजन कर प्रवाह कीजिए — वही शास्त्रसम्मत मार्ग है।

आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि—

● भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जिन बातों को कभी स्वप्न में भी स्वीकार न करते, वे कार्य आज उन्हीं के प्रतिष्ठित मठों से प्रचारित हो रहे हैं।

◆ संघी-समाजी विचारधारा कहती है — “राम-कृष्ण आदि केवल महापुरुष हैं, कोई देवता नहीं!”
ऐसा विचार दैवद्रोह है।
इसे “महापुरुष” बनाकर दीनदयाल, पटेल आदि की श्रेणी में ला देना शास्त्र का उपहास है।

▪︎ मूर्तिभंजक उन्मादतंत्र के नेताओं को “दीर्घायु” का आशीर्वाद देना —
क्या यह धर्म की रक्षा है?
या गौवध, देवविरोध व परम्पराभंजन के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन?

"न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्"

● चिदानन्द देह को पञ्चभौतिक शरीर मान लेना घोर मूर्खता है।
भगवान जिस दिव्य चिद्देह को धारण करते हैं, वह साधारण मरणशील देह नहीं।
उन्हें “मृत” कहना देवनिन्दा है।

◆ यह अत्यन्त दुर्भाग्य है कि शास्त्रप्रणीत मर्यादा को छोड़कर केवल जातिगत भावना, राजनीतिक प्रवाह, और सांप्रदायिक संकीर्णता के कारण हम उन कार्यों को भी धर्म मानने लगे हैं जिनका शास्त्र में लेशमात्र भी समर्थन नहीं।



जानियें, क्या करें - गुरु पूर्णिमा के दिन ।।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। 
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिवस भी है। व्यास जी ने ही चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन ये करें -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। 

* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।

* फिर हमें 'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।

* तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। 

* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा करना चाहिए। 

* अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

गुरु पूर्णिमा पर यह भी है विशेष -
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। 

* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं। 

* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। 

* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। 

* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

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पूजा पाठ में आचमन का महत्त्व ।।

पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है।   

यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम: 
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।  
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
 
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।  

आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।  
 
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को 
अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। 
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दक्षिणमुखी मुख्य द्वार हेतु वास्तु के क्या क्या उपाय हैं ?

1. गणेश प्रतिमा या यंत्र: मुख्य द्वार के ऊपर या पास गणेश जी की प्रतिमा या गणेश यंत्र लगाएं। यह बुरी शक्तियों को दूर करता है और सकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है।

2. स्वस्तिक चिन्ह: मुख्य द्वार के दोनों ओर या ऊपर स्वस्तिक का चिन्ह लगाएं। यह शुभता और समृद्धि लाता है।

3. ऊर्जा संतुलन के लिए पौधे: मुख्य द्वार के बाहर हरे पौधे या तुलसी का पौधा रखें। यह सकारात्मक ऊर्जा को बनाए रखने में मदद करेगा।

4. लाल रंग का प्रयोग: दक्षिण दिशा अग्नि तत्व से संबंधित है, इसलिए मुख्य द्वार पर लाल रंग का प्रयोग शुभ माना जाता है। आप मुख्य द्वार पर लाल रंग की पट्टी या वस्त्र लगा सकते हैं।

5. मुख्य द्वार पर दर्पण: मुख्य द्वार के अंदर या बाहर की ओर दर्पण लगाने से नकारात्मक ऊर्जा वापस हो जाती है। ध्यान दें कि दर्पण का आकार और स्थान वास्तु के अनुसार सही होना चाहिए।

6. मुख्य द्वार पर वास्तु पिरामिड: वास्तु पिरामिड को मुख्य द्वार के आसपास स्थापित करें, जो नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है।

7. दरवाजे की दिशा सुधारें: यदि संभव हो, तो मुख्य द्वार को थोड़ा पूर्व या दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थानांतरित करें।

8. लक्ष्मी जी का चित्र: मुख्य द्वार के सामने लक्ष्मी जी का चित्र या प्रतिमा रखें ताकि समृद्धि और सौभाग्य घर में प्रवेश कर सके।

मृत्यु महोत्सव ।।

      देखिए तीन रस हैं सत, तम और रज। आप फल खाते हैं उसमें जो सत होता है अर्थात अमृत्व वह शरीर में रह जाता है। रज फल का आकर्षण उसका स्वरूप, उसकी गंध, उसका स्वाद इत्यादि के रूप में आप महसूस करते हैं। रज अति महत्वपूर्ण है। रज सक्रियता प्रदान करता है। रज रस को स्त्रावित करता है। मस्तिष्क को इन्द्रियों के माध्यम से रसों के स्त्राव के लिए आदेशित करता है। तीसरा  हिस्सा है तम अर्थात अनुपयोगी वह प्रातः काल मलमूत्र के रूप में विसर्जित हो जाता है। तम विष प्रधान हिस्सा हैं। मल मूत्र अगर विसर्जित नहीं होगा तो मृत्यु आ जायेगी । जो फल आपको जीवन दे रहा था वही फल मृत्यु को कारण बन जायेगा। फल मृत्यु का कारण नहीं बनेगा। मृत्यु होगी तम के कारण अर्थात विष के कारण। 

          सत अत्यंत ही न्यून होता है। एक किलो सब्जी में से मात्र एकांश और ज्यादा से ज्यादा दशांश ही सत होगा बाकी सब मलमूत्र बनकर विसर्जित हो जायेगा। सत भी आगे चलकर परिष्कृत होता है। मस्तिष्क के अंदर सत की अति परिष्कृत श्रृंखला ही प्रविष्ट हो पायेगी अन्य सब शरीर के काम आ जायेगी। भोजन का सबसे परिष्कृत एवं विशुद्धात्मक अर्क हीं मस्तिष्क में प्रविष्ट हो पाता है यही सबसे जटिल व्यवस्था है। मस्तिष्क चारों तरफ से पूरी तरह से प्रतिबंधित है। चाहे स्वाद हो, ध्वनि, गंध, संवेदन इत्यादि-इत्यादि यह सब मस्तिष्क तक स्थूल रूप में नहीं पहुँचते हैं। वहाँ पर तो सिर्फ अत्यंत ही सूक्ष्म संवेग ही पहुँच पाते हैं और वह भी अनंत प्रकार के इन्द्रिय जालों से छनकर। केवल अमृत ही मस्तिष्क में पहुँचेगा इसीलिए मृत्यु के कई घण्टों पश्चात भी मस्तिष्क जीवित रहता है, क्रियाशील रहता है। मस्तिष्क की मृत्यु आसान नहीं है। मस्तिष्क जब स्थूल ग्रहण ही नहीं करता है तो फिर उसकी स्थूल मृत्यु होती ही नहीं है। मृत्यु से पूर्व ही मस्तिष्क अपनी सूक्ष्मतम आवृत्ति में आ जाता है और आत्मा के साथ शरीर से बाहर निकल आगे की यात्रा तय करता है। वह अपने साथ समस्त कर्म प्रणाली, स्मृति प्रणाली, संस्कार एवं ज्ञान लेकर चलता बनता है। 

         ज्ञान इसलिए कभी खत्म नहीं होता अगर जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह वास्तव में होने लगे तो फिर दूसरे ही क्षण नये मनुष्य का बनना बंद हो जायेगा। आप एक मानव निर्मित यंत्र को उठाइये और उसे तोड़ डालिये। अब उसमें से नया यंत्र नहीं उत्पन्न होगा परन्तु मनुष्य के शरीर त्यागने के पश्चात भी नया मानव निर्मित हो जाता है ठीक वही सब ज्ञान लिए हुए। एक पीढ़ी पहले जो ज्ञान कठिन लगता है वही ज्ञान दूसरी पीढ़ी में सहज हो जाता है। पचास वर्ष पूर्व कम्प्यूटर चलाना किसे आता था परन्तु अब तो दस वर्ष के बच्चे भी उसमें निपुण हो गये हैं । यह है मस्तिष्क के स्वतः प्रतिरोपित होने की अद्भुत क्षमता । यह पूरी तरह से पूर्व जन्म के संस्कारों से जुड़ी हुई है। गाय के पेट से निकलते ही बछड़ा कूदने लगता है अर्थात उस बछड़े की आत्मा के अंदर संस्कार पूर्व से ही मौजूद थे बस अनुकूल परिस्थिति मिलते ही स्मृति पटल पर क्रियाशील हो गये। एक तरह से आत्मा अर्थात आत्म अर्थात वह ब्रह्माण्डीय बीज है जो कि अपने अंदर उन सब गुणों और संस्कारों को युक्त किए हुए है जो कि इस ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव में आते समय उसे मिले थे। आत्मा सभी गुणों, ज्ञानों और संस्कारों से युक्त होती है एवं शरीर मात्र माध्यम होता है इन्हें प्रदर्शित करने का ।

             एक कम्प्यूटर चिप में लाखों तरह की फाइलों को भण्डारित किया जा सकता है। अब तो विज्ञान भी इतना आगे बढ़ गया है कि नाखून बराबर एक माइक्रोचिप के ऊपर पता नहीं कितना ज्ञान भण्डारित कर सकता है। जैसे ही इस चिप को आप कम्प्यूटर में लगाते हैं परदे पर बटन दबा दबाकर आप सब कुछ विस्तृत रूप से पढ़ सकते हैं। मनुष्य सारा जीवन पराशक्ति या परम परमेश्वर की नकल करने में लगा रहता है और काफी हद तक वह कर भी लेता है परन्तु स्थूल रूप में क्योंकि वह स्वयं स्थूल है। उसे अभी अदृश्य आत्मा का निर्माण करना नहीं आया है। हमें जो जानकारी चाहिए होती है हम उस फाइल को खोलते हैं नियंत्रण का केन्द्र हमारा मस्तिष्क होता है ठीक ऐसे ही हमें जो योनि चाहिए होती है उसे ईश्वर देता है। अतः आत्मा तो अजर-अमर है बस शरीर आते जाते रहते हैं कर्म सम्पादित होते रहते हैं। आत्मा के कर्म । क्या ज्ञान की मृत्यु होती है? क्या संस्कार की मृत्यु होती है? क्या प्रकाश की मृत्यु होती है? कभी नहीं। जो तत्व आत्मा से जुड़े हुए हैं वे कभी नहीं मरते। वे अमर होते हैं इन्हीं का समूह आत्मा है। अमरता है प्रतिक्षण इसीलिए अमरता की बात की जाती है प्रतिक्षण मृत्यु है इसीलिए मृत्यु की बात की जाती है।

           संगठन टूटता है। यह शरीर भी सत्रह से इक्कीस तत्वों का संगठन है टूट जाता है। जिसे हम मृत्यु कहते हैं। टूटता क्यों है? टूटना ही पड़ेगा क्योंकि सूर्य मृत्यु है, सूर्य मृत्यु क्यों है? इसलिए कि वह हमारे शरीर से सूर्य तत्व को खींच लेता है प्रतिक्षण खींचता रहता है। ज्यादा देर के लिए वह सूर्य तत्व प्रदान नहीं करता है। यह एक सिद्धांत है। तत्व विशेष का मूल लोक उन आवृत्ति विशेषों को अपनी तरफ स्वत: ही आकर्षित करता है। वर्षा की प्रत्येक बूंद को समुद्र का जल अपनी और प्रतिक्षण आकर्षित करता है। प्रत्येक जल की बूंद को एक निश्चित यात्रा के पश्चात् समुद्र में विलीन होना ही पड़ेगा। हम कुछ देर के लिए अगर कड़ी धूप में खड़े हो जायें तो हमारे शरीर में मौजूद जल को सूर्य रश्मियों के माध्यम से समुद्र अपनी तरफ खींच ही लेगा। यही हाल चन्द्र तत्व का भी है। चन्द्रमा भी धीरे-धीरे शरीर से मौजूद चन्द्र तत्व को खींचता ही रहता है। ऊर्जा से पदार्थ और पदार्थ से ऊर्जा का एक अद्भुत चक्र है। ऊर्जा के घनीभूत और समायोजित होने से पदार्थ का निर्माण होता है और कालान्तर पदार्थ से ऊर्जा निष्कासित होती रहती है। जब तक कि सम्पूर्ण ऊर्जा निष्कासित न हो जाये पदार्थ जीवित कहलाता है। इनके केन्द्र में आत्मा है। 

         एक शरीर मरता है उसे अनि पर रख दिया जाता है कुछ ही देर में अग्नि की लपटें पदार्थ में से ऊर्जा पूरी तरह से ब्रह्माण्ड में विलीन कर देती हैं। अमृत तत्व है तो मृत्यु तत्व भी है। दोनों एक साथ गतिशील होते हैं। अमृत घट से उत्पन्न शक्ति जोड़ने का काम करती है। एक अणु से कई परमाणु इसी अमृत तुल्य शक्ति के कारण जुड़ते हैं। दूसरी तरफ मृत्यु घट से उत्पन्न शक्ति प्रतिक्षण एक-एक करके पदार्थों को अलग करती हैं। बड़ा अजीब खेल है। ब्रह्मा ने दोनों को एक साथ निर्मित किया है। दोनों को एक साथ सभी जगह प्रतिष्ठित किया है। एक अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करती है तो दूसरी अपने चरित्र के अनुसार अमृत को मृत्यु नहीं मार सकती और मृत्यु को अमृत नहीं मार सकता। सभी पिण्ड, सभी पदार्थ, सभी परमाणु काल के अधीन हैं। काल की भी मृत्यु होती हैं। अत: काल के अंतर्गत आने वाले सूर्य, चंद्र, सप्त ऋषिगण तारे, ब्रह्मा, इन्द्र इत्यादि सभी मृत्यु के अधीन हैं काल परिवर्तन का नाम है। 

         जब सूर्य की ही मृत्यु हो रही है उसकी भी उम्र निर्धारित है तो वह भी मृत्यु प्रदान करेगा। सभी देव काल के अधीन आते हैं। ये भी मृत्यु के कारक हैं। पंचभूतों की तो बात ही क्या यह तो साक्षात प्रतिक्षण मृत्यु उत्पन्न करते हैं। मृत्यु शाश्वत् सत्य है। इस ब्रह्माण्ड में स्वीकारोक्ति अगर किसी की सबसे कम है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति भागता है तो वह है मृत्यु । मृत्यु ही पुनर्जन्म एवं परिवर्तन का कारक हैं। प्रतिक्षण मृत्यु हैं। मृत्यु प्रतिक्षण होती है। अभी तीस वर्षों की उम्र की मृत्यु हो गयी कुछ देर बाद अभी दिन की मृत्यु हो जायेगी । प्रतिक्षण जाना है कुछ न कुछ तो जाना ही है। क्षण की भी मृत्यु हैं श्रम भी मृत्यु हे श्रम से भी कुछ न कुछ जायेगा सब कुछ निश्चित है श्रम की सीमा भी निश्चित है। एक पुरानी कहावत है जो व्यक्ति इण्डे के भय और स्त्री के लटके झटके से मुक्त हो गया वह तो भगवान बन ही जाता है। इस बात में बड़ा गृढ़ अर्थ है। दण्ड का भय पकड़े जाने का भय पाप और पुण्य का भय चोट लग जाने का भय लक्ष्मी के चले जाने का भय। भय सबसे बड़ा कारक है मृत्यु प्राप्त करने का, श्वास के रुक जाने का यही है यमराज का अंकुश यही है यमराज द्वारा रस्सी में बांधे जाने का तात्पर्य भय ही बांधता है।

          दूसरी तरफ स्त्री है वह उलझाती है सांसारिक बंधनों में। वह मोहित करती है। सब कुछ खींचने की शक्ति है उसमें । इस दुनिया के नाना प्रकार के प्रपंचों के पीछे केवल स्त्री है। जो इन दोनों से मुक्त गया वही मृत्युंजय साधना में सफल हुआ। उसे ही शिव का सानिध्य प्राप्त होगा। वही वास्तविक संन्यासी है। मृत्यु से परे । वास्तविक संन्यासियों को देखिए उनकी चाल की गर्विता को देखिए, उनके चेहरे के आभामण्डल को देखिए। एक प्रधानमंत्री के चेहरे पर भी इतनी सौम्यता नहीं होती है। एक सम्राट के पास हजारों स्त्रियाँ होने के पश्चात भी वह इतना शालीन नहीं होता है। संन्यासी ने संसार की सच्चाई को जान लिया है कि जिसे वह अमृत समझ रहा है वास्तव में वह तो विष है। वह तो मृत्यु का कारण है। जितने ज्यादा कारण पालोगे उतनी ही जल्दी मृत्यु आयेगी। 

         अमेरिका में एक अभिनेत्री थी मरलिन मुनरो अत्यधिक खूबसूरत खूबसूरती ही उसके लिए जीवन था। जैसे ही वह अधेड़ हुई उसने आत्महत्या कर ली। वह अपनी जाती हुई खूबसूरती को बर्दाश्त नहीं कर सकी। खूबसूरती मृत्यु बन गई।

           एक गुरु महाराज थे उन्हें अपना मान सम्मान, यश, प्रसिद्धि इत्यादि अत्यधिक प्रिय थे। उन्हें प्रतिदिन अगर कोई चरण स्पर्श न करे तो आनंद ही नहीं आता था। अचानक एक दिन अपयश दरवाजे पर आ धमका। गुरु महाराज का गुरुत्व धरा रह गया। अपशय को देखते ही हृदय गति रुक गई। वह लिप्त था यश में ऐसा ही होता है इन स्थितियों के बीच कभी-कभी कुछ विहंगम स्थितियाँ भी बनती हैं। तुलसीदास को उनकी पत्नी ने अपमानित कर दिया वे गंगा में शरीर त्यागने जा रहे थे पर अचानक किसी संन्यासी ने आकार झंझकोर दिया यहाँ पर शरीर त्यागने के विचार की मृत्यु हो गयी। तुलसीदास पुनः जीवित हो उठे। उनका पुनर्जन्म हो गया रामायण का अनुवाद कर बैठे। 

          हम सबके साथ एक अत्यंत ही विलक्षण ग्रंथि जुड़ी हुई है जो कि मृत्यु के कारणों को भी मृत्यु प्रदान कर देती है । यही वह सबसे दुर्लभ ग्रंथि है जिसका कि साधक को अनुसंधान करना चाहिए। जिसे कि प्रत्येक आध्यात्मिक महामानव सिद्ध इत्यादि चैतन्य और जाग्रत करते हैं। यह है यमराज साधना । इसे कहते हैं महाकाल साधना। पहले यम को साधो । स्वयं साक्षात यमराज बनो किसी और के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए। यमराज का रंग काला है। काले भैसे पर सवार हैं, हाथ में गदा, अंकुश और पाश है बिल्कुल निर्मोही हैं कृष्ण के समान । वे किसी की नहीं सुनते हैं बस सीधे मृत व्यक्ति की आत्मा को घसीटकर रस्सी से बांधकर अपने साथ ले जाते हैं सीधे चित्रगुप्त के पास। जहाँ पर आत्मा के कर्मों का लेखा-जोखा होता है। 

         यमराज से सब डरते हैं। सांसारिक आत्माऐं तो रोती हैं, चिल्लाती हैं, घिघयाती हैं, हाथ पैर जोड़ती हैं परन्तु वे कदापि नहीं छोड़ते हैं। अपने कर्म के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। हम सब भी यमराज हैं यमराज की नकल करते हैं। न जाने कितने जीवों को अपने स्वार्थ के लिए मृत्यु प्रदान करते हैं। वे चिल्लाते हैं, रोते हैं, तड़पते हैं फिर भी हम मनुष्यों का शोषण करते हैं, जीवों को काटकर खा जाते हैं और भी न जाने क्या-क्या। स्वयं की मृत्यु टालने के लिए दूसरों को मृत्यु प्रदान करना। यह है इस काल के अधीन संसार में सभी का कार्य इसीलिए कालाधीन सभी पिण्ड, शरीर और जीव इत्यादि यम के द्वारा ही मृत्युलोक में ले जाये जाते हैं। हमें भी अपने मृत्यु के कारकों को यमराज के समान एक-एक करके पाश से बांधकर घसीटते हुए पूरी निर्ममता के साथ निकालना होगा तब कहीं जाकर मृत्यु को टालने में हम कुछ हद तक सफल हो पायेंगे। नहीं तो मृत्यु शीघ्र ही दरवाजे पर खड़ी होगी। 

             जितना हम मृत्यु का खेल खेलेंगें एक तरह से उसका आह्वान करेंगे वह उतनी ही जल्दी प्रकट होगी। देखिए अंतिम समय सांसारिक व्यक्ति कितना तड़पता है अपनी सारी दौलत लुटाने को तैयार हो जाता है। कुछ भी करके वह कुछ क्षण हासिल करना चाहता है । मृत्यु को भगाना चाहता है परन्तु मृत्यु इतनी ज्यादा कण-कण में, रग-रग में प्रविष्ट हो चुकी होती है कि कहाँ कहाँ से भगायेगा। कहीं न कहीं से पकड़ में आ ही जायेगा। यह है ऋण मुक्ति का सिद्धांत। पंचभूतों का यह शरीर सिर्फ कुछ समय के लिए सभी तत्वों को उधार में लेता है विभिन्न स्त्रोतों से ऋण की एक अवधि होती है उस अवधि में ऋण के साथ ब्याज भी चुकाना पड़ता है। लोग ब्याज ही नहीं चुकाते हैं मूलधन की तो बात ही छोड़ो। एक दिन तो दिवालिया होना निश्चित है। 

          लिया अर्थात ऋण ऋण है तो व्याज भी है। देना तो पड़ेगा ही। शरीर प्राप्त किया तो फिर कर्म भी करने पड़ेगें। कर्म ही ब्याज है, कर्म ही मूलधन की वापसी है। जब तक इस भाव से कार्य नहीं करोगे हर समय मृत्यु दरवाजे पर खड़ी होगी मांगने वाले के समान। रोने से मृत्यु थोड़ी टल जायेगी। आपको शरीर क्यों दिया गया? क्योंकि आपने कर्म सम्पादित करने के लिए उसे मांगा। युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा कि इस पृथ्वी का सबसे बड़ा सत्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा इस पृथ्वी का सबसे बड़ा सत्य यह है कि सभी लोग मृत्यु से भाग रहे हैं अर्थात मृत्यु परम सत्य है इससे भागने से कुछ नहीं होगा। क्या मृत्यु एक आयामी है? नहीं कदापि नहीं। मृत्यु के अनंत आयाम हैं। एक शरीर में अनेक पुरुष हैं किसी न किसी पुरुष की मृत्यु किसी न किसी क्षण हो हीं जाती है।

            किसी स्त्री ने शिकायत की उसका पति काम रहित हो गया है। वह कामरहित, नहीं हुआ है बल्कि उसके अंदर विराजमान काम पुरुष की मुत्यु हो गई है। मृत्यु हो गई है तो हो गई । उसका यह निम्र कोटी का कर्म समाप्त हो गया तो हो गया। क्रोध चला गया तो चला गया क्रोध रूपी पुरुष की मृत्यु हो गई तो हो गई। सबकी सब ग्रंथियाँ मृत्यु के अधीन हैं। बाल सफेद हो गये अर्थात बाल काला करने की ग्रंथि की मृत्यु हो गई। वह निष्क्रिय हो गई। उसका जीवन चक्र पूरा हो गया। अब परेशान होने से क्या फायदा जब तुम्हारा स्वयं का शरीर अमर

       नहीं है तो किसी एक ग्रंथि विशेष । मृत्यु पर इतना संताप क्यों । कुल मिला-जुलाकर दो की बाते स्पष्ट होती हैं पहली जो तत्व जितना ज्यादा गतिशील, जितना ज्यादा काल के प्रभाव से ग्रसित होगा उसकी मृत्यु उतनी ही निकट है दूसरी जो नित्य और प्रति नूतन है जिसके ऊपर काल का प्रभाव नगण्य या शून्य है वह अमर है अजर है। वह मृत्यु के अधीन नहीं है। दो विपरीत धारा बह रही है एक बिन्दु मृत्यु का है दूसरा अमृत्व का मृत्यु के क्षेत्र में काल आता है। जैसे ही आप अमृत्व की और बढ़ेंगे मृत्यु के कारक पीछे छूटते जायेंगे और काल के प्रभाव को जहाँ आपने लांघा अमृत कुण्ड सामने दिखाई देगा।

                          शिव शासनत: शिव शासनत:


श्रीदुर्गाकवचका प्रभाव ।।



आज के भौतिकवादी युगमें भी यदि पूर्ण आस्था के साथ अनन्यशरण हो जगजननी माँ दुर्गा की आराधना की जाय तो वह निष्फल नहीं होती। इस तरह की एक प्रत्यक्ष घटना देखने को मिली है, जो निम्न प्रकार से है- बात सन् १९६८ ई० की है। 

एक सज्जन घरसे दूर अपनी नौकरी पर थे, वहीं उन्हें सूचना मिली कि उनके किसी शत्रु ने उनके परिवार वालों को चोरी के झूठे अभियोग में फसा दिया है तथा वे लोग शीघ्र ही कारागार में बन्द होने वाले हैं। यह सुनते ही उनके होश उड़ गये। कहीं से सहायता की आशा न होने पर उन्हें श्रीदुर्गाकवच का वाक्य - ' कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति। तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः ॥ स्मरण हो आया। वे अनन्यभावसे पूर्व स्मृतिके अनुसार कवचका
पाठ करने लगे। देवीकवच का सतत पाठ करते हुए ट्रेन से अपने घर जा पहुँचे और वहाँ से बिना किसी विशेष नियम के पाठ करते हुए थाने पर गये। विधिवेत्ताओं और पैरवीकारों के अनुसार बिना हाजिर हुए और बिना एस०डी०ओ० की अनुमति के जमानत होना असम्भव था, किंतु माँ की कृपा से कवच के प्रभाव से जमानत भी हो गयी और मुकदमे से भी बेदाग छूट गये। तब से वे प्रतिदिन केवल विनियोग पूर्वक श्रीदुर्गाकवच का पाठ करते हैं और सानन्द जीवन-यापन करते हुए अपने हर कार्य में सफलता प्राप्त करते हैं। उनका अनुभव है कि यदि अनन्यभावसे कवच का पाठ मात्र ही निरन्तर किया जाय तो यह पाठ मनोवांछित फल देता है।
(कल्याण पत्रिका)

बजरंग कैंची मंत्र साधना🌹🌹

💫बजरंग कैंची दूसरे के द्वारा किये गये प्रयोंगो,बंधनों की काट करने में अचूक कार्य करती है 

💫विधान:   
दिन: हनुमान जयंती या शुक्लपक्ष मंगलवार 
दिशा: पूर्व या उतर 
चौकी : हनुमान चित्र या मूर्ति अथवा यंत्र को स्थापित करें बाजोट पर लाल वस्त्र पर 
वस्त्र, आसन: लाल, लाल उनी आसन
पूजन: पंचोपचार पूजन
भोग: लड्डू का नित्य लगायें तुलसी दल के साथ
विशेष : साधना के प्रथम और अंतिम दिन हनुमान जी को सिन्दूर,लंगोट,सवासेर का रोट,नारियल अर्पित करें 
माला : रूद्राक्ष या मूंगे की माला 
जप संख्या: दो माला 
दिन अवधि: 11 दिन
(अगर दो माला रोज नहीं कर सकते है तो एक माला 21 दिन तक करें)

💫 प्रयोग
इस विद्या से अभिमंत्रित नींबू को जहां लटका दिया जाऐगा तो वहां पर किसी भी प्रकार का अभिचार ,भूत प्रेतादि नहीं ठहर सकते है और ना ही आयेंगे 

दुकान में इस विद्या से अभिमंत्रित नींबू लटकाने से धन्धा अच्छा चलता है और धंधे के बंधन ,नजर ,टोने टोटके के प्रभाव समाप्त हो जाते है 

भूत -प्रेत लगे व्यक्ति को 5 या 7 बार अभिमंत्रित जल छिड़कने से व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है ऐसा तीन दिन तक करें तो बाधा समूल रूप से समाप्त हो जाती है 

इस मंत्र को भोजपत्र पर लिखकर,
फिर 108 बार मंत्र पढ़कर 108 बार ही फूंक मारकर अभिमंत्रित करके ताबीज में डालकर धारण करने से सर्वत्र रक्षा होती है 108 बार फूंक का मतलब है एक बार मंत्र पढ़ा और एक फूंक मारी इसी तरह से 108 बार करना है।

जिस व्यक्ति के नाम से मंत्र पढ़कर लौंग अभिमंत्रित कर उसे खिला दें तो उसकी विद्या नष्ट हो जाती है।
  
💫इस विद्या के अनेक प्रयोग है।

श्री हनुमत शक्ति मंत्र प्रयोग !!!


० हमारे सनातन धर्म मे रुद्रा अवतार हनुमान सदैव विराजमान है,मनुष्य हो या देवी,देवता सभी के कार्य को सम्पन्न करते है हनुमान जी। राम भक्त,दुर्गा भक्त हो या शिव भक्त,सभी मार्गो मे परम सहायक होते है हनुमान। 
ये शिव अंश भी,शिव पुत्र भी है राम के भक्त भी वही सीता के पुत्र हैं।ये कपि मुख है,वही पंचमुख,सप्तमुख,और ग्यारहमुख धारण करने वाले है।ये सभी जगह सूपूजित है कारण ये संकटमोचन है।माता,पिता के लिए अपने संतान से प्यारा कोई नही होता ,जैसै गौरी पुत्र गणेश है,वही शिवांश देवी पुत्र बटुक भैरव है वही शिवांश राम भक्त हनुमान जी है।

० कहा गया है कि बिना गुरु ज्ञान नही होता है वही बिना कुल देवता के कृपा बिना किसी अन्य देव की कृपा प्राप्त नहीं होती है। 
प्रथम श्री गणेश को स्मरण पूजन किए बिना पूजा प्रारम्भनहीं होता हैं।
महाविद्या की साधना करनी हो,वहाँ बिना बटुक कृपा आगे बढ़ना कठिन है।
असली माता पिता के पास ये पुत्र ही पहुँचा सकते है,परन्तु अपने इस जीवन के माता पिता की सेवा तथा आदर किए बिना यह संभव ही नहीं है।
जीवन के बाधा,संकट का निवारण न हो तो धर्म मार्ग में बढ़ना दुष्कर है।

० मूर्ति पूजा हो या निंरकार,परन्तु सत्य यही है कि परमात्मा एक हैं,तभी तो कहा गया है कि सत्यम,शिवम, सुन्दरम। 
सत्य ही शिव है,शिव ही सुन्दर है बाकी सब गौण।एक शिव ही सृष्टि में सत्य है,वही क्रिया शक्ति,चित शक्ति एवं इच्छा शक्ति के रुप में अर्धनारीश्वर है,शिव के बायें भाग में शक्ति हैं,वही शिव के एक रुप है हरि हरात्मक आधा शिव आधा विष्णु,ये शिव की अलग अलग लीला एंव रुप है।शिव सुन्दर है वही उनकी शक्ति सुन्दरी के नाम से विख्यात है,फिर तो शिव के द्वारा रचित श्री रामायण का हनुमत कान्ड को उन्होंने सुन्दर कान्ड का नाम रखा,यह विशेष रहस्यपूर्ण है।

० सुन्दर कान्ड के प्रत्येक श्लोक का अर्थ समझेगे तो उस शिव के सुन्दर रुप का मर्म समझ में आ जायेगा।सुन्दर कान्ड का पाठ जहाँ होता है सारे अभाव,पाप,रोग विकार स्वतःनष्ट होने लगता है,हमे सिर्फ पूर्ण श्रद्धा से होकर पाठ करना चाहिए।
पाठ से पूर्व हमें क्या करना चाहिए यह भी महत्वपूर्ण है। सुन्दर कान्ड मे शिवशक्ति,सीताराम,वरदान,बल,धन,शुभ,दमन,अहंकार का विसर्जन,भक्ति की परकाष्टा,प्रेम,मिलन विश्वास,धैर्य,बौद्धिक विकास क्यों नहीं प्राप्त किया जा सकता हैं।
हमारे हनुमान जी वे सत्यम शिव के सुन्दर,लीलाधर हैं,सभी उनके कृपा से प्राप्त हो जाता है।हनुमत उपासना व्यापक है,हर कार्य सुलभ है।
प्रथम गुरु,गणेश का पूजन कर राम परिवार ऋषि पूजन कर हनुमत उपासना करने से ही पूर्ण सफलता प्राप्त होती है।

० यहां हनुमत का विशेष पाठ प्रयोग लिख रहा हूँ,जो चमत्कारिक है और पूर्ण फल प्रदान करनें मे सक्षम । 
श्री रामायण के प्रथम रचनाकार शिव है फिर ऋषि बाल्मिकी,फिर गोस्वामी तुलसीदास जी है ।मंत्र कवच के ऋषि देवता भिन्न भिन्न है।बजरंग बाण जो प्राप्त होता है वह भी अधुरा हैं।फिर भी लोगों को लाभ मिलता है। एक एक अक्षर शक्ति सम्पन्न है।श्री हनुमान जी शिवांश है परन्तु वैष्णव परिवार से है इस कारण इनके पूजा में मांस,मदिरा,स्त्री भोग वर्जित है।
गृहस्थ आश्रम के भक्त इन्हें अधिक प्रिय है परन्तु साधना काल में नियम का पालन अवश्य करे।
स्त्री भक्त मासिक धर्म में इनकी साधना न करें।
श्री हनुमान चालीसा बहुत प्रभावी एवं प्रचलित हैं, शनिग्रह से प्रभावित हो या राहुकेतु से भूत पिशाच हो या रोग व्याधि नित्य१,३,७,११,२१,३१,५१,१०८ बार पाठ करने से कामना पूर्ण होती है।यह परिक्षित है।
श्री शिव पार्वती सहित गणेश नमस्कार कर,सीताराम,सपरिवार का ध्यान कर श्री गोस्वामी तुलसीदास जी को प्रणाम करे,।
विशेष लाभ के लिए तिल का तेल और चमेली का तेल मिलाकर लाल बती का दीपक लगा लें,
पूर्व,उतर मुख करके थोड़ा गुड़,का लड्डू या किशमिश का प्रसाद अर्पण कर पाठ आरम्भ करें।
इससे अवश्य कामना या संकट का निवारण होता है।

मां दुर्गा के मंत्र और जानकारी ।।

II ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडाय विच्चे ll


II ओम दुम दुर्गायै नमःII

"ॐ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुतेII"


"सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते"

देवी दुर्गा की पूजा शिव, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश, कार्तिकेय, उनके वाहनों और महिषासुर के साथ की जाती है। 
फिर देवी दुर्गा के साथ आने वाली देवियों की पूजा की जाती है। 
वे निम्नलिखित हैं !

💫आठ शक्तियाँ :~

1) उग्रचंडा

2) प्रचंड

3) चंडोग्रा

4) चंदनायिका

5) चंदा

6) चंदावती

7) चंद्ररूपा

8) अतिचंडिका

💫तैंतीस विभूतियाँ :~

1) जयंती

2) मंगला

3) काली

4) भद्रकाली

5) कपालिनी

6) दुर्गा

7) शिवा

8) क्षमा

9) धात्री

10) स्वाहा

11) स्वधा

12) उग्रचंडा

13) महादंष्ट्रा

14) शुभदंष्ट्रा

15) करालिनी

16) भीमनेत्र

17) विशालाक्षी

18) विजया

19) जया

20) नंदिनी

21) भद्रा

22) लक्ष्मी

23) कीर्ति

24) यशस्विनी

25) पुष्टि

26) मेधा

27) शिवा

28) साध्वी

29) यश

30) शोभा

31) धृति

32) आनंदा

33) सुनंदा

💫चौसठ योगिनियाँ :~

1) ब्राह्मणी

2) चंडिका

3) गौरी

4) इंद्राणी

5) कौमारी

6) भैरवी

7) दुर्गा

8) नरसिंही

9) कालिका

10) चामुंडा

11) शिवदुति

12) वाराही

13) कौशिकी

14) माहेश्वरी

15) शंकरी

16) जयंती

17) सर्वमंगला

18) काली

19) करालिनी

20) मेधा

21) शिव

22) शाकंभरी

23) भीमा

24) शांति

25) भ्रामरी

26) रुद्राणी

27) अंबिका

28) क्षमा

29) धात्री

30) स्वाहा

31) स्वधा

32) अपर्णा

33) महोदया

34) घोरारूपा

35) महाकाली

36) भद्रकाली

37) कपालिनी

38) क्षेमंकरी

39) उग्रचंडा

40) चंदोगरा

41) चंदनायिका

42) चंदा

43) चंदावती

44) चंडी

45) महामाया

46) प्रियंका

47) बालविकरण

48) बालप्रमर्थनी

49) मनोनमथानी

50) सर्वभूतदमनी

51) उमा

52) तारा

53) महानिद्रा

54) विजया

55) जया

56) शैलपुत्री

57) चंडिका

58) चंद्रघंटा

59) कुष्मांडी

60) स्कंदमात्री

61) कात्यायनी

62) रौद्री

63) कालरात्रि

64) महागौरंगी

💫नौ दुर्गाएँ :~

1) ब्राह्मी

2) माहेश्वरी

3) कौमारी

4) वैष्णवी

5) वाराही

6) नरसिंही

7) ऐन्द्री

8) चामुंडा

9) कात्यायनी

💫अठासी मातृकाएँ :~

1) जयंती

2) मंगला

3) काली

4) भद्रकाली

5) कपालिनी

6) दुर्गा

7) शिवा

8) क्षमा

9) धात्री

10) स्वाहा

11) स्वधा

12) उग्रचंडा

13) महाद्रष्टा

14) शुभदा

15) करालिनी

16) भीमनेत्र

17) विशालाक्षी

18) विजया

19) जया

20) नंदिनी

21) भद्रा

22) लक्ष्मी

23) कीर्ति

24) यशस्विनी

25) पुष्टि

26) मेधा

27) साध्वी

28) यश

29) शोभा

30) अजया

31) धृति

32) आनंदा

33) सुनंदा

34) विजया

35) शांति

36) क्षमा

37) सिद्धि

38) तुष्टि

39) उमा

40) प्रिया

41) ऋद्धि

42) रति

43) दीपा

44) कांति

45) लक्ष्मी

46) ऐश्वर्या

47) वृद्धि

48) शक्ति

49) यवती

50) ब्राह्मी

51) अपरिजीत

52) अज

53) तारा

54) मनसा

55) श्वेता

56) दिति

57) माया

58) महामाया

59) मोहिनी

60) लालसा

61) तिवरा

62) विमला

63) गौरी

64) मति

65) अरुंधति

66) घंटा

67) कर्ण

68) सुकर्ण

69) रौद्री

70) काली

71) मयूरी

72) त्रिनेत्र

73) सुरूपा

74) बहुरूपा

75) रिपुहंत्री

76) अंबिका

77) चर्चिका

78) सुरपूजिता

79) वैवस्वती

80) कौमारी

81) माहेश्वरी

82) वैष्णवी

83) कृतिका

84) कौशिकी

85) शिवदूती

84) चामुंडा

85) ब्राह्मणी

86) वाराही

87) नरसिंही

88) ऐन्द्री

💫वटुका भैरव :~

1) सिद्ध

2) ज्ञान

3) सहज

4) समय

💫नौ क्षेत्रपाल :~

1) हेतुका

2) त्रिपुराघ्नय

3) अग्निजिह्वा

4) अग्निवेताल

5) काल

6) कराला

7) एकपाद

8) भीसन

9) गणेश

💫दुर्गा माता के शस्त्र :~

1) त्रिशूल

2) तलवार

3) चक्र

4) बाण

5) भाला

6) ढाल

7) धनुष

8) सर्प-फांस

9) अंकुश

10) घंटी/कुल्हाड़ी

11) ध्वज

12) पंखा

13) सिंह

14) सिंहासन

💫दुर्गा माता के सेवक :~

1) जया

2) विजया

3) डाकिनी

4) वर्णिनी

5) योगिनी

6) शाकिनी

7) हाकिनी

8) राकिनी

💫नौ भैरव :~

1) अष्टांग

2) रुरु

3) चंड

4) क्रोध

5) उन्मत्त

6) भयंकर

7) कपाल

8) भीषण

9) संहार

सारे जहाँ से अच्छा ...

सारे जहाँ से अच्छा, औपचारिक रूप से "तराना-ए-हिंदी" (हिन्दुस्तान के लोगों का गान) के रूप में जाना जाता है, उर्दू कविता की ग़ज़ल शैली में कवि मुहम्मद इकबाल द्वारा लिखे गए बच्चों के लिए एक उर्दू भाषा का देशभक्ति गीत है। यह कविता 16 अगस्त 1904 को साप्ताहिक पत्रिका इत्तेहाद में प्रकाशित हुई थी।

इकबाल द्वारा सार्वजनिक रूप से अगले वर्ष गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर, ब्रिटिश भारत (अब पाकिस्तान में) में गाया गया, यह तुरंत ब्रिटिश राज के विरोध का एक गान बन गया। यह गीत, हिंदुस्तान के लिए है - वह भूमि जिसमें वर्तमान बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान सम्मिलित हैं।


1910 में, मुहम्मद इकबाल ने मुस्लिम बच्चों के लिए एक गीत लिखा, "तराना-ए-मिल्ली" (मज़हबी समुदाय का गान), जिसे "सारे जहां से अच्छा" के रूप में एक ही छंद और तुकबंदी योजना में बनाया गया था।

तराना-ए-मिल्ली (1910) का पहला छंद पढ़ता है -

चीन ओ अरब हमारा, हिंदुस्तान हमारा
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा

अर्थ -
मध्य एशिया और अरब हमारा है,
हिन्दुस्तान हमारा है
हम मुस्लिम हैं, सारा संसार हमारा है

इकबाल के समय में मध्य एशिया को चीन कहा जाता था

पारद शिवलिंग और शालग्राम पूजन का विशेष महत्त्व क्यों?

पारद शम्भु-बीज है। अर्थात् पारद (पारा) की उत्पत्ति महादेव शंकर के वीर्य से हुई मानी जाती है। इसलिए शास्त्रकारों ने उसे साक्षात् शिव माना है और पारदलिंग का सबसे अधिक महत्त्व बताकर इसे दिव्य बताया है। शुद्ध पारद संस्कार द्वारा बंधन करके जिस देवी-देवता की प्रतिमा बनाई जाती है, वह स्वयं सिद्ध होती है। वागभट्ट के मतानुसार, जो पारद शिवलिंग का भक्ति सहित पूजन करता है, उसे तीनों लोकों में स्थित शिवलिंगों के पूजन का फल मिलता है। पारदलिंग का दर्शन महापुण्य दाता है। इसके दर्शन से सैकड़ों अश्वमेध यज्ञों के करने से प्राप्त फल की प्राप्ति होती है, करोड़ों गोदान करने एवं हजारों स्वर्ण मुद्राओं के दान करने का फल मिलता है। जिस घर में पारद शिवलिंग का नियमित पूजन होता है, वहां सभी प्रकार के लौकिक और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार की कमी उस घर में नहीं होती, क्योंकि वहां ऋद्धि-सिद्धि और लक्ष्मी का वास होता है। साक्षात् भगवान् शंकर का वास भी होता है। इसके अलावा वहां का वास्तुदोष भी समाप्त हो जाता है। प्रत्येक सोमवार को पारद शिवलिंग पर अभिषेक करने पर तांत्रिक प्रयोग नष्ट हो जाता है।

शिव महापुराण में शिवजी का कथन है-

लिंगकोटिसहस्रस्य यत्फलं सम्यगर्चनात् । 
तत्फलं कोटिगुणितं रसलिंगार्चनाद्भवेत ॥ 
ब्रह्महत्या सहस्राणि गौहत्यायाः शतानि च। 
तत्क्षणद्विलयं यांति रसलिंगस्य दर्शनात् ॥ 
स्पर्शनात्प्राप्यत मुक्तिरिति सत्यं शिवोदितम् ॥

अर्थात् करोड़ों शिवलिंगों के पूजन से जो फल प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ गुना फल पारद शिवलिंग की पूजा और दर्शन से प्राप्त होता है। पारद शिवलिंग के स्पर्श मात्र से मुक्ति प्राप्त होती है।

शालग्राम

नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाने वाले काले रंग के चिकने अंडाकार पत्थर, जिनमें एक छिद्र होता है और पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं तथा कुछ पत्थरों पर सफेद रंग की गोल धारियां चक्र के समान पड़ी होती हैं, इनको शालग्राम कहा जाता है।

शालग्राम रूपी पत्थर की काली बटिया विष्णु के रूप में पूजी जाती है। शालग्राम को एक विलक्षण मूल्यवान पत्थर माना गया है, जिसका वैष्णवजन बड़ा सम्मान करते हैं। पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर में शालग्राम न हो, वह घर नहीं, श्मशान के समान है। पद्मपुराण के अनुसार जिस घर में शालग्राम शिला विराजमान रहा करती है, वह घर समस्त तीयों से भी श्रेष्ठ होता है। इसके दर्शन मात्र से ब्रह्महत्या दोष से शुद्ध होकर अंत में मुक्ति प्राप्त होती है। पूजन करने वालों को समस्त भोगों का सुख मिलता है। शालग्राम को समस्त ब्रह्मांडभूत नारायण (विष्णु) का प्रतीक माना जाता है। भगवान् शिव ने स्कंदपुराण के कार्तिक महात्म्य में शालग्राम का महत्त्व वर्णित किया है। प्रति वर्ष कार्तिक मास की द्वादशी को महिलाएं तुलसी और शालग्राम का विवाह कराती हैं और नए कपड़े, जनेऊ आदि अर्पित करती हैं। हिंदू परिवारों में इस विवाह के बाद ही विवाहोत्सव शुरू हो जाते हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड अध्याय 21 में उल्लेख मिलता है कि जहां शालग्राम की शिला रहती है, वहां भगवान् श्री हरि विराजते हैं और वहीं संपूर्ण तीर्थों को साथ लेकर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं। शालग्राम शिला की पूजा करने से ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं, वे सब नष्ट हो जाते हैं। छत्राकार शालग्राम राज्य देने की तथा वर्तुलाकार में प्रचुर संपत्ति देने की योग्यता है। विकृत, फटे हुए, शूल के नोक के समान, शकट के आकार के, पीलापन लिए हुए, भग्नचक्र वाले शालग्राम दुख, दखिता, व्याधि, हानि के कारण बनते हैं। अतः इन्हें घर में नहीं रखना चाहिए।

पुराण में यह भी कहा गया है कि शालग्राम शिला का जल जो अपने ऊपर छिड़कता है, वह समस्त यज्ञों और संपूर्ण तीथों में स्नान कर चुकने का फल पा लेता है। शिला की उपासना करने से चारों वेद के पढ़ने तथा तपस्या करने का पुण्य मिलता है। जो निरंतर शालग्राम शिला के जल से अभिषेक करता है, वह संपूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है। इसमें संदेह नहीं कि शालग्राम के जल का निरंतर पान करने वाला पुरुष देवाभिलषित प्रसाद पाता है। उसे जन्म, मृत्यु और जरा से छुटकारा मिल जाता है। मृत्युकाल में इसका जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को चला जाता है। शालग्राम पर चढ़े तुलसी पत्र को दूर करने वाले का दूसरे जन्म में स्त्री साथ नहीं देती। शालग्राम, तुलसी और शंख इन तीनों को जो व्यक्ति सुरक्षित रूप से रखता है, उससे भगवान् श्री हरि बहुत प्रेम करते हैं।

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महाँकाल भैरव साधना ।।


यह रक्षा कारक साधना है, जिन्हें दुसरों से धोखे अगर बार बार मिलते हों,अनजाना भय लगता हो, शत्रु हैरान या बदनामी करते हों, उनके लिए ये रामबाण साधना है। ये किसी भी रविवार या अष्टमी की रात्रि में कर सकते हैं।

संकल्प लेकर गुरुदेव, गणपति को प्रणाम करें भैरवजी के यंत्र या चित्र के सामने स्नान करके रात्रि 9 बजे काले या लाल आसन पर दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठ जाएं।

अपने सामने काले वस्त्र पर सूखा नारियल , एक कपूर के टुकड़े , 11 लौंग 11 इलायची थोड़ा लोबान या धूप रखें। 
सरसों के तेल का दीपक जलाएं। हाथ में नारियल लेकर अपनी मनोकामना बोलें। 
नारियल परसिंदूर,अक्षत,काले तिल लाल पुष्प, थोड़ा गुड़ या जलेबी अर्पित करें।

दक्षिण दिशा की ओर देखकर इस मन्त्र का 108 बार जप हकीक या रुद्राक्ष से करें।

मंत्र:- 
"ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भ्रः! ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रः!ख्रां ख्रीं ख्रूं ख्रः!घ्रां घ्रीं घ्रूं घ्र:! म्रां म्रीं म्रूं म्र:! म्रों म्रों म्रों म्रों! क्लों क्लों क्लों क्लों!श्रों श्रों श्रों श्रों! ज्रों ज्रों ज्रों ज्रों। हूँ हूँ हूँ हूँ। हूँ हूँ हूँ हूँ फट सर्वतो रक्ष रक्ष रक्ष रक्ष भैरव नाथ हूँ फट।"

जप के बाद क्षमा प्रार्थना करें, अपनी इच्छा पूर्ण होने का अनुरोध करें। गुरु महाकाल,
भोग गुड़ या जलेबी को घर के बाहर कुत्ते के लिए रख दें,फिर इस बाकी सामान को उसी रात्रि या अगले दिन काले कपडे़ में बांधकर भैरव मंदिर में चढ़ा दें या फिर जल में प्रवाहित कर दें या सुनसान जगह पर छोड़ दें।

      ।।जय श्री महाकाल।।

मंगलवार को हनुमानजी का दिन होता है। जिसे हनुमान जी का आशीर्वाद मिल गया तो समझो उसके सारे काम हो गए। मंगलवार को करें यह टोटके/उपाय, बन जाएगा बिगड़ा काम ।।

मंगलवार के टोटके / उपाय

1. आप मंगलवार के दिन राम मंदिर में जाएं और दाहिने हाथ के अंगुठे से हनुमान जी के सिर से सिंदूर लेकर सीता माता श्री चरणों में लगा दें इससे आपकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगा।

2. मंगल के दिन सुबह के दिन एक धागे में चार मिर्चें नीचे डालकर उसके ऊपर नींबू डालें और फिर उसके ऊपर तीन मिर्चें और लगाए। इसके बद इसे घर और व्यवसाय के दरवाजे पर लटका दें। इससे नकारात्मकता खत्म हो जाएगी और सकारात्मकता का संचार होगा।

3. मंगलवार के दिन पीपल के 11 पत्ते लेकर साफ जल से धो लें। इन पत्तों पर चंदन या कुमकुम से प्रभु श्रीराम का नाम लिखें। इसके बाद हनुमान जी के मंदिर में जाकर इन पत्तों को अर्पित कर दें। इससे जीवन के दुख कम होंगे।

4. प्रत्येक मंगलवार को नजदीकी मंदिर में जाकर हनुमान जी को बनारसी पान अर्पित करें। ऐसा करने से आपके जीवन में हमेशा हनुमान जी की कृपा बनी रहेगी और आपके सभी काम बनते रहेंगे।

5. मंगलवार को सुबह लाल गाय को रोटी देना शुभ है।

6. मंगलवार को हनुमान मंदिर या गणेश मंदिर में नारियल रखना अच्छा माना जाता है।

7. मिटटी के बर्तन में हनुमान जी को बूंदी का भोग लगाये , फिर गरीबो को दान कर दे

8. मंगलवार को हनुमान मंदिर में तुलसी का पत्ता चढ़ाए

9. राम लिखी लाल रंग की ध्वजा मंगलवार को हनुमान जी को चढ़ाए

10. मंगलवार के दिन लाल चंदन,लाल गुलाब के फूल तथा रोली को लाल कपड़े में बांधकर एक सप्ताह के लिए मंदिर में रख दें. एक सप्ताह के बाद उनको घर की तथा दुकान की तिजोरि में रख दें

11. प्रत्येक मंगलवार को बच्चे के सिर पर से कच्चा दूध 11 बार वार कर किसी जंगली कुत्ते को शाम के समय पिला दें

12. सुबह सूरज उगने के समय एक गुड का डला लेकर किसी चौराहे पर जाकर दक्षिण की ओर मुंह करके खडे हो जांय ! गुड को अपने दांतों से दो हिस्सों में काट दीजिए ! गुड के दोनो हिस्सों को वहीं चौराहे पर फेंक दें और वापिस आ जांय

13. लगातार आठ मंगलवार हनुमान जी के मंदिर एक नारियल ले कर जाये उसके सिंदूर से स्वस्तिक बनाये हनुमान जी को अर्पित कर वहां बैठ कर ऋणमोचक मंगल स्तोत्र का पाठ करे

14. मंगलवार के दिन एक साबुत पानी वाला नारियल लेकर उसे बीमार व्यक्ति के सिर पर से 21 बार उसार कर किसी मंदिर की आग में डाल दें। साथ ही हनुमानजी की प्रतिमा को चोला चढ़ाकर हनुमान चालिसा पढ़े।

शास्त्रों के अनुसार कमाई का कितना हिस्सा दान करना चाहिए और दिया दान कब नष्ट हो जाता है?

हिन्दू धर्म के साथ-साथ कई अन्य धर्मों में भी दान करने की बात कही गयी है। दान देने से आपमें विनम्रता बनी रहती है और कई तरह धार्मिक लाभ भी मिलते हैं। दान के कई प्रकार होते हैं। गीता में तीन प्रकार के दान की बात कही गई है, 
दान करना पुण्य का काम है और यह व्यक्ति के व्यक्तित्व को बेहतर बनाता है।
ऋग्वेद के अनुसार, दान करने का फल यज्ञ करने के फल के समान होता है। 
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत, जिसे 'दशांश' कहा जाता है, दान करना चाहिए ।
भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है: सात्विक, राजसिक और तामसिक।

 दान देने का मन में पश्चाताप या अश्रद्धा होने पर वह दान नष्ट हो जाता है। 

 यज्ञ करने के बाद जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल किसी को दान करने से भी मिलता है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में भी दान का विशेष महत्व बताया गया है लेकिन साथ में कुछ नियम भी बताये गए हैं। उन्हीं नियमों में इस बात की भी व्याख्या है कि आपको अपनी कमाई का कितना प्रतिशत हिस्सा जरूर दान करना चाहिए। 

 दस प्रतिशत हिस्सा जरूर दान दें 

 धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत जरूर दान करना चाहिए । इसे "दशांश" या "दशवंध" कहा जाता है। हिन्दू धर्म के अलावा यहूदी, ईसाई और इस्लामी धर्मों में भी दान देने की सलाह दी गयी है और इसे धार्मिक और नैतिक कर्तव्य माना जाता है। शास्त्रों की मानें, तो हर व्यक्ति को अपनी समर्थता और परिस्थिति के अनुसार दान करना चाहिए। यदि किसी की आय अधिक है और वह अधिक दान करने में सक्षम है, तो उसे अधिक दान करना चाहिए। दान से समाज में संतुलन और समृद्धि बनी रहती है। 

 दान देने के नियम 

भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है। पहला दान है सात्विक दान , जो बिना किसी अपेक्षा के और सही स्थान और समय पर किया जाता है। दूसरा दान है राजसिक दान, जो फल की अपेक्षा के साथ और किसी अन्य स्वार्थ के लिए किया जाता है। तीसरा है तामसिक दान , जो अनुचित स्थान, समय और व्यक्ति को किया जाता है। दान हमेशा सत्पात्र अर्थात् दान लेने हेतु योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए और ऋण लेकर कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए । दान कभी भी अपनों को दुखी या प्रताड़ित करके भी नहीं दिया जाना चाहिए। दान को लेकर यह भी कहा जाता है कि अपने संकट काल के लिए संरक्षित धन यानि सेविंग का कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए। 

 कब दिया दान नष्ट हो जाता है? 

दान देने से आपके मन के भाव में सकारात्मकता आती है। इसलिए अगर दान देने के बाद दान दाता के मन में पश्चाताप आ जाए या उसे दान देने का अफसोस हो, तो वो दान नष्ट हो जाता है। जो दान अश्रद्धापूर्वक या किसी गलत भाव के साथ दिया जाए, तो वह भी नष्ट हो जाता है। जो भयपूर्वक दिया जाता है। वह भी नष्ट हो जाता है। ऐसा दान जो स्वार्थ पूर्वक अर्थात् दान देने वाले से बदले में कुछ अपेक्षा रखकर दिया जाता है, तो वो भी नष्ट हो जाता है।