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अवतार और देवत्व : एक शास्त्रीय विवेचन 🍁

पञ्चदेव — रुद्र, मरुत, वसु, वासव आदि — के विविध अवतार यदि पृथ्वी पर हुए हों, तो मात्र अवतार-स्वरूप होना ही उन्हें पूज्य देवता सिद्ध कर देगा — ऐसा सामान्य जन मान लेते हैं, किंतु यह शास्त्रसम्मत नहीं।


◆ लोग कहते हैं – “गङ्गाजल यदि लौटे में रखा हो, तब भी वह गङ्गाजल ही कहलाता है।” इसी प्रकार “विष्णु या शिव के अवतार भी तो देवता ही होंगे।”
● यह भ्रान्ति है। देवत्व कोई साधारण बात नहीं है जिसे हर अवतार को सौंप दिया जाए। शास्त्रों में अवतारों के भी भेद स्पष्ट हैं — पूर्णावतार, अंशावतार, आवेशावतार, लीलावतार आदि।

● श्रीराम व श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं — समस्त कलाओं से युक्त, शाश्वत, पूज्य।
● किन्तु पृथु, ऋषभदेव, कपिल, नर-नारायण, सनकादि, दुर्वासा, पिप्लाद आदि — ये सभी अंशावतार अथवा ऋष्यवतार हैं — इनकी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है।

▪︎ महत्त्व का तथ्य यह है कि —
वह अवतार ही पूज्य है जिसका शास्त्रसम्मत पूजन-विधान, आगम-विधि, मन्त्र-विनियोग, मूर्तिस्थापन एवं प्रतिष्ठा का स्पष्ट विधान उपलब्ध हो।

● कालभैरव पूज्य हैं — तांत्रिक, यांत्रिक, लिंगात्मक विधियों सहित।
परंतु अर्जुन का परीक्षण करने आए किरात, या चाण्डालरूप धारी शिव — उनकी पूजा नहीं होती।

▪︎ अश्वत्थामा, गृहपति, वीरभद्र आदि आवेशावतार माने जाते हैं, किन्तु सभी की प्रतिष्ठा नहीं होती।

यदि भविष्य में किरात, चाण्डाल, वैश्य आदि जातियों से प्रेरित होकर कोई “शिवावतार” मानकर मंदिर निर्माण करने लगे — तो क्या वह धर्मसंगत होगा?

◆ यदि वे मूर्तिपूजनीय नहीं हैं, तो शास्त्र का उल्लंघन कर उनके नाम पर मूर्तियाँ स्थापित करना, उत्सव करना — क्या यह श्रद्धा है या उन्मत्त विकृति?
यह शिवभक्ति नहीं, अपितु शिवावतारों के नाम पर कुतर्कयुक्त विघटन है।

▪︎ यदि आपको किसी अमुक अवतार से गहन अनुराग हो, तो प्रत्यक्ष शिवलिंग की आराधना कीजिए, रुद्राभिषेक कीजिए, सहस्रपार्थिव लिंगों का पूजन कर प्रवाह कीजिए — वही शास्त्रसम्मत मार्ग है।

आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि—

● भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जिन बातों को कभी स्वप्न में भी स्वीकार न करते, वे कार्य आज उन्हीं के प्रतिष्ठित मठों से प्रचारित हो रहे हैं।

◆ संघी-समाजी विचारधारा कहती है — “राम-कृष्ण आदि केवल महापुरुष हैं, कोई देवता नहीं!”
ऐसा विचार दैवद्रोह है।
इसे “महापुरुष” बनाकर दीनदयाल, पटेल आदि की श्रेणी में ला देना शास्त्र का उपहास है।

▪︎ मूर्तिभंजक उन्मादतंत्र के नेताओं को “दीर्घायु” का आशीर्वाद देना —
क्या यह धर्म की रक्षा है?
या गौवध, देवविरोध व परम्पराभंजन के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन?

"न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्"

● चिदानन्द देह को पञ्चभौतिक शरीर मान लेना घोर मूर्खता है।
भगवान जिस दिव्य चिद्देह को धारण करते हैं, वह साधारण मरणशील देह नहीं।
उन्हें “मृत” कहना देवनिन्दा है।

◆ यह अत्यन्त दुर्भाग्य है कि शास्त्रप्रणीत मर्यादा को छोड़कर केवल जातिगत भावना, राजनीतिक प्रवाह, और सांप्रदायिक संकीर्णता के कारण हम उन कार्यों को भी धर्म मानने लगे हैं जिनका शास्त्र में लेशमात्र भी समर्थन नहीं।



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