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जन्म से मृत्यु तक कुंडली के 12 भाव ।।
अर्धनारीश्वर शिव और शक्ति ।।
त्वं देवी जगत माता योनिमुद्रे नमोस्तुते !
इस समय पूरी प्रकृति ही रजस्वला है, दिव्यतम अम्बूवाची पर्व पर एक चिंतन...
पौरोणिक कथाओं के जनुसार सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे, वो स्त्रियों को तुच्छश् समझते थे।
वो शिवजी को गुरुतुल्य मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को वो अनदेखा करते थे। एक तरह से वो माँ को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे।
महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे।
एक दिन शिव जी ने माता से कहा, आज ज्ञान सभा में आप भी चले। माँ ने शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार की और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई।
सभी ऋषिगण और देवताओ ने माँ और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया...
किन्तु भृगु माँ और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करें।
बहुत विचारने के बाद भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाये।
शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात।
वो माँ को देखे, माता ने उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई।
अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकाली।
भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए।
माता को भृगु के ओछी सोच पे क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु से कहा, भृगु तुम्हे स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाये...
और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया।
अब भृगु न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें अपार पीड़ा हो रही थी...
वो माँ से क्षमा याचना करने लगे...
तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा।
माँ ने उन्हें क्षमा किया और बोली, संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नहीं। बिना स्त्री के प्रकृति भी नही पुरुष भी नहीं।
दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नहीं देता वो जीने का अधिकारी नहीं।
आज संसार में अनेकों ऐसे सोच वाले लोग हैं। उन्हें इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीने। खुद जिए और स्त्रियों के लिए भी सुखद संसार की व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दें।
स्वस्थ जीवन प्राप्त करने के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र ।।
१. शरीर में कहीं पर भी कोई रोग हो, पर नित्य छाती और आमाशय की मांस पेशियों को बलशाली बनाने के उद्देश्य से अनुशासन बद्ध प्राणायाम किया जाय तो निश्चय हो स्वस्थ जीवन पाया जा सकता है।
२. अपने जीवन के उद्देश्यों का मूल्यांकन करते रहिए, जीवन में क्या पाना है, इस पर जोर देने के बजाय आपको क्या बनना है, इस पर विचार केन्द्रित कीजिये ।
३. अधिक कामों में उलझने की अपेक्षा कम और महत्वपूर्ण काम हाथ में रखिये और उसे सफलतापूर्वक पूरा कीजिए, आपके व्यक्तित्व के लिए यह ज्यादा उचित रहेगा।
४. अपना कुछ समय अकेले में अवश्य बिताइये, कुछ नहीं हो तो बैठे-बैठे मन हो मन गुनगुनाइये, संगीत में खो जाइये या प्रकृति को निहारिये, इससे आपके शरीर व मन को पूरा आराम मिलेगा ।
५. यदि कहीं पहुंचना है या कोई काम करना है तो जल्दबाजी मत कीजिये, ऐसी आदत घोरे-धीरे बना लीजिये, इससे तनाव नहीं होगा ।
६. रोज निश्चित समय से पांच मिनट पहले उठिये, ताकि आपकी दिनचर्या जल्दबाजी या हड़बड़ी से शुरू न हो।
७. बहुत कम बोलिये और ज्यादा से ज्यादा सुनने का अभ्यास कीजिये ।
८. छोटी-छोटी बातों पर झल्लाइये मत, गुस्सा मत कीजिये, आपके हाथ में जब यह नहीं है, तो फिर भल्लाने से क्या फायदा ?
९. आलोचना करने वालों को कोई जवाब मत दीजिये, वे स्वतः हो चुप हो जायेंगे ।
१०. सहज व्यवहार करने वालों को अपना दोस्त बनाइये ।
११. जल्दबाजी दिल का दौरा लेकर भाती है, इसलिए प्रत्येक कार्य शांति से कीजिये।
१२. अपने वजन का ध्यान रखिये, वजन बढ़ना मृत्यु के दरवाजे पर जाकर खड़े होने के बराबर है।
बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति ।।
समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।
सोलह कलाओं का संक्षिप्त ज्ञान ।।
भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता है कि वह संपूर्णावतार थे और मनुष्य में निहित सभी सोलह कलाओं के स्वामी थे। यहां पर कला शब्द का प्रयोग किसी 'आर्ट' के संबंध में नहीं किया गया है बल्कि मनुष्य में निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति के स्तर के बारे में किया गया है। श्री कृष्ण जिन सोलह कलाओं को धारण करते थे उनका संक्षिप्त विवरण यह है।
ये वो 16 कलायें हैं, जो हर किसी व्यक्ति में कम या ज्यादा होती हैं।
कला 1- श्री संपदा
श्री कला से संपन्न व्यक्ति के पास लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है। ऐसा व्यक्ति आत्मिक रूप से धनवान होता है। ऐसे व्यक्ति के पास से कोई खाली हाथ वापस नहीं आता। इस कला से संपन्न व्यक्ति ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करता है।
कला 2- भू संपदा
जिसके भीतर पृथ्वी पर राज करने की क्षमता हो तथा जो पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग का स्वामी हो, वह भू कला से संपन्न माना जाता है।
कला 3- कीर्ति संपदा
कीर्ति कला से संपन्न व्यक्ति का नाम पूरी दुनिया में आदर सम्मान के साथ लिया जाता है। ऐसे लोगों की विश्वसनीयता होती है और वह लोककल्याण के कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
कला 4- वाणी सम्मोहन
वाणी में सम्मोहन भी एक कला है। इससे संपन्न व्यक्ति की वाणी सुनते ही सामने वाले का क्रोध शांत हो जाता है। मन में प्रेम और भक्ति की भावना भर उठती है।
कला 5- लीला
पांचवीं कला का नाम है लीला। इससे संपन्न व्यक्ति के दर्शन मात्र से आनंद मिलता है और वह जीवन को ईश्वर के प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है।
कला 6- कांति
जिसके रूप को देखकर मन अपने आप आकर्षित हो जाता हो, जिसके मुखमंडल को बार-बार निहारने का मन करता हो, वह कांति कला से संपन्न होता है।
कला 7- विद्या
सातवीं कला का नाम विद्या है। इससे संपन्न व्यक्ति वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ, संगीत कला, राजनीति एवं कूटनीति में भी सिद्घहस्त होते हैं।
कला 8- विमला
जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो और जो सभी के प्रति समान व्यवहार रखता हो, वह विमला कला से संपन्न माना जाता है।
कला 9- उत्कर्षिणि शक्ति
इस कला से संपन्न व्यक्ति में लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करने की क्षमता होती है। ऐसे व्यक्ति में इतनी क्षमता होती है कि वह लोगों को किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित कर सकता है।
कला 10- नीर-क्षीर विवेक
इससे संपन्न व्यक्ति में विवेकशीलता होती है। ऐसा व्यक्ति अपने विवेक से लोगों का मार्ग प्रशस्त कर सकने में सक्षम होता है।
कला 11- कर्मण्यता
इस कला से संपन्न व्यक्ति में स्वयं कर्म करने की क्षमता तो होती है। वह लोगों को भी कर्म करने की प्रेरणा दे सकता है और उन्हें सफल बना सकता है।
कला 12- योगशक्ति
इस कला से संपन्न व्यक्ति में मन को वश में करने की क्षमता होती है। वह मन और आत्मा का फर्क मिटा योग की उच्च सीमा पा लेता है।
कला 13- विनय
इस कला से संपन्न व्यक्ति में नम्रता होती है। ऐसे व्यक्ति को अहंकार छू भी नहीं पाता। वह सारी विद्याओं में पारंगत होते हुए भी गर्वहीन होता है।
कला 14- सत्य-धारणा
इस कला से संपन्न व्यक्ति में कोमल-कठोर सभी तरह के सत्यों को धारण करने की क्षमता होती है। ऐसा व्यक्ति सत्यवादी होता है और जनहित और धर्म की रक्षा के लिए कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं करता।
कला 15- आधिपत्य
इस कला से संपन्न व्यक्ति में लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित करने का गुण होता है। जरूरत पड़ने पर वह लोगों को अपने प्रभाव की अनुभूति कराने में सफल होता है।
कला 16- अनुग्रह क्षमता
इस कला से संपन्न व्यक्ति में किसी का कल्याण करने की प्रवृत्ति होती है। वह प्रत्युपकार की भावना से संचालित होता है। ऐसे व्यक्ति के पास जो भी आता है, वह अपनी क्षमता के अनुसार उसकी सहायता करता है।
गुरु ईश्वर नहीं हैं । ये भी सच है लेकिन गुरु ईश्वर से कम भी नहीं हैं ये भी उतना ही सच है ।।
कौन गृहस्थ कौन सन्यासी ?
मोक्ष पाटम ।।
महाभारत में वर्णित ये पैंतीस नगर आज भी मौजूद हैं ।।
ईश्वर साकार है या निराकार ?
इस विषय को लेकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का किसी विद्वान के साथ निरंतर तर्क-वितर्क चलता था।
एक दिन रामकृष्ण उन्हें लेकर मंदिर चले गए। सामने कृष्ण जी की सुंदर मूर्ति थी। रामकृष्ण ने उन्हें कहा कि ईश्वर साकार है ऐसी भावना करके आंखें बंद करो और प्रभु की मूर्ति को स्पर्श करो। उन्होंने ऐसा ही किया तो उनके हाथों ने प्रभु की प्रतिमा को स्पर्श कर लिया। फिर रामकृष्ण ने उनसे कहा कि अब आंखें बंद कर ऐसी भावना करो कि ईश्वर निराकार है और पुनः प्रभु की प्रतिमा को स्पर्श करो।
इस बार जब आंखें बंद कर निराकार भाव लेकर उनके विद्वान मित्र ने जब प्रभु के विग्रह का स्पर्श किया तो हाथ मूर्ति के आर-पार निकल गई।
रामकृष्ण परमहंस के उन मित्र को ईश्वर का साकार और निराकार होना एक बार में ही समझ में आ गया।
हिंदू धर्म क्लिष्ट है तो अत्यंत सहज भी है, मूल बात है कि इस चेतना की अनुभूति करना, इसे जिसने अनुभूति कर लिया उसे असीम प्रशांति प्राप्त होती है और वो तुच्छ बातों से, अनर्गल तर्कों से और अनावश्यक प्रलापों से दूर होकर सहज भाव से इसका प्रचार करता है।
प्रज्ञा का जगना :
इन 21वस्तुओं को सीधे पृथ्वी पर रखना वर्जित होता है। ये वस्तुयें पृथ्वी की ऊर्जा को अव्यवस्थित करती हैं और उस स्थान को अशुभ बनाती हैं।
ये वस्तुयें हैं -
(1) मोती
(2) शुक्ति (सीपी)
(3) शालग्राम
(4) शिवलिंग
(5) देवी मूर्ति
(6) शंख
(7) दीपक
(8) यन्त्र
(9) माणिक्य
(10) हीरा
(11) यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत)
(12) पुष्प (फूल)
(13) पुष्पमाला
(14) जपमाला
(15) पुस्तक
(16) तुलसीदल
(17) कर्पूर
(18) स्वर्ण
(19) गोरोचन
(20) चंदन
(21) शालिग्राम का स्नान कराया अमृत जल ।
इन सभी वस्तुओं को किसी आधार पर रख तभी उस पर इनको स्थापित कर पूजित किया जाता है। पृथ्वी पर अक्षत, आसन, काष्ठ या पात्र रख कर इनको उस पर रखते हैं-
मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिंगं शिवां तथा ।
शंखं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा ।।
यज्ञसूत्रं च पुष्पं च पुस्तकं तुलसीदलम् ।
जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च सुवर्णकम् ।।
गोरोचनं च चन्दनं च शालग्रामजलं तथा ।
एतान् वोढुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवन् शृणु।।
अतएव इन इक्कीस वस्तुओं को सजगता पूर्वक किसी न किसी वस्तु के ऊपर रखना चाहिए।
प्रायः दीपक को लोग अक्षतपुंज पर रखते हैं।
पुस्तक को मेज पर रखते हैं। शालिग्राम और देवी की मूर्ति को पीठिका पर रखते हैं।
शंख को त्रिपादी पर रखते हैं। स्वर्ण को डिब्बी में रखते हैं।
फूल, फूलमाला को पुष्पपात्र में तथा यज्ञोपवीत को किसी पत्र पर रखते हैं।
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दिशाशूल (दिशाशूर) ।।
कब किधर होता है दिशाशूल
दिशा | वार |
पूर्व | सोमवार, शनिवार |
दक्षिण | गुरुवार |
पश्चिम | शुक्र, रविवार |
उत्तर | मंगल, बुधवार |
अग्निकोण | सोमवार, गुरुवार |
नैऋत्य कोण | रविवार, शुक्रवार |
वायव्य कोण | मंगलवार |
ईशान कोण | बुधवार, शनिवार |
पूर्व | मेष, सिंह और धनु |
दक्षिण | वृष, कन्या, मकर |
पश्चिम | मिथुन, तुला, कुंभ |
उत्तर | कर्क, वृश्चिक, मीन |
इस बात का हमेशा रखें ध्यान
यदि एक दिन के भीतर ही किसी स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है। यात्रा के दौरान चंद्रमा यदि सामने अथवा दाहिने हो तो शुभ फलदायक और बाएं या पीछे हों तो विपरीत फलदायक होते हैं।
दिशाशूल का महाउपाय
जिस दिशा में दिशाशूल (Disha Shool) हो उसकी यात्रा करने पर अक्सर लोगों को तमाम तरह के कष्ट भोगने पड़ते हैं। लेकिन यदि कोई अति आवश्यक कार्य आ जाये तो उसके लिए भी हमारे यहां परिहार बताये गये हैं। जैसे रविवार को पान खाकर, सोमवार को आईने में देखकर, मंगलवार को गुड़ खाकर, बुधवार को धनियां, गुरुवार को जीरा, शुक्रवार को दही और शनिवार को अदरख खाकर निकलने से उस दिशा से संबंधित दोष दूर हो जाता है।
इस उपाय से भी दूर होगा दिशाशूल
यदि किसी दिशा में दिशाशूल हो और उस दिशा में जाना बहुत जरूरी हो तो उस दिशा से संबंधित दोष को निम्नलिखित चीजों को धारण करके दूर किया जा सकता है। रविवार का दिशाशूल दूर करने के लिए
पान, सोमवार को चंदन, मंगलवार को मिट्टी, बुधवार को पुष्प, गुरुवार को दही, शुक्रवार को घी और शनिवार को तिल धारण करके निकलने पर दिशा संबंधी दोष दूर हो जाता है।
(यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)