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जन्म से मृत्यु तक कुंडली के 12 भाव ।।

मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना उसका इस पृथ्वी पर जन्म है, इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे-रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें।

ईश्वर का विधान है कि मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष तक पहुंचे अर्थात प्रथम भाव से द्वादश भाव तक पहुंचे। जीवन से मरण यात्रा तक जिन वस्तुओं आदि की आवश्यकता मनुष्य को पड़ती है वह द्वितीय भाव से एकादश भाव तक के स्थानों से दर्शाई गई है।

मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, ऊर्जा के लिए दूध, रोटी आदि खाद्य पदार्थो की आवश्यकता होती है अन्यथा शरीर नहीं चलने वाला। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय स्थान से है।

धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता। धन, वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय स्थान का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है। शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब काम करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है।

अत: कामनाओं, भावनाओं का स्थान चतुर्थ रखा गया है। चतुर्थ स्थान मन का विकास स्थान है। 

मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात् विचार शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवनचर्या आगे चलना मुश्किल है। पंचम भाव को विचार शक्ति के मन के अन्ततर जगह दिया जाना विकास क्रम के अनुसार ही है।

यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि के लिए मान्य है।

मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। अत: जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।

यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात् व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए।

नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है।

दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा।

एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात् अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में।

द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुण्डली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।

अर्धनारीश्वर शिव और शक्ति ।।

कामाख्ये वरदे देवी नीलपर्वतावासिनी |
त्वं देवी जगत माता योनिमुद्रे नमोस्तुते !


इस समय पूरी प्रकृति ही रजस्वला है, दिव्यतम अम्बूवाची पर्व पर एक चिंतन...

पौरोणिक कथाओं के जनुसार सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे, वो स्त्रियों को तुच्छश् समझते थे।

वो शिवजी को गुरुतुल्य मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को वो अनदेखा करते थे। एक तरह से वो माँ को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे।

महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे।

एक दिन शिव जी ने माता से कहा, आज ज्ञान सभा में आप भी चले। माँ ने शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार की और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई।

सभी ऋषिगण और देवताओ ने माँ और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया...

किन्तु भृगु माँ और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करें।

बहुत विचारने के बाद भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाये।

शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात।

वो माँ को देखे, माता ने उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई।

अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकाली।

भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए।

माता को भृगु के ओछी सोच पे क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु से कहा, भृगु तुम्हे स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाये...

और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया।

अब भृगु न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें अपार पीड़ा हो रही थी...

वो माँ से क्षमा याचना करने लगे...

तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा।

माँ ने उन्हें क्षमा किया और बोली, संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नहीं। बिना स्त्री के प्रकृति भी नही पुरुष भी नहीं।

दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नहीं देता वो जीने का अधिकारी नहीं।

आज संसार में अनेकों ऐसे सोच वाले लोग हैं। उन्हें इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीने। खुद जिए और स्त्रियों के लिए भी सुखद संसार की व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दें।

स्वस्थ जीवन प्राप्त करने के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र ।।


१. शरीर में कहीं पर भी कोई रोग हो, पर नित्य छाती और आमाशय की मांस पेशियों को बलशाली बनाने के उद्देश्य से अनुशासन बद्ध प्राणायाम किया जाय तो निश्चय हो स्वस्थ जीवन पाया जा सकता है।

२. अपने जीवन के उद्देश्यों का मूल्यांकन करते रहिए, जीवन में क्या पाना है, इस पर जोर देने के बजाय आपको क्या बनना है, इस पर विचार केन्द्रित कीजिये ।

३. अधिक कामों में उलझने की अपेक्षा कम और महत्वपूर्ण काम हाथ में रखिये और उसे सफलतापूर्वक पूरा कीजिए, आपके व्यक्तित्व के लिए यह ज्यादा उचित रहेगा।

४. अपना कुछ समय अकेले में अवश्य बिताइये, कुछ नहीं हो तो बैठे-बैठे मन हो मन गुनगुनाइये, संगीत में खो जाइये या प्रकृति को निहारिये, इससे आपके शरीर व मन को पूरा आराम  मिलेगा ।

५. यदि कहीं पहुंचना है या कोई काम करना है तो जल्दबाजी मत कीजिये, ऐसी आदत घोरे-धीरे बना लीजिये, इससे तनाव नहीं होगा ।

६. रोज निश्चित समय से पांच मिनट पहले उठिये, ताकि आपकी दिनचर्या जल्दबाजी या हड़बड़ी से शुरू न हो।

७. बहुत कम बोलिये और ज्यादा से ज्यादा सुनने का अभ्यास कीजिये ।

८.  छोटी-छोटी बातों पर झल्लाइये मत, गुस्सा मत कीजिये, आपके हाथ में जब यह नहीं है, तो फिर भल्लाने से क्या फायदा ?

९. आलोचना करने वालों को कोई जवाब मत दीजिये, वे स्वतः हो चुप हो जायेंगे ।

१०. सहज व्यवहार करने वालों को अपना दोस्त बनाइये ।

११. जल्दबाजी दिल का दौरा लेकर भाती है, इसलिए प्रत्येक कार्य शांति से कीजिये।

१२. अपने वजन का ध्यान रखिये, वजन बढ़ना मृत्यु के दरवाजे पर जाकर खड़े होने के बराबर है।

बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति ।।

समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।


समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा? टाइम टेबल बनाकर—कार्यक्रम निर्धारित कर, कितने लोग अपनी दिनचर्या चलाते हैं? फुरसत न मिलने की बहानेबाजी हर कोई करता है पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसका बहुत सा समय, आलस, प्रमाद, लापरवाही और मंदगति से काम करने में नष्ट होता है। समय के अपव्यय को रोककर और उसे नियमित दिनचर्या की सुदृढ़ श्रृंखला में आबद्ध कर हम अपने आज के सामान्य जीवन को असामान्य जीवन में बदल सकते हैं। पर यह होगा तभी न जब मन का अवसाद टूटे? जब लक्षहीनता, अनुत्साह एवं अव्यवस्था से पीछा छूटे?

सोलह कलाओं का संक्षिप्त ज्ञान ।।

भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कहा जाता है कि वह संपूर्णावतार थे और मनुष्य में निहित सभी सोलह कलाओं के स्वामी थे। यहां पर कला शब्द का प्रयोग किसी 'आर्ट' के संबंध में नहीं किया गया है बल्कि मनुष्य में निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति के स्तर के बारे में किया गया है। श्री कृष्ण जिन सोलह कलाओं को धारण करते थे उनका संक्षिप्त विवरण यह है।
ये वो 16 कलायें हैं, जो हर किसी व्यक्ति में कम या ज्यादा होती हैं।

कला 1- श्री संपदा

श्री कला से संपन्न व्यक्ति के पास लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है। ऐसा व्यक्ति आत्मिक रूप से धनवान होता है। ऐसे व्यक्ति के पास से कोई खाली हाथ वापस नहीं आता। इस कला से संपन्न व्यक्ति ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करता है।

कला 2- भू संपदा

जिसके भीतर पृथ्वी पर राज करने की क्षमता हो तथा जो पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग का स्वामी हो, वह भू कला से संपन्न माना जाता है।

कला 3- कीर्ति संपदा

कीर्ति कला से संपन्न व्यक्ति का नाम पूरी दुनिया में आदर सम्मान के साथ लिया जाता है। ऐसे लोगों की विश्वसनीयता होती है और वह लोककल्याण के कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

कला 4- वाणी सम्मोहन

वाणी में सम्मोहन भी एक कला है। इससे संपन्न व्यक्ति की वाणी सुनते ही सामने वाले का क्रोध शांत हो जाता है। मन में प्रेम और भक्ति की भावना भर उठती है।

कला 5- लीला

पांचवीं कला का नाम है लीला। इससे संपन्न व्यक्ति के दर्शन मात्र से आनंद मिलता है और वह जीवन को ईश्वर के प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है।

कला 6- कांति

जिसके रूप को देखकर मन अपने आप आकर्षित हो जाता हो, जिसके मुखमंडल को बार-बार निहारने का मन करता हो, वह कांति कला से संपन्न होता है।

कला 7- विद्या

सातवीं कला का नाम विद्या है। इससे संपन्न व्यक्ति वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ, संगीत कला, राजनीति एवं कूटनीति में भी सिद्घहस्त होते हैं।

कला 8- विमला

जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो और जो सभी के प्रति समान व्यवहार रखता हो, वह विमला कला से संपन्न माना जाता है।

कला 9- उत्कर्षिणि शक्ति

इस कला से संपन्न व्यक्ति में लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करने की क्षमता होती है। ऐसे व्यक्ति में इतनी क्षमता होती है कि वह लोगों को किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेरित कर सकता है।

कला 10- नीर-क्षीर विवेक

इससे संपन्न व्यक्ति में विवेकशीलता होती है। ऐसा व्यक्ति अपने विवेक से लोगों का मार्ग प्रशस्त कर सकने में सक्षम होता है।

कला 11- कर्मण्यता

इस कला से संपन्न व्यक्ति में स्वयं कर्म करने की क्षमता तो होती है। वह लोगों को भी कर्म करने की प्रेरणा दे सकता है और उन्हें सफल बना सकता है।

कला 12- योगशक्ति

इस कला से संपन्न व्यक्ति में मन को वश में करने की क्षमता होती है। वह मन और आत्मा का फर्क मिटा योग की उच्च सीमा पा लेता है।

कला 13- विनय

इस कला से संपन्न व्यक्ति में नम्रता होती है। ऐसे व्यक्ति को अहंकार छू भी नहीं पाता। वह सारी विद्याओं में पारंगत होते हुए भी गर्वहीन होता है।

कला 14- सत्य-धारणा

इस कला से संपन्न व्यक्ति में कोमल-कठोर सभी तरह के सत्यों को धारण करने की क्षमता होती है। ऐसा व्यक्ति सत्यवादी होता है और जनहित और धर्म की रक्षा के लिए कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं करता।

कला 15- आधिपत्य

इस कला से संपन्न व्यक्ति में लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित करने का गुण होता है। जरूरत पड़ने पर वह लोगों को अपने प्रभाव की अनुभूति कराने में सफल होता है।

कला 16- अनुग्रह क्षमता

इस कला से संपन्न व्यक्ति में किसी का कल्याण करने की प्रवृत्ति होती है। वह प्रत्युपकार की भावना से संचालित होता है। ऐसे व्यक्ति के पास जो भी आता है, वह अपनी क्षमता के अनुसार उसकी सहायता करता है।

गुरु ईश्वर नहीं हैं । ये भी सच है लेकिन गुरु ईश्वर से कम भी नहीं हैं ये भी उतना ही सच है ।।

जिस प्रकार ईश्वर समस्त सृष्टि की रचना कर सकते हैं, उसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य के लिए नये प्रारब्ध की भी रचना कर सकते हैं । 

लेकिन ध्यान रहे, गुरु कभी भी प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं । पर ऐसे शिष्य के लिए क्या जो बूंद बनकर गुरु रुपी समुद्र में अपने आप को ही विलीन कर दे । जिसका स्वयं का कोई अस्तित्व ही न रहे, जिसका अपने प्रारब्ध से भी कोई लेना देना न रहे । जो रहता तो इसी संसार में है लेकिन अपने सारे कार्यों को गुरु का कार्य समझकर ही अंजाम दे और जो प्रकृति में ही अपने आप को समाहित कर दे । 

ऐसे शिष्य के लिए तो गुरु स्वयं लक्ष्मी रुप में अवतरण लेते हैं । 

हम लोग सोचते हैं कि ऐसे शिष्य शायद विरले ही होते हैं । पर जरा सोचकर देखिये कि हमारे जीवन के बहुत से असाध्य कार्य कभी - कभी बहुत आसानी से संपन्न हो जाते हैं । तब हम सोचते हैं कि ये तो हमने किया है । पर गुरु महाराज कभी भी शिष्य का भ्रम नहीं तोड़ते हैं । वो कहते हैं कि हां ये काम तूने ही किया है । 

लेकिन सच इसके उलट होता है । जो शिष्य के प्रारब्ध में नहीं भी होता है तब गुरु वह स्वरुप धारण करके शिष्य के जीवन में आ जाते हैं । कभी संतान हीन के यहां पुत्र बनकर, कभी दरिद्र के यहां लक्ष्मी बनकर, कभी अनपढ़ के यहां विद्या बनकर । न जाने कितने - कितने रुप धारण करने पड़ते हैं एक गुरु को । 

ये सब चमत्कार तो हम अपने चारों तरफ होते हुये देखते हैं, बस कोई कोई विरला ही होता है जो इनको पहिचान पाता है ।

                                                 साभार....

कौन गृहस्थ कौन सन्यासी ?

          दो बौद्ध भिक्षु पहाड़ी पर स्थित अपने मठ की ओर जा रहे थे। 
रास्ते में एक गहरा नाला पड़ता था , वहां नाले के किनारे एक युवती बैठी थी, जिसे नाला पार करके मठ के दूसरी ओर स्थित अपने गांव पहुंचना था, लेकिन बरसात के कारण नाले में पानी अधिक होने से युवती नाले को पार करने का साहस नहीं कर पा रही थी।

भिक्षुओं में से एक ने, जो अपेक्षाकृत युवा था, युवती को अपने कंधे पर बिठाया और नाले के पार ले जाकर छोड़ दिया। 

युवती अपने गांव की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ चली और भिक्षु अपने मठ की ओर जाने वाले रास्ते पर। 
दूसरे भिक्षु ने युवती को अपने कंधे पर बिठा कर नाला पार कराने वाले भिक्षु से उस समय तो कुछ नहीं कहा, पर मुंह फुलाए हुए उसके साथ-साथ पहाड़ी पर चढ़ता रहा। 

मठ आ गया तो इस भिक्षु से और नहीं रहा गया। 
उसने अपने साथी से कहा, हमारे संप्रदाय में स्त्री को छूने की ही नहीं, देखने की भी मनाही है। लेकिन तुमने तो उस युवा स्त्री को अपने हाथों से उठाकर कंधे पर बिठाया और नाला पार करवाया ... यह बड़ी लज्जा की बात है।

ओह तो ये बात है, पहले भिक्षु ने कहा, 
पर मैं तो उसे नाला पार कराने के बाद वहीं छोड़ आया था, लेकिन लगता है कि तुम उसे अब तक ढो रहे हो। 

संन्यास का अर्थ किसी की सेवा या सहायता करने से विरत होना नहीं होता, बल्कि मन से वासना और विकारों का त्याग करना होता है। 

इस दृष्टि से उस युवती को कंधे पर बिठाकर नाला पार करा देने वाला भिक्षु ही सही अर्थों में संन्यासी है। 
दूसरे भिक्षु का मन तो विकार से भरा हुआ था।

यदि हम अपने मन में समाए विकारों और वासना पर नियंत्रण कर लें, तो गृहस्थ होते हुए भी संन्यासी ही हैं।

!! ॐ नमः शिवाय !!

मोक्ष पाटम ।।

जो वर्तमान का #सांप_सीढ़ी हो गया

13 वीं शताब्दी के कवि संत ज्ञानदेव ने मोक्ष पाटम नामक एक बच्चों का खेल बनाया। अंग्रेजों ने बाद में इसे सांप और सीढ़ी का नाम दिया और मूल मोक्ष पाटम के बजाय पूरे ज्ञान को पतला कर दिया।

मूल एक सौ वर्ग गेम बोर्ड में, 12 वां वर्ग विश्वास था, 51 वां वर्ग विश्वसनीयता था, 57 वां वर्ग उदारता, 76 वां वर्ग ज्ञान था, और 78 वां वर्ग तप था। ये वे वर्ग थे जहाँ सीढ़ी पाई जाती थी और कोई भी तेज़ी से आगे बढ़ सकता था। 41 वां वर्ग अवज्ञा के लिए था, घमंड के लिए 44 वां वर्ग, अशिष्टता के लिए 49 वां वर्ग, चोरी के लिए 52 वाँ वर्ग, झूठ बोलने के लिए 58 वाँ वर्ग, नशे के लिए 62 वाँ वर्ग, ऋण के लिए 69 वाँ वर्ग, क्रोध के लिए 84 वाँ वर्ग, लालच के लिए 92 वाँ वर्ग, अभिमान के लिए 95 वाँ वर्ग, हत्या के लिए 73 वाँ वर्ग और वासना के लिए 99 वाँ वर्ग।

ये वे वर्ग थे जहाँ साँप के मुँह खुलने का इंतज़ार किया जाता था। 100 वें वर्ग ने निर्वाण या मोक्ष का प्रतिनिधित्व किया।

🙏🏻साभार🙏🏻

महाभारत में वर्णित ये पैंतीस नगर आज भी मौजूद हैं ।।

भारत देश महाभारतकाल में कई बड़े जनपदों में बंटा हुआ था। हम महाभारत में वर्णित जिन 35 राज्यों और शहरों के बारे में जिक्र करने जा रहे हैं, वे आज भी मौजूद हैं :-

1. गांधार👉 आज के कंधार को कभी गांधार के रूप में जाना जाता था। यह देश पाकिस्तान के रावलपिन्डी से लेकर सुदूर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी वहां के राजा सुबल की पुत्री थीं। गांधारी के भाई शकुनी दुर्योधन के मामा थे।

2. तक्षशिला👉 तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। इसे वर्तमान में रावलपिन्डी कहा जाता है। तक्षशिला को ज्ञान और शिक्षा की नगरी भी कहा गया है।

3. केकय प्रदेश👉 जम्मू-कश्मीर के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में केकय प्रदेश के रूप में है। केकय प्रदेश के राजा जयसेन का विवाह वसुदेव की बहन राधादेवी के साथ हुआ था। उनका पुत्र विन्द जरासंध, दुर्योधन का मित्र था। महाभारत के युद्ध में विन्द ने कौरवों का साथ दिया था।

4. मद्र देश👉 केकय प्रदेश से ही सटा हुआ मद्र देश का आशय जम्मू-कश्मीर से ही है। एतरेय ब्राह्मण के मुताबिक, हिमालय के नजदीक होने की वजह से मद्र देश को उत्तर कुरू भी कहा जाता था। महाभारत काल में मद्र देश के राजा शल्य थे, जिनकी बहन माद्री का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था। नकुल और सहदेव माद्री के पुत्र थे।

5. उज्जनक👉 आज के नैनीताल का जिक्र महाभारत में उज्जनक के रूप में किया गया है। गुरु द्रोणचार्य यहां पांडवों और कौरवों की अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते थे। कुन्ती पुत्र भीम ने गुरु द्रोण के आदेश पर यहां एक शिवलिंग की स्थापना की थी। यही वजह है कि इस क्षेत्र को भीमशंकर के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान शिव का एक विशाल मंदिर है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है।

6. शिवि देश👉 महाभारत काल में दक्षिण पंजाब को शिवि देश कहा जाता था। महाभारत में महाराज उशीनर का जिक्र है, जिनके पौत्र शैव्य थे। शैव्य की पुत्री देविका का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था। शैव्य एक महान धनुर्धारी थे और उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों का साथ दिया था।

7. वाणगंगा👉 कुरुक्षेत्र से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है वाणगंगा। कहा जाता है कि महाभारत की भीषण लड़ाई में घायल पितामह भीष्म को यहां सर-सैय्या पर लिटाया गया था। कथा के मुताबिक, भीष्ण ने प्यास लगने पर जब पानी की मांग की तो अर्जुन ने अपने वाणों से धरती पर प्रहार किया और गंगा की धारा फूट पड़ी। यही वजह है कि इस स्थान को वाणगंगा कहा जाता है।

8. कुरुक्षेत्र👉 हरियाणा के अम्बाला इलाके को कुरुक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाभारत की प्रसिद्ध लड़ाई हुई थी। यही नहीं, आदिकाल में ब्रह्माजी ने यहां यज्ञ का आयोजन किया था। इस स्थान पर एक ब्रह्म सरोवर या ब्रह्मकुंड भी है। श्रीमद् भागवत में लिखा हुआ है कि महाभारत के युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंश के अन्य सदस्यों के साथ इस सरोवर में स्नान किया था।

9. हस्तिनापुर👉 महाभारत में उल्लिखित हस्तिनापुर का इलाका मेरठ के आसपास है। यह स्थान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। सही मायने में महाभारत युद्ध की पटकथा यहीं लिखी गई थी। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर को अपने राज्य की राजधानी बनाया।

10. वर्नावत👉 यह स्थान भी उत्तर प्रदेश के मेरठ के नजदीक ही माना जाता है। वर्णावत में पांडवों को छल से मारने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था। यह स्थान गंगा नदी के किनारे है। महाभारत की कथा के मुताबिक, इस ऐतिहासिक युद्ध को टालने के लिए पांडवों ने जिन पांच गांवों की मांग रखी थी, उनमें एक वर्णावत भी था। आज भी यहां एक छोटा सा गांव है, जिसका नाम वर्णावा है।

11. पांचाल प्रदेश👉 हिमालय की तराई का इलाका पांचाल प्रदेश के रूप में उल्लिखित है। पांचाल के राजा द्रुपद थे, जिनकी पुत्री द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। द्रौपदी को पांचाली के नाम से भी जाना जाता है।

12. इन्द्रप्रस्थ👉 मौजूदा समय में दक्षिण दिल्ली के इस इलाके का वर्णन महाभारत में इन्द्रप्रस्थ के रूप में है। कथा के मुताबिक, इस स्थान पर एक वियावान जंगल था, जिसका नाम खांडव-वन था। पांडवों ने विश्वकर्मा की मदद से यहां अपनी राजधानी बनाई थी। इन्द्रप्रस्थ नामक छोटा सा कस्बा आज भी मौजूद है।

13. वृन्दावन👉 यह स्थान मथुरा से करीब 10 किलोमीटर दूर है। वृन्दावन को भगवान कृष्ण की बाल-लीलाओं के लिए जाना जाता है। यहां का बांके-बिहारी मंदिर प्रसिद्ध है।

14. गोकुल👉 यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह स्थान भी मथुरा से करीब 8 किलोमीटर दूर है। कंस से रक्षा के लिए कृष्ण के पिता वसुदेव ने उन्हें अपने मित्र नंदराय के घर गोकुल में छोड़ दिया था। कृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम गोकुल में साथ-साथ पले-बढ़े थे।

15. बरसाना👉 यह स्थान भी उत्तर प्रदेश में है। यहां की चार पहाड़ियां के बारे में कहा जाता है कि ये ब्रह्मा के चार मुख हैं।

16. मथुरा👉 यमुना नदी के किनारे बसा हुआ यह प्रसिद्ध शहर हिन्दू धर्म के लिए अनुयायियों के लिए बेहद प्रसिद्ध है। यहां राजा कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। यहीं पर श्रीकृष्ण ने बाद में कंस की हत्या की थी। बाद में कृष्ण के पौत्र वृजनाथ को मथुरा की राजगद्दी दी गई।

17. अंग देश👉 वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के इलाके का उल्लेख महाभारत में अंगदेश के रूप में है। दुर्योधन ने कर्ण को इस देश का राजा घोषित किया था। मान्यताओं के मुताबिक, जरासंध ने अंग देश दुर्योधन को उपहारस्वरूप भेंट किया था। इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में भी जाना जाता है।

18. कौशाम्बी👉 कौशाम्बी वत्स देश की राजधानी थी। वर्तमान में इलाहाबाद के नजदीक इस नगर के लोगों ने महाभारत के युद्ध में कौरवों का साथ दिया था। बाद में कुरुवंशियों ने कौशाम्बी पर अपना अधिकार कर लिया। परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया।

19. काशी👉 महाभारत काल में काशी को शिक्षा का गढ़ माना जाता था। महाभारत की कथा के मुताबिक, पितामह भीष्म काशी नरेश की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका को जीत कर ले गए थे ताकि उनका विवाह विचित्रवीर्य से कर सकें। अम्बा के प्रेम संबंध राजा शल्य के साथ थे, इसलिए उसने विचित्रवीर्य से विवाह से इन्कार कर दिया। अम्बिका और अम्बालिका का विवाह विचित्रवीर्य के साथ कर दिया गया। विचित्रवीर्य के अम्बा और अम्बालिका से दो पुत्र धृतराष्ट्र और पान्डु हुए। बाद में धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पान्डु के पांडव।

20. एकचक्रनगरी👉 वर्तमान कालखंड में बिहार का आरा जिला महाभारत काल में एकचक्रनगरी के रूप में जाना जाता था। लाक्षागृह की साजिश से बचने के बाद पांडव काफी समय तक एकचक्रनगरी में रहे थे। इस स्थान पर भीम ने बकासुर नामक एक राक्षक का अन्त किया था। महाभारत युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया था, उस समय बकासुर के पुत्र भीषक ने उनका घोड़ा पकड कर रख लिया था।बाद में वह अर्जुन के हाथों मारा गया।

21. मगध👉 दक्षिण बिहार में मौजूद मगध जरासंध की राजधानी थी। जरासंध की दो पुत्रियां अस्ती और प्राप्ति का विवाह कंस से हुआ था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब वह अनायास ही जरासंध के दुश्मन बन बैठे। जरासंध ने मथुरा पर कई बार हमला किया। बाद में एक मल्लयुद्ध के दौरान भीम ने जरासंध का अंत किया। महाभारत के युद्ध में मगध की जनता ने पांडवों का समर्थन किया था।

22. पुन्डरू देश👉 मौजूदा समय में बिहार के इस स्थान पर राजा पोन्ड्रक का राज था। पोन्ड्रक जरासंध का मित्र था और उसे लगता था कि वह कृष्ण है।उसने न केवल कृष्ण का वेश धारण किया था,बल्कि उसे वासुदेव और पुरुषोत्तम कहलवाना पसन्द था।द्रौपदी के स्वयंवर में वह भी मौजूद था। कृष्ण से उसकी दुश्मनी जगजाहिर थी।द्वारका पर एक हमले के दौरान वह भगवान श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया।

23. प्रागज्योतिषपुर👉 गुवाहाटी का उल्लेख महाभारत में प्रागज्योतिषपुर के रूप में किया गया है। महाभारत काल में यहां नरकासुर का राज था, जिसने 16 हजार लड़कियों को बन्दी बना रखा था। बाद में श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और सभी 16 हजार लड़कियों को वहां से छुड़ाकर द्वारका लाए। उन्होंने सभी से विवाह किया। मान्यता है कि यहां के प्रसिद्ध कामख्या देवी मंदिर को नरकासुर ने बनवाया था।

24. कामख्या👉 गुवाहाटी से करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कामख्या एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। भागवत पुराण के मुताबिक, जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर बदहवाश इधर-उधर भाग रहे थे, तभी भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के मृत शरीर के कई टुकड़े कर दिए। इसका आशय यह था कि भगवान शिव को सती के मृत शरीर के भार से मुक्ति मिल जाए। सती के अंगों के 51 टुकड़े जगह-जगह गिरे और बाद में ये स्थान शक्तिपीठ बने। कामख्या भी उन्हीं शक्तिपीठों में से एक है।

25. मणिपुर👉 नगालैन्ड, असम, मिजोरम और वर्मा से घिरा हुआ मणिपुर महाभारत काल से भी पुराना है। मणिपुर के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था। इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम था बभ्रुवाहन। राजा चित्रवाहन की मृत्यु के बाद बभ्रुवाहन को यहां का राजपाट दिया गया। बभ्रुवाहन ने युधिष्ठिर द्वारा आयोजित किए गए राजसूय यज्ञ में भाग लिया था।

26. सिन्धु देश👉 सिन्धु देश का तात्पर्य प्राचीन सिन्धु सभ्यता से है। यह स्थान न केवल अपनी कला और साहित्य के लिए विख्यात था,बल्कि वाणिज्य और व्यापार में भी यह अग्रणी था।यहां के राजा जयद्रथ का विवाह धृतराष्ट्र की पुत्री दुःश्शाला के साथ हुआ था। महाभारत के युद्ध में जयद्रथ ने कौरवों का साथ दिया था और चक्रव्युह के दौरान अभिमन्यू की मौत में उसकी बड़ी भूमिका थी।

27. मत्स्य देश👉 राजस्थान के उत्तरी इलाके का उल्लेख महाभारत में मत्स्य देश के रूप में है। इसकी राजधानी थी विराटनगरी। अज्ञातवास के दौरान पांडव वेश बदल कर राजा विराट के सेवक बन कर रहे थे। यहां राजा विराट के सेनापति और साले कीचक ने द्रौपदी पर बुरी नजर डाली थी। बाद में भीम ने उसकी हत्या कर दी। अर्जुन के पुत्र अभिमन्यू का विवाह राजा विराट की पुत्री उत्तरा के साथ हुआ था।

28. मुचकुन्द तीर्थ👉 यह स्थान धौलपुर, राजस्थान में है। मथुरा पर जीत हासिल करने के बाद कालयावन ने भगवान श्रीकृष्ण का पीछा किया तो उन्होंने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। उस गुफा में मुचकुन्द सो रहे थे, उन पर कृष्ण ने अपना पीताम्बर डाल दिया। कृष्ण का पीछा करते हुए कालयावन भी उसी गुफा में आ पहुंचा। मुचकुन्द को कृष्ण समझकर उसने उन्हें जगा दिया। जैसे ही मुचकुन्द ने आंख खोला तो कालयावन जलकर भस्म हो गया। मान्यताओं के मुताबिक, महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब पांडव हिमालय की तरफ चले गए और कृष्ण गोलोक निवासी हो गए, तब कलयुग ने पहली बार यहां अपने पग रखे थे।

29. पाटन👉 महाभारत की कथा के मुताबिक, गुजरात का पाटन द्वापर युग में एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र था। पाटन के नजदीक ही भीम ने हिडिम्ब नामक राक्षस का संहार किया था और उसकी बहन हिडिम्बा से विवाह किया। हिडिम्बा ने बाद में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम था घटोत्कच्छ। घटोत्कच्छ और उनके पुत्र बर्बरीक की कहानी महाभारत में विस्तार से दी गई है।

30. द्वारका👉 माना जाता है कि गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित यह स्थान कालान्तर में समुन्दर में समा गया। कथाओं के मुताबिक, जरासंध के बार-बार के हमलों से यदुवंशियों को बचाने के लिए कृष्ण मथुरा से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर द्वारका ले गए।

31. प्रभाष👉 गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित इस स्थान के बारे में कहा जाता है कि यह स्थान भगवान श्रीकृष्ण का निवास-स्थान रहा है। महाभारत कथा के मुताबिक, यहां भगवान श्रीकृष्ण पैर के अंगूठे में तीर लगने की वजह से घायल हो गए थे। उनके गोलोकवासी होने के बाद द्वारका नगरी समुन्दर में डूब गई। विशेषज्ञ मानते हैं कि समुन्दर के सतह पर द्वारका नगरी के अवेशष मिले हैं।

32. अवन्तिका👉 मध्यप्रदेश के उज्जैन का उल्लेख महाभारत में अवन्तिका के रूप में मिलता है। यहां ऋषि सांदपनी का आश्रम था। अवन्तिका को देश के सात प्रमुख पवित्र नगरों में एक माना जाता है। यहां भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में एक महाकाल लिंग स्थापित है।

33. चेदी👉 वर्तमान में ग्वालियर क्षेत्र को महाभारत काल में चेदी देश के रूप में जाना जाता था। गंगा व नर्मदा के मध्य स्थित चेदी महाभारत काल के संपन्न नगरों में एक था। इस राज्य पर श्रीकृष्ण के फुफेरे भाई शिशुपाल का राज था। शिशुपाल रुक्मिणी से विवाह करना चाहता था, लेकिन श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचा लिया। 

इस घटना की वजह से शिशुपाल और श्रीकृष्ण के बीच संबंध खराब हो गए। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय चेदी नरेश शिशुपाल को भी आमंत्रित किया गया था। शिशुपाल ने यहां कृष्ण को बुरा-भला कहा, तो कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका गला काट दिया। महाभरत की कथा के मुताबिक, दुश्मनी की बात सामने आने पर श्रीकृष्ण की बुआ उनसे शिशुपाल को अभयदान देने की गुजारिश की थी। इस पर श्रीकृष्ण ने बुआ से कहा था कि वह शिशुपाल के 100 अपराधों को माफ कर दें, लेकिन 101वीं गलती पर माफ नहीं करेंगे।

34. सोणितपुर👉 मध्यप्रदेश के इटारसी को महाभारत काल में सोणितपुर के नाम से जाना जाता था। सोणितपुर पर वाणासुर का राज था। वाणासुर की पुत्री उषा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ सम्पन्न हुआ था। यह स्थान हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है।

35. विदर्भ👉 महाभारतकाल में विदर्भ क्षेत्र पर जरासंध के मित्र राजा भीष्मक का शासन था। रुक्मिणी भीष्मक की पुत्री थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण कर उनसे विवाह रचाया था। यही वजह थी कि भीष्मक उन्हें अपना शत्रु मानने लगे। जब पांडवों ने अश्वमेध यज्ञ किया था, तब भीष्मक ने उनका घोड़ा रोक लिया था। सहदेव ने भीष्मक को युद्ध में हरा दिया।
                                         साभार....

ईश्वर साकार है या निराकार ?

इस विषय को लेकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी  का किसी विद्वान के साथ निरंतर तर्क-वितर्क चलता था।

एक दिन रामकृष्ण उन्हें लेकर मंदिर चले गए। सामने कृष्ण जी की सुंदर मूर्ति थी। रामकृष्ण ने उन्हें कहा कि ईश्वर साकार है ऐसी भावना करके आंखें बंद करो और प्रभु की मूर्ति को स्पर्श करो। उन्होंने ऐसा ही किया तो उनके हाथों ने प्रभु की प्रतिमा को स्पर्श कर लिया। फिर रामकृष्ण ने उनसे कहा कि अब आंखें बंद कर ऐसी भावना करो कि ईश्वर निराकार है और पुनः प्रभु की प्रतिमा को स्पर्श करो।

इस बार जब आंखें बंद कर निराकार भाव लेकर उनके विद्वान मित्र ने जब प्रभु के विग्रह का स्पर्श किया तो हाथ मूर्ति के आर-पार निकल गई।

रामकृष्ण परमहंस के उन मित्र को ईश्वर का साकार और निराकार होना एक बार में ही समझ में आ गया।

हिंदू धर्म क्लिष्ट है तो अत्यंत सहज भी है, मूल बात है कि इस चेतना की अनुभूति करना, इसे जिसने अनुभूति कर लिया उसे असीम प्रशांति प्राप्त होती है और वो तुच्छ बातों से, अनर्गल तर्कों से और अनावश्यक प्रलापों से दूर होकर सहज भाव से इसका प्रचार करता है।

प्रज्ञा का जगना :

      ईश्वरकृपा/गुरुकृपा के भरोसे प्रज्ञा नहीं जगती। प्रज्ञा तब अपने आप जग जाती है, जब हम अपनी आध्यात्मिकता में अन्तर्मुख हो जाते हैं, और ज्ञान को जीवन में उतारते हैं, ज्ञान को जीते हैं। और यही हमने आज तक नहीं सीखा। हमने अध्यात्म-ज्ञान इकट्ठा करना सीखा है। हमने ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करना सीखा है। हमने ज्ञान पर चलना नहीं सीखा। हमारे जीवन में 'ज्ञान ही ज्ञान' है, परन्तु ज्ञान का अनुशीलन ना के बराबर ही है। बस, यही कारण है कि गुरू बनाने के बावजूद भी, जीवन भर गुरू का मंत्र जपने के बावजूद भी, ज्ञानी और विद्वान होने के बावजूद भी हम प्रज्ञावान् नहीं हो पाये। 

      बड़ी विबम्बना यह है कि हमें 'सद्गुरू' या 'सतगुरू' मिल जाते हैं, परन्तु प्रज्ञा नहीं मिलती। प्रज्ञा कहीं से, किसी से मिलने की वस्तु है भी नहीं। सद्गुणों को जगाकर और चेतना को सतत-उर्ध्वगामिता में रखकर प्रज्ञा का तो हमें स्वयं ही अर्जन करना पड़ता है। परन्तु इतनी जहमत उठाये कौन! हमारा काम तो 'उधार की चेतना' से ही चल जाता है !

इन 21वस्तुओं को सीधे पृथ्वी पर रखना वर्जित होता है। ये वस्तुयें पृथ्वी की ऊर्जा को अव्यवस्थित करती हैं और उस स्थान को अशुभ बनाती हैं।

ये वस्तुयें हैं -
(1) मोती
(2) शुक्ति (सीपी)
(3) शालग्राम
(4) शिवलिंग
(5) देवी मूर्ति
(6) शंख
(7) दीपक
(8) यन्त्र
(9) माणिक्य
(10) हीरा
(11) यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत)
(12)  पुष्प (फूल)
(13) पुष्पमाला
(14) जपमाला
(15) पुस्तक
(16) तुलसीदल
(17) कर्पूर
(18) स्वर्ण
(19) गोरोचन
(20)  चंदन
(21) शालिग्राम का स्नान कराया अमृत जल ।

इन सभी वस्तुओं को किसी आधार पर रख तभी उस पर इनको स्थापित कर पूजित किया जाता है। पृथ्वी पर अक्षत, आसन, काष्ठ या पात्र रख कर इनको उस पर रखते हैं-

मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिंगं शिवां तथा ।
शंखं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा ।।

यज्ञसूत्रं  च पुष्पं च  पुस्तकं तुलसीदलम्  ।
जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च  सुवर्णकम् ।।

गोरोचनं  च चन्दनं  च  शालग्रामजलं तथा ।
एतान् वोढुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवन् शृणु।।

       अतएव इन इक्कीस वस्तुओं को सजगता पूर्वक किसी न किसी वस्तु के ऊपर रखना चाहिए।

प्रायः दीपक को लोग अक्षतपुंज पर रखते हैं।

पुस्तक को मेज पर रखते हैं। शालिग्राम और देवी की मूर्ति को पीठिका पर रखते हैं।

शंख को त्रिपादी पर रखते हैं। स्वर्ण को डिब्बी में रखते हैं।

फूल, फूलमाला को पुष्पपात्र में तथा यज्ञोपवीत को किसी पत्र पर रखते हैं।
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दिशाशूल (दिशाशूर) ।।

दिशाशूल जानने की ट्रिक ।।

सोम शनीचर पूर्व ना चालू।
मंगल बुध उत्तर दिशिकालू ।।
रवि शुक्र जो पश्चिम जाए ।
हानि होय पथ सुख नहीं पाए।।
गुरुवे दखिन करे पयाना।
फिर नहीं समझो ताको आना ।।

जानें क्या होता है दिशाशूल और क्या इसका भी होता है कोई उपाय ~
यात्रा पर निकलने से पहले जरूर जान लें दिशाशूल नहीं तो झेलने पड़ते हैं दुष्परिणाम। जानें कब और कैसे नहीं पड़ता दिशाशूल का आप पर असर,
इंसान के जीवन में यात्रा का बहुत महत्व होता है। फिर चाहे यात्रा छोटी दूरी की हो अथवा लंबी दूरी की हो। परिणाम उसकी शुभता और अशुभता, सफलता और असफलता पर निर्भर करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दिन विशेष को की जाने यात्रा से संबंधित दोष को विस्तार से बताया गया है। जिसे हम दिशाशूल (Disha Shool) के नाम से जानते हैं। दिशाशूल का अर्थ होता है — एक दिशा विशेष में जाने पर अशुभ परिणाम की प्राप्ति होना या फिर कहें कि जिस दिशा में जाने पर हानि अथवा अशुभ परिणाम मिलने की आशंका हो, वह दिशाशूल (Disha Shool) कहलाती है। यही कारण है कि सनातन परंपरा में कार्य विशेष हेतु निकलने से पहले दिशा का विचार अवश्य किया जाता है। तो आइए जानते हैं कि दिशाओं को लेकर क्या कुछ नियम हैं, जिन्हें यात्रा करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए —

कब ​किधर होता है दिशाशूल

दिशावार
पूर्वसोमवार, शनिवार
दक्षिणगुरुवार
पश्चिमशुक्र, रविवार
उत्तरमंगल, बुधवार
अग्निकोणसोमवार, गुरुवार
नैऋत्य कोणरविवार, शुक्रवार
वायव्य कोणमंगलवार
ईशान कोणबुधवार, शनिवार

चंद्र राशि के अनुसार दिशाशूल

पूर्वमेष, सिंह और धनु
दक्षिणवृष, कन्या, मकर
पश्चिममिथुन, तुला, कुंभ
उत्तरकर्क, वृश्चिक, मीन

इस बात का हमेशा रखें ध्यान

यदि एक दिन के भीतर ही किसी स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है। यात्रा के दौरान चंद्रमा यदि सामने अथवा दाहिने हो तो शुभ फलदायक और बाएं या पीछे हों तो विपरीत फलदायक होते हैं।

दिशाशूल का महाउपाय

जिस दिशा में दिशाशूल (Disha Shool) हो उसकी यात्रा करने पर अक्सर लोगों को तमाम तरह के कष्ट भोगने पड़ते हैं। लेकिन यदि कोई अति आवश्यक कार्य आ जाये तो उसके लिए भी हमारे यहां परिहार बताये गये हैं। जैसे रविवार को पान खाकर, सोमवार को आईने में देखकर, मंगलवार को गुड़ खाकर, बुधवार को धनियां, गुरुवार को जीरा, शुक्रवार को दही और शनिवार को अदरख खाकर निकलने से उस दिशा से संबंधित दोष दूर हो जाता है।

इस उपाय से भी दूर होगा दिशाशूल

यदि किसी दिशा में दिशाशूल हो और उस दिशा में जाना बहुत जरूरी हो तो उस दिशा से संबंधित दोष को निम्नलिखित चीजों को धारण करके दूर किया जा सकता है। रविवार का दिशाशूल दूर करने के लिए
पान, सोमवार को चंदन, मंगलवार को मिट्टी, बुधवार को पुष्प, गुरुवार को दही, शुक्रवार को घी और शनिवार को तिल धारण करके निकलने पर दिशा संबंधी दोष दूर हो जाता है।

(यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)

दिशाशूल याद करने की बुंदेलखंडी ट्रिक ।।, दिशाशूल दोहा, दिशाशूर दोहा, यात्रा मुहूर्त,Disha Shool, Dishashul doha, dishashool doha

फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया ।।


ए फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया

प्राकृतिक रूप से दुनिया के सर्वाधिक सुरक्षित देशों में एक, था। स्थिति ऐसी कि मानो चारो ओर किले के दीवार, और पानी भरी खाई से सुरक्षित हो। 

खैबर और बलूचिस्तान के जरिये एक रास्ता पश्चिम में खुलता है। मगर पूरे इतिहास में उधर से सिकन्दर, और कासिम के अलावे कोई नही आया। विश्व इतिहास के रंगमंच, याने यूरोप और पश्चिम एशिया से उसकी अत्यधिक दूरी भी फायदेमंद थी। 

मध्यकाल के संघर्षों और दोनों विश्वयुद्ध की विभीषिका से भारत दूर रहा। 
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इस किले के भीतर ही पर्याप्त विशाल भूभाग, और वैविध्य था। तो 1000 साल जो भी सँघर्ष हुए, आंतरिक ही रहे। राजा और राजवंश, इस किले के भीतर ही सत्ता कायम करके संतुष्ट थे। 

खास हालात में फंसे राजेन्द्र चोल और जयपाल को छोड़, किसी ने इस किले से बाहर निकलने की जरूरत न महसूस की। पर शांति के इस दौर में हमारी रवायतें कुछ ऐसी रही, कि सत्ता और धर्म नें समाज को विभाजित रखा।

समाज का 90% हिस्सा, शूद्र या निम्न था, कृषक था। राजे आते जाते रहे, लेकिन उनका जीवन सदियों से वैसा ही रहा। ऐसे में में अधिकांश भारतवासियों में जागृत राजनीतिक चेतना, और एका का भाव कभी रहा नही। 

कोउ नृप होय, हमे का हानि.. ??
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इसका फायदा अगले हजार सालों में आये आक्रांताओं को मिला। वे मध्य एशिया से आये, रियासत दर रियासत जीतते गए। फिर यहीं टिक गए। निम्न जातियां उनसे मिल गयी, उनका धर्म अंगीकार किया, बराबरी पाई और सत्ता में हिस्सेदारी भी.. 

जब मुगल दरबार में स्थानीय रजवाड़ो को इज्जत मिली, उनका राज सुरक्षित रहने का आश्वासन मिला, तो वे भी बेखटके अधीनस्थ हो गए। 

लेकिन समाज के भीतर, रजवाड़ों के बीच आपसी रंजिश की आदत बनी रही। तो अगर अंग्रेजो ने भारत मे पैर जमाये, तो कदम कदम पर भारतीयों ने सहायता की। 

इतिहास गवाह है कि टीपू को नेस्तनाबूद करने के लिए मराठे और निजाम साथ थे। सिराज को क्लाइव ने नहीं, मीरजाफर ने हराया था। 
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अंग्रेजी राज विष भी था, अमृत भी। यूरोप के पुनर्जागरण की कुछ सौ बरस की जमापूंजी, भारत पर भी बूंद बूंद टपकी। अंग्रेजो ने इस देश को सिंगल पोलिटिकल यूनिट में ढाला। 2000 साल में मौर्य और औरंगजेब के बाद ऐसा करने वाले, वो महज तीसरी ताकत थे। 

लेकिन उन्होंने भारत को हमेशा के लिए बदल भी दिया।

लिखित विधान की परिपाटी दी। पश्चिमी पद्धति की शिक्षा, न्याय व्यवस्था, पुलिस, कानून, रेल, जेल और मेल याने डाक व्यवस्था दी। भारत मे बांध, सड़क, पुल, नहरें "सरकारी पहल" से बनने लगी। 

हां, यह सब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए किया, भारी कीमत लेकर किया। लेकिन उन्होंने, पहली बार यह किया। लिच्छवी गणतंत्र के बाद इस देश मे पहली बार, विधायी सरकारें आयी। 

मैं 1937 से 11 स्टेट में बनी सरकारो की बात कर रहा हूँ। 
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लेकिन अपनी सत्ता दीर्घ करने के लिए धार्मिक विभाजन की जो चाल, अंग्रेजो ने चली, उसने भारत के इस किले को दरका दिया। धर्म के आधार पर दो राष्ट्र का सिद्धांत उछला, और इस किले के परकोटे के भीतर ही 3 राष्ट्र बन गए। 

ये अप्राकृतिक राष्ट्र थे। खेतों के बीच तार लगाकर बनाई गई ये सीमाएं कृत्रिम थी। ये विभाजन कृत्रिम था, और इस तारबंदी के दोनो ओर का विरोधाभास भी कृत्रिम था।

विरोधाभास दो समुदायों के बीच पूजा पद्धति का था। इसे धर्म नही कहते। कीर्तन और नमाज यहाँ कई सौ सालों तक बिना सँघर्ष, कोएग्जिस्ट करती रहीं। आगे भी 
करती। मगर यह कबीलेबन्दी का बहाना बना।

और फिर भारत ने अपने ही बदन से, अपना ही जानी दुश्मन पैदा कर लिया। अनंत काल तक के लिए बगल मे जगह दी, उससे लड़ने लगा। 

भला कितने देश, कितने समाज ऐसा करते है ? 
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फिर एक और गलती की। हिमालय की ओर, जिन सीमाओं पर कुछ भी ऐतिहासिक क्लेम नही था, वहां बढ़ चढ़कर दावे किए। इसका नतीजा, उस तरफ एक औऱ दुश्मन पैदा होना था। 

तो आज पूरब में निगाह डालो, तो दुश्मन है। पश्चिम में निगाह डालो तो दुश्मन है। दुश्मन पूरब और दुश्मन पश्चिम जहां मिलते हैं, वो कश्मीर भी दुश्मन है। 

अगर इससे जी शांत न हुआ हो, तो उत्तर पूर्व सीमा पर चलें। वहां मणिपुर जल रहा है। बाकी के सीमावर्ती राज्यो में असहज शांति है। केवल दक्षिण बच गया था, शांत था। 

पर अब नई संसद बन गयी है। 
शांति वहां कुछ बरस की ही मेहमान है। 
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ईश्वर आपको जब प्रेम करता है, वह एक सुरक्षित स्वर्गिक किला बनाकर देता है। उसमें धन-धान्य, जल, खनिज, और सुंदर संस्कृति देकर सुखी रहने का वरदान देता है। 

मगर बहकाये जाने पर, स्वर्ग में रहने वाले भी जहरीला फल खाने का लोभ संवरण नही कर पाते। अंततोगत्वा स्वर्ग से निकाले जाते है। अनंत तकलीफों के बीच फेंक दिये जाते हैं। 

हमे बहकाया गया। हम बहक गये। अपने किले के हिस्से लगाए, अंदर ही दुश्मन पैदा किया, उनसे लड़े, अपने बच्चे कुर्बान किये, मगर सबक न सीखा। 

अब फिर नए सिरे से लड़ रहे हैं, घर घर मे, आस पड़ोस में गद्दार खोज रहे हैं। असुरक्षित भी महसूस कर रहे हैं। हथियारों पर धार कर रहे हैं। 
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 शायद इस भग्न ईश्वरीय किले के भाग्य में और भी हिस्से होना लिखा है। इसलिए कहा.. 


सोलह वैदिक संस्कार ।।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि ग्रन्थ में सोलह संस्कारों का विधान किया है। जिनमें तीन गर्भावस्था सम्बन्धित, आठ ब्रह्मचर्यावस्था सम्बन्धित, दो गृहस्थावस्था सम्बन्धित, एक वानप्रस्थ तथा एक संन्यास सम्बन्धित है एवं अन्तिम संस्कार मरणोपरान्त किया जाता है।

वे सोलह संस्कार निम्न हैं-
(1) गर्भाधान संस्कार, (2) पुंसवन संस्कार, 
(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4) जातकर्म संस्कार, 
(5) नामकरण संस्कार, (6) निष्क्रमण संस्कार, 
(7) अन्नप्राषन संस्कार, (8) चूडाकर्म संस्कार, 
(9) कर्णवेध संस्कार, (10) उपनयन संस्कार, 
(11) वेदारम्भ संस्कार, (12) समावर्त्तन संस्कार, 
(13) विवाह संस्कार, (14) वानप्रस्थ संस्कार, 
(15) संन्यास संस्कार, (16) अन्त्येष्टि संस्कार।

1. गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

2. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

4. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

5. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

6. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

7. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

9. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

10. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

12. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

13. केशान्त संस्कार: गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

14. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

15. पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

16. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

16 सिद्धियाँ विवरण ।।

1. वाक् सिद्धि : - 👇

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

 5. जलगमन सिद्धि:-👇

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

 6. वायुगमन सिद्धि :-👇

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

 8. विषोका सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

10. कायाकल्प सिद्धि:-👇

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

11. सम्मोहन सिद्धि :-👇

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

16. अनुर्मि सिद्धि:-👇

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.
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गुरु वाणी ।।

      वर्तमान के समाज पर नजर डालें तो बस बड़े-बड़े मकान, एक से एक सुसज्जित बंगले, कीमती वस्त्रों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं इसके अलावा घोर दरिद्रता, अभाव ग्रस्त जीवन, दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते हुए लोग भी दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों धाराओं में जीवन जी रहे मनुष्यों को अगर जरा सी भी सुई चुभोई जाय तो सिर्फ मवाद ही मवाद निकलता हुआ दिखाई पड़ता है। पुष्प के पास जाओगे तो खुशबू मिलेगी, वृक्ष के पास जाओगे तो फल मिलेंगे। पशु भी आपको उपयोगी उत्पादन प्रदान कर देंगे परंतु मनुष्य सिर्फ मवाद ही उत्पादित कर रहा है। मवाद विष का प्रतीक है, मवाद दुर्गन्ध युक्त है। यहाँ पर मैं मवाद को घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, लटका हुआ मुँह, हिंसा, प्रपंच इत्यादि के रूप में व्यक्त कर रहा हूँ। कहने को तो ये भी उत्पादन है। विष भी उत्पादन ही है। विष रूपी उत्पादन का लक्ष्य मृत्यु है, दर्द है, पीड़ा है। घर आजकल कारागृह बन गए हैं जिसमें पति-पत्नी को प्रताड़ित करता है और पत्नी पति को कारावास देती है। बुजुर्ग तानाशाही पूर्वक शासन चलाते हैं और ग्रसित नव युवक फाँसी के फंदे पर झूलते हैं इत्यादि-इत्यादि यही सब कुछ झोपड़ पट्टी से लेकर आलीशान महलों में हो रहा है। सब एक-दूसरे का गला घोट रहे हैं, हिंसक पशुओं के समान एक-दूसरे को नोंच रहे हैं और सबके सब लहूलुहान एवं दिग्भ्रमित हैं।

          समाज की प्रत्येक क्रिया मनुष्य की शक्ति को बिखेर रही है। बिखरना एक बात है और उर्ध्वगामी होना दूसरी बात है। गुरु इन्हीं सब विडम्बनाओं के बीच खड़ा रहता हुआ आपको निरंतर उर्ध्वगामी बनाने की कोशिश में लगा रहता है। उर्ध्वगामी बनने के लिए बिखरने की क्रिया रोकनी होगी या तो फैला लो लता के समान या फिर ऊँचे उठ लो वृक्ष के समान। घास बनोंगे तो पैरों तले रौंदे जाओगे, वृक्ष बनोंगे तो छाया प्रदान करोगे मनुष्यों को आश्रय प्रदान करोगे पक्षियों को । मवाद तभी बनता है जब आप घायल होते हैं और आपकी सिमटने की शक्ति क्षीण होती है। मवाद भौतिक तल पर भी है और मानस पर भी निर्मित होता है। अवचेतन में भी विषाद उत्पन्न होता है।

         गुरु गणेश का प्रतीक होता है वह सर्वप्रथम घाव की, जो कि आपको आपके तथाकथित समाज ने प्रदान किया हैं, शल्य क्रिया करता है। घाव को सुखाता है और पुनः जख्म प्राप्त न हो इस प्रकार की व्यवस्था करता है। साथ ही साथ आप भी दूसरों को जख्म न प्रदान कर सकें इसलिए वह आपके नाखून और दाँत भी तोड़ता है। गणपति एक दन्तेश्वर हैं दो दाँत वाले तो असुर प्रवृत्ति के होते हैं। जब प्रत्येक घर में अराजकता व अव्यवस्था फैली हो तो वहाँ गुरु सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर विघ्नों का नाश करते हुए देव शक्तियों को प्रतिष्ठित करते हैं। आज का मनुष्य मात्र बाहरी दिखावों में उलझ कर रह गया है। निमंत्रण-पत्र, शुभकामना संदेश इत्यादि इत्यादि का आदान-प्रदान कर इति श्री कर लेता है परन्तु वास्तव में आशीर्वादों का उत्पादन दुर्लभ होता जा रहा है। आशीर्वाद, शुभकामना, मंगलमय वचन, दीक्षाऐं इत्यादि हृदय-पक्ष के द्वारा सृजन की जाती है। यही इस ब्रह्माण्ड की सबसे तीक्ष्ण साधना है। 

         अति शीघ्र परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं परन्तु इनके द्वारा उत्पादन के लिए योग्यता तो अवश्य चाहिए। शिव का पुत्र तो बनना ही होगा। देव गणों का अधिपति तो होना ही होगा, विष का पान करना ही होगा । बुद्धि व सिद्धि को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना होगा। क्षेम व कुशल रूपी मानसपुत्र उत्पन्न करने होंगे। गणपति की एक और अर्धांगिनी हैं एवं उनका नाम पुष्टि है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु मात्र अकेला कुछ नहीं करता। वह भी वास्तव में शिव परिवार का ही निर्माण करता है, जिस प्रकार शिव के परिवार में भैरव, गणेश, कार्तिकेय एवं अनेकों गण व अनुचर शिव पुत्रों के समान निवास करते हैं उसी प्रकार गुरु के सानिध्य में शिष्य शिव के मानस पुत्रों की तरह सत्कर्मों में क्रियाशील होते हैं। माता पार्वती सब के प्रति समान भाव रखती हैं। साधक का निर्माण आसान क्रिया नहीं है। 

          एक सामान्य व्यक्ति को आध्यात्मिक साधक में परिवर्तित करने के लिए गुरु को उतना ही प्रयत्न करना पड़ता है जितना कि कृष्ण ने अर्जुन के लिए किया था उसे पूर्ण योद्धा बनाने के लिए। साधक का निर्माण एक दिन की बात नहीं है और न ही एकाध संस्कार से कुछ होने वाला है। एक साधक का निर्माण लगभग 64 करोड़ संस्कारों के बाद ही सम्पन्न होता है। आप सोचिए गुरु को प्रतिक्षण के 100 वें हिस्से में भी संस्कार सम्पन्न करना पड़ता है। संस्कारों की क्रिया प्रवचनों, दीक्षाओं, साधनाओं एवं अन्य अतिसूक्ष्म; अदृश्य गूढ़ क्रियाओं के द्वारा सम्पन्न करनी पड़ती हैं। गणेश का स्थापन इतना आसान नहीं है।

कभी- कभी संस्कार पूर्ण होने से पहले ही साधक शरीर त्याग बैठता है तत्पश्चात् पुनः गुरु को जन्म लेकर एक बार फिर शिष्य को ढूंढना पड़ता है और फिर टूटी हुई कड़ी जोड़नी पड़ती है। अधिकांशत: शिष्यों को ये भी मालूम नहीं होता कि गुरु क्या क्रिया सम्पन्न कर रहे हैं और फिर गुरु को बताना भी नहीं चाहिए। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक मण्डल का निर्माण हो जाता है। 

         मंत्र की सफलता क्या है? मंत्र वही सिद्ध है जिसका कि जाप या अनुष्ठान अखण्ड रूप से ब्रह्माण्ड या विश्व के किसी कोने में निरन्तरता के साथ जारी रहे। आप गायत्री मंत्र नहीं पढ़ रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि कोई अन्य साधक भी इसे नहीं उच्चारित कर रहा होगा। साधक तो बस एक इकाई है। वास्तव में तो गणेश रूपी फल समग्रता के साथ ही उपस्थित होता है। सवा लाख मंत्रों से प्राप्त होने वाला फल निश्चित ही सीमित होगा परन्तु अरबों-खरबों बार मंत्र जाप से उपस्थित हुआ मंगलमय फल अत्यंत ही विस्तृत एवं विश्व के साथ-साथ ब्रह्माण्ड के लिए भी कल्याणकारी होता है। यही सनातन धर्म में प्रचलित शांति पाठ का निचोड़ है। पृथ्वी पर शांति होनी चाहिए, अंतरिक्ष में शांति होनी चाहिए, देवलोक में शांति होनी चाहिए, समुद्र में शांति होनी चाहिए, वायु में शांति होनी चाहिए इत्यादि तभी जीवों में भी शांति होगी। यही शांति की समग्रता है। 

        कल्याणकारी अनुष्ठान, मंत्र जाप, आध्यात्मिक क्रियाऐं गुरुवाणी इत्यादि सभी तलों पर शांति एवं मंगलमय स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। शिव और पार्वती मंदिर के गर्भ में स्थित होते हैं तो वहीं गणेश द्वार पर स्थापित होते हैं अर्थात मंदिर में जाओ और शिव-शक्ति की उपासना करो और अंत में गणेश रूपी मंगलमय फल की प्राप्ति करो । शिव के हाथ में भिक्षा पात्र है तो वहीं गणेश के हाथ में मोदक है। पिता भिक्षावृत्ति करता है और पुत्र मोदक रूपी फल प्रदान करता है अर्थात भिक्षा के रूप में शिव आपका जहर मांग रहे हैं। जहर ही शिव का भोज्य है। जहर के बदले मोदक की प्राप्ति यही महानता है शिव परिवार की, गुरु परम्परा की। 

          साधक तो बनना ही पड़ेगा नहीं तो भटक जाओगे। साधक बनना इतना आसान नहीं है। गुरु की शरण में तो जाना ही पड़ेगा। गुरु के पास जमीन पर नहीं बैठोगे तो राजनीतिज्ञों की सभाओं में जमीन पर बैठना पड़ेगा। हर जगह बिकाऊ माल के समान तुम्हारा इस समाज में दुरुपयोग होगा। चुनाव आपके हाथ में है। घर के सोफे और कुर्सियाँ भी आरामदायक महसूस नहीं होंगी। यह सब गुरु के अभाव में जगह-जगह देखने को मिलता है। आपकी अनंत शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर केन्द्रीयकृत करना गुरु को ही आता है। यही 'कृष्ण ने किया है अन्यथा अर्जुन तो भटक ही गया था। पाँच पाण्डवों को एकीकृत करने के लिए कृष्ण ने द्रोपदी का भी सहारा लिया। वही केन्द्र बिन्दु बनी पाँच पाण्डवों की तेजस्विता को एक सूत्र में बांधकर रखने हेतु अन्यथा महभारत का अंत कुछ और ही होता। यही उस वक्त की पुकार थी। जरूरी नहीं है कि जो युक्ति द्वापर में कारगर साबित हुई वही कलयुग में भी कारगर साबित होगी क्योंकि युक्ति के साथ युक्तिनिर्माता प्रभु श्री कृष्ण भी मौजूद थे। कृष्ण ही गणेश हैं। कृष्ण ही शिव हैं गणेश और शिव अभेद हैं। गुरु को गणेश भी बनना पड़ता है, शिव भी और कृष्ण भी।

           जिन्हें अष्टक वर्ग ज्योतिष सीखना है अध्यात्म से जुड़ना है साधनाओं के विषय में जानकारी चाहिए साधना करना है, कौन सी साधना करें ? गुरु कैसे प्राप्त हो ? गुरु से अपनी चेतना कैसे जुड़ा जाए?

सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे कि इसे पढ़ाया जाए ।।


▪️इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था - विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।
भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। 
जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए।
भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे -

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। 
इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। 
भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।
3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।
कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है - 
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। 
सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। 
लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया।
भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। 
इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। 
संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।
सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। 
सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए।
सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। 
साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। 
इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया।
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। 
अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।
बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। 
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।
इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। 
और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे - श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।
निष्कर्ष यह है कि -
1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।
3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।
4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।
5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।
हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। 
आर्य - द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।