Follow us for Latest Update

सूर्य ।।


          श्री विद्योपासना में एक पुष्प जिसमें कि 360 पंखुड़ियाँ हों एवं किसी नदी के पवित्र जल को पात्र में स्थापित करके मंत्रों के द्वारा सम्पूर्ण साधना सम्पन्न कर ली जाती है, ज्यादा तामझाम की जरुरत नहीं है बस प्रत्येक साधना से पहले अपने हृदय में सम्पूर्ण सूर्य मण्डल का श्रृद्धाभाव से ध्यान कर लेना चाहिए। जो जितने श्रृद्धाभाव से सूर्य मण्डल का ध्यान करेगा उसकी साधना उतनी ही सफल होगी क्योंकि इष्ट और जीव के बीच में सूर्य ही माध्यम हैं समस्त उपासनाओं को इष्ट तक पहुँचाने का। इसलिए प्रत्येक अनुष्ठान से पूर्व, यज्ञ से पूर्व भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, उनकी प्रतिष्ठा की से जाती है। सूर्य प्रसन्न तो सब ग्रह, नक्षत्र, तिथियाँ, पितर, क्षण, काल, मुहूर्त इत्यादि प्रसन्न भगवान सूर्य चाहें तो क्षण भर में अशुभ तिथि को शुभ तिथि में बदल दें, अमुहूर्त को मुहूर्त में परिवर्तन कर दें। काल चक्र सम्पूर्ण रूप से लचीला है एवं उसमें सूर्य भगवान कभी भी, कहीं भी परिवर्तित कर सकते हैं।

         भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब को श्राप दे दिया था । आशीर्वाद एवं श्राप कहीं भी हस्तक्षेप करने की विशिष्ट योग्यताएं हैं या एक तरह से वीटो पावर ( विशेषाधिकार) हैं जो कि एक सौर मण्डल में मौजूद परम सौर तकनीक के माध्यम से सम्पन्न किये जा सकते हैं। प्रत्येक सौर मण्डल के प्राणी में भिन्नता होती है क्योंकि सौर मण्डल के हिसाब से ही प्राणी के शरीर की संरचना सम्भव हो पाती है । आत्मा के मूल रूप में किसी भी सौर मण्डल में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कदापि सम्भव नहीं है । यह भगवान श्रीकृष्ण का गीता उवाच है जो कि परम सत्य है अतः श्राप या आशीर्वाद का असर शरीर एवं इस पर आधारित अनुभवों पर ही होता है। आत्मा कभी श्रापित नहीं होती यह स्पष्ट रूप से समझ लीजिए। भगवान कृष्ण के श्राप से साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया, रूप पर असर पड़ा। सूर्य की किरणों का प्रत्येक शरीर विशेष भक्षण करता है एवं उससे जो किरणें बच जाती हैं उसी से रूप का निर्माण होता है। रूप एवं दृश्य सम्पूर्ण रूप से सूर्य के अधीन हैं। 

           भगवान सूर्य अपने कालचक्र के माध्यम से स्वयं नाना रूप धरते हैं, नाना प्रकार के दिखाई पड़ते हैं और प्रतिक्षण विचित्र विचित्र रूप,चित्र इत्यादि जगत में उपस्थित करते रहते हैं अतः साम्ब ने अपने अप्रिय रूप एवं स्थिति को पुनः अनुरूप बनाने के लिए सूर्यदेव की उपासना की, सम्पूर्ण कालचक्र की उपासना की। युधिष्ठर ने जब दरिद्रता रूपी रूप पाया तब उन्होंने भी सूर्योपासना की एवं भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर उन्हें अक्षयपात्र प्रदान किया एवं दरिद्र से पुनः कुबेर बना दिया। धृतराष्ट्र, दुर्योधन एवं उसके अनुयायी पाण्डवों को दरिद्र रूप में देखना चाह रहे थे पर किसी के चाहने से कुछ नहीं होता परन्तु सूर्यदेव युधिष्ठर को कुबेर के रूप में देखना चाह रहे थे। सूर्य देव ने स्पष्ट कहा जब तक द्रोपदी भोजन नहीं कर लेगी और अंत में अक्षय पात्र को धोकर नहीं रख तक जितना चाहो उतना भोजन देगी तब अक्षय पात्र उत्पन्न करता रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जो सूर्य ने चाहा वही हुआ।

             कुंती ने मंत्र के द्वारा सूर्य देव को प्रकट कर लिया, सूर्य देव ने कहा हे कुंती मेरे द्वारा तुझे पुत्र होगा फिर भी तू कुंवारी बनी रहेगी, तेरा रूप नहीं बिगड़ेगा किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। कितनी विचित्र बात है क्योंकि बताने वाले तो आप ही हैं सूर्यदेव, आप अंधेरा कर देंगे तो कोई स्वयं को भी नहीं देख सकता। संसार में जो कुछ हम देख रहे हैं वह आप ही तो दिखा रहे हैं, आप दिखाते हैं, आप देखने की क्षमता देते हैं, आप ही सब कुछ दृश्यमान करते हैं। क्या दिखा रहे हैं? आप कुछ नहीं अपितु सिर्फ अपने नाना प्रकार के रूप, प्रतिरूप कर्ण को स्वप्न में आकर भगवान सूर्य सब कुछ बताते थे आखिर कर्ण उनके पुत्र जो ठहरे। कर्ण को कभी यह समझ में नहीं आया कि भगवान सूर्य उनके पिता हैं वे समझते थे कि सूर्य उनके इष्ट हैं। जब इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कवच और कुण्डल मांगने कर्ण के पास पहुँचे तब पहले ही सूर्य देव ने उन्हें स्वप्न विद्या के माध्यम से सावधान किया कि अगर देना ही चाहते हो, तो सूर्य वंशी होने के कारण महादानी बने रहना चाहते हो तो बदले में इन्द्र से उनका वज्र मांग लेना। कर्ण महादानी इसलिए थे क्योंकि वे सूर्य पुत्र थे।

           सूर्य से जो मांगो वो देते हैं वे इस नभ मण्डल के राजा हैं अतः उनका दायित्व है मांग की आपूर्ति करना। वो तो महाभारत के युद्ध में परम परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण मौजूद थे जिसके कारण पाण्डव विजयी हुए। धर्म पाण्डवों की तरफ था इसलिए समस्त सौर यांत्रिकी रखी रह गई। जमदग्नि ऋषि बाण चला रहे थे और उनकी पत्नी रेणुका उठा-उठाकर कर ला रही थीं, वे साक्षात् अग्नि पुरुष थे जब रेणुका के पाँव सूर्य की किरणों से जलने लगे तब क्रोध में आकर जमदग्नि ने सूर्य को भस्म कर डालने की ठान ली तब अचानक सूर्य देव प्रकट हो गये और बोले कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ, पृथ्वी को तपा रहा हूँ एवं उससे जो जल संचिंत कर रहा उसे कई हजार गुना रूप में वापस लौटा दूंगा । परम परमात्मा शिव एवं ब्रह्माण्ड नायिका भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सूर्य मण्डल के रूप में एक अद्वितीय, परा ब्रह्माण्डीय, परम चेतन, स्व तत्व से युक्त परम बुद्धिमान यंत्र को निर्मित किया है। सूर्य रूपी परम चैतन्य यंत्र स्व निर्णय ले सकता है, स्व उत्पादन कर सकता है, स्वयं की आत्म रक्षा कर सकता है, सोच सकता है, समझ सकता है अर्थात जो कुछ भी मनुष्य में हो रहा उससे कई असंख्य गुना सूर्य रूपी ब्रह्माण्डीय यंत्र कर सकता है। 

               आप एक लिफाफे पर पता लिखकर पोस्ट ऑफिस के बक्से में डाल दो कुछ समय पश्चात आपका पत्र सही जगह पहुँच जायेगा। आप अपने फोन पर कुछ नंबर दबाओ आपकी बात कहीं हो जायेगी ठीक इसी प्रकार आप सूर्य मण्डल के मध्य में पूर्ण हृदय से ध्यान करके मंत्रों के द्वारा उपासना, तर्पण, हवन, ध्यान इत्यादि सम्पन्न करो भगवान सूर्य आपकी बात आपके इष्ट तक पहुँचा देंगे । वहाँ से क्या जबाव आता है? कब जबाव आता है ? किस रूप में जबाव आता है ? यह जबाव देने वाले की इच्छा पर निर्भर है। हाँ अगर जबाव आया तो वह भी आप तक बिना विघ्न के सूर्य देव तुरंत पहुँचा देंगे ।

प्रातः स्मरणीय सूर्य श्लोक

          निम्नलिखित श्लोकों का प्रातःकाल पाठ करने से बहुत कल्याण होता है, जैसे दिन अच्छा बीतता है, दुःस्वप्न, कलिदोष, शत्रु, पाप और भव के भय का नाश होता है, विष का भय नहीं होता, धर्म की वृद्धि होती है, अज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होता है, रोग नहीं होता, पूरी आयु मिलती है, विजय प्राप्त होती है, निर्धन धनी होता है, भूख-प्यास और काम की बाधा नहीं होती, सभी बाधाओं से छुटकारा मिलता है इत्यादि। निष्कामकर्मियों को भी केवल भगवत्प्रीत्यर्थ इन श्लोकों का पाठ करना चाहिए 

 सूयस्मरण
             प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि  
            मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि । 
            सामानि यस्य किरणाः प्रीवादिहेतुं      
            ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥

सूर्य का वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं जो सृष्टि आदि के कारण हैं, ब्रह्मा और शिव के स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात: काल में उनका स्मरण करता हूँ।

त्रिदेवों के साथ नवग्रहस्मरण
              ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी
             भूमिसुतो बुधश्च । 
             गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे 
             मम सुप्रभातम् ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु- ये सभी मेरे प्रातः काल को मंगलमय करें।

सूर्य के अर्चन के लिये विहित पत्र पुष्प
        भविष्यपुराण में बतलाया गया है कि सूर्य भगवान को यदि एक आक का फूल अर्पण कर दिया जाय तो सोने की दस मुद्रा चढ़ाने का फल मिल जाता है। फूलों का तारतम्य इस प्रकार बतलाया गया है

     हजार गुड़हल के फूलों से बढ़कर एक कनेर का फूल के होता है, हजार कनेर के फूलों से बढ़कर एक बिल्वपत्र, हजार बिल्व पत्रों से बढ़कर एक पद्म (सफेद रंग से भिन्न रंग वाला), हजारों रंगीन पद्म पुष्पों से बढ़कर एक मौलसिरी, हजारों मौलसिरियों से बढ़कर एक कुश का फूल, हजार कुश के फूलों से बढ़कर एक शमी का फूल, हजार शमी के फूलों से बढ़कर एक नीलकमल, हजारों नील एवं रक्त कमलों से बढ़कर केसर और लाल कनेर का फूल होता है। यदि इनके फूल न मिलें तो बदले में पत्ते चढ़ायें और पत्ते भी न मिलें तो इनके फल चढ़ायें। फूल की अपेक्षा माला में दुगुना फल प्राप्त होता है। रात में कदम्ब के फूल और मुकुर को अर्पण करे और दिन में शेष समस्त फूल। बेला दिन में और रात में भी चढ़ाना चाहिए। सूर्य भगवान पर चढ़ाने योग्य कुछ फूल ये हैं बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया (कुरण्टक), चम्पा, रोलक, कुन्द, काली कटसरैया (वाण), बर्बरमल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरूषा, कमल, मौलसिरी, अगस्त्य और पलाश के फूल तथा दूर्वा ।

कुछ समकक्ष पुष्प
शमी का फूल और बड़ी कटेरी का फूल एक समान माने जाते हैं। करवीर की कोटि में चमेली, मौलसिरी और पाटला  
आते हैं। श्वेत कमल और मन्दार की श्रेणी एक है। इसी तरह नागकेसर, चम्पा, पुन्नाग और मुकुर एक समान माने जाते हैं।

विहित पत्र
बेल का पत्र, शमी का पत्ता, भँगरैया की पत्ती, तमालपत्र, तुलसी और काली तुलसी के पत्ते तथा कमल के पत्ते सूर्य भगवान की पूजा में गृहीत हैं।

सूर्य के लिये निषिद्ध फूल
गुंजा (कृष्णला), धतूरा, कांची, अपराजिता (गिरिकर्णिका), भटकटैया, तगर और अमड़ा इन्हें सूर्य पर न चढ़ायें वीरमित्रोदय ने इन्हें सूर्य पर चढ़ाने का स्पष्ट निषेध किया है, यथा
कृष्णलोन्मत्तकं काञ्ची तथा च गिरिकर्णिका
 न कण्टकारिपुष्पं च तथान्यद् गन्धवर्जितम् ॥ 
देवीनामर्क मन्दारौ सूर्यस्य तगरं तथा । 
न चाम्रातकजैः पुष्पैरर्चनीयो दिवाकरः ॥

फूलों के चयन की कसौटी
सभी फूलों का नाम गिनाना कठिन है। सब फूल सब जगह मिलते भी नहीं अतः शास्त्र ने योग्य फूलों के चुनाव के लिये हमें एक कसौटी दी है कि जो फूल निषेध कोटि में नहीं है और रंग-रूप तथा सुगन्ध से युक्त हैं उन सभी फूलों को भगवान् को चढ़ाना चाहिए।

येषां न प्रतिषेधोऽस्ति गन्धवर्णान्वितानि च । 
तानि पुष्पाणि देयानि भानवे लोकभानवे ॥

सूर्य तंत्रम्

        देवताओं के सौतेले भाई असुर दैत्य, राक्षस इत्यादि एकजुट हो गये। सामान्यतः असुर, दैत्य, राक्षस इत्यादि नकारात्मक शक्तियों के द्योतक हैं और ये आपस में ही लड़ते-मरते रहते हैं, एकजुट केवल एक ही बार हुए हैं। इन सब नकारात्मक एवं विध्वंसक शक्तियों ने एक साथ मिलकर एक लक्ष्य स्थापित किया और वह था देवताओं को पराजित करना, स्वर्ग की सत्ता से उन्हें विहीन करना एवं उनके यज्ञ भाग पर अधिकार जमाना। आखिरकार देवता बुरी तरह हारे एवं पराजित हो यत्र तत्र बिखर गये। ब्रह्मा पुत्र कश्यप की आठ पत्नियाँ थीं और उन्हीं में से एक थीं अदिती जो कि देवताओं की जननी अर्थात देवताओं की माता थीं। यह समस्त ब्रह्माण्ड कश्यप पुत्रों की कहानी कहता है। जितने भी जीव हैं चाहें वे पशु-पक्षी हों, कीट-पतंग हों या फिर देवता, असुर, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व इत्यादि सबके सब कश्यप ऋषि की ही संतान हैं। 

           कश्यप पत्नी अदिती ने दुःखी हो अपने देवपुत्रों की दुर्दशा के निवारण हेतु कठोर आदित्योपासना शुरु की। उनकी उपासना से प्रसन्न हो भगवान आदित्य उनके सम्मुख प्रकट हुए एवं वर मांगने को कहा। अदिती ने भगवान आदित्य को ही पुत्र के रूप में मांग लिया। भगवान आदित्य बोले मैं अपने सहस्त्रांश के द्वारा तुम्हारे गर्भ में प्रतिष्ठित हो जाऊंगा और उससे जिस सूर्य रूपी पुत्र का जन्म होगा वह दैत्यों, असुरों और दानवों के लिए काल होगा। कालान्तर अदिती गर्भवती हुईं, गर्भ धारण करने के पश्चात् भी वे अन्न जल त्यागकर घोर उपासना में लीन रहतीं। कश्यप से यह देखा नहीं गया और वे बोल उठे "मारित अण्डम" अर्थात हे अदिती तुम कठोर उपासना करके क्यों अपने गर्भ में पल रहे इस अण्ड को स्वयं मार रही हो, माता स्वयं अपने गर्भ का विनाश नहीं करती इतना सुनते ही अदिती के समस्त शरीर में प्रचण्ड तेज फूट पड़ा, कश्यप घबरा गये। 

            अदिती अभिमान के साथ बोलीं मेरे गर्भ को कोई नहीं मार सकता वह तो स्वयं काल बनने जा रहा है दैत्यों, दानवों और असुरों का। दूसरे ही क्षण अदिती ने अपने गर्भ को निकालकर ब्रह्माण्ड में उछाल दिया कश्यप अवाक् रह गये। अदिती के गर्भ से निकलकर स्वर्णमय अण्ड आकाश में चमकने लगा एवं उसमें से स्वर्णिम आभा का तेज लिए हुए सुन्दर शिशु ब्रह्माण्ड में सूर्य के रूप में क्रिया करने लगा। किकर्त्तव्यविमूढ कश्यप यह सब लीला देखते ही रह गये, जब चेतना बापस लौटी तो साक्षात् सूर्य उदित हो चुका था। कश्यप ने तुरंत इस नव उदित सूर्य की अति सुन्दर स्तुति कर डाली। देखते ही देखते देवता पुनः हर्ष से भर उठे और एक जुट हो दैत्यों, असुरों एवं दानवों पर टूट पड़े। कुछ ही समय में देवता अपने नवोदित भ्राता सूर्य की मदद से पुनः स्वर्ग लोक में प्रतिषित हुए। आदित्य को जो पूजे, आदित्य से जो सूर्य को उत्पन्न कर दे वही अदिती।

          सूर्य का जन्म कश्यप के मुख से निकले शब्द मारित अण्डम के कारण हुआ इसलिए वे सर्वप्रथम मार्तण्ड कहलाये, कश्यप ने उनका यही नामकरण किया। यह है सूर्य तंत्र का प्रथम भाग, सूर्य के माता-पिता का परिचय, उनके भ्राताओं का परिचय, उनके जन्म लेने का कारण उनके कार्यों की व्याख्या। उनके माता-पिता हैं कश्यप और अदिती, उनके भ्राता हैं देवता, उनके शत्रु हैं असुर, दैत्य और राक्षस, उनका कार्य है धर्म की संस्थापना एवं ब्रह्मा की सृष्टि को आगे बढ़ाना, नियंत्रित एवं अनुशासित करना। इस चराचर ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऊर्जा का स्रोत हैं सूर्य। जो देवताओं को भी ऊर्जा दें, ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त ग्रह नक्षत्रों को गति एवं लय प्रदान करें, उन्हें प्रतिक्षण ऊर्जा प्रदान करें उनका नाम है सूर्य सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। प्रत्यक्ष हैं, प्रत्यक्ष कराते हैं, प्रत्यक्षता के सिद्धांत पर चलते हैं, प्रत्यक्ष होने के लिए बाधित करते हैं एवं अप्रत्यक्षता के घोर विरोधी हैं सूर्य।

          नकारात्मकता क्या है ? नकारात्मकता का चरित्र क्या है? नकारात्मकता की एकमात्र पहचान है अप्रत्यक्षता, अंधकार, दिशा विहीनता, मूर्च्छा, चेतना की शून्यता इत्यादि इन सबके घोर विरोधी हैं सूर्य रात में ही अधिकांशत: चोरी होती है, हत्यारे एकांत ढूंढते हैं कुकर्म सम्पन्न करने के लिए। जिनमें चेतना की शून्यता होती है,प्रकाश की न्यूनता होती है वे ही ठग विद्या के शिकार बनते हैं। जिनमें देखने की क्षमता नहीं होती वे ही गड्ढे में गिरते हैं। अंधकार ही मनुष्य को गिराता है। पाप कर्मों की योनि है अंधकार एवं अप्रत्यक्षता छिपकर ही वार करते हैं धूर्त, घात लगाकर हा काम तमाम करते हैं शत्रु ये सब सूर्य विरोधी हैं, प्रकाश विरोधी हैं, प्रत्यक्षता के विरोधी हैं। इनकी अपनी शैली है एवं ये ही असुर, दैत्य और राक्षस कहलाते हैं, ये ही नारकीय जीव हैं, ये ही अंधकार ढूंढते हैं। इन निशाचरों को अंधकार ही प्रिय है क्योंकि इनकी कोई पहचान नहीं है। 

पहचान ही इनकी मृत्यु का कारण है। जिस दिन चोर पहचान लिया गया, जिस दिन हत्यारे की पहचान हो गई उस दिन उसका खेल खत्म। 

        पहचान से बचते हैं नकारात्मक काम करने वाले, वे हर उस चिन्ह को मिटाते चलते हैं जिससे कि उनकी पहचान हो जाय। वे रूप से बड़ा चिढ़ते हैं क्योंकि वे लेना जानते हैं, सिर्फ लेना देना नहीं जानते अतः गुपचुप काम करते हैं। जो देते जाते हैं सिर्फ देना ही जानते हैं उन शक्तियों का नाम है देव शक्तियाँ | दशांश ग्रहण करना और सहस्त्रांश प्रदान करना ही देव शक्तियों की पहचान है। अमृत मंथन हुआ, विष्णु मोहिनी रूप धारण कर असुर और दानवों को मोहित कर बैठे एवं अमृत कलश लेकर देवताओं की तरफ बढ़े परन्तु एक असुर बड़ा चालाक था, वह देवताओं का रूप धर सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ बैठा और चुपके से सबको अंधकार एवं भ्रम में में डाल अमृत पान कर बैठा परन्तु सूर्य ने तुरंत ही उसका भेद खोल दिया और विष्णु से बोल उठे अरे ये तो अप्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष में तो यह असुर है। विष्णु ताड़ गये तुरंत ही सुदर्शन चक्र से धड़ अलग और सिर अलग कर उसे अप्रत्यक्ष ही बना दिया अर्थात राहु और केतु के रूप में वह असुर अप्रत्यक्ष ग्रह बन बैठा। 

      बताया किसने, प्रत्यक्ष किसने करवाया, सच्चाई किसने बताई विष्णु को ? सत्यता से परिचितकरवाया सूर्य ने, बस राहु-केतु उसी क्षण से सूर्य और चन्द्रमा के जन्म जात शत्रु बन बैठे। जब देखो तब, मारे गुस्से में चिढ़कर सूर्य और चन्द्रमा को खाने दौड़ते हैं क्योंकि भेद इन्हीं ने खोला था, इन्हीं के कारण उनकी आसुरी माया हारी थी इसलिए आज भी सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं। विष्णु तो रक्षक हैं, उन्होंने तुरंत ही सूर्य और चन्द्रमा को अपने सुदर्शन चक्र के घेरे में ले लिया जब जब राहु-केतु चिढ़कर सूर्य और चन्द्रमा को खाने दौड़ते हैं तब तब सुदर्शन चक्र का आवरण उन्हें परास्त कर वापस भगा देता है। 

        सूर्य को जगत चक्षु कहा गया है, समस्त ब्रह्माण्ड के नेत्र हैं सूर्य कहीं भी कुछ घट रहा हो, सात तालों के पीछे भी कुछ पापाचार हो रहा हो, पाताल में भी पाप किया जा रहा तब भी सूर्य उसे देख लेते हैं, उनके आगे सब नग्न हैं, ब्रह्माण्ड की एक भी क्रिया उनसे छिपी हुई नहीं है कुछ भी नहीं छिपता उनसे सबको प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान की आवृत्ति, सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य, सूक्ष्म से सूक्ष्म भौतिक कण और विशाल से विशाल ग्रह भी अप्रत्यक्ष नहीं रह पाता। एक न एक दिन उसे प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है। 

         प्रत्यक्ष रहो, दिखते रहो यही सूर्य सिद्धांत है। प्रकाश से बच नहीं पाओगे, प्रकाश के साथ अपने आपको ढालना होगा, प्रकाश के अनुरूप ही व्यवस्थित होना " होगा यही जग की रीत है। विरोध करते रहो, प्रकाश से बचते रहो कुछ नहीं होगा। ज्यादा विरोध करोगे तो भस्म कर दिए जाओगे, जलाकर राख कर दिए जाओगे, स्वयं के अंदर से भस्म होते समय प्रकाश अवश्य ही उत्पन्न हो जायेगा। सूर्य खींच लेता है, अपने आपमें और दहका कर रख देता है, भीषण से भीषण पदार्थ भी सूर्य मण्डल में दहक उठते हैं। केन्द्र में सूर्य हैं और उसके इर्द गिर्द ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह, तारे, उल्कापिण्ड इत्यादि घूम रहे हैं। 

            अनंत वर्षों से प्रतिक्षण इस ब्रह्माण्ड की अनंत नकारात्मक, विध्वंसक शक्तियों को सूर्य प्रतिक्षण अपने केन्द्र में खींचकर भस्म करते चले आ रहे हैं क्योंकि वे रक्षक हैं सौर परिवार के, वे शीश हैं हमारे ग्रह मण्डल के शीश जब तक ठीक है तब तक 'शरीर क्रियाशील रह सकता है। जिस क्षण शीश में विकार आया तो शरीर की क्रियाएं तो निश्चित ही गड़बड़ा जायेंगी शीश अगर मूर्च्छा से ग्रसित हो जाय, शीश अगर चोट ग्रस्त हो जाय, शीश में अगर चेतना का आभास लुप्त हो जाय तो शरीर दूसरे ही क्षण विकार ग्रस्त हो जायेगा। शीश को मूर्च्छा आते ही शरीर भूमि पर गिर पड़ता है, असंवेदनशील हो जाता है एवं इसी स्थिति को कोमा या अंतराल कहते हैं इसमें तो क्षय निश्चित है। आज लाखों जन मानस व्यथा से ग्रस्त हैं एवं बेरोजगारों की लम्बी कतारें हैं, चारों तरफ शोषण ही शोषण है। मन व्यथित हो उठता है जब लोग परेशान दिखाई पड़ते हैं। इस सृष्टि में पशु-पक्षी, कीट-पतंग भी भूख से नहीं मरते परन्तु मनुष्य इस देश में भूख से मर रहा है, रोटी के अभाव में दम तोड़ देता है। 

           अध्यात्म की क्या बात की जाय? जब रोटी ही नहीं है तो अध्यात्म की बात बकवास है। क्यों मानव समाज का इस देश में इतना पतन हो गया ? इसका कारण है शीश शीश का तात्पर्य है नेतृत्व नेता, मंत्री, अफसर इत्यादि असुर हो गये, भ्रष्ट हो गये, अंधकार युक्त हो गये और सिवा लेने के देना उन्हें आता ही नहीं है। लूटते जाते हैं, शोषण करते जाते. हैं इसलिए भुखमरी है, बेरोजगारी है, विकास शून्य है, चारों तरफ कोलाहल ही कोलाहल है अतः शीश में परिवर्तन करना होगा, नये सूर्य उगाने होंगे, उच्चतम पदों पर सूर्यों को प्रतिष्ठित करना होगा। अध्यात्म जगत के लोगों को पुनः अदिती के रूप में अपने मातृत्व के अंदर घोर तप से पुनः मार्तण्ड उत्पन्न करने होंगे तब जाकर परिवर्तन सम्भव है। 

         सूर्य अत्यंत संवेदनशील है, संवेदनशीलता का दूसरा नाम है सूर्य सूर्य की पत्नी हैं संज्ञा संज्ञा उनकी प्रथम पत्नी हैं एवं वे सृष्टि के महान शिल्पकार विश्वकर्मा की सुपुत्री हैं। विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा के साथ सूर्य का विवाह अत्यंत ही प्रसन्नता के साथ सम्पन्न किया और संज्ञा एवं सूर्य के मिलन से उत्पन्न हुए यमरान अर्थात धर्म के प्रतीक, धर्म के प्रति निष्ठावान धर्म की उत्पत्ति ही सूर्य और संज्ञा के मिलन से हुई है। सूर्य और संज्ञा के मिलन से ही स्वयंभू मनु भी उत्पन्न हुए परन्तु सूर्य का प्रचण्ड तेज संज्ञा नहीं झेल सकीं और वे चुपचाप अपने अंदर से छाया को बहन के रूप में उत्पन्न कर सूर्य की सेवा में लगाकर विश्वकर्मा अर्थात अपने पिता के घर चली गईं। सूर्य छाया को संज्ञा समझ पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगे और छाया एवं सूर्य के मिलन से उत्पन्न हुए शनि एवं तपसि कुछ समय पश्चात संज्ञा अश्व रूप धारण कर विचरने लगीं इधर छाया ने यम एवं मनु के साथ सौतेला व्यवहार शुरू कर दिया।

             एक दिन यमराज ने छाया को लात मार दी, छाया ने श्राप दे दिया यमराज को लंगड़े हो जाने का यमराज और मनु ने सूर्य से कहा कि माता कभी पुत्र को श्राप नहीं देती, सूर्य ने क्रोधित हो छाया की चोटी पकड़ लो और वास्तविकता खुल गई। सूर्य ने पुनः यमराज की टांग को जोड़ दिया एवं रुष्ट हो शनि को क्रूरता का श्राप दे दिया और अपने से दूरस्थ कर दिया। आज भी मनु की संताने मनुष्य एवं यमराज अर्थात धर्मराज के पथ पर चलने वाले धार्मिक जीव शनि का कोप झेलते रहते हैं। जो आदि में रच गया वही अनादि तक चलेगा, जो आवृत्ति आदि काल में उत्पन्न हुई बस उसी का गुंजन अनादि काल तक होता रहेगा। सनातन धर्म के ऋषि मुनियों ने जो कथाएं लिखी हैं वे परम सत्य हैं। उनके संज्ञावान मस्तिष्कों ने मनुष्यों के ऊपर से कथाएं नहीं लिखी हैं अपितु ऋषि-मुनियों के परम संज्ञावान मस्तिष्कों में तो नायक एवं नायिका के रूप में ब्रह्माण्ड की दिव्य शक्तियाँ ही विराजमान रहीं हैं। ब्रह्माण्ड के दिव्य घटनाक्रमों को उन्होंने अपने संज्ञावान मस्तिष्क के द्वारा साक्षात्कार कर परम शाश्वत आध्यात्मिक कथानकों का सृजन किया है। अतः मानुषिक बुद्धि एवं अति अप चेतना से ग्रसित मूर्ख पशुरूपी मनुष्य इन आध्यात्मिक कथानकों को समझ ही नहीं पाते हैं, अतः ऐसे महानुभावों को सूर्योपासना करनी चाहिए। जिससे कि उनके मस्तिष्क परम संज्ञावान बन सकें और वे शाश्वत कथानकों के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का प्रत्यक्षीकरण कर सकें। प्रत्यक्ष देवता की उपासना ही प्रत्यक्षीकरण करायेगी।

          सूर्य को अपने तेज से चिढ़ हो गई, वे संज्ञा का विरह नहीं सह सके। संज्ञा के अभाव में सूर्य का क्या उपयोग? सूर्य की शक्ति ही संज्ञा है, अगर संज्ञा को हटा दें तो क्या उत्पन्न हुआ? शनि और तपसी, दोनों ही विध्वंसक एवं क्रूर दोनों ही महान अनिष्टकर्ता विरह से व्याकुल सूर्य विश्वकर्मा के पास पहुँचे और बोले मेरे तेज को छांट दो, मुझे सौम्य बनाओ विश्वकर्मा ने तुरंत सूर्य के तेज को यंत्र पर कसकर खराद दिया। अब खरादे हुए तेज का क्या हो ? विश्वकर्मा जी ने दूसरे ही क्षण सूर्य के खरादे हुए तेज से विष्णु का सुदर्शन चक्र, शिव का त्रिशूल, काली का खड्ग, इन्द्र का वज्र, कुबेर की शीविका, ब्रह्मा का ब्रह्म दण्ड, भैरवों के विलक्षण शस्त्र, चण्डी की तलवार, गणपति का अंकुश यम का पाश, कार्तिकेय की शक्ति पशुओं के दंत एवं सींग, पक्षियों की चोंच, सर्पों के विष इत्यादि बना डाले और सबको अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित कर दिया, तब जाकर सूर्य कुछ सौम्य हुए और उनका संज्ञा से पुनर्मिलन सम्भव हो पाया अस्त्र शस्त्रों का निर्माण ही सूर्य के तेज से सम्पन्न हो पाया है, सभी देव शक्तियों ने अपने हाथ में अस्त्र शस्त्र थाम एक प्रकार से सूर्योपासना ही सम्पन्न की है। 

            अश्व रूपी सूर्य एवं संज्ञा के मिलन से अश्व कुमारों का जन्म हुआ जो अश्विनी कुमार कहलाए कालान्तर इन अश्विनी कुमारों ने औषधियों को हाथ में थाम लिया शस्त्र के रूप में और देव के चिकित्सकों के रूप में प्रतिष्ठित हुए। महर्षि च्यवन ने इन्हें भी देवताओं का दर्जा दिलवाया, ये भी यज्ञ भाग के अधिकारी हुए। जो चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े हुए हैं उन्हें अपने हाथ में मूंगा या माणिक अवश्य धारण करना चाहिए क्योंकि अश्वनी कुमार मूंगे और माणिक वर्ण के ही हैं। इस प्रकार चिकित्सक भी सूर्योपासना सम्पन्न कर सकते हैं क्योंकि उन्हें देना ही देना है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने इसे समझा इसलिए वे चारों संध्याएं अवश्य करते थे। इन चार संध्याओं की उपासना के द्वारा वे सूर्य मण्डल में विद्यमान अश्विनी कुमारों से यही प्रार्थना करते थे कि हे सूर्य पुत्रों हमारा जीवन शतायु हो अर्थात हम सौ वर्ष तक देख सकें, सुन सकें, चल फिर सकें और कर्म सम्पादित कर सकें। 

          पुराणों में मनुष्य की आयु एक सौ पच्चीस वर्ष मानी गई है परन्तु ऋषि-मुनि सूर्य मण्डल की तांत्रोक्त उपासना के द्वारा इस आयु को भी लांघ जाते थे। अश्विनी कुमारों की कृपा से उन्हें दिव्य औषधियों एवं वनस्पतियों का प्रत्यक्षीकरण होता था जिनके माध्यम से वे समस्त प्रकार के रोगों से लड़ने में सक्षम होते थे अकबर को मुगल साम्राज्य का सूर्य बनना था वह चारों संध्या करता था आईने- अकबरी में उसकी सूर्योपासना का विस्तृतता के साथ वर्णन है। वह प्रतिदिन चारों दिशाओं में घूम- घूमकर सूर्य की प्रदक्षिणा करता एवं दोनों कानों को पकड़कर नियमित रूप से सूर्य से क्षमा याचना करता था क्योंकि सूर्योपासना तो उस काल में ईरान में अत्यंत ही प्रचलित थी। ईसा से भी सात शताब्दी पूर्व मग ब्राह्मणों मध्य एशिया में गहन रूप से सूर्योपासना प्रचलित करवाई थी मग ब्राह्मण ईरान से हिन्दुस्तान आये एवं अपने साथ सूर्य की तांत्रोक्त उपासना की विहंगम विधि लेकर आये और राजस्थान के राजपुतानों में पुनः सूर्योपासना के द्वारा अद्भुत चमत्कार प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध करवाये तब से लेकर आज तक अधिकांशतः राजपुतानों के ध्वज एवं राज चिन्ह के रूप में सूर्यदेव विद्यमान हैं।

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

प्राण प्रतिष्ठा -


पूजन /साधना में अनेकानेक जगहों पर हमें प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता होती हैं।

यह आवश्यकता यंत्र , माला, पात्र, अस्त्र, मूर्ति, गुटिका आदि किसी भी देव विग्रह पर हो सकता हैं।

उस प्राण प्रतिष्ठा विधान को लिख रहा हूँ जिसकी साधकों को आवश्यकता प्रायः पड़ता रहता हैं।

यह हमेशा यही होगा चाहे किसी भी चीज की प्रतिष्ठा करनी हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैं।

हाँ यह संभव है की अलग अलग चीजों के साथ कुछ क्रिया विशेष होते हैं जैसे यंत्र के साथ आवरण पूजन आदि..


एक बात और ध्यान देने योग्य है की प्राण प्रतिष्ठा करते समय जिस देवता की प्रतिष्ठा कर रहे हैं उसका मांत्रिक या मानसिक ध्यान अवश्य करना चाहिए ।

यथा निर्देशित स्थान पर उनका नामोच्चारण भी अवश्य करना चाहिए ।

नामोच्चारण में शंसय हो तो सोऽहं का उच्चारण ही करें ।

क्योंकि सोऽहं महाप्राण हैं।

जिस प्रतिमा का प्रमाण/ आकार अधिक हो या जो नगर पूजित होना हो के प्राण प्रतिष्ठा का विधान वृहदतम होता है उतने गहरे जाने की आवश्यकता भी नहीं हैं।

वस्तुतः यह विधान प्रत्येक साधक को कंठस्थ होना चाहिए । जिससे वो जंगल में भी अपना कार्य बिना किसी पेपर, पेन, मोबाइल पर आश्रित हुए कर सकें।

यूं भी एक समय बाद यह सब झूठ बन जाएगा आपके लिए।

किसी भी विधान स्तोत्र आदि को कंठस्थ करने के लिए उसे रटना नहीं चाहिए रटने से विद्याएं कंठस्थ नहीं होते हैं जीवन में उतारने से होते हैं उसके लिए अनाहत में नित्य इष्ट की प्राण प्रतिष्ठा कर सकते हैं।

विनियोग-

ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रम्हा विष्णु महेश्वरा: ऋषयः। ऋग्यजु: सामानि छंदांसि। क्रियामय वपु: प्राण शक्ति देवता। आं बीजम्‌। ह्रीं शक्ति:। क्रौं कीलम्‌। अमुक देव अमुक विग्रहे प्राण प्रतिष्ठापने विनियोगः।

ऋष्यादि न्यास-

ॐ ब्रम्हा विष्णु महेश्वरा: ऋषिभ्यो नमः शिरसि।
ऋग्यजुः सामच्छन्देभ्यो नमः मुखे।
प्राणशक्त्यै नमः ह्रदये।
आं बीजाय नमः लिँगे।
ह्रीं शक्तये नमः पादयोः।
क्रौं कीलकाय नमः सर्वाँगेषु।

कर न्यास-

ॐ अं कं खं गं घं ङं आं पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ इं चं छं जं झं ञं ईं शब्दस्पर्श रुप-रस-गंधात्मने तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ उं टं ठं डं ढं णं ऊं त्वक्‌ चक्षुः श्रोत्र जिह्वाघ्राणात्मने मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ एं तं थं दं धं नं ऐं वाक्‌ पाणि पाद पायूपस्थात्मने अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ ओं पं फं बं भं मं औं वचनादान गति विसर्गा नंदात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ अं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं अः मनो बुद्धयहंकार चित्त विज्ञानात्मने करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि न्यास-

ॐ अं कं खं गं घं ङं आं पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशात्मने हृदयाय नमः।
ॐ इं चं छं जं झं ञं ईं शब्दस्पर्श रुप-रस-गंधात्मने शिरसे स्वाहा।
ॐ उं टं ठं डं ढं णं ऊं त्वक्‌ चक्षुः श्रोत्र जिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्‌।
ॐ एं तं थं दं धं नं ऐं वाक्‌ पाणि पाद पायूपस्थात्मने कवचाय हुं।
ॐ ओं पं फं बं भं मं औं वचनादान गति विसर्गा नंदात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्‌।
ॐ अं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं अः मनो बुद्धयहंकार चित्त विज्ञानात्मने अस्त्राय फट्‌।
ॐ ऐं इति नाभिमारभ्य पादान्तं स्पृशेत्‌।
ॐ ह्रीं इति हृदयमारभ्य नाभ्यन्तम्‌ स्पृशेत।
ॐ क्रीं इति मस्तकमारभ्य हृदयांतं च स्पृशेत।

ध्यान-

देव विशेष का ध्यान करें

प्राण प्रतिष्ठा मंत्र-

(निम्न मंत्र 3 बार पढें-)
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं हंसः अमुक देवस्य प्राणा इह प्राणाः।
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं हंसः अमुक देवस्य जीव इह जीव स्थितः।
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं हंसः अमुक देवस्य सर्वेंद्रियाणि इह स्थितः।
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं हंसः अमुक देवस्य वाङ्‌मनस्त्वक्‌ चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण वाक्प्राण पाद्‌पायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं तिष्ठंतु स्वाहा।

अब निम्न मंत्र विग्रह पर अंगुष्ठ रखकर 1 बार पढें‌-
ॐ मनो जुतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तन्नोत्वरिष्टं।
यज्ञं समिमं दधातु विश्वे देवाश इह मादयंतामो अंप्रतिष्ठ॥
ॐ अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठंतु अस्यै प्राणा: क्षरंतु च।
अस्यै देवत्व मर्चायै मामहेति च कश्चन॥

ॐ (15 बार) मम देहस्य पंचदश संस्काराः सम्पद्यन्ताम्‌ इत्युक्त्वा।

अब प्रणाम क्षमा प्रार्थनादि कर लें ।

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

कनकधारा स्तोत्र ।।


    वेदांत दर्शन की अनंत यात्रा में अनेको ऋषि-मुनि एवं परमतत्व ज्ञानी आते जाते रहे हैं एवं सभी ने वेदांत के संस्पर्श से अपने आप को स्वर्णमयी आभा से युक्त कर अमृत्व की प्राप्ति की परन्तु कालांतर में एकांगी एवं विकृत मानव रचित धर्मों का उदय हुआ। वेदात के विपरीत व्यक्ति पूजन ने स्थान ग्रहण किया मनुष्यों द्वारा रचित पुस्तकों से तथाकथित धर्मों का एवं उनके अनुयायियों का प्रादुर्भाव हुआ। कुछ काल ही ऐसा हो गया की धर्म के नाम पर युद्धों का संचालन होने लगा। जगह-जगह मठों, आश्रमों एवं तथाकथित कृत्रिम शक्ति स्थलों का निर्माण होने लगा।

         कलयुग में मनुष्य इतना पतोन्मुखी हो गया है कि राजाओं को भी ईश्वर पुत्र माना जाने लगा। कलयुग में जितने भी धर्म प्रादुर्भाव में आये उन सब के प्रवर्तक एकांगी ही हैं। अध्यात्म के अनंत एवं असंख्य तत्वों की उनमें झलक भी देखने को नहीं मिलती है। मात्र अहिंसा से पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती, न ही सूली पर लटक कर प्रेम का व्याख्यान देने से सभी प्रेममयी कोष में पहुँच जायेंगे। ठीक इसके साथ वेदांत दर्शन के कुछ सिद्धांतों को चुरा लेने से और फिर धर्म के युद्ध या जेहाद या फिर ईश्वर की मर्जी कह देने से कोई भी व्यक्ति मोक्षगामी नहीं हो जायेगा । इन तथाकथित निकृष्ट धर्मों ने मानव "जाति के मस्तिष्क को एक प्रकार से कम्प्यूटर के समान विशेष सीमाओं में या प्रोग्रामों में आबद्ध कर के रख दिया है । 

        इसीलिये इन धर्मों से कोई भी व्यक्ति छठवें चक्र तक भी नहीं पहुँच पाया सब के सब भेड़-बकरी बन गये और उनके प्रवर्तक चरवाहे, जिधर मर्जी आये उधर हांक दो । यही हाल आप के तथाकथित अध्यात्मिक संस्थानों, आश्रमों एवं मठों का है। यहाँ पर धर्म के नाम की दुकान लगती है। शिष्य के नाम पर इन्हें सिर्फ दुधारू गायों की तलाश रहती है जो कि उनकी आवश्यकताओं को पूरी कर सके । यह खुद कंगाल है, दरिद्र हैं, भिखमंगें हैं, आपको क्या देगें। कभी-कभी कटु शब्दों में भी लोगों तक सच्चाई पहुँचानी पड़ती है। किसी न किसी को तो आगे आकर भ्रम और मायाजाल को तोड़ना ही पड़ेगा।

        इन सब बातों के साथ-साथ आम आदमी भी उतना ही जिम्मेदार है। वह भी स्वार्थी है, कर्म करना ही नहीं चाहता कभी वेदों को खोलकर पढ़ता ही नहीं। बस सब कुछ गोली या इंजेक्शन के स्वरूप में प्राप्त करना चाहता है। स्वयं अनुसंधान, विचार परखने एवं समझने की क्षमता तो अब खत्म होती जा रही है। जो कुछ है वह दूसरों से प्राप्त करो खुद कुछ मत करो । योगासनों की फोटो देख लेने से या पुस्तक पढ़ लेने से आप कभी योग सिद्ध नहीं हो सकते। स्वयं भी हाथ पाँव हिलाने पड़ेगे एकांगी धर्मों के प्रवर्तकों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से वेदांत दर्शन को अपने कुतर्कों के द्वारा एवं जरूरत पड़ने पर हिंसा एवं बल के द्वारा भौतिक रूप में समाप्त करने की पूरी कोशिश की परन्तु बस यहीं पर वे मूर्खता कर बैठें। वेदांत दर्शन में द्वैत तो कुछ भी नहीं अद्वैत ही सब कुछ है। 

      द्वैत तो बस अद्वैत के असंख्य आयामों में से एक आयाम है। उसे नष्ट करना दुष्ट मनुष्यों की बात नहीं है वे तो स्वयं ही नष्ट हो जायेंगे। अद्वैत चिंतन ही महामंत्रों, दिव्य यंत्रों को जन्म देता है। उसी के गर्भ से दिव्य पराब्रह्माण्डी रहस्यों से भरपूर श्रीमद् भागवत् गीता की अनुगूंज होती है, वेद ऋचाओं का प्राकट्य होता है। ज्योतिर्लिंगों से लेकर माँ आदि शक्ति भगवती के पवित्र तीर्थ पिण्ड स्वरूप में प्रकट होते हैं। भारत की धर्म भूमि पर मुगलों, हूणों, कुशाण, मंगोल एवं अन्य बरबर जातियों ने हमला किया सम्पूर्ण वेदांत संस्कृति को मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पाण्डुलिपियों को जलाया। वैदिक ब्राह्मणों के सर काट दिये । बलात धर्म परिवर्तन कराया और जो कुछ भी उन से बन पड़ा वह सब किया परन्तु अंत में क्या हुआ वेदांत दर्शन अक्षय ही रहा और यह सब अखिरकार उसी में शामिल हो गये इतिहास इस बात का गवाह है। 

       भगवान बुद्ध के अवसान के बाद बौद्ध धर्मावलम्बियों ने अपनी पूरी शक्ति वैदिक संस्कृति को समाप्त करने में लगा दी। उनका एकमात्र लक्ष्य था "बुद्धम् शरणम् गच्छाम्" अर्थात समस्त भारत वर्ष को बौद्धमय कर दो। सभी का काम सिर्फ बुद्ध की ही पूजा करना हो इस घोर अंधकारमय दशा में फिर एक बार अवतार होता है और वह अवतार वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक आदि गुरु श्री शंकराचार्यजी के रूप में जिन्होंने मात्र 36 वर्ष की आयु में सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोते हुए पुनः वेदान्त दर्शन को जन-जन तक पहुँचाया अद्भुत एवं दिव्य प्रचण्डता ही इस युवा सन्यासी की शक्ति है। वे आज भी आवृत्ति स्वरूप में या फिर दिव्य अनुभूति के रूप में सत्य के मार्ग पर चलने वाले वास्तविक सन्यासियों को आशीर्वाद देने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं।

उन्हीं के द्वारा उत्सर्जित दिव्य ऊर्जा से भारतवर्ष अनंतकाल तक प्रकाशवान होता रहेगा । उन्होंने कभी स्वयं की पादुका पूजन, मूर्ति पूजन की परम्परा नहीं डाली और तो और अपने निर्वाण षटकम् श्लोक में वे कहते हैं कि मैं न अहंकार हूँ, न बुद्धि हूँ, न विचार हूँ। मैं संज्ञाहीन एवं प्राणहीन हूँ, मैं पंचवायु भी नहीं हूँ। मैं द्वेष तथा राग से परे हूँ न मोक्ष की आकांक्षा है और न धर्म की आकांक्षा है। मुझ में जाति भेद भी नहीं है। मैं पिता-माता, गुरु-शिष्य बंधु मित्र इत्यादि बंधनों से भी युक्त नहीं हूँ। मुझे मृत्यु का भी भय नहीं है। मैं सर्वव्यापी एवं सर्वस्वरूप हूँ इत्यादि इत्यादि । 

         अर्थात परम अभेदात्मक स्थिति बस यही वेदांत है। यही प्रेम का चर्मोत्कर्ष है। सन्यासी से बड़ा प्रेममयी तो कोई होता भी नहीं है वह प्रेम करता है ब्रह्माण्ड की विचित्रता से, उसकी शक्ति से एवं उसकी विलक्षणता से अपरिग्रह की समग्रता ही वैदिक पूजन की आधारपीठ है। प्राप्त करने की लालसा, आबद्ध करने की लालसा, बलात कर्म यह सब घटिया एवं पशु तुल्य अपवित्र पूजा पद्धतियाँ हैं। इनके द्वारा निरंतरता एवं अक्षुणता में दिव्य शक्ति प्राप्त नहीं हो सकती एक बार आदिगुरु शंकराचार्य जी भिक्षा के लिये एक ब्राह्मण के घर पर पहुँचते हैं ब्राह्मण आर्थिक दृष्टि से अत्यंत ही विपन्न था परन्तु अन्य दृष्टियों से नहीं। दरवाजे पर दिव्य मूर्ति को देख ब्राह्मणी अति संकोच से भर उठी क्या करती कुछ देने को था ही नहीं परन्तु हृदय अभी भी पवित्र था। उसमें दया एवं शील भाव पूर्ण रूप से विकसित थे घर में पड़ा एक आंवला ही उसे दिखाई पड़ा उसने तुरंत उस एकमात्र आंवले को ही शंकराचार्य के भिक्षा पात्र में समर्पित कर दिया।

         शंकराचार्य ने भी उसे पूर्णता के साथ ग्रहण करते हुए मात्र आँवले के एक फल के द्वारा अपनी कई दिनों की क्षुधा को तृप्त कर लिया। देने वाली भी पूर्ण हृदय की थी और लेने वाला तो समस्त ब्रह्माण्ड को अपने हृदय स्थल में धारण किये था। आँवला तो मात्र माध्यम था पवित्रता का। ऐसे ही पवित्र संयोगों से दिव्यता एवं अमृत्व प्रफुल्लित होता है। शंकर ने आँवले के साथ-साथ उस ब्राह्मणी की दरिद्रता को भी आत्मसात कर लिया जब सद्गुरु शिष्य को ग्रहण करते हैं तो फिर समग्रता से ग्रहण करते हैं चाहे बदले में जो कुछ मिले सब स्वीकार्य होता है। मस्तिष्कीय गणित, विचार, तर्क यहाँ नगण्य होते हैं तुरंत शंकराचार्य महालक्ष्मी का आह्वान करने लगे महालक्ष्मी का आह्वान स्वयं के लिये नहीं बल्कि ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता को दूर करने के लिये और उनके दिव्य आह्वान से जिस श्लोक का जन्म हुआ वह कनकधारा स्त्रोत कहलाता है अर्थात निष्काम, अभेद एवं परम प्रेममयी महालक्ष्मी पूजन कनक का तात्पर्य स्वर्ण तो वहीं धारा का तात्पर्य निरंतरता और जब कनकधारा के साथ स्त्रोत जुड़ जाता है तब धारा भी अनंतकालीन हो जाती है एक ऐसा महालक्ष्मी पूजन जिसके द्वारा लक्ष्मी अपने सम्पूर्ण स्वरूप में स्वर्ण आभा मण्डल से सुशोभित भक्त के सामने मातृ स्वरूप में आती ही है। 

        सन्यासी के लिए तो महालक्ष्मी सम्पूर्ण रूप से मातृ स्वरूप में ही स्थापित रहती है न कि पत्नी प्रेमिका या अन्य किसी तुच्छ स्वरूप में सारा का सारा वर्णन धनात्मक होता है कहीं भी नकारात्मक विचार प्रकट ही नहीं होते हैं। कनकधारा स्त्रोत में शंकराचार्य जी माँ लक्ष्मी को भगवान विष्णु के पत्नी स्वरूप में पूजते हैं अर्थात लक्ष्मी और विष्णु में कहीं भी कोई भेद नहीं। भेद तो लोभ का प्रतीक है। वास्तव में जहाँ विष्णु वहीं लक्ष्मी एवं जहाँ लक्ष्मी वहीं विष्णु। जब वे क्षण भर को भी अलग नहीं होते तो फिर केवल लक्ष्मी की मूर्ति को पूजने से कभी भी लक्ष्मी प्रसन्न नहीं होगी। इस प्रकार का पूजन खण्डित एवं विकृत है। इसके साथ-साथ वे तृतीय श्लोक में माँ लक्ष्मी के रक्षेश्वरी, कृपेश्वरी और दानेश्वरी स्वरूप का भी वर्णन करते हैं। 
      
         यहाँ पर भी कहीं कोई भेद नहीं। आगे वे भगवान विष्णु के साथ माँ लक्ष्मी के क्षीर सागर में विराजमान दिव्य स्वरूप का अद्भुत वर्णन करते हुए उनका आह्वान करते हैं। कनकधारा स्त्रोत में माँ महालक्ष्मी के गायत्री, सरस्वती और काली स्वरूप का भी - आह्वान है। उन्हीं को यश, धन, रूप, सौन्दर्य, पुत्र, कीर्ति इत्यादि का अक्षय स्त्रोत माना है। आदि गुरु शंकराचार्य जी जब हृदय की परम गहराई से पूर्ण समर्पित भावना के साथ निष्काम कर्म रूपी आह्वान कर रहे थे तो फिर महालक्ष्मी कैसे रुक पाती। दूसरे ही क्षण उनके समक्ष उपस्थित हो बोली “हे पुत्र" मुझे किस लिये याद किया माता के पैर हृदय की पुकार सुन कदापि नहीं रुक सकते। यह असम्भव है। अपने समक्ष माता को उपस्थित देख शंकर बोले “हे माँ" इस ब्राह्मण परिवार पर अपनी कृपा बरसाओं एवं इसकी विपन्नता दूर करो माँ बोली "हे पुत्र" यह ब्राह्मण पूर्व जन्मकृत पापों के कारण इस जन्म में दरिद्रता से कैसे मुक्त हो सकता है। इस पर शंकर बोले 'हे' माँ इस ब्राह्मणी ने इतनी घोर विपन्नता में भी मुझे एकमात्र उपलब्ध आँवले का फल भी समर्पित कर दिया तो क्या इसका यह एक मात्र कर्म ही इसके समस्त पापों को नष्ट करने के लिये काफी नहीं है।

        महालक्ष्मी निरुत्तर हो गयी और दूसरे ही क्षण ब्राह्मण धन-धान्य युक्त हो गया। ऊपर वर्णित कथा से कुछ मूलभूत बातें एक साधक को मिलती हैं तो वह यह है कि दो हाथ वाले से मांगोगे तो चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। शंकर ने मांगा तो महालक्ष्मी से ही मांगा चार पुत्रों का पिता होना अगर गर्व की बात है तो ईश्वर पुत्र होना परम गर्व की । शंकराचार्य तो ईश्वर पुत्र थे जिन्हें स्वयं महालक्ष्मी पुत्र के रूप में पुकार रही हो वह भिक्षा मांग रहा है केवल इसलिये कि किसी की विपन्नता दूर कर सके उनका यश तो अक्षय है। जब तक ब्रह्माण्ड है शंकर की कीर्ति निरंतर बढ़ती ही जायेगी आखिर वे कनकधारा स्त्रोत के रचयिता जो हैं।

       प्रेम ही सबकुछ है प्रेमतत्व के अभाव में पूजन निर्जीव है। पद्धतियाँ शक्तिहीन है अगर देवशक्तियों को बंधन युक्त किया जा सकता है तो वह निष्काम प्रेम के ऊपर ही आरूढ़ होकर प्रकृति पुरुषों में ही वह शक्ति होती है जिसके द्वारा वे प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने में समक्ष होते हैं शंकराचार्य की प्रचण्डता ही ब्राह्मण परिवार को कर्म बंधनों से मुक्त करा पायी। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही व्यवस्थापक, संस्थापक एवं दण्डात्मक स्थतियों का निर्माण करते है परन्तु मातृ शक्ति ही एकमात्र ऐसी शक्ति है जो कि इन संयोजनाओं को अपने अधीन रखती है। लक्ष्मी के आगे विष्णु की नहीं चलती और न ही पार्वती के आगे शिव की । उनके वचनों को पूरा करना त्रिमूर्तियों का ही कार्य है। सिद्ध पुरुष कभी भी सिद्धियों का प्रयोग स्वयं के लिये नहीं करते। शंकर ने स्वयं के लिए लक्ष्मी का आह्वान नहीं किया था। सिद्धियों का ह्रास उसी वक्त शुरू हो जाता है जब साधक में लिप्तता आ जाती है।

अङ्ग हरे: पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गांगनेव मुकुलाभरणं तमालम ।
 अङ्गीकृताऽखिल विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदातु मममङ्गलदेवतायाः 

मुग्धा मुहुविंदधती बदने मुरारे: प्रेमत्रपा-प्रणिहितानि गताऽऽगतानि ।
 मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा से श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥

विश्वामरेन्द्रपद-विभ्रमदानवक्ष मानन्द- हेतुरधिकं सुर - विद्विषोऽपि । 
ईषन्निषीवतु मयि क्षणमीक्षाई - मिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिरायाः ॥

आमोलिपाक्षमधिगम्य मुद्रा मुकुन्द मानन्दकन्दमनिमेशम नतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । 
काम्प्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ।।

कालाम्बुदालि ललितोरसि कैटभारे धराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव । 
मातुः समस्तजगतां महनीयतमूर्ति र्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन । 
मव्यापतेत्तदिह मन्थर- मोक्षणार्ध मन्दाऽलसंच मकरालय कन्यकायाः ।।

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिंचन विहङ्गशिशौ विषण्णे ।
 दुष्कर्म-धर्ममपनीय निराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभ लभन्ते । 
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ।।

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति ।
सृष्टि स्थिति प्रलय सिद्धिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरूण्यै ।।

श्रुत्यै नम स्त्रिभुवनैक फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणाश्रयायै । 
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम वल्लभायै ।।

नमोऽस्तु नालीक-निभेक्षणायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि जन्म शूत्यै ।
नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ।।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय नन्दनानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरुहाक्षि । 
त्वद् वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ।।

यत्कटाक्ष समुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः ।
सन्तनोति वचनाऽगमानसै स्त्वां मुरारि हृदयेश्वरी भजे ।।

सरसिज निलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्ध माल्यशोभे भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यम् ।।

दिग्धस्तिभिः कनककुम्भमुखा वसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारु-ज्जलप्लुतांगीम् । 
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिराजगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ।।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरंगितैरपांगेः । अवलोकय मामकिचनानां प्रथम पात्रमकृत्रिमं दयाया:।।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । 
गुणाधिका गुरुधन-भोगभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ।।

श्रीमदाद्यशंकराचार्यविरचितं कनकधारास्तोत्रं समाप्तम्।। 

        कनक धारा यंत्र के स्थापन और कनक धारा स्त्रोत के पूर्ण पवित्र हृदय से पाठन के द्वारा ग्रहस्थ एवं सन्यासी लक्ष्मी के अभाव से मुक्त हो जाते हैं और इसके साथ कलयुग में लक्ष्मी प्राप्ति के लिये किये गये अज्ञानवश पाप कर्मों की अपवित्रता भी क्षीण हो जाती है। धन संपत्ति की अपवित्रता को दूर करने का यह अमोघ अध्यात्मिक अस्त्र है। आज के युग में समस्त शक्तियाँ अर्थ में समाहित होती जा रही है। प्रत्येक देश कागज रूपी धन को धड़ाधड़ धपता जा रहा है परंतु फिर भी लोग भूखों मर रहें हैं। धन के लिये सभी प्रकार के कुकर्म, पाप एवं हत्यायें की जा रही है। सभी तरफ धन ने अशांति फैला दी है इसका मुख्य कारण अपवित्र कर्मों की तीव्र श्रृंखला के द्वारा लक्ष्मी के स्वरूपों को प्राप्त करना है। मुख्य रूप से कागज के नोट मस्तिष्क द्वारा निर्मित लेनदेन अर्थात शक्तियों के हस्तांतरण की एक व्यवस्था है परंतु यह भी पूर्ण रूप से असफल है। लक्ष्मी मस्तिष्क के द्वारा क्रियान्वित करने पर क्या उत्पात उत्पन्न कर रही है यह तो सर्वविदित है मस्तिष्क के साथ-साथ अगर आप हृदय से भी लक्ष्मी का अनुसंधान करेगें तभी समग्रता आयेगी। मनुष्य रूपी जीवन में द्वैत एवं अद्वैत दोनों मतों का समिश्रण ही पूर्णता प्रदान कर सकता है।                
                     ।। इति शुभम् ।।

दीक्षा ।।

 

         मनुष्य के अनुवांशिक बीज में बीस गुण हैं और वहीं मनष्य के सबसे निकट के प्राणी वनमानुष के अनुवांशिक बीज में 18 गुण हैं। यह 18 गुण मनुष्य के 18 गुणों के समान हैं परन्तु मनुष्य दो गुण वनमानुष से ज्यादा लिये हुए है। अनुवांशिक बीज में गुण का तात्पर्य उन संरचनाओं से है जो कि सर्पाकार अनुवांशिक संरचना के मध्य में सीधी रेखाओं के रूप में स्थित होते हैं। मात्र दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों के कारण मनुष्य इस ग्रह का नायक बन गया है तो वहीं दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों की कमी के कारण वनमानुष आज भी जंगलों में भटक रहा है। अनुवांशिक बीज में एक अति सूक्ष्म आवृत्ति व्यक्ति को रूप और सौन्दर्य का प्रतीक बनाती है, एक विशेष आवृत्ति व्यक्ति को इस विश्व का सबसे बड़ा वैज्ञानिक बना देने में भी सक्षम है।

        इसके ठीक विपरीत थोड़ी सी भी अनुवांशिक विकृति मनुष्य को अनेकों प्रकार की समस्याओं से ग्रसित कर देगी। सारा जीवन अव्यवस्थित हो जायेगा, पृथ्वी उसके लिये नर्क बन जायेगी। परिणाम स्थूल एवं अति विशाल होते हैं परन्तु कारण अत्यंत ही सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं। संतुलन और असंतुलन की यह दिव्य व्यवस्था कर्म बंधनों के साथ-साथ आशीर्वाद, वरदान, दीक्षा, शाप, हाय इत्यादि से निर्मित होती है। मनुष्य के रूप में अपने आपको पूर्ण कहना मूर्खता की निशानी है। पूर्णता क्षणभंगुर है। अपूर्णता निरंतर बनी रहती है। मनुष्य के कर्म निरंतर पूर्णता प्राप्ति के लिये सम्पन्न होते रहना चाहिये । 

           अध्यात्म का तात्पर्य प्रबल सम्भावनाओं से है। सम्भावना ही जीवन है तुरंत निर्णय पर पहुँच जाना नकारात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। चिंतनशील और बुद्धिमता पूर्ण जीवन ही मनुष्य जाति की पहचान है। प्रतिक्षण स्वयं में सुधार करने की प्रवृत्ति ही संत प्रवृत्ति है, एक योगी के गुण हैं। अध्यात्म किस काम का अगर वह व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर मानवता के काम न आ सके। अध्यात्म का कार्य ही निरंतर सुधार की प्रक्रिया को जारी रखना है। जिस क्षण आप अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं उसी क्षण सकारात्मक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। गुरु क्षेत्र, धर्म क्षेत्र, तंत्र क्षेत्र, विज्ञान क्षेत्र, योग क्षेत्र इत्यादि इत्यादि यह सब कुछ एक संतुलनात्मक क्षेत्र को देते हैं जिसे कि अध्यात्म क्षेत्र कहा जाता है। यही सब अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण अंग हैं। अध्यात्म क्षेत्र को स्थूल रूप में मत लीजिये ।

         स्थूल दृष्टि पशुतुल्य दृष्टि है। 99 प्रतिशत मनुष्य इसी दृष्टि के कारण भटक रहा है। पशुतुल्य दृष्टि केवल प्रतिफल को ही देख सकती है कारण जानने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही इतनी भेदन क्षमता रखता है कि लाख पर्दों के पीछे छिपी वास्तविकता को नग्न स्वरूप में देखने की क्षमता प्रदान कर सकता है। परिवर्तन मूल से सम्भव होगा। अव्यवस्था और समस्या मूल से समाप्त होगी। सभी समस्याओं के मूल में कुछ गिने चुने कारण ही है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मात्र बीस गुण आवृत्तियाँ मनुष्य का निर्माण कर बैठती हैं। जटिलता के मूल में सरलता ही है। 

            तुलसीदास जी एक बार गंगा स्नान कर काशी की गली से गुजर रहे थे अनजाने में उनकी धोती पर से कुछ बूंदें बगल से गुजर रही वेश्या के ऊपर गिर गई देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में वेश्या की सम्पूर्ण मनोवृत्ति ही बदल गई और कालान्तर वही स्त्री उनकी अनन्य शिष्या बन बैठी लाख उपदेश, बड़ी-बड़ी बातें,अनेकों ग्रंथों का अध्ययन इत्यादि जो परिवर्तन नहीं कर सकते हैं वह मात्र एक साधारण से स्पर्श से हो जाता है। दीक्षा संस्कार में स्पर्श शरीर का नहीं होता है, स्पर्श किया जाता है प्राणों को । परिवर्तन किया जाता है प्राणों की आवृत्ति में, प्राणों को उर्ध्वगामी बनाया जाता है, उन्हें पहुँचाया जाता है मस्तिष्क के दिव्य आध्यात्मिक केन्द्रों में, आगे का काम अपने आप हो जाता है। वर्षा के बादल तो बस माध्यम हैं जल बरसाने का। बीज स्वतः ही गीली भूमि पर अपने आप अंकुरित हो जाते हैं। दीक्षा न तो किसी ने बनाई है, न ही व्यक्ति विशेष की अमानत है, लेने वाला कौन है, देने वाला कौन है यह भी विचार का विषय नहीं है। विचार स्थूल दृष्टि के द्योतक हैं। 
        
       अध्यात्म के इस अद्भुत मार्ग में अगले क्षण क्या होगा किसी को नहीं पता। सबके अपने अलग-अलग विधान हैं। तुलना, स्पर्धा, आलोचना इन सबका महत्व अध्यात्म क्षेत्र में शून्य है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना एक गोचर विषय है। केवल मनुष्य ही दीक्षाओं का अधिकारी नहीं है। वृक्षों को भी संस्कारित किया जा सकता है, पाषाण को भी प्राण प्रतिष्ठित किया जा सकता है। शक्ति का विसर्जन वनों में भी किया जा सकता है, पशुओं को भी स्पर्श की जरूरत है इन्हें भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं। प्रदान करने वाले की मर्जी किसी को भी प्रदान कर सकता है। सौन्दर्य, स्वास्थ्य, चेतना केवल मनुष्यों का ही विषय नहीं है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना सबसे टेढ़ी खीर है। 80 प्रतिशत पुस्तकें, प्रवचन, विचार इत्यादि इतनी प्रदूषित ध्वनि उत्पन्न करते हैं कि सारा मस्तिष्क ध्वनि तरंगों का कूड़ाघर बन जाता है। सोते वक्त भी मस्तिष्क में विचार घुमड़ते रहते हैं। मनुष्यों के साथ यही समस्या है। ध्वनि रूपी कचरा दिव्य ध्वनि की आवृत्तियों के द्वारा ही निकाला जा सकता है इसके लिये शल्य चिकित्सा या फिर अन्य कोई चिकित्सा पद्धति उपयोगी नहीं है।

      दिव्य मंत्रों का जाप इसीलिये करवाया जाता है जिससे कि दिमाग में बैठी व्यर्थ की ध्वनि तरंगें निकल भागे। यह तो हुआ गोचर विषय अगोचर विषय में भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं इसके लिये काल अत्यधिक आवश्यक हैं। सम्प्रेषण की क्रिया अत्यंत ही विचित्र है। इस क्रिया को मानवीय दृष्टिकोण से न देखें यह अत्यंत ही गम्भीर वैज्ञानिक और तीव्र परिवर्तनकारी में व्यवस्था है। शक्तिपात उतनी ही मात्रा में किया जाता है जितना कि आप पचा सकें । एक किलो घी पिलाने से क्या फायदा जब छटाक भर घी भी आप पचाने की क्षमता न रखते हों । आपका जीवन श्री युक्त, ऐश्वर्यपूर्ण एवं मंगलमय हो बस यही कामना है, यही लक्ष्य है। समाज ही पुस्तक पढ़ता है, आपको सम्मान देता है, आपका आदर करता है, आपके गले में पुष्प माला डालता है उसका ऋण चुकाना अध्यात्म के पथ पर चले प्रत्येक यात्री का परम कर्तव्य है। गंगा किनारे बैठा खड़ताल बजाने वाला न तो आपको सुनेगा, न ही आपको पढ़ेगा वह तो कहेगा नौकरी छोड़ दो, पत्नी छोड़ दो, घर त्याग दो इत्यादि इत्यादि बस समस्याऐं अपने आप खत्म हो जायेंगी। उनका विधान उन्हें ही मुबारक हो। इससे समाज के प्रति ऋण मुक्ति कभी नहीं हो पायेगी । जो ऋण से मुक्त नहीं है उसकी गति अधम ही होगी ।
                       
   शिव शासनत: शिव शासनत:

मंत्र करते हैं सकारात्मक ऊर्जा का संचार ।।

मंत्र सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं और नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करते हैं मंत्रोच्चारण के बाद आप भी कई बार अपने अंदर एक आध्यात्मिक शांति महसूस करते होंगे इसका कारण यही है कि जो नकारात्मक ऊर्जा हमें अशांत रखती है वह दूर हो जाती है और उसका स्थान सकारात्मक ऊर्जा ले लेती है इन मंत्रों से न केवल साधक मात्र के मन को शांति मिलती है अपितु अपने आस पास के वातावरण में इसी सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है मंत्र की क्षमता और साधक की सच्चे मन से की गई साधना पर ही सकारात्मक ऊर्जा का यह संचार निर्भर होता किसी भी वैदिक मंत्र में ऋषि छंद और देवता ये तीन पक्ष होते हैं इनमें ऋषि का संबंध मस्तिष्क अथवा मन या कहें दिमाग से जुड़ा होता है छंद मंत्र के जाप उसकी बनावट अर्थात रचना और ताल अर्थात लय और गति से संबंधित होते हैं तो वहीं देवता लौकिक ऊर्जा का क्षेत्र है यदि मंत्रों के गहरे अर्थ को समझा जाये तो इन मंत्रों से सही मायनों में किसी भी व्यक्ति को लाभ निश्चित रुप से पंहुच सकता है मंत्रों की ध्वनियों से किसी न किसी अभिप्राय अर्थात अर्थ जुड़ा होना चाहिये जब तक हम उसके अर्थ से अंजान हैं तब तक वह अपना काम नहीं करते मात्र किसी किताब से मंत्र को पढ़कर उसका लाभ नहीं मिल सकता उसके लिये गुरु के मार्गदर्शन में विधि विधान के साथ उसका उच्चारण किया जाना आवश्यक होता है

मंत्रोच्चारण से होती है आनंदानुभूति
जब हम किसी भी मंत्र का जाप करते हैं तो उसकी सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव कर सकते हैं उदाहरण के लिये ॐ, गायत्री मंत्र शांतिपाठ महामृत्युंजय आदि मंत्रों को लिया जा सकता है। एक मात्र ॐ का जाप करने से ही हमारा चित शांत होने लगता है और केंद्रित भी धीरे धीरे हम अपने अंदर झांकना शुरु करते हैं एक असीम आनंद की अनुभूति भी आप कर सकते हैं

कहा जाता है किसी व्यक्ति द्वारा मंत्रों की खोज नहीं हुई बल्कि सालों साल की गई तपस्या के फलस्वरुप ऋषि मुनियों ने ये मंत्र इजाद किये वैसे ही जैसे वर्तमान युग में वैज्ञानिक नए नए आविष्का नए नए सिद्धांत खोजतें हैं एक एक आविष्कार पर कई-कई व्यक्तियों का जीवन लग जाता है उस लिहाज से हमारे ऋषि मुनियों को हम आध्यात्मिक वैज्ञानिक कह सकते हैं जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु सकारात्मक ऊर्जा के संचार में वाहक मंत्रों की खोज की

ॐ, गायत्री मंत्र शांति पाठ और महामृत्युजय जैसे मंत्र तो मंत्रोच्चारण में भी आसान हैं और इनका अर्थ भी हर किसी की समझ में आ सकता है इसलिये यह मंत्र काफी लोकप्रिय भी हैं

पुनर्जन्म ।।


           एक गाँव की स्त्री गर्भावस्था के दौरान खेत में काम कर रही थी। अचानक प्रसव पीड़ा हुई एवं उसने खेत में ही शिशु को जन्म दे दिया। कुछ देर बाद उसने स्वयं ही शिशु को उठाया और घर की तरफ चल पड़ी। दूसरी तरफ किसी बड़े शहर में एक धनी व्यक्ति के यहाँ ठीक उसी समय संतान उत्पन्न हुई। माता को बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया, सैकड़ों लोग एकत्रित थे, हर तरह की सुविधाऐं थीं। एक से एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक प्रसव कराने में जुटे हुए थे। शिशु का जन्म होते ही उत्सव का माहौल बन गया। ऐसा हमेशा से होता आया है आगे क्या होगा यह अलग बात है परन्तु जन्म के समय दोनों शिशुओं की स्थितियाँ सर्वथा विपरीत हैं। इसे कहते हैं भाग्य ।

            भाग्य है तो हैं, भाग्य की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। भाग्य का निर्माण कैसे होता है? अगर हम इस विषय का गहराई में जाकर विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि कर्मों की श्रृंखला कभी नहीं टूटती । जिस जीवन में हमने मृत्यु के समय तक जो कर्म सम्पन्न किए होंगे उसी का प्रारम्भ अगले जन्म में पुनः होगा। टूटी हुई कड़ी पुनः जुड़ेगी। अधूरे कर्म पुनः शरीर प्राप्त करके सम्पन्न करने पड़ेगें। इसी से प्रतिपादित होता है पुनर्जन्म का सिद्धांत समस्या यह है कि लोगों का दृष्टिकोण अब वैज्ञानिक नहीं रहा। वे दो स्थितियों में जीते हैं हाँ या ना या तो किसी भी सिद्धांत को हाँ कहकर प्रतिपादित कर देते हैं या फिर न कहकर नकार देते हैं। हाँ और ना से कुछ भी हासिल नहीं होगा। हाँ या न से ऊपर उठकर सोच, विचार एवं बुद्धि रूपी शक्तियों को एक अत्यंत ही लचीला, स्थित प्रज्ञ एवं समग्र भाव देना होगा। यही तरीका है परम सत्य को समझने का जीवन के गूढ़ सिद्धांतों को आत्मसात करने का ।

           मैं क्या हूँ? मैं, कहाँ से आया हूँ? मेरी आंतरिक खोज क्या है? मेरी पसंद और नापसंद जन्म के समय मुझे कहाँ से मिली है? क्यों जब मैं अकेला बैठता हूँ तो मेरे मन में एक अलग प्रकार के विचार आते हैं? इन सब यक्ष प्रश्नों के उत्तर में पुनर्जन्म छिपा हुआ है। मेरे माता पिता या परिवार वाले मेरे गुरु से बहुत चिढ़ते हैं फिर भी मैं उन्हें असीम प्यार करता हूँ। ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिए हो रहा है कि शिष्य विशेष के तो गुरु से पुनर्जन्म के सम्बन्ध हैं भले ही वह उन व्यक्तियों के बीच में रह रहा हो जिनका आध्यात्मिक तल शून्य है। एक स्त्री थी उसे एक पुरुष से प्रेम था। यह सत्य घटना है। अचानक एक वर्ष बाद लड़की ने अपने प्रेमी को छोड़कर किसी दूसरे युवक से विवाह कर लिया। उसने अपने प्रेमी को इस तरह से छोड़ा कि वह उसे कभी जानती ही नहीं थी और पूर्ण रूप से अपने पति के साथ खुशी खुशी रहने लगी। प्रेमी युवक को अथाह मानसिक वेदना और कष्ट हुआ। उसने तो जीवन का अंत करने की ही ठान ली थी परन्तु अचानक चौराहे पर उसे गुरु मिल गये उसने उसे बचा लिया।

         सम्बन्धों की इतनी भयानकता किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में देखने को मिलती है। इन सबके पीछे परम ब्रह्माण्डीय लेन-देन का व्यवसाय छिपा हुआ है अर्थात लेखा-जोखा कर्मों का लेखा जोखा । ब्रह्माण्डीय लेखा जोखा । उस स्त्री का व्यक्ति के साथ कुछ लेखा जोखा बाकी रह गया था और जैसे ही हिसाब-किताब बराबर हुआ साथ खत्म यही होता है जीवन में। जैसे ही फल वृक्ष की डाली पर पक जाता है तुरंत टपक पड़ता है अर्थात साथ खत्म। जैसे ही शरीर वृद्ध होता है आत्मा उड़ जाती है अर्थात साथ खत्म। अब किसी और को पकड़ो हमारा समय पूरा हुआ । संकल्प, प्रतिज्ञा ये सब कर्म बंधन हैं। उन्हें पूरा करना ही पड़ता है। यही विधाता का विधान है, विज्ञान है । आपने विधाता से कहा मुझे पैसा रुपया चाहिए विधाता आपको देगा आपके कर्मानुसार मृत्यु होते ही आत्मा को सर्वप्रथम यमराज या देवदूत चित्रगुप्त के पास ले जाते हैं। वहाँ पर चित्रगुप्त व्यक्ति विशेष की आत्मा के पाप और पुण्य का हिसाब किताब देखते हैं। पुण्य हुए तो योग्यतानुसार स्वर्ग विशेष में भेजा जायेगा आत्मा विशेष को इच्छानुसार अमृत तुल्य भोगों को सम्पन्न करने के लिए। उसके लिए स्वर्ग के अनुरूप देह प्राप्त होगी ।

           दिव्य देहों से दिव्य कर्म तो वहाँ भी सम्पादित करने पड़ेंगे। अगर खाते में पापाचार ज्यादा होगा, पग-पग पर शरीर धारण करने के पश्चात् मनमानी की होगी या सृष्टि के नियमों को भंग किया होगा तो फिर योग्यतानुसार नर्क की प्राप्ति होगी। नर्क भी अनेक प्रकार के हैं। भयंकर पापाचारियों को भयंकर से भयंकर नर्क में जाना पड़ता है। जब तक उनके नारकीय स्वरूप का क्षय नहीं हो जाता उन्हें पुनः देह धारण करने का अधिकार नहीं होता है और देह भी उन्हें योग्यतानुसार ही मिलती है। प्रेत-योनियों में एक-एक हजार वर्ष तक पेड़ों के ऊपर उल्टा लटकाकर रखा जाता है। वे लोग जो धर्म का दुरुपयोग करते हैं,

दुर्योधन ने उस अबला स्त्री को दिखा कर अपनी जंघा ठोकी थी, तो उसकी जंघा तोड़ी गयी। दु:शासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गयी।

महारथी कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया, तो श्रीकृष्ण ने असहाय दशा में ही उसका वध कराया।

भीष्म ने यदि प्रतिज्ञा में बंध कर एक स्त्री के अपमान को देखने और सहन करने का पाप किया, तो असँख्य तीरों में बिंध कर अपने पूरे कुल को एक-एक कर मरते हुए भी देखा...।।

भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते देखना नहीं चाहता, पर भीष्म अपने सामने चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे। जब-तक सब देख नहीं लिया, तब-तक मर भी न सके... यही उनका दण्ड था।
 
धृतराष्ट्र का दोष था पुत्रमोह, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दण्ड मिला उन्हें। सौ हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका।

दण्ड केवल कौरव दल को ही नहीं मिला था। दण्ड पांडवों को भी मिला।

द्रौपदी ने वरमाला अर्जुन के गले में डाली थी, सो उनकी रक्षा का दायित्व सबसे अधिक अर्जुन पर था। अर्जुन यदि चुपचाप उनका अपमान देखते रहे, तो सबसे कठोर दण्ड भी उन्ही को मिला। अर्जुन पितामह भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो कृष्ण ने उन्ही के हाथों पितामह को निर्मम मृत्यु दिलाई।

अर्जुन रोते रहे, पर तीर चलाते रहे... क्या लगता है, अपने ही हाथों अपने अभिभावकों, भाइयों की हत्या करने की ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे क्या ? नहीं... वे जीवन भर तड़पे होंगे। यही उनका दण्ड था।

युधिष्ठिर ने स्त्री को दाव पर लगाया, तो उन्हें भी दण्ड मिला। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला, और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई। यह एक झूठ उनके सारे सत्यों पर भारी रहा... धर्मराज के लिए इससे बड़ा दण्ड क्या होगा ?

दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाया था स्वयं बलराम ने। एक अधर्मी को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दण्ड बलराम को भी मिला। उनके सामने उनके प्रिय दुर्योधन का वध हुआ और वे चाह कर भी कुछ न कर सके...

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दण्ड दे सकते थे, कृष्ण और बर्बरीक। पर कृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से इनकार कर दिया, और बर्बरीक को युद्ध में उतरने से ही रोक दिया।

लोग पूछते हैं कि बर्बरीक का वध क्यों हुआ?
यदि बर्बरीक का वध नहीं हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दण्ड नहीं मिल पाता। कृष्ण युद्धभूमि में विजय और पराजय तय करने के लिए नहीं उतरे थे, कृष्ण कृष्णा के अपराधियों को दण्ड दिलाने उतरे थे।

कुछ लोगों ने कर्ण का बड़ा महिमामण्डन किया है। पर सुनिए! कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा क्यों न रहा हो, कितना भी बड़ा दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग का पाप इतना बड़ा है कि उसके समक्ष सारे पुण्य छोटे पड़ जाएंगे। द्रौपदी के अपमान में किये गये सहयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि वह महानीच व्यक्ति था, और उसका वध ही धर्म था।

     "स्त्री कोई वस्तु नहीं कि उसे दांव पर लगाया जाए..."

कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया।

देवकी के बाल पकड़े कंस ने, और द्रौपदी के बाल पकड़े दु:शासन ने। श्रीकृष्ण ने स्वयं दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। किसी स्त्री के अपमान का दण्ड  अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है, भले वह अपराधी विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न हो।।

    जय श्री कृष्णा बांके बिहारी 🙏

लोगों को ठगते एवं चोरी करते हैं उन्हें हजारों वर्षों की प्रेत योनि प्राप्त होती है।

         सांसारिक दृष्टिकोण से क्षय का तात्पर्य क्षय रोग से लगा लिया जाता है परन्तु विधाता ने क्षय के रूप में एक अद्भुत प्रक्रिया निर्मित की है। परमात्मा की परम दयालुता का परिणाम है सभी कर्मों का क्षय होना नारकीय कष्टों का भी क्षय होगा, शरीर का भी क्षय होगा, पुण्यों का भी क्षय होगा, कारावास का भी क्षय होगा और फिर से मौका मिलेगा सुधरने का क्षय नहीं हो तो पुनर्प्राप्ति कैसे होगी? शरीर का क्षय न हो तो पुनर्जन्म कैसे होगा? एक अपराधी की सजा क्षय न हो तो फिर वह जेल से कैसे छूटेगा । क्षय तो होना ही चाहिए। सभी कुछ क्षयवान है। यही सबसे बड़ा प्रमाणीकरण है पुनर्जन्म का। जेल से छूटने के बाद व्यक्ति अपराधी नहीं है। उसके अपराध का क्षय हो गया अब वह सामान्य व्यक्ति है उसने दण्ड भोग लिया। अब वह उचित कर्म सम्पन्न कर प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर सकता है। उसे पूरा अधिकार है। आज जो निर्धन है कल वह करोड़पति हो सकता है। हो सकता है कुछ समय पश्चात उसकी निर्धनता का क्षय हो जाय। आज जो अज्ञानी है कल वह महाज्ञानी हो सकता है।

          कल तक जो कालीदास जिस डगाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, निपट महामूर्ख थे, कुछ ही दिनों पश्चात वे महाकवि बन गये। किसने क्षय कर दिया उनके अज्ञान का। गुरु ने कर दिया। गुरु को क्षय करना आता है। वह कुछ ही क्षणों में क्षय करं देगा। दूध में से पानी का क्षय कर दो मावा बन जायेगा। क्या किया आपने सिर्फ क्षय किया। बस यही खेल है गुरु का । यही पुनर्जन्म की कुंजी है। एक शिष्य के दिमाग में से कुछ सांसारिकता का क्षय कर दो उसे अपना पूर्वजन्म याद आ जायेगा। जन्म और पूर्वजन्म के बीच बस एक झीना सा पर्दा है और उसके क्षय होने की देर है । उसी पर्दे के कारण शिष्य भटकता रहता है। इसी पर्दे को हटाना गुरु का कार्य है फिर शिष्य कहीं नहीं जाता, कहीं नहीं भटकता, कहीं लिप्त नहीं होता। साधनाऐं एक जीवन का खेल नहीं हैं। चालीस पचास वर्ष में क्या खाक साधना सिद्ध होगी इसके लिए पूर्वजन्म देखना पड़ता है। अधिकांशतः शिष्य अपने साथ पूर्वजन्म की सिद्धियाँ लाते हैं। गुरु अपनी दृष्टि से समझ लेता है कि पूर्व जन्म में शिष्य किस साधना में पारंगत था बस उसी का पुरश्चरण करा के उस शक्ति को जागृत कर देता है।

         बायें हाथ से काम करने वाला व्यक्ति वाममार्गी ही होगा। वाममार्ग की साधना उसे कुछ ही क्षणों में परिणाम दे देगी। वह जन्मजात वाममार्गी है अनेकों जन्म में उसने वाम मार्ग की ही साधनाऐं सम्पन्न की हैं। अब उसे भला कहाँ दूसरे मार्ग की साधना सम्पन्न करायें। उसे शिव ही अच्छे लगेंगे। उससे विष्णु पूजन सम्पन्न कराना अत्यधिक दुष्कर है। यह पहचान है पूर्व जन्म की कुछ बच्चे उल्टे पैदा होते हैं अर्थात जन्म के समय पैर बाहर निकलता है। इनमें जन्मजात गुण होता है पूर्वाभास का। इनकी कुण्डलिनी शक्ति गर्भ में ही आज्ञा चक्र तक आकर स्वतः ही रुक जाती है अन्य बच्चों में वह मूलाधार में ही सुप्त रहती है। इस प्रकार के बच्चों को पायला कहा जाता है। दस वर्ष से कम उम्र के अगर शुद्धतम, उच्च कोटि के बच्चे मिल जायें तो ये आँखें बंद करने के पश्चात भी कमरे में रखी सब बस्तुओं को देख सकते हैं। पूर्व जन्म को जाने बिना सम्पूर्ण विकास तय नहीं किया जा सकता एवं पुनर्जन्म को भी संशोधित नहीं किया जा सकता।

          जीवन को इस प्रकार से समझ सकते हैं प्रथम पूर्वजन्म अर्थात भूतकाल द्वितीय वर्तमान जन्म तृतीय अर्थात पुनर्जन्म । सर्वप्रथम पूर्व जन्म को समझना है एवं उस जन्म में किए गये कार्यों की व्याख्या करनी है, गलतियों को सुधारना है। यह कार्य वर्तमान युग होगा और इसी के अनुसार पुनर्जन्म प्राप्त होगा। एक शिष्य आलू के अलावा कुछ नहीं खाता, उसे गर्मी अत्यधिक लगती है और ठण्ड से अत्यधिक प्रेम है। एकांतवास उसकी प्रकृति है अर्थात उस शिष्य ने पूर्व जन्म में हिमालय के ठण्डे प्रदेश में साधनाऐं सम्पन्न की हैं इसीलिए गर्मी के प्रति वह संवेदनशील है। एकांत स्थान पर साधनाओं के कारण उसे एकांतवास पसंद है। उच्च शिखरों पर साधना करने वाले अपने साथ आलू या अन्य प्रकार के कंद मूल बोरे में भरकर ले जाते हैं। उसी पर उनका जीवन निर्भर रहता है। एकांतवासी मायावी नहीं होते तथा छलप्रपंच और फरेब से सर्वथा पुरे रहते हैं।
 
    ‌ ‌                  शिव शासनत: शिव शासनत:

रुद्र चण्डी ।।

घोरचण्डी महाचण्डी चण्डमुण्डविखण्डिनी। 
चतुर्वक्त्रा महावीर्यां महादेविभूषिता ॥ 

रक्तदन्ता वरारोहा महिषासुरमर्दिनी । 
तारिणी जननी दुर्गा चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ 

गुह्यकाली जगद्धात्री चण्डी च यामलोद्भवा। 
श्मशानवासिनी देवी घोरचण्डी भयानका ॥ 

शिवा घोरा रुद्रचण्डी महेशा गणभूषिता । 
जाह्नवी परमा कृष्णा महात्रिपुरसुन्दरी ॥ 

श्रीविद्या परमाविद्या चण्डिका वैरिमर्दिनी। 
दुर्गा दुर्गशिवाघोरा चण्डहस्ता प्रचण्डिका ॥ 

माहेशी बगलादेवी भैरवी चण्डविक्रमा। 
प्रमथैर्भूषिता कृष्ण चामुण्डामुण्डमर्दिनी ॥ 

रणखण्डा चन्द्रघण्टा रणेरामवरप्रदा । 
मारणी भद्रकाली च शिवा घोराभयानका ॥ 

विष्णुप्रिया महामाया नन्दगोपगृहोद्भवा । 
मंगला जननीचण्डी महाकुद्धा भयंकरी ॥ 

विमला भैरवी निद्रा जातिरूपा मनोहरा । 
तृष्णा निद्रा क्षुधा माया शक्तिर्मायामनोहरा ॥ 

तस्यै देव्यै नमस्तस्यै सर्वरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 

भवानी च भवानी च भवानी चोच्यते बुधैः । 
भकारस्तु भकारस्तु भकार: केवलः शिवः ॥ 

महाचण्डी शिवा घोरा महाभीमा भयानका । 
कांचनी कमला विद्या महारोगविमर्दिनी ॥ 

गुह्यचण्डी घोरचण्डी चण्डी त्रैलोक्यदुर्लभा ।
देवानां दुर्लभा चण्डी रुद्रयामलसंमता ॥ 

अप्रकाश्या महादेवी प्रिया रावणमर्दिनी । 
मत्स्यप्रिया मांसरता मत्स्यमांसबलिप्रिया ॥ 

मदमत्ता महानित्या भूतप्रमथसंगता । 
महाभागा महारामा धान्यदा धनरत्नदा ॥ 

वस्त्रदा मणिराज्यादि सदाविषयवर्धिनी । 
मुक्तिदा सर्वदा चण्डी महाविपद्नाशिनी ॥ 

रुद्रध्येया रुद्ररूपा रुद्राणी रुद्रवल्लभा । 
रुद्रशक्ति रुद्ररूपा रुद्रमुखसमन्विता ॥ 

शिवचण्डी महाचण्डी शिवप्रेतगणान्विता । 
भैरवी परमाविद्या महाविद्या च षोडशी ॥ 

सुन्दरी परमापूज्या महात्रिपुरसुन्दरी । 
गुह्यकाली भद्रकाली महाकालविमर्दिनी ॥ 

कृष्णा तृष्णास्वरूपां सा जगन्मोहनकारिणी । 
अतिमंत्रा महालज्जा सर्वमंगलदायिनी ॥ 

घोरतंत्री भीमरूपा भीमा देवी मनोहरा । 
मंगला बगला सिद्धिदायिनी सर्वदा शिवा ।। 

स्मृतिरूपा कीर्तिरूपा योगींद्रैरपि सेविता । 
भयानका महादेवी भयदुःख विनाशिनी ॥ 

चण्डिका शक्तिहस्ता च कौमारी सर्वकामदा। 
वाराही च वराहास्या इन्द्राणी शक्रपूजिता ।। 

माहेश्वरी महेशस्य महेशगणभूषिता । 
चामुण्डा नारसिंही च नृसिंहशत्रुविमर्दिनी ॥ 

सर्वशत्रुप्रशमनी सर्वारोग्यप्रदायिनी । 
इति सत्यं महादेवि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

      यह 25 श्लोकों की स्तुति रुद्रचण्डी कहलाती है। इसके प्रथम दस श्लोकों का पाठ कामापराधों के शमन करने के लिये होता है। बाद के पंद्रह श्लोक भी अघमर्षण के लिये किये जाते हैं। व्यक्ति निर्मल होने पर ही आध्यात्मिक शांति का अधिकारी होता है। चण्डी का अर्थ घोर होता है इसका घोरस्वरूप एक सहज एवं आवश्यक अवस्था है। महिष, शुंभ, निशुंभ, चण्ड, मुण्ड जैसे क्रूरकर्मा और प्रचण्ड पराक्रमी असुरों का विनाश सौम्य रूप से संभव नहीं होता इसलिए परमवात्सल्यरूपिणी माँ को चण्डी, चामुण्डा जैसे रूप धारण करने पड़ते हैं। इन श्लोकों में वह रुद्र और विकट हो जाती है इसलिए उसकी उग्रता और बढ़ जाती है। परमा का भक्तों को भयभीत करने के लिए नहीं होता अपितु उसके दुष्कर्मों का नाश करने के लिये होता है। चण्ड और मुण्ड नाम दैत्य एक दुष्प्रेरणा है जो शुंभ और निशुंभ के काम को अहंकार के माध्यम से उद्दीप्त करते हैं। शुंभ-निशुंभ के स्तुतिगान में वे उसकी, उसके सुन्दर वस्तुओं के प्रति मोह अपहरण और बल की महिमा बखानते हैं और एक दुष्कर्म के लिये प्रेरित करते हैं। इस प्रेरक शक्ति के शुद्ध रूप को चामुण्डा कहा जाता है, चामुण्डा का प्रखर तेजस्वी रूप चण्डी कहलाता है। माँ के दुर्गा, चामुण्डा अथवा चण्डी स्वरूप के समक्ष बैठकर इसका नित्यपाठ करने से पापक्षय होता है और साधक निर्मल व निर्भय होता है।

नवरात्रि को देवत्व के स्वर्ग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता है। उस अवसर पर सुसंस्कारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हें सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलब्ध हुई मानी जाती हैं। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगें भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सके तो दैवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नवरात्रियों का पर्व मुहूर्तों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृति की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण एवं लोक मंगल क्रिया कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं। 

बसन्त आते ही कोयल कूकती और तितलियाँ फुदकती दृष्टिगोचर होती हैं। भोंरे गूँजते हैं जबकि अन्य ऋतुओं में उनके दर्शन भी दुर्लभ रहते हैं। वर्षा आते ही मेंढक बोलते और मोर नाचने लगते हैं जबकि साल के अन्य महीनों में उनकी गतिविधियाँ कदाचित ही दृष्टिगोचर होती हैं। आँधी तूफान और चक्रवातों का दौर गर्मी के दिनों में रहता है। ग्रीष्म का तापमान बदलते ही उनमें से किसी का पता नहीं चलता। ठीक यही बात नवरात्रियों के समय पर भी लागू होती है।

 प्रातःकाल और सायंकाल की तरह इन दिनों की भी विशेष परिस्थितियाँ होती हैं उनमें सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह उभरते और मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। न केवल प्रभावित करने वाली वरन् अनुमूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बनती हैं। इसे समय की विशेषता कह सकते हैं। जीवधारियों में से अधिकांश को इन्हीं दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती है और वे गर्भाधान सम्पन्न कर लेते हैं। इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपना रौल पूरा करते हैं- सूत्र संचालन तो किसी ऐसे अविज्ञान मर्मस्थल से होता है जिसे सूक्ष्म जगत याa अन्तर्जगत के नाम से मनीषी व्याख्या- विवेचना करते रहते हैं। नवरात्रियों में कुछ ऐसा वातावरण रहता है जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनते देखी जाती है। 


सूर्य के उदय और अस्त होते समय आकाश में लालिमा छाई रहती है और उस अवधि के समाप्त होते ही वह दृश्य भी तिरोहित होते दीखता है। इसे काल प्रवाह का उत्पादन कह सकते हैं। ज्वार भाटे हर रोज नहीं अमावस्या पूर्णमासी को ही आते हैं। उमंगों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात है कि वे मनुष्य की स्व उपार्जित ही नहीं होतीं वरन् कभी- कभी उनके पीछे किसी अविज्ञात उभार का ऐसा दौर काम करता पाया गया है कि चिन्तन ही नहीं कर्म भी किसी ऐसी दशा में बहने लगता है जिसकी इससे पूर्व वैसी आशा या तैयारी जैसी कोई बात नहीं थी। ऐसे अप्रत्याशित अवसर तो यदा- कदा ही आते हैं पर नवरात्रि के दिनों अनायास ही अन्तराल में ऐसी हलचलें उठती हैं जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है मानो अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसा हो। 

ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी ऋषियों, मनीषियों ने नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े सही पर नवरात्रि में आध्यात्मिक तप साधना का सुयोग बिठाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। तंत्र विज्ञान के अधिकांश कोलकर्म इन्हीं दिनों सम्पन्न होते हैं। वाम मार्गी साधक अभीष्ट मन्त्र सिद्ध करने के लिए इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं। 

नवरात्रि देव पर्व है। उसमें देवत्त्व की प्रेरणा और उवी अनुकम्पा बरसती है। जो उस अवसर पर सतर्कता बरतते और प्रयत्नरत होते हैं, वे अन्य अवसरों की उपेक्षा इस शुभ मुहूर्त का लाभ ही अधिक उठाते हैं। भौतिक लाभों को सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण और प्रगति के अनुकूलन में सिद्धियों की आवश्यकता पड़ती है। उस आधार पर जो मिलता है उसे वरदान कहा जाता है। नवरात्रियाँ वरदानों की अधिष्ठात्री कही जाती हैं, पर इस शुभ अवसर पर वास्तविक लाभ है देवत्त्व की विभूतियों का जीवनचर्या में समावेश। वह जिसे जितनी मात्रा में मिलता है वह उतनी ही कला क्षमता का नर देव कहलाता है। देवता स्वर्ग में ही नहीं रहते अपितु महामानवों के रूप में इस धरती पर विचरते हैं। 

नवयुग देवत्व प्रधान होगा। उसमें वे प्रयत्न चलेंगे जो मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकेंगे। जहाँ देवता बसते हैं वहाँ स्वर्ग होता है। जहाँ स्वर्ग होगा वहाँ देवता ही बसते होंगे। इसी तथ्य के आधार पर यह अपेक्षा की गई कि उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा जो सुखद वातावरण बनेगा उसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की उपमा दी जा सकेगी।


युग सन्धि की नवरात्रियों में विशेष सम्भावना इस बात की है कि उनमें अदृश्य लोकों में देवत्व की अतिरिक्त वर्षा हो और उस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता सम्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। युग परिवर्तन की अवसर प्रक्रिया को गतिशील बनाने में इन देव मानवों का ही योगदान प्रमुख रहा है। तत्वदर्शी कहते हैं कि अवतार अकेले ही अपना प्रयोजन पूरा नहीं कर लेते उनके साथ- साथ अनेक सहयोगी भी होते हैं और वे भी देवलोक से उसी प्रयोजन के लिए शरीर धारण करते हैं। पाँचों पाण्डव पाँच देवताओं के अवतार थे। हनुमान- अंगद आदि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है। इन दिनों सूजन योजनाओं में देव मानवों का यह साहस एवं प्रयास ही अग्रिम मोर्चा सँभालते दिखाई देगा।

नवयुग सृजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का यही शुभ मुहूर्त है। प्रज्ञा युग की प्रेरणा को अपनाने और विधि व्यवस्था को चरित्र करने के लिए यों हर घड़ी पवित्र और महत्त्वपूर्ण है, पर इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गई है। यों उपासना की चिन्ह पूजा भी बीजारोपण की दृष्टि से उपयोगी मानी गई है और उसे किसी भी रूप में किसी भी मनःस्थिति में अपनाये रहने पर जोर दिया गया है। फिर भी उसे निष्ठापूर्वक अपनाने की प्रौढ़ता का स्तर ऊँचा ही रहता है। उच्चस्तरीय सत्परिणामों की आशा- अपेक्षा योजनाबद्ध तपश्चर्या अपना कर की जाने वाली साधना के साथ अविच्छन्न रूप से सम्बन्धित है। 

नवरात्रि पर्व का ऋतु संध्या मुहूर्त विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं विशिष्ट साधना पद्धति के कारण भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। नैष्ठिक साधकों के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में अनुष्ठान साधना एक अत्यावश्यक पुण्य परम्परा के रूप में सदा सर्वदा से अपनाई जाती रही है। 

सर्दी और गर्मी दो ही प्रधान ऋतुएं हैं उनका मिलन एक प्रकार से वैसा ही सन्धि काल है जैसा कि रात्रि के अन्त और दिन के प्रारम्भ में प्रभातकाल के रूप में उपस्थित होता है। सन्धियाँ सदा मार्मिक होती हैं। शरीर में अस्थिपञ्जर से बने हुए जोड़ों को भी सन्धियाँ कहते हैं। इन्हीं के यथावत् रहने पर काया की विभिन्न क्रिया- प्रक्रियायें गतिशील रहती हैं। यह जोड़ यदि जकड़ने लगें तो फिर चलना- फिरना तो दूर मुड़ना भी सम्भव न रहेगा। मशीनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी क्षमता एवं गतिशीलता उनकी सन्धियों के सही गलत होने पर ही निर्भर रहती है। इन दिनों युग सन्धि चल रही है अतएव जाग्रत आत्माओं को आपत्ति- कालीन व्यवस्था की तरह युग धर्म के निर्वाह में जुटना पड़ रहा है। ऋतु संध्या आश्विन और चैत्र में जिन दिनों आती है उन नौ- नौ दिनों की अवधि को नवरात्रि कहते हैं। ऋतुओं में ऋतुमती होने और वातावरण में नये- नये अनुदान देने का दृश्य सूक्ष्म जगत में इन्हीं दिनों दृष्टिगोचर होता है। 

ऐसे- ऐसे अनेकों कारण हैं जिनके कारण अध्यात्म क्षेत्र में साधना प्रयोजनों के लिए यह समय विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार प्रभात काल की उपासना अधिक फलवती होती और संध्या के नाम से पुकारी जाती है। उसी प्रकार नवरात्रियों का समय भी दोनों सन्ध्याओं के समतुल्य माना गया है।

सर्वविदित है कि युग सन्धि की इस परिवर्तन बेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सम्वर्धन को लक्ष्य रखकर जो बीस वर्षीय योजना बनी है उसमें नैष्ठिक महापुरश्चरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। एक लाख नैष्ठिक उपासकों द्वारा बीस वर्षीय संकल्प लेकर इतिहास काल के इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन हुआ है। उसकी भागीदारी लेने वाले साधकों को आधा घन्टे में सम्पन्न हो सकने वाली पाँच मालाओं का नित्य जप करना होता है। साथ ही गुरूवार के दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत साधना का भी अनुशासन जुड़ा है। इसके अतिरिक्त सामूहिक रूप में मासिक यज्ञ करने की व्यवस्था उन्हें बनाये रखनी होती है। सामान्यतया चलने वाले यही अनुबन्ध है जिनका परिचालन करते हुए युग सन्धि महापुरश्चरण की भागीदारी को गतिशील रख जाता है। 

इन सामान्य नियमों के अतिरिक्त असामान्य तप साधना के रूप में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में उन्हें २४ हजार के गायत्री अनुष्ठान भी करने होते हैं। उस समय वे नहीं कर सकते तो आगे पीछे हटकर भी उसकी पूर्ति करनी होती है। यह अनिवार्यता इसलिए रखी गई है कि इन नौ दिनों के साधना सत्रों में वे सभी प्रयोजन पूरे होते हैं जो जन मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की उभयपक्षीय युग चेतना के अग्रगणी बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है। 

गायत्री अनुष्ठानों के नवरात्रि परम्परा के पीछे ऐसे- ऐसे अनेकों कारण सन्निहित हैं इसलिए उपासना में अभिरूचि रखने वाले इन दिनों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और वर अवसर पर कुछ न कुछ व्रत पालन निश्चित रूप से करते हैं।


जो साधारणतया दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं और यदा- कदा ही कभी कुछ पूजा पाठ करते हैं ऐसे लोगों पर भी जोर दिया जाता है कि वे कम से कम उन दिनों तो कुछ नियम निबाहें और निश्चित साधना की बात सोचें। इन अभ्यासों के लिए भी कई प्रकार की सरल साधनाओं की विशेष व्यवस्था की जाती है ताकि उन्हें बोझ लगने और मन उचटने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन्त्र लेखन गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उसी आधार पर बनी हैं और २४ हजार वाली संख्या को घटा कर १० हजार तक हलका कर दिया गया है। नौ दिन में दस हजार जप करने का तात्पर्य मात्र हर रोज एक घण्टा समय लगाना भर होता है। यह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। मन्त्र लेखन हर रोज ११२ करने में नौ दिन में एक हजार लिख जाते हैं यह भी एक अनुष्ठान है। गायत्री चालीसा के हर दिन बारह पाठ करने से नवरात्रि में १०८ हो जाते हैं। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ यह पंचाक्षरी गायत्री है। इतना तो अशिक्षित एवं बालक भी याद कर सकते हैं और सुविधानुसार संख्या निर्धारित करके उसकी पूर्ति करते रह सकते हैं। प्रमुख तथ्य नियमितता है, न्यूनाधिकता नहीं। नियमित साधना को अनुष्ठान कहते हैं। उसके साथ तपश्चर्याओं का अनुशासन जुड़ जाने से उसकी संज्ञा पुरश्चरण की जाती है। अनुष्ठान पुरश्चरण हलके भारी स्तर के भी होते हैं। 

अनभ्यस्त लोगों के लिए उपासना क्रम में सरलता उत्पन्न करने की तरह व्रत अनुशासनों में भी ढील देकर उन्हें मनीषियों ने बाल सुलभ बना दिया है। भूमिशयन, स्वयं सेवा, उनके लिए अनिवार्य नहीं। ब्रह्मचर्य तो आवश्यक है। पर उपवास में भी ढील की काफी गुंजायश बना दी गई है। रोटी- शाक, दाल- चावल जैसे दो वस्तुओं के युग्म अपना कर नौ दिन काट लेने में मात्र पदार्थों का सीमा बन्धन ही है भूखा रहने जैसी कोई कठिनाई नहीं है। जो इससे आगे बढ़ सकते हैं वे बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत पालने की हिम्मत भी दिखा लेते हैं। एक समय पूरा भोजन एक समय फल दूध जैसी सरलता उन्हीं लोगों के लिए बनाई गई है जो उपवास करना चाहते हैं पर ऐसी सरलता ढूँढ़ते हैं जिसमें भूखा न रहना पड़े। ऐसे लोगों को निराश न होने देने और न कुछ से कुछ। अच्छा की सरलता की गई है। इस आधार पर बाल- वृद्ध, और व्यस्त लोग भी नवरात्रि में कुछ न कुछ नियमित साधना का सुयोग बना सकते हैं।

गायत्री परिवार का जहाँ भी छोटा बड़ा संगठन है वहाँ नवरात्रि पर्व मनाने का प्रयत्न निश्चित रूप से किया जाता है। यों व्यक्तिगत एकाकी साधना करने पर भी रोक नहीं है, पर प्रयत्न यही किया जाता है कि सामूहिक उपासना का उपक्रम बने और उसे एक उत्साह आयोजन का स्वरूप मिले। ऐसी व्यवस्था बनाने में उत्साही लोगों को स्वयं आगे रहने, थोड़ी दौड़ धूप करने साधन जुटाने एवं जन- सम्पर्क साधकर उत्साह दिलाने जैसे प्रयत्न करने होते हैं। ऐसा कुछ कर पाने वाले उत्साही जहाँ एक दो भी हों वहाँ नवरात्रि आयोजन की व्यवस्था सहज ही बन जाती है। वह न तो महँगी है और न कठिन कष्ट साध्य। जो इसके लिए आगे बढ़कर साहस दिखाते हैं उन्हें अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि भारत जैसे धर्म प्रकृति वाले देश में नवरात्रि आयोजनों को साधना सत्रों के रूप में विकसित और व्यापक बना सकने में अनुत्साह के अतिरिक्त और कोई भी कठिनाई नहीं है जो हँसते- हँसाते हल न की जा सके।

युग सृजन अभियान में नवरात्रि पर्व को साधना सत्र आयोजन के रूप में नियोजित करने और सफल बनाने पर आरम्भ से ही बहुत जोर दिया जाता रहा है। इसमें उपासना और साधना के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। प्रातःकाल सामूहिक जप, हवन- पूजन का और सायं- काल संगीत प्रवचन के ज्ञान यज्ञ की व्यवस्था रहती है। उपासना से आत्म कल्याण की और जीवन साधना की प्रगति भी सदा उसी के सहारे सम्पन्न होती रही है। भविष्य निर्माण में सज्जनों की संगठित सृजन चेतना की ही प्रमुख भूमिका होगी। राम काल के रीछ बानर, कृष्ण काल के ग्वाल- बाल, बुद्ध के भिक्षु सहयोगी, गांधी के सत्याग्रही इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि महान प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सज्जनों की सहकारिता सम्पादित किये बिना कोई चारा नहीं। देवताओं की संयुक्त शक्ति, दुर्गा ने ही उन्हें असुरों के त्रास से छुड़ाया था। ऋषियों का संचित रक्त घट ही सीता को जन्म देने और दानवी विभीषिकाओं को निरस्त करने में आधारभूत कारण बना था। इन पुराण गाथाओं से सृजन शिल्पियों को भी यही प्रेरणा मिलती है कि वे जागरूकों को तलाश करें और उनकी आन्तरिक प्रखरता जगाने के भाव भरे प्रयास करें। इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि के नौ दिन चलने वाले साधना सत्रों से बढ़कर अधिक उपयोगी एवं अधिक सरल व्यवस्था अन्य कदाचित ही कोई बन पड़े। महान सांस्कृतिक परम्पराओं का पुनर्जीवन नव सृजन के अभीष्ट आत्म- ऊर्जा का अभिवर्धन तथा जन जीवन में उत्कृष्टता के समावेश का जैसा स्वर्ण सुयोग इन साधना सत्रों में मिल सकता है। उसकी तुलना का उपाय उपचार कदाचित ही कोई खोजा जा सके। रात्रि के ज्ञान यज्ञ में वह सब कुछ कहा जा सकता है जो प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को जन- मानस में प्रतिष्ठापित करने के लिए आवश्यक है। इस अवसर पर ऐसे संगठित प्रयासों के लिए उपयुक्त वातावरण भी रहता है जिससे साधकों को भी व्रतशील जीवन जीने के अतिरिक्त सृजन प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए तत्पर किया जा सके। 

इन तथ्यों की जानकारी तो प्रज्ञा पुत्रों को पहले से भी रही है और वे नवरात्रि आयोजनों को इसी उद्देश्य को लेकर पूरा करने एवं अधिकाधिक उत्साहवर्धक बनाने का प्रयत्न करते रहे हैं। इस बार उसमें युग सन्धि के बीजारोपण वर्ष के अभिनव उत्तरदायित्व भी जुड़ गये हैं महापुरश्चरण में भागीदार नैष्ठिक साधकों का सुविस्तृत समुदाय इन्हीं दिनों साधना क्षेत्र में नये सङ्कल्प लेकर अग्रसर हुआ है। उसमें से प्रत्येक को न केवल प्रत्येक नवरात्रि की अनुष्ठान साधना स्वयं करनी है वरन् जन सम्पन्न साधनों में अभी से लगना है तथा पुरानों को प्रोत्साहित और नये भावनाशीलों को तथ्यों से परिचित कराने के प्रयास भी करना है। नवरात्रि आयोजन पिछले दिनों की तुलना में अत्यधिक प्रभावी एवं प्रेरणाप्रद बन सके इसके लिए समग्र तत्परता उत्पन्न कर सकने वाली भाव श्रद्धा को उभारने, उछालने की आवश्यकता है |

चामुण्डायै

     धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं एवं इसके अलावा अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ है प्रेम । पुरुषार्थ का क्या तात्पर्य है? पुरुषार्थ का तात्पर्य है कर्म। ये चारों पुरुषार्थ भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सृष्टि को गतिमान बनाने के लिए लक्ष्य के रूप में निर्धारित किए हैं। पुरुष का तात्पर्य है साहचर्य, एक से अनेक और अनेक से अनेक होने की क्रिया ब्रह्माण्ड दो भागों में विभाजित है प्रथम दुर्गा कुल द्वितीय महाविद्या कुल महाविद्या कुल युद्ध से परे है, गति से परे है एवं यहाँ पर परा शक्तियाँ निवास करती हैं। परा शक्तियों का तात्पर्य है चिंतन से भी परे विशुद्ध परमवस्थाएं। दसों महाविद्याएं परा सूक्ष्म है और जब जातक पराब्रह्माण्डीय हो जाता है तो उसे महाविद्याओं में वर्णित महाशक्तियों की उपासना प्राप्त होती है। दसों महाविद्याएं केवल शिव एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी के बीच सम्पन्न हुए लीला विलास एवं परा ब्रह्माण्डीय नर्तन का प्रतीक हैं। 

           इसके विपरीत ब्रह्माण्ड के अन्य उच्छिष्ट तत्वों के साथ जब त्रिपुर सुन्दरी विलास करती हैं या फिर क्रियाशील होती हैं तब दुर्गा कुल की स्थापना होती है। दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवासुर संग्राम स्पष्ट रूप से यह कहता है कि इसमें भगवती कृपा करके देवताओं एवं त्रिदेवों की प्रार्थना पर क्रियाशील हुईं अतः दोनों साधनाओं के भेद को समझना होगा। चूंकि ब्रह्माण्ड को भगवती त्रिपुर सुन्दरी का उच्छिष्ट अंग माना गया है अर्थात उनके द्वारा त्याज्य माना गया है इसलिए ब्रह्माण्ड में शिथिलता, विकारग्रस्तता, अशुद्धता, आधा-अधूरापन विद्यमान है। दुर्गा सप्तशती में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक तत्व क्या कह रहा है? वह पूर्णता मांग रहा है। वह कह रहा है मुझे दो, रूप दो, यश दो, ज्ञान दो, विज्ञान दो, दया दो, क्षमा दो, दया दो, राज्य दो अर्थात दो कुछ न कुछ दो, वह भीख मांग रहा है, वह हाथ फैलाकर मांग रहा है। हमें दो की प्रक्रिया, दो की प्रवृत्ति समझनी होगी।

         जैसे ही हम जन्म लेते हैं मां से दूध मांगते हैं। हमारा जन्म ही मांगने से प्रारम्भ होता है, हम सारी जिंदगी क्या करते हैं? पत्नी से, पति से, मित्र से, संसार से, गुरुओं से, बच्चों से, प्रकृति से सिर्फ दो की ही याचना करते रहते हैं। अपेक्षा, याचना, भिक्षा, प्राप्ति, संतुष्टि इत्यादि इत्यादि । प्रथम श्वास से लेकर अंतिम श्वास तक हम मुझे दो-दो की ही रट लगाये रहते हैं यह हमारे उच्छिष्ट अर्थात त्यागे हुए होने का सबसे बड़ा सबूत है एवं हमें इस प्रवृत्ति को समझना होगा। ब्रह्मा निर्मित इस सृष्टि के प्रत्येक तत्व की यही विडम्बना है कि वह मुझे कुछ दो से ग्रसित है। जितना उसे मिलता जाता है उतना ही उसके अंदर मुझे कुछ और चाहिए की भूख बढ़ती जाती है। उसकी यही भूख कि मुझे कुछ चाहिए उसे गतिमान रखती है परन्तु अंत तक वह यह नहीं समझ पाता कि वास्तव में उसे चाहिए क्या? क्या चाहिए तुम्हें ? बस यही प्रश्न वह अपने आप से स्वयं पूछता रहता है, यही प्रवृत्ति उसे स्व की खोज की तरफ ले जाती है। 

          धन आ गया तो काम खोजता है, काम मिल गया तो धर्म खोजता है, धर्म मिल गया तो प्रेम खोजता है, प्रेम मिल गया तो मोक्ष खोजता है, मोक्ष मिल गया तो कुछ और खोजता है। जिस दिन मुझे कुछ दो, मुझे किसी की खोज है, मुझे कुछ प्राप्त करना है की प्रवृत्ति शांत हो जायेगी वह महाविद्याओं का साधक बन जायेगा परन्तु इससे पूर्व वह दुर्गा कुल का ही साधक रहेगा। अतः भगवती दुर्गा शीघ्र फलदायिनी हैं, शीघ्र क्रियाशील होती हैं, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड मुझे कुछ दो में उलझा हुआ है। जब मुझे कुछ दो के भाव समाप्त हो जाते हैं तब जाकर महाविद्याओं की साधना के लिए जीव तैयार होता है। परा को प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ दो से परे होना पड़ेगा, आँखों में निर्मलता लानी होगी।

         दुर्गा के जो भक्त होते हैं उन्हें वे विपुल मात्रा में प्रदान करती है, उनकी दो की प्रवृत्ति वे संतुष्ट करती हैं यही श्री श्री शक्ति रहस्यम् है। जब तक दो की प्रवृत्ति अंदर से शांत नहीं होगी तब तक जीव सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं करेगा इसलिए श्री दुर्गोपासना धर्म, अर्थ, काम, प्रेम निश्चित तौर पर प्रदान करती हैं। हाँ मोक्ष के दरवाजे तक भी दुर्गा जी ले जाती है परन्तु इसके बाद शक्ति का कुछ दूसरा ही स्वरूप होता है । इसलिए दुर्गा के उपासक आपको सबसे ज्यादा मिलेंगे। मार्कण्डेय रचित श्री दुर्गा सप्तशती शक्ति विलास का अद्भुत ग्रंथ है, मैंने अपने जीवन में अनेकों ग्रंथ पढ़े परन्तु इतना तांत्रोक्त ग्रंथ कोई भी नहीं है। इसमें परम गूढ़ रहस्य हैं, दुर्गा सप्तशती लगभग 700 स्तोत्रों का ग्रंथ है और मुख्य रूप से यह 4 पुरुषार्थों में से अर्थ प्रदान करने वाला ग्रंथ है, 


वात्सायन लिखित कामसूत्र में भी 700 श्लोक हैं यह ग्रंथ कामरूपी पुरुषार्थ पर आधारित है, गीता में 700 श्लोक है यह ग्रंथ धर्म रूपी पुरुषार्थ का मुख्य ग्रंथ है, शिव पुराण भी 700 पन्नो का है यह मोक्ष रूपी पुरुषार्थ का प्रमुख ग्रंथ है, श्रीमद भागवत में लगभग 700 श्लोकों में कृष्ण की रासलीला वर्णित है यह प्रेम रूपी अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ का प्रेरक है। अंत में मैं कहूंगा लगभग 70 श्लोकों की सौन्दर्य लहरी भगवान शंकराचार्य जी ने मूल रूप से लिखी है जिसमें कि श्री त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति की गई है। यह जातक को श्रीविद्या के मार्ग पर ले जाती है।

           जब भगवान शंकराचार्य समस्त वाद-विवाद, युद्ध, ज्ञान विज्ञान, धर्म-अधर्म इत्यादि भगवती दुर्गा के गतिमान बनाये रखने के प्रपंचों को समझ गये और निर्वाण षट्कम तक आ गये। षट्कम का तात्पर्य 6 चक्रों को भेद गये तब सौन्दर्य लहरी प्रस्फुटित हुई और वे परम बिन्दु तक पहुँच गये, श्रीयुक्त हो गये। युद्ध से परे होना आसान नहीं है, युद्ध का तात्पर्य केवल भौतिक युद्ध से मैं नहीं कह रहा अपितु इसमें आंतरिक, वैचारिक, मानसिक तलों के भी युद्ध आते हैं। युद्ध का तात्पर्य है द्वंद। कहीं न कहीं द्वंद का होना अर्थात शक्तियों का आपस में टकराना, शक्ति संचय की प्रवृत्ति, शक्ति के प्रयोग की प्रवृत्ति । मारण, मोहन, सम्मोहन, स्तम्भन, विद्ववेषण, उच्चाटन इत्यादि शाक्तोपासक ही करते हैं वे शक्ति का उपयोग करते हैं। शक्ति अर्जित करना, शक्ति का उपयोग करना, शक्ति को नियंत्रित करना, शक्ति के बल पर इतराना, शक्ति का अनुसंधान करना ही जीव का कार्य है।

         यह कार्य कोई नेता बनकर करता है, कोई अभिनेता, कोई वैज्ञानिक, कोई दार्शनिक, कोई चिंतक, कोई साधक, कोई व्यापारी इत्यादि इत्यादि बनकर करता है। कुछ बनना, कुछ बिगाड़ना, कुछ खोजना, कुछ अविष्कृत करना, ध्यान करना, जप करना, तप करना, वरदान मांगना, आशीर्वाद मांगना इत्यादि इत्यादि शाक्तोपासना का विषय है अतः प्रथम श्वास से अंतिम श्वास तक किसी न किसी माध्यम से शाक्तोपासना तो हो ही जाती है। इस स्थूल, सूक्ष्म, दैवीय, अधिदैवीय, भौतिक, अधिभौतिक शाक्तोपासना में दुर्गा ही क्रियाशील होती हैं परन्तु इसके ऊपर भी कुछ है, इसके परे भी कुछ है। वह क्या है? वहाँ तक कैसे पहुँचा जाये? इसका विषय भगवती दुर्गा के पास आरक्षित है। 

        ऊपर वर्णित सभी स्थितियाँ को भय हैं, कोश ही दुर्ग कहलाता है। हम कोश में रहने के आदी हो गये हैं, कोश में रहने की प्रवृत्ति ही शरीर का निर्माण करती है। हमारा शरीर नाना प्रकार के कोशो से बना हुआ है, प्रत्येक कोश एक दुर्ग है और दुर्ग की रक्षिका दुर्गा हैं। पृथ्वी भी एक कोश हैं, नौ ग्रह भी कोश हैं, वन भी कोश है, जल भी है अर्थात चारों तरफ कोशमयता है अतः कोशिका रूपी जीवन ही हमारी पहचान है। अब कब तक किस कोश में किसको रहना है भगवती दुर्गा ही जाने। वे कब किसे किस कोश से निकाल दें, किस कोश में फेंक दें, किस कोश के अधीन कर दें यह उनका विषय है। लोक भी कोश हैं अर्थात दुर्ग है। देवासुर संग्राम में उन्होंने स्पष्ट कहा हे असुरों स्वर्ग लोक छोड़ों और पाताल लोक रूपी कोश में चले जाओ वे नहीं गये तो उन्होंने उन्हें उठाकर फेंक दिया एवं देवताओं को पुनः देव कोश में प्रतिष्ठित कर दिया। 

            द्वैत और अद्वैत को समझिये द्वैत का तात्पर्य है कोशमय। द्वैतमयी देवता भी शिथिल पड़ते हैं, रुद्र भी वृद्ध होते हैं, विष्णु एवं ब्रह्मा भी वृद्ध होते हैं अर्थात सभी वृद्ध हो गये इसलिए प्रलय को प्राप्त होते हैं। जैसे ही दुर्गा प्रस्थान करती हैं वृद्धता आ जाती है क्षयता आ जाती है, अतः वृद्धता एवं क्षयता को रोकने के लिए दुर्गा उपासना अत्यधिक आवश्यक है। अगर भगवती दुर्गा चाहें तो जातक को ऊपर वर्णित स्थितियों से मुक्त करके दसों महाविद्या में से किसी एक के द्वार खोलकर उसे वहाँ तक पहुँचा सकती हैं। किसे पहुँचायेंगी, क्यों पहुँचायेंगी, यह उनकी कृपा पर निर्भर करता है। पीताम्बरा शक्तिपीठ के महाराज जी शुरु शुरु में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे, प्रचण्ड दुर्गोपासक थे बाद में जाकर वे माँ बगलामुखी के उपासक हुए श्रीविद्या की तरफ अग्रसर हुए, भगवती दुर्गा ने पराद्वार खोल दिए।

            मार्कण्डेय मुनि ने नासिक के पास सप्तश्रृंगी की पहाड़ी पर बैठकर श्री दुर्गा सप्तशती की रचना की उनका जीवन भी बड़ा विचित्र है। उनकी आयु मात्र 16 वर्ष की थी यमराज उन्हें लेने आये तब शिव ने त्रिशूल से मारकर यमराज को भगा दिया और उन्हें कल्पांत जीवी बना दिया अर्थात एक कल्प के पश्चात् भी वे शरीर रूपी कोश में विद्यमान रहेंगे। धर्म, अर्थ, काम, प्रेम सब कुछ मार्कण्डेय मुनि ने अपने कल्पांत रूपी जीवन में भोग लिया। सृष्टि में भी शक्ति विलास को अपनी सभी बाह्य एवं आंतरिक इन्द्रिय से अनुभव कर लिया।

घोर जल प्रलय हो रहा था मार्कण्डेय मुनि जल में खड़े थर-थर कांप रहे थे, वे दुर्गा के परम गोपनीय प्रलय चण्डा के स्वरूप का भी अनुभव कर रहे थे। भगवान शरभ के एक पंख में दुर्गा विराजमान हैं तो दूसरे पंख में भद्रकाली भद्रकाली प्रलय की देवी हैं अतः आज उन्हें शरभेश्वर के दोनों पंखों के दर्शन हो गये। तभी वे देखते हैं कि एक वटवृक्ष के पत्ते पर बाल मुकुन्दम अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए शांति के साथ विराजमान हैं। हाँ विष्णु ही बाल मुकुन्दम हैं, विष्णु ही श्री पाण्डुनाथ भैरव हैं। उनका लघु कोशमय शरीर प्रलयकाल में भी भगवती दुर्गा सुरक्षित रखती है।

            मार्कण्डेय मुनि ने वह सब कुछ देख लिया जो कि सबके लिए सर्वथा दुर्लभ था तभी जाकर वे दुर्गा सप्तशती की रचना कर पाये, शक्ति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कर पाये। शक्ति की विहंगमता क्या है ? शक्ति शक्ति का भक्षण कर जाती है, शक्ति शक्ति में घुल मिल जाती है, शक्ति शक्ति का सृजन कर देती है, शक्ति असंख्य रूपों में विभक्त हो जाती है, शक्ति के असंख्य रूप पुनः एक जुट हो जाते हैं। शक्ति सौम्य भी हो जाती है, इतनी सौम्य कि ऐसा लगता है मानो इससे सौम्य तो कुछ और है ही नहीं परन्तु दूसरे ही क्षण शक्ति उग्र भी हो जाती है, इतनी उग्र कि वह रुद्रचण्डी बन जाती है। शक्ति हँसती है, शक्ति खिलखिलाती है, शक्ति चिल्लाती है, शक्ति क्रोधित होती है, शक्ति मारने दौड़ती है, शक्ति दुलारती है, शक्ति रोती है, शक्ति पगला जाती है, शक्ति बुद्धिमान बन जाती है इत्यादि इत्यादि । यही सब कुछ तो दुर्गा सप्तशती में वर्णित है। शक्ति की अधीनता जीव को स्वीकार करनी ही पड़ती है। 

        शक्ति सुलाती है और शक्ति उठा देती है यही है रात्रि रहस्यम् । शक्ति नाना रूप धरती है, शक्ति कुछ भी बन सकती है दो हाथ, चार हाथ, दो सिर, तीन सिर, एक आँख, तीन आँख, उड़ सकती है, रेंग सकती है, तैर सकती है, जला सकती है फिर भी सबसे परे रहती है। शक्ति के प्रपंच शक्ति ही जाने। सुर भी उसी में से निकलते हैं, सब जगह शक्ति मौजूद है। कितनी विहंगम है शक्ति दो अणुओं के बीच वह कितनी सौम्य लगती है परन्तु दो न दिखने वाले अणुओं के बीच से जब शक्ति विसर्जित होती है तो वह अणु बम बन जाती है। किसके मस्तिष्क में कौन सी शक्ति जागृत हो उठे माँ भगवती ही जाने। मैं किताब पढ़ रहा था श्री गुप्तावतार बाबा की वे प्रचण्ड दुर्गोपासक थे एवं उन्होंने सन 1904 में कुछ तांत्रोक्त संकल्प लिए। उनके संकल्प इस प्रकार के थे ब्रिटिशस्य पलायनम् कुरु, स्वराज्य प्राप्तार्थ श्री चण्डिका अनुष्ठानम्, राष्ट्र एकाकार्थे त्रिशक्ति चामुण्डा अनुष्ठानम् इत्यादि इत्यादि और यही सब हुआ। अचानक चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस इत्यादि आ गये, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा भारत वर्ष एक हो गया, स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई।

           परन्तु उनसे एक गलती हो गई, उनके एक अनुष्ठान का संकल्प था मलेच्छ शक्ति पलायनम् कुरु और भारत का विभाजन हो गया। यह प्रमाण सहित मंत्रमयी दुर्गा सप्तशती जो कि उनके द्वारा 1903 में लिखी गई थी में वर्णित है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि अनुष्ठानों के परिणाम शत प्रतिशत आते हैं। चाहे 1903 में करो या 2021 में शक्ति अनुष्ठानों के माध्यम से क्रियाशील होती ही है। उद्देश्य कुछ भी हो, समय सीमा का कोई महत्व नहीं है। समय तो कम ज्यादा होता ही रहता है। शंकराचार्य जी ने भी श्रीविद्या अनुष्ठान किए उसके परिणाम आज देखने को मिलते हैं। शक्ति केवल तात्कालिक विषय नहीं है, इसके अति दूरगामी परिणाम होते हैं। शाक्तोपासना चलती ही रहती है आपको आना चाहिए। 

       गुरु गोविन्द सिंह जी का उदय, क्षत्रपति शिवाजी का उदय, महाराणा प्रताप का उदय, भगत सिंह का उदय, नेता जी सुभाषचंद बोस का उदय इत्यादि शाक्तोपासना के द्वारा ही सम्पन्न हुआ। शक्ति गर्भ धारण करती ही है, शक्ति पुत्र उत्पन्न करती ही है। सम्भोग करना आना चाहिए यही पुरुषार्थ है। पुरुष को बीज रोपित करना आना ही चाहिए शक्ति तो गर्भिणी होगी ही। अनुष्ठान अपने आप में पुरुषार्थ है। हां नपुंसक, हिजड़े भी होते हैं उनमें पुरुषार्थ नहीं होता अतः वे बस आलोचना करते हैं, वे बीज विहीन होते हैं। बीज विहीन ही नास्तिक होते हैं। नास्तिक कुछ नहीं कुछ नहीं की मानसिकता से ग्रसित होते हैं। पुरुषार्थ शक्ति के साथ प्रणय करने का विधान है। कुछ नवीन, कुछ अद्भुत रचने का प्रयोग है।