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कालिका रहस्यम् ।।

          त्रिनेत्रधारी की पत्नी भी त्रिनेत्री ही होंगी। रुद्ध की पत्नी भी रौद्री ही होंगी। महाकाल की पत्नी भी महाकाली ही होंगी। और काल की अर्धांगिनी भी काली ही होंगी। रुद्र जब शांत भाव में लीन होते हैं तब उनकी अर्धागिनी आदि शक्ति मां भगवती पार्वती कहलाती हैं एवं पार्वती का स्वरूप भी उतना ही शांत, निर्मल और सरल होता है परंतु जब शिव रौद्र रूप धारण करते हैं तो पार्वती भी समयानुसार काली स्वरूप में प्रकट होती हैं । अर्धनारीश्वर स्वरूप का चिंतन भी यही है । अर्धनारीश्वर स्वरूप वह विलक्षण स्वरूप है, वह अभेदात्मक स्थिति है जहां पर शिव शक्ति, शिव पार्वती और महाकाली महाकाल एक ही हैं। मां भगवती जब काली स्वरूप में दुष्टों का संहार करती हैं और फिर एक बार शंकर के समान प्रलयकारी हो जाती हैं तब शिव ही उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं अन्यथा समस्त योनियां ही सदा के लिये समाप्त हो जायें। ठीक इसी प्रकार जब भगवान शिव पार्वती के सती हो जाने की स्थिति में प्रलयकारी हो जाते हैं तो फिर माँ भगवती पुनः अवतरित हो उन्हें शांत करती हैं। काली पूजन, शिव पूजन साधक की दृष्टि में अभेदात्मक है। जिसे शिव से प्रेम होगा वह स्वत: ही शिवत्व अर्थात कालशक्ति के प्रेमपाश में बंधा हुआ होगा ।

                    शिव भी परिवर्तनकारी हैं और महाकाली भी । महाकाली भी चर्मोत्कर्ष की द्योतक हैं तो शिव भी चर्मोत्कर्ष तक संहारक है। चाहे साधक हो, ऋषि हो या फिर गृहस्थ जीवन में आदि शक्तियों से साक्षात्कार तो निश्चित है। आदि शक्तियां शाश्वत है, निरंतर सर्वसुलभ एवं गतिमान हैं। यह बात अलग है कि शक्ति का स्वरूप क्या होगा । दृष्टि में दोष तो नहीं है, या फिर अर्न्तवच विकसित ही नहीं है परंतु सर्वभौमिकता से किसी भी जीव की मुक्ति नहीं है। साधक का तात्पर्य ही मस्तिष्क, ज्ञान, बुद्धि और चेतना को उस आयाम में स्थापित करना जहां वह आकृति से परे हट शक्ति के वास्तविक स्वरूप को समग्रता के साथ ग्रहण कर सके, उससे तारतम्य स्थापित कर सकें और सत्य से परिचित हो सकें। पंचभूतों का यह शरीर परमचेतना के द्वारा नियंत्रित हैं। मनुष्य के अंदर बैठी यह चेतना सार्वभौमिक चेतना का मात्र अंश ही है। सार्वभौमिक चेतना, सार्वभौमिक परमसत्ता का ही प्रतीक है एवं इससे सम्पर्क, साक्षात्कार चेतना के माध्यम से ही सम्भव है। दृष्टि, बुद्धि और ज्ञान इसके स्वरूपों, आकृति और वर्णन को ही प्रकट कर सकते हैं। स्वरूप, ज्ञान, आकृति भूतकाल को इंगित करते हैं। वर्तमान तो चेतना क्षेत्र की ही बात है।

            महाशक्ति के वर्तमान स्वरूप से साक्षात्कार प्रज्ञापुरुष या प्रकृति पुरुष के ही बस की बात है। वे निरंतर प्रतिक्षण शक्ति के स्वरूप से संस्पर्शित होते रहते हैं। शक्ति केवल एक तत्व विशेष तक ही सीमित नहीं है। महाकाली स्वरूपी शक्ति से तो समुद्र, आकाश, वायु, जल, कण एवं समस्त ब्रह्माण्ड संस्पर्शित होता रहता है। प्रचण्डता प्राप्त करता रहता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जयिनी स्थित महाकाल के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति आधे पाप से मुक्त हो जाता है तो वहीं काशी में विश्वनाथधाम में मृत्यु पाकर व्यक्ति प्राप्त- पुण्यों के चक्रव्यूह से निकलकर मुक्ति प्राप्त करता है और जन्मों की अनंत श्रृंखला से मुक्त हो सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त करता है वहीं महाकाली समस्त असुरों को शरीर से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करती हैं। काली का स्वरूप ही मोक्ष प्रदायी है। असुर क्या है ? हम जो आकृति चित्रों में देखते हैं वह तो बस असुरों के शरीर की छाया है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म योनियों एवं आवृत्तियों में भी पायी जाती से हैं। समस्त ब्रह्माण्ड आसुरी शक्तियों से भरा हुआ है। ये नकारात्मक शक्तियाँ तो बस केवल शरीर रूपी माध्यम ढूंढती हैं। शरीर के अलावा अन्य माध्यमों पर भी नियंत्रण कर हाहाकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी तो जिस माध्यम या शरीर को वे धारण करती हैं वह शरीर स्वयं भी मुक्ति के लिये छटपटाता रहता है। 

          माध्यम को यह भी मालुम रहता कि आसुरी शक्तियों के नियंत्रण में वह अनर्थकारी कर्म सम्पादित कर रहा है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ इतनी ज्यादा नियंत्रण शील होती हैं कि माध्यम बेबस होता है। रावण की आसुरी सेना में रावण के साथ-साथ सभी असुरों को यह मालुम था कि वे जो कुछ कर रहे हैं ठीक नहीं है। युद्ध में उनकी पराजय निश्चित है परन्तु फिर भी जिस शरीर के माध्यम से उन्होने आसुरी कर्मों को सम्पूर्ण जीवन सम्पादित किया था वह इतनी जल्दी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। आसुरी शक्तियाँ स्वयं के मायाजाल में जीती हैं और मायावी भी हो हैं। सत्य से उनका कोई लेना देना नहीं होता। आसुरी शक्तियों की मुक्ति तभी सम्भव है जब वे माध्यम से विमुख कर दी जायें . 

परन्तु माध्यम और आसुरी शक्तियों का समायोजन इतना प्रचण्ड होता है कि उन्हें एक-दूसरे से विमुख करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आसुरी शक्तियों का एकमात्र लक्ष्य येन केन प्रकरेण शीघ्र अतिशीघ्र समग्रता के साथ सभी व्यवस्थाओं को अपने नियंत्रण में ले लेना होता है । आसुरी शक्तियाँ अत्यधिक चतुर और उच्च कोटि की बुद्धिमानी से युक्त होती है। इनमें स्वरूप बदलने की और माध्यम और व्यवस्था के हिसाब से परिवर्तित होने की अति विलक्षण प्रणाली या सिद्धि होती है।आसुरी शक्तियाँ भोगवादी संस्कृति में ही फलती फूलती हैं। आसुरी शक्तियों का एकमात्र उद्देश्य भक्षण, भोग और शोषण होता है। जिस माध्यम में वे एक बार स्थापित हो गई उसे तब तक नहीं छोड़ती हैं जब तक वह पूरी तरह निस्तेज न हो जाये। ऐसी शक्तियों का नाश महाकाली ही करती हैं। 

         जिस प्रकार आसुरी शक्तियाँ माध्यम के प्रति निष्ठुर होती हैं उसी प्रकार महाकाली के विभिन्न स्वरूप आसुरी शक्ति के प्रति निष्ठुर होती हैं तभी आसुरी शक्तियों का सम्पूर्ण विनाश सम्भव हो सकता है। महाकाली भी असुरों के शीष को उतनी ही निष्ठुरता से धड़ से अलग कर देती हैं और तो और उन अपवित्र रक्त को स्वयं पान कर सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिये सब कुछ अपने उपर ले लेती हैं तभी तो उनकी परमेश्वरी मातृ शक्ति के रूप में उपासना की जाती है। भगवान शिव सृष्टि की रक्षा के लिये समस्त विषों का पान कर नील कण्ठेश्वर बने हुये हैं। इन दोनों आदि शक्तियों की दिव्य युति ही इस सृष्टि को विराजमान रखे हुये है। आसुरी शक्तियाँ सर्वप्रथम ब्रह्मा द्वारा निर्मित समस्त योनियों को त्रस्त करती हैं फिर प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन करने लगती हैं। उनके हस्तक्षेप से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। तत्पश्चात् देव पुरुषों एवं ऋषि-मुनियों की बारी आती है फिर वे देवलोक को भी नहीं छोड़ती । देवलोक के बाद फिर बचती है आदि शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जब असुर इन दिव्य लोकों पर भी विध्वंश मचाने की कोशिश करते हैं तब महाकाली के स्वरूप का प्राकट्य होता है और प्रचण्डता, विकरालता और अद्भुत तेज के साथ समस्त असुरगण महाकाली के हाथ मृत्यु प्राप्त कर दुष्कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। यही सृष्टि का परा नियम है। 

        असुरों का निर्माण होता कैसे है ? सीधी सी बात है असुर भी इतने शक्तिशाली शिव के सानिध्य में ही होते हैं। सभी आसुरी शक्तियाँ शिव अर्थात परमतत्व की कम से कम प्रारम्भिक स्थिति में तो अति मे भक्ति करती हैं। वे अपनी घोर तपस्या के कारण भगवान शिव को प्रसन्न कर लेती हैं और फिर वरदान स्वरूप उन्हीं के तेज से महिमा मण्डित हो प्रपंचकारी युग की शुरुआत करती हैं। ब्रह्मा जिन जीवों की रचना करते हैं वे आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण नहीं होते हैं परन्तु कालान्तर में भोग प्रवृत्तियों के चलते जीव अपना वास्तविक स्वरूप खोकर नकारात्मक शक्तियों के लिये आकर्षण केन्द्र बन जाते हैं। भोग प्रवृत्तियाँ सभी व्यवस्थाओं और चक्रों में देव कवचों को क्षीण कर देती हैं । इन कवचों की क्षीणता के पश्चात् ही आसुरी शक्तियाँ माध्यम के सूक्ष्म धरातल तक पहुँचने में सफल हो जाती हैं।

           प्रत्येक वैदिक पूजन, रुद्र पूजन, योग प्रणाली इन सभी का मूल उद्देश्य काली साधना ही है। उस परम सुरक्षा चक्र की साधना जो कि मातृ स्वरूप में साधक को रोग, शोक और वियोग से सदैव रक्षित करता है। साधक जीवन पर्यन्त एक प्रकार से महाकाली साधना ही करता है ये बात और है कि अज्ञानवश वह इसके विभिन्न स्वरूपों को नहीं समझ पाता । बुद्धि में स्थित कुतर्क की दुष्ट आवृत्तियाँ, शरीर के विभिन्न अंगों में विद्यमान रोग, मस्तिष्क के अंदर सुप्त अवस्था में बैठी व्यभिचारी ग्रंथियाँ यह सभी कुछ आसुरी शक्ति का ही प्रतीक है। जब तक साधक निर्मूलता के साथ इन आसुरी केन्द्रों को नष्ट नहीं करेगा वह मोक्ष या सत्य की प्राप्ति कदापि नहीं कर सकता। सत्य और साधक के बीच मायावी आवरण ही असुर शक्ति है और इस आवरण का विनाश महाकाली साधना के विभिन्न स्वरूपों के द्वारा ही सम्भव है। उन गृहस्थों या साधकों की बुद्धि या सोच तरस योग्य है जो कि महाकाली को हमेशा भय प्रकट करने वाले स्वरूप में देखते हैं। 

          इस ब्रह्माण्ड में विशुद्ध प्रेम का प्रतीक अगर कोई दिव्य मातृ शक्ति है तो वह है महाकाली । हाँ निश्चित ही नकारात्मक तत्वों और दुष्टों के लिये वह भय का प्रतीक है। उनकी संहारक है वह, परन्तु मनुष्य, देव और आदि शक्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लिये तो वे अत्यन्त ही प्रेम मयी हैं। उनका प्रेम तो इतना निश्छल है कि वे इनकी रक्षा के लिये असुरों के अपवित्र रक्त का पान भी कर लेती हैं जिससे कि वे पुनः प्रकट न हो सकें। इस तरह का महाकर्म तो केवल महाकाली के ही बस की बात है। 

वे परा हैं, बुद्धि से और ज्ञान से परे वे उस उन्मुक्त व्यवस्था का प्रतीक है जो कि एक बार अगर क्रियाशील हो जाये तो फिर कार्य सिद्धि के पश्चात् भी शांत होने के लिये शिव को ही चरणों में लेटना पड़ता है। असुर अगर मायावी शक्ति पर घमण्ड करते हैं तो फिर महाकाली अपने अनावृत्त स्वरूप के द्वारा यह दिखला देती हैं कि असत्य का महाभ्रम अनावृत्त शाश्वत् सत्य के सामने क्षण भर भी नहीं टिक सकता है। उनके गले में असुर मुण्डों की माला एवं कटि पर बंधी हाथों की माला यही दर्शाती है कि अनावृत्त सत्य द्वारा असत्य रूपी मायाजाल को खण्ड-खण्ड किस प्रकार से किया जाता है।

            गीता के समस्त उपदेश भगवान कृष्ण द्वारा की गई महाकाली साधना का ही प्रतीक हैं। अर्जुन की बुद्धि और भावनाओं में बैठी कायरता ने उसे युद्ध के मैदान में अवसाद से ग्रसित कर दिया था एक क्षत्रिय जिसका कर्म ही युद्ध करना हो वही अगर युद्ध के मैदान में कुण्ठित हो जाये तो फिर उसकी गति निश्चित ही अधोगामी होगी यही बात समझाने के लिये कृष्ण ने उसकी समस्त जिज्ञासाओं और आशंकाओं को महाकाली रूपी शक्ति से सदा के लिये शांत किया तब कहीं जाकर वह समग्रता के साथ युद्ध में रत हुआ। कृष्ण के समस्त गीता उपदेशों का सार ही मनुष्यों को मोह, लोभ, माया, विषाद, तर्क, ज्ञान और बुद्धि से मुक्त करा परम गति को प्राप्त कराना है। वे काल पुरुष हैं, काल के अनुसार ही काली साधना करा मनुष्यों के कर्मों को सम्पन्न करवाते हैं और जिस प्रकार महाकाली ने असुरों का विनाश कर सृष्टि को पुनस्थापित किया उसी प्रकार उनके उपदेश भी मनुष्यों को धर्म की संस्थापना के लिए पुन: प्रेरित करते हैं। जब साधक गुरु स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है तब वह भी महाकाली की परम शक्ति से अनुयायियों के वंश वृक्ष में बैठे पाप को, दोषों को, दरिद्रता को नष्ट करते हुये उन्हें अवरोध विहीन माध्यम बनाकर उनमें देवी शक्तियों की स्थापना करता है।

        महाकाली के सभी शस्त्र तेज व धारयुक्त हैं। धार ही शस्त्र हैं अन्यथा तो फिर वह धातु विशेष या फिर तत्व विशेष का कुंद टुकड़ा है। जीवन में दिव्य फल तत्व प्राप्ति महाकाली के बिना सम्भव ही नहीं हैं। बुद्धि के द्वारा सम्पादित किये गये कर्म अधिकांशतः क्षयकारी फल ही प्रदान करते हैं परन्तु निष्काम भाव से सम्पादित किये गये कर्म इतना फल प्रदान करते हैं कि जिसकी आपने कल्पना ही नहीं की है। महाकाली की शक्ति बुद्धि के द्वारा नहीं नापी जा सकती । न ही उनकी उपासना बुद्धि के द्वारा सम्भव है। वे ही अक्षय फलों को प्रदान करने वाली हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस महाकाली के अनन्य उपासक हुये हैं। उनका प्रत्येक दिन काली उपासना एवं उनके मूर्ति स्वरूप के श्रृंगार और देखभाल में ही बीत जाता था। उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे ग्रंथ लिख सकें, प्रवचन दे सकें या फिर अन्य किसी सामाजिक कार्य को सम्पन्न कर सकें। वे तो बस काली आराधना में ही लीन रहते थे। उनके परमहंसी स्वरूप से यह समस्त जग जो कि पंचेन्द्रिय व्यवस्थाओं में डूबा रहता है अपरिचित ही रह जाता अगर विवेकानंद जैसा धारदार व्यक्तित्व उन्हें नहीं मिलता। यही महाकाली का अक्षय फल है जिसने कि समस्त विश्व में परमहंस को विवेकानंद के द्वारा स्थापित करा दिया। बुद्धि से आप देखेगे तो विवेकानंद और रामकृष्ण ही नजर आयेंगे परन्तु हृदय से देखेंगे तो महाकाली ही नजर आयेंगी। कहीं भी अभेदात्मक स्थिति निर्मित नहीं होगी। 

            जितने भी अवतारी महापुरुष, ऋषि-मुनि हुये हैं उनके मूल में महाकाली साधना ही विराजमान हैं। उसी की शक्ति ने इन्हें अर्ध्वगामी बनाया, समस्त अवरोधों को जिन्हें कि हटानें में अनेको जन्म लग जाते हैं मात्र कुछ ही वर्षों में समाप्त कर ईष्ट से साक्षात्कार करवाया। मृत्यु तो आपको प्रदान करनी ही पड़ेगी और वह भी निर्ममता के साथ अपनी कमजोरियों को, अपने दोषों को, अपनी नकारात्मक सोच को तभी आप ऊर्ध्वगामी हो सकेंगे, तभी आप व्यर्थ के बोझों को उतारकर फेंक सकेंगे और वह मृत्यु प्रदान करेगी महाकाली साधना । वे श्मशान वासिनी हैं श्मशान अर्थात वह दिव्य स्थान जहाँ शाश्वत् सत्य मात्र का ही वाश है। माया, मनुष्यों द्वारा निर्मित बेतुके नियम, व्यर्थ की उपाधियाँ, तथाकथित ज्ञान सब कुछ शून्य है। 

कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है। अहंकार और बोझ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन पर आप अहंकार करते हैं वे ही बोझवत आपको आसुरी गति प्रदान करते हैं। अहंकार असुरों का श्रृंगार है वे इसी से सुशोभित होते हैं। इसी अहंकार से मुक्त होने के लिये असुर स्वयं भी लालायित रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि आंतरिक दृष्टि से आसुरी शक्तियाँ इतनी कमजोर होती हैं कि वे जानते हुये भी बोझों से मुक्त नहीं हो पाती और अंत में थक हारकर वे नाना प्रकार के प्रयत्नों से महाकाली के चरणों तक पहुँच उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त करती हैं। अनंतकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है और ऐसा ही होता रहेगा। आसुरी शक्तियों का अंतिम लक्ष्य महाकाली के द्वारा मुक्ति पाना ही है। समस्त चिकित्सा जगत का एकमात्र लक्ष्य महाकाली रूपी शक्ति को समग्रता से प्राप्त करना है। औषधियाँ काली का ही अंश हैं वे उन्हीं की पराशक्ति से शक्तिकृत होती हैं तभी वे शरीर रूपी व्यवस्था में प्रवेश कर रोग रूपी आसुरी शक्तियों का विनाश करने में सक्षम हो पाती हैं। रोगों का क्या है ? वे रक्त में भी पहुँच जाते हैं, मस्तिष्क की एक-एक कोशिका तक पहुँच नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। सारे मानस को प्रदूषित कर देते हैं परन्तु इन सबसे भी विकट स्थिति होती है आध्यात्मिक रोगों की। अनेकों तथाकथित अध्यात्मिक साधु-संत, मठाधीश इन्हीं रोगों से ग्रसित हो सिद्धियाँ खो बैठते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं, भोग एवं लोलुपता उनमें इतनी बढ़ जाती है कि वे साधारण गृहस्थ से भी ज्यादा कामान्ध हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि काली साधना उनके बस की बात नहीं रह जाती है। काली साधना प्रतिक्षण की क्रिया है। प्रतिक्षण त्याग की क्रिया । प्रतिक्षण मृत्यु प्रदान करने की क्रिया, प्रतिक्षण मोह से मुक्त होने की क्रिया, समस्त प्रकार के मोह से मुक्त होने की क्रिया । 

         यही क्रियाऐं साधक को विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व में परिवर्तित करती हैं। विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व का तात्पर्य उस प्रकृति पुरुष से है जो कि योनि बंधनों, तत्व बंधनों, ज्ञान बंधनों एवं समस्त गृह बंधनों से मुक्त हो। उसे प्रेम करने के लिए मुख से बोलने या गाने की जरूरत नहीं होती है उसका प्रेम पंचेन्द्रियों द्वारा प्रकट होने की परिधि में नहीं आता है। ठीक उसी प्रकार जिस -प्रकार महाकाली स्वरूप में माँ पार्वती अपना समस्त सौन्दर्य, श्रृंगार, आभूषण और सम्मोहन त्याग कर अपने भक्तों के लिए वह रूप भी धारण कर लेती हैं जिसे देखकर असुर भी कांप उठते हैं। ब्रह्माण्डीय प्रेम रूप, रंग, श्रृंगार इत्यादि जैसी क्षण भंगुर स्थितियों का दास नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने विशुद्धतम प्रेम किया। उनके विशुद्धतम् प्रेम का प्रतीक थी राधा। उम्र में उनसे बड़ी, रंग रूप में भी अत्यंत साधारण, पारिवारिक दृष्टि से भी सामान्य परन्तु प्रेम की दृष्टि से दिव्यतम, सब कुछ कृष्ण पर न्यौछावर कर देनी वाली। कृष्ण की राह देखते-देखते अंतिम श्वास ली । कृष्ण उनसे कभी दूर थे ही नहीं। शरीर दूर हो सकता है परन्तु प्रेम मे दूरी जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं । शरीर भोग का प्रतीक है परन्तु प्रेम भोग का प्रतीक नहीं है। राधा और कृष्ण एक ही आवृत्ति हैं दिव्यतम प्रेम आवृत्ति । जिस प्रकार शिव शक्ति । शरीर तो आते जाते रहते हैं। शरीर कालजयी नहीं है। आप महाकाली की गीता के रूप में उपासना करें, रोगों के नाश के लिए औषधि स्वरूप में अनुसंधान करें, साधक के रूप में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें, मोक्ष के लिए कर्म श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करें, ले देकर करनी आपको महाकाली साधना ही पड़ेगी।
                                 
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

देवरहा बाबा (19 जून पुण्यतिथि) ।।

देवरहा बाबा भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे...

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय- समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। 

पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

देवरहा बाबा का जन्म अज्ञात है। यहाँ तक कि उनकी सही उम्र का आकलन भी नहीं है। वह यूपी के नाथ नदौली ग्राम, लार रोड, देवरिया जिले के रहने वाले थे।

मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। कहा जाता है कि वह करीब 900 साल तक जिन्दा थे। बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं। कुंभ कैंपस में संगम तट पर धूनी रमाए बाबा की करीब 10 सालों तक सेवा करने वाले मार्कण्डेय महराज के मुताबिक, पूरे जीवन निर्वस्त्र रहने वाले बाबा धरती से 12 फुट उंचे लकड़ी से बने बॉक्स में रहते थे। वह नीचे केवल सुबह के समय स्नान करने के लिए आते थे। इनके भक्त पूरी दुनिया में फैले हैं। राजनेता, फिल्मी सितारे और बड़े-बड़े अधिकारी उनके शरण में रहते थे।

हिमालय में अनेक वर्षों तक अज्ञात रूप में रहकर उन्होंने साधना की। वहां से वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया नामक स्थान पर पहुंचे। वहां वर्षों निवास करने के कारण उनका नाम देवरहा बाबा पड़ा। देवरहा बाबा ने देवरिया जनपद के सलेमपुर तहसील में मइल (एक छोटा शहर) से लगभग एक कोस की दूरी पर सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल दिया और धर्म-कर्म करने लगे।

देवरहा बाबा परंम् रामभक्त थे, देवरहा बाबा के मुख में सदा राम नाम का वास था, वो भक्तो को राम मंत्र की दीक्षा दिया करते थे। वो सदा सरयू के किनारे रहा करते थे।

उनका कहना था "एक लकड़ी ह्रदय को
मानो दूसर राम नाम पहिचानो
राम नाम नित उर पे मारो
ब्रह्म दिखे संशय न जानो"

देवरहा बाबा जनसेवा तथा गोसेवा को सर्वोपरि-धर्म मानते थे तथा प्रत्येक दर्शनार्थी को लोगों की सेवा, गोमाता की रक्षा करने तथा भगवान की भक्ति में रत रहने की प्रेरणा देते थे। देवरहा बाबा श्री राम और श्री कृष्ण को एक मानते थे और भक्तो को कष्ट से मुक्ति के लिए कृष्ण मंत्र भी देते थे।

"ऊं कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने
प्रणत: क्लेश नाशाय, गोविन्दाय नमो-नम:"

बाबा कहते थे जीवन को पवित्र बनाए बिना, ईमानदारी, सात्विकता-सरसता के बिना भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती। अत: सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध-पवित्र बनाने का संकल्प लो वे प्राय: गंगा या यमुना तट पर बनी घास-फूस की मचान पर रहकर साधना किया करते थे। दर्शनार्थ आने वाले भक्तजनों को वे सद्मार्ग पर चलते हुए अपना मानव जीवन सफल करने का आशीर्वाद देते थे। 

वे कहते इस भारत भूमि की दिव्यता का यह प्रमाण है कि इसमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है। यह देवभूमि है, इसकी सेवा, रक्षा तथा संवर्धन करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है

प्रयागराज में सन् 1989 में महाकुंभ के पावन पर्व पर विश्व हिन्दू परिषद् के मंच से बाबा ने अपना पावन संदेश देते हुए कहा था दिव्यभूमि भारत की समृद्धि गोरक्षा, गोसेवा के बिना संभव नहीं होगी। गोहत्या का कलंक मिटाना अत्यावश्यक है।

पूज्य बाबा ने योग विद्या के जिज्ञासुओं को हठयोग की दसों मुद्राओं का प्रशिक्षण दिया। वे ध्यान योग, नाद योग, लय योग, प्राणायाम, त्राटक, ध्यान, धारणा, समाधि आदि की साधन पद्धतियों का जब विवेचन करते तो बड़े-बड़े धर्माचार्य उनके योग सम्बंधी ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हो जाते थे।

बाबा ने भगवान श्रीकृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन में यमुना तट पर स्थित मचान पर चार वर्ष तक साधना की बहुत ही कम समय में देवरहा बाबा अपने कर्म एवं व्यक्तित्व से एक सिद्ध महापुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो गए। बाबा के दर्शन के लिए प्रतिदिन विशाल जन समूह उमड़ने लगा तथा बाबा के सानिध्य में शांति और आनन्द पाने लगा। बाबा श्रद्धालुओं को योग और साधना के साथ-साथ ज्ञान की बातें बताने लगे। बाबा का जीवन सादा और एकदम संन्यासी था। बाबा भोर में ही स्नान आदि से निवृत्त होकर ईश्वर ध्यान में लीन हो जाते थे और मचान पर आसीन होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते और ज्ञान लाभ कराते थे। कुंभ मेले के दौरान बाबा अलग-अलग जगहों पर प्रवास किया करते थे। गंगा-यमुना के तट पर उनका मंच लगता था। वह 1-1 महीने दोनों के किनारे रहते थे। जमीन से कई फीट ऊंचे स्थान पर बैठकर वह लोगों को आशीर्वाद दिया करते थे। बाबा सभी के मन की बातें जान लेते थे। उन्होंने पूरे जीवन कुछ नहीं खाया। सिर्फ दूध और शहद पीकर जीते थे। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवराहा बाबा के भक्तों में कई बड़े लोगों का नाम शुमार है। राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनेता हर समस्या के समाधान के लिए बाबा की शरण में आते थे। देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गाँधी हार गईं तो वह भी देवराहा बाबा से आशीर्वाद लेने गयीं।

सन् 1990 की योगिनी एकादशी (19 जून) के पावन दिन उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
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‘ नित्य-उपासना’ का ‘गायत्री मंत्र ’ ।।

ईश उपासना के इस ‘गायत्री मंत्र’ का प्रणव और त्रि भुवन भाव पश्चात द्वितीय चरण- ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ रूपमें कुल तीन शब्द- भर्गः, देवस्य और धीमहि पद के उच्चारण को अपनाता है । ये तीनों ही पद निम्न भाव-बोध को प्रकट करते हैं-
भर्गो देवस्य = यह ‘भर्गो’ शब्द ‘भर्गः’ शब्द का क्रियात्मकरूप है । देववाणी संस्कृत भाषा के शब्दकोश अनुसार ‘भर्गः’ शिव का नाम है तथा ब्रह्मा का नाम है । इसके अतिरिक्त यह ‘भर्ग’ शब्द ईश्वरीय तेज के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । 

भगवान शिव को सृष्टि का संहार करने वाला प्रलय का देवता जाना गया है । उन्हें ‘रुद्र’ कहा गया है तथा रौद्ररूप को धारणकर ‘ताण्डव नृत्य’ करने अर्थात् समूची सृष्टि का संहार करने वाला वर्णन किया गया है । भगवान शिव द्वारा ‘ताण्डव नृत्य’ करते समय ‘बजाये गये डमरु’ के नाद से भगवान पाणिनि द्वारा भाषा के ‘चौदह माहेश्व्वर सूत्र’ प्राप्त करना सर्वत्र जानने को मिलता है । अतः आदिदेव भगवान शिव को इस जीवात्मा का कल्याण करने वाला देवता कहा गया है । यही कारण है कि भगवान शिव देवगण तथा असुरगण दोनों के आराध्यदेव बने हुए हैं । वे देव और असुर दोनों के द्वारा पूजे और स्तवन किये जाते हैं ।


‘भर्ग’ सृष्टि-यज्ञकर्ता ब्रह्मा का नाम है । ब्रह्मा को चतुर्मुख और अहर्निश सृष्टियज्ञ-कर्म करने वाला देवता जाना गया है । ब्रह्मा को प्रजापति कहा गया है । इस प्रकार यह ‘भर्ग’ शब्द ‘संहार’ और ‘सृजन’ दोनों ही अर्थ से सम्बन्ध रखनेवाला है; यह ‘किसी सिक्के के दो पहलू’ की भाँति इन दोनों ही शक्तियों को धारण करने वाले ‘तेजोमय पुरुष’ को प्रकट करता है । अतः उस परमेश्वर का सूर्यरूप में जो संहारक तथा उत्पादक तेज है, यह ‘भर्ग’ कहा गया है तथा इस एकदेशीय अर्थ को हमारे द्वारा काल-चक्र के झंझावातों के बीच अभी तक स्मृति में धारण किया गया है । श्रुतिसाहित्य में ब्रह्मा को ही ‘ब्रह्म’ तथा शिव को ‘रुद्र’ कहा जाना प्रकट होता है । यहाँ ‘ईश उपासना’ के इस ‘गायत्री मंत्र’ में यह ‘भर्ग’ शब्द इन दोनों ही प्रथम- संहारकर्ता तेज और द्वितीय- सृजनकर्ता तेज अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तथा ‘देवस्य’ शब्द सम्बन्ध सूचक होकर यह ‘भर्ग’ देवता के इस संहारक और सृजनकर्ता तेज को अपने इस मनुष्य जीवन में अपनाने या धारण करने से सम्बन्ध रखता है ।

धीमहि – यह ‘धीमहि’ शब्द ‘ध्यान करते हैं’ अर्थ को सूचित करने वाला जाना गया है । किन्तु जब हम पूर्व पद ‘भर्ग’ द्वारा संसूचित भगवान शिव के सृष्टिसंहारकर्ता - कल्याणकारी तेज और सृष्टिसृजनकर्ता देव ब्रह्मा के प्राणीमात्र के उद्भवकर्ता और पालनकर्ता प्रजापति रूपमें धारण किये गये तेज से सम्बद्धता को अपनाकर इस ‘धीमहि’ पद पर विचार करते हैं, तो यह ‘धीमहि’ शब्द ‘मुखसुख’ को अपनाकर दो भिन्न ‘संज्ञा’ शब्द ‘धी:’ और ‘महि’ के संयोग से बना एवं समास रूप शब्द जानने में आता है । ‘धी’ शब्द बुद्धि, प्रज्ञा, मन आदि अर्थ सूचित करता है । 

यह जीवन को धारण करने वाली अर्थात् जीवन-यात्रा में सहायक बुद्धि को प्रकट करता है तथा ‘महि’ (मही) शब्द पृथिवी का सूचक है । इस प्रकार पूर्व पद के साथ सम्बद्धता को धारण करता हुआ ‘गायत्री मंत्र’ का यह द्वितीय चरण इस पृथिवी पर प्राणीमात्र के संहारक देव शिव और सृजनकर्ता या उत्पन्नकर्ता देव ब्रह्मा के कार्य से सम्बन्धित बुद्धि या प्रज्ञा का जीवनदायी रूपमें ध्यान करने अर्थात् आदिदेव भगवान शिव के संहारकर्ता कार्य और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के उत्पत्तिकर्ता जीवनदायी कार्य से सम्बन्धित तेजोमय बुद्धि या प्रज्ञा का ध्यान करने अर्थात् उसे अपने नित्य-जीवन में अपनाने के अर्थ को सूचित करता है ।


यहाँ यह उल्लेख समीचीन है कि यह ‘भर्ग’ शब्द अपने ‘तेजोमय’ अर्थ रूपमें ‘भर्जन’ शब्द की स्मृति प्रदान करता है । यह ‘भर्जन’ शब्द भड़भूँजे को अर्थात् ‘बीज’ रूप अन्न का भंजन करने वाले पुरुष को सूचित करता है तथा भूँजने की क्रिया को ‘भर्जनम्’ अर्थात् जन्मप्रक्रिया का निरोध करना जाना गया है । उस परमात्मा का तेज समस्त पापों का भर्जन करने वाला है । यह समस्त दुष्ट भावों को जलाकर नष्ट करता है । इसके अतिरिक्त यह ‘भर्ग’ शब्द चमक, दीप्ति, ज्योति, तेज, प्रतिभा, आभा, उज्ज्वलता, विकाररहित अनामय अवस्था आदि को भी प्रकट करता है । अतः जन्म-प्रक्रिया के निरोध की भावभूमि पर गायत्री मंत्र के इस द्वितीय चरण का अर्थ होता है- “मैं अपने ब्रह्मरूप में संहारकर्ता देव शिव और सृजनकर्ता देव ब्रह्मा की कर्मकर्ता तेजोमय जीवनदायी बुद्धि को सविता के तेज रूपमें यथावसर अपनाने का संकल्प धारण करता हूँ ।” .

ईश उपासना के इस ‘गायत्री मंत्र’ के तृतीय चरण में कुल चार पद(शब्द) आये हैं- ‘धियो यो नः प्रचोदयात् ।’ ये चारों ही पद (शब्द) ‘चतुष्पाद्’ रूपमें यह जीवन-सन्देश प्रदान करते हैं कि-
धियो = यह ‘धीयः’ शब्द प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि की धैर्यमय, विवेकयुक्त बहुवचन अवस्था को सूचित करता है; जिसे धारण करके यह पुरुष ‘व्यवहार कुशल’ कहा जाता या ‘परिपक्व बुद्धि’ जाना जाता है । यह मनुष्यशरीर पंचमहाभूतों से बना है तथा इस देहधारी पुरुषरूप को श्रुति द्वारा अन्नरसमय होना कथन किया गया है- ‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ।’ (तैत्ति.उप. २.१.१) इस नश्वर शरीर और देहस्थ आत्मा (जीवत्मा) को अपने उभयरूप में – ‘यह या वह’ एवं ‘यह और वह’ आधारपर अन्न को ग्रहण (भक्षण या सेवन) करके जीवित रहने वाला प्रकट किया गया है । इस कारण यह मनुष्य इस पुरुषदेह और दशेन्द्रियों की सहायता से अपनी जीवनयात्रा को पूर्ण करने और भोगरत या भोगासक्त अवस्था को धारण करने वाला बना हुआ है और इस भोगरत या भोगासक्त अवस्था में कामनाओं की पूर्ति हेतु यह बुद्धि के नाना रूपको धारण करने और अपनाने वाला हो गया है, जिसे श्रीमद्भगवद्गीता में जनार्दन श्रीकृष्ण द्वारा-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ (गीता २.४१)
अर्थात्- हे कुरुनन्दन ! इस लोक में व्यवसायात्मिका अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है और व्यवसायात्मिका अर्थात् अनिश्चय वाली बुद्धि बहुत भेदों वाली और अनन्त होती है ।”

कहा जाकर उपदेश किया गया है । अतः यहाँ प्रयुक्त हुआ यह ‘धियोः’ शब्द बहुत भेदों वाली अनन्त बुद्धि को व्यवसायात्मिका (एकात्मिका) बुद्धि रूपमें प्राप्त करने या धारण करने से सम्बन्ध रखने वाला होना जानने में आता वा प्रकट होता है ।

यो = यह ‘यः’ शब्द ‘जो’ अर्थ सूचित करता है तथा यह सवितादेव से सम्बन्ध रखने वाला जानने में आता है ।
नः = यह ‘नः’ शब्द बहुवचन अवस्था में यहाँ ‘हमारी’ या ‘हम सबकी’ अर्थ सूचित करता है । यह ‘न’ अव्यय पद है । इस पुरुषदेह में क्षरपुरुष और अक्षरपुरुष तथा अन्य सब देवगण निवास करते हैं । ऐतरेय उपनिषद् में श्रुतिकथन आया है कि इस मनुष्यशरीर को ‘सुकृत’ जानकर सब देवता इसमें प्रवेश करके स्थित हो गये हैं तथा वह सृजनकर्ता देव भी इस मानवदेह को विदीर्ण करके (जिस प्रकार कोई ठोस वस्तु जल की सतह को विदीर्ण करती हुई जल में प्रवेश करके स्थित हो जाती है; उसी प्रकार इस मानवदेह में प्रवेश करके वह परमात्मा) स्थित हो गया है । अतः यह ‘नः’ पद यहाँ इस ‘मंत्र साधना’ के क्रम में प्रयुक्त होना पाया जाता वा प्रकट होता है । यह मन, बुद्धि और अहंकार तथा देहस्थ इन्द्रियों की भोक्तावृत्ति की परस्पर सामञ्जस्यपूर्ण, द्वन्द्वरहित अवस्था को प्राप्त करने या धारण करने से सम्बन्ध रखता है ।

प्रचोदयात् = यह ‘प्रचोदयात्’ शब्द क्रिया पद है । इस प्रचोदयात् शब्द का अर्थ ‘प्रेरित करे’ या ‘प्रेरणा प्रदान करे’ लिया जाता है । किन्तु यह इस क्रियापद का युक्तियुक्त (संगति को प्राप्त) अर्थ होता नहीं । कारण कि यह तो सर्वरूप, अविनाशी, अभोक्ता ब्रह्म से स्वयं की पृथकता का भाव-बोध अपनाना प्रकट करता है । बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रुति कथन आया है कि- “उस इस ब्रह्म को इस समय भी जो इस प्रकार जानता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ, वह यह सर्व हो जाता है । उसके पराभव में देवता भी समर्थ नहीं होते; क्योंकि वह उनका आत्मा ही हो जाता है । और जो अन्य देवता की ‘वह अन्य है और मैं अन्य हूँ’ इस प्रकार उपासना करता है, वह नहीं जानता । जैसे पशु होता है वैसे ही वह देवताओं का पशु है”- ‘अन्योऽसावन्योऽहमस्मिति न स वेद यथा पशुरेवँ्स देवानाम् ।’ (बृह.उप. १.४.१०) अतः इस पृथकता के भाव का निरोध करते हुए ही यहाँ ‘नः’ पद अपनाया गया है तथा छान्दोग्य उपनिषद् में श्रुति द्वारा इस देहधारी पुरुष को वह जो अविनाशी-अभोक्ता ब्रह्मस्वरूप आत्मा है उसका प्रकट श्वेतपताका रूप (मुखौटा) होना कथन किया गया है- ‘स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो ।‘ (छा.उप. ६.८-१६) अविनाशी ब्रह्म का प्रत्यक्ष प्रकटरूप होना कथन किया है- ‘त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।’ (तैत्ति.उप. १.१.१) “यह सब कुछ ब्रह्म का प्रकटरूप होना, ब्रह्म में उत्पन्न होना, ब्रह्म में चेष्टा करना और ब्रह्म में लय अवस्था प्राप्त करना कथन किया गया है तथा चित्त (अन्तःकरण) की शान्त अवस्था को अपनाकर ब्रह्म की उपासना करने का निर्देश किया गया है”- ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत ।’ (छा.उप. ३.१४.१) अतः यह ‘प्रचोदयात्’ पद उस सर्वरूप ब्रह्म को अंगीकार करने या स्वयं की नियोजित अवस्था को अपनाने का अर्थ धारण करता है जिसका वरण प्रथम चरण में आयी शब्दावली अनुसार किया गया है ।

शिवजी को प्रसन्न करने के उपाय ।।


शिवलिंग पर जल चढ़ाते समय काले तिल मिलाएं। इस उपाय से शनि दोष और रोग दूर होते हैं।

बीमारियों के कारण परेशानियां खत्म ही नहीं हो रही हैं तो पानी में दूध और काले तिल मिलाकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। ये उपाय रोज़ करें।

 मनचाही गाडी चाहते हैं तो शिवलिंग पर रोज़ चमेली के फूल चढ़ाएं और शिव मंत्र (ॐ नमः शिवाय) का जप 108 बार रोज़ करें।

जो लोग शिवरात्रि पर किसी बिल्व वृक्ष के नीचे खड़े होकर खीर और घी का दान करते हैं, उन्हें महालक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। ऐसे लोग जीवनभर सुख-सुविधाएं प्राप्त करते हैं और कार्यों में सफल होते हैं।

शिवपुराण के अनुसार बिल्व वृक्ष महादेव का रूप हैं। इसलिए इसकी पूजा करें। फूल, कुमकुम, प्रसाद आदि चीज़ें विशेष रूप से चढ़ाएं। इसकी पूजा से जल्दी शुभ फल मिलते हैं। शिवरात्रि पर बिल्व के पास दीपक जलाएं।

 जल चढ़ाते समय शिवलिंग को हथेलियों से रगड़ना चाहिए। इस उपाय से किसी की भी किस्मत बदल सकती हैं।

 जल में केसर मिलाएं और ये जल शिवलिंग पर चढ़ाएं। इस उपाय से विवाह और वैवाहिक जीवन से जुडी समस्याएं खत्म होती हैं।

जय श्री महाकाल


वेदोक्त श्री गणपति पूजन ।।


           श्री गणेश जी वैदिक देवता हैं और आर्यावर्त में उनका पूजन अनादि काल से चला आ रहा है कोई भी मंगलकार्य हो सर्वप्रथम श्री गणेश का ही पूजन किया जाता है ताकि अभीष्ट सिद्धि में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न न हो। सनातन धर्म में कोई भी कार्य आरम्भ करने से पूर्व श्री गणेश जी का स्मरण अवश्य किया जाता है। कलियुग में भगवान गणपति का पूजन पूर्ण श्रद्धा व भक्ति पूर्वक करने से वे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं और साधक की मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। यहाँ वैदिक विधि से श्री गणेश जी के पूजन का वर्णन किया जा रहा है जिसे साधक सरलता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं।

पूजन विधान

           पूजन विधान साधक को चाहिए कि वह पूजन आरम्भ करने से पूर्व स्नानादि से निवृत्त होकर पूजन के लिए आवश्यक समस्त सामग्री जैसे जल, अक्षत, कुंकुम, हल्दी, चन्दन, सिन्दूर       यज्ञोपवीत, पुष्प, धूप, दीप, कपूर, सुपारी, मौली, दूध, दही पंचामृत आदि अपने पास रख लें ताकि पूजन के दौरान बार-बार उठना न पड़े तत्पश्चात शुद्ध आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठें। अपने सम्मुख श्री गणेश जी के स्थापन हेतु चौकी रखें। चौकी में आधार शक्ति की पूजा करके पायों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य की एवं चारों दिशाओं में अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य व अनैश्वर्य की पूजा करें तत्पश्चात चौकी में आसन हेतु पुष्प रखकर उस पर श्री गणेश जी की प्रतिमा या यंत्र स्थापित करें। प्रतिमा व यंत्र के अभाव में एक पात्र में हल्दी से रंगे चावल भरकर उसमें मौली लिपटी हुयी सुपारी स्थापित कर उसी में श्री गणेश जी की भावना करें। सर्वप्रथम घी का दीपक जलाकर चौकी के दाहिनी ओर अक्षत के ऊपर रखें “ ॐ दीप ज्योतिषे नमः " इस मंत्र के साथ गंध पुष्प से उसका पूजन करें फिर दोनों हाथ जोड़कर निम्रानुसार प्रार्थना करें

भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत् ।
यावत् कर्मसमाप्तिः स्यात् तावत् त्वं सुस्थिरो भव ॥

तदन्तर निम्नांकित मंत्रों को पढ़कर तीन बार आचमन करें

ॐ केशवाय नमः । ॐ नारायणाय नमः । ॐ माधवाय नमः ॥

फिर 'ॐ हृषीकेशाय नमः' कहकर हाथ धो लें और दाहिने हाथ में कुश की पवित्री धारण करें। उस समय इस मंत्र का पाठ करें।
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥

इस प्रकार पवित्री धारण करने के बाद तीन बार प्राणायाम करें। तत्पश्चात

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥

यह मंत्र पढ़कर अपने ऊपर तथा पूजन सामग्री पर जल छिड़कें। इसके बाद निम्नलिखित मंगल मंत्रों का पाठ करें-

ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः ।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्राययुवो रक्षितारो दिवे दिवे ॥

देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतांदेवाना रातिरभि नो निवर्तताम् ।देवानां सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ॥

तानन् पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्त्रिधम् । अर्यमणं वरुणसोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्॥

तन्नो वातो मयोभुवातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः । तद्ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना श्रृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥

तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियं जिन्वमवसे हूमहे वयम् । पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदधेषु जग्मयः । अग्निजिह्य मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह ॥

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम् देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥

शतमित्रु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥

अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ।।

द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष ँ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः।

शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ 

सुशान्तिर्भवतु।श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।उमामहेश्वराभ्यां नमः । वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः।शचीपुरन्दराभ्यां नमः । मातापितृभ्यां नमः।इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः।ग्राम देवताभ्यो नमः । वास्तुदेवताभ्यो नमः।स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः। विश्वेशं माधवं दुण्ढि दण्डपाणिं च भैरवम् ।
वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ॥
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
अभीप्सितार्थसिद्धयर्थं पूजितो यः सुरासुरैः ।
सर्वविघ्नच्छिदे तस्मै गणाधिपतये नमः ॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव ।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽनिङ्घ्रियुगंस्मरामि ॥ लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नितयाभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
स्मृते सकलकल्याणभाजनं यत्र जायते ।
पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ॥
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः ।
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः॥

इस प्रकार मङ्गल पाठ के अनन्तर पवित्रीयुक्त हाथ में जल, अक्षत और द्रव्य लेकर निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए संकल्प करें।

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्द्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूलों के जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतेकदेशे अमुकनगरे अमुकग्रामे स्थाने वा बौद्धावतारे अमुकनामसंवत्सरे श्री सूर्ये अमुकायने अमुकर्ती महामाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे मासे अमुकमा अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे अमुकयोगे अमुककरणे अमुकराशिस्थितेषु देवगुरौ शेषेषु ग्रहेषु च यथा यथा - राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगण-विशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अमुकगोत्र: अमुकशर्मा (अमुकवर्मा अमुकगुप्तः ) अहं ममात्मनः श्रीमहागणपतिप्रीत्यर्थं यथालब्धोपचारैस्तदीयं पूजनं करिष्ये ।

इस प्रकार संकल्प पढ़कर हस्तगत जलाक्षत-द्रव्य किसी भूमिगत पात्र में छोड़ दें। तत्पश्चात गणपति पूजन आरम्भ करें। सबसे पहले निम्नांकित श्लोकों के अनुसार गणेश के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उनका आवाहन करें।

आवाहन

हे हेरम्ब त्वमेोहि ह्यम्बिकात्र्यम्बकात्मज ।
सिद्धिबुद्धिपते त्र्यक्ष लक्षलाभ पितुः पितः ॥
नागास्यं नागहारं तवां गणराजं चतुर्भुजम् ।
भूषितं स्वायुधैर्दिव्यैः पाशाङ्कुशपरश्वधैः ॥
आवाहयामि पूजार्थं रक्षार्थं च मम क्रतोः ।
इहागत्य गृहाण त्वं पूजां यागं च रक्ष मे ॥
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम ॥
आहमजानि गर्भध्मा त्वमजासि गर्भधम् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः, गणपतिमावाहयामि स्थापयामि ।

प्रतिष्ठापन

आवाहन के पश्चात् देवता का प्रतिष्ठापन करें।

ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोतवरिष्टं यज्ञसमिमं दधातु ।
विश्वेदेवास इह मादयन्तामो इह प्रतिष्ठ ।।
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च ।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ॥
सिद्धिबुद्धिसहित गणपते सुप्रतिष्ठतो वरदो भव ।

आसन अर्पण

इसके बाद निम्नलिखित मंत्र पढ़कर दिव्य सिंहासन की भावना से पुष्प अर्पित करें
विचित्ररत्नरचितं दिव्यास्तरणसंयुतम् ।
स्वर्णसिंहासनं चारुगृह्णीष्व सुरपूजित ॥
ॐ पुरुष एवेद सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः आसनं समर्पयामि ।

इसके बाद निम्नांकित मंत्र से गणेश जी के पाद प्रक्षालन के लिये पाद्य अर्पित करें

ॐ सर्वतीर्थसमुद्धतं पाद्यं गन्धादिभिर्युतम ।
विघ्नराज गृहाणेदं भगवन् भक्तवत्सल ॥
ॐ एतावानस्य महिमातो जयायांश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, पादयोः पाद्यं समर्पयामि ।.

(क्रमशः)

@Sanatan

वेदोक्त श्री गणपति पूजन (३)
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अर्घ्यदान

तदनन्तर गन्ध आदि से युक्त अर्घ्यजल अर्पित करें और निम्नांकित मंत्र पढ़ें

ॐ गणाध्यक्ष नमस्तेऽस्तु गृहाण करुणाकर ।
अर्घ्यं च फलसंयुक्तं गन्धमाल्याक्षतैर्युतम् ॥
ॐ त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि ।

आचमनीय-अर्पण

इसके अनन्तर गंगाजल से आचमन करायें और नीचे लिखे मंत्र का उच्चारण करें

विनायक नमस्तुभ्यं त्रिदशैरभिवन्दित ।
गङ्गोदकेन देवेश कुरुष्वाचमनं प्रभो ॥
ॐ ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, मुखे आचमनीयं समर्पयामि ।

स्नानीय समर्पण

तदनन्तर नीचे दिये हुए मंत्र को बोलकर गंगाजल से स्नान कराने की भावना से स्नानीय जल अर्पित करें

मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् ।
तदिदं कल्पितं देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भूतं पृषदाज्यम् ।
पशूंस्तांश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, सर्वाङ्गे स्नानं समर्पयामि ।

पञ्चामृत स्नान

इसके बाद नीचे लिखे मंत्र को पढ़कर पंचामृत से गणपतिदेव को स्नान करायें

पञ्चामृतं मयाऽनीतं पयो दधि घृतं मधु ।
शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपियन्ति सस्त्रोतसः ।
सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेऽभवत्सरित् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि ।
पञ्चामृतस्नानान्ते शुद्धोदकस्त्रानं समर्पयामि ।

इसके बाद दूध दही आदि से पृथक् पृथक् स्नान कराकर शुद्ध जल से भी स्नान कराना चाहिये। दूध से स्नान कराने के लिए मंत्र निम्नलिखित है


पयः स्नान

कामधेनु समुद्धतं सर्वेषां जीवनं परम् ।
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् ॥
ॐ पयः पृथिव्याम्पय औषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, पयः स्नानं समर्पयामि ।
पयः स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ।

दधि स्नान

पयसस्तु समुद्धतं मधुराम्लं शशिप्रभम् ।
दध्यानीतं मया देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वरय वाजिनः ।
सुरभि नो मुखा करत् प्राण आयुषि तारिषत् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, दधिस्त्रानं समर्पयामि।
दधिस्त्रानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ॥

घृत-स्त्रान

नवनीतसमुत्पन्नं सर्व संतोषकारकम् ।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ घृतं मिमिखे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम। अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, घृतस्त्रानं समर्पयामि । घृतस्नानान्ते शुद्धोदकस्त्रानं समर्पयामि ।।

मधु-स्त्रान

पुष्परेणुसमुद्धतं सुस्वादु मधुरं मधु ।
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः ।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।।
मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्त् पार्थिव रजः ।
मधु द्यौरस्तु नः पिता ।।
मधुमानो वनस्पतिर्मधुमाँs अस्तु सूर्यः ।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, मधुस्नानं समर्पयामि ।
मधुस्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि ।

शर्करा - स्नान

इक्षुसारसमुद्भूता शर्करा पुष्टिदा शुभा ।
मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ अपारसमुद्वयस सूर्ये सन्त समाहितम् ।
अपाँ रसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः शर्करास्त्रानं समर्पयामि ।

इसके बाद सुगन्धित इत्र या अन्य द्रव्य (अल्कोहल रहित) आदि अर्पित करें

माङ्गलिक स्नान (सुवासित तैल या इत्र)

चम्पकाशोकबकु लमालतीमोगरादिभिः ।
वासितं स्त्रिग्धाहेतुतैलं चारु प्रगृह्यताम् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः सुवासितं तैलं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नान

तदनन्तर गंगाजल या तीर्थ जल से शुद्ध स्नान करायें।
गङ्गा च यमुना चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदा सिन्धुः कावेरी स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ आपोहिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन ।
महेरणाय चक्षसे ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, शुद्धोदकस्त्रानं समर्पयामि ।

वस्त्र - समर्पण

शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम् ।
देहालंकरणं वस्त्रमतः शान्तिः प्रयच्छ मे ॥
ॐ युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः ।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्योऽ मनसा देवयन्तः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, वस्त्रं समर्पयामि ।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः आचमनं समर्पयामि । 

उपवस्त्र (उत्तरीय) समर्पण

उत्तरीयं तथा देव नानाचित्रितमुत्तमम् ।
गृहाणेदं मया भक्त्या दत्तं तत् सफलीकुरु ॥
ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्वः ।
वासो अग्ने विश्वरूप संव्ययस्व विभावसो ।।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः उपवस्त्रं समर्पयामि  तदन्ते आचमनीयं समर्पयामि ।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः वस्त्रोपवस्त्रार्थे रक्तसूत्रं समर्पयामि ।

अलंकरण

ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः अलंकरणार्थमक्षतान् समर्पयामि ।

यज्ञोपवीत समर्पण

नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम् ।
उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर ॥
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रय्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः यज्ञोपवीतं समर्पयामि ।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः आचमनं समर्पयामि।

गन्ध

श्रीखण्डचन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् ।
विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ त्वा गन्धर्वा अखनस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः ।
त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान्यक्ष्मादमुच्यत ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः गन्धं समर्पयामि ।

अक्षत

ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत ।
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी ।।

ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, अक्षतान् समर्पयामि ।

पुष्प माला

माल्यादीनि सुगन्धीनि माल्यादीनि वै प्रभो ।
मयाहृतानि पुष्पाणि गृह्यन्तां पूजनाय भोः ॥
ॐ औषधीः प्रतिमोदध्वं पुष्पवृतीः प्रसूवरीः ।
अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः पुष्पमालां समर्पयामि ।

मन्दारपुष्प

वन्दारु जनमन्दार मन्दारप्रिय धीपते ।
मन्दारजानि पुष्पाणि श्वेतार्कादीन्युपेहि भोः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः मन्दारपुष्पाणि समर्पयामि ।

शमी पत्र

त्वत्प्रियाणि सुपुष्पाणि कोमलानि शुभानि वै ।
शमीदलानि हेरम्ब गृहाण गणनायक ॥
ॐ य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी ।
शमीभिर्यज्ञमाशत ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, शमीपत्राणि समर्पयामि ।

दूर्वाङ्कुर

दूर्वाङ्कुरान् सुहरितानमृतान् मङ्गलप्रदान्।
आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण गणनायक ॥
ॐ काण्डात्काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि ।
एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्त्रेण शतेन च ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः दूर्वाङ्कुरान् समर्पयामि।

सिन्दूर

सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम ।
शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वानप्रमियः पतयन्ति यह्वाः । घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दर्मिभिः पिन्वमानः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः सिन्दूरं समर्पयामि ।
नाना परिमलद्रव्य, अबीर - चूर्ण नानापरिमलैर्द्रव्यैर्निर्मितं चूर्णमुत्तमम् ।
अबीरनामकं चूर्ण गन्धढ्यं चारु गृह्यताम् ।।
ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः । हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमासं परिपातु विश्वतः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि ।

दशाङ्ग धूप

वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः ।
आर्घेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योऽस्मान्धृर्वति तं धूर्वयं वयं धूर्वामः ।
देवानामसि वह्नितम सस्त्रितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम् ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः धूपमाघ्रापयामि ।

दीप-दर्शन

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया ।
दीपं गृहाण देवेश त्रेलोक्यतिमिरापहम् ॥
भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने ।
त्राहि मां निरयाद् घोराद्दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ॥
ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा ।
अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा । ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, दीपं दर्शयामि।

नैवेद्य-निवेदन

नैवेद्यं गृह्यतां देव भक्तिं मे ह्यचलां कुरु ।
ईप्सितं मे स्वरं देहि परत्र च परां गतिम् ॥
शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च ।
आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्ष शीष्ण द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽ अकल्पयन् ॥
ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ समानाय स्वाहा । ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, आचमनीयं मध्ये पानीयं उत्तरापोशनं च समर्पयामि

करोद्वर्तन के लिये चन्दन

ॐ चन्दनं मलयोद्भूतं कस्तूर्यादिसमन्वितम् ।
करोद्वर्तनकं देव गृहाण परमेश्वर ॥
अशुना ते अंशुः पृच्यतां परुषा परुः ।
गनधस्ते सोममवतु मदाय रसो अच्युतः ॥ ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः,चन्दनेन करोद्वर्तनं समर्पयामि । 

पूंगीफलादिसहित ताम्बूल - अर्पण

ॐ पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् ।
एलाचूर्णादिसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥
ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो ऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, मुखवासार्थ मेलापूंगीफलादिसहितं ताम्बूलं समर्पयामि।

नारिकेलफल - अर्पण

इद फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥
ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः ।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्तव हसः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः नारिकेलफलं समर्पयामि ।

दक्षिणा समर्पण

हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेम बीजं विभावसोः ।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे ॥
ॐ हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्यजातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, ।
कृतायाः पूजायाः साद्गुण्यार्थं द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि ।

नीराजन या आरार्तिक ( आरती )

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम् ।
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव ॥
ॐ इदं हविः प्रजननं मे अस्तु, दशवीर सर्वगण स्वस्तये ॥ आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि ।
अग्निः प्रजां बहुलां मे करोत्वन्नं पयो रेतो अस्मासु धत्त ॥
आ रात्रि पार्थिव रजः पितुरप्रायि धामभिः ।
दिवः सदा सि बृहती तिष्ठस आ त्वेषं वर्तते तमः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, कर्पूरनीराजनं समर्पयामि ॥

पुष्पाञ्जलि समर्पण

नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च।
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्वरं ।।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥
ॐ अम्बे अम्बिकेऽम्बालिके न मा नयति कश्चन ।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम् ॥
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।
स मे कामान् काम कामाय मह्यं कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु ॥ कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ।
ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं समन्तपर्यायी स्यात् सार्वभौमः सार्वायुषान्तादापरार्धात् पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन् गृहे । आवीक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद इति ।
ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । साम्बाहुभ्यां धमति सम्पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः, मंत्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि ।

प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि ज्ञाताज्ञातकृतानि च ।
तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिणपदे पदे ॥
ॐ ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः ।
तेषाँ सहस्त्रयोजनेऽव धन्वानि तन्मसि ॥
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः प्रदक्षिणां समर्पयामि।

विशेषा-समर्पण

तदनन्तर जल, गन्ध, अक्षत, फल, दूर्वा और दक्षिणा एक ताम्र पात्र में रखकर दोनों घुटनों को पृथ्वी पर टेककर उक्त अर्घ्य पात्र को दोनों हाथों की अंजलि में लें और उसे मस्तक से लगाकर निम्नांकित श्लोकों को पढ़ते हुए श्री गणपति को अर्ध्य दें

रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्यरक्षक ।
भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात् ॥
द्वैमातुर कृपासिन्धो षाण्मातुराग्रज प्रभो ।
वरदस्त्वं वरं देहि वाञ्छितं वाञ्छितार्थद ॥
अनेन सफलार्येण सफलोऽस्तु सदा मम ।
ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय महागणपतये नमः विशेषार्घ्यं समर्पयामि ।

विशेषार्ध्य देने के पश्चात् निम्नाकित श्लोक पढ़कर प्रार्थना करें

विछेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्वराय सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय । विद्याधराय विकटाय च वामनाय भक्त प्रसन्नवरदाय नमो नमस्ते ॥
नमस्ते ब्रह्मरूपाय विष्णुरूपाय ते नमः ।
नमस्ते रुद्ररूपाय करिरूपाय ते नमः ॥
विश्वरूपस्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मचारिणे ।
भक्तप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक ॥
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
त्वां विघ्नशत्रुदलनेति च सुन्दरे ति भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति ।
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ॥
गणेशपूजने कर्म यन्यूनमधिकं कृतम् ।
तेन सर्वेण सर्वात्मा प्रसन्नोऽस्तु सदा मम ॥
अनया पूजया सिद्धिबुद्धिसहितो महागणपति: प्रीयतां न मम ।
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

नामजप से आने वाले दुःखों का नाश ।।


प्रारब्ध का नाश भोगने से ही होता है किन्तु भगवान के नाम में प्रारब्ध का नाश करने की अतुल शक्ति है। तुलसीदासजी ने कहा है—‘मेटत कठिन कुअंक भाल के।’
—संतजनों ने कहा है कि सादा-सात्विक भोजन व संयम के साथ इस महामन्त्र का तीन करोड़ जप करने से मनुष्य के हाथ की रेखाएं बदलने लगती हैं। जन्मपत्री के ग्रह शुद्ध होने लगते हैं। उसके शरीर में कोई भी महारोग नहीं होता है।
—इस महामन्त्र का साढ़े तीन करोड़ बार जप करने से मनुष्य ब्रह्महत्या, चोरी, पितर, देव व मनुष्यों के प्रति किए गए अपराध से मुक्त हो जाता है।
—चार करोड़ जप करने से मनुष्य का धनस्थान शुद्ध हो जाता है और वह कभी दरिद्र नहीं होता है।
—जिसने इस महामन्त्रका पांच करोड़ जप किया है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट हो जाता है।
—छह करोड़ जप से साधक के बाह्य व आन्तरिक समस्त शत्रु नष्ट हो जाते हैं।
—सात करोड़ जप करने से आयु की वृद्धि होती है।
—आठ करोड़ जप करने से मनुष्य का मरण सुधरता है। अंत समय में भगवान उस साधक को किसी तीर्थ में बुलाते हैं और वहां वह पवित्र अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होता है।
—नौ करोड़ मन्त्रों का जप करने से साधक को स्वप्न में भगवान के दर्शन होते हैं।
—दस, ग्यारह व बारह करोड़ जप करने से संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध—तीनों कर्मों का नाश हो जाता है।
—तेरह करोड़ जप करने से भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है। समर्थ गुरु रामदास ने गोदावरी के किनारे इस महामन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और वहां भगवान राम प्रकट हो गये थे। नासिक में उस स्थान पर ‘काले रामजी का मन्दिर’ है।
   ‌ साभार.......

आराधना,भक्ति ,तपस्या, किसे कहते है ?

भक्ति तो एक मनोभाव है समर्पण का, परम विश्वास का, मनोरम रस-माधुर्य का, न्योछावर हो जाने का, तन्मयता के साथ अनुरक्त रहने का। यह भाव अपने इष्ट या आराध्य के चरणों में समर्पित कर भक्त उस भाव-धारा के पुण्य जल में निरंतर अवगाहन करता हुआ मगन रहता है।
 
आराधना भक्ति की निरंतरता, सातत्य और अविचलता के साथ कुछ और भी है। आराधना है अपने ईश के रूप, स्वरूप, गुण, महिमा का निरंतर स्मरण, मन में दुहराव, जप, कीर्तन, मनन तथा मानसिक और भौतिक पूजन द्वारा अपने आराध्य से यह कृपा प्राप्त करने का यत्न कि उसके स्वरूप की दिव्यता के तत्व हमारे व्यक्तित्व को भरसक प्रकाशित करें, हमारे चरित्र को आलोकित करें और हमारे कार्यों व संकल्पों में झलकें। उद्देश्य यह कि हमारा संपूर्ण जीवन सांसारिक गतिविधियों में लिप्त रहता हुआ भी उस दैवी-‍दिव्यता से तृप्त रहे, आप्यायित हो।

आराधना या उपासना को एक अन्य अर्थ में ही समझा जाना चाहिए। दैवी शक्तियों की आराधना इसलिए भी की जाती है कि हम उनसे अपने सांसारिक उपक्रमों में इच्छित सफलता प्राप्त करने का वरदान प्राप्त करें, सफलता प्राप्ति के बीच आने वाली बाधाओं का निवारण हो और हमारा प्रयत्न, उद्यम, तपस्या, उपक्रम, सुगम हो। दैवी शक्तियों की आराधना मनोबल देती है, आत्मविश्वास बढ़ाती है, उत्साह का संचार करती है और सफलता की संभावना बढ़ाती है। परंतु यह समझ लिया जाना चाहिए कि भौतिक चढ़ावों या धूप, दीप, भोग, दान से यह आराधना सफल नहीं होती। 
 
आराधना या उपासना को एक अन्य अर्थ में ही समझा जाना चाहिए। दैवी शक्तियों की आराधना इसलिए भी की जाती है कि हम उनसे अपने सांसारिक उपक्रमों में इच्छित सफलता प्राप्त करने का वरदान प्राप्त करें, सफलता प्राप्ति के बीच आने वाली बाधाओं का निवारण हो और हमारा प्रयत्न, उद्यम, तपस्या, उपक्रम, सुगम हो। दैवी शक्तियों की आराधना मनोबल देती है, आत्मविश्वास बढ़ाती है, उत्साह का संचार करती है और सफलता की संभावना बढ़ाती है। परंतु यह समझ लिया जाना चाहिए कि भौतिक चढ़ावों या धूप, दीप, भोग, दान से यह आराधना सफल नहीं होती। सफलता प्राप्त होती है अपने प्रयत्नों में कठोर परिश्रम से, एकाग्रता से, लगन से, तन्मय उद्यम से, इच्छित दिशा में किए गए सार्थक प्रयासों से।

सफलता प्राप्ति का मूल मंत्र है तपस्या। दैवी शक्तियां तो इस तपस्या की साक्षी होती हैं, मनोबल बढ़ाने का वरदान देती हैं और एक ऐसा सुखद अहसास देती हैं कि हमारे प्रयत्नों पर किसी दिव्य शक्ति की छत्रछाया है। इन शक्तियों की आराधना का मनोभाव हमारे प्रयत्नों को अनंत ऊर्जा से श्रृंगारित कर देता है, जो सफलता को अवश्यंभावी बना देता है। आराधना हमारे प्रयत्नों की सहकारिणी हैं।

जय माँ काली ।

श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

        रुद्र का पिता कौन ? ब्रह्मा का पिता कौन ? ब्रह्मा की माता कौन ? रुद्र की माता कौन ? विष्णु की माता कौन ? विष्णु का पिता कौन ? कामदेव की माता कौन ? कामदेव का पिता कौन ? इन्द्र का पिता कौन ? इन्द्र की माता कौन ? किसी को नहीं मालूम, किसी भी वेद पुराण या तंत्र ग्रंथ इत्यादि में इनके माता पिता के बारे में कुछ नहीं लिखा गया ईश्वर की माता कौन ? ईश्वर का पिता कौन ? सदाशिव की माता कौन ? सदाशिव का पिता कौन ? इस के बारे में भी कुछ नहीं लिखा गया। ये अद्भुत संरचनाएं हैं, इनकी संरचना भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने स्वतः की है, यह गर्भ से पैदा नहीं हुए हैं, गर्भातीत नहीं हैं, गर्भ इनका विषय नहीं है। नारायण की माता कौन ? नारायण का पिता कौन ? यह मुख्य चिंतन का विशेष कर अध्यात्म चिंतन का विषय है किसी भी वेद ग्रंथ में इनके माता पिता का उल्लेख नहीं है। 

              रुद्र का तात्पर्य है जो संहार करता है, ब्रह्मा का तात्पर्य जो सृष्टि करता है, विष्णु का तात्पर्य जो जीवन रचना करता है, ब्रह्मा विष्णु और रुद्र ये तीनों दस-दस कला युक्त हैं अर्थात इनमें से प्रत्येक के पास अपनी-अपनी दस विशेष कलाएं हैं, दस कलाओं का तात्पर्य एक जैसे दस अणुओं का समायोजन चौथा ईश्वर है जिसके पास चार कलाएं हैं अर्थात चार एक जैसे अणुओं का समायोजन, ईश्वर का तात्पर्य यह है कि जो सबको तिरस्कृत कर दें, सब स्थितियों से निवृत्त हो जाये, कहीं लिप्त न हो सिर्फ देता रहे एक जीवन युक्त अवस्था जैसे आप आप गुरु नानक जी को कह सकते हैं, शंकराचार्य जी को कह सकते हैं, आप स्वामी समर्थनाथ जी को कह सकते हैं । इस श्रेणी में बहुत सारे जीव आ सकते हैं जो कि ईश्वर तत्व तक पहुँच गये, आज बुद्ध एवं महावीर ये भी ईश्वर तत्व तक पहुँच गये हैं, इनमें भी चार कलाओं का विकास हो गया, चार सजातीय अणुओं में एक साथ रहने की कला आ गयी।

           नवनाथ का भी अवसान होता है, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं ईश्वर का भी अवसान होता है यह भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं परन्तु 16 कलायुक्त सदाशिव जो कि इन पायों के ऊपर फलक बनकर लेटे हुए हैं और जिनकी नाभि से कमल निकल रहा है जिस पर भगवती विराजमान है ये कभी प्रलयातीत नहीं होते। सदाशिव का तात्पर्य है सदा के लिये बने रहने वाले शिव इसलिए कहा गया है कि है भगवती तू ही एकमात्र सुहागन है, तेरा पति कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, वह प्रलय काल में भी जस का तस रहता है क्योंकि उसके अंदर त्रिपुरा की षोडशी कला प्रवाहित हो रही है यही श्रीविद्या रहस्यम् है, यही शुद्ध विद्या रहस्यम् है। नाम से ही स्पष्ट है कि ये श्लोक प्रातःकाल उठकर पाठ करने के हैं। इनमें तीनों लोकों की जननी और राज्ञी, लोगों की आश्रयभूता भण्ड और महिषासुर को मारने वाली भगवती का स्मरण किया गया है। इसका प्रतिदिन " पाठ करने वाले की रक्षा भगवती स्वत: करती हैं।

          सदगुरुदेव के महाप्रयाण दिवस से एक नया समूह का निर्माण किया गया है जिसमें अष्टक वर्ग वैदिक ज्योतिष निशुल्क रूप से सिखाया जा रहा है और इस परंपरा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ।जो कि सच्चे अर्थों में यही उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि हो सकेगी । जो भी ज्योतिष सीखने में रुचि रखते हो वो इस समूह को ज्वाइन कर सकते हैं। वही लोग समूह जॉइन करें जो ज्योतिष सीखना चाहते हैं समूह का लिंक नीचे दे रहा हूं ।।

॥ श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

प्रातः स्मरामि सु सुधाम्बुधि मध्यभागे।
कल्पाटवी परिवृते मणि निर्मितेऽस्मिन् ।।
चिन्तामणीय सुमहा सदने निविष्टां ।
राजेश्वरी त्रिजगतां जननीं च राज्ञीम् ॥

प्रातर्नमामि सकलागम नित्यवेद्यं ।
संक्रन्दनादि सुरवृन्द निषेव्यमाणम् ॥
लाक्षारूणं कमल शङ्ख सुरेखिकं च।
राजेश्वरी पदयुगं जगतां शरण्यम् ॥

प्रातर्वदामि सकलेष्ट सुदान दक्षं ।
दक्षज्ञ भक्त भय रोग समूलनाशे ॥
भाग्यप्रदञ्च भवरोग निवारकञ्च ।
राजेश्वरी महितनाम सहस्त्रमेव ॥

प्रातः पठामि दुरितौघ विनाश हेतुं ।
वन्दारु वाञ्छित फलप्रद माशु नित्यं ॥
मोक्षप्रदं मुनिनुतं सुमहत्त्व पूर्णं ।
माहात्म्यमेव महितं वर षोडशेश्याः ॥

प्रातः शृणोमि शठ माहिष भण्डमुख्य ।
सर्वासुर क्षपण दीक्षित माहवषु ॥
वीरायितं च वरदान विचक्षणं च।
विस्मापनीय चरितं जगदम्बिकायाः ॥

यः श्लोक पञ्चकमिदं पठति प्रभाते ।
सिंहासन स्थित मनोहर चक्रराज्याः।।
राजेश्वरी च रजनीकर चारुचूडा।
रक्षां करोति सततं तदिदं हि सत्यम् ॥

।। इति श्रीमहाराज्ञी श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

                         शिव शासनत: शिव शासनत:

भगवान गणपति के द्वादश नाम के रहस्य ।।


         सनातन धर्म में कोई भी मंगल कार्य श्री गणेश जी की आराधना से ही आरम्भ होता है कार्य में सफलता की कामना से आरम्भ में ही श्री गणेश के द्वादश नामों का संकीर्तन किया जाता है। विध्याध्यन आरम्भ करते समय, विवाह के समय, नगर अथवा नवनिर्मित भवन में प्रवेश करते समय, यात्रा आदि में कहीं बाहर जाते समय संग्राम के अवसर पर अथवा किसी भी प्रकार की विपत्ति आने पर यदि साधक श्री गणेश जी के बारह नामों का स्मरण करता है उसके उद्देश्य और मार्ग में किसी प्रकार का विघ्न नहीं आता।


            श्री गणेश जी के ये बारह नाम हैं- सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्ण, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भाल चन्द्र और गजानन। इन नामों को श्लोक के रूप में इस तरह वर्णित किया गया है-        
           सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
           लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥
           धूम्रकेतुः गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
           द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
           विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
           संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥


सामान्य रूप से इन बारह नामों का अर्थ इस प्रकार है-- सुमुख अर्थात सुन्दर मुख वाले, एकदन्त अर्थात एक दांत वाले, कपिल यानी कपिल वर्ण के, गजकर्ण अर्थात हाथी जैसे कान वाले, लम्बोदर अर्थात लम्बे पेट वाले, विकट यानी भयंकर, विनायक अर्थात वशिष्ट नायकोचित गुण सम्पन्न, धूम्रकेतु यानी धुँये के रंग की पताका वाले गणाध्यक्ष अर्थात गणों के अध्यक्ष, भालचन्द्र अर्थात मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले और गजानन अर्थात हाथी के समान मुख वाले ।


          सुमुख :- आम लोगों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि हाथी की सूंड, छोटी-छोटी आँखे और सूप जैसे लम्बे कान वाले को सुमुख कैसे कहा जा सकता है वैसे जो चमड़े की सुन्दरता को ही महत्व देते हैं उनका ऐसा सोचना ठीक भी है किन्तु यदि गहराई से विचार किया जाय तो शारीरिक सुन्दरता से परे गुणो की महत्ता सर्वोपरि है। सनातन आर्य संस्कृति ने सदैव गुणों को ही अधिक महत्व दिया है। आध्यात्मिक दृष्टि से छोटी आँखें गम्भीरता की, लम्बी नाक बुद्धिमता की और दीर्घ कर्ण बहुलता के सूचक हैं। सामुद्रिक शास्त्र भी इसकी पुष्टि करता है। इस प्रकार सुमुख नाम श्री गणेश के गुणों के सुरूप ही है।


             एकदन्त :- श्री गणेश का दूसरा नाम एकदन्त है। श्री गणेश का एकदन्त होना इस बात का ज्ञान कराता है कि जीवन में सफल वही होता है जिसका लक्ष्य एक हो। दो वस्तुऐं हमेशा द्वैत की परिचायक होती हैं गणपति का एक दाँत टूटा तो वे अद्वैत के प्रतीक बन गये। यह एकदन्त का तात्विक पक्ष था जिसे जानकर यह जिज्ञासा जागृत होती है कि हाथी के समान मुख वाले श्री गणेश के दो दाँत थे तो एक दाँत टूटा कैसे ? इस सम्बन्ध में एक पौराणिक प्रसंग हैं


एक बार भगवती पार्वती और शिव विहार कर रहे थे तो उन्होंने श्री गणेश को यह कहकर द्वार पर पहरे में खड़ा कर दिया कि किसी को भी भीतर न आने दें तभी सहसा परशुराम वहाँ आये और भीतर जाने के लिये हठ करने लगे। बात इतनी अधिक बढ़ गयी कि परशुराम को प्रहार करना पड़ा फलस्वरूप श्री गणेश का दाँत टूट गया। परशुराम ने जब अपने तीव्र धार वाले कुठार से श्री गणेश की भुजा पर प्रहार किया तो वह कुठार फिसलकर गणेश जी के दाँत पर में गिरा और प्रचण्ड ध्वनि के साथ श्री गणेश का दाँत टूटकर गिर गया। वह दाँत जब परशुराम को नष्ट करने के लिये चला तो शिवगणों ने उसे रोक लिया। उस समय दाँत की वक्रगति देखकर पृथ्वी कांप उठी, पशु चिग्घाड़ने लगे सर्वत्र भय व्याप्त हो गया देवगण भी हाहाकार करने लगे। अंत में भगदन्त श्री गणेश जी की देवताओं ने स्तुति की इस प्रकार उनका नाम एकदन्त पड़ा।

             कपिल :- श्री गणेश के तीसरे नाम कपिल का यदि आकारान्त बना दिया जाय तो इसका रूप बनेगा 'कपिला' जिसका शाब्दिक अर्थ है गाय इससे स्पष्ट है कि गौ धूसर वर्ण की होती हुयी भी दूध, दही, घृत आदि पोषक पदार्थ तथा गोमय व गोमूत्र आदि रोग निवारक पदार्थ प्रदान कर मानव का हित साधन करती है उसी प्रकार कपिलवर्ण के श्री गणेश भी बुद्धि रूपी दधि, ज्ञानरूपी घृत तथा समुज्वल भावरूपी दुग्ध द्वारा मानव को पुष्ट बनाते हैं अथवा उसके बौद्धिक पक्ष को पुष्ट बनाने वाले पदार्थ प्रदान करते हैं और अमंगल नाश, विघ्नहरण और दिव्य पदार्थ प्रदान कर उसके त्रिविध तापों का शमन करते हैं।

          गजकर्ण:- आर्य संस्कृति में श्री गणेश को बुद्धि का अधिष्ठात्र देवता माना गया है श्री गणेश के लम्बे कान सब कुछ सुनने की क्षमता रखते हैं। शास्त्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि सुननी सबकी बात चाहिये किन्तु कोई भी कार्य ऊँचे लोगों से विचार विमर्श के पश्चात् ही करना चाहिए यही सीख देने के लिये श्री गणेश जी ने हाथी के समान लम्बे कान धारण किये हैं। श्री गणेश के लम्बे कानों में यह रहस्य भी छिपा हुआ है कि छुद्र अर्थात छोटे कानों वाला व्यक्ति सदैव व्यर्थ की बातों को सुनकर अपना ही अहित करने लगता है। श्री गणेश के लम्बे कान यह शिक्षा भी देते हैं कि व्यक्ति को अपने कान ओछे न रखकर इतने विस्तृत बना लेने चाहिए कि उनमें सहस्त्रों निंदकों की सभी अच्छी बुरी बातें इस प्रकार समा जाँय कि वे फिर कभी जिह्वाग्र पर आने का प्रयास न करें।

              लम्बोदर :- लम्बा उदर समस्त भली बुरी बातों को उदरस्थ करने की प्रेरणा देता है। शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर द्वारा बनाये हुये डमरू की ध्वनि से श्री गणेश ने सम्पूर्ण वेदों को ग्रहण किया, माता पार्वती के चरणद्वय में झंकृत होने वाले नूपुरों से संगीत सीखा, प्रतिदिन ताण्डव नृत्य देखने और उसके अभ्यास के बल से नृत्य सीखा और इस तरह से प्राप्त विभिन्न ज्ञानों को आत्मसात करने के कारण उनका उदर लम्बायमान हो कोष रूप में परिणित हुआ ।

              विकट - इसके अनन्तर श्री गणेश का छठा नाम समाने आता है और वह है विकट । विकट का अर्थ होता है भयंकर श्री गणेश का धड़ (कण्ठ से पैर तक का भाग) है नर का और ऊर्ध्वांग अर्थात मुख है- हाथी का । अतः ऐसा विकट प्राणी विकट होगा ही यह निर्विवाद है। श्री गणेश के नाम के रूप में इसका भाव यह है कि श्री गणेश अपने नाम को सार्थक बनाते हुए सभी प्रकार के विघ्नों की निवृत्ति के लिये विघ्नों के मार्ग में विकट बनकर उपस्थित रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं 'शठे शाठ्य समाचरेत्' अर्थात बुरे और दुष्ट व्यक्तियों को सौम्यता से नहीं, अपितु तद्वत् बनकर ही दबाया जा सकता है। अतः यह नाम भी सार्थक ही है। गणपत्यथर्वशीर्ष के नवम मंत्र में श्री गणेश के लिये लिखा है विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः । इसका भाव हैं हम विघ्नों को नष्ट करने वाले, शिव के पुत्र, वरप्रदायी मूर्ति रूप में प्रकटित श्री गणेश को नमस्कार करते हैं। सुप्रसिद्ध भाष्यकार श्रीसायणाचार्य ने विघ्ननाशिने का भाष्य इस प्रकार प्रस्तुत किया है विवनाशिने कालात्मक भयहारिणे, अमृतात्मकपदप्रदत्वात् अर्थात श्री गणेश कालात्मक भय को हरण करने वाले हैं क्योंकि वे अमृतात्मक पद के प्रदाता हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार इन्द्र ने निज भाग शून्य यज्ञ के विध्वंस के लिये जब कालका आह्वान किया तब वह विनासुर के रूप में प्रकटित हो, अभिनन्दन राजा को मारकर सत्कर्मों का लोप करने लगा तब महर्षियों ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से श्री गणेश की स्तुति कर उनके द्वारा विनासुर का उपद्रव दूर करवाया। उसी समय से गणेश पूजन स्मरणादिविरहित कार्य में विघ्न का प्रादुर्भाव अवश्य होता है। यह मान्यता स्वीकार कर कार्यारम्भ में श्री गणेश पूजन अनिवार्य प्रतिपादित किया गया है । विन भी सामान्य नहीं है। यह कालस्वरूप होने से भगवत् स्वरूप, अतएव अतीव महिमान्वित है। इसके स्वरूप का निदर्शन इस प्रकार प्राप्त होता है विशेषेण जागत्सामर्थ्यं हन्तीति विघ्नः ब्रह्मादिक की भी जगत्सर्जनादि सामर्थ्य का हरण करने वाले तत्व को विघ्न कहते हैं। इस पर यदि किसी का शासन चलता है तो श्री गणेश का ही अतः गणेश का विनेश नाम न केवल सार्थक, अपितु उनकी लोकोत्तर महिमा का भी व्यापक है।

           विनायक :- गणेश की इस नामावली का अष्टम नाम है विनायक । इसका अर्थ है विशिष्ट नायक या विशिष्ट स्वामी । कतिपय विद्वानों ने वि उपसर्ग को विघ्न का लघुस्वरूप स्वीकार कर विनायक का अर्थ विघ्नों का नायक भी स्वीकार किया है यह अर्थ पूर्णत: श्री गणेश पर चरितार्थ होता है क्योंकि ब्रह्मादि देवता अपने-अपने कार्य में विघ्र पराभूत होने के कारण स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते, परन्तु श्री गणेश के अनुग्रह से ही विघ्नरहित होकर कार्य सम्पादन में समर्थ होते हैं और यही कारण है कि पुण्याहवाचन के अवसर पर भगवन्तौ विघ्नविनायकौं प्रीयेताम् कहकर विघ्न और उसके पराभवकर्ता श्री गणेश दोनों का स्मरण किया जाता है इससे वि विघ्न, नायक स्वामी विनायक शब्द की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार यदि इस शब्द विनायक का अर्थ विशिष्ट नायक लिया जाय तो भी वह अन्वर्थक ही सिद्ध होता है क्योंकि श्रुति में श्री गणेश को ज्येष्ठराज शब्द द्वारा सम्बोधित कर उनके महत्व का प्रतिपादन किया गया है।

        धूम्रकेतु- श्री गणेश जी का नवम नाम है धूम्रकेतु । धूम्रकेतु का सामान्य अर्थ है अग्नि और शब्दार्थ हैं धूऐं के ध्वजवाला ।श्री गणेश के संदर्भ में इसके दो भाव प्रकट होते हैं। 1.संकल्प - विकल्पात्मक धूम धूसर अस्पष्ट कल्पनाओं को साकार बनानेवाले तथा उन्हें मूर्तरूप दे ध्वजवत् नभमण्डल में फहराने वाले होने के कारण गणेश का धूम्रकेतु नाम अन्वर्थक है। 2.इसी प्रकार अग्नि के समान मानव की आध्यात्मिक अथवा आधिभौतिक प्रगति के मार्ग में आने वाले विघ्नों को भस्मसात् कर मानव को चरमोत्कर्ष की दिशा में उन्मुख बनाने की क्षमता से परिपूर्ण होने के कारण भी श्री गणेश का धूम्रकेतु नाम सार्थक ही प्रतीत होता है।
           
           गणाध्यक्ष :- श्री गणेश का दशम नाम है। इसके दो अर्थ 1. संख्या में परिगणित हो सकने योग्य सभी पदार्थों के स्वामी तथा 2.प्रमथादि गणों के स्वामी विचार करने पर उक्त दोनों ही नाम अन्वर्थक जान पड़ते हैं। विश्व के परिगणनीय जितने भी पदार्थ हैं- श्री गणेश उन सबके स्वामी हैं। जैसा कि निम्न श्लोक से स्पष्ट है कि श्री गणेश देवता, नर, असुर,और नाग इन चारों के संस्थापक एवं चतुर्वर्ग (धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष) तथा चतुर्वेदादि के भी स्थापक हैं।

          स्वर्गेषु देवताश्चायं पृथ्व्यां नरांस्तथाऽतले ।       
          आसुरान्नागमुख्यांश्च स्थापयिष्यति बालकः ॥     
          तत्वानि चालयन् विप्रास्तस्मान्नाम्ना चतुर्भुजः ।     
          चतुर्णां विविधानां च स्थापकोऽयं प्रकीर्तितः ॥

गणों के स्वामी तो श्री गणेश हैं ही। इस पद पर वे स्वयं भगवान शंकर द्वारा प्रतिष्ठित किये गये या गणों द्वारा, इस सम्बन्ध में दोनों ही प्रकार के विवरण प्राप्त होते हैं। गणपति सम्भव के अनुसार जब भगवान् शंकर ने गज का मस्तक जोड़कर श्री गणेश को पुनर्जीवित कर दिया, तब सभी शिवगण समवेत होकर नाचते हुए अपने ऊपर उनको वरीयता देने लगे तथा गणपति कहकर सम्बोधन करते हुए उनकी जय-जयकार मनाने लगे।

              भालचन्द :- श्री गणेश का ग्यारहवाँ नाम है- भालचन्द्र । इसका भाव है जिसके मस्तक (भाल) पर चन्द्र हो । भगवान शंकर के मस्तक में विराजमान चन्द्रमा का ही यह संक्षिप्त संस्करण है। चन्द्र की उत्पत्ति विराट के मन से मानी जाती है और उस चन्द्र तत्व से सब प्राणियों के मन अनुप्राणित माने जाते हैं। अतः श्री गणेश के संदर्भ में इसका भाव यही है कि वे भाल पर चन्द्र को धारण कर उसकी शीतल निर्मल कान्ति से विश्व के सभी प्राणियों को आप्यायित किया करते हैं। इसके साथ ही भालचन्द्र से यह भी विदित होता है कि व्यक्ति का मस्तक जितना शांत होगा उतनी ही कुशलता के साथ वह अपना दायित्व निभा सकेगा। श्री गणेश गणपति अर्थात् प्रत्येक गणनीय वस्तु के पति हैं, अतः अपने मस्तिष्क को सुशान्त बनाये रखने के प्रयास में सफलता पाकर, तत्परक नाम धारण कर सफलता कामियों के लिये एक समुज्जवल मार्ग प्रशस्त किया है और बताया है कि यदि वे अपने मस्तक में चन्द्र की सी शीतलता लेकर कार्यरत होंगे तो सफलता निश्चय ही उनके पग चूमेगी।

               गजानन :- इस द्वादश नामावली का अंतिम नाम है गजानन । अर्थात हाथी के मुखवाला। गणेश के कण्ठ से ऊपर का भाग हाथी का है, इस तथ्य से सभी सुपरिचित हैं। नराकृति अर्धाङ्ग के साथ हाथी के मस्तक का मेल एक जीवित आश्चर्य ही कहा जा सकता है । परन्तु जब गजानन के सभी अवयवों पर दृष्टिपात कर हम एक निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, तब आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। मुख भाग में निम्न अवयव विशेषतः परिगणित होते हैं जिह्वा, दन्त, नासिका, कान और आँख जिह्वा सब विघ्नों की जड़ है। यह बहिर्मुखी होने के कारण परदोषगणन में विशेष रुचि लेती है परन्तु यदि मन जिह्वा के नुकीले भाग को दूसरों की ओर से हटाकर अपनी ओर कर ले,अर्थात् अपने दोषों का परिगणन करने लगे तो अनेकानेक झंझटों से मुक्त हो जाय। प्रकृति ने अन्य सभी प्राणियों के विपरीत हाथी की जिह्वा को दन्तमूल की ओर से कण्ठ की ओर लपलपाती हुई लगाया है अतः यह निर्विघ्नता विनायक विशेषता गणेश में विद्यमान रहकर उन्हें विघ्न विनायक का अन्वर्थक आश्रय बनाती है।

            दन्त के सम्बन्ध में यह कहावत प्रसिद्ध ही है कि हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और होते हैं। गणेश के दाँत भी इस बात के परिचायक हैं कि बुद्धिमान् व्यक्ति को ऊपरी दिखावा आन्तरिक भावों से सर्वथा भिन्न रखना चाहिये विशेषतः उस स्थिति में जब कि उसका सामना किसी सबल से हो परन्तु यह नीति केवल महाभारत के शब्दों में मायाचारों मायया बाधितव्यः के अनुसार एक सीमा तक ही आचरणीय है, सर्वथा एवं सवंदा अनुकरणीय नहीं इसलिए हाथी का मुख होते हुए भी दिखावे का दाँत केवल एक ही गणेश के साथ सम्पृक्त कर उन्हें एकदन्त पद से व्यवहृत किया जाता है।

                      शिव शासनत: शिव शासनत:

दिगिभेन्द्रपदट्टम् ।।

         अध्यात्म मानवीय बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, दोनों भुर्वो के बीच में भूमध्य होता है एवं यहीं पर जब ध्यान करते हैं तब आज्ञा चक्र विकसित होता है। आज्ञा चक्र के भेदन के पश्चात् ही तीसरा नेत्र विकसित होता है, आध्यात्मिक ग्रंथि क्रियाशील होती है और तब जाकर अध्यात्म का क ख ग समझ में आता है। अगस्त्य मुनि ने अपने शिष्य से कहा अगर तुम्हें दक्षिणा देने की इतनी पड़ी है तो जाओ राघवेन्द्र सरकार के मुझे दर्शन करा दो। अगस्त्य मुनि का वह शिष्य प्रभु श्रीराम एवं लक्ष्मण को ले आश्रम पर आ गया, उसने अगस्त्य मुनि से कहा श्रीराम एवं लक्ष्मण आश्रम के दरवाजे पर आपसे मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, अगस्त्य मुनि दौड़ पड़े। जैसे ही श्रीराम चंद्र एवं लक्ष्मण जी ने अगत्स्य मुनि को देखा वे उनके चरणों में साक्षात् दण्डवत हो गये, अगत्स्य मुनि की आँखों से आँसू बह निकले भगवान स्वयं चलकर अगत्स्य मुनि के आश्रम पर आये थे एवं अगत्स्य मुनि मनुष्य देह में इसलिए रुके हुए थे।

               अवतार का कोई नियम नहीं होता, प्रभु श्रीराम सब नियम धर्म से परे हैं। कब किसके चरणों में झुक जायें ? कब किसे गले लगा ले, कब क्या दे दें उनकी मर्जी । वशिष्ठ एवं विश्वामित्र कुल गुरु बन गये, राजगुरु बन गये केवल इसलिए कि अवतार के रूप में स्वयं भगवान आ रहे हैं फिर कैसी मर्यादा ? जो सेवा मिल जाये, जो चाकरी मिल जाये वही मंजूर है। वशिष्ठ ब्रह्मपुत्र हैं शुरू में वे आना कानी कर रहे थे पंडिताई हेतु परन्तु जब मालूम चला कि स्वयं भगवान आ रहे हैं तो पंडिताई भी मंजूर कर ली दिव्य रथ सजा हुआ था, यक्ष गंधर्व गान कर रहे थे, ब्रह्मलोक के पार्षद महर्षि शरभंग को ब्रह्म लोक ले जाने के लिए उनके दरवाजे पर खड़े हुए थे परन्तु जेसे ही शरभंग को पता लगा कि श्रीराम एवं श्री लक्ष्मण स्वयं उनके आश्रम आ रहे हैं उन्होंने ब्रह्मलोक का दिव्य रथ वापस कर दिया, अपनी सारी ब्रह्मोपासना तिरोहित कर दी जब भगवान स्वयं आ रहे हैं तब फिर क्या जरुरत पड़ी है ? ब्रह्मलोक जाने की। भरत को खड़ाऊ दे दी बोले राज्य करो। लात मारकर सत्ता ठुकरा दी, अयोध्या वासियों को गंगा नदी के किनारे सोते में छोड़कर चले गये, बालि को मार गिराया, समुद्र से कह दिया रास्ता दे नहीं तो तेरी सत्ता नष्ट, सुग्रीव को राजा बना दिया सत्ता उसमें प्रतिष्ठित कर दी, भीलनी शबरी को ऋषितुल्य बना दिया, विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया, उसे लंकेश घोषित कर दिया, अपनी समस्त भूमि उठाकर ब्राह्मणों को दान कर दी और ब्राह्मणों ने अमानत के तौर पर वह भूमि श्रीराम को दे दी राज्य हेतु, अश्वमेघ का घोड़ा दौड़ा दिया "रोक सके तो रोक, " कौन रोक पाया ?

               सम्पूर्ण पृथ्वी पर 11,000 वर्षों तक एक छत्र राज्य किया। सबकी सत्ता को अपने हस्तगत कर लेना, सबकी सत्ता को अपने अनुरूप चलाना ही राम राज्य है। वायु से कह दिया जब तक राम राज्य है मंद-मंद ही रहना नहीं तो तेरी सत्ता नष्ट, तू सत्ता विहीन, इन्द्र से कह दिया कभी उत्पात मत करना न अल्प वृष्टि करना न अति वृष्टि करना, औकात में रहना नहीं तो तेरी सत्ता छिन जायेगी। कुबेर से कह दिया, पर्वतों से कह दिया, नदियों से कह दिया, भूमि से कह दिया, वृक्षों से कह दिया, यक्षों से कह दिया कि अपनी छोटी-छोटी सत्ताएं मर्यादा में रखना, उत्पात मत करना, प्रपंच मत करना, मदमस्त मत होना, पगलाना मत नहीं तो समूलता के साथ नष्ट कर दिए जाओगे, अस्तित्वविहीन कर दिए जाओगे इसलिए राम राज्य में नदियाँ निर्मल थीं, अकाल मृत्यु नहीं थी अगर किसी की इच्छा मृत्यु की नहीं है तो उसकी मृत्यु नहीं होती थी। पिता के सामने पुत्र नहीं मरता था, विधवाएं नहीं थीं, पशु खूब दूध देते थे, फसलें लहराती थीं, वृक्ष सदैव फल फूल से लदे रहते थे, दुर्जनता नहीं थीं, ताले नहीं थे, बंधन नहीं थे, नपुंसकता नहीं थी, संतानहीनता नहीं थी क्योंकि राज राजेश्वर स्वयं पृथ्वी पर विद्यमान थे।

             सूर्य से कह दिया केवल स्निग्ध किरणें ही वायुमण्डल पर अवतरित करो, चंद्रमा से कह दिया हमेशा अमृत ही छिड़को, क्रूर ग्रहों से कह दिया कि किसी की भी जन्मकुण्डली में उल्टा सीधा मत बैठना, अपनी मर्यादा में रहना, राजा बनने का स्वांग मत करना, जैसा मैं कहूं वैसा करना, मेरे अनुकूल रहना, मेरे लिए परेशानी का कारण मत बनना, अपनी तुच्छ सत्ता पर मत इतराना अन्यथा सत्ता छीन ली जायेगी और सबने एक स्वर में भय के मारे, मर्यादा के मारे कि कहीं सत्ता छिन न जाये इस कारणवश राम राज्य में दुर्लभ समायोजन बनाये रखा। जिससे जो चाहा वो काम ले लिया, जिसमें चाही उसमें सत्ता स्थापित कर दी, जिसे चाहा उसे पुजवाया, जिसे चाहा उसे धूल में मिला दिया। सीता जी के लिए युद्ध किया और स्वयं सीता जी का त्याग कर दिया, हनुमान को गले लगाया।

राम नाम की सत्ता बता दी, पत्थर तैर गये, वानर राक्षसों से ज्यादा वीर हो गये, भालुओं ने राक्षसों को पीट डाला। जैसे ही श्री हनुमान माता सीता का पता लगाकर लौटे परब्रह्म परमेश्वर श्रीराम ने उनकी तारीफ करना शुरु कर दी तो श्री हनुमान रोने लगे, चरणों को पकड़ लिया बोले यह सिर्फ आपकी सत्ता है, आपके द्वारा प्रतिरोपित शक्ति है मैं कुछ नहीं हूँ, श्री हनुमान सत्ता के रहस्य को समझ गये थे ।

           अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के राजा श्री राघवेन्द्र सरकार को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं परन्तु मैं कहता हूँ वे दूसरों को मर्यादित रखते हैं उन्हें मर्यादित रहने की जरुरत नहीं है। विभीषण कहने लगा मैं रावण का दाह संस्कार नहीं करूंगा इसने मुझे लात मारकर लंका से निकाला है श्रीराम बोले हे विभीषण इसका दाह संस्कार करो पूर्ण विधान के साथ मेरी आँखों के सामने क्या तुम खुद नहीं देख रहे हो कि इसकी मृत्यु के उपरांत इसके शरीर से प्राण निकलकर मेरे चरणों में विलीन हो गये, मृत्यु के अंतिम क्षण में इसने हे राम ही कहा, मुझे नमस्कार किया अत: मैंने इसे इसकी सत्ता दी । हनुमान तो रावण के शरीर को विदीर्ण कर समस्त लंका में घुमाना चाह रहे थे परन्तु श्रीराम ने उसे एक राजा के समान मृत्यु के पश्चात् भी सम्मान दिया, उसकी अंत्येष्ठि लंकेश की भांति ही की गई। सम्पूर्ण रामायण में एक ही संदेश जाता है कि सत्ता के पीछे मत भागो, सत्ता के गुलाम मत बनो, सत्ता के लिए स्वयं की सत्ता मत खोओ अपितु जो सत्ता प्रदान कर रहा है, सत्ता जिसके हस्तगत है उसे पकड़ो।

              श्रीराम के सोलह पार्षद है, ये उनके नित्य पार्षद हैं। नित्य पार्षद का तात्पर्य है जिनकी सत्ता नित्य बनी रहती है, जो कभी सत्ता से च्युत नहीं होते। विभीषण आज भी लंकेश है, जाम्बवान आज भी राजा हैं, हनुमान आज भी राजा हैं। तंत्र का क्षेत्र बड़ा विचित्र है लंका में एक परम तांत्रोक्त नवग्रह मंदिर था जिसमें कि रावण ने अपनी तंत्र शक्ति से नवग्रहों का आह्वान कर सर्वप्रथम उन्हें बुलाया, उन्हें स्थापित किया और फिर उन्हें कैद कर लिया, उनकी सत्ता उनसे छीन ली। वास्तव में लंका में अनेकों तांत्रोक्त मंदिर थे जिनमें असंख्य देव शक्तियाँ, यक्ष शक्तियाँ, गंधर्व शक्तियाँ, देवियाँ रावण के द्वारा आह्वान करके बुला लीं गई और कालान्तर कैद कर ली गईं, उनके बाहर निकलने के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया गया, उनकी सत्ता छीन ली गई। ब्रह्मा की ब्रह्म शक्ति तक रावण ने कैद कर ली थी, यह सब कैसे हुआ ? रावण ने तो आद्या को भी ले जाना चाहा था परन्तु गणेश जी के कारण नहीं ले जा पाया।

          वास्तव में अध्यात्म में भी विनिमय प्रणाली लागू है लोग कहते हैं हमारा काम नहीं हुआ, हमें फल नहीं मिला इत्यादि इत्यादि । अध्यात्म में भी आध्यात्मिक लखपति, करोड़पति, अरबपति, असंख्य पति होते हैं जो जितना आध्यात्मिक रूप से धनवान होगा वह उतनी ही दुर्लभतम श्रेष्ठतम आध्यात्मिक प्राप्ति करने में सक्षम होगा। मंत्र जप, अनुष्ठान, तपस्या, साधना, पूजन, योग, ध्यान इत्यादि नाना प्रकार की आध्यात्मिक गतिविधियों से अध्यात्म का सकल उत्पादन होता है और इस प्रकार जातक के पास आध्यात्मिक राशि का संचय होता है। आध्यात्मिक राशि भी भौतिक राशि के समान स्थांतरित होती है। चतुर जातक आध्यात्मिक विनिमय करता है वह चाहे तो दर्शन कर सकता है, ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है, दिव्य लोक में स्थान प्राप्त कर सकता है, देवी देवताओं एवं अन्य परा शक्तियों को अपने हस्तगत भी कर सकता है।

         शिव अल्कापुरी के नजदीक निवास करते हैं, अल्कापुरी का शासक कुबेर है एवं कुबेर रावण का सौतेला भाई है। रावण ने अपनी आध्यात्मिक राशि से ब्रह्मा से वरदान खरीद लिए, अमरता प्राप्त की। वह अमर तो हो ही गया जब तक श्रीराम का नाम लिया जायेगा रावण का नाम भी लिया जायेगा। आध्यात्मिक राशि पूर्ण चैतन्य एवं प्रजनन की क्षमता से युक्त है अर्थात बड़ी तेजी से फलती-फूलती है। रावण कौन ? रावण वह जिसने कुबेर को मार भगाया एवं ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण आध्यात्मिक राशि पर एक छत्र अधिकार जमा लिया। कुबेर तो हिमालय की श्रृंखलाओं में छिप गये सब कुछ छोड़कर। रावण ऋषि-मुनियों को क्यों सताता था ? क्यों यज्ञ नहीं होने देता था ? क्यों उन्हें अनुष्ठान नहीं करने देता था ? सीधी सी बात है कहीं कोई और आध्यात्मिक राशि का संचय न कर ले, उससे ज्यादा आध्यात्मिक रूप से अमीर न हो जाये इसलिए वह यह सब करता था। अगर आप चेक काटोगे और आपके बैंक खाते में पैसा नहीं होगा तो चेक निरस्त हो जायेगा ठीक इसी प्रकार लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, हाथ जोड़ते हैं, मनोकामनाएं मांगते हैं इत्यादि इत्यादि । मनोकामना एक तरह से चैक पर लिखी हुई राशि है जो कि

आपके बैंक खाते में आध्यात्मिक राशि कम होने से पूर्ण नहीं हो पाती। इस व्यवस्था के चलते एक भारी असंतुलन हो गया रावण खुद तो यज्ञ करता, प्रकाण्ड शिव भक्त था, प्रकाण्ड कर्मकाण्डी था, वह दिन प्रतिदिन नित नये आध्यात्मिक अनुष्ठानों का अविष्कार करता, दसों महाविद्याएं सिद्ध कर रखी थी उसने परन्तु किसी अन्य को नहीं करने देता। इस प्रकार वह तीनों लोकों का एकमात्र शासक बन गया, जैसे ही प्रभु श्रीराम माता कौशल्या के गर्भ से प्रकट हुए उन्होंने अपना मुस्कुराता हुआ स्वरूप दिखाया, माता कौशल्या बोल उठीं रोइये प्रभु, रूदन कीजिए क्योंकि आप रावण के द्वारा शासित भूमि पर आ गये हैं।

           रावण का तात्पर्य है जो दूसरों को रुलाता हो, केवल रूदन का उत्पादन कराता हो अतः प्रभु श्रीराम रोये अनेकों बार रोये । वनवास जाते समय, अयोध्या वासियों से बिछड़ते समय रोये, सीता के लिए रोये, हनुमान के गले लगकर रोये, पिता की मृत्यु पर रोये, भरत के गले लगकर रोये, लक्ष्मण को शक्ति लगने पर रोये, जटायु की मृत्यु पर रोये बस यहीं रावण मार खा गया। राज राजेश्वर श्रीराम के एक-एक आँसू, राज राजेश्वरी श्री सीता के एक-एक आँसू की कीमत चुकाते चुकाते वह अपनी समस्त आध्यात्मिक राशि खो बैठा, कंगाल हो गया और मारा गया। लंका से सीता सर्वप्रथम मुक्त नहीं हुईं, सीता तो उग्रचण्डी बन अंत तक लंका में बैठी रहीं राम वियोग तो बहाना था, पहले सिंहिका मुक्त हुई, फिर नागमाता कद्रू मुक्त हुईं, फिर अनेकों देवियाँ मुक्त हुई, शनिदेव मुक्त हुए, सूर्य देव मुक्त हुए, नवग्रह मुक्त हुए, यक्ष, किन्नर मुक्त हुए । हनुमान जी ने एक-एक करके रावण के सभी तांत्रोक्त मंदिर जला डाले, यज्ञस्थान नष्ट कर दिए, सब यंत्रों का उत्कीलन कर दिया तब जाकर अंत में राज राजेश्वरी सीता ने लंका से प्रस्थान किया।

             कुंभकरण का एक पुत्र हुआ था मूल नक्षत्र में जिसे कुंभकरण ने मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण वन में छुड़वा दिया था एवं उसका नाम पड़ा मूलकासुर। रावण एवं मेघनाथ की मृत्यु के कारण वह अत्यंत ही व्यथित था उसने पुनः लंका पर कब्जा कर लिया विभीषण को मार भगाया, वह ब्राह्मणों से बोल रहा था चण्डी सीता के कारण मेरे कुल का नाश हुआ। ब्राह्मण ने कहा जा वही चण्डी तेरा सर्वनाश करेगी, राम उससे नहीं जीत पा रहे थे वे कल्प वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे तभी पुष्पक विमान से श्रीसीता आ गईं और उनके शरीर से एक दिव्य तामसी शक्ति निकली जिसने देखते ही देखते मूलकासुर का वध कर दिया परन्तु काली रूपा वह शक्ति नियंत्रित ही नहीं हो रही थी सम्पूर्ण रूप से अमर्यादित होती जा रही थीं अतः राम को उठना पड़ा और कुछ ही क्षणों में उनका स्पर्श पा वह महाकाली स्वरूपा शक्ति मर्यादित हो गई, पुनः शांत हो गई।

                   शिव शासनत: शिव शासनत: