श्री विद्योपासना में एक पुष्प जिसमें कि 360 पंखुड़ियाँ हों एवं किसी नदी के पवित्र जल को पात्र में स्थापित करके मंत्रों के द्वारा सम्पूर्ण साधना सम्पन्न कर ली जाती है, ज्यादा तामझाम की जरुरत नहीं है बस प्रत्येक साधना से पहले अपने हृदय में सम्पूर्ण सूर्य मण्डल का श्रृद्धाभाव से ध्यान कर लेना चाहिए। जो जितने श्रृद्धाभाव से सूर्य मण्डल का ध्यान करेगा उसकी साधना उतनी ही सफल होगी क्योंकि इष्ट और जीव के बीच में सूर्य ही माध्यम हैं समस्त उपासनाओं को इष्ट तक पहुँचाने का। इसलिए प्रत्येक अनुष्ठान से पूर्व, यज्ञ से पूर्व भगवान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, उनकी प्रतिष्ठा की से जाती है। सूर्य प्रसन्न तो सब ग्रह, नक्षत्र, तिथियाँ, पितर, क्षण, काल, मुहूर्त इत्यादि प्रसन्न भगवान सूर्य चाहें तो क्षण भर में अशुभ तिथि को शुभ तिथि में बदल दें, अमुहूर्त को मुहूर्त में परिवर्तन कर दें। काल चक्र सम्पूर्ण रूप से लचीला है एवं उसमें सूर्य भगवान कभी भी, कहीं भी परिवर्तित कर सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुत्र साम्ब को श्राप दे दिया था । आशीर्वाद एवं श्राप कहीं भी हस्तक्षेप करने की विशिष्ट योग्यताएं हैं या एक तरह से वीटो पावर ( विशेषाधिकार) हैं जो कि एक सौर मण्डल में मौजूद परम सौर तकनीक के माध्यम से सम्पन्न किये जा सकते हैं। प्रत्येक सौर मण्डल के प्राणी में भिन्नता होती है क्योंकि सौर मण्डल के हिसाब से ही प्राणी के शरीर की संरचना सम्भव हो पाती है । आत्मा के मूल रूप में किसी भी सौर मण्डल में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कदापि सम्भव नहीं है । यह भगवान श्रीकृष्ण का गीता उवाच है जो कि परम सत्य है अतः श्राप या आशीर्वाद का असर शरीर एवं इस पर आधारित अनुभवों पर ही होता है। आत्मा कभी श्रापित नहीं होती यह स्पष्ट रूप से समझ लीजिए। भगवान कृष्ण के श्राप से साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया, रूप पर असर पड़ा। सूर्य की किरणों का प्रत्येक शरीर विशेष भक्षण करता है एवं उससे जो किरणें बच जाती हैं उसी से रूप का निर्माण होता है। रूप एवं दृश्य सम्पूर्ण रूप से सूर्य के अधीन हैं।
भगवान सूर्य अपने कालचक्र के माध्यम से स्वयं नाना रूप धरते हैं, नाना प्रकार के दिखाई पड़ते हैं और प्रतिक्षण विचित्र विचित्र रूप,चित्र इत्यादि जगत में उपस्थित करते रहते हैं अतः साम्ब ने अपने अप्रिय रूप एवं स्थिति को पुनः अनुरूप बनाने के लिए सूर्यदेव की उपासना की, सम्पूर्ण कालचक्र की उपासना की। युधिष्ठर ने जब दरिद्रता रूपी रूप पाया तब उन्होंने भी सूर्योपासना की एवं भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर उन्हें अक्षयपात्र प्रदान किया एवं दरिद्र से पुनः कुबेर बना दिया। धृतराष्ट्र, दुर्योधन एवं उसके अनुयायी पाण्डवों को दरिद्र रूप में देखना चाह रहे थे पर किसी के चाहने से कुछ नहीं होता परन्तु सूर्यदेव युधिष्ठर को कुबेर के रूप में देखना चाह रहे थे। सूर्य देव ने स्पष्ट कहा जब तक द्रोपदी भोजन नहीं कर लेगी और अंत में अक्षय पात्र को धोकर नहीं रख तक जितना चाहो उतना भोजन देगी तब अक्षय पात्र उत्पन्न करता रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जो सूर्य ने चाहा वही हुआ।
कुंती ने मंत्र के द्वारा सूर्य देव को प्रकट कर लिया, सूर्य देव ने कहा हे कुंती मेरे द्वारा तुझे पुत्र होगा फिर भी तू कुंवारी बनी रहेगी, तेरा रूप नहीं बिगड़ेगा किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। कितनी विचित्र बात है क्योंकि बताने वाले तो आप ही हैं सूर्यदेव, आप अंधेरा कर देंगे तो कोई स्वयं को भी नहीं देख सकता। संसार में जो कुछ हम देख रहे हैं वह आप ही तो दिखा रहे हैं, आप दिखाते हैं, आप देखने की क्षमता देते हैं, आप ही सब कुछ दृश्यमान करते हैं। क्या दिखा रहे हैं? आप कुछ नहीं अपितु सिर्फ अपने नाना प्रकार के रूप, प्रतिरूप कर्ण को स्वप्न में आकर भगवान सूर्य सब कुछ बताते थे आखिर कर्ण उनके पुत्र जो ठहरे। कर्ण को कभी यह समझ में नहीं आया कि भगवान सूर्य उनके पिता हैं वे समझते थे कि सूर्य उनके इष्ट हैं। जब इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण कर कवच और कुण्डल मांगने कर्ण के पास पहुँचे तब पहले ही सूर्य देव ने उन्हें स्वप्न विद्या के माध्यम से सावधान किया कि अगर देना ही चाहते हो, तो सूर्य वंशी होने के कारण महादानी बने रहना चाहते हो तो बदले में इन्द्र से उनका वज्र मांग लेना। कर्ण महादानी इसलिए थे क्योंकि वे सूर्य पुत्र थे।
सूर्य से जो मांगो वो देते हैं वे इस नभ मण्डल के राजा हैं अतः उनका दायित्व है मांग की आपूर्ति करना। वो तो महाभारत के युद्ध में परम परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण मौजूद थे जिसके कारण पाण्डव विजयी हुए। धर्म पाण्डवों की तरफ था इसलिए समस्त सौर यांत्रिकी रखी रह गई। जमदग्नि ऋषि बाण चला रहे थे और उनकी पत्नी रेणुका उठा-उठाकर कर ला रही थीं, वे साक्षात् अग्नि पुरुष थे जब रेणुका के पाँव सूर्य की किरणों से जलने लगे तब क्रोध में आकर जमदग्नि ने सूर्य को भस्म कर डालने की ठान ली तब अचानक सूर्य देव प्रकट हो गये और बोले कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ, पृथ्वी को तपा रहा हूँ एवं उससे जो जल संचिंत कर रहा उसे कई हजार गुना रूप में वापस लौटा दूंगा । परम परमात्मा शिव एवं ब्रह्माण्ड नायिका भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सूर्य मण्डल के रूप में एक अद्वितीय, परा ब्रह्माण्डीय, परम चेतन, स्व तत्व से युक्त परम बुद्धिमान यंत्र को निर्मित किया है। सूर्य रूपी परम चैतन्य यंत्र स्व निर्णय ले सकता है, स्व उत्पादन कर सकता है, स्वयं की आत्म रक्षा कर सकता है, सोच सकता है, समझ सकता है अर्थात जो कुछ भी मनुष्य में हो रहा उससे कई असंख्य गुना सूर्य रूपी ब्रह्माण्डीय यंत्र कर सकता है।
आप एक लिफाफे पर पता लिखकर पोस्ट ऑफिस के बक्से में डाल दो कुछ समय पश्चात आपका पत्र सही जगह पहुँच जायेगा। आप अपने फोन पर कुछ नंबर दबाओ आपकी बात कहीं हो जायेगी ठीक इसी प्रकार आप सूर्य मण्डल के मध्य में पूर्ण हृदय से ध्यान करके मंत्रों के द्वारा उपासना, तर्पण, हवन, ध्यान इत्यादि सम्पन्न करो भगवान सूर्य आपकी बात आपके इष्ट तक पहुँचा देंगे । वहाँ से क्या जबाव आता है? कब जबाव आता है ? किस रूप में जबाव आता है ? यह जबाव देने वाले की इच्छा पर निर्भर है। हाँ अगर जबाव आया तो वह भी आप तक बिना विघ्न के सूर्य देव तुरंत पहुँचा देंगे ।
प्रातः स्मरणीय सूर्य श्लोक
निम्नलिखित श्लोकों का प्रातःकाल पाठ करने से बहुत कल्याण होता है, जैसे दिन अच्छा बीतता है, दुःस्वप्न, कलिदोष, शत्रु, पाप और भव के भय का नाश होता है, विष का भय नहीं होता, धर्म की वृद्धि होती है, अज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होता है, रोग नहीं होता, पूरी आयु मिलती है, विजय प्राप्त होती है, निर्धन धनी होता है, भूख-प्यास और काम की बाधा नहीं होती, सभी बाधाओं से छुटकारा मिलता है इत्यादि। निष्कामकर्मियों को भी केवल भगवत्प्रीत्यर्थ इन श्लोकों का पाठ करना चाहिए
सूयस्मरण
प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं रूपं हि
मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि ।
सामानि यस्य किरणाः प्रीवादिहेतुं
ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ॥
सूर्य का वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं जो सृष्टि आदि के कारण हैं, ब्रह्मा और शिव के स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रात: काल में उनका स्मरण करता हूँ।
त्रिदेवों के साथ नवग्रहस्मरण
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी
भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतवः कुर्वन्तु सर्वे
मम सुप्रभातम् ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु- ये सभी मेरे प्रातः काल को मंगलमय करें।
सूर्य के अर्चन के लिये विहित पत्र पुष्प
भविष्यपुराण में बतलाया गया है कि सूर्य भगवान को यदि एक आक का फूल अर्पण कर दिया जाय तो सोने की दस मुद्रा चढ़ाने का फल मिल जाता है। फूलों का तारतम्य इस प्रकार बतलाया गया है
हजार गुड़हल के फूलों से बढ़कर एक कनेर का फूल के होता है, हजार कनेर के फूलों से बढ़कर एक बिल्वपत्र, हजार बिल्व पत्रों से बढ़कर एक पद्म (सफेद रंग से भिन्न रंग वाला), हजारों रंगीन पद्म पुष्पों से बढ़कर एक मौलसिरी, हजारों मौलसिरियों से बढ़कर एक कुश का फूल, हजार कुश के फूलों से बढ़कर एक शमी का फूल, हजार शमी के फूलों से बढ़कर एक नीलकमल, हजारों नील एवं रक्त कमलों से बढ़कर केसर और लाल कनेर का फूल होता है। यदि इनके फूल न मिलें तो बदले में पत्ते चढ़ायें और पत्ते भी न मिलें तो इनके फल चढ़ायें। फूल की अपेक्षा माला में दुगुना फल प्राप्त होता है। रात में कदम्ब के फूल और मुकुर को अर्पण करे और दिन में शेष समस्त फूल। बेला दिन में और रात में भी चढ़ाना चाहिए। सूर्य भगवान पर चढ़ाने योग्य कुछ फूल ये हैं बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया (कुरण्टक), चम्पा, रोलक, कुन्द, काली कटसरैया (वाण), बर्बरमल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरूषा, कमल, मौलसिरी, अगस्त्य और पलाश के फूल तथा दूर्वा ।
कुछ समकक्ष पुष्प
शमी का फूल और बड़ी कटेरी का फूल एक समान माने जाते हैं। करवीर की कोटि में चमेली, मौलसिरी और पाटला
आते हैं। श्वेत कमल और मन्दार की श्रेणी एक है। इसी तरह नागकेसर, चम्पा, पुन्नाग और मुकुर एक समान माने जाते हैं।
विहित पत्र
बेल का पत्र, शमी का पत्ता, भँगरैया की पत्ती, तमालपत्र, तुलसी और काली तुलसी के पत्ते तथा कमल के पत्ते सूर्य भगवान की पूजा में गृहीत हैं।
सूर्य के लिये निषिद्ध फूल
गुंजा (कृष्णला), धतूरा, कांची, अपराजिता (गिरिकर्णिका), भटकटैया, तगर और अमड़ा इन्हें सूर्य पर न चढ़ायें वीरमित्रोदय ने इन्हें सूर्य पर चढ़ाने का स्पष्ट निषेध किया है, यथा
कृष्णलोन्मत्तकं काञ्ची तथा च गिरिकर्णिका
न कण्टकारिपुष्पं च तथान्यद् गन्धवर्जितम् ॥
देवीनामर्क मन्दारौ सूर्यस्य तगरं तथा ।
न चाम्रातकजैः पुष्पैरर्चनीयो दिवाकरः ॥
फूलों के चयन की कसौटी
सभी फूलों का नाम गिनाना कठिन है। सब फूल सब जगह मिलते भी नहीं अतः शास्त्र ने योग्य फूलों के चुनाव के लिये हमें एक कसौटी दी है कि जो फूल निषेध कोटि में नहीं है और रंग-रूप तथा सुगन्ध से युक्त हैं उन सभी फूलों को भगवान् को चढ़ाना चाहिए।
येषां न प्रतिषेधोऽस्ति गन्धवर्णान्वितानि च ।
तानि पुष्पाणि देयानि भानवे लोकभानवे ॥
सूर्य तंत्रम्
देवताओं के सौतेले भाई असुर दैत्य, राक्षस इत्यादि एकजुट हो गये। सामान्यतः असुर, दैत्य, राक्षस इत्यादि नकारात्मक शक्तियों के द्योतक हैं और ये आपस में ही लड़ते-मरते रहते हैं, एकजुट केवल एक ही बार हुए हैं। इन सब नकारात्मक एवं विध्वंसक शक्तियों ने एक साथ मिलकर एक लक्ष्य स्थापित किया और वह था देवताओं को पराजित करना, स्वर्ग की सत्ता से उन्हें विहीन करना एवं उनके यज्ञ भाग पर अधिकार जमाना। आखिरकार देवता बुरी तरह हारे एवं पराजित हो यत्र तत्र बिखर गये। ब्रह्मा पुत्र कश्यप की आठ पत्नियाँ थीं और उन्हीं में से एक थीं अदिती जो कि देवताओं की जननी अर्थात देवताओं की माता थीं। यह समस्त ब्रह्माण्ड कश्यप पुत्रों की कहानी कहता है। जितने भी जीव हैं चाहें वे पशु-पक्षी हों, कीट-पतंग हों या फिर देवता, असुर, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व इत्यादि सबके सब कश्यप ऋषि की ही संतान हैं।
कश्यप पत्नी अदिती ने दुःखी हो अपने देवपुत्रों की दुर्दशा के निवारण हेतु कठोर आदित्योपासना शुरु की। उनकी उपासना से प्रसन्न हो भगवान आदित्य उनके सम्मुख प्रकट हुए एवं वर मांगने को कहा। अदिती ने भगवान आदित्य को ही पुत्र के रूप में मांग लिया। भगवान आदित्य बोले मैं अपने सहस्त्रांश के द्वारा तुम्हारे गर्भ में प्रतिष्ठित हो जाऊंगा और उससे जिस सूर्य रूपी पुत्र का जन्म होगा वह दैत्यों, असुरों और दानवों के लिए काल होगा। कालान्तर अदिती गर्भवती हुईं, गर्भ धारण करने के पश्चात् भी वे अन्न जल त्यागकर घोर उपासना में लीन रहतीं। कश्यप से यह देखा नहीं गया और वे बोल उठे "मारित अण्डम" अर्थात हे अदिती तुम कठोर उपासना करके क्यों अपने गर्भ में पल रहे इस अण्ड को स्वयं मार रही हो, माता स्वयं अपने गर्भ का विनाश नहीं करती इतना सुनते ही अदिती के समस्त शरीर में प्रचण्ड तेज फूट पड़ा, कश्यप घबरा गये।
अदिती अभिमान के साथ बोलीं मेरे गर्भ को कोई नहीं मार सकता वह तो स्वयं काल बनने जा रहा है दैत्यों, दानवों और असुरों का। दूसरे ही क्षण अदिती ने अपने गर्भ को निकालकर ब्रह्माण्ड में उछाल दिया कश्यप अवाक् रह गये। अदिती के गर्भ से निकलकर स्वर्णमय अण्ड आकाश में चमकने लगा एवं उसमें से स्वर्णिम आभा का तेज लिए हुए सुन्दर शिशु ब्रह्माण्ड में सूर्य के रूप में क्रिया करने लगा। किकर्त्तव्यविमूढ कश्यप यह सब लीला देखते ही रह गये, जब चेतना बापस लौटी तो साक्षात् सूर्य उदित हो चुका था। कश्यप ने तुरंत इस नव उदित सूर्य की अति सुन्दर स्तुति कर डाली। देखते ही देखते देवता पुनः हर्ष से भर उठे और एक जुट हो दैत्यों, असुरों एवं दानवों पर टूट पड़े। कुछ ही समय में देवता अपने नवोदित भ्राता सूर्य की मदद से पुनः स्वर्ग लोक में प्रतिषित हुए। आदित्य को जो पूजे, आदित्य से जो सूर्य को उत्पन्न कर दे वही अदिती।
सूर्य का जन्म कश्यप के मुख से निकले शब्द मारित अण्डम के कारण हुआ इसलिए वे सर्वप्रथम मार्तण्ड कहलाये, कश्यप ने उनका यही नामकरण किया। यह है सूर्य तंत्र का प्रथम भाग, सूर्य के माता-पिता का परिचय, उनके भ्राताओं का परिचय, उनके जन्म लेने का कारण उनके कार्यों की व्याख्या। उनके माता-पिता हैं कश्यप और अदिती, उनके भ्राता हैं देवता, उनके शत्रु हैं असुर, दैत्य और राक्षस, उनका कार्य है धर्म की संस्थापना एवं ब्रह्मा की सृष्टि को आगे बढ़ाना, नियंत्रित एवं अनुशासित करना। इस चराचर ब्रह्माण्ड में एकमात्र ऊर्जा का स्रोत हैं सूर्य। जो देवताओं को भी ऊर्जा दें, ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त ग्रह नक्षत्रों को गति एवं लय प्रदान करें, उन्हें प्रतिक्षण ऊर्जा प्रदान करें उनका नाम है सूर्य सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। प्रत्यक्ष हैं, प्रत्यक्ष कराते हैं, प्रत्यक्षता के सिद्धांत पर चलते हैं, प्रत्यक्ष होने के लिए बाधित करते हैं एवं अप्रत्यक्षता के घोर विरोधी हैं सूर्य।
नकारात्मकता क्या है ? नकारात्मकता का चरित्र क्या है? नकारात्मकता की एकमात्र पहचान है अप्रत्यक्षता, अंधकार, दिशा विहीनता, मूर्च्छा, चेतना की शून्यता इत्यादि इन सबके घोर विरोधी हैं सूर्य रात में ही अधिकांशत: चोरी होती है, हत्यारे एकांत ढूंढते हैं कुकर्म सम्पन्न करने के लिए। जिनमें चेतना की शून्यता होती है,प्रकाश की न्यूनता होती है वे ही ठग विद्या के शिकार बनते हैं। जिनमें देखने की क्षमता नहीं होती वे ही गड्ढे में गिरते हैं। अंधकार ही मनुष्य को गिराता है। पाप कर्मों की योनि है अंधकार एवं अप्रत्यक्षता छिपकर ही वार करते हैं धूर्त, घात लगाकर हा काम तमाम करते हैं शत्रु ये सब सूर्य विरोधी हैं, प्रकाश विरोधी हैं, प्रत्यक्षता के विरोधी हैं। इनकी अपनी शैली है एवं ये ही असुर, दैत्य और राक्षस कहलाते हैं, ये ही नारकीय जीव हैं, ये ही अंधकार ढूंढते हैं। इन निशाचरों को अंधकार ही प्रिय है क्योंकि इनकी कोई पहचान नहीं है।
पहचान ही इनकी मृत्यु का कारण है। जिस दिन चोर पहचान लिया गया, जिस दिन हत्यारे की पहचान हो गई उस दिन उसका खेल खत्म।
पहचान से बचते हैं नकारात्मक काम करने वाले, वे हर उस चिन्ह को मिटाते चलते हैं जिससे कि उनकी पहचान हो जाय। वे रूप से बड़ा चिढ़ते हैं क्योंकि वे लेना जानते हैं, सिर्फ लेना देना नहीं जानते अतः गुपचुप काम करते हैं। जो देते जाते हैं सिर्फ देना ही जानते हैं उन शक्तियों का नाम है देव शक्तियाँ | दशांश ग्रहण करना और सहस्त्रांश प्रदान करना ही देव शक्तियों की पहचान है। अमृत मंथन हुआ, विष्णु मोहिनी रूप धारण कर असुर और दानवों को मोहित कर बैठे एवं अमृत कलश लेकर देवताओं की तरफ बढ़े परन्तु एक असुर बड़ा चालाक था, वह देवताओं का रूप धर सूर्य और चन्द्रमा के बीच आ बैठा और चुपके से सबको अंधकार एवं भ्रम में में डाल अमृत पान कर बैठा परन्तु सूर्य ने तुरंत ही उसका भेद खोल दिया और विष्णु से बोल उठे अरे ये तो अप्रत्यक्ष है, प्रत्यक्ष में तो यह असुर है। विष्णु ताड़ गये तुरंत ही सुदर्शन चक्र से धड़ अलग और सिर अलग कर उसे अप्रत्यक्ष ही बना दिया अर्थात राहु और केतु के रूप में वह असुर अप्रत्यक्ष ग्रह बन बैठा।
बताया किसने, प्रत्यक्ष किसने करवाया, सच्चाई किसने बताई विष्णु को ? सत्यता से परिचितकरवाया सूर्य ने, बस राहु-केतु उसी क्षण से सूर्य और चन्द्रमा के जन्म जात शत्रु बन बैठे। जब देखो तब, मारे गुस्से में चिढ़कर सूर्य और चन्द्रमा को खाने दौड़ते हैं क्योंकि भेद इन्हीं ने खोला था, इन्हीं के कारण उनकी आसुरी माया हारी थी इसलिए आज भी सूर्य और चन्द्र ग्रहण होते हैं। विष्णु तो रक्षक हैं, उन्होंने तुरंत ही सूर्य और चन्द्रमा को अपने सुदर्शन चक्र के घेरे में ले लिया जब जब राहु-केतु चिढ़कर सूर्य और चन्द्रमा को खाने दौड़ते हैं तब तब सुदर्शन चक्र का आवरण उन्हें परास्त कर वापस भगा देता है।
सूर्य को जगत चक्षु कहा गया है, समस्त ब्रह्माण्ड के नेत्र हैं सूर्य कहीं भी कुछ घट रहा हो, सात तालों के पीछे भी कुछ पापाचार हो रहा हो, पाताल में भी पाप किया जा रहा तब भी सूर्य उसे देख लेते हैं, उनके आगे सब नग्न हैं, ब्रह्माण्ड की एक भी क्रिया उनसे छिपी हुई नहीं है कुछ भी नहीं छिपता उनसे सबको प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान की आवृत्ति, सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य, सूक्ष्म से सूक्ष्म भौतिक कण और विशाल से विशाल ग्रह भी अप्रत्यक्ष नहीं रह पाता। एक न एक दिन उसे प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है।
प्रत्यक्ष रहो, दिखते रहो यही सूर्य सिद्धांत है। प्रकाश से बच नहीं पाओगे, प्रकाश के साथ अपने आपको ढालना होगा, प्रकाश के अनुरूप ही व्यवस्थित होना " होगा यही जग की रीत है। विरोध करते रहो, प्रकाश से बचते रहो कुछ नहीं होगा। ज्यादा विरोध करोगे तो भस्म कर दिए जाओगे, जलाकर राख कर दिए जाओगे, स्वयं के अंदर से भस्म होते समय प्रकाश अवश्य ही उत्पन्न हो जायेगा। सूर्य खींच लेता है, अपने आपमें और दहका कर रख देता है, भीषण से भीषण पदार्थ भी सूर्य मण्डल में दहक उठते हैं। केन्द्र में सूर्य हैं और उसके इर्द गिर्द ग्रह, नक्षत्र, उपग्रह, तारे, उल्कापिण्ड इत्यादि घूम रहे हैं।
अनंत वर्षों से प्रतिक्षण इस ब्रह्माण्ड की अनंत नकारात्मक, विध्वंसक शक्तियों को सूर्य प्रतिक्षण अपने केन्द्र में खींचकर भस्म करते चले आ रहे हैं क्योंकि वे रक्षक हैं सौर परिवार के, वे शीश हैं हमारे ग्रह मण्डल के शीश जब तक ठीक है तब तक 'शरीर क्रियाशील रह सकता है। जिस क्षण शीश में विकार आया तो शरीर की क्रियाएं तो निश्चित ही गड़बड़ा जायेंगी शीश अगर मूर्च्छा से ग्रसित हो जाय, शीश अगर चोट ग्रस्त हो जाय, शीश में अगर चेतना का आभास लुप्त हो जाय तो शरीर दूसरे ही क्षण विकार ग्रस्त हो जायेगा। शीश को मूर्च्छा आते ही शरीर भूमि पर गिर पड़ता है, असंवेदनशील हो जाता है एवं इसी स्थिति को कोमा या अंतराल कहते हैं इसमें तो क्षय निश्चित है। आज लाखों जन मानस व्यथा से ग्रस्त हैं एवं बेरोजगारों की लम्बी कतारें हैं, चारों तरफ शोषण ही शोषण है। मन व्यथित हो उठता है जब लोग परेशान दिखाई पड़ते हैं। इस सृष्टि में पशु-पक्षी, कीट-पतंग भी भूख से नहीं मरते परन्तु मनुष्य इस देश में भूख से मर रहा है, रोटी के अभाव में दम तोड़ देता है।
अध्यात्म की क्या बात की जाय? जब रोटी ही नहीं है तो अध्यात्म की बात बकवास है। क्यों मानव समाज का इस देश में इतना पतन हो गया ? इसका कारण है शीश शीश का तात्पर्य है नेतृत्व नेता, मंत्री, अफसर इत्यादि असुर हो गये, भ्रष्ट हो गये, अंधकार युक्त हो गये और सिवा लेने के देना उन्हें आता ही नहीं है। लूटते जाते हैं, शोषण करते जाते. हैं इसलिए भुखमरी है, बेरोजगारी है, विकास शून्य है, चारों तरफ कोलाहल ही कोलाहल है अतः शीश में परिवर्तन करना होगा, नये सूर्य उगाने होंगे, उच्चतम पदों पर सूर्यों को प्रतिष्ठित करना होगा। अध्यात्म जगत के लोगों को पुनः अदिती के रूप में अपने मातृत्व के अंदर घोर तप से पुनः मार्तण्ड उत्पन्न करने होंगे तब जाकर परिवर्तन सम्भव है।
सूर्य अत्यंत संवेदनशील है, संवेदनशीलता का दूसरा नाम है सूर्य सूर्य की पत्नी हैं संज्ञा संज्ञा उनकी प्रथम पत्नी हैं एवं वे सृष्टि के महान शिल्पकार विश्वकर्मा की सुपुत्री हैं। विश्वकर्मा ने अपनी पुत्री संज्ञा के साथ सूर्य का विवाह अत्यंत ही प्रसन्नता के साथ सम्पन्न किया और संज्ञा एवं सूर्य के मिलन से उत्पन्न हुए यमरान अर्थात धर्म के प्रतीक, धर्म के प्रति निष्ठावान धर्म की उत्पत्ति ही सूर्य और संज्ञा के मिलन से हुई है। सूर्य और संज्ञा के मिलन से ही स्वयंभू मनु भी उत्पन्न हुए परन्तु सूर्य का प्रचण्ड तेज संज्ञा नहीं झेल सकीं और वे चुपचाप अपने अंदर से छाया को बहन के रूप में उत्पन्न कर सूर्य की सेवा में लगाकर विश्वकर्मा अर्थात अपने पिता के घर चली गईं। सूर्य छाया को संज्ञा समझ पत्नी के रूप में व्यवहार करने लगे और छाया एवं सूर्य के मिलन से उत्पन्न हुए शनि एवं तपसि कुछ समय पश्चात संज्ञा अश्व रूप धारण कर विचरने लगीं इधर छाया ने यम एवं मनु के साथ सौतेला व्यवहार शुरू कर दिया।
एक दिन यमराज ने छाया को लात मार दी, छाया ने श्राप दे दिया यमराज को लंगड़े हो जाने का यमराज और मनु ने सूर्य से कहा कि माता कभी पुत्र को श्राप नहीं देती, सूर्य ने क्रोधित हो छाया की चोटी पकड़ लो और वास्तविकता खुल गई। सूर्य ने पुनः यमराज की टांग को जोड़ दिया एवं रुष्ट हो शनि को क्रूरता का श्राप दे दिया और अपने से दूरस्थ कर दिया। आज भी मनु की संताने मनुष्य एवं यमराज अर्थात धर्मराज के पथ पर चलने वाले धार्मिक जीव शनि का कोप झेलते रहते हैं। जो आदि में रच गया वही अनादि तक चलेगा, जो आवृत्ति आदि काल में उत्पन्न हुई बस उसी का गुंजन अनादि काल तक होता रहेगा। सनातन धर्म के ऋषि मुनियों ने जो कथाएं लिखी हैं वे परम सत्य हैं। उनके संज्ञावान मस्तिष्कों ने मनुष्यों के ऊपर से कथाएं नहीं लिखी हैं अपितु ऋषि-मुनियों के परम संज्ञावान मस्तिष्कों में तो नायक एवं नायिका के रूप में ब्रह्माण्ड की दिव्य शक्तियाँ ही विराजमान रहीं हैं। ब्रह्माण्ड के दिव्य घटनाक्रमों को उन्होंने अपने संज्ञावान मस्तिष्क के द्वारा साक्षात्कार कर परम शाश्वत आध्यात्मिक कथानकों का सृजन किया है। अतः मानुषिक बुद्धि एवं अति अप चेतना से ग्रसित मूर्ख पशुरूपी मनुष्य इन आध्यात्मिक कथानकों को समझ ही नहीं पाते हैं, अतः ऐसे महानुभावों को सूर्योपासना करनी चाहिए। जिससे कि उनके मस्तिष्क परम संज्ञावान बन सकें और वे शाश्वत कथानकों के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का प्रत्यक्षीकरण कर सकें। प्रत्यक्ष देवता की उपासना ही प्रत्यक्षीकरण करायेगी।
सूर्य को अपने तेज से चिढ़ हो गई, वे संज्ञा का विरह नहीं सह सके। संज्ञा के अभाव में सूर्य का क्या उपयोग? सूर्य की शक्ति ही संज्ञा है, अगर संज्ञा को हटा दें तो क्या उत्पन्न हुआ? शनि और तपसी, दोनों ही विध्वंसक एवं क्रूर दोनों ही महान अनिष्टकर्ता विरह से व्याकुल सूर्य विश्वकर्मा के पास पहुँचे और बोले मेरे तेज को छांट दो, मुझे सौम्य बनाओ विश्वकर्मा ने तुरंत सूर्य के तेज को यंत्र पर कसकर खराद दिया। अब खरादे हुए तेज का क्या हो ? विश्वकर्मा जी ने दूसरे ही क्षण सूर्य के खरादे हुए तेज से विष्णु का सुदर्शन चक्र, शिव का त्रिशूल, काली का खड्ग, इन्द्र का वज्र, कुबेर की शीविका, ब्रह्मा का ब्रह्म दण्ड, भैरवों के विलक्षण शस्त्र, चण्डी की तलवार, गणपति का अंकुश यम का पाश, कार्तिकेय की शक्ति पशुओं के दंत एवं सींग, पक्षियों की चोंच, सर्पों के विष इत्यादि बना डाले और सबको अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित कर दिया, तब जाकर सूर्य कुछ सौम्य हुए और उनका संज्ञा से पुनर्मिलन सम्भव हो पाया अस्त्र शस्त्रों का निर्माण ही सूर्य के तेज से सम्पन्न हो पाया है, सभी देव शक्तियों ने अपने हाथ में अस्त्र शस्त्र थाम एक प्रकार से सूर्योपासना ही सम्पन्न की है।
अश्व रूपी सूर्य एवं संज्ञा के मिलन से अश्व कुमारों का जन्म हुआ जो अश्विनी कुमार कहलाए कालान्तर इन अश्विनी कुमारों ने औषधियों को हाथ में थाम लिया शस्त्र के रूप में और देव के चिकित्सकों के रूप में प्रतिष्ठित हुए। महर्षि च्यवन ने इन्हें भी देवताओं का दर्जा दिलवाया, ये भी यज्ञ भाग के अधिकारी हुए। जो चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े हुए हैं उन्हें अपने हाथ में मूंगा या माणिक अवश्य धारण करना चाहिए क्योंकि अश्वनी कुमार मूंगे और माणिक वर्ण के ही हैं। इस प्रकार चिकित्सक भी सूर्योपासना सम्पन्न कर सकते हैं क्योंकि उन्हें देना ही देना है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने इसे समझा इसलिए वे चारों संध्याएं अवश्य करते थे। इन चार संध्याओं की उपासना के द्वारा वे सूर्य मण्डल में विद्यमान अश्विनी कुमारों से यही प्रार्थना करते थे कि हे सूर्य पुत्रों हमारा जीवन शतायु हो अर्थात हम सौ वर्ष तक देख सकें, सुन सकें, चल फिर सकें और कर्म सम्पादित कर सकें।
पुराणों में मनुष्य की आयु एक सौ पच्चीस वर्ष मानी गई है परन्तु ऋषि-मुनि सूर्य मण्डल की तांत्रोक्त उपासना के द्वारा इस आयु को भी लांघ जाते थे। अश्विनी कुमारों की कृपा से उन्हें दिव्य औषधियों एवं वनस्पतियों का प्रत्यक्षीकरण होता था जिनके माध्यम से वे समस्त प्रकार के रोगों से लड़ने में सक्षम होते थे अकबर को मुगल साम्राज्य का सूर्य बनना था वह चारों संध्या करता था आईने- अकबरी में उसकी सूर्योपासना का विस्तृतता के साथ वर्णन है। वह प्रतिदिन चारों दिशाओं में घूम- घूमकर सूर्य की प्रदक्षिणा करता एवं दोनों कानों को पकड़कर नियमित रूप से सूर्य से क्षमा याचना करता था क्योंकि सूर्योपासना तो उस काल में ईरान में अत्यंत ही प्रचलित थी। ईसा से भी सात शताब्दी पूर्व मग ब्राह्मणों मध्य एशिया में गहन रूप से सूर्योपासना प्रचलित करवाई थी मग ब्राह्मण ईरान से हिन्दुस्तान आये एवं अपने साथ सूर्य की तांत्रोक्त उपासना की विहंगम विधि लेकर आये और राजस्थान के राजपुतानों में पुनः सूर्योपासना के द्वारा अद्भुत चमत्कार प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध करवाये तब से लेकर आज तक अधिकांशतः राजपुतानों के ध्वज एवं राज चिन्ह के रूप में सूर्यदेव विद्यमान हैं।
शिव शासनत: शिव शासनत: