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ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नवग्रह रथाय नमः ।।

         सूर्य तो सुबह उगेगा ही अब कोई हो सकता है ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाये, कोई 6 बजे उठे, कोई 9 बजे उठे पर उठना तो उसे पड़ेगा ही, उठने से वह नहीं बच सकता। यह प्रज्ञा का विषय है एवं दूसरा विषय छाया का है। सूर्य की दो पत्नियाँ हैं प्रथम का नाम प्रज्ञा है और प्रज्ञा से यमराज एवं अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ है, छाया से शनि एवं तप्ति का जन्म हुआ है। प्रज्ञा से ही प्रथम मनु भी उत्पन्न हुए हैं, भगवान मनु सूर्य पुत्र हैं एवं उन्होंने मनु स्मृति नामक ग्रंथ लिखा। मनु स्मृति ग्रंथ कुछ भी नहीं केवल सौर अभियांत्रिकी के अंतर्गत किस प्रकार जीव श्रेष्ठतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है का वर्णन है। यह एक तरह से मनुष्य का संविधान है, जब जब मनुष्य मनु-स्मृति से भटकेगा वह सर्वप्रथम तो मनुष्य ही नहीं रह जायेगा और उसके ऊपर प्राकृतिक रूप से कालचक्र क्रियाशील हो जायेगा पुनः उसे मनुष्यता के रास्ते पर लाने हेतु साथ ही उसे एहसास एवं अनुभव रूपी दण्डों को भी भोगना पड़ेगा। 

         मैं नाम नहीं लिखना चाहता, अनेक लोग केवल मनु स्मृति मनुवाद को गाली एवं अपशब्द कहने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं परन्तु यह सब आधा-अधूरा ज्ञान है, आधा-अधूरा व्यर्थ का चिंतन है एवं किसी शास्त्र की गहनता और वास्तविकता के गूढ़ार्थ में जाने की अपेक्षा उसे युग एवं समय के अनुसार तोड़-फोड़कर समझने की प्रक्रिया है। मनु स्मृति जैसे ग्रंथ किसी काल विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं, किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं। मनु स्मृति की रचना तो युग युगान्तरों पूर्व हुई है। मैं यह भी नहीं कर रहा कि वर्तमान में जिसे हम वास्तविक मनु स्मृति ग्रंथ मान रहे हैं वह भी पूर्ण शुद्ध या अपने वास्तविक रूप में है वास्तविक गीता वास्तव में 120 श्लोक की थी कालान्तर उसमें अनेक विद्वानों ने युग एवं कालानुसार दुनियाभर के श्लोक ठूस दिए। आप जब गीता पढ़ेंगे तो अनेकों श्लोक ऐसे हैं जो पढ़ते से ही समझ में आ जाते हैं कि ये परम परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से नहीं निकले हुए हैं अतः युग और काल के दोष तो आ ही जाते हैं।

         इसलिए प्राचीन काल में ऋषि-मुनि सीधे सूर्य मण्डल में ध्यान करके सूर्य रश्मियों के द्वारा अपने हृदय में वेदों को आर्भिभूत करते थे। महर्षि याज्ञवल्कक्य ने सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद सूर्य रश्मियों के माध्यम से प्राप्त किये थे। सौर उपासना का तात्पर्य है सीधे प्राप्त करना एवं माध्यम को बीच से हटा देना। कृतिका नक्षत्र में भगवान सूर्य अपनी दिव्य रश्मियों से वर्षा करते हैं तब न कोई बादल होते हैं, न ही वर्षा का मौसम फिर भी बरसात होती है और योगीजन इस दिव्य स्नान का इंतजार करते रहते हैं इसे ही वे अमृत स्नान कहते हैं। भगवान सूर्य के लिए सब कुछ सम्भव है। पूर्णिमा के दिन ही लोगों को ज्ञान प्राप्त क्यों होता है ? जिन्हें ज्ञान, मोक्ष, कैवल्य पद इत्यादि प्राप्त होता है वे पोथे नहीं बांचते अपितु सीधे ध्यानस्थ हो सोम मण्डल, सूर्य मण्डल एवं अग्नि मण्डल के माध्यम से परम शुद्ध एवं चैतन्य ज्ञान अपने अंदर समाहित करते हैं। 

           विश्वामित्र ने यही किया, उन्होंने गायत्री मंत्र के माध्यम से सीधे-सीधे सूर्य के तेज को अपने अंदर उतार लिया, स्वयं वेदमयी हो गये, स्वयं तेजमयी हो गये, ब्रह्मज्ञानी बन गये। सीधे प्राप्त करने की क्षमता जब आ जाती है तब सौर अभियांत्रिकी से जातक युक्त हो जाता है, वह साक्षात् मंत्र दृष्टा बन जाता है, साक्षात् सूर्य बन जाता है। स्वामी विशुद्धानंद जी सौर विद्या में दक्ष थे अतः वे सूर्य किरणों के माध्यम से गेंदे के फूल को गुलाब के फूल में परिवर्तित कर देते थे। लोग कहते हैं कि मृत्यु दण्ड या फाँसी की सजा खत्म कर देना चाहिए पर जरा सोच कर देखिए वर्ष में मात्र एकाध दो लोगों को सरकार फाँसी देती है, वह भी जब वे अत्यंत ही जघन्य अपराध करते हैं कितना धन खर्च होता है, एक अदालत से दूसरी अदालत यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक क्षमा याचना की जाती है कितना हो हल्ला मचता है परन्तु प्रतिदिन प्रत्येक मानव बस्ती रूपी शहरों इत्यादि में अनेको लोग स्वयं अपने हाथ से बिना जल्लाद की सहायत से फाँसी का फंदा लगाते हैं और झूल जाते हैं कितने जहर खाते हैं, कितने स्वयं को दग्ध करते हैं,कितनी हत्याएं होती हैं इसे कहते हैं आत्मघात। 

           समस्त चिकित्सालय रोगियों से भरे पड़े हैं इसे कहते हैं आत्मघात। यह सब इसलिए हो रहा है मनुष्य यह नहीं समझ रहा कि वह एक सौर मण्डल विशेष के अधीन है एवं उसकी शारीरिक संरचना कालचक्र के अधीन है, वह सौर अभियांत्रिकी का एक अभिन्न हिस्सा है, वह वास्तविक मनु स्मृति को अपनी स्मृति में जगह नहीं दे रहा इसलिए जो सौर अभियांत्रिकी एक मनुष्य को सौ वर्ष तक देखने,समझने, जीवित रहने इत्यादि के लिए निर्मित कर रही है वही उसे बेकार समझ नष्ट कर रही है।

             स्वयं नष्ट करवा रही है। कालचक्र को सौर आधारित जीवन का अनुसरण करने वाले जीव की आवश्यकता है न कि सौर प्रणाली के अंतर्गत पनपने वाले विषाणुओं की जो कि सम्पूर्ण सौर प्रणाली को क्षतिग्रस्त या नष्ट करने की प्रवृत्ति से युक्त हैं। स्वामी विशुद्धानंद जी ने कहा प्रत्येक पंजीकृत भूत के अंतर्गत अपंजीकृत भूत छिपे हुए हैं अर्थात जल के अंदर आठवे अंश में वायु, अग्नि, भूमि एवं आकाश निहित हैं और सौर किरणें जब चाहें तब इन अपंजीकृत भूतों को उदित कर सकती हैं। उन्होंने यह विद्या तिब्बत में लामाओं से सीखी थी वे कालचक्र में पारंगत थे। रावण की लंका में विभीषण भी छिपे हुए थे एवं राम ने विभीषण को उदित कर दिया और वे लंकेश बन गये। 

       आप ऊपर से भूमि को देखिए गर्मी में वह सूखी दिखाई देगी परन्तु वर्षा ऋतु में वही भूमि हरितिमा से ढँक जायेगी, सूर्य देव अपनी किरणों के माध्यम से उसमें कुछ उदित कर देंगे। यमराज ने नचिकेता से कहा तू सिद्धि ले ले, राजपाट ले ले, अप्सरा ले ले, धन-दौलत ले ले, जो चाहे वो ले ले, सौ वर्ष की आयु ले ले परन्तु ब्रह्म विद्या के बारे में मत पूछ । मृत्यु के बाद क्या होता है? यह मत पूछ इस पर पर्दा पड़ा रहने दे। नचिकेता नहीं माने एवं उन्होंने सौर मण्डल के अंतर्गत तथाकथित प्राप्ति को अस्वीकार कर दिया और ब्रह्म को जानना चाहा आखिरकार थकहारकर यमराज ने उन्हें श्रीविद्योपासना बता दी। इस प्रकार नचिकेता मुक्त हो गये एवं उन्होंने यमराज के पास बैठकर समस्त मैट्रिक्स देख ली, वे गुलामी से मुक्त हुए और सूर्य मण्डल को भेदकर निकल गये। 

           वैसे तो भगवान सूर्य को अनंत रश्मियाँ हैं परन्तु उनकी सप्त रश्मियाँ प्रमुख मानी गई हैं। इन सप्त रश्मियों का पूजन कालचक्र के अंतर्गत होता है। ये सात रश्मियाँ हैं सुषुम्ना यह रश्मि कृष्ण पक्ष में क्षीण चंद्र कलाओं पर नियंत्रण करती हैं और शुक्ल पक्ष में उनमें कलाओं का आभिर्भाव करती हैं। चन्द्रमा सूर्य की सुषुम्ना रश्मि से पूर्ण कला प्राप्त करके अमृत का प्रसारण करते हैं। संसार के सभी जड़ चेतन प्राणी चंद्रमा की पूर्ण कला से क्षारित अमृत हैं। सूर्य की दूसरी प्रमुख रश्मि है सुरादना। चंद्रमा की उत्पत्ति इसी सूर्य रश्मि से होती है। 33333 देवता चंद्र मण्डल में निरंतर अमृत पान करते रहते हैं चंद्रमा में जो शीत किरणें हैं वे सूर्य की रश्मियाँ हैं एवं इसी से चंद्रमा अमृत की रक्षा करते हैं। उदन्वसु सूर्य रश्मि से मंगल ग्रह का आभिर्भाव हुआ है। मंगल प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन करते हैं, इसी रश्मि से प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन होता है। यह सूर्य रश्मि सभी प्रकार के रक्त दोषों से प्राणियों को मुक्त कराकर आरोग्य, ऐश्वर्य, तेज का अभ्युदय करती है। इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदन्वसु रश्मि मण्डलाय नमः । 

            विश्वकर्मा नाम की रश्मियाँ बुध ग्रह का निर्माण करती हैं। बुध ग्रह प्राणियों के शुभ चिंतक ग्रह हैं। इस रश्मि के उपयोग से मनुष्य की मानसिक अशांति शांत होती हैं एवं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्वकर्मा रश्मि मण्डलाय नमः । उदावसु नामक सौर रश्मियाँ बृहस्पति ग्रह का निर्माण करती हैं। बृहस्पति प्राणी मात्र के अभ्युदय निश्रेयष प्रदायक हैं। गुरु की अनुकूलता प्रतिकूलता में ही मनुष्य का उत्थान पतन होता है इस सूर्य रश्मि मण्डल के पूजन से प्रतिकूल वातावरण निरस्त होते हैं और अनुकूल वातावरण उपस्थित होते हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदावसु रश्मि मण्डलाय नमः

           विश्वव्या रश्मि मण्डल से शुक्र एवं शनि नामक ग्रह उत्पन्न होते हैं। शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं एवं मनुष्य का जीवन शुक्र से ही निर्मित होता है तो दूसरी | तरफ शनि देव मृत्यु के अधिष्ठाता हैं। जीवन एवं मृत्यु दोनों का नियंत्रण सूर्य के उक्त रश्मि मण्डल से होता है। शुक्र ग्रह एवं शनि ग्रह के अनुकूलन हेतु तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्व्च्या रश्मि मण्डलाय नमः । आकाश के सम्पूर्ण नक्षत्र हरिकेश नामक सूर्य रश्मि से उत्पन्न हुए हैं। नक्षत्रों का कार्य प्राणियों में तेज, बल वीर्य का क्षरण, द्रवण से रक्षण करना है। यह रश्मियाँ प्राणियों में तेज, बल-वीर्य के प्रभाव को बढ़ाती है एवं मरणोपरांत परलोक प्रदान करती हैं। इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हरिकेश रश्मि मण्डलाय नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सुरादना रश्मि मण्डलाय नमः मंत्र के जाप से चंद्रग्रह जातक पर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।

            भगवान सूर्य देव के रथ पूजन का अपना विशेष तांत्रिक महत्व है। मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के रथ का पूजन किया जाता है एवं सूर्य के साथ-साथ उनके नौ ग्रहों के भी रथ पूजित किए जाते हैं। ये नौ ग्रह महारथी हैं, हमेशा रथ पर सवार रहते हैं और निरंतर परिक्रमा रत रहते हैं। स्वयं भगवान सूर्य रथ पर सवार हो ध्रुव भण्डल की परिक्रमा करते रहते हैं और ध्रुव मण्डल शिशुमार चक्र की शिशुमार चक्र में भगवान नारायण विराजित हैं। ध्वज भंग नहीं होना चाहिये, किसी भी राजा के रथ पर आरुढ़ ध्वज जब भंग हो जाता है तो उसका राजपाट जाता रहता है अतः जीवन के सभी क्षेत्रों में ध्वज भंग होने से बचने हेतु नीचे लिखित मंत्रों के जप का अत्यधिक महत्व है। 

         चन्द्रमा का रथ तीन पहियों वाला है एवं उसमें श्वेत वर्ण के दस घोड़े जुते हुए हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं दस श्वेत अश्व युक्ताय चंद्र रथाय नमः । चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्यों का बना हुआ है एवं उसमें आठ पिशंग वर्ण वाले घोड़े जुते हुए हैं, इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट पिशंग अश्व युक्ताय बुध रथाय नमः । शुक्र का रथ लौह निर्मित है एवं पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के द्वारा खींचा जाता है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं लौह निर्मित शुक्र रथाय नमः । मंगल का रथ स्वर्ण निर्मित है एवं अग्नि से उत्पन्न पद्म राग मणि के समान अरुण वर्ण के आठ घोड़ों से युक्त है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय मंगल रथाय नमः । बृहस्पति का रथ भी स्वर्ण से निर्मित है एवं इसे भी आठ पाडुंर वर्ण वाले घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय बृहस्पति रथाय नमः । शनि के रथ को आकाश से उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े धीरे-धीरे खींच रहे हैं इनका मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विचित्र वर्ण अश्व युक्ताय शनि रथाय नमः । राहु का रथ मटमैले वर्ण का है एवं उसे कृष्ण वर्ण के आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय राहु रथाय नमः । केतु का रथ धुंए की आभा लिए हुए है एवं इसे भी आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय केतु रथाय नमः । 

        इस प्रकार इन मंत्रों से जब हम इन ग्रहों के रथों का पूजन करते हैं तो ये समस्त ग्रह अतिशीघ्र कृपावान हो हमारे लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर देते हैं भगवान सूर्य की दो पत्नियाँ हैं संज्ञा एवं छाया। हम सारा जीवन क्या करते हैं? सिर्फ छाया तलाशते हैं। वृक्ष की छाया मिल जाये, हमारे मकान क्या हैं? वे मात्र छाया में रहने के स्थान हैं। हमें छाया को विस्तृतता से समझना होगा। असुरक्षा की भावना छाया में रहने की प्रवृत्ति के कारण ही विकसित होती है। चाहे आर्थिक तल हो, सामाजिक तल हो, तल हो या कोई अन्य तल जब हम संग चाहते हैं, साथ चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं तब हम सिर्फ छाया की शरण में जा रहे हैं। कहीं न कहीं हम में कुछ कमी है, कुछ भय है, कुछ कोमलता है, कहीं हम छिपना चाह रहे हैं, कहीं हम बचना चाह रहे हैं, कहीं कुछ असहनीय हो रहा है इसलिए हमें छाया चाहिए, ओंट चाहिए।

 ऐसा नहीं कि छाया दिन में ही चाहिए होती है रात्रि में भी छाया चाहिए होती है। क्या हम रात्रि में खुले आकाश के नीचे सो सकते हैं? कालचक्र में भी हमारे ऊपर ग्रह, नक्षत्रों इत्यादि की छाया पड़ जाती है। जब सूर्य स्वयं छाया से मुक्त नहीं हैं तब हमारा किसी अन्य ग्रह, नक्षत्र इत्यादि का छाया से मुक्त होना बेमानी है। छाया, सूर्य और जीव के बीच एक अलौकिक आवरण है जिसके कारण सूर्य सीधे जीव के सम्पर्क में नहीं आते। दूसरी तरफ संज्ञा या प्रज्ञा हैं जो छाया मुक्त हैं। जैसे-जैसे मनुष्य साधक बनता है वह छाया को त्यागता जाता है, निकल पड़ता है

निकल पड़ता है सब कुछ छोड़कर प्रत्यक्ष की तरफ ।काल अपना काम करता रहे तो उसे करने दो, आप आत्मज्ञानी बनो एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी की शरण में जाओ, आत्मानुसंधान करो यही श्रेष्ठतम देवयान का मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलेगा उसे भगवान सूर्य आदर के साथ ऊर्ध्वगामी मार्ग प्रदान करते हैं। अंत में यही कहना चाहूंगा कि गुरु के पीछे-पीछे चलते रहे सूर्य मण्डल को भेद जाओगे। 


त्रिपुर भैरवी ।।


       भैरव शब्द भर व से बना है भ का मतलब भरण, र का मतलब रमण और व का मतलब वमन । अर्थात भरण, रमण, वमन । भैरव जी भरण करते हैं, रमण करते हैं और वमन भी करते हैं अर्थात प्रदान भी करते हैं। भर व+ई = भैरवी, भैरव की शक्ति भैरवी । जो भैरव को भी क्रियाशील बनाये वही भैरवी । शिव और भैरव के बीच भैरवी मौजूद है। शिव को भैरव में परिवर्तित भैरवी ही करती हैं। आद्य और आद्या को जोड़ने वाली शक्ति का नाम है भैरवी । माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की रथ वाहिनी त्रिपुरभैरवी कहलाती हैं। 

          त्रिपुर भैरवी अर्थात श्री ललिताम्बा की प्रमुख सहायिका, सखी, परम विश्वसनीय सहयोगिनी के रूप में क्रियाशील होती हैं। यह एक तरह से सृष्टि में क्रियात्मकता का प्रतीक हैं। उन्मुक्तता, निर्द्वन्ता, नृत्यता, आनंदता, घोरता, रुदनता, विलापता इत्यादि इनके प्रमुख चारित्रिक लक्षण हैं। सृष्टि को बुदबुदाहट इन्हीं के माध्यम से सदैव प्राप्त होती रहती है, यह अग्नि का प्रतीक है। जल को अग्नि के ऊपर रख दो वह बुदबुदाने लगेगा क्योंकि उसमें क्रियाशीलता बढ़ गई अगर यह न हो तो सृष्टि मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी। मृत्यु को प्राप्त हो रही सृष्टि को नित्य युवा, यौवनवान बनाये रखने की निरंतरता त्रिपुरभैरवी ही सम्पन्न करती हैं। सारथी जिस तरफ रथ मोड़ दे, सारथी जहाँ चाहे वहाँ रथ ले चले, सारथी चाहे तो रथ में बैठी महाराज्ञी को ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ले चले या फिर आरामदेह मार्ग पर सारथी की योग्यता । पारंगतता, चैतन्यता पर ही रथ में सवार महाराज्ञी का जीवन टिका हुआ होता है।

          कृष्ण, अर्जुन के सारथी बन गये एवं अर्जुन समस्त प्रकार के मृत्यु भय से, मृत्यु संकट से महाभारत के युद्ध में उबर गये । ठीक इसी प्रकार श्री ललिताम्बा एवं सदाशिव की सारथी त्रिपुरभैरवी उन्हें सुगमता के साथ तीनों लोकों में भ्रमण कराती रहती हैं, उनके मार्ग को निष्कंटक बनाती रहती हैं । त्रिपुर भैरवी की साधना से आध्यात्मिक जातक इस पृथ्वी पर समस्त प्रकार के उत्पीड़नों से मुक्त होकर परम आनंद को प्राप्त करता है। छीन कर, झपटकर मारकर छीन लेती हैं भैरवियाँ अगर ये चाहे तो समस्त प्रतिकूलताओं के चलते वह सब उपलब्ध करा देती हैं जिसकी जातक ने कल्पना भी नहीं की है। इन्हें अपरा डाकिनी भी कहा जाता है अत: यह किसी भी प्रकार के नियम में नहीं बंधी होती अपितु सबके सब इनकी मर्जी के अनुसार 'चलते हैं। अचानक मृत्यु हो जाना, अपघात, घोर दरिद्रता, सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देना, राजा को रंक कर देना, पौरुषवान को नपुंसक बना देना इत्यादि ये कुछ भी कर सकती है। करती क्या करती ही हैं। सभी नियमों से परे हैं त्रिपुर भैरवी । साधक और शिव के बीच रास्ता रोके त्रिपुर भैरवी खड़ी हैं इन्हीं से रास्ता मांगो।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना की आवश्यकता ।।

          आर्यावर्त, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत खण्ड का आज के समय में क्या स्वरूप है? इसकी क्या विशेषता है? क्यों यह धर्मभूमि है? यह सोचने का विषय है। आज के युग में भारतीय उपमहाद्वीप अनेक देशों में विभक्त दिखाई देता है। इस उपमहाद्वीप में आज का भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और पूर्व के सोवियत गणराज्य का कुछ हिस्सा आता है। इसी भूखण्ड में बर्मा, तिब्बत, श्री लंका इत्यादि देश एवं अन्य छोटे छोटे द्वीप भी मुख्य रूप से आते हैं। अनंत वर्षों से यहाँ का सर्वनियंता मनुष्यों के लिए ईश्वर ही रहा है। यहाँ के लोगों को ईश्वर में अटूट विश्वाश है। चाहे वह कुछ हजार वर्षों में विभिन्न धर्म समूहों में क्यों न बँट गये हों। सनातनी कहते हैं "भगवान की मर्जी, " । इसी प्रकार बौद्ध कहते हैं "बुद्धं शरणम गच्छामि" अर्थात हम तो केवल बुद्ध की शरण में हैं इत्यादि इत्यादि। इसी प्रकार सबके सब अपना जीवन ईश्वर को सौंपे हुए बैठे हैं। यह सब हमें विरासत में मिला है अपने पूर्वजों द्वारा ऊपर वर्णित जीवन शैली सबसे विशिष्ट जीवन शैली है। इससे इस महाद्वीप का प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के अत्यधिक निकट है एवं तमाम विषमताओं के चलते हुए भी वह भला है, सरल है, निष्कपट है एवं काफी हद तक मर्यादित है।
 
               आप सोचें एक अरब लोग एक छोटे से भूखण्ड पर जहाँ कि व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है काफी हद तक मर्यादित हैं। यह बात पूर्ण सत्य है। इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में कानून अत्यंत ही सख्त है, जनसंख्या अत्यधिक कम है। फिर भी मर्यादा, आत्मसंयम की नितांत कमी है। आत्म हत्या एवं हत्या अत्यधिक मात्रा में होती है। स्वार्थ प्रत्येक व्यक्ति के सिर चढ़कर बोलता है एवं मानवता शून्य है परन्तु पिछले सौ वर्षों में वैज्ञानिक क्रांति अपने चर्मोत्कर्ष तक पहुँच रही है, सारा विश्व सिमट गया है। आने वाली एक दो पीढ़ियों में वैश्वीकरण अत्यधिक तीव्र होगा। ऐसी स्थिति में स्थूल परिवर्तन अवश्यम्भावी है। आने वाले दस वर्षों में विश्व के सभी मस्तिष्क एक जैसा ही सोचने लगेंगे, संस्कृति की सीमा रेखायें मिट जायेंगी। विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप भौतिकता की तरफ अत्यधिक आकर्षित होगा। ऐसा ही होने वाला है। चक्र शुरू हो गया है। जो भारतीय मस्तिष्क अनंत काल से ईश्वर के प्रति समर्पित रहा है वह अब प्रदूषित हो जायेगा। असंतुलन की स्थिति बनेगी। असंतुलन इसलिए क्योंकि हमारे बीच अध्यात्म है एवं इसकी पूर्ति न होने पर शरीर और मस्तिष्क उचित तरीके से क्रियाशील नहीं हो पायेंगे हम कितना भी भौतिक रूप से हासिल कर लें फिर भी अपने आपको अपूर्ण महसूस करेंगे। यह अत्यंत ही भयानक स्थिति होगी। इसका क्रम शुरू हो गया है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय इसको समझने की कोशिश करनी होगी।

             आध्यात्मिक गुरुओं को पुन: चिंतन करना होगा। इस प्रकार की स्थितियाँ पूर्व में निर्मित हुई है परन्तु सांख्य योग की दृष्टि से वे ज्यादा गम्भीर नहीं थीं। अब जब जीवन अभी तक हमने ईश्वर की मर्जी से चलाया है, प्रत्येक गलत कर्म करने से पहले ईश्वर से डरे हैं तब ईश्वर ने भी हमें प्रचुरता से नवाजा है। अनंत प्रकार का पशुधन, उर्वरक भूमि, प्रचुर मात्रा में खनिज, अनेकों दिव्य नदियाँ, उत्तम जलवायु, उत्तम कृषि भूमि इत्यादि- इत्यादि हमें ईश्वर ने उपहार स्वरूप प्रदान किया है। ईश्वर भक्ति के दिव्य प्रसाद होते हैं परन्तु पिछले दो सौ वर्षों से हम अधकचरा हो गये हैं। धोबी का गधा न घर का न घाट का यही हमारी स्थिति है। 1947 में भारत खण्ड के विभाजन से पहले हम अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान, वर्तमान का भारत, नेपाल इत्यादि मिलाकर मात्र पच्चीस करोड़ के आसपास थे। चलिए अब आदि गुरु शंकराचार्य जी के जमाने में चलें। उनका जन्म ई० से लगभग छठवीं शताब्दी पूर्व हुआ था अर्थात आज से छब्बीस सौ वर्ष पहले उस समय आर्यावर्त की जनसंख्या क्या रही होगी? मुश्किल से पचास लाख मात्र । मध्यभारत में उज्जयिनी, उत्तर भारत में काशी, दक्षिण में रामेश्वरम और पश्चिम में कामाख्या एवं पूर्व में श्री नगर जो उन्हीं के द्वारा बसाया गया है दिखाई पड़ता है। न दिल्ली थी, न बम्बई, न ढाका, न लाहौर इत्यादि इत्यादि। पचास लाख की जनसंख्या में मुश्किल से दो लाख लोग सनातनी होंगे और पचास हजार बौद्ध। बाकी सब वनवासी या अन्य पिछड़े वर्ग। एक अकेले शंकराचार्य जी ने इन सबको अद्वैत की महत्ता समझा दी। अपने ही काल में उन्होंने चार मठ बना दिये अर्थात चार शंकराचार्यों की गद्दी नियुक्त कर दी। वास्तव में पाँच गद्दियाँ थीं। एक मठ मध्यप्रदेश में पचमढ़ी नामक स्थान पर था जहाँ से चारों मठों का संचालन होता था। 

पंचमठ से ही पचमढ़ी बना है। अपने जीवन काल में ही उन्होंने एक से पाँच कर दिये अर्थात लगभग दस लाख व्यक्तियों पर एक शंकराचार्य। यह स्थिति है छब्बीस सौ वर्ष पूर्व परन्तु अब स्थितियाँ बदल गयीं हैं, काल बदल गया है, जनसंख्या बढ़ गई है, इतना विशाल जनसमूह और उस पर भी पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण कैसे चार शंकराचार्य सम्हालेंगे। आदि गुरुजी की बात छोड़िये वे तो सारा जीवन सब कुछ त्यागकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण ही करते रहे। भोजन मिला तो ठीक, सवारी मिली तो ठीक, वस्त्र मिले तो ठीक । वे तो सारी जिन्दगी भिक्षा मांगते रहे । जब शहर बनाने के लिए जंगल काटने पड़ते हैं, कृषि के लिए ज्यादा भूमि की जरूरत पड़ रही है, नदियों का पानी भी कम पड़ रहा है, अरबों हाथों के लिए कार्य भी कम पड़ रहे हैं तो फिर ऐसी स्थिति में क्या चार शंकराचार्य कम नहीं हैं अगर आज की स्थिति में आदि गुरु शंकराचार्य जी जैसे प्रकाण्ड और अद्भुत चार शंकर स्वरूप हो जायें तो भी कम पड़ेंगे।

            अध्यात्म मनुष्य की प्रारम्भिक आवश्यकता है। अतः ऐसी स्थिति में इस देश को बचाने के लिए हजारों की संख्या में प्रकाण्ड, विद्वान, सिद्ध, त्यागी, निर्लिप्त और विशुद्ध आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को उठना ही होगा। यही सांख्य योग है। संख्या का मुकाबला संख्या से है अन्यथा भीड़ तंत्र अध्यात्म पर हावी हो जायेगा और हो भी रहा है। असली माल नहीं मिलेगा तो जनता नकली माल से काम चलायेगी। असली दूध के अकाल में शहर के लोग पाउडर से बना दूध हैं। क्या करें बेचारे? उनकी कोई गलती नहीं है गलती तो पदासीन महानुभावों की है। मैं अध्यात्म को केवल ईश्वर की मर्जी नहीं मानता हूँ। बुद्धि, प्रबंधन, सकारात्मक सोच इत्यादि ईश्वर के द्वारा मनुष्य को इसीलिए प्रदान किये गये हैं कि ईश्वर को मालूम है कि आने वाले समय में युग किस प्रकार का आयेगा। इस युग में केवल ईश्वर की मर्जी से जीवन नहीं चलेगा। ईश्वर की मर्जी से अगर जीवन चलाओगे तो फिर संसाधनों का अकाल, पानी का हवा का अकाल, वर्षा का अकाल, भूमि का अकाल देखना ही पड़ेगा। नारकीय जीवन में आध्यात्मिक साधना कैसे सम्पन्न होगी भला यह कोई बताये। जब प्रशासनिक पद कई गुना बढ़ गये हैं, अनेकों मंत्री हैं, अनेकों मुख्यमंत्री हैं इत्यादि इत्यादि तो फिर अध्यात्म के पद क्यों नहीं बढ़ते गृहस्थों की संख्या इतनी ज्यादा है तो फिर गृहस्थों को भी शंकराचार्य चाहिए होगा। प्रभु श्री कृष्ण ने द्वापर यही संदेश दिया। वे गृहस्थ बनकर रहे हैं। उनके संदेश को आप समझे या न समझे यह अलग बात है। साधनायें तो करनी पड़ेगी, आंतरिक शक्ति का उदय करना ही पड़ेगा, गुरुबल तो प्राप्त करना ही पड़ेगा अन्यथा भीड़ में खोकर रह जाओगे । 

           इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के माहौल में, संसाधनों के अभाव में, चारों तरफ से दबाव और तनाव की स्थिति में अध्यात्म का बल ही नैया पार लगायेगा अन्यथा टूट जाओगे, विकृत हो जाइएगा, पागल हो जाओगे, कहीं के नहीं रहोगे । साधनाऐं तभी सम्पन्न हो सकती हैं जब श्रेष्ठ गुरु हो, श्रेष्ठ साधक हो, उचित माहौल हो । सभी काल में सब साधनाऐं उचित नहीं होती हैं। इस काल में श्री सिद्धि या श्री साधना अत्यधिक आवश्यक है। मनुष्यों की समस्त समस्याऐं इसके द्वारा निवारण की जा सकती हैं। शत्रु भय आज के युग में अत्यधिक है अतः महाकाली साधना भी प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है। प्रदूषण के वातावरण में चारों में तरफ सब कुछ प्रदूषित है। अनेकों अदृश्य रसायन रक्त में मिलते जा रहे हैं जिसके कारण शरीर की शक्ति घटती जा रही है। ऐसी स्थिति में योग साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिए नितांत आवश्यक हैं। बीमार व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर ही नहीं सकता। साधना निरन्तरता का क्रम है। प्रतिक्षण सलाह, मार्गदर्शन और गुरु कृपा की आवश्यकता है। साधना ही जीवन है। संतुलन ही साधना है। इन्द्रियों को तो साधना पड़ेगा। युग बदल गया, काल बदल गया, ऋतु चक्र बदल गये परन्तु मनुष्य का शरीर नहीं बदला है इसीलिए अपने शरीर को ध्यान में रखते हुए साधनाऐं कीजिए। मस्तिष्क को साधिये, मानस को साधिए, ज्ञान को साधिए, विज्ञान को साधिए, ब्रह्म को साधिए, शिव को साधिए और अंत में मृत्यु को साधिए । जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के आगे लगे घोड़ों को साध रहे हैं, कौरवों को साध रहे हैं, अर्जुन को साध रहे हैं, यही नहीं समस्त ब्रह्माण्ड को साध रहे हैं। साधना ही गीता रहस्य है।
    
                      शिव शासनत: शिव शासनत:

श्रीकृष्ण पूजन ।।

       साधक को चाहिए कि वह स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल में स्वच्छ आसन पर उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जाये। पूजन के लिए आवश्यक समस्त सामग्री यथा कुंकुम, अक्षत, मौली, जल, पुष्प, दूध, दही, घृत, वस्त्र, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अपने पास रख लें ताकि पूजन के मध्य बार-बार न उठना पड़े। अपने सम्मुख किसी चौकी में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित कर लें। धूप दीप आदि जला लें ताकि वातावरण शुद्ध हो जाये।

पवित्रीकरण
      सर्वप्रथम अपने बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर छिड़कें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें- 

ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा। 
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥

आचमन
          पवित्रीकरण के पश्चात आचमनी में जल लेकर क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये तीन बार जल पियें। 

ॐ केशवाय नमः । 
ॐ माधवाय नमः । 
ॐ गोविन्दाय नमः । 

आचमन के उपरांत हस्त प्रक्षालन (हाथ धोना) कर लें।

गणपति स्मरण
     
निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये दोनों हाथ जोड़कर पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान गणपति का स्मरण करें साथ हो अन्य देवी देवताओं का भी स्मरण करें

ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
ॐ उमा महेश्वराभ्यां नमः । 
ॐ वाणी हिरण्य गर्भाभ्यां नमः ।
ॐ शचीपुरंदराभ्यां नमः।
ॐ मातृ पितृ चरणकमलेभ्यो नमः।
ॐ ग्राम देवताभ्यां नमः।
ॐ स्थान देवताभ्यो नमः।
ॐ कुल देवताभ्यो नमः।
ॐ सर्वेभ्यो देवताभ्यो नमः।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः । 
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्न नाशो विनायकः ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणयादपि ॥
 विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥

संकल्प
      
कुंकुम, अक्षत मिश्रित जल दाहिने हाथ में लेकर निम्न मंत्रोच्चार करते हुये संकल्प लें

ॐ विष्णु विष्णु र्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्राह्मणोऽहि द्वितीय परार्धे श्वेत वाराह कल्पे जम्बू द्वीपे भरत खण्डे आर्यावर्तेक देशान्तर्गते पुण्य क्षेत्रे, कलियुगे कलि प्रथम चरणे अमुक मासे ( महीने का नाम लें) अमुक पक्षे ( पक्ष बोलें ) अमुक तिथौ (तिथि बोलें) अमुक व ( दिन का नाम लें) अमुक गोत्रोत्पन्न: (अपना गोत्र बोलें ) अमुक (नाम बोलें) शर्माऽहं भगवतो महापुरुषस्य कृष्णस्य विशिष्ट पूजनं अहं करिष्ये। उपरोक्त संकल्प मंत्र पूर्ण होने पर जल को भूमि पर छोड़ दें।

दीप पूजन
दीपक पर कुंकुम अक्षत चढ़ायें, निम्न मंत्र का उच्चारण करें

भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षि हविघ्रकृतः यावत् कर्म समाप्तिः स्यात तावदत्र स्थिरो भव। (ॐ दीपदेवतायै नमः)

कलश पूजन

        अपने सम्मुख भगवान श्रीकृष्ण के आसन की दाहिनी ओर कलश स्थापित करें और क्रमशः निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये चारों दिशाओं में कलश पर कुंकुम से तिलक करें 

पूर्वे ऋग्वेदाय नमः । 
उत्तरे यजुर्वेदाय नमः ।
पश्चिमे सामवेदाय नमः । 
दक्षिणे अर्थवेदाय नमः । 

अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये कलश में जल डालें

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती, नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु । 
जल डालने के उपरांत "अक्षतानि समर्पयामि" का उच्चारण करते हुये कलश में अक्षत डाल दें तत्पश्चात निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये एक सुपारी अर्पित करें

ॐ या फलिनीर्या अफला अपुष्पायाश्च पुष्पणी, वृहस्पतिः प्रसूतास्तन्नो मुञ्चन्ति ( गूं) हसः।

फिर कलश के ऊपर पंच पल्लव डाल दें तथा उस पर नारियल स्थापित करें (नारियल में मौली बंधी हुयी हो) अब कलश को स्नान कराकर चन्दन, कुंकुम, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि समर्पित करें तत्पश्चात दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करें

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः, मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणः स्थिता । कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्त द्वीपा वसुन्धरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वणः। अंगैश्च सहिता सर्वे कलशं तु समाश्रितः, अत्र गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरस्तथा, आयान्तु यजमानस्थ दुरिक्षय कारकाः । ॐ कलशस्य देवता अपां पतये नमः।

गुरु पूजन
         यद्यपि योगी योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं। तथापि यदि साधक ने किसी भी गुरु से दीक्षा या गुरु मंत्र लिया है अथवा नहीं भी लिया तो निम्नानुसार मंत्रोच्चार से ब्रह्माण्ड के सभी गुरुओं का पूजन हो जाता है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ 
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरि। 
यत् कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
गुरु चित्र पर पुष्प से जल छिड़ककर उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछ दें तत्पश्चात पुष्प, धूप, दीप, अक्षत कुंकुम आदि से गुरु का पूजन करें तथा निम्न मंत्र का मानसिक जप करते हुये अपने गुरु से प्रार्थना करें कि वे पूजन में सूक्ष्म रूप से उपस्थित रहकर पूजन को पूर्णता प्रदान करें-

।।ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः।।

दोनों हाथ जोड़कर पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें

बर्हापीडं नटवर वपुः कर्णयोः कर्णिकारं, विभवासा कनक कपिशं वैजयंती च मालां । 
रुधान वेणूरधरसुदया पूरयन गोपवृन्दैः, वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्रविशद् गीतकीर्तिः ॥ (ध्यानं समर्पयामि श्रीकृष्णाय नमः )

आसन
          दोनों हाथ में पुष्प लेकर भगवान श्रीकृष्ण को आसन दें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

ॐ पुरुष एवेदं (गूं) यद्भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्ने नातिरोहति ॥ ( पुष्पासनं समर्पयामि )
पाद्य--
        आचमनी में जल लेकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में दो बार अर्पित करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायंश्च पुरुषः।
पादोऽस्य विश्व भूतानि त्रिपादस्यामृतन्दित्। (पाद्यं समर्पयामि)
अर्ध्य
         ताम्र पात्र में जल, कुंकुम, चंदन, अक्षत व पुष्प लेकर भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें 

ताम्रपात्रे स्थितं तोयं गंध पुष्प फलान्वितम् । 
सहिरण्यं ददाम्यर्ध्यं गृहाण परमेश्वर॥ (अर्ध्यं समर्पयामि)

आचमन
          आचमनी में जल लेकर भगवान को अर्पित करें 

सर्व तीर्थ समानीतं सुगन्धिं निर्मलं जलं । 
आचमनार्थं मया दन्तं गृहाण परमेश्वर ॥

स्नान
        पुष्प से जल लेकर भगवान श्रीकृष्ण को स्नान करायें- 

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु॥ ( स्नानं समर्पयामि )

दुग्ध
        भगवान श्री गणेश की प्रतिमा के समक्ष एक पात्र रखकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए पात्र में दुग्ध अर्पित करें 

कामधेनु समुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम् । 
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् ॥ ( दुग्ध स्नानं समर्पयामि )

दधी
         निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये चित्र के समक्ष रखे पात्र में दही अर्पित करें 

पयसस्तु समुद्भुतं मधुराम्लं शशिप्रभम् । 
दध्यानीतं मयादेव स्नानार्थं प्रतिगृहताम्॥ ( दधि स्नानं समर्पयामि )

घृत 
          निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को घी अर्पित करें 

नवनीत समुत्पन्नं सर्वसंतोषकारकम् ।
 घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ (घृत स्त्रानं समर्पयामि

मधु 
        निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को शहद (मधु) से स्नान करायें 

तरुपुष्प समुद्भूतं सुस्वादु मधुरं मधु । 
तेज: पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ ( मधु स्नानं समर्पयामि )

शर्करा स्नान 
        अब भगवान श्रीकृष्ण को शक्कर से स्नान करायें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

इक्षुसार समुद्भूता शर्करा पुष्टिकारिका, मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् । ( शर्करा स्त्रानं समर्पयामि)

शुद्धोदक स्नान
           शर्करा स्नान के पश्चात आचमनी में जल लेकर स्नान हेतु पात्र में अर्पित करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
कावेरी नर्मदावेणी तुंगभद्रा सरस्वती गंगा च यमुना तोयं मया स्नानार्थमर्पितम् । (शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि )

वस्त्रोपवस्त्र
            भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को स्वच्छ वस्त्र से पोंछकर निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये दो वस्त्र अर्पित करें 

सर्वभूषादिके सौम्ये लोक लज्जा निवारणे, मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यताम् । ( वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि )

तिलक
          निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये चंदन कुंकुम से भगवान श्रीकृष्ण का तिलक करें 

श्रीखण्ड चन्दनं दित्यं गंधाढ्यं सुमनोहरम् । 
विलेपन सुरश्रेष्ठ चन्दनम् प्रतिगृह्यताम् ।

अक्षत
            निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को अक्षत अर्पित करें 

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ता सुशोभिता, मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर । (अक्षतान् समर्पयामि) 

पुष्प
           अब हाथ में नाना प्रकार के पुष्प लेकर निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये भगवान को पुष्प अर्पित करें

पद्म शंखज पुष्पादि शत पत्रविचित्रताम् ।
पुष्पमालां प्रयच्छामि गृहाण परमेश्वरः॥(पुष्पं समर्पयामि)

तुलसीदल
               
अब तुलसी पत्रों पर चन्दन लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें निम्र मंत्रोच्चार करें 

इदं सचन्दनं तुलसीदलं समर्पयामि नमः।

धूप-दीप
           धूप, दीप जलाकर भगवान श्रीकृष्ण को दिखायें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

वनस्पति रसोद्भूतः गन्धाढ्य सुमनोहरः । 
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोभ्यं प्रतिगृह्यताम् ।। (धूपं दीपं दर्शयामि नमः)

नैवेद्य
         अब नाना प्रकार की मिठाइयाँ भोज्य पदार्थ नैवेद्य के रूप में भगवान को अर्पित करें निम्नानुसार मंत्र का उच्चारण करें 

।।ॐ कृष्णाय वासुदेवाय नैवेद्यं निवेदयामि नमः ॥

आचमन
           नैवेद्य समर्पित करने के पश्चात निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये आचमनी में जल लेकर पाँच बार अर्पित करें। 

ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ।

फल
          विविध प्रकार के फल भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव । 
तेन मे सफलावाप्तिः भवेजन्मनि जन्मनि॥ (फलं समर्पयामि नमः) तत्पश्चात ताम्बूल (पान का पत्ता) में लौंग इलायची रखकर भगवान को अर्पित करें।

पुष्पांजलि
             दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न मंत्रोच्चार करते हुये भगवान को पुष्पांजलि अर्पित करें 

नाना सुगन्ध पुष्पाणि यथा कालोद्भवानि च । पुष्पांजलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्वर ॥

नमस्कार
           निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये दोनों हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम करें 

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
 प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ 

मंत्र जाप
         निम्र मंत्र का कम से कम 15 मिनिट तक मानसिक जप करें 
।। ॐ कृं कृष्णाय ब्रह्मण्य देवाय नमः ।।

प्रार्थना
            अंत में दोनों हाथ जोड़कर निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये पूर्ण सौभाग्य, समृद्धि एवं सफलता के लिये भगवान से प्रार्थना करें 
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्विताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥

आरती

आरती कुंज विहारी की, श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की।
 गले में वैजन्ती माला, बजावे मुरली मधुर बाला। 
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नन्द के आनन्द नन्दलाला । 
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली। 
लतन में ठाढ़े बनमाली, भ्रमर सी अलक । 
कस्तूरी तिलक चंद्र सी झलक, ललित छबि श्यामा प्यारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती .......
कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसै। 
गगनसों सुमन रासि बरसै बजै मुरचंग । 
मधुर मिरदंग ग्वालनी संग, अतुल रति गोप कुमारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती.........
जहाँ ते प्रकट भई गंगा, सकल मल हारिणी श्री गंगा । 
स्मरन ते होत मोह भंगा, बसी सिव सीस, जटा के बीच । 
हरै अघ कीच, चरन छवि श्रीबनवारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती.........
 चमकती उज्जवल तट रेनु, बज रही वृन्दावन बेनु । 
चहूं दिसि गोपि ग्वाल धेनु, हंसत मृदु मंद, चांदनी चंद कटत भव फन्द, टेर सुन दीन दुखारी की। 

श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती...........

श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः ।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥१४॥

यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः ।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा ॥१५॥

ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके ।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम् ॥१६॥

तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत् ।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम् ॥१७॥

तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् ।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम् ॥१८॥

नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः ।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥१९॥

॥ इति श्रीमदूर्ध्वाम्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥