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दीक्षा ।।

 

         मनुष्य के अनुवांशिक बीज में बीस गुण हैं और वहीं मनष्य के सबसे निकट के प्राणी वनमानुष के अनुवांशिक बीज में 18 गुण हैं। यह 18 गुण मनुष्य के 18 गुणों के समान हैं परन्तु मनुष्य दो गुण वनमानुष से ज्यादा लिये हुए है। अनुवांशिक बीज में गुण का तात्पर्य उन संरचनाओं से है जो कि सर्पाकार अनुवांशिक संरचना के मध्य में सीधी रेखाओं के रूप में स्थित होते हैं। मात्र दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों के कारण मनुष्य इस ग्रह का नायक बन गया है तो वहीं दो अति सूक्ष्म आवृत्तियों की कमी के कारण वनमानुष आज भी जंगलों में भटक रहा है। अनुवांशिक बीज में एक अति सूक्ष्म आवृत्ति व्यक्ति को रूप और सौन्दर्य का प्रतीक बनाती है, एक विशेष आवृत्ति व्यक्ति को इस विश्व का सबसे बड़ा वैज्ञानिक बना देने में भी सक्षम है।

        इसके ठीक विपरीत थोड़ी सी भी अनुवांशिक विकृति मनुष्य को अनेकों प्रकार की समस्याओं से ग्रसित कर देगी। सारा जीवन अव्यवस्थित हो जायेगा, पृथ्वी उसके लिये नर्क बन जायेगी। परिणाम स्थूल एवं अति विशाल होते हैं परन्तु कारण अत्यंत ही सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं। संतुलन और असंतुलन की यह दिव्य व्यवस्था कर्म बंधनों के साथ-साथ आशीर्वाद, वरदान, दीक्षा, शाप, हाय इत्यादि से निर्मित होती है। मनुष्य के रूप में अपने आपको पूर्ण कहना मूर्खता की निशानी है। पूर्णता क्षणभंगुर है। अपूर्णता निरंतर बनी रहती है। मनुष्य के कर्म निरंतर पूर्णता प्राप्ति के लिये सम्पन्न होते रहना चाहिये । 

           अध्यात्म का तात्पर्य प्रबल सम्भावनाओं से है। सम्भावना ही जीवन है तुरंत निर्णय पर पहुँच जाना नकारात्मक प्रवृत्ति का द्योतक है। चिंतनशील और बुद्धिमता पूर्ण जीवन ही मनुष्य जाति की पहचान है। प्रतिक्षण स्वयं में सुधार करने की प्रवृत्ति ही संत प्रवृत्ति है, एक योगी के गुण हैं। अध्यात्म किस काम का अगर वह व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर मानवता के काम न आ सके। अध्यात्म का कार्य ही निरंतर सुधार की प्रक्रिया को जारी रखना है। जिस क्षण आप अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं उसी क्षण सकारात्मक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। गुरु क्षेत्र, धर्म क्षेत्र, तंत्र क्षेत्र, विज्ञान क्षेत्र, योग क्षेत्र इत्यादि इत्यादि यह सब कुछ एक संतुलनात्मक क्षेत्र को देते हैं जिसे कि अध्यात्म क्षेत्र कहा जाता है। यही सब अध्यात्म क्षेत्र के महत्वपूर्ण अंग हैं। अध्यात्म क्षेत्र को स्थूल रूप में मत लीजिये ।

         स्थूल दृष्टि पशुतुल्य दृष्टि है। 99 प्रतिशत मनुष्य इसी दृष्टि के कारण भटक रहा है। पशुतुल्य दृष्टि केवल प्रतिफल को ही देख सकती है कारण जानने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टिकोण ही इतनी भेदन क्षमता रखता है कि लाख पर्दों के पीछे छिपी वास्तविकता को नग्न स्वरूप में देखने की क्षमता प्रदान कर सकता है। परिवर्तन मूल से सम्भव होगा। अव्यवस्था और समस्या मूल से समाप्त होगी। सभी समस्याओं के मूल में कुछ गिने चुने कारण ही है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मात्र बीस गुण आवृत्तियाँ मनुष्य का निर्माण कर बैठती हैं। जटिलता के मूल में सरलता ही है। 

            तुलसीदास जी एक बार गंगा स्नान कर काशी की गली से गुजर रहे थे अनजाने में उनकी धोती पर से कुछ बूंदें बगल से गुजर रही वेश्या के ऊपर गिर गई देखते ही देखते कुछ ही क्षणों में वेश्या की सम्पूर्ण मनोवृत्ति ही बदल गई और कालान्तर वही स्त्री उनकी अनन्य शिष्या बन बैठी लाख उपदेश, बड़ी-बड़ी बातें,अनेकों ग्रंथों का अध्ययन इत्यादि जो परिवर्तन नहीं कर सकते हैं वह मात्र एक साधारण से स्पर्श से हो जाता है। दीक्षा संस्कार में स्पर्श शरीर का नहीं होता है, स्पर्श किया जाता है प्राणों को । परिवर्तन किया जाता है प्राणों की आवृत्ति में, प्राणों को उर्ध्वगामी बनाया जाता है, उन्हें पहुँचाया जाता है मस्तिष्क के दिव्य आध्यात्मिक केन्द्रों में, आगे का काम अपने आप हो जाता है। वर्षा के बादल तो बस माध्यम हैं जल बरसाने का। बीज स्वतः ही गीली भूमि पर अपने आप अंकुरित हो जाते हैं। दीक्षा न तो किसी ने बनाई है, न ही व्यक्ति विशेष की अमानत है, लेने वाला कौन है, देने वाला कौन है यह भी विचार का विषय नहीं है। विचार स्थूल दृष्टि के द्योतक हैं। 
        
       अध्यात्म के इस अद्भुत मार्ग में अगले क्षण क्या होगा किसी को नहीं पता। सबके अपने अलग-अलग विधान हैं। तुलना, स्पर्धा, आलोचना इन सबका महत्व अध्यात्म क्षेत्र में शून्य है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना एक गोचर विषय है। केवल मनुष्य ही दीक्षाओं का अधिकारी नहीं है। वृक्षों को भी संस्कारित किया जा सकता है, पाषाण को भी प्राण प्रतिष्ठित किया जा सकता है। शक्ति का विसर्जन वनों में भी किया जा सकता है, पशुओं को भी स्पर्श की जरूरत है इन्हें भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं। प्रदान करने वाले की मर्जी किसी को भी प्रदान कर सकता है। सौन्दर्य, स्वास्थ्य, चेतना केवल मनुष्यों का ही विषय नहीं है। मनुष्य को दीक्षा प्रदान करना सबसे टेढ़ी खीर है। 80 प्रतिशत पुस्तकें, प्रवचन, विचार इत्यादि इतनी प्रदूषित ध्वनि उत्पन्न करते हैं कि सारा मस्तिष्क ध्वनि तरंगों का कूड़ाघर बन जाता है। सोते वक्त भी मस्तिष्क में विचार घुमड़ते रहते हैं। मनुष्यों के साथ यही समस्या है। ध्वनि रूपी कचरा दिव्य ध्वनि की आवृत्तियों के द्वारा ही निकाला जा सकता है इसके लिये शल्य चिकित्सा या फिर अन्य कोई चिकित्सा पद्धति उपयोगी नहीं है।

      दिव्य मंत्रों का जाप इसीलिये करवाया जाता है जिससे कि दिमाग में बैठी व्यर्थ की ध्वनि तरंगें निकल भागे। यह तो हुआ गोचर विषय अगोचर विषय में भी दीक्षायें प्रदान की जाती हैं इसके लिये काल अत्यधिक आवश्यक हैं। सम्प्रेषण की क्रिया अत्यंत ही विचित्र है। इस क्रिया को मानवीय दृष्टिकोण से न देखें यह अत्यंत ही गम्भीर वैज्ञानिक और तीव्र परिवर्तनकारी में व्यवस्था है। शक्तिपात उतनी ही मात्रा में किया जाता है जितना कि आप पचा सकें । एक किलो घी पिलाने से क्या फायदा जब छटाक भर घी भी आप पचाने की क्षमता न रखते हों । आपका जीवन श्री युक्त, ऐश्वर्यपूर्ण एवं मंगलमय हो बस यही कामना है, यही लक्ष्य है। समाज ही पुस्तक पढ़ता है, आपको सम्मान देता है, आपका आदर करता है, आपके गले में पुष्प माला डालता है उसका ऋण चुकाना अध्यात्म के पथ पर चले प्रत्येक यात्री का परम कर्तव्य है। गंगा किनारे बैठा खड़ताल बजाने वाला न तो आपको सुनेगा, न ही आपको पढ़ेगा वह तो कहेगा नौकरी छोड़ दो, पत्नी छोड़ दो, घर त्याग दो इत्यादि इत्यादि बस समस्याऐं अपने आप खत्म हो जायेंगी। उनका विधान उन्हें ही मुबारक हो। इससे समाज के प्रति ऋण मुक्ति कभी नहीं हो पायेगी । जो ऋण से मुक्त नहीं है उसकी गति अधम ही होगी ।
                       
   शिव शासनत: शिव शासनत:

मंत्र करते हैं सकारात्मक ऊर्जा का संचार ।।

मंत्र सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं और नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करते हैं मंत्रोच्चारण के बाद आप भी कई बार अपने अंदर एक आध्यात्मिक शांति महसूस करते होंगे इसका कारण यही है कि जो नकारात्मक ऊर्जा हमें अशांत रखती है वह दूर हो जाती है और उसका स्थान सकारात्मक ऊर्जा ले लेती है इन मंत्रों से न केवल साधक मात्र के मन को शांति मिलती है अपितु अपने आस पास के वातावरण में इसी सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है मंत्र की क्षमता और साधक की सच्चे मन से की गई साधना पर ही सकारात्मक ऊर्जा का यह संचार निर्भर होता किसी भी वैदिक मंत्र में ऋषि छंद और देवता ये तीन पक्ष होते हैं इनमें ऋषि का संबंध मस्तिष्क अथवा मन या कहें दिमाग से जुड़ा होता है छंद मंत्र के जाप उसकी बनावट अर्थात रचना और ताल अर्थात लय और गति से संबंधित होते हैं तो वहीं देवता लौकिक ऊर्जा का क्षेत्र है यदि मंत्रों के गहरे अर्थ को समझा जाये तो इन मंत्रों से सही मायनों में किसी भी व्यक्ति को लाभ निश्चित रुप से पंहुच सकता है मंत्रों की ध्वनियों से किसी न किसी अभिप्राय अर्थात अर्थ जुड़ा होना चाहिये जब तक हम उसके अर्थ से अंजान हैं तब तक वह अपना काम नहीं करते मात्र किसी किताब से मंत्र को पढ़कर उसका लाभ नहीं मिल सकता उसके लिये गुरु के मार्गदर्शन में विधि विधान के साथ उसका उच्चारण किया जाना आवश्यक होता है

मंत्रोच्चारण से होती है आनंदानुभूति
जब हम किसी भी मंत्र का जाप करते हैं तो उसकी सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव कर सकते हैं उदाहरण के लिये ॐ, गायत्री मंत्र शांतिपाठ महामृत्युंजय आदि मंत्रों को लिया जा सकता है। एक मात्र ॐ का जाप करने से ही हमारा चित शांत होने लगता है और केंद्रित भी धीरे धीरे हम अपने अंदर झांकना शुरु करते हैं एक असीम आनंद की अनुभूति भी आप कर सकते हैं

कहा जाता है किसी व्यक्ति द्वारा मंत्रों की खोज नहीं हुई बल्कि सालों साल की गई तपस्या के फलस्वरुप ऋषि मुनियों ने ये मंत्र इजाद किये वैसे ही जैसे वर्तमान युग में वैज्ञानिक नए नए आविष्का नए नए सिद्धांत खोजतें हैं एक एक आविष्कार पर कई-कई व्यक्तियों का जीवन लग जाता है उस लिहाज से हमारे ऋषि मुनियों को हम आध्यात्मिक वैज्ञानिक कह सकते हैं जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु सकारात्मक ऊर्जा के संचार में वाहक मंत्रों की खोज की

ॐ, गायत्री मंत्र शांति पाठ और महामृत्युजय जैसे मंत्र तो मंत्रोच्चारण में भी आसान हैं और इनका अर्थ भी हर किसी की समझ में आ सकता है इसलिये यह मंत्र काफी लोकप्रिय भी हैं

पुनर्जन्म ।।


           एक गाँव की स्त्री गर्भावस्था के दौरान खेत में काम कर रही थी। अचानक प्रसव पीड़ा हुई एवं उसने खेत में ही शिशु को जन्म दे दिया। कुछ देर बाद उसने स्वयं ही शिशु को उठाया और घर की तरफ चल पड़ी। दूसरी तरफ किसी बड़े शहर में एक धनी व्यक्ति के यहाँ ठीक उसी समय संतान उत्पन्न हुई। माता को बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया, सैकड़ों लोग एकत्रित थे, हर तरह की सुविधाऐं थीं। एक से एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक प्रसव कराने में जुटे हुए थे। शिशु का जन्म होते ही उत्सव का माहौल बन गया। ऐसा हमेशा से होता आया है आगे क्या होगा यह अलग बात है परन्तु जन्म के समय दोनों शिशुओं की स्थितियाँ सर्वथा विपरीत हैं। इसे कहते हैं भाग्य ।

            भाग्य है तो हैं, भाग्य की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। भाग्य का निर्माण कैसे होता है? अगर हम इस विषय का गहराई में जाकर विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि कर्मों की श्रृंखला कभी नहीं टूटती । जिस जीवन में हमने मृत्यु के समय तक जो कर्म सम्पन्न किए होंगे उसी का प्रारम्भ अगले जन्म में पुनः होगा। टूटी हुई कड़ी पुनः जुड़ेगी। अधूरे कर्म पुनः शरीर प्राप्त करके सम्पन्न करने पड़ेगें। इसी से प्रतिपादित होता है पुनर्जन्म का सिद्धांत समस्या यह है कि लोगों का दृष्टिकोण अब वैज्ञानिक नहीं रहा। वे दो स्थितियों में जीते हैं हाँ या ना या तो किसी भी सिद्धांत को हाँ कहकर प्रतिपादित कर देते हैं या फिर न कहकर नकार देते हैं। हाँ और ना से कुछ भी हासिल नहीं होगा। हाँ या न से ऊपर उठकर सोच, विचार एवं बुद्धि रूपी शक्तियों को एक अत्यंत ही लचीला, स्थित प्रज्ञ एवं समग्र भाव देना होगा। यही तरीका है परम सत्य को समझने का जीवन के गूढ़ सिद्धांतों को आत्मसात करने का ।

           मैं क्या हूँ? मैं, कहाँ से आया हूँ? मेरी आंतरिक खोज क्या है? मेरी पसंद और नापसंद जन्म के समय मुझे कहाँ से मिली है? क्यों जब मैं अकेला बैठता हूँ तो मेरे मन में एक अलग प्रकार के विचार आते हैं? इन सब यक्ष प्रश्नों के उत्तर में पुनर्जन्म छिपा हुआ है। मेरे माता पिता या परिवार वाले मेरे गुरु से बहुत चिढ़ते हैं फिर भी मैं उन्हें असीम प्यार करता हूँ। ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिए हो रहा है कि शिष्य विशेष के तो गुरु से पुनर्जन्म के सम्बन्ध हैं भले ही वह उन व्यक्तियों के बीच में रह रहा हो जिनका आध्यात्मिक तल शून्य है। एक स्त्री थी उसे एक पुरुष से प्रेम था। यह सत्य घटना है। अचानक एक वर्ष बाद लड़की ने अपने प्रेमी को छोड़कर किसी दूसरे युवक से विवाह कर लिया। उसने अपने प्रेमी को इस तरह से छोड़ा कि वह उसे कभी जानती ही नहीं थी और पूर्ण रूप से अपने पति के साथ खुशी खुशी रहने लगी। प्रेमी युवक को अथाह मानसिक वेदना और कष्ट हुआ। उसने तो जीवन का अंत करने की ही ठान ली थी परन्तु अचानक चौराहे पर उसे गुरु मिल गये उसने उसे बचा लिया।

         सम्बन्धों की इतनी भयानकता किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में देखने को मिलती है। इन सबके पीछे परम ब्रह्माण्डीय लेन-देन का व्यवसाय छिपा हुआ है अर्थात लेखा-जोखा कर्मों का लेखा जोखा । ब्रह्माण्डीय लेखा जोखा । उस स्त्री का व्यक्ति के साथ कुछ लेखा जोखा बाकी रह गया था और जैसे ही हिसाब-किताब बराबर हुआ साथ खत्म यही होता है जीवन में। जैसे ही फल वृक्ष की डाली पर पक जाता है तुरंत टपक पड़ता है अर्थात साथ खत्म। जैसे ही शरीर वृद्ध होता है आत्मा उड़ जाती है अर्थात साथ खत्म। अब किसी और को पकड़ो हमारा समय पूरा हुआ । संकल्प, प्रतिज्ञा ये सब कर्म बंधन हैं। उन्हें पूरा करना ही पड़ता है। यही विधाता का विधान है, विज्ञान है । आपने विधाता से कहा मुझे पैसा रुपया चाहिए विधाता आपको देगा आपके कर्मानुसार मृत्यु होते ही आत्मा को सर्वप्रथम यमराज या देवदूत चित्रगुप्त के पास ले जाते हैं। वहाँ पर चित्रगुप्त व्यक्ति विशेष की आत्मा के पाप और पुण्य का हिसाब किताब देखते हैं। पुण्य हुए तो योग्यतानुसार स्वर्ग विशेष में भेजा जायेगा आत्मा विशेष को इच्छानुसार अमृत तुल्य भोगों को सम्पन्न करने के लिए। उसके लिए स्वर्ग के अनुरूप देह प्राप्त होगी ।

           दिव्य देहों से दिव्य कर्म तो वहाँ भी सम्पादित करने पड़ेंगे। अगर खाते में पापाचार ज्यादा होगा, पग-पग पर शरीर धारण करने के पश्चात् मनमानी की होगी या सृष्टि के नियमों को भंग किया होगा तो फिर योग्यतानुसार नर्क की प्राप्ति होगी। नर्क भी अनेक प्रकार के हैं। भयंकर पापाचारियों को भयंकर से भयंकर नर्क में जाना पड़ता है। जब तक उनके नारकीय स्वरूप का क्षय नहीं हो जाता उन्हें पुनः देह धारण करने का अधिकार नहीं होता है और देह भी उन्हें योग्यतानुसार ही मिलती है। प्रेत-योनियों में एक-एक हजार वर्ष तक पेड़ों के ऊपर उल्टा लटकाकर रखा जाता है। वे लोग जो धर्म का दुरुपयोग करते हैं,

दुर्योधन ने उस अबला स्त्री को दिखा कर अपनी जंघा ठोकी थी, तो उसकी जंघा तोड़ी गयी। दु:शासन ने छाती ठोकी तो उसकी छाती फाड़ दी गयी।

महारथी कर्ण ने एक असहाय स्त्री के अपमान का समर्थन किया, तो श्रीकृष्ण ने असहाय दशा में ही उसका वध कराया।

भीष्म ने यदि प्रतिज्ञा में बंध कर एक स्त्री के अपमान को देखने और सहन करने का पाप किया, तो असँख्य तीरों में बिंध कर अपने पूरे कुल को एक-एक कर मरते हुए भी देखा...।।

भारत का कोई बुजुर्ग अपने सामने अपने बच्चों को मरते देखना नहीं चाहता, पर भीष्म अपने सामने चार पीढ़ियों को मरते देखते रहे। जब-तक सब देख नहीं लिया, तब-तक मर भी न सके... यही उनका दण्ड था।
 
धृतराष्ट्र का दोष था पुत्रमोह, तो सौ पुत्रों के शव को कंधा देने का दण्ड मिला उन्हें। सौ हाथियों के बराबर बल वाला धृतराष्ट्र सिवाय रोने के और कुछ नहीं कर सका।

दण्ड केवल कौरव दल को ही नहीं मिला था। दण्ड पांडवों को भी मिला।

द्रौपदी ने वरमाला अर्जुन के गले में डाली थी, सो उनकी रक्षा का दायित्व सबसे अधिक अर्जुन पर था। अर्जुन यदि चुपचाप उनका अपमान देखते रहे, तो सबसे कठोर दण्ड भी उन्ही को मिला। अर्जुन पितामह भीष्म को सबसे अधिक प्रेम करते थे, तो कृष्ण ने उन्ही के हाथों पितामह को निर्मम मृत्यु दिलाई।

अर्जुन रोते रहे, पर तीर चलाते रहे... क्या लगता है, अपने ही हाथों अपने अभिभावकों, भाइयों की हत्या करने की ग्लानि से अर्जुन कभी मुक्त हुए होंगे क्या ? नहीं... वे जीवन भर तड़पे होंगे। यही उनका दण्ड था।

युधिष्ठिर ने स्त्री को दाव पर लगाया, तो उन्हें भी दण्ड मिला। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य और धर्म का साथ नहीं छोड़ने वाले युधिष्ठिर ने युद्धभूमि में झूठ बोला, और उसी झूठ के कारण उनके गुरु की हत्या हुई। यह एक झूठ उनके सारे सत्यों पर भारी रहा... धर्मराज के लिए इससे बड़ा दण्ड क्या होगा ?

दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाया था स्वयं बलराम ने। एक अधर्मी को गदायुद्ध की शिक्षा देने का दण्ड बलराम को भी मिला। उनके सामने उनके प्रिय दुर्योधन का वध हुआ और वे चाह कर भी कुछ न कर सके...

उस युग में दो योद्धा ऐसे थे जो अकेले सबको दण्ड दे सकते थे, कृष्ण और बर्बरीक। पर कृष्ण ने ऐसे कुकर्मियों के विरुद्ध शस्त्र उठाने तक से इनकार कर दिया, और बर्बरीक को युद्ध में उतरने से ही रोक दिया।

लोग पूछते हैं कि बर्बरीक का वध क्यों हुआ?
यदि बर्बरीक का वध नहीं हुआ होता तो द्रौपदी के अपराधियों को यथोचित दण्ड नहीं मिल पाता। कृष्ण युद्धभूमि में विजय और पराजय तय करने के लिए नहीं उतरे थे, कृष्ण कृष्णा के अपराधियों को दण्ड दिलाने उतरे थे।

कुछ लोगों ने कर्ण का बड़ा महिमामण्डन किया है। पर सुनिए! कर्ण कितना भी बड़ा योद्धा क्यों न रहा हो, कितना भी बड़ा दानी क्यों न रहा हो, एक स्त्री के वस्त्र-हरण में सहयोग का पाप इतना बड़ा है कि उसके समक्ष सारे पुण्य छोटे पड़ जाएंगे। द्रौपदी के अपमान में किये गये सहयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि वह महानीच व्यक्ति था, और उसका वध ही धर्म था।

     "स्त्री कोई वस्तु नहीं कि उसे दांव पर लगाया जाए..."

कृष्ण के युग में दो स्त्रियों को बाल से पकड़ कर घसीटा गया।

देवकी के बाल पकड़े कंस ने, और द्रौपदी के बाल पकड़े दु:शासन ने। श्रीकृष्ण ने स्वयं दोनों के अपराधियों का समूल नाश किया। किसी स्त्री के अपमान का दण्ड  अपराधी के समूल नाश से ही पूरा होता है, भले वह अपराधी विश्व का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ही क्यों न हो।।

    जय श्री कृष्णा बांके बिहारी 🙏

लोगों को ठगते एवं चोरी करते हैं उन्हें हजारों वर्षों की प्रेत योनि प्राप्त होती है।

         सांसारिक दृष्टिकोण से क्षय का तात्पर्य क्षय रोग से लगा लिया जाता है परन्तु विधाता ने क्षय के रूप में एक अद्भुत प्रक्रिया निर्मित की है। परमात्मा की परम दयालुता का परिणाम है सभी कर्मों का क्षय होना नारकीय कष्टों का भी क्षय होगा, शरीर का भी क्षय होगा, पुण्यों का भी क्षय होगा, कारावास का भी क्षय होगा और फिर से मौका मिलेगा सुधरने का क्षय नहीं हो तो पुनर्प्राप्ति कैसे होगी? शरीर का क्षय न हो तो पुनर्जन्म कैसे होगा? एक अपराधी की सजा क्षय न हो तो फिर वह जेल से कैसे छूटेगा । क्षय तो होना ही चाहिए। सभी कुछ क्षयवान है। यही सबसे बड़ा प्रमाणीकरण है पुनर्जन्म का। जेल से छूटने के बाद व्यक्ति अपराधी नहीं है। उसके अपराध का क्षय हो गया अब वह सामान्य व्यक्ति है उसने दण्ड भोग लिया। अब वह उचित कर्म सम्पन्न कर प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर सकता है। उसे पूरा अधिकार है। आज जो निर्धन है कल वह करोड़पति हो सकता है। हो सकता है कुछ समय पश्चात उसकी निर्धनता का क्षय हो जाय। आज जो अज्ञानी है कल वह महाज्ञानी हो सकता है।

          कल तक जो कालीदास जिस डगाल पर बैठे थे उसे ही काट रहे थे, निपट महामूर्ख थे, कुछ ही दिनों पश्चात वे महाकवि बन गये। किसने क्षय कर दिया उनके अज्ञान का। गुरु ने कर दिया। गुरु को क्षय करना आता है। वह कुछ ही क्षणों में क्षय करं देगा। दूध में से पानी का क्षय कर दो मावा बन जायेगा। क्या किया आपने सिर्फ क्षय किया। बस यही खेल है गुरु का । यही पुनर्जन्म की कुंजी है। एक शिष्य के दिमाग में से कुछ सांसारिकता का क्षय कर दो उसे अपना पूर्वजन्म याद आ जायेगा। जन्म और पूर्वजन्म के बीच बस एक झीना सा पर्दा है और उसके क्षय होने की देर है । उसी पर्दे के कारण शिष्य भटकता रहता है। इसी पर्दे को हटाना गुरु का कार्य है फिर शिष्य कहीं नहीं जाता, कहीं नहीं भटकता, कहीं लिप्त नहीं होता। साधनाऐं एक जीवन का खेल नहीं हैं। चालीस पचास वर्ष में क्या खाक साधना सिद्ध होगी इसके लिए पूर्वजन्म देखना पड़ता है। अधिकांशतः शिष्य अपने साथ पूर्वजन्म की सिद्धियाँ लाते हैं। गुरु अपनी दृष्टि से समझ लेता है कि पूर्व जन्म में शिष्य किस साधना में पारंगत था बस उसी का पुरश्चरण करा के उस शक्ति को जागृत कर देता है।

         बायें हाथ से काम करने वाला व्यक्ति वाममार्गी ही होगा। वाममार्ग की साधना उसे कुछ ही क्षणों में परिणाम दे देगी। वह जन्मजात वाममार्गी है अनेकों जन्म में उसने वाम मार्ग की ही साधनाऐं सम्पन्न की हैं। अब उसे भला कहाँ दूसरे मार्ग की साधना सम्पन्न करायें। उसे शिव ही अच्छे लगेंगे। उससे विष्णु पूजन सम्पन्न कराना अत्यधिक दुष्कर है। यह पहचान है पूर्व जन्म की कुछ बच्चे उल्टे पैदा होते हैं अर्थात जन्म के समय पैर बाहर निकलता है। इनमें जन्मजात गुण होता है पूर्वाभास का। इनकी कुण्डलिनी शक्ति गर्भ में ही आज्ञा चक्र तक आकर स्वतः ही रुक जाती है अन्य बच्चों में वह मूलाधार में ही सुप्त रहती है। इस प्रकार के बच्चों को पायला कहा जाता है। दस वर्ष से कम उम्र के अगर शुद्धतम, उच्च कोटि के बच्चे मिल जायें तो ये आँखें बंद करने के पश्चात भी कमरे में रखी सब बस्तुओं को देख सकते हैं। पूर्व जन्म को जाने बिना सम्पूर्ण विकास तय नहीं किया जा सकता एवं पुनर्जन्म को भी संशोधित नहीं किया जा सकता।

          जीवन को इस प्रकार से समझ सकते हैं प्रथम पूर्वजन्म अर्थात भूतकाल द्वितीय वर्तमान जन्म तृतीय अर्थात पुनर्जन्म । सर्वप्रथम पूर्व जन्म को समझना है एवं उस जन्म में किए गये कार्यों की व्याख्या करनी है, गलतियों को सुधारना है। यह कार्य वर्तमान युग होगा और इसी के अनुसार पुनर्जन्म प्राप्त होगा। एक शिष्य आलू के अलावा कुछ नहीं खाता, उसे गर्मी अत्यधिक लगती है और ठण्ड से अत्यधिक प्रेम है। एकांतवास उसकी प्रकृति है अर्थात उस शिष्य ने पूर्व जन्म में हिमालय के ठण्डे प्रदेश में साधनाऐं सम्पन्न की हैं इसीलिए गर्मी के प्रति वह संवेदनशील है। एकांत स्थान पर साधनाओं के कारण उसे एकांतवास पसंद है। उच्च शिखरों पर साधना करने वाले अपने साथ आलू या अन्य प्रकार के कंद मूल बोरे में भरकर ले जाते हैं। उसी पर उनका जीवन निर्भर रहता है। एकांतवासी मायावी नहीं होते तथा छलप्रपंच और फरेब से सर्वथा पुरे रहते हैं।
 
    ‌ ‌                  शिव शासनत: शिव शासनत:

रुद्र चण्डी ।।

घोरचण्डी महाचण्डी चण्डमुण्डविखण्डिनी। 
चतुर्वक्त्रा महावीर्यां महादेविभूषिता ॥ 

रक्तदन्ता वरारोहा महिषासुरमर्दिनी । 
तारिणी जननी दुर्गा चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ 

गुह्यकाली जगद्धात्री चण्डी च यामलोद्भवा। 
श्मशानवासिनी देवी घोरचण्डी भयानका ॥ 

शिवा घोरा रुद्रचण्डी महेशा गणभूषिता । 
जाह्नवी परमा कृष्णा महात्रिपुरसुन्दरी ॥ 

श्रीविद्या परमाविद्या चण्डिका वैरिमर्दिनी। 
दुर्गा दुर्गशिवाघोरा चण्डहस्ता प्रचण्डिका ॥ 

माहेशी बगलादेवी भैरवी चण्डविक्रमा। 
प्रमथैर्भूषिता कृष्ण चामुण्डामुण्डमर्दिनी ॥ 

रणखण्डा चन्द्रघण्टा रणेरामवरप्रदा । 
मारणी भद्रकाली च शिवा घोराभयानका ॥ 

विष्णुप्रिया महामाया नन्दगोपगृहोद्भवा । 
मंगला जननीचण्डी महाकुद्धा भयंकरी ॥ 

विमला भैरवी निद्रा जातिरूपा मनोहरा । 
तृष्णा निद्रा क्षुधा माया शक्तिर्मायामनोहरा ॥ 

तस्यै देव्यै नमस्तस्यै सर्वरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 

भवानी च भवानी च भवानी चोच्यते बुधैः । 
भकारस्तु भकारस्तु भकार: केवलः शिवः ॥ 

महाचण्डी शिवा घोरा महाभीमा भयानका । 
कांचनी कमला विद्या महारोगविमर्दिनी ॥ 

गुह्यचण्डी घोरचण्डी चण्डी त्रैलोक्यदुर्लभा ।
देवानां दुर्लभा चण्डी रुद्रयामलसंमता ॥ 

अप्रकाश्या महादेवी प्रिया रावणमर्दिनी । 
मत्स्यप्रिया मांसरता मत्स्यमांसबलिप्रिया ॥ 

मदमत्ता महानित्या भूतप्रमथसंगता । 
महाभागा महारामा धान्यदा धनरत्नदा ॥ 

वस्त्रदा मणिराज्यादि सदाविषयवर्धिनी । 
मुक्तिदा सर्वदा चण्डी महाविपद्नाशिनी ॥ 

रुद्रध्येया रुद्ररूपा रुद्राणी रुद्रवल्लभा । 
रुद्रशक्ति रुद्ररूपा रुद्रमुखसमन्विता ॥ 

शिवचण्डी महाचण्डी शिवप्रेतगणान्विता । 
भैरवी परमाविद्या महाविद्या च षोडशी ॥ 

सुन्दरी परमापूज्या महात्रिपुरसुन्दरी । 
गुह्यकाली भद्रकाली महाकालविमर्दिनी ॥ 

कृष्णा तृष्णास्वरूपां सा जगन्मोहनकारिणी । 
अतिमंत्रा महालज्जा सर्वमंगलदायिनी ॥ 

घोरतंत्री भीमरूपा भीमा देवी मनोहरा । 
मंगला बगला सिद्धिदायिनी सर्वदा शिवा ।। 

स्मृतिरूपा कीर्तिरूपा योगींद्रैरपि सेविता । 
भयानका महादेवी भयदुःख विनाशिनी ॥ 

चण्डिका शक्तिहस्ता च कौमारी सर्वकामदा। 
वाराही च वराहास्या इन्द्राणी शक्रपूजिता ।। 

माहेश्वरी महेशस्य महेशगणभूषिता । 
चामुण्डा नारसिंही च नृसिंहशत्रुविमर्दिनी ॥ 

सर्वशत्रुप्रशमनी सर्वारोग्यप्रदायिनी । 
इति सत्यं महादेवि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

      यह 25 श्लोकों की स्तुति रुद्रचण्डी कहलाती है। इसके प्रथम दस श्लोकों का पाठ कामापराधों के शमन करने के लिये होता है। बाद के पंद्रह श्लोक भी अघमर्षण के लिये किये जाते हैं। व्यक्ति निर्मल होने पर ही आध्यात्मिक शांति का अधिकारी होता है। चण्डी का अर्थ घोर होता है इसका घोरस्वरूप एक सहज एवं आवश्यक अवस्था है। महिष, शुंभ, निशुंभ, चण्ड, मुण्ड जैसे क्रूरकर्मा और प्रचण्ड पराक्रमी असुरों का विनाश सौम्य रूप से संभव नहीं होता इसलिए परमवात्सल्यरूपिणी माँ को चण्डी, चामुण्डा जैसे रूप धारण करने पड़ते हैं। इन श्लोकों में वह रुद्र और विकट हो जाती है इसलिए उसकी उग्रता और बढ़ जाती है। परमा का भक्तों को भयभीत करने के लिए नहीं होता अपितु उसके दुष्कर्मों का नाश करने के लिये होता है। चण्ड और मुण्ड नाम दैत्य एक दुष्प्रेरणा है जो शुंभ और निशुंभ के काम को अहंकार के माध्यम से उद्दीप्त करते हैं। शुंभ-निशुंभ के स्तुतिगान में वे उसकी, उसके सुन्दर वस्तुओं के प्रति मोह अपहरण और बल की महिमा बखानते हैं और एक दुष्कर्म के लिये प्रेरित करते हैं। इस प्रेरक शक्ति के शुद्ध रूप को चामुण्डा कहा जाता है, चामुण्डा का प्रखर तेजस्वी रूप चण्डी कहलाता है। माँ के दुर्गा, चामुण्डा अथवा चण्डी स्वरूप के समक्ष बैठकर इसका नित्यपाठ करने से पापक्षय होता है और साधक निर्मल व निर्भय होता है।

नवरात्रि को देवत्व के स्वर्ग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता है। उस अवसर पर सुसंस्कारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हें सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलब्ध हुई मानी जाती हैं। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगें भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सके तो दैवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नवरात्रियों का पर्व मुहूर्तों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृति की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण एवं लोक मंगल क्रिया कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं। 

बसन्त आते ही कोयल कूकती और तितलियाँ फुदकती दृष्टिगोचर होती हैं। भोंरे गूँजते हैं जबकि अन्य ऋतुओं में उनके दर्शन भी दुर्लभ रहते हैं। वर्षा आते ही मेंढक बोलते और मोर नाचने लगते हैं जबकि साल के अन्य महीनों में उनकी गतिविधियाँ कदाचित ही दृष्टिगोचर होती हैं। आँधी तूफान और चक्रवातों का दौर गर्मी के दिनों में रहता है। ग्रीष्म का तापमान बदलते ही उनमें से किसी का पता नहीं चलता। ठीक यही बात नवरात्रियों के समय पर भी लागू होती है।

 प्रातःकाल और सायंकाल की तरह इन दिनों की भी विशेष परिस्थितियाँ होती हैं उनमें सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह उभरते और मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। न केवल प्रभावित करने वाली वरन् अनुमूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बनती हैं। इसे समय की विशेषता कह सकते हैं। जीवधारियों में से अधिकांश को इन्हीं दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती है और वे गर्भाधान सम्पन्न कर लेते हैं। इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपना रौल पूरा करते हैं- सूत्र संचालन तो किसी ऐसे अविज्ञान मर्मस्थल से होता है जिसे सूक्ष्म जगत याa अन्तर्जगत के नाम से मनीषी व्याख्या- विवेचना करते रहते हैं। नवरात्रियों में कुछ ऐसा वातावरण रहता है जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनते देखी जाती है। 


सूर्य के उदय और अस्त होते समय आकाश में लालिमा छाई रहती है और उस अवधि के समाप्त होते ही वह दृश्य भी तिरोहित होते दीखता है। इसे काल प्रवाह का उत्पादन कह सकते हैं। ज्वार भाटे हर रोज नहीं अमावस्या पूर्णमासी को ही आते हैं। उमंगों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात है कि वे मनुष्य की स्व उपार्जित ही नहीं होतीं वरन् कभी- कभी उनके पीछे किसी अविज्ञात उभार का ऐसा दौर काम करता पाया गया है कि चिन्तन ही नहीं कर्म भी किसी ऐसी दशा में बहने लगता है जिसकी इससे पूर्व वैसी आशा या तैयारी जैसी कोई बात नहीं थी। ऐसे अप्रत्याशित अवसर तो यदा- कदा ही आते हैं पर नवरात्रि के दिनों अनायास ही अन्तराल में ऐसी हलचलें उठती हैं जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है मानो अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसा हो। 

ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी ऋषियों, मनीषियों ने नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े सही पर नवरात्रि में आध्यात्मिक तप साधना का सुयोग बिठाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। तंत्र विज्ञान के अधिकांश कोलकर्म इन्हीं दिनों सम्पन्न होते हैं। वाम मार्गी साधक अभीष्ट मन्त्र सिद्ध करने के लिए इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं। 

नवरात्रि देव पर्व है। उसमें देवत्त्व की प्रेरणा और उवी अनुकम्पा बरसती है। जो उस अवसर पर सतर्कता बरतते और प्रयत्नरत होते हैं, वे अन्य अवसरों की उपेक्षा इस शुभ मुहूर्त का लाभ ही अधिक उठाते हैं। भौतिक लाभों को सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण और प्रगति के अनुकूलन में सिद्धियों की आवश्यकता पड़ती है। उस आधार पर जो मिलता है उसे वरदान कहा जाता है। नवरात्रियाँ वरदानों की अधिष्ठात्री कही जाती हैं, पर इस शुभ अवसर पर वास्तविक लाभ है देवत्त्व की विभूतियों का जीवनचर्या में समावेश। वह जिसे जितनी मात्रा में मिलता है वह उतनी ही कला क्षमता का नर देव कहलाता है। देवता स्वर्ग में ही नहीं रहते अपितु महामानवों के रूप में इस धरती पर विचरते हैं। 

नवयुग देवत्व प्रधान होगा। उसमें वे प्रयत्न चलेंगे जो मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकेंगे। जहाँ देवता बसते हैं वहाँ स्वर्ग होता है। जहाँ स्वर्ग होगा वहाँ देवता ही बसते होंगे। इसी तथ्य के आधार पर यह अपेक्षा की गई कि उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा जो सुखद वातावरण बनेगा उसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की उपमा दी जा सकेगी।


युग सन्धि की नवरात्रियों में विशेष सम्भावना इस बात की है कि उनमें अदृश्य लोकों में देवत्व की अतिरिक्त वर्षा हो और उस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता सम्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। युग परिवर्तन की अवसर प्रक्रिया को गतिशील बनाने में इन देव मानवों का ही योगदान प्रमुख रहा है। तत्वदर्शी कहते हैं कि अवतार अकेले ही अपना प्रयोजन पूरा नहीं कर लेते उनके साथ- साथ अनेक सहयोगी भी होते हैं और वे भी देवलोक से उसी प्रयोजन के लिए शरीर धारण करते हैं। पाँचों पाण्डव पाँच देवताओं के अवतार थे। हनुमान- अंगद आदि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है। इन दिनों सूजन योजनाओं में देव मानवों का यह साहस एवं प्रयास ही अग्रिम मोर्चा सँभालते दिखाई देगा।

नवयुग सृजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का यही शुभ मुहूर्त है। प्रज्ञा युग की प्रेरणा को अपनाने और विधि व्यवस्था को चरित्र करने के लिए यों हर घड़ी पवित्र और महत्त्वपूर्ण है, पर इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गई है। यों उपासना की चिन्ह पूजा भी बीजारोपण की दृष्टि से उपयोगी मानी गई है और उसे किसी भी रूप में किसी भी मनःस्थिति में अपनाये रहने पर जोर दिया गया है। फिर भी उसे निष्ठापूर्वक अपनाने की प्रौढ़ता का स्तर ऊँचा ही रहता है। उच्चस्तरीय सत्परिणामों की आशा- अपेक्षा योजनाबद्ध तपश्चर्या अपना कर की जाने वाली साधना के साथ अविच्छन्न रूप से सम्बन्धित है। 

नवरात्रि पर्व का ऋतु संध्या मुहूर्त विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं विशिष्ट साधना पद्धति के कारण भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। नैष्ठिक साधकों के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में अनुष्ठान साधना एक अत्यावश्यक पुण्य परम्परा के रूप में सदा सर्वदा से अपनाई जाती रही है। 

सर्दी और गर्मी दो ही प्रधान ऋतुएं हैं उनका मिलन एक प्रकार से वैसा ही सन्धि काल है जैसा कि रात्रि के अन्त और दिन के प्रारम्भ में प्रभातकाल के रूप में उपस्थित होता है। सन्धियाँ सदा मार्मिक होती हैं। शरीर में अस्थिपञ्जर से बने हुए जोड़ों को भी सन्धियाँ कहते हैं। इन्हीं के यथावत् रहने पर काया की विभिन्न क्रिया- प्रक्रियायें गतिशील रहती हैं। यह जोड़ यदि जकड़ने लगें तो फिर चलना- फिरना तो दूर मुड़ना भी सम्भव न रहेगा। मशीनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी क्षमता एवं गतिशीलता उनकी सन्धियों के सही गलत होने पर ही निर्भर रहती है। इन दिनों युग सन्धि चल रही है अतएव जाग्रत आत्माओं को आपत्ति- कालीन व्यवस्था की तरह युग धर्म के निर्वाह में जुटना पड़ रहा है। ऋतु संध्या आश्विन और चैत्र में जिन दिनों आती है उन नौ- नौ दिनों की अवधि को नवरात्रि कहते हैं। ऋतुओं में ऋतुमती होने और वातावरण में नये- नये अनुदान देने का दृश्य सूक्ष्म जगत में इन्हीं दिनों दृष्टिगोचर होता है। 

ऐसे- ऐसे अनेकों कारण हैं जिनके कारण अध्यात्म क्षेत्र में साधना प्रयोजनों के लिए यह समय विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार प्रभात काल की उपासना अधिक फलवती होती और संध्या के नाम से पुकारी जाती है। उसी प्रकार नवरात्रियों का समय भी दोनों सन्ध्याओं के समतुल्य माना गया है।

सर्वविदित है कि युग सन्धि की इस परिवर्तन बेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सम्वर्धन को लक्ष्य रखकर जो बीस वर्षीय योजना बनी है उसमें नैष्ठिक महापुरश्चरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। एक लाख नैष्ठिक उपासकों द्वारा बीस वर्षीय संकल्प लेकर इतिहास काल के इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन हुआ है। उसकी भागीदारी लेने वाले साधकों को आधा घन्टे में सम्पन्न हो सकने वाली पाँच मालाओं का नित्य जप करना होता है। साथ ही गुरूवार के दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत साधना का भी अनुशासन जुड़ा है। इसके अतिरिक्त सामूहिक रूप में मासिक यज्ञ करने की व्यवस्था उन्हें बनाये रखनी होती है। सामान्यतया चलने वाले यही अनुबन्ध है जिनका परिचालन करते हुए युग सन्धि महापुरश्चरण की भागीदारी को गतिशील रख जाता है। 

इन सामान्य नियमों के अतिरिक्त असामान्य तप साधना के रूप में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में उन्हें २४ हजार के गायत्री अनुष्ठान भी करने होते हैं। उस समय वे नहीं कर सकते तो आगे पीछे हटकर भी उसकी पूर्ति करनी होती है। यह अनिवार्यता इसलिए रखी गई है कि इन नौ दिनों के साधना सत्रों में वे सभी प्रयोजन पूरे होते हैं जो जन मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की उभयपक्षीय युग चेतना के अग्रगणी बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है। 

गायत्री अनुष्ठानों के नवरात्रि परम्परा के पीछे ऐसे- ऐसे अनेकों कारण सन्निहित हैं इसलिए उपासना में अभिरूचि रखने वाले इन दिनों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और वर अवसर पर कुछ न कुछ व्रत पालन निश्चित रूप से करते हैं।


जो साधारणतया दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं और यदा- कदा ही कभी कुछ पूजा पाठ करते हैं ऐसे लोगों पर भी जोर दिया जाता है कि वे कम से कम उन दिनों तो कुछ नियम निबाहें और निश्चित साधना की बात सोचें। इन अभ्यासों के लिए भी कई प्रकार की सरल साधनाओं की विशेष व्यवस्था की जाती है ताकि उन्हें बोझ लगने और मन उचटने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन्त्र लेखन गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उसी आधार पर बनी हैं और २४ हजार वाली संख्या को घटा कर १० हजार तक हलका कर दिया गया है। नौ दिन में दस हजार जप करने का तात्पर्य मात्र हर रोज एक घण्टा समय लगाना भर होता है। यह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। मन्त्र लेखन हर रोज ११२ करने में नौ दिन में एक हजार लिख जाते हैं यह भी एक अनुष्ठान है। गायत्री चालीसा के हर दिन बारह पाठ करने से नवरात्रि में १०८ हो जाते हैं। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ यह पंचाक्षरी गायत्री है। इतना तो अशिक्षित एवं बालक भी याद कर सकते हैं और सुविधानुसार संख्या निर्धारित करके उसकी पूर्ति करते रह सकते हैं। प्रमुख तथ्य नियमितता है, न्यूनाधिकता नहीं। नियमित साधना को अनुष्ठान कहते हैं। उसके साथ तपश्चर्याओं का अनुशासन जुड़ जाने से उसकी संज्ञा पुरश्चरण की जाती है। अनुष्ठान पुरश्चरण हलके भारी स्तर के भी होते हैं। 

अनभ्यस्त लोगों के लिए उपासना क्रम में सरलता उत्पन्न करने की तरह व्रत अनुशासनों में भी ढील देकर उन्हें मनीषियों ने बाल सुलभ बना दिया है। भूमिशयन, स्वयं सेवा, उनके लिए अनिवार्य नहीं। ब्रह्मचर्य तो आवश्यक है। पर उपवास में भी ढील की काफी गुंजायश बना दी गई है। रोटी- शाक, दाल- चावल जैसे दो वस्तुओं के युग्म अपना कर नौ दिन काट लेने में मात्र पदार्थों का सीमा बन्धन ही है भूखा रहने जैसी कोई कठिनाई नहीं है। जो इससे आगे बढ़ सकते हैं वे बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत पालने की हिम्मत भी दिखा लेते हैं। एक समय पूरा भोजन एक समय फल दूध जैसी सरलता उन्हीं लोगों के लिए बनाई गई है जो उपवास करना चाहते हैं पर ऐसी सरलता ढूँढ़ते हैं जिसमें भूखा न रहना पड़े। ऐसे लोगों को निराश न होने देने और न कुछ से कुछ। अच्छा की सरलता की गई है। इस आधार पर बाल- वृद्ध, और व्यस्त लोग भी नवरात्रि में कुछ न कुछ नियमित साधना का सुयोग बना सकते हैं।

गायत्री परिवार का जहाँ भी छोटा बड़ा संगठन है वहाँ नवरात्रि पर्व मनाने का प्रयत्न निश्चित रूप से किया जाता है। यों व्यक्तिगत एकाकी साधना करने पर भी रोक नहीं है, पर प्रयत्न यही किया जाता है कि सामूहिक उपासना का उपक्रम बने और उसे एक उत्साह आयोजन का स्वरूप मिले। ऐसी व्यवस्था बनाने में उत्साही लोगों को स्वयं आगे रहने, थोड़ी दौड़ धूप करने साधन जुटाने एवं जन- सम्पर्क साधकर उत्साह दिलाने जैसे प्रयत्न करने होते हैं। ऐसा कुछ कर पाने वाले उत्साही जहाँ एक दो भी हों वहाँ नवरात्रि आयोजन की व्यवस्था सहज ही बन जाती है। वह न तो महँगी है और न कठिन कष्ट साध्य। जो इसके लिए आगे बढ़कर साहस दिखाते हैं उन्हें अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि भारत जैसे धर्म प्रकृति वाले देश में नवरात्रि आयोजनों को साधना सत्रों के रूप में विकसित और व्यापक बना सकने में अनुत्साह के अतिरिक्त और कोई भी कठिनाई नहीं है जो हँसते- हँसाते हल न की जा सके।

युग सृजन अभियान में नवरात्रि पर्व को साधना सत्र आयोजन के रूप में नियोजित करने और सफल बनाने पर आरम्भ से ही बहुत जोर दिया जाता रहा है। इसमें उपासना और साधना के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। प्रातःकाल सामूहिक जप, हवन- पूजन का और सायं- काल संगीत प्रवचन के ज्ञान यज्ञ की व्यवस्था रहती है। उपासना से आत्म कल्याण की और जीवन साधना की प्रगति भी सदा उसी के सहारे सम्पन्न होती रही है। भविष्य निर्माण में सज्जनों की संगठित सृजन चेतना की ही प्रमुख भूमिका होगी। राम काल के रीछ बानर, कृष्ण काल के ग्वाल- बाल, बुद्ध के भिक्षु सहयोगी, गांधी के सत्याग्रही इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि महान प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सज्जनों की सहकारिता सम्पादित किये बिना कोई चारा नहीं। देवताओं की संयुक्त शक्ति, दुर्गा ने ही उन्हें असुरों के त्रास से छुड़ाया था। ऋषियों का संचित रक्त घट ही सीता को जन्म देने और दानवी विभीषिकाओं को निरस्त करने में आधारभूत कारण बना था। इन पुराण गाथाओं से सृजन शिल्पियों को भी यही प्रेरणा मिलती है कि वे जागरूकों को तलाश करें और उनकी आन्तरिक प्रखरता जगाने के भाव भरे प्रयास करें। इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि के नौ दिन चलने वाले साधना सत्रों से बढ़कर अधिक उपयोगी एवं अधिक सरल व्यवस्था अन्य कदाचित ही कोई बन पड़े। महान सांस्कृतिक परम्पराओं का पुनर्जीवन नव सृजन के अभीष्ट आत्म- ऊर्जा का अभिवर्धन तथा जन जीवन में उत्कृष्टता के समावेश का जैसा स्वर्ण सुयोग इन साधना सत्रों में मिल सकता है। उसकी तुलना का उपाय उपचार कदाचित ही कोई खोजा जा सके। रात्रि के ज्ञान यज्ञ में वह सब कुछ कहा जा सकता है जो प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को जन- मानस में प्रतिष्ठापित करने के लिए आवश्यक है। इस अवसर पर ऐसे संगठित प्रयासों के लिए उपयुक्त वातावरण भी रहता है जिससे साधकों को भी व्रतशील जीवन जीने के अतिरिक्त सृजन प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए तत्पर किया जा सके। 

इन तथ्यों की जानकारी तो प्रज्ञा पुत्रों को पहले से भी रही है और वे नवरात्रि आयोजनों को इसी उद्देश्य को लेकर पूरा करने एवं अधिकाधिक उत्साहवर्धक बनाने का प्रयत्न करते रहे हैं। इस बार उसमें युग सन्धि के बीजारोपण वर्ष के अभिनव उत्तरदायित्व भी जुड़ गये हैं महापुरश्चरण में भागीदार नैष्ठिक साधकों का सुविस्तृत समुदाय इन्हीं दिनों साधना क्षेत्र में नये सङ्कल्प लेकर अग्रसर हुआ है। उसमें से प्रत्येक को न केवल प्रत्येक नवरात्रि की अनुष्ठान साधना स्वयं करनी है वरन् जन सम्पन्न साधनों में अभी से लगना है तथा पुरानों को प्रोत्साहित और नये भावनाशीलों को तथ्यों से परिचित कराने के प्रयास भी करना है। नवरात्रि आयोजन पिछले दिनों की तुलना में अत्यधिक प्रभावी एवं प्रेरणाप्रद बन सके इसके लिए समग्र तत्परता उत्पन्न कर सकने वाली भाव श्रद्धा को उभारने, उछालने की आवश्यकता है |

चामुण्डायै

     धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं एवं इसके अलावा अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ है प्रेम । पुरुषार्थ का क्या तात्पर्य है? पुरुषार्थ का तात्पर्य है कर्म। ये चारों पुरुषार्थ भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सृष्टि को गतिमान बनाने के लिए लक्ष्य के रूप में निर्धारित किए हैं। पुरुष का तात्पर्य है साहचर्य, एक से अनेक और अनेक से अनेक होने की क्रिया ब्रह्माण्ड दो भागों में विभाजित है प्रथम दुर्गा कुल द्वितीय महाविद्या कुल महाविद्या कुल युद्ध से परे है, गति से परे है एवं यहाँ पर परा शक्तियाँ निवास करती हैं। परा शक्तियों का तात्पर्य है चिंतन से भी परे विशुद्ध परमवस्थाएं। दसों महाविद्याएं परा सूक्ष्म है और जब जातक पराब्रह्माण्डीय हो जाता है तो उसे महाविद्याओं में वर्णित महाशक्तियों की उपासना प्राप्त होती है। दसों महाविद्याएं केवल शिव एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी के बीच सम्पन्न हुए लीला विलास एवं परा ब्रह्माण्डीय नर्तन का प्रतीक हैं। 

           इसके विपरीत ब्रह्माण्ड के अन्य उच्छिष्ट तत्वों के साथ जब त्रिपुर सुन्दरी विलास करती हैं या फिर क्रियाशील होती हैं तब दुर्गा कुल की स्थापना होती है। दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवासुर संग्राम स्पष्ट रूप से यह कहता है कि इसमें भगवती कृपा करके देवताओं एवं त्रिदेवों की प्रार्थना पर क्रियाशील हुईं अतः दोनों साधनाओं के भेद को समझना होगा। चूंकि ब्रह्माण्ड को भगवती त्रिपुर सुन्दरी का उच्छिष्ट अंग माना गया है अर्थात उनके द्वारा त्याज्य माना गया है इसलिए ब्रह्माण्ड में शिथिलता, विकारग्रस्तता, अशुद्धता, आधा-अधूरापन विद्यमान है। दुर्गा सप्तशती में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक तत्व क्या कह रहा है? वह पूर्णता मांग रहा है। वह कह रहा है मुझे दो, रूप दो, यश दो, ज्ञान दो, विज्ञान दो, दया दो, क्षमा दो, दया दो, राज्य दो अर्थात दो कुछ न कुछ दो, वह भीख मांग रहा है, वह हाथ फैलाकर मांग रहा है। हमें दो की प्रक्रिया, दो की प्रवृत्ति समझनी होगी।

         जैसे ही हम जन्म लेते हैं मां से दूध मांगते हैं। हमारा जन्म ही मांगने से प्रारम्भ होता है, हम सारी जिंदगी क्या करते हैं? पत्नी से, पति से, मित्र से, संसार से, गुरुओं से, बच्चों से, प्रकृति से सिर्फ दो की ही याचना करते रहते हैं। अपेक्षा, याचना, भिक्षा, प्राप्ति, संतुष्टि इत्यादि इत्यादि । प्रथम श्वास से लेकर अंतिम श्वास तक हम मुझे दो-दो की ही रट लगाये रहते हैं यह हमारे उच्छिष्ट अर्थात त्यागे हुए होने का सबसे बड़ा सबूत है एवं हमें इस प्रवृत्ति को समझना होगा। ब्रह्मा निर्मित इस सृष्टि के प्रत्येक तत्व की यही विडम्बना है कि वह मुझे कुछ दो से ग्रसित है। जितना उसे मिलता जाता है उतना ही उसके अंदर मुझे कुछ और चाहिए की भूख बढ़ती जाती है। उसकी यही भूख कि मुझे कुछ चाहिए उसे गतिमान रखती है परन्तु अंत तक वह यह नहीं समझ पाता कि वास्तव में उसे चाहिए क्या? क्या चाहिए तुम्हें ? बस यही प्रश्न वह अपने आप से स्वयं पूछता रहता है, यही प्रवृत्ति उसे स्व की खोज की तरफ ले जाती है। 

          धन आ गया तो काम खोजता है, काम मिल गया तो धर्म खोजता है, धर्म मिल गया तो प्रेम खोजता है, प्रेम मिल गया तो मोक्ष खोजता है, मोक्ष मिल गया तो कुछ और खोजता है। जिस दिन मुझे कुछ दो, मुझे किसी की खोज है, मुझे कुछ प्राप्त करना है की प्रवृत्ति शांत हो जायेगी वह महाविद्याओं का साधक बन जायेगा परन्तु इससे पूर्व वह दुर्गा कुल का ही साधक रहेगा। अतः भगवती दुर्गा शीघ्र फलदायिनी हैं, शीघ्र क्रियाशील होती हैं, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड मुझे कुछ दो में उलझा हुआ है। जब मुझे कुछ दो के भाव समाप्त हो जाते हैं तब जाकर महाविद्याओं की साधना के लिए जीव तैयार होता है। परा को प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ दो से परे होना पड़ेगा, आँखों में निर्मलता लानी होगी।

         दुर्गा के जो भक्त होते हैं उन्हें वे विपुल मात्रा में प्रदान करती है, उनकी दो की प्रवृत्ति वे संतुष्ट करती हैं यही श्री श्री शक्ति रहस्यम् है। जब तक दो की प्रवृत्ति अंदर से शांत नहीं होगी तब तक जीव सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं करेगा इसलिए श्री दुर्गोपासना धर्म, अर्थ, काम, प्रेम निश्चित तौर पर प्रदान करती हैं। हाँ मोक्ष के दरवाजे तक भी दुर्गा जी ले जाती है परन्तु इसके बाद शक्ति का कुछ दूसरा ही स्वरूप होता है । इसलिए दुर्गा के उपासक आपको सबसे ज्यादा मिलेंगे। मार्कण्डेय रचित श्री दुर्गा सप्तशती शक्ति विलास का अद्भुत ग्रंथ है, मैंने अपने जीवन में अनेकों ग्रंथ पढ़े परन्तु इतना तांत्रोक्त ग्रंथ कोई भी नहीं है। इसमें परम गूढ़ रहस्य हैं, दुर्गा सप्तशती लगभग 700 स्तोत्रों का ग्रंथ है और मुख्य रूप से यह 4 पुरुषार्थों में से अर्थ प्रदान करने वाला ग्रंथ है, 


वात्सायन लिखित कामसूत्र में भी 700 श्लोक हैं यह ग्रंथ कामरूपी पुरुषार्थ पर आधारित है, गीता में 700 श्लोक है यह ग्रंथ धर्म रूपी पुरुषार्थ का मुख्य ग्रंथ है, शिव पुराण भी 700 पन्नो का है यह मोक्ष रूपी पुरुषार्थ का प्रमुख ग्रंथ है, श्रीमद भागवत में लगभग 700 श्लोकों में कृष्ण की रासलीला वर्णित है यह प्रेम रूपी अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ का प्रेरक है। अंत में मैं कहूंगा लगभग 70 श्लोकों की सौन्दर्य लहरी भगवान शंकराचार्य जी ने मूल रूप से लिखी है जिसमें कि श्री त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति की गई है। यह जातक को श्रीविद्या के मार्ग पर ले जाती है।

           जब भगवान शंकराचार्य समस्त वाद-विवाद, युद्ध, ज्ञान विज्ञान, धर्म-अधर्म इत्यादि भगवती दुर्गा के गतिमान बनाये रखने के प्रपंचों को समझ गये और निर्वाण षट्कम तक आ गये। षट्कम का तात्पर्य 6 चक्रों को भेद गये तब सौन्दर्य लहरी प्रस्फुटित हुई और वे परम बिन्दु तक पहुँच गये, श्रीयुक्त हो गये। युद्ध से परे होना आसान नहीं है, युद्ध का तात्पर्य केवल भौतिक युद्ध से मैं नहीं कह रहा अपितु इसमें आंतरिक, वैचारिक, मानसिक तलों के भी युद्ध आते हैं। युद्ध का तात्पर्य है द्वंद। कहीं न कहीं द्वंद का होना अर्थात शक्तियों का आपस में टकराना, शक्ति संचय की प्रवृत्ति, शक्ति के प्रयोग की प्रवृत्ति । मारण, मोहन, सम्मोहन, स्तम्भन, विद्ववेषण, उच्चाटन इत्यादि शाक्तोपासक ही करते हैं वे शक्ति का उपयोग करते हैं। शक्ति अर्जित करना, शक्ति का उपयोग करना, शक्ति को नियंत्रित करना, शक्ति के बल पर इतराना, शक्ति का अनुसंधान करना ही जीव का कार्य है।

         यह कार्य कोई नेता बनकर करता है, कोई अभिनेता, कोई वैज्ञानिक, कोई दार्शनिक, कोई चिंतक, कोई साधक, कोई व्यापारी इत्यादि इत्यादि बनकर करता है। कुछ बनना, कुछ बिगाड़ना, कुछ खोजना, कुछ अविष्कृत करना, ध्यान करना, जप करना, तप करना, वरदान मांगना, आशीर्वाद मांगना इत्यादि इत्यादि शाक्तोपासना का विषय है अतः प्रथम श्वास से अंतिम श्वास तक किसी न किसी माध्यम से शाक्तोपासना तो हो ही जाती है। इस स्थूल, सूक्ष्म, दैवीय, अधिदैवीय, भौतिक, अधिभौतिक शाक्तोपासना में दुर्गा ही क्रियाशील होती हैं परन्तु इसके ऊपर भी कुछ है, इसके परे भी कुछ है। वह क्या है? वहाँ तक कैसे पहुँचा जाये? इसका विषय भगवती दुर्गा के पास आरक्षित है। 

        ऊपर वर्णित सभी स्थितियाँ को भय हैं, कोश ही दुर्ग कहलाता है। हम कोश में रहने के आदी हो गये हैं, कोश में रहने की प्रवृत्ति ही शरीर का निर्माण करती है। हमारा शरीर नाना प्रकार के कोशो से बना हुआ है, प्रत्येक कोश एक दुर्ग है और दुर्ग की रक्षिका दुर्गा हैं। पृथ्वी भी एक कोश हैं, नौ ग्रह भी कोश हैं, वन भी कोश है, जल भी है अर्थात चारों तरफ कोशमयता है अतः कोशिका रूपी जीवन ही हमारी पहचान है। अब कब तक किस कोश में किसको रहना है भगवती दुर्गा ही जाने। वे कब किसे किस कोश से निकाल दें, किस कोश में फेंक दें, किस कोश के अधीन कर दें यह उनका विषय है। लोक भी कोश हैं अर्थात दुर्ग है। देवासुर संग्राम में उन्होंने स्पष्ट कहा हे असुरों स्वर्ग लोक छोड़ों और पाताल लोक रूपी कोश में चले जाओ वे नहीं गये तो उन्होंने उन्हें उठाकर फेंक दिया एवं देवताओं को पुनः देव कोश में प्रतिष्ठित कर दिया। 

            द्वैत और अद्वैत को समझिये द्वैत का तात्पर्य है कोशमय। द्वैतमयी देवता भी शिथिल पड़ते हैं, रुद्र भी वृद्ध होते हैं, विष्णु एवं ब्रह्मा भी वृद्ध होते हैं अर्थात सभी वृद्ध हो गये इसलिए प्रलय को प्राप्त होते हैं। जैसे ही दुर्गा प्रस्थान करती हैं वृद्धता आ जाती है क्षयता आ जाती है, अतः वृद्धता एवं क्षयता को रोकने के लिए दुर्गा उपासना अत्यधिक आवश्यक है। अगर भगवती दुर्गा चाहें तो जातक को ऊपर वर्णित स्थितियों से मुक्त करके दसों महाविद्या में से किसी एक के द्वार खोलकर उसे वहाँ तक पहुँचा सकती हैं। किसे पहुँचायेंगी, क्यों पहुँचायेंगी, यह उनकी कृपा पर निर्भर करता है। पीताम्बरा शक्तिपीठ के महाराज जी शुरु शुरु में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे, प्रचण्ड दुर्गोपासक थे बाद में जाकर वे माँ बगलामुखी के उपासक हुए श्रीविद्या की तरफ अग्रसर हुए, भगवती दुर्गा ने पराद्वार खोल दिए।

            मार्कण्डेय मुनि ने नासिक के पास सप्तश्रृंगी की पहाड़ी पर बैठकर श्री दुर्गा सप्तशती की रचना की उनका जीवन भी बड़ा विचित्र है। उनकी आयु मात्र 16 वर्ष की थी यमराज उन्हें लेने आये तब शिव ने त्रिशूल से मारकर यमराज को भगा दिया और उन्हें कल्पांत जीवी बना दिया अर्थात एक कल्प के पश्चात् भी वे शरीर रूपी कोश में विद्यमान रहेंगे। धर्म, अर्थ, काम, प्रेम सब कुछ मार्कण्डेय मुनि ने अपने कल्पांत रूपी जीवन में भोग लिया। सृष्टि में भी शक्ति विलास को अपनी सभी बाह्य एवं आंतरिक इन्द्रिय से अनुभव कर लिया।

घोर जल प्रलय हो रहा था मार्कण्डेय मुनि जल में खड़े थर-थर कांप रहे थे, वे दुर्गा के परम गोपनीय प्रलय चण्डा के स्वरूप का भी अनुभव कर रहे थे। भगवान शरभ के एक पंख में दुर्गा विराजमान हैं तो दूसरे पंख में भद्रकाली भद्रकाली प्रलय की देवी हैं अतः आज उन्हें शरभेश्वर के दोनों पंखों के दर्शन हो गये। तभी वे देखते हैं कि एक वटवृक्ष के पत्ते पर बाल मुकुन्दम अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए शांति के साथ विराजमान हैं। हाँ विष्णु ही बाल मुकुन्दम हैं, विष्णु ही श्री पाण्डुनाथ भैरव हैं। उनका लघु कोशमय शरीर प्रलयकाल में भी भगवती दुर्गा सुरक्षित रखती है।

            मार्कण्डेय मुनि ने वह सब कुछ देख लिया जो कि सबके लिए सर्वथा दुर्लभ था तभी जाकर वे दुर्गा सप्तशती की रचना कर पाये, शक्ति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कर पाये। शक्ति की विहंगमता क्या है ? शक्ति शक्ति का भक्षण कर जाती है, शक्ति शक्ति में घुल मिल जाती है, शक्ति शक्ति का सृजन कर देती है, शक्ति असंख्य रूपों में विभक्त हो जाती है, शक्ति के असंख्य रूप पुनः एक जुट हो जाते हैं। शक्ति सौम्य भी हो जाती है, इतनी सौम्य कि ऐसा लगता है मानो इससे सौम्य तो कुछ और है ही नहीं परन्तु दूसरे ही क्षण शक्ति उग्र भी हो जाती है, इतनी उग्र कि वह रुद्रचण्डी बन जाती है। शक्ति हँसती है, शक्ति खिलखिलाती है, शक्ति चिल्लाती है, शक्ति क्रोधित होती है, शक्ति मारने दौड़ती है, शक्ति दुलारती है, शक्ति रोती है, शक्ति पगला जाती है, शक्ति बुद्धिमान बन जाती है इत्यादि इत्यादि । यही सब कुछ तो दुर्गा सप्तशती में वर्णित है। शक्ति की अधीनता जीव को स्वीकार करनी ही पड़ती है। 

        शक्ति सुलाती है और शक्ति उठा देती है यही है रात्रि रहस्यम् । शक्ति नाना रूप धरती है, शक्ति कुछ भी बन सकती है दो हाथ, चार हाथ, दो सिर, तीन सिर, एक आँख, तीन आँख, उड़ सकती है, रेंग सकती है, तैर सकती है, जला सकती है फिर भी सबसे परे रहती है। शक्ति के प्रपंच शक्ति ही जाने। सुर भी उसी में से निकलते हैं, सब जगह शक्ति मौजूद है। कितनी विहंगम है शक्ति दो अणुओं के बीच वह कितनी सौम्य लगती है परन्तु दो न दिखने वाले अणुओं के बीच से जब शक्ति विसर्जित होती है तो वह अणु बम बन जाती है। किसके मस्तिष्क में कौन सी शक्ति जागृत हो उठे माँ भगवती ही जाने। मैं किताब पढ़ रहा था श्री गुप्तावतार बाबा की वे प्रचण्ड दुर्गोपासक थे एवं उन्होंने सन 1904 में कुछ तांत्रोक्त संकल्प लिए। उनके संकल्प इस प्रकार के थे ब्रिटिशस्य पलायनम् कुरु, स्वराज्य प्राप्तार्थ श्री चण्डिका अनुष्ठानम्, राष्ट्र एकाकार्थे त्रिशक्ति चामुण्डा अनुष्ठानम् इत्यादि इत्यादि और यही सब हुआ। अचानक चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस इत्यादि आ गये, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा भारत वर्ष एक हो गया, स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई।

           परन्तु उनसे एक गलती हो गई, उनके एक अनुष्ठान का संकल्प था मलेच्छ शक्ति पलायनम् कुरु और भारत का विभाजन हो गया। यह प्रमाण सहित मंत्रमयी दुर्गा सप्तशती जो कि उनके द्वारा 1903 में लिखी गई थी में वर्णित है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि अनुष्ठानों के परिणाम शत प्रतिशत आते हैं। चाहे 1903 में करो या 2021 में शक्ति अनुष्ठानों के माध्यम से क्रियाशील होती ही है। उद्देश्य कुछ भी हो, समय सीमा का कोई महत्व नहीं है। समय तो कम ज्यादा होता ही रहता है। शंकराचार्य जी ने भी श्रीविद्या अनुष्ठान किए उसके परिणाम आज देखने को मिलते हैं। शक्ति केवल तात्कालिक विषय नहीं है, इसके अति दूरगामी परिणाम होते हैं। शाक्तोपासना चलती ही रहती है आपको आना चाहिए। 

       गुरु गोविन्द सिंह जी का उदय, क्षत्रपति शिवाजी का उदय, महाराणा प्रताप का उदय, भगत सिंह का उदय, नेता जी सुभाषचंद बोस का उदय इत्यादि शाक्तोपासना के द्वारा ही सम्पन्न हुआ। शक्ति गर्भ धारण करती ही है, शक्ति पुत्र उत्पन्न करती ही है। सम्भोग करना आना चाहिए यही पुरुषार्थ है। पुरुष को बीज रोपित करना आना ही चाहिए शक्ति तो गर्भिणी होगी ही। अनुष्ठान अपने आप में पुरुषार्थ है। हां नपुंसक, हिजड़े भी होते हैं उनमें पुरुषार्थ नहीं होता अतः वे बस आलोचना करते हैं, वे बीज विहीन होते हैं। बीज विहीन ही नास्तिक होते हैं। नास्तिक कुछ नहीं कुछ नहीं की मानसिकता से ग्रसित होते हैं। पुरुषार्थ शक्ति के साथ प्रणय करने का विधान है। कुछ नवीन, कुछ अद्भुत रचने का प्रयोग है।

भज गोविंदम् ।।

    रावण जैसा ज्ञानी, प्रकाण्ड शिव भक्त अपने जमाने का महान वेदन्ती ब्राह्मण पुरुष इतना नीचे गिर गया कि सीता जी का अपहरण करके ले आया। अपहरण और रावण, लंका में यह स्थिति किसी के गले नहीं उतर रही थी। भला रावण को क्या जरूरत पड़ी अपहरण की ? वह तो महान यौद्धा है, प्रचण्ड शक्तिशाली है, फिर वह इतना तुच्छ कर्म कैसे कर बैठा ? इसके पीछे रावण का एक ही उद्घोष था कि मार विष्णु-मार, उसने सीता हरण जैसा नीच कर्म सम्पन्न कर दिया कि अब तो विष्णु को लोक लज्जा निवारणार्थ मेरा वध करना ही होगा,मुझे मुक्ति देनी ही होगी, यही रावण तंत्र की विशेषता है कि आखिरकार विष्णु जिस स्थिति को टाल रहे थे उसे उसने प्राप्त कर ही लिया।

            राम ने हनुमान को भेजा,अंगद को भेजा उनकी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संधि प्रस्ताव हेतु, युद्ध टालने हेतु । हनुमान रुद्रांश हैं फिर भी अपनी प्रवृत्ति के विरुद्ध संधि का प्रस्ताव लेकर गये। लक्ष्मण शेषनाग का अंश हैं वे भी संधि, प्रस्ताव के विरुद्ध थे। वास्तव में राम के साथ सभी युद्ध प्रिय शक्तियां ही थीं। संधि का प्रस्ताव किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा था।इसके विपरीत रावण के आसपास शांतिप्रिय शक्तियां थीं विभीषण समझा रहा था, मंदोदरि समझा रही थी, माल्यवान समझा रहे थे,मेघनाथ भी समझा रहा था परन्तु रावण युद्ध चाह रहा था। 

        एक युग में जय-विजय नाम के विष्णु के दो पार्षद थे, अचानक एक दिन दुर्वासा स्वरूप एक मुनि विष्णु लोक में आये किन्तु विष्णु के दोनों गणों ने उन्हें अंदर प्रविष्ट होने से रोक दिया, उन्होंने श्राप दे दिया कि जाओ विष्णु से तुम्हारा वियोग हो जाये। कालान्तर विष्णु ने श्राप की गरिमा रखते हुए अपने गणों से कहा कि क्या चाहते हो?मुझसे सात जन्मों की दूरी जो कि विष्णु भक्तिपूर्ण होगी या फिर तीन जन्मों की दूरी जिसमें कि तुम विष्णु द्रोही होंगे। दोनों गण बोले हमें तीन जन्मों की ही दूरी मंजूर है चाहे वह विष्णु द्रोह की ही क्यों न हो। विष्णु ने तथास्तु कहा और दोनों गण हिरणयाक्ष और हिरणकश्यप के रूप में उत्पन्न हो गये। विष्णु द्रोह इनके मन में भरा हुआ था,यहाँ पर विष्णु ने फिर माया रची और प्रहलाद को इनके कुल में उत्पन्न कर दिया। विष्णु द्रोहियों के अंश से परम विष्णु भक्त उत्पन्न हो गया अब तो न चाहकर भी प्रतिक्षण विष्णु का नाम ही हिरणकश्यप के मुख पर था। 

         यह भी एक विधान है,शत्रु का नाम तो मुख पर होता ही है, शत्रु का नाम लेने में भीषण कष्ट होता है,तप तो इसमें भी हो जाता है। नास्तिक भूल क्यों नहीं जाते ? विरोधी भूल क्यों नहीं जाते ? बहुत से लोग किसी विशेष गुरु या देव शक्ति को गाली देते रहते हैं,अपशब्द बोलते रहते हैं, बेमतलब में चिंतन करते रहते हैं। यह उन बेचारों की शाप ग्रस्तता होती है। एक व्यक्ति मुझे मिला वह बस मेरे गुरु के नाम से रोता रहता है, मैंने उससे कहा चार वर्ष हो गये उन्हें शरीर त्यागे और तू बीस वर्ष से उनके नाम से क्यों रोता रहता है? भूल क्यों नहीं जाता, जाकर कहीं और अपना मुँह काला क्यों नहीं करता?जब देखो तब रो-रोकर उनका नाम रटता रहता है। तू उन्हें नहीं मानता, उनके प्रति श्रद्धा नहीं है, उनके कारण कष्ट है तो अब भूल जा क्यों नहीं वे तेरे दिमाग से निकलते?चौबीसों घण्टे उलट क्रिया के माध्यम से तू क्यों उन्हें रटता रहता है? उसके तू पास कोई जबाव नहीं था। 

        ऐसा ही होता है, राम को प्रस्थान किये पता नहीं कितने हजार वर्ष हो गये, कृष्ण को प्रस्थान किये युगो बीत गये, अनंत जनमानस उनकी भक्ति में लीन रहता है फिर भी कुछ शापित, अभिशप्त नास्तिक जगत में बैठकर उन्हें उलट माध्यम से भजते रहते हैं। यह उनका श्राप है। ईश्वर का सबसे बड़ा दण्ड मनुष्यों को क्या है ? एक दिन रात्रि में दो बजे चिंतन कर रहा था, जब दुनिया सोती है तभी वास्तविक चिंतन होता है। ईश्वर है सबको मालुम है, भगवान है सबको मालुम है, उन्हें प्रमाणित करना,अप्रमाणित करना यही दर्शाता है। कि ईश्वर सर्वत्र हैं परन्तु मनुष्य को दण्ड यह है कि जिससे वह परम प्रेम करता है, जिसे देखने के लिए उसकी आँखें तरसती हैं, जिसका स्पर्श करने के लिए वह आतुर रहता है, जिसकी शरण में वह जाना चाहता है वही उसे चर्म चक्षु से दिखाई नहीं देता, उसी से वह बातचीत नहीं कर पाता, उसी के सानिध्य में वह नहीं रह पाता, यह न्यूनता है शरीर की, यह न्यूनता है पंचेन्द्रियों की। 

           मानव जगत का सारा गुस्सा, सारा क्षोभ ईश्वर पर सिर्फ इसी कारणवश है। नास्तिकता सिर्फ इसी कारणवश है।नास्तिक अंदर से बड़े वेदनामयी होते हैं,भक्ति का यह रूप अत्यंत ही कष्ट एवं पीड़ादायक है, नास्तिकता इसीलिए बनाई गई है।सामान्य मनुष्यों को नास्तिकता प्राप्त नहीं होती,यह तो असामान्य मनुष्यों को प्राप्त होती है। असमान्य को असमान्य स्थिति ही विष्णु देते हैं। 

हिरणकश्यप ने भी वही घिसी-पिटी बात कही कि कहाँ है विष्णु, प्रत्यक्ष दिखा प्रहलाद प्रहलाद के गुरु को हिरणकश्यप पकड़ लाया था वह कहने लगा कि इसी गुरु ने मेरे पुत्र को विष्णु भक्ति सिखाई है अतः इसे मृत्युदण्ड मिलना चाहिए परन्तु प्रहलाद ने कहा नहीं मेरे गुरु ने विष्णु भक्ति नहीं सिखाई है मैं स्वयं इसे करता हूँ। हिरणकश्यप विष्णु का अनुसंधान कर रहा था परन्तु आज पराकाष्ठा का समय आ पहुँचा वह बोला कहाँ है विष्णु ।

         हिरणकश्यप ने ॐ नमः शिवाय का जप कर शिव से अनेकों माध्यमों से अपनी मृत्यु को कवचित कर लिया था परन्तु अचानक भक्त की रक्षा हेतु खम्भा फाड़कर नरसिंह अवतार के रूप में विष्णु प्रकट हो गये। हिरणकश्यप को जाँघों पर लिटा उसका पेट फाड़ डाला एवं उसकी आँतें अपने गले में माला के समान लपेटं लीं, प्रत्यक्षीकरण हो गया। यह बात इसलिए लिखी कि नरसिंह स्तोत्र केवल शिष्यों के लिए बना है। नरसिंह स्तोत्र का उत्कीलन केवल गुरु की रक्षा, धर्म की रक्षा और नास्तिकों के विनाश के लिए ही किया जाता है। विष्णु तंत्र का अतिमहत्वपूर्ण भाग है नरसिंह स्तोत्र, नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु की शक्ति धर्म रक्षार्थ, गुरु रक्षार्थ प्रकट होती है। 

         पद्मपाद ने नरसिंह स्तोत्र के माध्यम से ही अपने गुरु आदि शंकराचार्य जी के ऊपर किये गये तांत्रिक प्रयोगों को नष्ट किया था। कामाख्या में एक दुष्ट तांत्रिक ने आदि गुरु शंकराचार्य जी से दीक्षा लेकर उन्हीं पर मारण प्रयोग किया, आदि शंकर का शरीर सूख गया, वे भगन्दर की गम्भीर बीमारी से ग्रसित हो गये। वे लाचार थे, जानते हुए भी तांत्रिक का अनिष्ट नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उसने शिष्यता जो ग्रहण कर ली थी तब पद्मपाद ने नरसिंह साधना के द्वारा उस तांत्रिक को मृत्यु प्रदान की थी। दक्षिण में जब एक कापालिक वरदान के माध्यम से शंकराचार्य जी का शीश काटने वाला था तब भी नरसिंह साधना के माध्यम से पद्मपाद ने उसका मर्दन किया था। नरसिंह साधना प्रचण्ड आवेशात्मक है एवं साधारणतया इसका उपयोग नहीं किया जाता। ठीक इसी प्रकार परशुराम साधना भी नहीं की जाती क्योंकि इसमें क्रोध का अद्भुत सम्मिश्रण है। 

        कलियुग में विष्णु अवतार के रूप में राम, कृष्ण, बुद्ध की ही साधना ज्यादा श्रेयष्कर और हितकर है। हिरणकश्यप और हिरणयाक्ष पुनः रावण एवं कुम्भकरण के रूप में त्रेता युग में एक बार पुनः उपस्थित हुए और राम के हाथों मृत्युप्राप्त कर पुनः बैकुण्ठ धाम में परम वैष्णव पद पर आरूढ़ हुए। . सृष्टि का एक विधान है इसमें जन्म मृत्यु का एक चक्र चलता रहता है इस चक्र में जीव अपने कर्मानुसार फल को प्राप्त करते हुए विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है। कर्म की व्यवस्था विष्णु के द्वारा रचित है। अधिकांशतः वे इस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करते, यह कार्य धर्मराज एवं चित्रगुप्त सम्हालते हैं। ॥ श्री चित्रगुप्ताय नमः ॥ अनेकों देवी देवता हैं एवं उनमें लोलुपता है, कर्म भ्रष्टता है, शाप ग्रस्तता भी है। विष्णु भी शापित हो जाते हैं, दुर्वासा भी शापित हो जाते हैं, इन्द्र तो शापित होते रहते हैं, यमराज भी शापित हुए हैं परन्तु चित्रगुप्त आज तक शापित नहीं हुए, चित्रगुप्त आज तक भ्रष्ट नहीं हुए, . चित्रगुप्त आज तक लोलुप नहीं हुए। 

       हमारी पृथ्वी पर तो हत्या करो अदालत से छूट जाओ, चोरी करो और नेता बन जाओ, भ्रष्ट आचरण करो और सत्ता सुख भोगो इत्यादि सब कुछ चलता रहता है परन्तु चित्रगुप्त के यहाँ जब खाता खुलता है तो कर्मों का एक-एक चित्र चाहे वह सात तालों के पीछे छिपकर सम्पन्न क्यों न किया गया हो चित्रगुप्त के खाते में दर्ज होता है। यहाँ पर उलटफेर सम्भव नहीं है, यहाँ पर झूठ को सच दिखाना असम्भव है। उनका नाम ही है चित्रगुप्त अर्थात जीव के गुप्त से गुप्त चित्र भी उनके खाते में दर्ज होते ही हैं। नर्क मिलना हैं या स्वर्ग, विष्णु लोक मिलना है या शिव लोक, साधु के वेश में चोर तो नहीं है इत्यादि का फैसला चित्रगुप्त के यहाँ हो ही जाता है, कोई इससे नहीं बच पाता और कर्मानुसार चित्रगुप्त हिसाब किताब बता देते हैं एवं जीवात्मा को आगे की यात्रा तय करनी पड़ती है।

           सबसे गोपनीय, सबसे विश्वसनीय, सबसे महत्वपूर्ण विष्णु तंत्र में चित्रगुप्त का पद है। कर्म की व्याख्या जो प्रभु श्रीकृष्ण ने गीता में की है वह पूरी की पूरी चित्रगुप्त की ईमानदारी पर टिकी हुई है अगर सोचें कि चित्रगुप्त के पद पर इस पृथ्वी के समान भ्रष्ट, घूसखोर, लोलुप, आधे अधूरे स्वार्थी तत्व विद्यमान हो जायें तो असुर प्रवृत्ति के जीव स्वर्ग पहुँच जायेंगे, नर्क के कीड़े बैकुण्ठधाम में घूमेंगे और सृष्टि समाप्त हो जायेगी। अतः विष्णु सदैव चित्रगुप्त की मर्यादा की रक्षार्थ सक्रिय रहते हैं परन्तु इसके अलावा इस भूमण्डल पर विशेष कारणों से, विशेष परिस्थितियों में कुछ समय के लिए अनेक दिव्य ग्रहों एवं लोकों से विभिन्न आत्म्मएं शाप ग्रस्ततावश आज्ञावश, तपवश विशेष कार्य हेतु अंशात्मक रूप से उदित होती है। यह एक विशेष दर्जा है, एक विशेष श्रेणी है अतः इनकी मुक्ति हेतु, इनकी कर्म बाद्धयता समाप्ति हेतु, पुनः शुद्धता हेतु विष्णु तंत्र में अनेकों व्यवस्थायें हैं, अनेकों उद्धारक स्थितियां अनुष्ठान, व्रत इत्यादि हैं।

        एकादशी व्रत का महत्व अपने आपमें अद्भुत है। पाप और पुण्य की व्यवस्था से जीव जगत बाधित है, सामान्य कार्यों से सामान्य पाप और पुण्य फल के रूप में उदित होते हैं। विष्णु भक्ति का इतना महत्व है कि कई बार तो चित्रगुप्त भी वैष्णव जनों की भक्ति से उत्पन्न हुए पुण्यों का हिसाब' रखने में अक्षम साबित होते हैं अतः ऐसी स्थिति में उच्चता का निर्माण होता है और तब जीवात्मा के शरीर त्यागते समय दिव्य विमान विष्णु लोक से आते हैं, ब्रह्मलोक से आते हैं, देवी लोक से आते हैं, शिव लोक से आते हैं एवं दिव्य आत्माएं उन पर आरूढ़ हो अपने अपने मूल लोकों को गमन करती हैं। 

 कुबेर प्रतिदिन भगवान शिव की ब्रह्मकमलों से पूजा करते थे, उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में हेममाली नाम का यक्ष पुष्प लाकर देता था। हेम माली की पत्नी अत्यंत सुन्दर थी, वह उसमें बुरी तरह आसक्त था। कुबेर एक दिन बैठे रह गये, वह पुष्प लेकर ही नहीं आया। कुबेर ने यक्षों को भेजा तो पता चला हेममाली पत्नी के साथ सो रहा है। कुबेर को क्रोध आ गया वे बोले मूर्ख मैं यहाँ शिव पूजन के लिए बैठा हूँ और तू रूप में उलझा हुआ है जा रूप विहीन हो जा। गलती तो हेममाली से हो गई थी अतः वह विकृत हो, सम्पूर्ण शरीर में कोढ़ ग्रस्तता से ग्रसित हो वन में छिपकर दण्ड भोगता हुआ घूमने लगा। अचानक लोमश ऋषि की शरण में पहुँच गया, गिड़गिड़ाने लगा, लोमश द्रवित हो गये। 

        लोमश ऋषि का सम्पूर्ण शरीर बालों से आच्छादित है उनका एक रोम एक कल्प में गिरता है, कितनी नित्यता है उनमें आपके बाल तो दिन भर गिरते रहते हैं। विष्णु नित्यता का प्रतीक हैं, वे वृद्धता को भगाते हैं। लोमश बोले जा एक वर्ष एकादशी का पूर्ण श्रद्धा के साथ व्रत कर एवं पीपल के वृक्ष में प्रतिदिन जल चढ़ा, श्राप ग्रस्तता से मुक्त हो जायेगा। हेममाली ने ऐसा ही किया एवं एक वर्ष बाद पुनः वह कुबेर की सेवा में उपस्थित हुआ। कुबेर आश्चर्य चकित हो गये कि यह क्या ? यह तो शाप बंधन से मुक्त हो गया। 

         इन्द्र की सभा में दो अप्सरायें नृत्य कर रही थीं नृत्य करते-करते कुछ सोचने लगीं, इन्द्र ने श्राप दे दिया जाओ वनस्पति जाओ। दोनों बेचारी बबूल का पेड़ बन पृथ्वी लोक में आ गईं अचानक एक दिन एक वैष्णव संत दोनों पेड़ों के बीच सो गये, उनके स्पर्श से उनकी शाप मुक्तता हो गई और पुनः इन्द्रलोक को प्राप्त हुई। कर्म के बंधन बनाते हैं विष्णु कर्म की व्याख्या करते हैं विष्णु कर्म के आधार पर चलाते हैं विष्णु और कर्म बंधनों से मुक्ति भी दिलाते हैं विष्णु, कर्म के पाशों को काटते हैं विष्णु क्या पृथ्वी कारागृह है ? क्या पृथ्वी शापित मनुष्यों का प्लेटफार्म है? क्या है यह ? आखिरकार पृथ्वी पर जीव क्यों आता है ? मैं क्या जानूं ? मैं खुद पृथ्वी पर भटक रहा हूँ। हाँ बस इतना कह सकता हूँ कि गीता पढ़ो शायद तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाये। निश्चित ही मिलेगा, नहीं तो विष्णु से पूछो।