घोरचण्डी महाचण्डी चण्डमुण्डविखण्डिनी।
चतुर्वक्त्रा महावीर्यां महादेविभूषिता ॥
रक्तदन्ता वरारोहा महिषासुरमर्दिनी ।
तारिणी जननी दुर्गा चण्डिका चण्डविक्रमा ॥
गुह्यकाली जगद्धात्री चण्डी च यामलोद्भवा।
श्मशानवासिनी देवी घोरचण्डी भयानका ॥
शिवा घोरा रुद्रचण्डी महेशा गणभूषिता ।
जाह्नवी परमा कृष्णा महात्रिपुरसुन्दरी ॥
श्रीविद्या परमाविद्या चण्डिका वैरिमर्दिनी।
दुर्गा दुर्गशिवाघोरा चण्डहस्ता प्रचण्डिका ॥
माहेशी बगलादेवी भैरवी चण्डविक्रमा।
प्रमथैर्भूषिता कृष्ण चामुण्डामुण्डमर्दिनी ॥
रणखण्डा चन्द्रघण्टा रणेरामवरप्रदा ।
मारणी भद्रकाली च शिवा घोराभयानका ॥
विष्णुप्रिया महामाया नन्दगोपगृहोद्भवा ।
मंगला जननीचण्डी महाकुद्धा भयंकरी ॥
विमला भैरवी निद्रा जातिरूपा मनोहरा ।
तृष्णा निद्रा क्षुधा माया शक्तिर्मायामनोहरा ॥
तस्यै देव्यै नमस्तस्यै सर्वरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
भवानी च भवानी च भवानी चोच्यते बुधैः ।
भकारस्तु भकारस्तु भकार: केवलः शिवः ॥
महाचण्डी शिवा घोरा महाभीमा भयानका ।
कांचनी कमला विद्या महारोगविमर्दिनी ॥
गुह्यचण्डी घोरचण्डी चण्डी त्रैलोक्यदुर्लभा ।
देवानां दुर्लभा चण्डी रुद्रयामलसंमता ॥
अप्रकाश्या महादेवी प्रिया रावणमर्दिनी ।
मत्स्यप्रिया मांसरता मत्स्यमांसबलिप्रिया ॥
मदमत्ता महानित्या भूतप्रमथसंगता ।
महाभागा महारामा धान्यदा धनरत्नदा ॥
वस्त्रदा मणिराज्यादि सदाविषयवर्धिनी ।
मुक्तिदा सर्वदा चण्डी महाविपद्नाशिनी ॥
रुद्रध्येया रुद्ररूपा रुद्राणी रुद्रवल्लभा ।
रुद्रशक्ति रुद्ररूपा रुद्रमुखसमन्विता ॥
शिवचण्डी महाचण्डी शिवप्रेतगणान्विता ।
भैरवी परमाविद्या महाविद्या च षोडशी ॥
सुन्दरी परमापूज्या महात्रिपुरसुन्दरी ।
गुह्यकाली भद्रकाली महाकालविमर्दिनी ॥
कृष्णा तृष्णास्वरूपां सा जगन्मोहनकारिणी ।
अतिमंत्रा महालज्जा सर्वमंगलदायिनी ॥
घोरतंत्री भीमरूपा भीमा देवी मनोहरा ।
मंगला बगला सिद्धिदायिनी सर्वदा शिवा ।।
स्मृतिरूपा कीर्तिरूपा योगींद्रैरपि सेविता ।
भयानका महादेवी भयदुःख विनाशिनी ॥
चण्डिका शक्तिहस्ता च कौमारी सर्वकामदा।
वाराही च वराहास्या इन्द्राणी शक्रपूजिता ।।
माहेश्वरी महेशस्य महेशगणभूषिता ।
चामुण्डा नारसिंही च नृसिंहशत्रुविमर्दिनी ॥
सर्वशत्रुप्रशमनी सर्वारोग्यप्रदायिनी ।
इति सत्यं महादेवि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥
यह 25 श्लोकों की स्तुति रुद्रचण्डी कहलाती है। इसके प्रथम दस श्लोकों का पाठ कामापराधों के शमन करने के लिये होता है। बाद के पंद्रह श्लोक भी अघमर्षण के लिये किये जाते हैं। व्यक्ति निर्मल होने पर ही आध्यात्मिक शांति का अधिकारी होता है। चण्डी का अर्थ घोर होता है इसका घोरस्वरूप एक सहज एवं आवश्यक अवस्था है। महिष, शुंभ, निशुंभ, चण्ड, मुण्ड जैसे क्रूरकर्मा और प्रचण्ड पराक्रमी असुरों का विनाश सौम्य रूप से संभव नहीं होता इसलिए परमवात्सल्यरूपिणी माँ को चण्डी, चामुण्डा जैसे रूप धारण करने पड़ते हैं। इन श्लोकों में वह रुद्र और विकट हो जाती है इसलिए उसकी उग्रता और बढ़ जाती है। परमा का भक्तों को भयभीत करने के लिए नहीं होता अपितु उसके दुष्कर्मों का नाश करने के लिये होता है। चण्ड और मुण्ड नाम दैत्य एक दुष्प्रेरणा है जो शुंभ और निशुंभ के काम को अहंकार के माध्यम से उद्दीप्त करते हैं। शुंभ-निशुंभ के स्तुतिगान में वे उसकी, उसके सुन्दर वस्तुओं के प्रति मोह अपहरण और बल की महिमा बखानते हैं और एक दुष्कर्म के लिये प्रेरित करते हैं। इस प्रेरक शक्ति के शुद्ध रूप को चामुण्डा कहा जाता है, चामुण्डा का प्रखर तेजस्वी रूप चण्डी कहलाता है। माँ के दुर्गा, चामुण्डा अथवा चण्डी स्वरूप के समक्ष बैठकर इसका नित्यपाठ करने से पापक्षय होता है और साधक निर्मल व निर्भय होता है।
नवरात्रि को देवत्व के स्वर्ग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता है। उस अवसर पर सुसंस्कारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हें सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलब्ध हुई मानी जाती हैं। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगें भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सके तो दैवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नवरात्रियों का पर्व मुहूर्तों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृति की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण एवं लोक मंगल क्रिया कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं।
बसन्त आते ही कोयल कूकती और तितलियाँ फुदकती दृष्टिगोचर होती हैं। भोंरे गूँजते हैं जबकि अन्य ऋतुओं में उनके दर्शन भी दुर्लभ रहते हैं। वर्षा आते ही मेंढक बोलते और मोर नाचने लगते हैं जबकि साल के अन्य महीनों में उनकी गतिविधियाँ कदाचित ही दृष्टिगोचर होती हैं। आँधी तूफान और चक्रवातों का दौर गर्मी के दिनों में रहता है। ग्रीष्म का तापमान बदलते ही उनमें से किसी का पता नहीं चलता। ठीक यही बात नवरात्रियों के समय पर भी लागू होती है।
प्रातःकाल और सायंकाल की तरह इन दिनों की भी विशेष परिस्थितियाँ होती हैं उनमें सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह उभरते और मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। न केवल प्रभावित करने वाली वरन् अनुमूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बनती हैं। इसे समय की विशेषता कह सकते हैं। जीवधारियों में से अधिकांश को इन्हीं दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती है और वे गर्भाधान सम्पन्न कर लेते हैं। इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपना रौल पूरा करते हैं- सूत्र संचालन तो किसी ऐसे अविज्ञान मर्मस्थल से होता है जिसे सूक्ष्म जगत याa अन्तर्जगत के नाम से मनीषी व्याख्या- विवेचना करते रहते हैं। नवरात्रियों में कुछ ऐसा वातावरण रहता है जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनते देखी जाती है।
सूर्य के उदय और अस्त होते समय आकाश में लालिमा छाई रहती है और उस अवधि के समाप्त होते ही वह दृश्य भी तिरोहित होते दीखता है। इसे काल प्रवाह का उत्पादन कह सकते हैं। ज्वार भाटे हर रोज नहीं अमावस्या पूर्णमासी को ही आते हैं। उमंगों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात है कि वे मनुष्य की स्व उपार्जित ही नहीं होतीं वरन् कभी- कभी उनके पीछे किसी अविज्ञात उभार का ऐसा दौर काम करता पाया गया है कि चिन्तन ही नहीं कर्म भी किसी ऐसी दशा में बहने लगता है जिसकी इससे पूर्व वैसी आशा या तैयारी जैसी कोई बात नहीं थी। ऐसे अप्रत्याशित अवसर तो यदा- कदा ही आते हैं पर नवरात्रि के दिनों अनायास ही अन्तराल में ऐसी हलचलें उठती हैं जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है मानो अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसा हो।
ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी ऋषियों, मनीषियों ने नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े सही पर नवरात्रि में आध्यात्मिक तप साधना का सुयोग बिठाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। तंत्र विज्ञान के अधिकांश कोलकर्म इन्हीं दिनों सम्पन्न होते हैं। वाम मार्गी साधक अभीष्ट मन्त्र सिद्ध करने के लिए इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं।
नवरात्रि देव पर्व है। उसमें देवत्त्व की प्रेरणा और उवी अनुकम्पा बरसती है। जो उस अवसर पर सतर्कता बरतते और प्रयत्नरत होते हैं, वे अन्य अवसरों की उपेक्षा इस शुभ मुहूर्त का लाभ ही अधिक उठाते हैं। भौतिक लाभों को सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण और प्रगति के अनुकूलन में सिद्धियों की आवश्यकता पड़ती है। उस आधार पर जो मिलता है उसे वरदान कहा जाता है। नवरात्रियाँ वरदानों की अधिष्ठात्री कही जाती हैं, पर इस शुभ अवसर पर वास्तविक लाभ है देवत्त्व की विभूतियों का जीवनचर्या में समावेश। वह जिसे जितनी मात्रा में मिलता है वह उतनी ही कला क्षमता का नर देव कहलाता है। देवता स्वर्ग में ही नहीं रहते अपितु महामानवों के रूप में इस धरती पर विचरते हैं।
नवयुग देवत्व प्रधान होगा। उसमें वे प्रयत्न चलेंगे जो मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकेंगे। जहाँ देवता बसते हैं वहाँ स्वर्ग होता है। जहाँ स्वर्ग होगा वहाँ देवता ही बसते होंगे। इसी तथ्य के आधार पर यह अपेक्षा की गई कि उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा जो सुखद वातावरण बनेगा उसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की उपमा दी जा सकेगी।
युग सन्धि की नवरात्रियों में विशेष सम्भावना इस बात की है कि उनमें अदृश्य लोकों में देवत्व की अतिरिक्त वर्षा हो और उस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता सम्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। युग परिवर्तन की अवसर प्रक्रिया को गतिशील बनाने में इन देव मानवों का ही योगदान प्रमुख रहा है। तत्वदर्शी कहते हैं कि अवतार अकेले ही अपना प्रयोजन पूरा नहीं कर लेते उनके साथ- साथ अनेक सहयोगी भी होते हैं और वे भी देवलोक से उसी प्रयोजन के लिए शरीर धारण करते हैं। पाँचों पाण्डव पाँच देवताओं के अवतार थे। हनुमान- अंगद आदि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है। इन दिनों सूजन योजनाओं में देव मानवों का यह साहस एवं प्रयास ही अग्रिम मोर्चा सँभालते दिखाई देगा।
नवयुग सृजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का यही शुभ मुहूर्त है। प्रज्ञा युग की प्रेरणा को अपनाने और विधि व्यवस्था को चरित्र करने के लिए यों हर घड़ी पवित्र और महत्त्वपूर्ण है, पर इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गई है। यों उपासना की चिन्ह पूजा भी बीजारोपण की दृष्टि से उपयोगी मानी गई है और उसे किसी भी रूप में किसी भी मनःस्थिति में अपनाये रहने पर जोर दिया गया है। फिर भी उसे निष्ठापूर्वक अपनाने की प्रौढ़ता का स्तर ऊँचा ही रहता है। उच्चस्तरीय सत्परिणामों की आशा- अपेक्षा योजनाबद्ध तपश्चर्या अपना कर की जाने वाली साधना के साथ अविच्छन्न रूप से सम्बन्धित है।
नवरात्रि पर्व का ऋतु संध्या मुहूर्त विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं विशिष्ट साधना पद्धति के कारण भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। नैष्ठिक साधकों के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में अनुष्ठान साधना एक अत्यावश्यक पुण्य परम्परा के रूप में सदा सर्वदा से अपनाई जाती रही है।
सर्दी और गर्मी दो ही प्रधान ऋतुएं हैं उनका मिलन एक प्रकार से वैसा ही सन्धि काल है जैसा कि रात्रि के अन्त और दिन के प्रारम्भ में प्रभातकाल के रूप में उपस्थित होता है। सन्धियाँ सदा मार्मिक होती हैं। शरीर में अस्थिपञ्जर से बने हुए जोड़ों को भी सन्धियाँ कहते हैं। इन्हीं के यथावत् रहने पर काया की विभिन्न क्रिया- प्रक्रियायें गतिशील रहती हैं। यह जोड़ यदि जकड़ने लगें तो फिर चलना- फिरना तो दूर मुड़ना भी सम्भव न रहेगा। मशीनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी क्षमता एवं गतिशीलता उनकी सन्धियों के सही गलत होने पर ही निर्भर रहती है। इन दिनों युग सन्धि चल रही है अतएव जाग्रत आत्माओं को आपत्ति- कालीन व्यवस्था की तरह युग धर्म के निर्वाह में जुटना पड़ रहा है। ऋतु संध्या आश्विन और चैत्र में जिन दिनों आती है उन नौ- नौ दिनों की अवधि को नवरात्रि कहते हैं। ऋतुओं में ऋतुमती होने और वातावरण में नये- नये अनुदान देने का दृश्य सूक्ष्म जगत में इन्हीं दिनों दृष्टिगोचर होता है।
ऐसे- ऐसे अनेकों कारण हैं जिनके कारण अध्यात्म क्षेत्र में साधना प्रयोजनों के लिए यह समय विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार प्रभात काल की उपासना अधिक फलवती होती और संध्या के नाम से पुकारी जाती है। उसी प्रकार नवरात्रियों का समय भी दोनों सन्ध्याओं के समतुल्य माना गया है।
सर्वविदित है कि युग सन्धि की इस परिवर्तन बेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सम्वर्धन को लक्ष्य रखकर जो बीस वर्षीय योजना बनी है उसमें नैष्ठिक महापुरश्चरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। एक लाख नैष्ठिक उपासकों द्वारा बीस वर्षीय संकल्प लेकर इतिहास काल के इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन हुआ है। उसकी भागीदारी लेने वाले साधकों को आधा घन्टे में सम्पन्न हो सकने वाली पाँच मालाओं का नित्य जप करना होता है। साथ ही गुरूवार के दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत साधना का भी अनुशासन जुड़ा है। इसके अतिरिक्त सामूहिक रूप में मासिक यज्ञ करने की व्यवस्था उन्हें बनाये रखनी होती है। सामान्यतया चलने वाले यही अनुबन्ध है जिनका परिचालन करते हुए युग सन्धि महापुरश्चरण की भागीदारी को गतिशील रख जाता है।
इन सामान्य नियमों के अतिरिक्त असामान्य तप साधना के रूप में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में उन्हें २४ हजार के गायत्री अनुष्ठान भी करने होते हैं। उस समय वे नहीं कर सकते तो आगे पीछे हटकर भी उसकी पूर्ति करनी होती है। यह अनिवार्यता इसलिए रखी गई है कि इन नौ दिनों के साधना सत्रों में वे सभी प्रयोजन पूरे होते हैं जो जन मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की उभयपक्षीय युग चेतना के अग्रगणी बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है।
गायत्री अनुष्ठानों के नवरात्रि परम्परा के पीछे ऐसे- ऐसे अनेकों कारण सन्निहित हैं इसलिए उपासना में अभिरूचि रखने वाले इन दिनों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और वर अवसर पर कुछ न कुछ व्रत पालन निश्चित रूप से करते हैं।
जो साधारणतया दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं और यदा- कदा ही कभी कुछ पूजा पाठ करते हैं ऐसे लोगों पर भी जोर दिया जाता है कि वे कम से कम उन दिनों तो कुछ नियम निबाहें और निश्चित साधना की बात सोचें। इन अभ्यासों के लिए भी कई प्रकार की सरल साधनाओं की विशेष व्यवस्था की जाती है ताकि उन्हें बोझ लगने और मन उचटने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन्त्र लेखन गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उसी आधार पर बनी हैं और २४ हजार वाली संख्या को घटा कर १० हजार तक हलका कर दिया गया है। नौ दिन में दस हजार जप करने का तात्पर्य मात्र हर रोज एक घण्टा समय लगाना भर होता है। यह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। मन्त्र लेखन हर रोज ११२ करने में नौ दिन में एक हजार लिख जाते हैं यह भी एक अनुष्ठान है। गायत्री चालीसा के हर दिन बारह पाठ करने से नवरात्रि में १०८ हो जाते हैं। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ यह पंचाक्षरी गायत्री है। इतना तो अशिक्षित एवं बालक भी याद कर सकते हैं और सुविधानुसार संख्या निर्धारित करके उसकी पूर्ति करते रह सकते हैं। प्रमुख तथ्य नियमितता है, न्यूनाधिकता नहीं। नियमित साधना को अनुष्ठान कहते हैं। उसके साथ तपश्चर्याओं का अनुशासन जुड़ जाने से उसकी संज्ञा पुरश्चरण की जाती है। अनुष्ठान पुरश्चरण हलके भारी स्तर के भी होते हैं।
अनभ्यस्त लोगों के लिए उपासना क्रम में सरलता उत्पन्न करने की तरह व्रत अनुशासनों में भी ढील देकर उन्हें मनीषियों ने बाल सुलभ बना दिया है। भूमिशयन, स्वयं सेवा, उनके लिए अनिवार्य नहीं। ब्रह्मचर्य तो आवश्यक है। पर उपवास में भी ढील की काफी गुंजायश बना दी गई है। रोटी- शाक, दाल- चावल जैसे दो वस्तुओं के युग्म अपना कर नौ दिन काट लेने में मात्र पदार्थों का सीमा बन्धन ही है भूखा रहने जैसी कोई कठिनाई नहीं है। जो इससे आगे बढ़ सकते हैं वे बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत पालने की हिम्मत भी दिखा लेते हैं। एक समय पूरा भोजन एक समय फल दूध जैसी सरलता उन्हीं लोगों के लिए बनाई गई है जो उपवास करना चाहते हैं पर ऐसी सरलता ढूँढ़ते हैं जिसमें भूखा न रहना पड़े। ऐसे लोगों को निराश न होने देने और न कुछ से कुछ। अच्छा की सरलता की गई है। इस आधार पर बाल- वृद्ध, और व्यस्त लोग भी नवरात्रि में कुछ न कुछ नियमित साधना का सुयोग बना सकते हैं।
गायत्री परिवार का जहाँ भी छोटा बड़ा संगठन है वहाँ नवरात्रि पर्व मनाने का प्रयत्न निश्चित रूप से किया जाता है। यों व्यक्तिगत एकाकी साधना करने पर भी रोक नहीं है, पर प्रयत्न यही किया जाता है कि सामूहिक उपासना का उपक्रम बने और उसे एक उत्साह आयोजन का स्वरूप मिले। ऐसी व्यवस्था बनाने में उत्साही लोगों को स्वयं आगे रहने, थोड़ी दौड़ धूप करने साधन जुटाने एवं जन- सम्पर्क साधकर उत्साह दिलाने जैसे प्रयत्न करने होते हैं। ऐसा कुछ कर पाने वाले उत्साही जहाँ एक दो भी हों वहाँ नवरात्रि आयोजन की व्यवस्था सहज ही बन जाती है। वह न तो महँगी है और न कठिन कष्ट साध्य। जो इसके लिए आगे बढ़कर साहस दिखाते हैं उन्हें अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि भारत जैसे धर्म प्रकृति वाले देश में नवरात्रि आयोजनों को साधना सत्रों के रूप में विकसित और व्यापक बना सकने में अनुत्साह के अतिरिक्त और कोई भी कठिनाई नहीं है जो हँसते- हँसाते हल न की जा सके।
युग सृजन अभियान में नवरात्रि पर्व को साधना सत्र आयोजन के रूप में नियोजित करने और सफल बनाने पर आरम्भ से ही बहुत जोर दिया जाता रहा है। इसमें उपासना और साधना के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। प्रातःकाल सामूहिक जप, हवन- पूजन का और सायं- काल संगीत प्रवचन के ज्ञान यज्ञ की व्यवस्था रहती है। उपासना से आत्म कल्याण की और जीवन साधना की प्रगति भी सदा उसी के सहारे सम्पन्न होती रही है। भविष्य निर्माण में सज्जनों की संगठित सृजन चेतना की ही प्रमुख भूमिका होगी। राम काल के रीछ बानर, कृष्ण काल के ग्वाल- बाल, बुद्ध के भिक्षु सहयोगी, गांधी के सत्याग्रही इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि महान प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सज्जनों की सहकारिता सम्पादित किये बिना कोई चारा नहीं। देवताओं की संयुक्त शक्ति, दुर्गा ने ही उन्हें असुरों के त्रास से छुड़ाया था। ऋषियों का संचित रक्त घट ही सीता को जन्म देने और दानवी विभीषिकाओं को निरस्त करने में आधारभूत कारण बना था। इन पुराण गाथाओं से सृजन शिल्पियों को भी यही प्रेरणा मिलती है कि वे जागरूकों को तलाश करें और उनकी आन्तरिक प्रखरता जगाने के भाव भरे प्रयास करें। इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि के नौ दिन चलने वाले साधना सत्रों से बढ़कर अधिक उपयोगी एवं अधिक सरल व्यवस्था अन्य कदाचित ही कोई बन पड़े। महान सांस्कृतिक परम्पराओं का पुनर्जीवन नव सृजन के अभीष्ट आत्म- ऊर्जा का अभिवर्धन तथा जन जीवन में उत्कृष्टता के समावेश का जैसा स्वर्ण सुयोग इन साधना सत्रों में मिल सकता है। उसकी तुलना का उपाय उपचार कदाचित ही कोई खोजा जा सके। रात्रि के ज्ञान यज्ञ में वह सब कुछ कहा जा सकता है जो प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को जन- मानस में प्रतिष्ठापित करने के लिए आवश्यक है। इस अवसर पर ऐसे संगठित प्रयासों के लिए उपयुक्त वातावरण भी रहता है जिससे साधकों को भी व्रतशील जीवन जीने के अतिरिक्त सृजन प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए तत्पर किया जा सके।
इन तथ्यों की जानकारी तो प्रज्ञा पुत्रों को पहले से भी रही है और वे नवरात्रि आयोजनों को इसी उद्देश्य को लेकर पूरा करने एवं अधिकाधिक उत्साहवर्धक बनाने का प्रयत्न करते रहे हैं। इस बार उसमें युग सन्धि के बीजारोपण वर्ष के अभिनव उत्तरदायित्व भी जुड़ गये हैं महापुरश्चरण में भागीदार नैष्ठिक साधकों का सुविस्तृत समुदाय इन्हीं दिनों साधना क्षेत्र में नये सङ्कल्प लेकर अग्रसर हुआ है। उसमें से प्रत्येक को न केवल प्रत्येक नवरात्रि की अनुष्ठान साधना स्वयं करनी है वरन् जन सम्पन्न साधनों में अभी से लगना है तथा पुरानों को प्रोत्साहित और नये भावनाशीलों को तथ्यों से परिचित कराने के प्रयास भी करना है। नवरात्रि आयोजन पिछले दिनों की तुलना में अत्यधिक प्रभावी एवं प्रेरणाप्रद बन सके इसके लिए समग्र तत्परता उत्पन्न कर सकने वाली भाव श्रद्धा को उभारने, उछालने की आवश्यकता है |
चामुण्डायै
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं एवं इसके अलावा अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ है प्रेम । पुरुषार्थ का क्या तात्पर्य है? पुरुषार्थ का तात्पर्य है कर्म। ये चारों पुरुषार्थ भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सृष्टि को गतिमान बनाने के लिए लक्ष्य के रूप में निर्धारित किए हैं। पुरुष का तात्पर्य है साहचर्य, एक से अनेक और अनेक से अनेक होने की क्रिया ब्रह्माण्ड दो भागों में विभाजित है प्रथम दुर्गा कुल द्वितीय महाविद्या कुल महाविद्या कुल युद्ध से परे है, गति से परे है एवं यहाँ पर परा शक्तियाँ निवास करती हैं। परा शक्तियों का तात्पर्य है चिंतन से भी परे विशुद्ध परमवस्थाएं। दसों महाविद्याएं परा सूक्ष्म है और जब जातक पराब्रह्माण्डीय हो जाता है तो उसे महाविद्याओं में वर्णित महाशक्तियों की उपासना प्राप्त होती है। दसों महाविद्याएं केवल शिव एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी के बीच सम्पन्न हुए लीला विलास एवं परा ब्रह्माण्डीय नर्तन का प्रतीक हैं।
इसके विपरीत ब्रह्माण्ड के अन्य उच्छिष्ट तत्वों के साथ जब त्रिपुर सुन्दरी विलास करती हैं या फिर क्रियाशील होती हैं तब दुर्गा कुल की स्थापना होती है। दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवासुर संग्राम स्पष्ट रूप से यह कहता है कि इसमें भगवती कृपा करके देवताओं एवं त्रिदेवों की प्रार्थना पर क्रियाशील हुईं अतः दोनों साधनाओं के भेद को समझना होगा। चूंकि ब्रह्माण्ड को भगवती त्रिपुर सुन्दरी का उच्छिष्ट अंग माना गया है अर्थात उनके द्वारा त्याज्य माना गया है इसलिए ब्रह्माण्ड में शिथिलता, विकारग्रस्तता, अशुद्धता, आधा-अधूरापन विद्यमान है। दुर्गा सप्तशती में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक तत्व क्या कह रहा है? वह पूर्णता मांग रहा है। वह कह रहा है मुझे दो, रूप दो, यश दो, ज्ञान दो, विज्ञान दो, दया दो, क्षमा दो, दया दो, राज्य दो अर्थात दो कुछ न कुछ दो, वह भीख मांग रहा है, वह हाथ फैलाकर मांग रहा है। हमें दो की प्रक्रिया, दो की प्रवृत्ति समझनी होगी।
जैसे ही हम जन्म लेते हैं मां से दूध मांगते हैं। हमारा जन्म ही मांगने से प्रारम्भ होता है, हम सारी जिंदगी क्या करते हैं? पत्नी से, पति से, मित्र से, संसार से, गुरुओं से, बच्चों से, प्रकृति से सिर्फ दो की ही याचना करते रहते हैं। अपेक्षा, याचना, भिक्षा, प्राप्ति, संतुष्टि इत्यादि इत्यादि । प्रथम श्वास से लेकर अंतिम श्वास तक हम मुझे दो-दो की ही रट लगाये रहते हैं यह हमारे उच्छिष्ट अर्थात त्यागे हुए होने का सबसे बड़ा सबूत है एवं हमें इस प्रवृत्ति को समझना होगा। ब्रह्मा निर्मित इस सृष्टि के प्रत्येक तत्व की यही विडम्बना है कि वह मुझे कुछ दो से ग्रसित है। जितना उसे मिलता जाता है उतना ही उसके अंदर मुझे कुछ और चाहिए की भूख बढ़ती जाती है। उसकी यही भूख कि मुझे कुछ चाहिए उसे गतिमान रखती है परन्तु अंत तक वह यह नहीं समझ पाता कि वास्तव में उसे चाहिए क्या? क्या चाहिए तुम्हें ? बस यही प्रश्न वह अपने आप से स्वयं पूछता रहता है, यही प्रवृत्ति उसे स्व की खोज की तरफ ले जाती है।
धन आ गया तो काम खोजता है, काम मिल गया तो धर्म खोजता है, धर्म मिल गया तो प्रेम खोजता है, प्रेम मिल गया तो मोक्ष खोजता है, मोक्ष मिल गया तो कुछ और खोजता है। जिस दिन मुझे कुछ दो, मुझे किसी की खोज है, मुझे कुछ प्राप्त करना है की प्रवृत्ति शांत हो जायेगी वह महाविद्याओं का साधक बन जायेगा परन्तु इससे पूर्व वह दुर्गा कुल का ही साधक रहेगा। अतः भगवती दुर्गा शीघ्र फलदायिनी हैं, शीघ्र क्रियाशील होती हैं, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड मुझे कुछ दो में उलझा हुआ है। जब मुझे कुछ दो के भाव समाप्त हो जाते हैं तब जाकर महाविद्याओं की साधना के लिए जीव तैयार होता है। परा को प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ दो से परे होना पड़ेगा, आँखों में निर्मलता लानी होगी।
दुर्गा के जो भक्त होते हैं उन्हें वे विपुल मात्रा में प्रदान करती है, उनकी दो की प्रवृत्ति वे संतुष्ट करती हैं यही श्री श्री शक्ति रहस्यम् है। जब तक दो की प्रवृत्ति अंदर से शांत नहीं होगी तब तक जीव सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं करेगा इसलिए श्री दुर्गोपासना धर्म, अर्थ, काम, प्रेम निश्चित तौर पर प्रदान करती हैं। हाँ मोक्ष के दरवाजे तक भी दुर्गा जी ले जाती है परन्तु इसके बाद शक्ति का कुछ दूसरा ही स्वरूप होता है । इसलिए दुर्गा के उपासक आपको सबसे ज्यादा मिलेंगे। मार्कण्डेय रचित श्री दुर्गा सप्तशती शक्ति विलास का अद्भुत ग्रंथ है, मैंने अपने जीवन में अनेकों ग्रंथ पढ़े परन्तु इतना तांत्रोक्त ग्रंथ कोई भी नहीं है। इसमें परम गूढ़ रहस्य हैं, दुर्गा सप्तशती लगभग 700 स्तोत्रों का ग्रंथ है और मुख्य रूप से यह 4 पुरुषार्थों में से अर्थ प्रदान करने वाला ग्रंथ है,
वात्सायन लिखित कामसूत्र में भी 700 श्लोक हैं यह ग्रंथ कामरूपी पुरुषार्थ पर आधारित है, गीता में 700 श्लोक है यह ग्रंथ धर्म रूपी पुरुषार्थ का मुख्य ग्रंथ है, शिव पुराण भी 700 पन्नो का है यह मोक्ष रूपी पुरुषार्थ का प्रमुख ग्रंथ है, श्रीमद भागवत में लगभग 700 श्लोकों में कृष्ण की रासलीला वर्णित है यह प्रेम रूपी अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ का प्रेरक है। अंत में मैं कहूंगा लगभग 70 श्लोकों की सौन्दर्य लहरी भगवान शंकराचार्य जी ने मूल रूप से लिखी है जिसमें कि श्री त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति की गई है। यह जातक को श्रीविद्या के मार्ग पर ले जाती है।
जब भगवान शंकराचार्य समस्त वाद-विवाद, युद्ध, ज्ञान विज्ञान, धर्म-अधर्म इत्यादि भगवती दुर्गा के गतिमान बनाये रखने के प्रपंचों को समझ गये और निर्वाण षट्कम तक आ गये। षट्कम का तात्पर्य 6 चक्रों को भेद गये तब सौन्दर्य लहरी प्रस्फुटित हुई और वे परम बिन्दु तक पहुँच गये, श्रीयुक्त हो गये। युद्ध से परे होना आसान नहीं है, युद्ध का तात्पर्य केवल भौतिक युद्ध से मैं नहीं कह रहा अपितु इसमें आंतरिक, वैचारिक, मानसिक तलों के भी युद्ध आते हैं। युद्ध का तात्पर्य है द्वंद। कहीं न कहीं द्वंद का होना अर्थात शक्तियों का आपस में टकराना, शक्ति संचय की प्रवृत्ति, शक्ति के प्रयोग की प्रवृत्ति । मारण, मोहन, सम्मोहन, स्तम्भन, विद्ववेषण, उच्चाटन इत्यादि शाक्तोपासक ही करते हैं वे शक्ति का उपयोग करते हैं। शक्ति अर्जित करना, शक्ति का उपयोग करना, शक्ति को नियंत्रित करना, शक्ति के बल पर इतराना, शक्ति का अनुसंधान करना ही जीव का कार्य है।
यह कार्य कोई नेता बनकर करता है, कोई अभिनेता, कोई वैज्ञानिक, कोई दार्शनिक, कोई चिंतक, कोई साधक, कोई व्यापारी इत्यादि इत्यादि बनकर करता है। कुछ बनना, कुछ बिगाड़ना, कुछ खोजना, कुछ अविष्कृत करना, ध्यान करना, जप करना, तप करना, वरदान मांगना, आशीर्वाद मांगना इत्यादि इत्यादि शाक्तोपासना का विषय है अतः प्रथम श्वास से अंतिम श्वास तक किसी न किसी माध्यम से शाक्तोपासना तो हो ही जाती है। इस स्थूल, सूक्ष्म, दैवीय, अधिदैवीय, भौतिक, अधिभौतिक शाक्तोपासना में दुर्गा ही क्रियाशील होती हैं परन्तु इसके ऊपर भी कुछ है, इसके परे भी कुछ है। वह क्या है? वहाँ तक कैसे पहुँचा जाये? इसका विषय भगवती दुर्गा के पास आरक्षित है।
ऊपर वर्णित सभी स्थितियाँ को भय हैं, कोश ही दुर्ग कहलाता है। हम कोश में रहने के आदी हो गये हैं, कोश में रहने की प्रवृत्ति ही शरीर का निर्माण करती है। हमारा शरीर नाना प्रकार के कोशो से बना हुआ है, प्रत्येक कोश एक दुर्ग है और दुर्ग की रक्षिका दुर्गा हैं। पृथ्वी भी एक कोश हैं, नौ ग्रह भी कोश हैं, वन भी कोश है, जल भी है अर्थात चारों तरफ कोशमयता है अतः कोशिका रूपी जीवन ही हमारी पहचान है। अब कब तक किस कोश में किसको रहना है भगवती दुर्गा ही जाने। वे कब किसे किस कोश से निकाल दें, किस कोश में फेंक दें, किस कोश के अधीन कर दें यह उनका विषय है। लोक भी कोश हैं अर्थात दुर्ग है। देवासुर संग्राम में उन्होंने स्पष्ट कहा हे असुरों स्वर्ग लोक छोड़ों और पाताल लोक रूपी कोश में चले जाओ वे नहीं गये तो उन्होंने उन्हें उठाकर फेंक दिया एवं देवताओं को पुनः देव कोश में प्रतिष्ठित कर दिया।
द्वैत और अद्वैत को समझिये द्वैत का तात्पर्य है कोशमय। द्वैतमयी देवता भी शिथिल पड़ते हैं, रुद्र भी वृद्ध होते हैं, विष्णु एवं ब्रह्मा भी वृद्ध होते हैं अर्थात सभी वृद्ध हो गये इसलिए प्रलय को प्राप्त होते हैं। जैसे ही दुर्गा प्रस्थान करती हैं वृद्धता आ जाती है क्षयता आ जाती है, अतः वृद्धता एवं क्षयता को रोकने के लिए दुर्गा उपासना अत्यधिक आवश्यक है। अगर भगवती दुर्गा चाहें तो जातक को ऊपर वर्णित स्थितियों से मुक्त करके दसों महाविद्या में से किसी एक के द्वार खोलकर उसे वहाँ तक पहुँचा सकती हैं। किसे पहुँचायेंगी, क्यों पहुँचायेंगी, यह उनकी कृपा पर निर्भर करता है। पीताम्बरा शक्तिपीठ के महाराज जी शुरु शुरु में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे, प्रचण्ड दुर्गोपासक थे बाद में जाकर वे माँ बगलामुखी के उपासक हुए श्रीविद्या की तरफ अग्रसर हुए, भगवती दुर्गा ने पराद्वार खोल दिए।
मार्कण्डेय मुनि ने नासिक के पास सप्तश्रृंगी की पहाड़ी पर बैठकर श्री दुर्गा सप्तशती की रचना की उनका जीवन भी बड़ा विचित्र है। उनकी आयु मात्र 16 वर्ष की थी यमराज उन्हें लेने आये तब शिव ने त्रिशूल से मारकर यमराज को भगा दिया और उन्हें कल्पांत जीवी बना दिया अर्थात एक कल्प के पश्चात् भी वे शरीर रूपी कोश में विद्यमान रहेंगे। धर्म, अर्थ, काम, प्रेम सब कुछ मार्कण्डेय मुनि ने अपने कल्पांत रूपी जीवन में भोग लिया। सृष्टि में भी शक्ति विलास को अपनी सभी बाह्य एवं आंतरिक इन्द्रिय से अनुभव कर लिया।
घोर जल प्रलय हो रहा था मार्कण्डेय मुनि जल में खड़े थर-थर कांप रहे थे, वे दुर्गा के परम गोपनीय प्रलय चण्डा के स्वरूप का भी अनुभव कर रहे थे। भगवान शरभ के एक पंख में दुर्गा विराजमान हैं तो दूसरे पंख में भद्रकाली भद्रकाली प्रलय की देवी हैं अतः आज उन्हें शरभेश्वर के दोनों पंखों के दर्शन हो गये। तभी वे देखते हैं कि एक वटवृक्ष के पत्ते पर बाल मुकुन्दम अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए शांति के साथ विराजमान हैं। हाँ विष्णु ही बाल मुकुन्दम हैं, विष्णु ही श्री पाण्डुनाथ भैरव हैं। उनका लघु कोशमय शरीर प्रलयकाल में भी भगवती दुर्गा सुरक्षित रखती है।
मार्कण्डेय मुनि ने वह सब कुछ देख लिया जो कि सबके लिए सर्वथा दुर्लभ था तभी जाकर वे दुर्गा सप्तशती की रचना कर पाये, शक्ति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कर पाये। शक्ति की विहंगमता क्या है ? शक्ति शक्ति का भक्षण कर जाती है, शक्ति शक्ति में घुल मिल जाती है, शक्ति शक्ति का सृजन कर देती है, शक्ति असंख्य रूपों में विभक्त हो जाती है, शक्ति के असंख्य रूप पुनः एक जुट हो जाते हैं। शक्ति सौम्य भी हो जाती है, इतनी सौम्य कि ऐसा लगता है मानो इससे सौम्य तो कुछ और है ही नहीं परन्तु दूसरे ही क्षण शक्ति उग्र भी हो जाती है, इतनी उग्र कि वह रुद्रचण्डी बन जाती है। शक्ति हँसती है, शक्ति खिलखिलाती है, शक्ति चिल्लाती है, शक्ति क्रोधित होती है, शक्ति मारने दौड़ती है, शक्ति दुलारती है, शक्ति रोती है, शक्ति पगला जाती है, शक्ति बुद्धिमान बन जाती है इत्यादि इत्यादि । यही सब कुछ तो दुर्गा सप्तशती में वर्णित है। शक्ति की अधीनता जीव को स्वीकार करनी ही पड़ती है।
शक्ति सुलाती है और शक्ति उठा देती है यही है रात्रि रहस्यम् । शक्ति नाना रूप धरती है, शक्ति कुछ भी बन सकती है दो हाथ, चार हाथ, दो सिर, तीन सिर, एक आँख, तीन आँख, उड़ सकती है, रेंग सकती है, तैर सकती है, जला सकती है फिर भी सबसे परे रहती है। शक्ति के प्रपंच शक्ति ही जाने। सुर भी उसी में से निकलते हैं, सब जगह शक्ति मौजूद है। कितनी विहंगम है शक्ति दो अणुओं के बीच वह कितनी सौम्य लगती है परन्तु दो न दिखने वाले अणुओं के बीच से जब शक्ति विसर्जित होती है तो वह अणु बम बन जाती है। किसके मस्तिष्क में कौन सी शक्ति जागृत हो उठे माँ भगवती ही जाने। मैं किताब पढ़ रहा था श्री गुप्तावतार बाबा की वे प्रचण्ड दुर्गोपासक थे एवं उन्होंने सन 1904 में कुछ तांत्रोक्त संकल्प लिए। उनके संकल्प इस प्रकार के थे ब्रिटिशस्य पलायनम् कुरु, स्वराज्य प्राप्तार्थ श्री चण्डिका अनुष्ठानम्, राष्ट्र एकाकार्थे त्रिशक्ति चामुण्डा अनुष्ठानम् इत्यादि इत्यादि और यही सब हुआ। अचानक चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस इत्यादि आ गये, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा भारत वर्ष एक हो गया, स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई।
परन्तु उनसे एक गलती हो गई, उनके एक अनुष्ठान का संकल्प था मलेच्छ शक्ति पलायनम् कुरु और भारत का विभाजन हो गया। यह प्रमाण सहित मंत्रमयी दुर्गा सप्तशती जो कि उनके द्वारा 1903 में लिखी गई थी में वर्णित है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि अनुष्ठानों के परिणाम शत प्रतिशत आते हैं। चाहे 1903 में करो या 2021 में शक्ति अनुष्ठानों के माध्यम से क्रियाशील होती ही है। उद्देश्य कुछ भी हो, समय सीमा का कोई महत्व नहीं है। समय तो कम ज्यादा होता ही रहता है। शंकराचार्य जी ने भी श्रीविद्या अनुष्ठान किए उसके परिणाम आज देखने को मिलते हैं। शक्ति केवल तात्कालिक विषय नहीं है, इसके अति दूरगामी परिणाम होते हैं। शाक्तोपासना चलती ही रहती है आपको आना चाहिए।
गुरु गोविन्द सिंह जी का उदय, क्षत्रपति शिवाजी का उदय, महाराणा प्रताप का उदय, भगत सिंह का उदय, नेता जी सुभाषचंद बोस का उदय इत्यादि शाक्तोपासना के द्वारा ही सम्पन्न हुआ। शक्ति गर्भ धारण करती ही है, शक्ति पुत्र उत्पन्न करती ही है। सम्भोग करना आना चाहिए यही पुरुषार्थ है। पुरुष को बीज रोपित करना आना ही चाहिए शक्ति तो गर्भिणी होगी ही। अनुष्ठान अपने आप में पुरुषार्थ है। हां नपुंसक, हिजड़े भी होते हैं उनमें पुरुषार्थ नहीं होता अतः वे बस आलोचना करते हैं, वे बीज विहीन होते हैं। बीज विहीन ही नास्तिक होते हैं। नास्तिक कुछ नहीं कुछ नहीं की मानसिकता से ग्रसित होते हैं। पुरुषार्थ शक्ति के साथ प्रणय करने का विधान है। कुछ नवीन, कुछ अद्भुत रचने का प्रयोग है।