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प्रसाद-बुद्धि ।।

किसी सन्त से पूछा गया कि जिस प्रकार हम अपना चेहरा दर्पण में देख सकते है, उसी प्रकार आत्मज्ञान के होने का उपाय क्या है? सन्त ने कहा कि आत्मज्ञान बुद्धि का विषय है।( सांसारिक बुद्धि का नही, केवल आध्यात्मिक विषयक बुद्धि का ही… ) आध्यात्मिक बुद्धि ही एक प्रकार का दर्पण है, जिसके माध्यम से ही आत्मज्ञान का प्रकाश देखा जा सकता है। 

अब प्रश्न ये है कि इस आध्यात्मिक-बुद्धि के जागरण का उपाय क्या है? किस प्रकार सांसारिक-बुद्धि का परिवर्तन आध्यात्मिक-बुद्धि में हो सकता है? 

सांसारिक बुद्धि => भोग 
आध्यात्मिक बुद्धि => प्रसाद

अर्थात जब भोग को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है, तब प्रसाद-बुद्धि का जागरण होता है। अर्थात प्रसाद-बुद्धि का आश्रय ही एकमात्र उपाय है, जिससे सांसारिक भोग-बुद्धि का लोप होता है, और आध्यात्मिक-बुद्धि का प्रकाश प्रकट हो सकता है। 

दुर्गा सप्तशती में भी कीलक मंत्र में बहुत ही स्पष्ट है…..
"ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ⁠। 
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।।"

[जो साधक एकाग्रचित्त होकर भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, उसीपर भगवती प्रसन्न होती हैं; अर्थात प्रसाद-बुद्धि (समर्पण) का आश्रय ग्रहण किये बगैर सारी आध्यात्मिक साधना कीलित ही रहती है, ऐसी व्यवस्था महादेवजी ने स्वंय की है।]

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"जो लोग उपासक और भक्त है, वे सूक्ष्मतर कौशल के सहारे ईशोपनिषद की प्रक्रिया के अनुसार भोग करने पर भी उस भोग में लिप्त नहीं होते । वह उनके लिए प्रसाद ग्रहण मात्र है, उपभोग नहीं। इस प्रकार के भोग के द्वारा भोग-वासना निवृत्त हो जाती है। वह वास्तव में भोग होकर भी भोग का निवर्तक है। इसे वैध भोग कहा गया है। 
भोग्य वस्तु प्रकृति स्वरूप है। जो भोक्ता है, वे परमपुरुष या पुरुषोत्तम है। जीव प्रकृति का भोक्ता नहीं है। 
प्रकृति का भोग्य सम्भार स्वाभाविक स्रोत से निरन्तर परमपुरुष की ओर गतिमान है। अर्थात रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द बाह्य जगत से उठकर देह स्थित नाड़ी अवलम्बन पूर्वक निरन्तर ऊर्ध्वमुख में, सहस्रदल कमल की कलिका स्थित परम पुरुष की ओर प्रवाहित हो रहा है और उनका चरण स्पर्श कर अर्थात उनकी दृष्टि से पवित्रीकृत होकर अधोमुख में अथवा बहिर्मुख में प्रत्यावर्तन कर रहा है। इस ब्रम्हचक्र में निरन्तर आवर्तन हो रहा है।
तटस्थ भूमि पे प्रतिष्ठित जीव आज्ञा चक्र में अवस्थित होकर उक्त अधोमुख संचालित शुद्ध अमृत धारा का पान करते हुए कृतार्थ हो रहा है। जीव जब तक उर्ध्वमुखी होकर उस धारा को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता, तब तक उक्त प्रसाद रूपी धारा उसके भोग में नहीं आता। 
साधारणतः जीव अधोदृष्टि सम्पन्न होता है। प्रकृति की उर्ध्वमुखी आनन्दधारा को वह मध्यस्थान से पहले अपहरण करता है। अर्थात भोक्ता बनकर परमेश्वर की भोग्यवस्तु को परमेश्वर को अर्पित होने से पहले स्वंय ही उपभोग करने में प्रवृत्त होता है। इस चौर्य प्रवृत्ति के कारण जीव निरन्तर बद्ध होकर रह जाता है। फलस्वरूप जीव जिस भोग्यवस्तु को प्राप्त करता है, वह अशुद्ध रह जाती है। अशुद्ध भोग्य के भोग को उपभोग कहा जाता है, भोग नहीं कहा जाता । अगर जीव लोभ-दृष्टि एवं तृष्णा को त्यागकर अनासक्त रूप में उर्ध्वनेत्र से एक मात्र परम पुरुष की ओर लक्ष्य निबद्ध रख सके , तो भोग्य वस्तु न चाहने पर भी परमेश्वर से प्रत्यावर्त आनन्दधारा वह स्वतः प्राप्त कर सकता है। यही प्रसाद ग्रहण है।.

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ⁠। 
नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै ⁠।⁠।⁠ नमस्तस्यै नमो नमः

अनंत ब्रह्मांड ।।

           प्रत्येक शहर के बाहर सुनसान स्थान पर कारागृह बना होता है और इस कारागृह में समाज के लिए जो तत्व खतरनाक होते हैं उन्हें ले जाकर स्थापित कर दिया जाता है एवं चारों तरफ कड़ा पहरा लगा दिया जाता है और प्रतिक्षण इन पर निगरानी रखी जाती है। शहर का मल एवं कचरा भी व्यवस्थित तरीके से शहर से दूर सुनसान जगह पर गड्ढा खोदकर गाड़ दिया जाता है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि चोर उचक्के भी जीवित हैं, मल भी जीवित है तभी तो यह सब खतरनाक सिद्ध होते हैं। आम जनजीवन के लिए जीवित न होते तो किस बात का खतरा कई मामलों में तो ये आम लोगों से ज्यादा ऊर्जावान होते हैं। नकारात्मक सोच रखने वाला षड्यंत्रकारी लाखों व्यक्तियों पर कभी-कभी भारी पड़ जाता है। इन्हें निरंतर हटाना पड़ता है। एक तरह से यह शून्य की प्राप्ति का अनुसंधान है, यह सब शून्य करने की प्रक्रिया का एक प्रमुख अंग है। जीवन ऐसे ही चलता है। 

         लाखों लोगों का जीवन निर्बाद रूप से चलता रहे उसके लिए परेशानी उत्पन्न करने वाले असत्यगामी को तो शून्य करने की प्रक्रिया अपनानी ही पड़ती है। यह तो हुई भौतिक सोच अध्यात्म में भी अनेकों साधक शून्य प्राप्ति की कोशिश करते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने वेदान्त एवं अद्वैत को परिभाषित किया और बुद्ध ने शून्य की बात की। कालान्तर बौद्ध धर्म और सनात धर्म में भीषण टकराव हुआ। आदि गुरु शंकराचार्य जी से पहले अद्वैतवाद को कोई मुख प्रदान नहीं कर पाया और ठीक इसी प्रकार से बुद्ध के शून्यवाद को भी बौद्ध नहीं समझ पाये। शंकराचार्य जी ने भी यह स्वीकार किया है कि बुद्ध का शून्यवाद कुछ भी नहीं बस अद्वैत का साक्षात्कार था किसी कारणवश या समय की मांग के अनुसार बुद्ध को कहीं कुछ हेर फेर करना पड़ गया और वास्तविक बुद्धत्व अर्थात अद्वैत गलत रूप में महिमा मण्डित हो गया। बुद्ध ने भी कुछ नया नहीं कहा। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में भी वही रुकावटें आयीं जो अन्यों के मार्ग में आयी थीं। उन्होंने भी कर्मकाण्ड सम्पन्न किये आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने भी योग को पकड़ा, तंत्र को पकड़ा, मंत्रों का जप किया, कई महीनों तक अन्न जल त्यागकर जल में खड़े रहकर तपस्या की, वनों में भटके, अनेकों इतर योनियाँ से साक्षात्कार किया। 

        जिस समय बुद्ध को बोधी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ वे मात्र हड्डी का ढांचा रह गये थे। वे भी संन्यस्थ हुए थे। उन्होंने ही तो धम्म बनाया, शिष्य और अनुयायी बनाये राजा से पूर्ण चैतन्य तक की उनकी यात्रा में उन्होंने भिक्षा भी मांगी आखिरकार बने तो वे भी ब्राह्मण हूबहू वही सब कुछ किया जो सनातन धर्म का प्रत्येक ऋषि-मुनि करता है। कुछ भी नया नहीं किया। अंत में वे समझ गये कि उनका बोधत्व अंतिम सीढ़ी नहीं है एवं इसके आगे और भी जहाँ है। उनका ज्ञान अंतिम ज्ञान नहीं है इसके आगे कुछ और भी है। शंकर भी ये समझे बैठे थे इसलिए उलझे नहीं। अद्वैत का मतलब यही है। शब्दों के माध्यम से बस इतना कह सकते हैं कि आगे और कुछ भी है यह अंत नहीं है। अंत होता ही नहीं है, अब इसे कोई किसी भी तरह से समझ ले। कोई इसे शून्य कह दे, कोई इसे अद्वैत कह दे कोई इसे अनंत कह दे क्या फर्क पड़ता है? असीमितता तो है। शब्द क्या व्याख्या करेंगे अद्वैत की। जब-जब शब्दों के माध्यम से, बुद्धि के माध्यम से, तर्क के माध्यम से या फिर अतिसीमित ज्ञान के माध्यम से इसके आगे कुछ और की व्याख्या की जायेगी केवल सीमितता ही हासिल होगी। केवल नये-नये सिद्धांत ही बनेंगे नये-नये धार्मिक ग्रंथों का ही निर्माण होगा। एक परिपाटी चलेगी और फिर उसमें से उत्पन्न होंगे मूढ़, अज्ञानी, कार्बन कापी करने वाले लम्पट शिष्य। जो सिर्फ सीमितता को लेकर ही एक दूसरे की गर्दन काटेंगे। 

         यह अध्यात्म नहीं है, यह सीमा से परे जाने का मार्ग नहीं है। यह तो थकावट है। हाँ थके हुए मस्तिष्क, शिथिल बुद्धि बस अपने गुरु में अटककर रह जाती है। यही जड़ता की पहचान है। जड़ता से ही अनित्यता का उदय होता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी बिहार प्रदेश के भ्रमण पर थे एक जगह यमस्थपुरी दिखाई दी। वहाँ के लोग यम को ही परमब्रह्म मानने लगे थे। यम के समान भैसे पर बैठते, काला रंग पोतते और ऊल- जलूल हरकतें करते। वे सब सीमित हो गये थे। बस यम ही यम और कुछ नहीं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने उनकी बातें ध्यान से सुनी तुरंत यम स्तोत्र की रचना कर उनका आह्वान किया और यम देव को प्रकट कर दिया। उन्होंने उन लोगों को समझाया कि यम देव हैं, एक विशेष लोक के नियंत्रक हैं परन्तु परम ब्रह्म नहीं हैं। उनके ऊपर भी नियंत्रण है। यम की उपासना से तुम ज्यादा से ज्यादा यम लोक तक पहुँच सकते हो पर मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। लोगों को बात समझ में आ गयी वे पुनः वैदिक धर्म की तरफ सत हो गये।सारे देश का यही हाल है तब भी था और अब भी है। .

शंकराचार्य जी को कुछ मिले जो कि गणपति को ही परम ब्रह्म मानने लगे थे, कुछ ने तो लक्ष्मी माता को ही सृष्टि का मूल समझ लिया, कुछ सरस्वती को ही सब कुछ समझ बैठे कुछ लोगों के लिए विष्णु के अलावा सब व्यर्थ था। कुछ तो अपने माँ बाप को ही परम परमेश्वर मान बैठे थे। किसी के लिए नरसिंह, किसी के लिए राम, किसी के लिए कृष्ण तो किसी के लिए बुद्ध ही साक्षात् परमब्रह्म थे आदि गुरु शंकराचार्य जी ने सबसे शास्त्रार्थ किया शैवों को बुरी तरह परास्त किया, कापालिकों को तो उनकी भाषा में ही दण्ड दिया। तांत्रिकों को तो शून्य में ही विलीन कर दिया। जाओ अब छुट्टी अनंत ब्रह्माण्ड में तुम्हें विलीन कर दिया जाता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी के जीवन का सार ही यही है कि अज्ञान को विलीन कर दो। जो भी नजदीक आये, जो भी मुझसे शास्त्रार्थ करे मुझे तो बस उसके अज्ञान को अनंत ब्रह्मण्ड में विसर्जित कर देना है। जहाँ अज्ञान विसर्जित हुआ वहाँ ज्ञान स्वत: ही प्रकट हो जायेगा।

          अस्तित्व वैसे तो कभी मिडना नहीं है क्योंकि शून्य होता ही नहीं है। शून्य की परिभाषा होती ही नहीं है। शून्य तो कहीं भी नहीं है बस यही अद्वैत है। अद्वैत की आधी-अधूरी समझ ही शून्य जैसे शब्द का निर्माण करती है। शून्य से क्या तात्पर्य है? किसी ने कहा एक बोतल में से वायु को निकाल दो स्थान शून्य हो जायेगा। ठीक है वायु निकाल दी। तुम्हारी सोच में सिर्फ भौतिक तत्व के हट जाने से ही शून्य निर्मित हो जाता है तो तुम सर्वथा गलत हो। हाँ वायु हट गई परन्तु उसके अंदर एक अद्भुत बल निम्ति हो गया यही बल वैक्युम कहलाता है एवं इसमें इतनी ताकत होती है कि इसे तोड़ने के लिए फिर एक अलग सिद्धांत रचना होगा। तो फिर कहाँ है शून्य? शून्य परिभाषित करके तो बताओ। बस यही समझ शंकराचार्य जी को दिग्विजयी बनाती है। वे समझ गये थे कि अस्तित्व विहीनता नहीं होती। हाँ कुछ समय के लिए अस्तित्व क्षीण पड़ सकता है। जैसे ही सूर्य उदित होता है चंद्रमा और तारागण आँखों से दिखाई नहीं देते परन्तु इसका मतलब यह तो नहीं है कि चन्द्रमा और तारागणों का अस्तित्व शून्य हो गया है। वे भी स्थित रहते हैं। 

            यह है प्रपंच सार, मिथ्या सार इन्द्रिय ज्ञान इसलिए आधा-अधूरा है, इन्द्रिय सोच इसलिए अस्पष्ट है। अंतेन्द्रिय सोच भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अनुभूति इन्द्रिय और अंतेन्द्रिय विषयों पर आधारित है। आत्मानुभूति ही अद्वैत को समझ सकती है। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने कहा है कि सूर्य नित्य नहीं है वह भी नश्वर है। चन्द्रमा, ताराग आकाशगंगा इत्यादि यह सब नश्वर है इनमें से एक नित्य नहीं है। इन सबकी भी मृत्यु होगी। अतः सूर्योपासक, चंद्रोपासक, ज्योतिषाचार्य यह कदापि न समझे कि वे परब्रह्म सत्-चित आनंद की उपासना कर रहे हैं। इन उपासनाओं से शक्ति अवश्य प्राप्त होगी। कार्य विशेष अवश्य सम्पन्न होंगे, जीवन में अनुकूलता निश्चित ही आयेगी पर मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं होगा। तुम एक विशेष आवृत्ति में गतिमान होकर रह जाओगे, जन्म मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाओगे।
         
            आदि गुरु शंकराचार्य जी हिन्दू उपासना पद्धति के प्रबल समर्थक थे उन्होंने लक्ष्मी से लेकर विष्णु राम, कृष्ण, गणेश और यम तक पर स्तोत्र लिखे हैं। सभी का आदर किया है, सम्मान दिया है, उनकी शाश्वतता को समझा है। किसी से भी उसके पंथ में चल रही उपासना पद्धति को छोड़ने के लिए नहीं कहा है, उल्टे बुद्ध की विष्णु रूप में पूजा करवाई परन्तु उस परम सत्य की ओर भी इशारा किया जिसके भय से सूर्य तपता है, जिसके स्पंदन से अनंत आकाश गंगायें निर्मित होती हैं, जिसके आदेश से नक्षत्रगण लयमान होते हैं। हाँ उन्होंने लय की बात की है। लय ही अद्वैत है। लयात्मकता ही जीवन है। अरे जब सृष्टि ही नहीं रहेगी, एक दिन आकाश गंगा ही विसर्जित हो जायेगी तो फिर बुद्ध, राम या शंकर क्या कर लेंगे? यही है सत्-चित आनंद परम ब्रह्म की पहचान किसी में मत अटको, किसी की भी आवृत्ति में गतिमान मत होना नहीं तो लिप्त कहलाओगे। उनका शास्त्रार्थ कर्मकाण्डियों से भी हुआ। कर्मकाण्डी कहते हैं कर्म ही सब कुछ है, कर्म के अलावा कुछ भी नहीं है। अच्छे कर्म करोगे तो स्वर्ग मिलेगा, बुरे कर्म करोगे तो नर्क मिलेगा। कर्म बंधन ही सब कुछ है। शंकराचार्य जी ने इसका खण्डन कर दिया। निम्न कोटि का जीव कर्म बंधनों में बाधित हो सकता है, सकाम कर्म करने वाला जीव कर्मआधारित होता है परन्तु ब्रह्म ज्ञानी कर्मों की श्रृंखला से मुक्त होते हैं। निर्लिप्त कर्म सम्पन्न करने वाले किसी लोक की भी कामना न करने वाले, अहं ब्रह्माऽस्मि की लय में बहने वाले कर्म बंधनों से मुक्त होते हैं।कर्म पिण्ड आधारित है, आत्मा आधारित नहीं। आत्मा पूरी तरह से कर्मों से मुक्त है।जो नित्य है परिशुद्ध है उस पर कर्मों का क्या प्रभाव ? .

 कर्मों की भी एक सीमा है। उसके आगे भी जहाँ है यही है अद्वैत। यही है अनंत ब्रह्माण्ड । सिद्धांतों की सीमाएँ हैं वे सीमित हैं। इन्द्रियाँ भी सीमित हैं। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण एक सीमा तक है, सूर्य का प्रकाश एक सीमा तक विस्तारित होता है उसे हद में रखा गया है, उसे हद में कौन रखता है? उसे मृत्यु कौन प्रदान करता है? मजाल है सूर्य के प्रकाश की कि किसी अन्य आकाश गंगा में दाखिल होकर देख ले। अन्य आकाश गंगाओं में तो इतने बड़े सूर्य हैं कि हमारा सूर्य उनकी चमक के सामने दिखाई ही नहीं देगा। शंकराचार्य जी क्या कहना चाह रहे हैं? वे ग्रंथ लिखने नहीं आये हैं, वे प्रचार-प्रसार करने नहीं आये हैं, वे धर्म की संस्थापना करने नहीं आये हैं, न ही वे अपनी मूर्ति पुजवाने आये हैं यह सब लक्ष्य सीमित मस्तिष्कों की सोच है। सीमितता ही द्वैत का निर्माण करती है अगर हम उन्हें केवल सनातन धर्म से बाँधकर देखते हैं तो फिर एक तथाकथित बुद्ध और महावीर का निर्माण कर रहे हैं। असीमित को सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ देर बाद वे बस हमारे एक छोटे से पूजाघर की मूर्ति बनकर रह जायेंगे। उनकी मूर्ति पूजन से मोक्ष नहीं प्राप्त होगा।

             सब कुछ इस तरह की गतिविधियों से सत्यानाश हो जायेगा। यही हाल सब धर्मों का हुआ। मस्तिष्क को असीमित रहने दो, मस्तिष्क प्रपंच में न उलझे, व्यक्ति अंदर से संन्यस्थ हो, उसका दिमाग प्रतिक्षण खुला रहे, द्वंदात्मक स्थिति निर्मित न हो, किसी एक भगवान या देवता में अटककर न रह जाये। स्वर्ग और नर्क के चक्कर में गणित न लगाये, पाप और पुण्य के सांख्य योग में न उलझे । कपिल, अगत्स्य, दुर्वासा, व्यास आते जाते रहेंगे। शंकराचार्य भी आये और चले गये बस इतना कह गये कि संन्यास कैसा होता है? यह समझ लो कि जगत एक प्रपंच है, एक छल है, महाशक्ति की माया है इसमें लिप्त मत होना, कहीं मत उलझना, ईश्वर और जीव में दूरी मत करना क्योंकि वेद कहते हैं तत्व मसि! वेद कहते हैं अहं ब्रह्माऽस्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ। अभी आगे की ओर बहुत सी यात्राएँ हैं। जीव के रूप में पृथ्वी का निरीक्षण कर रहा हूँ, किसी अन्य रूप में कहीं और स्थित प्रज्ञ हो निरीक्षण करता रहूँगा। यही है अद्वैत दर्शन। ऐसे मस्तिष्क मिलते कहाँ हैं?

          नाना प्रकार के मानव निर्मित धार्मिक प्रपंचों में उलझ सम्भावनाएँ बड़ी क्षीण हो गई हैं। सम्भावना की बड़ी आवश्यकता है। सम्भावना पर ही मस्तिष्क का खुलापन टिका हुआ है। सम्भावना ही अद्वैत की आत्मानुभूति कराती है कहीं कुछ तो होगा, कहीं न कहीं से रास्ता निकलेगा, कुछ तो अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ तो मर्म को समझेंगे ये भाव मनुष्य के अंदर क्यों उठते हैं? एक मरते हुए व्यक्ति के अंदर भी आखिरी क्षण तक, अंतिम श्वास तक कहीं कुछ और की स्थिति बनी रहती है। हर व्यक्ति जीवन के अंतिम क्षण तक निरंतर सुधार और सम्भावना से परिपूर्ण होता है ऐसा क्यों होता है? क्योंकि अद्वैत से ही द्वैत रूपी जीव की जन्म होता है। यही अद्वैत अनंत सम्भावनाओं के रूप में मनमानस एवं मस्तिष्क में प्रतिक्षण दस्तक देता रहता है। अभी कुछ साऋ पहले पोप घबरा गये तुरंत अमेरिका के राष्ट्रपति से बोले स्टैम सैल (मूल कोशिका) के- अनुसंधान पर विराम लगा दो। जब गर्भाशय के अंदर स्त्री और पुरुष के डिम्बों और शुक्राणु का मिलन होता है तब सबसे पहले स्टैम सैल ही बनती है एक खाली स्लेट, एक खाली पन्ना जिस पर कुछ भी नहीं लिखा होता यही कोशिका जब अनुवांशिक रचनाओं के सम्पर्क में आती है तब मस्तिष्क, हाथ पाँव और हृदय इत्यादि का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक-एक कर प्रत्येक अनुवांशिक कोड मूल कोशिका के सम्पर्क में आकर उस अंग विशेष प्रकृति विशेष एवं कोशिका विशेष की रचना करते जाते हैं। 

         वैज्ञानिकों ने मूल कोशिका भ्रूण निर्माण से पहले प्राप्त कर ली और प्रयोग शाला में विशेष अनुवांशिक संरचना से मिलन करा प्रयोगशाला में ही अंग विशेष का निर्माण शुरू कर दिया अर्थात त्वचा सूत्र को मूल कोशिका से मिलाकर त्वचा निर्मित कर ली। यह है अद्वैत से प्राप्ति। यह है अद्भुत अद्वैत की पुष्टि। मूल कोशिका प्रदान कर रही है, जैसा चाहो वैसा प्रदान कर रही है। जब जीव के अंदर मौजूद है तो फिर अनंत ब्रह्माण्ड में इसका क्या स्वरूप होगा? यह सोचने का विषय है। यही है सत चित आनंद की एक झलकी। इसी प्रकार मूल शक्ति अर्थात मूल ब्रह्म से अनंत आकाश गंगाएँ, अनंत सूर्य, अनंत ब्रह्माण्डों की रचना हो रही है। सब वहीं से शक्ति प्राप्त कर रहे हैं। वह अजर-अमर है, वह नित्य है बाकी सब अनित्य और नश्वर गुरु भी शिष्य में सम्भावना देखता है। अपने घर के नीचे मैं कितना भी गहरा कुँआ खोदूं अगर खनिज तेल नहीं है तो नहीं मिलेगा। सोना नहीं है तो फिर घर के नीचे गड्ढा खोदने से क्या फायदा? कम से कम इतनी अति संवेदनशीलता तो होनी ही चाहिए। .

संवेदनशीलता होगी तो गुरु समझ जायेगा कि इस शिष्य के साथ कुछ समय व्यतीत करने से एक निश्चित आकृति विकसित होगी अन्यथा स कुछ व्यर्थ है।

         सम्भावना तो तलाशी ही जाती है। साधक भी सम्भावना तलाशता है, साधक को भी सम्भावना लगे तो पीछे नहीं हटना चाहिए तभी आकार ग्रहण कर पाओगे। गुरु भी उन्हीं शिष्यों को पसंद करता है जो कि खाली स्लेट हों, जिन पर कुछ लिखा जा सके, जिन्हें कि गढ़ा जा सके। बहुत ज्यादा ज्ञानी, तर्क कुतर्क से भरे हुए, गणितज्ञ व्यक्तियों के साथ सम्भावनाएँ न्यून हो जाती हैं क्योंकि वे द्वैत का पुतला बन चुके होते हैं। जब एक पन्ना पूरी तरह से भर गया है तो फिर उसमें दूसरा क्या लिखें? बेहतर होगा नया पन्ना ढूंढा जाय नहीं तो सब कुछ उल्टा पुल्टा हो जायेगा। अनंतता को समझाने के लिए एक उदाहरण देता हूँ। आचार्य शंकर श्रृंगेरि मठ में निवास कर रहे थे तभी उनके सामने एक गिरि नामक ब्राह्मण युवक मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से आया। वह पढ़ा लिखा नहीं था। वेद, उपनिषद, भाष्य, ग्रंथ इत्यादि में शून्य था अर्थात खाली पन्ना फिर भी मूल शक्ति मजबूत थी मोक्ष चाहता था, शिष्य बनना चाहता था। उसमें गुरु भक्ति थी, आज्ञाकारी था, कम बोलने वाला एवं सत्यवादी भी था। शंकर ने उसे अपना शिष्य बना लिया। 

            कैसा विकट संयोजन एक तरफ मण्डन मिश्र अर्थात सुरेश्वराचार्य दूसरी तरफ पदमपाद एवं अनेकों धुरंधर विद्वान, तर्कशास्त्री, प्रकाण्ड पण्डित एवं तेजस्वी ब्रह्मचारी शिष्य थे तो दूसरी तरफ निरक्षर गिरि कोई भी शिष्य उससे बात नहीं करता। क्या बात करते उससे? उसका काम शंकर की सेवा, पाँव दबाना, कपड़े धोना एवं हमेशा उनके साथ चलना ही था। जब भी आचार्य प्रवचन देते वह बड़े ध्यान से सुनता। गुरु सेवा ही उसका मूल लक्ष्य था। एक बार की बात है वह तुंग भद्रा नदी पर गुरुजी के कपड़े धोने गया था। संध्या का समय था आचार्य प्रवचन देने वाले थे सभी शिष्य मण्डली उनके सामने आकर बैठ गई पर आचार्य ने प्रवचन प्रारम्भ नहीं किया। उन्होंने पूछा गिरि कहाँ है? उसे आ जाने दो फिर मैं बोलना प्रारम्भ करूंगा। काफी देर हो गई अंत में पदमपाद बोले हे गुरुदेव जिसका हम इंतजार कर रहे हैं उसकी बुद्धि तो इस दीवार के समान है वह क्या समझेगा? शास्त्र के मर्म को तुरंत शंकराचार्य जी ने आँखें बंद की और समाधिस्थ हो गये। एक घण्टे तक सब कुछ शून्य कर दिया, अनंत ब्रह्माण्ड में स्वयं को फेंक दिया और प्रारम्भ किया क्रिया योग । आचार्य ने अपनी प्रबल आध्यात्मिक शक्ति से एक घण्टे के भीतर ही गिरि के अंतर्मन में 14 विद्याएँ, चार वेद, छ: वेदांग (शिक्षा, कल्प, निरुत, छंद, ज्योतिष, व्याकरण) पुरण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र इत्यादि को समाहित करके रख दिया। नदी तट पर कपड़ा धो रहा गिरि अचानक तंद्रा में चला गया और जैसे ही तंद्रा खुली गिरि के मुख से छन्द फूटने लगे। शिष्यगण निरक्षर गिरि के मुख से अद्भुत से वाणी सुन आवाक रह गये। उन सभी का अभिमानी सिर झुक गया। पदमपाद तो लज्जावश आचार्य शंकर के चरणों में गिर पड़े। बाद में यही गिरि तोटकाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए और आचार्य शंकर द्वारा स्थापित चार मठों में से एक मठ के मठाधीश बने। यह है अनंत सम्भावना।

           गुरु शक्तिशाली था, असम्भव को सम्भव में बदलने की शक्ति थी और शिष्य भी सम्भावनाओं से परिपूर्ण था तो फिर जन्म तो सुनिश्चित था। गुरु क्या करता है? बस शिष्य को सबल, समर्थ और ज्ञानवान बना देता है फिर आदेश देकर उसे संसार के भव सागर में उतार देता है सम्भावना देखता है इसीलिए वह ऐसा करता है। गुरु हमेशा अनंत सम्भावनाओं में जीते हैं। उनके मस्तिष्क कुन्द नहीं होते, वे लकीर के फकीर नहीं बनते, बनाते और बिगाड़ते रहते हैं। कल जिसे बनाया अगर वह उचित प्रतीत नहीं हुआ तो दूसरे ही क्षण उसे मिटा भी देंगे । कुछ नया और गढ़ देंगे। यही है अद्वैत द्वैत आते जाते रहेंगे अद्वैत स्थिर रहेगा, नित्य रहेगा निर्विकार रहेगा। यही भाव मोक्ष प्राप्ति की प्रबल सम्भावनाओं को स्वरूप प्रदान करेंगे। संन्यास धर्म सबसे विलक्षण एवं दुर्लभ प्राप्ति है। संन्यस्थ जीवन अत्यंत ही बिरला है। संन्यास ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी संन्यस्थ हैं। संन्यासी का मार्ग अनंत है, संन्यासी ही अद्वैत को अनुभूत कर सकता है। आत्मसात कर सकता है। संन्यासी के लिए समस्त ब्रह्माण्ड घर है। वह किसी सीमा, मान्यता, लोकाचार या समाज से बंधा हुआ नहीं है। वह स्वच्छंद है। आत्मानुशासित है। उसका मस्तिष्क खुला हुआ है, उसका मन स्थिर है वह स्थित प्रज्ञ है। बस अद्वैत को शब्दों में बाँधने की कोशिश बंद करता हूँ। अनंत ब्रह्माण्ड को शब्द के माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता अतः यह लेख निश्चित ही आधा-अधुरा एवं त्रुटिपूर्ण होगा इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। .

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

अक्षौहिणी सेना ।।

एक अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? 

अक्षौहिणी प्राचीन भारत में सेना का एक माप हुआ करता था। महाभारत के युद्ध में कुल १८ अक्षीहिणी सेना लड़ी थी। जिसमें से कौरवों के पास ११ अक्षौहिणी सेना थी और पाण्डवों के पास ७ अक्षौहिणी सेना थी। लेकिन वास्तव में एक अक्षौहिणी सेना कितनी होती है? इसके लिए, हम महाभारत के प्रमाणों से जानने की कोशिश करेंगे कि एक अक्षोहिणी सेना में कुल कितने पैदल, घुड़सवार, रथसवार और हाथीसवार होते है? 

मुख्य अंग 

प्राचीन भारत में, एक अक्षौहिणी सेना के चार अंग होते थे। जिस सेना में ये चारों अंग होते थे, वह चतुरंगिणी सेना कहलाती थी। वह चार अंग निम्नलिखित होती थी ~

१. सैनिक (पैदल सिपाही)
२. घोड़े (घुड़सवार)
३. गज (हाथी सवार)
४. रथ (रथ सवार)

अब यदि घोड़े की बात करे, तो एक घोड़े पर एक सवार बैठा था। ऐसे ही हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक तो पीलवान (हाथी हौकने वाला) और दूसरा लड़ने वाला योद्धा। इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और काम से काम तीन चार घोड़े रहे होंगे। यह सब मिल कर एक चतुरंगिणी सेना कहलाती है।

अक्षौहिणी सेना के भाग 

महाभारत के आदिपर्व अध्याय २ के श्लोक १७ से २२ तक में अक्षौहिणी सेना के भाग पर विस्तार से बताया गया है। अतः उन श्लोकों के अनुसार एक अक्षौहिणी सेना नौ भागों में विभक्त है। उनका नाम कर्मशः इस प्रकार है - पत्ति, सेनामुख, गुल्म, गण, वाहिनी, पृतना, चमू, अनीकिनी और अक्षौहिणी। 

सौतिरुवाच- एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः।
त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते॥१९॥
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥२०॥
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः।
स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः॥२१॥
चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः॥२२॥
- महाभारत आदिपर्व अध्याय २.१९-२२

• अर्थात्‌ : उग्रश्रवा जी ने कहा एक रथ, एक हाथी, पांच पैदल सैनिक और तीन घोड़े बस, इन्हीं को सेना के सर्मज्ञ विद्वानों ने 'पत्ति' कहा है। इसी पत्ति की तिगुनी संख्या को विद्वान पुरुष 'सेनामुख' कहते हैं। तीन 'सेनामुखों' को एक “गुल्म” कहा जाता है। तीन गुल्म का एक 'गण' होता है, तीन गण की एक 'वाहिनी' होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने 'पृतना' कहा है। तीन पृतना की एक 'चमू” तीन चमू की एक 'अनीकिनी' और दस अनीकिनी की एक “अक्षौहिणी' होती है। यह विद्वानों का कथन हैं।

एक अक्षौहिणी सेना कुल मनुष्यों की संख्या 

महाभारत में केवल गज, रथ और घोड़े की कुल संख्या बताई गयी है, उनको चलने वाले व उनपर सवार होकर लड़ने वालो की संख्या नहीं बताई है। अतः यदि अनुमान लगाया जाये, तो घोड़े पर एक घुड़सवार होगा, ऐसे ही हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक तो पीलवान (हाथी हांकने वाला) और दूसरा लड़ने वाला योद्धा। इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य रहे होंगे। अतः १ घुड़सवार, २ हाथी सवार और २ रथ सवार होंगे। 

अतएव महाभारत में बताए गए गज (21870), रथ (21870) और घुड़सवार (65610) की संख्या को उन पर सवार व्यक्तियों से गुणा करे, तो गज पर 43740, रथ पर 43740 और चुड़सवार 65610 होंगे। जो कुल 153090 ( एक लाख तिरपन हजार नब्बे) होते है। और इन संख्या को पैदल सिपाहियों (109350) के साथ जोड़ से तो कुल 262440 ( दो लाख बासठ हजार चार सौ चालीस) मनुष्य एक अक्षौहिणी सेना में होते है।

पूर्ण गणित

१. पत्ति - १ गज + १ रथ + ३ घुड़सवार + ५ पैदल सिपाही
२. सेनामुख - ३ पत्ति = ३ गज + ३ रथ + ९ घुड़सवार + १५ पैदल सिपाही
३. गुल्म - ३ सेनामुख = ९ गज + ९ रथ + २७ घुड़सवार + ४५ पैदल सिपाही
४. गण - ३ गुल्म = २७ गज + २७ रथ + ८१ घुड़सवार + १३५ पैदल सिपाही
५. वाहिनी - ३ गण = ८१ गज + ८१ रथ + २४३ घुड़सवार + ४०५ पैदल सिपाही
६. पृतना - ३ वाहिनी = २४३ गज + २४३ रथ + ७२९ घुड़सवार + १२१५ पैदल सिपाही
७. चमू - ३ पृतना = ७२९ गज + ७२९ रथ + २१८७ घुड़सवार + ३६४५ पैदल सिपाही
८. अनीकिनी - ३ चमू = २१८७ गज + २१८७ रथ + ६५६१ घुड़सवार + १०९३५ पैदल सिपाही
९. अक्षौहिणी - १० अनीकिनी = २१८७० गज + २१८७० रथ + ६५६१० घुड़सवार + १०९३५० पैदल सिपाही

एक अक्षौहिणी सेना महाभारत अनुसार ।।

१. गज - 21870
२. रथ - 21870
३. घुड़सवार - 65610
४. पैदल सिपाही - 109350

उपर्युक्त गज (हाथी), रथ, घुड़सवार तथा सिपाही की गणना महाभारत के आदिपर्व अध्याय २ श्लोक २३ २६ से लिया गया है।  

• श्लोक :

अक्षौहिण्याः प्रसङ्ख्यानं रथानां द्विजसत्तमाः।
सङ्ख्यागणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः॥२३॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः।
गजानां तु परीमाणमेतदेवात्र निर्दिशेत्॥२४॥
ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि तथा नव।
नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः॥२५॥
पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट्प्राहुर्यथावदिह सङ्ख्यया॥२६॥
- महाभारत आदिपर्व अध्याय २.२३-२६

• अर्थात्‌ :

(उम्रश्रवा जी ने कहा) श्रेष्ठ ब्राह्मणों! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की संख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21870) बतलायी है। हाथियों की संख्या भी इतनी ही रहनी चाहिये। निष्पाप ब्राह्मणों! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की संख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (109350) जाननी चाहिये। एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक ठीक संख्या पैंसठ हजार छः सौ दस (65610) कही गयी है। 

माँ तारा ।।

             आईसटांइन रात भर दिमाग चलाते, रात भर खोज करते। कोई सिद्धांत, कोई यंत्र,कोई सूत्र इत्यादि तलाशने के लिए वे दुनियाभर की माथा पच्ची करते, थक जाते और फिर बिस्तर में कम्बल ओढ़कर सो जाते,खूब गहरी नींद लेते परन्तु जैसे ही उठते अचानक उनके मस्तिष्क में कुछ कौंध उठता,कहीं बिजली चमक उठती, कहीं माँ तारा प्रकाशित हो उठतीं और उन्हें उनके चिंतन, उनके सिद्धांत इत्यादि का सटीक उत्तर मिल जाता। वे खुशी से चिल्ला उठते मिल गया- मिल गया, मुझे मिल गया, दिख गया- दिख गया, मुझे दिख गया, समझ में आ गया-समझ में आ गया यह अधिकांशतः वैज्ञानिकों की, खोजकर्ताओं की, निर्माताओं की, कवियों, लेखको, दार्शनिकों, संन्यासियों, चित्रकारों, तत्व चिंतकों, रचनाकारों इत्यादि की कहानी है। 
             यह है अद्वैत में झांकने का विधान, घटाघोप अंधेरे में से रत्न ढूंढने का विधान एवं यह सब तभी सम्भव होता है जब तारा की कृपा जातक पर किसी न किसी प्रकार बरसती है। "एक दिन अचानक" यह एक वाक्य है और इस वाक्य के पीछे छिपी हुई हैं तारा। अचानक प्राप्ति, अविस्मरणीय रूप से प्राप्ति, कुछ अलग हटकर प्राप्ति माँ तारा की कृपा से ही होती है। चर्म चक्षु रूपी दो आँखें सभी को मिली हुई है हाँ यह सत्य है कि इन दो चर्म चक्षु की आँखों से मोटे तौर पर हम देख सकते हैं परन्तु यह चर्म के दो चक्षु बड़े ही विलक्षण हैं। प्रत्येक जीव के पास दो चर्म चक्षु हैं परन्तु प्रत्येक जीव एक दूसरे से भिन्न देखता है ऐसा क्यों ? जो आईसटांइन ने देखा वह हम क्यों नहीं देख पाये, जो एक खोजकर्ता देखता है वह आम व्यक्ति क्यों नहीं देख पाता। जो बुद्ध ने देखा वह हम क्यों नहीं देख पाये।
              सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशमय है एवं प्रकाश के साथ एकीकरण, प्रकाश के सम्पूर्ण आयामों को देखने की क्षमता, मस्तिष्क में अनंत प्रकाश को ग्रहण करने वाली अनंत आँखों का विकास, प्रकाश को हर तल पर अनुभूत करने का विधान तारा साधना के माध्यम से ही सम्भव है। चंद्रमा पूर्णिमा के रूप में ही पूर्ण प्रकाशित दिखता है इसके पश्चात् कभी वह गायब हो जाता है, कभी वह आधा दिखता है तो कभी बस एक लकीर दिखती है ठीक इस प्रकार मस्तिष्क के सभी तंतु एक साथ प्रकाशित नहीं होते अधिकांशतः लोग तो अल्प प्रकाशित मस्तिष्क लिए हुए ही मर जाते हैं। पूर्ण प्रकाशित मस्तिष्क हो गया पूर्णिमा के चंद्रमा के समान तो अमृत्व की प्राप्ति हो गई। पूर्णिमा और अमावस्या में फर्क है पूर्णिमा शक्ति का दिन है तो अमावस्या शिव को प्रिय है। 
             बुद्ध को बुद्धत्व पूर्णिमा के दिन प्राप्त हुआ इसलिए आप कह सकते हैं कि बुद्ध शक्तिवादी हैं । सारनाथ से गया जाते समय बुद्ध ने बिहार स्थित तारा पीठ पर २१ दिन तक अपने शिष्यों के साथ तारा साधना सम्पन्न की थी । भगवती सति के तीनों नेत्र तीन अलग-अलग जगहों पर गिरे और इस प्रकार उग्रतारा पीठ जो कि उनकी दायीं आँख गिरने से बनी वह बिहार में स्थित हुई, भगवती की बायीं आँख बंगाल प्रदेश में गिरी थी वहाँ पर भी तारा शक्तिपीठ है एवं तारा साधक वामक्षेपा ने इस पीठ का जागरण किया। भगवती का तीसरा नेत्र सोनभद्र नदी के किनारे गिरा यहाँ पर परशुराम ने तपस्या की और सहस्त्रबाहु को हराया। 
                भगवती का तीसरा नेत्र जहाँ गिरा वहीं वास्तव में अक्षोभ्य शिव पीठ है, परशुराम जैसा क्षुभित साधक ब्रह्माण्ड में दूसरा कोई हुआ ही नहीं है एवं उनके क्षोभ को भी दूर किया माँ तारा ने । बुद्ध ने कहा चार तरह के साधक होते हैं एक किसान ने चारागाह बनाया वहाँ पर पानी और घास की व्यवस्था की कुछ हिरणों का झुण्ड आकर वहाँ रहने लगा और इस प्रकार वे किसान के अधीनस्थ हो गये, किसान ने उन्हें पकड़ लिया। हिरणों का एक झुण्ड यह समझ गया और वनों की तरफ भाग गया परन्तु वहाँ पर भोजन पानी का अकाल पड़ने पर वह पुनः चारागाह में लौट आये वह भी किसान के हस्तगत हो गये । हिरणों का एक झुण्ड वन में भाग गया किसान ने उस झुण्ड को ढूंढ लिया और जाल लगाकर उन्हें पुनः पकड़ लिया परन्तु हिरणों का चौथा झुण्ड अति मय बुद्धिमान निकला वह घने जंगलों में भाग गया जहाँ किसान उन्हें देख न सके, जहाँ किसान पहुँच न सके और इस प्रकार यह झुण्ड सदा के लिए सुरक्षित हो गया। 
              बुद्ध ने अपने धम्म में से कुछ साधक ने भूटान की गहनतम वादियों में, हिमालय की गहनतम वादियों में छिपा दिए जहाँ आज भी प्रकाशवान बुद्ध इन साधकों के साथ सबकी नजरों से बचे हुए आनंदित हो मुस्कुरा रहे हैं । तारा जब कृपावान होती हैं तो उसके पुत्र को किसी की नजर न लग जाये इसकी भी व्यवस्था कर देती हैं एवं दुनिया की नजरों से बचाकर उसे अपने आँचल में समेट लेती है। 

त्रीं
     हे भगवती तारा आप महाविद्याश्रम के सम्पूर्ण प्रकाशमय खंड में रत्न प्रकाश युक्त नीले सिंहासन पर विराजती हैं, आप विशुद्ध प्रकाश की नायिका हैं। आपने कानों में नीलमणि के कुंडल पहने हुए हैं, आपके मुकुट में भी नील मणियाँ सुशोभित हैं, आपके अंग प्रत्यंग नीलमणि के आभूषणों से सुशोभित हैं। हे भगवती तारा आपकी आभा नील मणि लिए हुए है एवं प्रकाश का उत्सर्जन ही एकमात्र कार्य है। आप प्रकाश की पराम्बा हैं, आप स्व प्रकाशिता हैं, आप प्रकाश ही प्रदान करती हैं। आपके आवरण में ब्रह्माण्ड के सबसे स्वच्छ, पूर्ण प्रकाश युक्त शरीर विद्यमान रहते हैं। भगवती आप शव के ऊपर खड़ी हुई हैं। आप भिक्षुकों की देवी हैं, संन्यासियों की देवी हैं अतः आप खड़ी हुई हैं। 
               शव तो भूमि में लेटा रहता है, प्रकाश के अभाव में जीव भी भूमि पर लोट जायेगा आप ही जीव को खड़ा करती हैं, जिस जीव का मस्तिष्क जितना प्रकाशमय होगा वह उतना ही प्रबुद्ध शुद्ध एवं विकसित होगा। प्रकाश ही विकास की परिभाषा है, प्रकाश ही शुद्धता की परिभाषा है। प्रकाश ही चैतन्यता, जागृतता की परिभाषा है। संन्यासी को कहाँ फुरसत है आराम करने की संन्यासी को कहाँ फुरसत विराम करने की अतः वह जीवन के हर तल पर सदा सर्तक खड़ा रहता है, चलता रहता है एवं यही जड़ता को पराजित करने के भाव हैं, यही स्वयं को शव न बनने देने की एकमात्र प्रक्रिया है। जब शरीर जर्जर हो जाता है, वह जीवन के प्रत्येक तल पर खड़े होने में असमर्थ होने लगता है तब संन्यासी स्वतः ही अपने शरीर से अपनी चैतन्यता को अलग कर लेता है, स्वयं कही प्राणोत्सर्ग कर देता है। वह उस दिन का इंतजार नहीं करता है कि कोई जैविक या रोग ग्रसित प्रक्रिया स्वयं आकर उसे उसके शरीर से अलग करे। हे भगवती तारा आप ही शरीर त्याग अर्थात चोला बदलने की शक्ति, क्रिया एवं गोपनीय रहस्य अपने प्रिय जातक को प्रदान करती हैं, यही सामर्थ्य है। हे भगवती तारा आपके सानिध्य में जीव में सामर्थ्य का विकास होता है अतः आप गुरु स्वरूपिणी हैं।  
                   मैं कौन हूँ? आप किसी के पिता हैं, भाई हैं, पति हैं, मित्र हैं, गुरु हैं, मालिक हैं, नौकर हैं, अभिनेता हैं, वैज्ञानिक हैं, गायक हैं, नेता हैं इत्यादि इत्यादि बहुत सारे अलंकार जीवन में मिल जाते हैं पर इन अलंकारों से मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? का जबाव अनादिकाल से नहीं मिल पाता। एक दिन जब जातक नितांत अकेला होता है तो उसके मन में पुनः मैं कौन हूँ ? का प्रश्न होता है अगर इन अलंकारों से वह संतुष्ट हो जाता तो मैं कौन हूँ? का यक्ष प्रश्न एकांत में आकर उसके कान नहीं खींचता। मैं कौन हूँ? की खोज उसे आत्म खोज की ओर ले जाती है और जीव बुद्ध बनने की प्रक्रिया में संलग्न हो जाता है। साधना का मार्ग मैं कौन की खोज है। यह अनंत खोज हैं, एक जीवन में चर्मोत्कर्ष तक भी पहुँचा जा सकता है या फिर काफी गहराई तक पहुँचकर बहुत कुछ अनुभूत किया जा सकता है। मैं पशु भी नहीं हूँ, मनुष्य भी नहीं हूँ, देवता भी नहीं हूँ अपितु मैं कुछ और हूँ यही बुद्ध की खोज है। 
                हे भगवती तारा तू ही जब कुछ प्रकाश देना चाहती है तो जातक के मन में मैं कौन हूँ ? के प्रश्न को बार बार खड़ा करती है। एक अलग प्रजाति को निर्माण करती है भगवती तू, प्रकाशमय जीवन जीने वाले लोगों की प्रजाति। भगवती तारा तेरी कृपा है कि मैंने जीवन में सम्पूर्ण प्रकाशमय गुरु पाया, उसके दिव्य प्रकाश युक्त आभामंडल में बैठकर जीवन की अटूट शांति पायी एवं उसके आभा मंडल में बैठकर मैं कौन का उत्तर पाया। ऐसी ही कृपा भगवती तू औंरों पर कर उन्हें भी प्रकाशमय आभमंडल से युक्त धीर गम्भीर गरिमा युक्त सद्गुरुओं से मिलवा दे जिससे कि उनकी अंधेरे में भटकने की स्थिति का नाश हो। हे भगवती तारा तू ही आभा मंडल प्रदान करती है, आभामंडल देखने की शक्ति भी तू ही प्रदान करती है तेरा एकमात्र कार्य है अंधत्व का निवारण तू आँखें प्रदान करती है हर तल पर जीव को ज्ञानमयी आँखें, विज्ञानमयी, अध्यात्ममयी, चित्रमयी आँखें, प्रकाशमयी आँखें, काव्यमयी आँखें, सौन्दर्यमयी आँखें, शांतिमय आँखें तू ही तो भगवती तारा प्रदान करती है और इस प्रकार जगत से अंधत्व का निवारण होता है।

(क्रमशः)

🙏 @Sanatan

त्रीं (२)
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         अंधविश्वास का निवारण होता है, अंध श्रद्धा का निवारण होता है इसलिए हे भगवती तारा तू खड़ी है। बुद्ध आँखें बंद किए हुए बैठे हैं, चर्म चक्षु तो बंद हैं पर प्रत्येक तल पर अंधत्व का निवारण हो गया है। अंधत्व का निवारण इसलिए आवश्यक है कि स्वयं की आँखों से अनुभूत करें, स्वयं प्रकाश पहचानने की ताकत आये, स्वयं के अंदर अति विराट एवं अति सूक्ष्म आध्यात्मिक दृष्टि का विकास हो । देखो अर्जुन हाथ जोड़कर कृष्ण से विनती कर रहा है कि हे प्रभु मेरे अंधत्व का निवारण कीजिए, ।वह दिव्य चक्षु प्रदान कीजिए जिससे कि हे परब्रह्म परमेश्वर तेरे दिव्य रूप को देख सकूं, तेरे प्रकाश को अनुभूत कर सकूं, एक तरह से वह तारा साधना कर रहा है और नील आभा से युक्त कृष्ण उसे दिव्य चक्षु प्रदान कर रहे हैं, उसके अंधत्व का निवारण कर रहे हैं।
               तू ही ध्यान की अधिष्ठात्री है, तू ही ध्यान करना सिखाती है, तू ही ध्यानस्थ मस्तिष्क का निर्माण करती है, तू ही ध्यान की चरम अवस्था प्रदान करती है। लोग समझते हैं कि गौतम बुद्ध प्रथम बुद्ध हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है गौतम बुद्ध तो सातवें बुद्ध हैं। पहले भी ६ बुद्ध हो चुके हैं तीन क्षत्रिय और तीन ब्राह्मण बुद्ध तो एक श्रृंखला हैं प्रकाशमय मस्तिष्कों की आज भी बुद्ध हैं, आज भी परम ध्यानस्थ मस्तिष्क हैं। यह मनुष्यों की सबसे दुर्लभ, सबसे दिव्य, सबसे प्रज्ञावान, सबसे शांत प्रजाति है जो कि मैं कौन हूँ ? की खोज में लगी हुई है, यही अक्षोभ्य है। अक्षोभ्य का तात्पर्य है जीवन से कोई शिकायत नहीं, जीवन से कोई गिला शिकवा नहीं। एक तरफ अनंत मनुष्यों की खेप है जिसे जीवन में शिकायत ही शिकायत है। सबसे शिकायत, भगवान से शिकायत, समाज से शिकायत, स्वयं से शिकायत । 
              शिकायत ही क्षोभ उत्पन्न करती है, क्षोभ ही हिंसा, युद्ध, खींचतान, कटुता उत्पन्न करता है जब तक क्षोभ है हर तल पर अशांति है। ऐसा लगता है कि मानो मनुष्यों की अनंत खेप शिकायत में जन्म लेती है, शिकायत करती है और शिकायत में ही मृत्यु को प्राप्त करती है। वह धर्म चक्र की जगह संसार चक्र में फँस जाती है परन्तु ऐसे भी हैं भगवती तारा के भक्त जिन्हें जीवन में शिकायत नहीं, वे ही धर्म चक्र को घुमाते हैं। हे भगवती तारा महाविद्याश्रम के तारा खंड में हल्का नीला प्रकाश लिए असीम शांति के साथ धर्म चक्र मंडल सदा गतिमान रहता है और उससे दिव्य धर्म ऊर्जा के अमृतमयी बिन्दु झरते रहते हैं एवं तेरे साधक उसका पान कर मंद-मंद मुस्कुराते हुए आनंदित होते रहते हैं।

Maa Tara
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              Einstein worked his brain all night, searching all night. In order to find some principle, some instrument, some formula, etc., he used to scratch the head of the world, get tired and then sleep with a blanket in the bed, sleep very deeply, but as soon as he woke up suddenly something flashed in his brain, somewhere lightning flashed. Somewhere Mother Tara would get illuminated and she would get the exact answer of her thinking, her theory etc. They cried with joy. Found it, I got it, got it, I saw it, got it, understood it, mostly it belonged to scientists, explorers, creators, poets, writers, philosophers. It is the story of sannyasins, painters, philosophies, creators, etc.
              This is the law to peep into Advaita, the law of finding gems from the dark and all this is possible only when the grace of Tara showers on the person in some way or the other. "One day suddenly" is a sentence and behind this sentence is hidden maa tara. Sudden attainment, unforgettable attainment, different attainment is achieved solely by the grace of Mother Tara. Everyone has got two eyes like skin eye, yes it is true that we can see broadly with the eyes of these two skin eyes, but these two eyes of the skin are very unique. Every living being has two skins, but each living being sees differently from each other, why? Why can't we see what Einstein saw, why the common man cannot see what an explorer sees. Why could we not see what Buddha saw?
               The whole universe is luminous and integration with light, the ability to see all the dimensions of light, the development of infinite eyes that receive infinite light in the brain, the law of experiencing light on every plane is possible only through Tara Sadhana. The moon appears fully illuminated in the form of a full moon, after that it disappears, sometimes it appears half and sometimes only a streak is seen, in this way all the fibers of the brain are not illuminated at the same time, most of the people have less illuminated brain They just die. A fully illuminated mind has become like a full moon moon and immortality has been attained. There is a difference between full moon and new moon, if full moon is the day of power, then new moon is dear to Shiva.
              Buddha attained Buddhahood on the full moon day so you can say that Buddha is a Shaktism. While going from Sarnath to Gaya, Buddha completed Tara Sadhana with his disciples for 21 days at Tara Peeth in Bihar. The three eyes of Bhagwati Sati fell at three different places and thus the Ugratara Peeth, which was formed by the fall of her right eye, was located in Bihar, the left eye of Bhagwati had fallen in Bengal region, there is also Tara Shaktipeeth and Tara seeker Vamkshepa awakened this bench. Bhagwati's third eye fell on the banks of river Sonbhadra, where Parashurama did penance and defeated Sahastrabahu.
                 Where the third eye of Bhagwati fell, there is actually an indestructible Shiv Peeth, there is no other in the world of sadhak like Parashuram, and Mother Tara removed his anguish as well. Buddha said that there are four types of seekers, a farmer made a pasture, arranged water and grass there, a herd of deer came and started living there and thus they became subordinate to the farmer, the farmer caught them. A herd of deer understood this and ran towards the forest, but when there was a famine of food and water, they again returned to the pasture, they too became the hands of the farmer. A herd of deer ran into the forest, the farmer found that herd and caught them again with a net, but the fourth herd of deer turned out to be very intelligent, he ran into the dense forests where the farmer could not see them, where the farmer could not reach and In this way this herd became safe forever.

The Buddha hid some of his Dhamma in the deepest valleys of Bhutan, in the deepest valleys of the Himalayas, where even today the luminous Buddha is smiling happily with these seekers remaining out of sight. When Tara is kind, she also arranges that her son should not be seen by anyone and saves him from the eyes of the world and covers him in her lap.

त्रीं
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         O Bhagwati Tara, you are seated on a blue throne with gems in the entire luminous section of Mahavidyashram, you are the heroine of pure light. You are wearing sapphire rings in your ears, your crown is also adorned with sapphires, your limbs are adorned with sapphire ornaments. O Bhagwati Tara, your aura is carrying a blue stone and the only work is the emission of light. You are the epitome of light, you are self-illuminated, you give light. In your veil reside the cleanest, fully illuminated bodies of the universe. Bhagwati, you are standing over the dead body. You are the goddess of beggars, the goddess of sannyasins, so you have stood up.
                The dead body remains lying on the ground, in the absence of light, the soul will also lie on the ground, you yourself raise the soul, the more luminous the soul of the creature, the more enlightened it will be, pure and developed. Light is the definition of development, light is the definition of purity. Light is the definition of consciousness, awakening. Where does a sannyasin have time to rest, where does a sannyasin have time to stop, so he always stands alert on every level of life, keeps walking and this is the spirit of defeating inertia, this is the only way to not allow himself to become a dead body. process. When the body becomes dilapidated, it becomes incapable of standing on every level of life, then the sannyasin automatically detaches his consciousness from his body, gives himself up somewhere. He does not wait for the day that some biological or disease-causing process will come and separate him from his body. O Bhagwati Tara, she herself gives the power, action and secret secrets to change her body, that is, to change her clothes, this is the power. O Bhagwati Tara, in the presence of you, there is a development of power in the soul, so you are the form of Guru.
                    Who am I? You are someone's father, brother, husband, friend, guru, master, servant, actor, scientist, singer, leader, etc. Many ornaments are found in life, but from these ornaments I get who am where did i come from? The answer cannot be found from time immemorial. One day when the person is completely alone, who am I again in his mind? The question is, if he is satisfied with these ornaments, then who am I? The question of Yaksha does not pull his ears when he comes in solitude. Who am I? The quest for self leads him to self-discovery and the soul engages in the process of becoming a Buddha. Who am I looking for in the path of meditation? It is an infinite search, one can reach even the climax in a life or by reaching deep enough many things can be realized. I am not even an animal, not a man, not even a deity, but I am something else, this is the discovery of Buddha.
                 Oh Bhagwati Tara, when you want to give some light, then who am I in the mind of the person? raises the question over and over again. Bhagwati Thou creates a different species, a species of people living a life of light. Bhagwati Tara is by your grace that I found a perfect luminary Guru in my life, sat in his divine light-filled aura and found unbreakable peace of life, and sitting in his aura, I found the answer to whom. May the same grace be showered on you, Bhagwati, and introduce them to Sadgurus with a luminous aura with a dazzling aura so that their condition of wandering in darkness is destroyed. O Bhagwati Tara, you give the aura circle, you also provide the power to see the aura, your only task is the removal of blindness, you provide the eyes to the living being on every plane, the eyes of knowledge, science, spiritual, picturesque eyes, luminous eyes Poetry eyes, beautiful eyes, peaceful eyes You are the one who bestows the Divine Tara and thus removes blindness from the world..

Superstition is eradicated, blind faith is eradicated, that's why you are standing, O Bhagwati Tara. Buddha is sitting with his eyes closed, his skin and eyes closed, but blindness has been eradicated on every plane. The removal of blindness is necessary because it is necessary to feel it with one's own eyes, to gain the power to recognize the light itself, to develop a very vast and very subtle spiritual vision within oneself. Look, Arjuna is praying to Krishna with folded hands, O Lord, remove my blindness. Grant that divine eye so that O Parabrahma Parmeshwar can see your transcendental form, feel your light, in a way that star worship And Krishna with blue aura is giving him divine eyes, removing his blindness.
                You are the master of meditation, you teach meditation, you create a meditative mind, you provide the ultimate state of meditation. People think that Gautam Buddha is the first Buddha, but in reality it is not so, Gautam Buddha is the seventh Buddha. There have been 6 Buddhas in the past, three Kshatriyas and three Brahmin Buddhas are just a chain of luminous minds. This is the rarest, most divine, most intelligent, most peaceful species of human beings Who am I? This is inexplicable. Akshobhya means no complaint with life, no grudge against life. On one side there is a consignment of infinite human beings who have only complaints in life. Most complaining, complaining to God, complaining to society, complaining to self.
               Grievance generates anger, anger generates violence, war, tussle, bitterness, as long as there is anger, there is unrest on every level. It is as if an infinite batch of human beings are born in complaint, complain and die in complaint itself. She gets trapped in the world wheel instead of the wheel of religion, but there are also devotees of Bhagwati Tara who do not complain in life, they turn the wheel of religion. O Bhagwati Tara Mahavidyashram, in the Tara Khand of Mahavidyashram, the Dharma Chakra Mandala is always in motion with infinite peace with light blue light and from it the nectar of divine dharma energy keeps on springing and your seekers drink it and enjoy smiling softly.

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

माँ महाकाली ।।

       जब साधक पर महाकाली की कृपा होती है तो उसे अघोर मुख प्राप्त होता है और उसकी जिह्वा एवं कण्ठ में अघोर काली विराजती हैं तत्पश्चात् उसका एक-एक शब्द अकाट्य सत्य होता है, उसे मुख सिद्धि प्राप्त होती है एवं उसके वचन । सत्य को प्रतिबिम्बित करते हैं, यही सद्गुरु की पहचान है। सद्गुरु के शब्द काल से परे होते हैं, सद्गुरु की वाणी में महाकाली का अट्टाहास होता है, जो वह कह दे पत्थर की लकीर होता है, ब्रह्माण्ड की कोई भी शक्ति उसके वचन को मिथ्या सिद्ध नहीं कर सकती क्योंकि महाकाली ही सत्य हैं, सत्य की रक्षिका हैं। शिव, सत्यम शिवम् और सुन्दरम् सिर्फ महाकाली के आलिंगन बद्ध होने के कारण ही बने हैं।
                महाकाली की एक शब्द में विवेचना है अपराजिता अर्थात जो कभी भी, कहीं भी, किसी भी स्थिति में पराजित नहीं होती। सिर्फ विजय ही विजय जय ही जय जिह्वा पर आशीर्वाद एवं शाप का उदय महाकाली की शक्ति ही कराती है। शब्द प्राणों से संचालित हों, शब्द किसी और के मस्तिष्क में प्रवेश करते ही प्रकाश जगा दें, शब्द मुर्दे को प्राणवान बना दें यही मंत्र सिद्धि है। जब शब्दों में प्राणों का संचार हो जाता है तो वे मंत्र में परिवर्तित हो जाते हैं, वे ऊर्जा पिण्ड बन जाते हैं। शब्दों में प्राण फूंकने वाली समस्त ब्रह्माण्ड में प्राण फूंकने वाली प्रथमा हैं महाकाली । 
                मत्स्येन्द्रनाथ को साबर मंत्रों का निर्माण करना था, एक नये प्रकार की मंत्र व्याख्या करनी थी तो वे भद्रकाली की शरण में ही गये। उनके आशीर्वाद से मत्स्येन्द्रनाथ ने साबर मंत्रों का संसार रचा, एक नई सृष्टि की और इस सृष्टि पर मोहर थी भद्रकाली की अतः मंत्र के अधीनस्थ सभी देवताओं ने साबर मंत्रों की सत्ता स्वीकार की अर्थात महाकाली की सत्ता स्वीकार की एकमात्र भद्रकाली ही हैं जिसकी सत्ता शिव ने भी स्वीकार की कभी वह उनकी गोद में खेलते हैं, कभी वह उनकी जंघा पर सिर रखकर विश्राम करते हैं, कभी वह उनके सानिध्य में ध्यान मग्न होते हैं तो कभी उनके चरणों में लेटते हैं। जैसा भद्रकाली चाहती हैं वैसा ही शिव करते हैं अतः वे सर्वोच्च शक्ति हैं। शिव जब ताण्डव नृत्य करते हैं तो सृष्टि का एक-एक कण शांत चित्त हो जाता है परन्तु महाकाली जब अपनी सौ भुजाओं और सौ पैरों के साथ नृत्य करती हैं तो शिव भी छिप जाते हैं, शिव से शव बन जाते हैं। ताण्डव से भी ऊपर है महाकाली का नृत्य, ताण्डव से भी प्रचण्ड है महाकाली का महानृत्य। वे परमा हैं, परमा अर्थात सौन्दर्य में भी परम, क्रोध में भी पराकाष्ठा, सम्मोहन में भी चरम और नृत्य में भी परम। वे मूल शक्ति हैं, मूल की खोज तो करनी ही पड़ती है। 
              १३ वी शताब्दी में यूरोप वासियों के मन में भारत की खोज की लालसा जागी क्योंकि भारत मूल शक्ति का केन्द्र है, शिव और शक्ति का निवास स्थल है। मनुष्य सर्वप्रथम यहीं पर सृष्टि ने निर्मित किया है, धर्म यहीं पर प्रादुर्भावित होते हैं और कालान्तर छिटक-छिटक कर समस्त विश्व में फैल जाते हैं जैसे कि जड़ से निकले हुए तने, शाखायें इत्यादि । मूल का अपना आकर्षण है। यूरोपवासी चल पड़े नौकाओं पर सवार वेस्टइंडीज खोजा, अमेरिका खोजा, अफ्रीका महाद्वीप खोजा, गलती से उत्तर और दक्षिण ध्रुव भी पहुँच गये। मूल देश की खोज में चार सौ वर्ष भटकते रहे, समस्त विश्व खोज लिया तब जाकर अंत में भारत की भूमि पर उतर पाये, आखिरकार मूल की शक्ति देख ही ली। देख लिया, समझ लिया, आत्मसात कर लिया ब्रह्मज्ञान को योग विद्या को, तंत्र शास्त्र को और तो और शिव और काली के साधनात्मक पक्ष को। मूल में यही सब होता है और इसी से शक्ति का उत्पादन होता है, ऊपर के जगत को पोषण मिलता है। 
             अध्यात्म के पथ में भी साधक इसी प्रकार मूल शक्ति की खोज में भटकता है एवं अनेकों देव शक्तियों, ग्रह, नक्षत्र, आकाश पिण्ड, अवतारों, गुरुओं को खोजते खोजते अंत में मूल शक्ति तक पहुँच ही जाता है अर्थात शिव और काली तक । मूल की विशेषता क्या है? आप जल पीते हैं तो वह निष्कासित हो प्रकृति के माध्यम से पुनः अपने स्थान समुद्र तक पहुँच ही जाता है। यात्रा लम्बी हो सकती है परन्तु मूल में जाना ही अंतिम पड़ाव है और वही पुनः ऊर्जावान होकर फिर से एक बार यात्रा शुरू होती है। आराधना क्या है ? आराधना भी मूल के सिद्धांत पर कार्य करती है। आपने कृष्ण को पूजा, कृष्ण तो पूजा ग्रहण करेंगे ही साथ में उनके गण भी उसमें हिस्सेदार होंगे कालान्तर कृष्ण उस पूजा को आगे बढ़ा देंगे और इस प्रकार कृष्ण में बैठी काली उसे ग्रहण कर लेगी अतः उपासना पद्धति में आप चाहे यंत्र रखे या पत्थर उपासना मूल तक पहुँच ही जाती है, व्यवस्था ही इस प्रकार की है क्योंकि अंतिम बिन्दु तक अर्क पहुँच ही जाता है। मुख से निकले शब्द शिव और काली तक पहुँच ही जाते हैं, यही पूजन पद्धति का रहस्य है, यही काली ज्ञान है।

Maa Mahakali
 
        When a seeker is blessed by Mahakali, he attains an Aghor face, and Aghor Kali resides in his tongue and throat, after which every word of his is irrefutable truth, he attains success in his mouth and his words. Reflects the truth, that is the hallmark of a Sadhguru. Sadguru's words are beyond time, in Sadguru's speech Mahakali's laughter, what he says is like a stone's streak, no power of the universe can prove his word as false because Mahakali is the truth, of the truth. She is a protector. Shiva, Satyam Shivam and Sundaram have been created only because of being bound by Mahakali's embrace.
                 The description of Mahakali in one word is Aparajita, that is, one who is never defeated, anywhere, in any situation. Only victory, victory, jai, jai, only the power of Mahakali makes the rise of blessings and curses on the tongue. Let the words be driven by life, let the words awaken the light as soon as they enter someone else's mind, the words make the dead alive, this is the mantra siddhi. When prana is infused into words, they are converted into mantras, they become energy bodies. Mahakali is the first to breathe life into the whole universe.
                 Matsyendranath had to create sabar mantras, a new type of mantra had to be interpreted, so he went to the shelter of Bhadrakali. With his blessings, Matsyendranath created the world of Sabar Mantras, created a new creation and this creation was sealed by Bhadrakali, therefore all the deities subordinate to the Mantra accepted the power of Sabar Mantras, that is, the only one who accepted the power of Mahakali is Bhadrakali, whose power was given by Shiva. Also admitted that sometimes he plays on her lap, sometimes he rests with his head on her thigh, sometimes he meditates in her company and sometimes he lies down at her feet. Shiva does as Bhadrakali wants so he is the supreme power. When Shiva performs the Tandava dance, every particle of the universe becomes calm, but when Mahakali dances with her hundred arms and hundred feet, Shiva also hides, becomes a corpse from Shiva. The dance of Mahakali is higher than the Tandava, the great dance of Mahakali is more fierce than the Tandava. He is the Supreme, Parama, that is, the ultimate in beauty, the ultimate in anger, the ultimate in hypnosis and the ultimate in dance. He is the original power, the root has to be discovered.

             In the 13th century, the desire to discover India arose in the minds of Europeans because India is the center of original power, the abode of Shiva and Shakti. Human beings have been created by the universe here for the first time, religions are born here and with time they spread in the whole world like stems, branches, etc. The original has its own charm. Europeans sailed on boats, discovered the West Indies, discovered America, discovered the continent of Africa, accidentally reached the North and South Pole. Wandered for four hundred years in search of the original country, searched the whole world, then finally landed on the land of India, finally saw the power of the origin. Have seen, understood, assimilated the knowledge of Brahman, Yoga Vidya, Tantra Shastra and the spiritual side of Shiva and Kali. This is what happens at the root and from this power is produced, the world above gets nourishment.
             Similarly in the path of spirituality, the seeker wanders in search of the original power and in search of many gods, planets, constellations, sky bodies, avatars, gurus, in the end, reaches the original power i.e. Shiva and Kali. What are the characteristics of the original? If you drink water, it gets expelled through nature and again reaches its place in the sea. The journey may be long, but going to the origin is the last stop and the same journey starts once again after being re-energized. What is worship? Worship also works on the principle of origin. You worship Krishna, Krishna will accept worship as well as his members will also be a part of it, over time Krishna will carry forward that worship and thus Kali sitting in Krishna will accept it, so whether you keep a yantra or stone worship in the worship system. is reached, the arrangement itself is such because the extract reaches the end point. The words coming out of the mouth reach Shiva and Kali, this is the secret of the worship method, this is the knowledge of Kali.