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महाकाल स्तोत्रम् ।।


            यह स्तोत्र महाकाल भैरव के नाम से तंत्र ग्रंथ में मिलता है। इस स्तोत्र को स्वयं भगवान महाकाल ने भगवती भैरवी के पूछने पर बतलाया था। भगवान महाकाल तथा उनके विभिन्न नामों का इसमें स्मरण करते हुए उन्हें नमन किया है। अंत में ॐ ह्रीं सच्चिदानन्दतेजसे स्वाहा । इस मंत्र का तथा सोऽहं हंसाय नमः इस मंत्र का स्वरूप भी व्यक्त किया है। इस स्तोत्र के पाठ से भगवान महाकाल के पूजन का फल प्राप्त होता है और यह साधकों को सुख प्रदान करने वाला है।

महाकाल स्तोत्रम्

ॐ महाकाल महाकाय, महाकाल जगत्पते । 
महाकाल महायोगिन्, महाकाल नमोऽस्तुते ।। 

महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो । 
महाकाल महारुद्र, महाकाल नमोऽस्तुते ॥ 

महाकाल महाज्ञान, महाकाल तमोऽपहन् । 
महाकाल महाकाल, महाकाल नमोऽस्तुते ॥ 

भवाय च नमस्तुभ्यं, शर्वाय च नमो नमः । 
रुद्राय च नमस्तुभ्यं, पशूनां पतये नमः ॥ 

उग्राय च नमस्तुभ्यं, महादेवाय वै नमः । 
भीमाय च नमस्तुभ्यमीशानाय नमो नमः ॥ 

ईश्वराय नमस्तुभ्यं, तत्पुरुषाय वै नमः । 
सद्योजात नमस्तुभ्यं, शुक्लवर्ण नमो नमः ॥ 

अधः कालाग्नि रुद्राय, रुद्ररूपाय वै नमः । 
स्थित जुत्पत्ति-लयानां च हेतु-रूपाय वै नमः ॥ 

परमेश्वर-रूपस्त्वं नीलकण्ठ नमोऽस्तुते ।
पवनाय नमस्तुभ्यं, हुताशन नमोऽस्तुते ॥

सोमरूप नमस्तुभ्यं, सूर्य रूप नमोऽस्तुते ।
यजमान नमस्तुभ्यमाकाशाय नमो नमः ॥ 

सर्वरूप नमस्तुभ्यं, विश्वरूप नमोऽस्तुते । 
ब्रह्मरूप नमस्तुभ्यं, विष्णुरूप नमोऽस्तुते ॥ 

रुद्ररूप नमस्तुभ्यं, महाकाल नमोऽस्तुते ।
स्थावराय नमस्तुभ्यं, जङ्गमाय नमो नमः ॥ 

नम उभय-रूपाभ्यां, शाश्वताय नमो नमः । 
हुं हुङ्कार ! नमस्तुभ्यं, निष्कलाय नमो नमः ॥ 

अनाद्यन्त महाकाल, निर्गुणाय नमो नमः । 
सच्चिदानन्द-रूपाय, महाकालाय ते नमः ॥ 

प्रसीद मे नमो नित्यं, मेघवर्ण! नमोऽस्तुते । 
प्रसीद मे महेशान दिग्वासाय नमो नमः ॥ 

ॐ ह्रीं माया स्वरूपाय, सच्चिदानन्द- तेजसे । 
स्वाहा सम्पूर्णमन्त्राय, सोऽहं हंसाय ते नमः ॥ 

फलश्रुति --

इत्येवं देव-देवस्य, महाकालस्य भैरवि ! । 
कीर्तितं पूजनं सम्यक्, साधकानां सुखावहम् ॥

नित्य पूजन में पाठ करने योग्य गणपति व् सर्व देव स्मरण ।

इसके वाचिक पाठ करना चाहिए इससे जीवन में सकारात्मकता बढ़ता है।

इसको कंठश्थ कर लेना चाहिए ।

           ॥ गणपति स्मरण ॥

सुमुखश्चेकदंतश्च कपिलो गजकर्णक: । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक: ॥
धुम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचंद्रो गजानन: । द्वादशैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजं । प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशांतये ॥
अभिप्सितार्थं सिद्धयर्थं पूजितो य: सुरासुरै: । सर्व विघ्नहरस्तस्मै: गणाधिपतये नम: ॥
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोSस्तु ते ॥
मंगलं भगवान विष्णु: मंगलं गरुणध्वज: । मंगलं पुण्डरीकाक्षं मंगलायतनो हरी: ॥
सर्वदा सर्व कार्येषु नास्ति तेषाममंगलं । येषां हृदिस्थो भगवान मंगलायतनो हरि: ॥
तदैव लग्नं सुदिनं तदैव ताराबलं चंद्रबलं तदैव विद्याबलं दैवबलं तदैव । तदैव लक्ष्मीपतेस्तेऽनङ्घ्रियुगस्मरामी ॥
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजय: । येषामिंदीवरश्यानो हृदयस्थो जनार्दन: ॥
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । तत्र श्रीर्विजयोभूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
सर्वेस्वारम्भकार्येषु देवास्त्रिभुवनेश्वरा: । देवा: दिशंतु न: सिद्धिं ब्रह्मेशानमहेश्वरा: ॥
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान । सरस्वतीं प्रणौम्यादौ सर्वकार्यार्थसिद्धये ॥
विश्वेशं माधवं ढुण्डिं दण्डपाणिं च भैरवं । वंदे काशीं गुहां गंगां भवानीं मणिकर्णिकां ॥
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ॥

ॐ सिद्धि बुद्धि शुभ लाभ सहिताय श्रीमन् महागणाधिपतये नम: ।
ॐ लक्ष्मी नारायणाभ्यां नम: । ॐ उमा महेश्वराभ्यां नम: ।
ॐ वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नम: । ॐ शचि पुरंदराभ्यां नम: ।
ॐ इष्ट देवताभ्यो नम: । ॐ कुल देवताभ्यो नम: ।
ॐ स्थान देवताभ्यो नम: । ॐ वास्तु देवताभ्यो नम: ।
ॐ ग्राम देवताभ्यो नम: । ॐ मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो देवे शक्तिभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो आदित्येभ्यो नम: । ॐ सर्वेभ्यो तिर्थेभ्यो नम: ।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नम: ।  ॐ एतत्कर्म प्रधान देवताय नम: ।

सिंहासन बत्तीसी ।।

             अंग्रेजी केलेण्डर के हिसाब से समय को ईसा के जन्म से नापा जाता है अर्थात 2001 का तात्पर्य आज से 2000 वर्षे पूर्व ईसा का जन्म हुआ था। अब जिनकी बुद्धि अंग्रेजी केलेण्डर में अटक गई है उनके हिसाब से तो विश्व का इतिहास 2000 वर्ष पुराना है। कुछ थोड़े ज्यादा ज्ञानी हो गये वे ईसा के जन्म से सौ वर्ष पूर्व 200 वर्ष 500 वर्ष पूर्व के हिसाब से गणना करते हैं। वर्तमान भारतीय पद्धति के अनुसार विक्रम सम्वत् चलता है अर्थात विक्रमादित्य समय की पहचान बन गये हैं। वैसे विक्रमादित्य से पहले भी भारतीय समय अत्यंत ही विकसित रहा है विक्रमादित्य कई हुए हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ राजवंश की परम्परा अनुसार विक्रमादित्य उज्जैयिनी के राजा हुए हैं उनके दरबार में सर्वप्रथम नौ रत्नों के रूप में एक से बढ़कर एक मनीषी प्रतिष्ठित रहे हैं। वे अत्यंत ही न्याय प्रिय राजा थे। महाकवि कालीदास उन्हीं के नौ रत्नों में से एक थे। राजा होना और वह भी उज्जैन का बस यही मेरे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उज्जैन में साक्षात् महाकाल विराजमान हैं। 

                कालों से परे महाकाल। उज्जैन का आज भी यह रिवाज है कि अगर सिन्धिया परिवार का कोई वंशज उज्जैन आता है तो वह रात्रि में वहाँ निवास नहीं करता क्योंकि वहाँ के महाराजाधिराज सम्राट तो महाकाल ही हैं। पिछली कुछ शताब्दियों से उज्जैन सिंधिया राजवंश के अंतर्गत आता था। प्रत्येक राजवंश ने उज्जैन को पूर्ण सम्मान दिया है। किसी राजवंश में इतनी ताकत नहीं है कि वह महाकाल को चुनौती दे और जो चुनौती देगा उसका नाश तो निश्चित है, उसका निष्कासन तो निश्चित है। जो महाकाल के द्वारा शापित हो, गुरु के द्वारा निष्कासित हो वही अब गद्दी पर विराजमान है लोग उसी के चरण धोकर पीते हैं। उलट राज राजेश्वरी विद्या इस कलयुग में चल गयी है। 

          कहने का तात्पर्य यह है कि उज्जैन का शासक बनना महाकाल की कृपा के बिना सम्भव नहीं है। विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे। उन्हें वेताल सिद्धि थी वीरता और धर्म निरपेक्षता में उनका कोई सानी नहीं था। बचपन में वे गाय चराते थे गाय चराते चराते जब उनकी गाय एक टीले पर पहुँचती तो अचानक ही थनों से दुग्ध की धारा बहने लगती। बालक विक्रम इस टीले पर बैठ जाते और फिर राजा के समानं न्याय करने लगते। उनके हाव-भाव और भंगिमा किसी भी सम्राट से कम नहीं होती थी। इस टीले के नीचे ही गड़ा हुआ था अद्भुत सिंहासन बत्तीसी जिसमें बत्तीस प्रतिमाऐं अंकित थी। बत्तीस योगिनियों की प्रतिमाऐं। यह जादुई, चमत्कारी और पूर्ण तांत्रोक्त सिंहासन था। इस पर बैठते ही विक्रमादित्य शक्ति से सम्पुट हो जाते थे उनके न्याय एवं निर्णय का कोई सानी ही नहीं होता था। 

           बत्तीस योगनियाँ अर्थात बत्तीस मातृ शक्तियाँ सिंहासन को इस तरह से सम्हाली हुई थी जैसे कि हैदराबाद के निकट कृष्णा नदी के समीप बना श्री शैलम ज्योतिर्लिङ्ग। इस ज्योतिर्लिङ्ग की विशेषता यह है कि यहाँ पर शिवलिङ्ग का स्थान अलग है एवं माता पराम्बरा का मंदिर करीब, शिवलिङ्ग से तीन सौ फिट की दूरी पर स्थित है। प्रतिदिन शिवानुष्ठान के बाद शिवजी की बारात माता पराम्बरा के मंदिर में जाती हैं और फिर वे वहीं उनके साथ निवास करते हैं इसीलिए इसका नाम श्री शैलम पड़ा है। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में एक ही जगह श्री शैलम में शिव और पराम्बरा एक साथ निवास करते हैं। शिव जाते हैं पराम्बरा के पास माता पराम्बरा का मंदिर अत्यंत ही मन को मोह लेने वाला है। हूबहु श्रीयंत्र के समान चौंसठ मातृका शक्तियाँ इस मंदिर के गुम्बज तक अंकित हैं। इतनी अद्भुत और चैतन्य मातृका शक्तियों के विग्रह हैं कि मैं देखता ही रह गया। अतुलनीय एवं दैवीय सौन्दर्य से युक्त आँखें ही नहीं हटतीं और बीच गर्भगृह में शिव और पराम्बरा निवास करते हैं। इसी से मिलता-जुलता सिंहासन बत्तीसी का भी निर्माण हुआ था। एक योगिनी शक्ति जब इतना प्रचण्ड कार्य कर सकती हैं, जीवन को बदलकर रख सकती है, एक योग से जीवन की धारा ही बदल जाती है तब आप सोचे कि अगर बत्तीस योगनियाँ शक्तियाँ एक साथ मिलकर अगर योग करेंगी तो परिणाम कितने चमत्कारिक होंगे। उस पर बैठा व्यक्ति कितना शक्तिशाली हो जायेगा। 

         विशुद्धानंद जी ने भी बाद में सिंहासन बत्तीसी से प्रेरणा लेकर अपने आश्रम में एक अद्भुत प्रस्तर के आसन की संरचना की थी। आज भी यह सिंहासन मौजूद है। इस पर बैठते ही मस्तिष्क अध्यात्म की दुनिया में प्रविष्ट हो जाता है। जितने भी ज्योतिर्लिङ्गों का निर्माण हुआ है वह ऐसे ही नहीं हो गया। शिव और पराम्बरा स्थापना के लिए जिस भुवन का निर्माण किया जाता है वह चौंसठ योगिनीयों की शक्तियों के योग का ही प्रतिफल होता है। जब तक चौंसठ मातृकाऐं शक्तियाँ एक स्थान पर योग नहीं करेंगी तब तक शिव स्थापना सम्भव ही नहीं है । .

अगर उचित वास्तु शास्त्र एवं उचित योगिनी शक्तियों के अभाव में कोई व्यक्ति मंदिर निर्माण, गृह निर्माण या फिर अपने व्यापार व्यवसाय के कक्ष इत्यादि में बैठता है तो उसे अत्यंत ही तकलीफें होती हैं,उसकी कुर्सी अभिशप्त हो जाती है। प्रधान मंत्रियों की सत्ता गिर जाती है, मुख्य मंत्री सड़कों पर घूमते हैं। यही रहस्य है सिंहासन बत्तीसी का कुर्सी या गद्दी इस पृथ्वी की सभी सभ्यताओं में मनुष्य को प्रचण्ड शक्ति प्रदान करती है। पदविहीन व्यक्ति की कोई पूछ नहीं है, उसका कोई प्रमाणीकरण नहीं है। गद्दी पूजी जाती है, गद्दी जीवित जागृत और चैतन्य होती है। वह लात मारकर गिरा देती है। किसी और को अपने ऊपर बिठा लेती है, गद्दी गई व्यक्ति का मान खत्म।अतः गद्दी की प्राण प्रतिष्ठा को स्वीकार करना ही होगा। 

           मनुष्य को बैठना आता है बस एकमात्र छोटी सी बैठने की विद्या ने सर्वशक्तिमान बना दिया अन्य कोई प्राणी बैठ ही नहीं पाता परन्तु मनुष्य घण्टों वर्षों बैठा रह सकता है। बड़े-बड़े योगी और सिद्ध भी अपने आसन, अपने कक्ष एवं अपनी कुर्सी पर किसी को बैठने नहीं देते क्योंकि वे गद्दी की महिमा जानते हैं। जो गद्दी पर बैठ गया उसके आगे तो सारा देश झुकेगा ही। भले ही वह मूर्खाधिराज क्यों न हो। किसमें इतनी ताकत है जो गद्दी की शक्ति को नकार सके। शक्तिहीन को भी शक्ति शाली बनाती है गद्दी और शक्तिशाली को शक्तिहीन बनाती है गद्दी । वैसे तो कुर्सी स्वयंभू प्रतीक है चौंसठ योगिनी शक्तियों का परन्तु अगर जानकार एवं सिद्धं व्यक्ति उचित तरीके से कुर्सी को प्राण प्रतिष्ठित कर लें।उसे चौंसठ योगिनी की शक्ति से सम्पुट कर ले तो उसे चमत्कारिक परिणाम तुरंत मिल जायेंगे। सिंहासन की अपनी मर्यादा है। तिब्बत के लामा जिस सिंहासन पर बैठते थे उसे कोई, स्पर्श नहीं कर सकता।उसके सामने प्रत्येक व्यक्ति को पहुँचकर सर्वप्रथम झुकना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति पीठ दिखाकर प्रस्थान नहीं करता। वैसे भी मूर्तियों एवं मंदिरों से बाहर निकलते समय भक्तजनों को पीठ मूर्ति के सामने नहीं करनी चाहिए, न ही किसी गुरु के दरबार में पीठ दिखाकर बाहर जाना चाहिए अन्यथा अवमानना हो जायेगी और काम होते रुक जायेंगे।

             गुरु भी कुर्सी की मर्यादा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कुर्सी के नियमों की अवमानना नहीं करनी चाहिए जो कुर्सी जिस कार्य के लिए मिली है उस पर विराजमान हो वही कार्य सम्पादित करना चाहिए। आसन सिद्धि अति महत्वपूर्ण है। आप अपने व्यापार व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में उपयोग आने वाली गद्दी को पूरा सम्मान दीजिए।उसकी मर्यादाओं का कठोरता के साथ पालन कीजिए।किसी अन्य की कुर्सी पर मत बैठिए। न ही किसी अन्य को अपनी कुर्सी पर बैठने दीजिए।कुर्सी की स्थापना अमृत सर्वार्थ सिद्धि योग में ही करनी चाहिए।कुर्सी इत्यादि में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से धातु का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए,न प्लास्टिक इत्यादि का।कुर्सियाँ बार-बार नहीं बदली जाती।कुर्सी बदलने से त्वरित परिणाम आते हैं।कुछ व्यापार व्यवसाय कुर्सी बदलने के कारण ठप्प हो जाते हैं।नई कुर्सी पर ऊटपटांग निर्णय हो जाते हैं लेने के देने पड़ जाते हैं। मैं ऐसे बहुत से सफल व्यक्तियों को जानता हूँ जो विगत चालीस वर्षों से एक ही कुर्सी पर बैठ रहे हैं, वे कुर्सी को माता की गोद के समान सम्मान देते हैं।वास्तव में कुर्सी माता की गोद ही है।माता की गोद ही पुत्र के लिए सुख प्राप्ति का सबसे उत्तम स्थान है।अन्यों की गोद सुख कम कष्ट ज्यादा देगी।कुर्सी को मातृ भाव से देखना चाहिए,उसका आदर और पूर्ण सम्मान करना चाहिए। 

          व्यापार व्यवसाय की सफलता हेतु अति उच्चकोटि का पारद श्रीयंत्र या फिर स्फटिक श्रीयंत्र गुरु के हाथों से प्राप्त कर अपने व्यापार कक्ष में अवश्य स्थापित करना चाहिए। पूजा कक्ष,व्यापार कक्ष हो,नौकरी का कक्ष हो सभी जगह श्री की उपस्थिति अनिवार्य है। बहुत से तांत्रिक प्रयोग होते हैं कुर्सियों पर।उल्लू की पूंछ अभिमंत्रित करके कुर्सी पर डाल दी जाती है। शाही का काँटा उच्चाटन मंत्र से प्राणप्रतिष्ठित कर कुर्सी में गाढ़ दिया जाता है बैठने वाले को घोर उच्चाटन हो जाता है।वह अपनी कुर्सी पर बैठ ही नहीं पाता है।तंत्र तो चलते ही रहते हैं जब मंदिर अपवित्र कर दिए जाते हैं तो फिर कुर्सी की क्या बात।कुर्सी छिनने से वही दुःख होता है जितना कि एक बालक को माता की गोद से विमुख होने पर होता है।आदमी तिलमिला कर रह जाता है। ईश्वर न करे किसी की गद्दी छिने।कुर्सी को भी उसके ऊपर बैठने वाले से उतना प्रेम होता है जितना कि माता को अपने बालक से। बस यही भाव कुर्सी और उस पर बैठने वाले दोनों को आनंदित करते हैं और उनके सम्बन्ध चिरस्थाई बनाये रखते हैं। कुर्सी को प्राण-प्रतिष्ठित करने की क्रिया,उसे सिद्ध करने की क्रिया फिर कभी आगे लिखूंगा अभी इतना ही काफी है.

                   शिव शासनत: शिव: शासनत

योनि कवचम् ।।


               आम के वृक्ष से जब फल टूटता है तो उस फल में स्थित बीज पुनः एक नये वृक्ष की संरचना कर देता है। वृक्ष यह भूल जाता है कि सामने खड़ा वृक्ष कभी मेरा ही अंश था, मेरे अंदर ही पला बड़ा था एवं वह उसे अपने से अलग समझने लगता है परन्तु वास्तविकता यह नहीं है, वास्तविकता तो यह है कि सभी एक दूसरे में से उत्पन्न हुए हैं। मूल संरचना कभी नहीं बदलती डी.एन.ए. कभी नहीं बदलता बस रंग रूप थोड़ा बहुत बदल जाता है, यही माया का खेल है। मूल संरचना क्यों नहीं बदलती? क्योंकि वह शिव के द्वारा निर्मित है। मूल संरचना में तो इतनी विलक्षणता है कि मृत्यु कब होगी ? भाग्योदय कब होगा? कितनी पीढ़ी बाद मूल संरचना में कुछ विलक्षण उत्पन्न होगा इत्यादि मूल संरचना में यह सब कुछ पूर्व नियोजित होता है। कब जीव को स्थानांतरित होना है? कितने हजार वर्ष बाद रूप परिवर्तन करना है? कितने लाख वर्ष बाद क्या खाना है? क्या पीना है? किस वातावरण में ढलना है ? यह सब कुछ मूल संरचना में अर्थात डी.एन.ए. में अनंत काल पहले शिव ने लिख दिया है। आज अगर जीव पंचभूतीय है, प्राण वायु ग्रहण कर रहा है तो हो सकता है कि कुछ लाख वर्ष बाद जीव अदृश्य होना सीख जाये एवं प्राण वायु की जगह किसी अन्य प्रकार की वायु को ग्रहण करना सीख जाये। आज जो जीव स्थूल भोजन पर निर्भर हैं कल वह सूर्य की ऊर्जा का भक्षण करता हुआ आज के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली हो जाये, ऐसा हुआ है और ऐसा होता रहेगा। मूल कोशिका के कवच के माध्यम से ही जीव पूर्ण रूप से कवचित है, योनि कवच सबसे सूक्ष्मतम और रहस्मय कवच है एवं इस कवच का भेदन, उत्कीलन, विखण्डन शिव के अलाक कोई नहीं कर सकता। साधकों को इस कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए।परम् रहस्यमयी कवच है ये।शाक्त मार्गियों के लिए तो वरदान है, देवी भक्तों के लिए भी अत्यंत कल्याणमय है।

योनि कवचम्

देव्युवाचा

भगवन् श्रोतुमिच्छामि कवचं परमाद्भुतम्।
इदानीं देवदेवेश कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥

महादेव उवाच

शृणु पार्वति! वक्ष्यामि अतिगुह्यतमं प्रिये ।यस्मै कस्मै न दातव्यं दातव्यं निष्फलं भवेत् ॥

अस्य कुलटाच्छेन्दा राजविघ्नोपातविनाशे श्रीयोनिकवचस्य गुप्तऋषिः विनियोगः ।

ह्रीं योनिमें सदा पातु स्वाहा विघ्नविनाशिनी ।
शत्रुनाशात्मिका योनिः सदा मां रक्ष सागरे ।।

ब्रह्मात्मिका महायोनिः सर्वान् प्ररक्षतु ।
राजद्वारे महाघोरे क्रीं योनिः सर्वदावतु ॥

हुमात्मिका सदा देवी योनिरूपा जगन्मयी ।
सर्वाङ्गं रक्ष मां नित्यं सभायां राजवेश्मनि ॥

वेदात्मिका सदा योनिर्वेदरूपा सरस्वती ।
कीर्त्ति श्रीं कान्तिमारोग्यं पुत्रपौत्रादिकं तथा ॥

रक्ष रक्ष महायोने सर्वासिद्धि प्रदायिनी।
राजयोगात्मिका योनिः सर्वत्र मां सदावतु ॥

इति ते कथितं देवि कवचं सर्वासिद्धिदम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं राजोपद्रवनाशकृत् ॥

सभायां वाक्पतिश्चैव राजवेश्मनि राजवत् ।
सर्वत्र जयमाप्नोति कवचस्य जपेन हि ॥

श्रीयोन्याः सङ्गमे देवीं पठेदेनमनन्यधीः ।
स एव सर्वसिद्धीशो नात्र कार्या विचारणा ॥

मातृकाक्षरसंपुटं कृत्वा यदि पठेन्नरः ।
भुङ्गक्ते च विपुलान् भोगान् दुर्गया सह मोदते ॥

इति गुह्यतमं देवि सर्वधर्म्मोत्तमोत्तमम् ।
भूर्जे वा ताड़पत्रे वा लिखित्वा धारयेद् यदि ॥

हरिचन्दनमिश्रेण रोचना-कुङ्कमेन च ।
शिरवायामथवा कण्ठे सोऽपीश्वरो न संशयः ॥

शरत्काले महाष्टम्यां नवम्यां कुलसुन्दरि ।
पूजाकाले पठेदेनं जयी नित्यं न संशयः ॥

॥ इति शक्ति कागमसर्वस्वे हरगौरीसंवादे श्रीयोनिकवचं समाप्तम् ॥

     
                शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना रहस्य् ।।

         पद, पादप, प्राप्ति, पुष्प, पदम, पंकज इत्यादि के मूल में ही तो साधना है। पद क्या है? जिस पर आप विराजमान हैं या जिस स्थिति में आप जी रहे हैं वही पद है। अगर आप साधनाओं में लीन हैं तो आप साधक के पद पर हैं। सबसे श्रेष्ठ पद है यह कभी भी न खत्म होने वाला महान पद। ईश्वर के द्वारा रचा हुआ पद। जीवन में अनेकों पद आते जाते रहेंगे पर साधक का पद हर क्षण, हर योनि में, हर उम्र में गतिमान रहता है और गतिमान रहना चाहिए। कुछ अच्छे कर्म होंगे, कुछ सत्य होगा, सही दृष्टिकोण होगा, गुरुओं का आशीर्वाद होगा, जुझारूपन होगा और आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति होगी तो फिर पद चलकर आयेगा। यही विधान उचित है कि पद चलकर आये। पद प्राप्ति के लिए पद के पीछे दौड़ना उचित नहीं है। पद आपके लिए बने यही साधक के लिए उचित है अन्यथा पद जी का जंजाल बन जायेगा। समस्या ही समस्या खड़ी कर देगा पद की खींचतान से जीवन की साधनात्मक लय खण्डित हो जायेगी, प्रदूषित हो जायेगी। एक पद जाता है तो दूसरा पद प्राप्त होता है। एक ही पद से कब तक चिपके रहोगे। गुरु दीक्षा देने का यही तात्पर्य है कि आपको साधक का पद प्रदान कर दिया गया है। एक ऐसा मार्ग जिस पर अनेकों घाट आयेंगे।

         साधक ही गुरु पद पर विराजमान होता है। पद पर विराजमान होना आसान है परन्तु पद की मर्यादा निभाना दूसरी प्रकार की साधना है। यह साधना पद प्राप्ति से पहले वाली स्थिति से भी ज्यादा कठिन है। पद की अपनी मर्यादा है, अपनी सीमाऐं हैं। पद कभी-कभी साधक के लिए बंधन भी बन जाता है इसलिए साधक को पद के मोह में नहीं उलझना चाहिए। आज गुरु हो तो कल सद्गुरु का पद भी प्राप्त हो सकता है। कुलगुरु भी बन सकते हो। जगद्गुरु एवं परमेष्ठि गुरु के पद पर भी आप विराजमान हो सकते हैं। साधना प्रारम्भ की है तो फिर निरन्तरता होनी चाहिए। एक दिन गुरु पदों से ऊपर उठकर गुरु तत्व के रूप में भी क्रियाशील हो सकते हैं और अंत में शिवत्व को प्राप्त करते हुए शिव में भी विलीन हो सकते हैं। आध्यात्मिक साधक की यात्रा में इन सब पदों का आना निश्चित है परन्तु प्रत्येक पद पर साधना तो करनी ही पड़ेगी। सभी योनियों के पास मात्र एक ही कार्य है और वह है साधना का कार्य हँसकर करो, रोकर करो, अवचेतन में करो साधना करनी पड़ेगी। साधना की समग्रता में भौतिक, अगोचर, दैहिक, दैविक एवं सूक्ष्म तत्व सम्बन्धित सभी प्रकार की साधनात्मक स्थितियाँ आती हैं। पद स्थाई है, पद पर विराजमान होने वाले सदैव बदलते रहते हैं। कैसे बदल जाते हैं? यह सृष्टि का नियम है। चाहकर भी आप पद में लिप्त नहीं हो सकते। 

        आज शरीर मिला है, युवावस्था मिली है हम लाख जतन कर लें एक दिन सब स्वतः ही प्रस्थान कर लेंगें। एक मनवन्तर में तो ब्रह्मा का पद भी बदल जाता है। इन्द्र का पद भी बदलता रहता है। शक्ति केवल पद में होती है। व्यक्ति केवल पद पर ही प्रतिष्ठित होता है। द्रोण सर्वप्रथम एक गरीब ब्राह्मण थे परन्तु जैसे ही गुरु पद पर विराजमान हुए वे पाण्डु कुल के राजगुरु बन गये। राजगुरु के के कारण वे मर्यादाओं की सीमा में बँध गये और न चाहते हुए भी एकलव्य से अंगूठा माँग बैठे उसकी साधना खण्डित कर दी। राजगुरु के रूप में उन्हें अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में देखना था। राजगुरु की मर्यादा अनुसार वे राज परिवार के अलावा किसी अन्य को शिक्षा-दीक्षा नहीं प्रदान कर सकते थे। राजगुरु के पद की मर्यादा ने ही उन्हें कुरुक्षेत्र में कौरवों की तरफ से लड़ने को मजबूर किया। जिस पद पर बैठकर उन्होंने प्राप्ति सम्भव की थी उसकी मर्यादा तो निभानी ही पड़ती है। वे सिर्फ राजगुरु बनकर ही रह गये भीष्म भी पद से चिपके हुए थे। आँखों के सामने अपनी कुलवधू का चीर हरण देखना पड़ा। इससे बड़ा विष क्या हो सकता है? गलती तो उनसे भी हुई। अपने अंत समय में उन्हें तीरों की शैय्या पर लेटना पड़ा इसीलिए पद में लिप्तता साधक के लिए उचित नहीं है। पद आते जाते रहेंगे साधक को तो केवल साधनाऐं परिष्कृत करते रहना चाहिए। 

        कृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी हैं उनकी भी अपनी साधना है। साधना तो नारायण स्वरूप में उन्होंने भी की है। बिना साधना के प्राप्ति सम्भव ही नहीं है। सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने साम्बसदाशिव की घोर उपासना शुरू कर दी वे प्रतिदिन 108 दिव्य ब्रह्म कमलों से भगवान शिव की उपासना करते थे। एक दिन शिव जी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक कमल कम कर दिया। साधना काल में अचानक कमल के कम हो जाने पर विष्णु जी विचलित हो गये। अंत में उन्होंने अपनी एक आँख निकालकर कमल के रूप में शिव जी को अर्पित कर दी। वे कमलनयन भी कहलाते हैं। शिव जी अति प्रसन्न हुए और दूसरे ही क्षण भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्ष के नाम से पहचाने जाने लगे। .

मंगलम् भगवान विष्णुः मंगलम् गरुड़ ध्वजः । 
मंगलम् पुण्डरी काक्षः मंगलाय तन्नोहरिः ॥

अर्थात मंगल तभी है, कुशलता तभी है जब आप साधना में सफल होंगे अन्यथा अमंगल ही अमंगल है। मंगलमय जीवन का प्रतीक ही श्री हरि हैं। उनसे श्रेष्ठ इस ब्रह्माण्ड में और कौन साधक है। यही श्री हरि महाभारत के युद्ध में सब कुछ साध रहे हैं तभी तो सारथी हैं अर्जुन के महाभारत का युद्ध कृष्ण अवतार की साधना है। साधना अधर्म के नाश की और धर्म की स्थापना की। स्थापित वही होगा जो कि सफल साधक होगा और जिसकी साधना में पारंगतता होगी। सबसे पहले कर्म के सिद्धांत को समझते हैं। कर्म ही साधना है। प्रत्येक योनि अपनी विशेषतानुसार कर्म सम्पादित करती है। साधक सबसे पहले यह समझ ले कि अकर्मण्यता नाम की कोई वस्तु होती ही नहीं है। यह मिथ्या शब्द है। शब्द कोष के अधिकांशतः शब्द मनुष्यों के द्वारा निर्मित हैं। अर्थ का अनर्थ निकालते हैं। अगर कोई व्यक्ति बिना हाथ पाँव हिलाये मात्र दूरदर्शन देख रहा है तो यह भी एक कर्म है। एक प्रकार की मानसिक साधना। इसका फल भी निश्चित मिलेगा। किसी भी कर्म का फल तो मिलता ही है। जैसा कर्म होगा वैसा ही फल होगा। जिस क्षण कर्म प्रारम्भ होता है या फिर जिस क्षण कर्म का विचार मात्र ही उदित होता है उसी क्षण फल का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है। 

           जैसे-जैसे कर्म गतिमान होता है वैसे-वैसे फल भी मूर्त रूप लेता जाता है और जिस क्षण कर्म चर्मोत्कर्ष पर पहुँचता है साधक को फल प्राप्ति हो जाती है। कर्म निरंतरता लिए हुए है। पहले माऊँट एवरेस्ट पर चढ़ना पड़ेगा उसी क्षण सफलता की विशेष अनुभूति प्राप्त होगी इसके पश्चात वहाँ से नीचे उतरने का कर्म भी प्रारम्भ हो जायेगा। यह कर्म भी साधना के अंतर्गत ही आता है। इसकी पूर्णता के बाद फूलों के हार की भी प्राप्ति हो जायेगी। पुष्प प्राप्ति सफलता का द्योतक है। स्थापित होने के लक्षण हैं। स्थापित होने के पश्चात साधनात्मक स्थिति पुनः प्रारम्भ हो जायेगी किसी और स्वरूप में। आज से 20 वर्ष पूर्व महाजन एक गद्दी पीछे लगाकर 12-12 घण्टे अपने स्थान पर बैठे-बैठे व्यवसाय करते थे यह स्थापित होने की प्रक्रिया है एक विशेष आसन में । बारह-बारह घण्टे बैठना अपने आपमें जटिल साधना है। इसका फल भी इन्हें प्राप्त हुआ है। धन लक्ष्मी व्यापार रूप में उन्हें सिद्ध हुई परन्तु पेट भी गद्दी के बाराबर आगे की तरफ निकल आया। जैसी साधना, जैसा स्थापत्य वैसा ही फल। यही सृष्टि का विधान है। 

         मात्र मंत्र जाप करना ही आध्यात्मिक साधना के अंतर्गत नहीं आता। कृष्ण ने अपने जीवन में अनेकों साधनाऐं सम्पन्न कीं, अपने जीवन का काफी लम्बा हिस्सा युद्ध के मैदान में व्यतीत किया। मथुरा से द्वारका तक अपना राज्य स्थापित किया। विवाह भी रचाये, गोपियों संग रास लीला भी की, प्रजा की समस्याऐं भी सुलझाई इत्यादि इत्यादि और अंत में युद्ध के मैदान में गीता का प्रादुर्भाव भी किया। आध्यात्मिक साधक होने का तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन की अन्य जिम्मेदारियों और भौतिक साधनाओं का परित्याग कर दिया जाय। यह सब साथ-साथ ही चलता है इसीलिए तो वे सारथी बने। एक तरफ युद्ध का संचालन, दूसरी तरफ अध्यात्म, तीसरी तरफ अर्जुन की रक्षा, चौथी तरफ धर्म की स्थापना और पाँचवी तरफ अदृश्य रूप से सभी अधर्मियों का अपनी शक्ति के द्वारा विनाश पाण्डव तो मात्र माध्यम हैं महाभारत रूपी साधना के आयोजक कोई भी हो, आयोजन कैसा भी हो, भाग लेने वाले कौन हैं? यह सब तो कृष्ण की माया है। जगद् गुरु की माया है। संचालक कौन है? यही साधक की दृष्टि को पहचानना चाहिये। एक दिन साधक को भी संचालक बनना पड़ेगा।

           साधना के पथ में साधन अति आवश्यक है। मनुष्य माध्यम है देवताओं की साधना में एवं देवता माध्यम है आदि शक्तियों की साधना में ठीक इसी प्रकार पशु माध्यम है मनुष्यों की साधना में आर्य इसलिए सफल हुए कि उन्होंने सर्वप्रथम गाय को साधा, वनस्पतियों को साधा, अश्व को साधा, तत्वों को साधा इत्यादि। उनके पास सर्वप्रथम लोहे के हथियार थे जो कि अन्य सभ्यताओं के पास नहीं थे। जो सभ्यता या मानव वर्ग या साधक साधने की कला में निपुण हो जाता है वही श्रेष्ठ साधक कहलाता है। कृष्ण ने अर्जुन को साधा। अर्जुन ने तो हथियार ही रख दिये थे युद्ध भूमि में कृष्ण को अपना लक्ष्य खण्डित होता हुआ दिखाई दिया। अब तक जो कृष्ण अपने अवतारी स्वरूप को पर्दानशीन रखे हुए थे आखिरकार उसे भी अर्जुन को दिखाना पड़ा। साधक को अपना लक्ष्य और साधना गुप्त ही रखनी चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन के अलावा किसी और को अपना स्वरूप नहीं दिखाया। औरों के लिए अपने विराट स्वरूप को पर्दानशीन ही रखा। प्रदर्शन साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। .

प्रदर्शन अपवाद स्वरूप ही करना चाहिये। प्रदर्शन प्रतिबंधित है शिव द्वारा इसीलिए इस ब्रह्माण्ड में फल की व्यवस्था सर्वत्र विद्यमान है। एक साधक को दूसरे साधक की साधना का ऋण अवश्य ही चुकाना चाहिये । ऋण चुकाने का श्रेष्ठ तरीका उसके स्थापत्य की स्वीकारोक्ति एवं प्रेममय व्यवहार है। आध्यात्मिक साधनायें सम्पन्न करने के लिए साधक को हृदय प्रधान होना पड़ेगा। मुख्य रूप से सभी साधनाऐं हृदय प्रधान ही होती हैं। भौतिक उपलब्धियाँ भी हृदय प्रधान व्यक्तियों ने ही सम्पन्न की हैं। हृदय प्रधान व्यक्ति ही एकाग्रचित्त हो सकता है। बंधनमुक्त होकर सोच सकता है एवं अपनी शक्ति को उचित तरीके से संचालित कर सकता है। श्री यंत्र क्या है? मात्र महालक्ष्मी रूपी आदि शक्ति के दिव्य संचालन की व्यवस्था का प्रतिनिधि इस यंत्र में कहीं पर भी शक्ति का अपव्यय नहीं है। शक्ति कहीं पर भी व्यर्थ में व्यय नहीं हो रही है। जीवन की दीर्घजीविता शक्ति के संचालन पर निर्भर करती है। इस यंत्र में सभी तरफ संधि स्थल है। अवरोध कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। 

       साधक के साथ दिक्कत क्या है? सभी साधक साधनाओं में अवरोधित क्यों हो जाते हैं? इसका उत्तर श्री यंत्र देता है। प्राप्ति महालक्ष्मी का विषय है। साधक तो बस प्राप्ति ही चाहता है। चाहे वह मोक्ष हो या फिर अप्सरा आप सारा दिन या महीना भर मेहनत करके कुछ धन प्राप्त करते हैं जो धन कम से कम एक महीना चलना चाहिये वह तीन दिन में खत्म हो जाता है। तीस दिन की मेहनत के बाद प्राप्त तनख्वाह या फल क्यों तीन दिन में खत्म हो गया? क्यों यह तीस दिन तक नहीं चला? क्या ऐसा कोई विधान है जिसके द्वारा यह तीन महीने या तीन वर्ष तक अक्षय बना रह सके। प्रतिफल को अक्षय कैसे बनायें? यही तो सभी लोगों की समस्या है। प्राप्ति हो रही है और न चाहते हुए भी आँखों के सामने से धन जा रहा है। तीस लाख रुपये एक व्यक्ति सारा जीवन मेहनत करने के बाद जोड़ पाता है और कुछ ही क्षणों में उसे वह न चाहते हुए भी हृदय के चिकित्सक को भेंट कर देने पड़ते हैं। एक भी ऐसा व्यक्ति बता दें जो हृदय की शल्य चिकित्सा चाहता हो परन्तु अब तो करवानी ही पड़ रही है। फल को अक्षय बनाने की कला साधक को सीखनी ही पड़ेगी। सारे छिद्रों को जो उसने स्वयं बनाये हैं बंद करने ही पड़ेंगे। समग्रता के साथ व्यवस्था समझनी ही पड़ेगी। स्वयं को मर्यादित करना ही पड़ेगा अन्यथा अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। भौतिक साधकों की यही समस्या है।

           मनुष्य के साथ एक विलक्षण प्रतिभा है शक्ति संग्रहित करने की विभिन्न साधनाओं के द्वारा वह नाना प्रकार की वस्तुओं को भोज्य के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। उसमें असीम क्षमता है भोग करने की। ध्यान रहे भोग के कारण जो प्रतिफल उत्पन्न होता है उसमें काफी कुछ स्वयं के शरीर से विस्थापित हो जाता है। भोग की क्रिया बल को निष्कासित करती जाती है। इसीलिए भोग मार्ग पर चले साधक अतिशीघ्र ही बलहीन हो जाते हैं। इस जग में सभी कृषक हैं। खेती करना सभी का कार्य है परन्तु बीज कहीं और से आते हैं। आप अपने मस्तिष्क में दुख के बीज, विषाद के बीज और दरिद्रता के बीज बोओगे तो इन्हीं की फसल उगेगी, यही काटना पड़ेगा। जाने अनजाने में लोग रोते रहते हैं, अपने भाग्य को कोसते रहते हैं परन्तु बीजों को नहीं बदलते हैं। इतने कमजोर हो गये हैं कि उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता कि उनका मस्तिष्क किन-किन नकारात्मक बीजों के लिए उपजाऊ भूमि बन गया है। दुर्गन्ध रोपोगे तो सुगन्ध कहाँ से आयेगी। क्रोध रोपोगे तो शांति नहीं उत्पन्न होगी। ऐसा ही होता है अधिकांशतः मनुष्यों के वंश वृक्षों में अनेकों प्रकार की समस्याऐं, रोग और नकारात्मक शक्तियों को वे रोप लेते हैं अपने अंदर और पीढ़ी दर पीढ़ी अभिशप्त जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें केवल फल ही दिखाई देता है परन्तु जड़ बीज और मूल तक तो उनकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती है। .

         इस ब्रह्माण्ड में सारा खेल अदृश्य शक्तियाँ रचती हैं। अदृश्य शक्तियों के अंतर्गत देवता, गंधर्व, किनर, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, अप्सरायें, योगनियाँ इत्यादि-इत्यादि जैसे अनेकों वर्ग हैं। ये सबके सब मनुष्य के इर्द-गिर्द विद्यमान रहते हैं। इन्हीं के कारण जीवन सुखी और दुखी होता रहता है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म में इनका अंश निश्चित है। इनके स्थापन और विस्थापन की प्रक्रिया एक चेतनाशील व्यक्ति को अवश्य समझनी चाहिए। एक स्त्री का विवाह अत्यंत ही धूमधाम और रजामंदी से एक पुरुष के साथ होता है। कुछ महीने पश्चात स्त्री मायके में जाकर रहने लगती है बिना किसी कारणवश उसका मन ही पति के पास लौटने का नहीं होता। ऐसा क्यों हो रहा है? जब कुछ भी समझ में नहीं आता है तो लोग कह देते हैं उसका दिमाग खराब है। किसी स्त्री विशेष या पुरुष विशेष के मस्तिष्क में उच्चाटन की क्रिया कैसे हुई? बस यहीं पर आप अदृश्य योनियों की गति को पकड़ सकते हैं। कौन सी वह ताकत है जो कि मनुष्य को माध्यम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही है और उसे किस प्रकार से निष्कासित किया जाय? यही कार्य गुरु सम्पन्न करते हैं।

        एक व्यक्ति जो कि आपके प्रति अत्यंत ही अनुराग रखता हो कुछ दिनों बाद आपका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। अकारण ही ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे क्या वास्तविकता है? साधक को यह निश्चित समझना चाहिए। यही अद्वैत है। अगर समस्या का केन्द्र द्वैत हो तो फिर इस संसार में कोई दुखी ही न हो। द्वैत केन्द्र से तो मनुष्य अच्छी तरह निपटना जानता है परन्तु अद्वैत स्थिति एक आम व्यक्ति के वश की बात नहीं है। राजा से रंक और रंक से राजा, विफलता से सफलता पदहीनता से पद प्राप्ति, दरिद्रता से वैभव इत्यादि इत्यादि सभी परिस्थितियों के केन्द्र अद्वैत ही है अर्थात अगोचर और पंचेन्द्रियों के द्वारा न पकड़ में आने वाली स्थिति। आध्यात्मिक साधनायें इसीलिए आवश्यक हैं। आध्यात्मिक साधना शून्य से उत्पन्न करने की कला है। अद्वैत में तो सब कुछ विद्यमान है। दिक्कत बस उसे गोचर बनाने की है। इसी प्रक्रिया के लिए सम्पन्न किया गया कर्म साधना है। यही क्रिया योग है। जीवन को पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं सत्मार्ग पर चलाने की क्रिया । इसे ही कहते हैं साधना। वह साधना जिससे कि प्राप्त होने वाला अक्षय फल एक जन्म तो क्या कई जन्मों तक शक्ति प्रदान करता रहेगा। इसके मूल में जागृत हृदयपक्ष है, जागृत हृदय पक्ष में ही प्रेम की खेती होती है। यहीं पर गुलाब के फूल पल्लवित होते हैं, यहीं पर न खत्म होने वाली पद प्रतिष्ठा एवं प्राप्ति होती है। यहीं पर पद्म पर विराजमान महालक्ष्मी के दर्शन होते हैं। जिसने इसे समझ लिया, जी लिया, कर्मों को सम्पादित कर लिया वही निपुर्ण साधक कहलायेगा। उसी के आगे श्री शब्द शोभायमान हो गये। अंत में मैं कहता हूँ कि समझ-समझ के समझना भी एक समझ है और समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वो नासमझ है। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत: