Follow us for Latest Update

वैदिक मंत्र क्या है ?

            सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कम्पायमान है। एक कम्पन से अनेक कम्पन और अनेक स्पंदन से पुन: एक समान कम्पन की निरंतर चलने वाली वृत्ताकार श्रृंखला का निर्माण होता है जब भी श्रृंखला का निर्माण होता है, जब भी श्रृंखला की बात की जाती है वृत्ताकार आवृत्ति ही गोचर होती है आकाश गंगा में तारों ग्रहों और नक्षत्रों का जन्म भी कम्पन के द्वारा ही होता है और यही कम्पन उनकी मृत्यु का कारण भी बनता है, यह बात और है कि हम उस कम्पन को श्रवण इन्द्रियों के द्वारा महसूस नहीं कर पाते हैं। हमारी श्रवण इन्द्रियाँ सीमितता लिए हुए है। प्रचण्ड कम्पन का श्रवण हमारे लिए प्रलयकारी सिद्ध होता है तो वहीं सूक्ष्म कम्पन हम अन्तरइन्द्रियों की अति संवेदनशीलता के कारण ही ग्रहण कर सकते हैं। मस्तिष्क में उपस्थित प्रत्येक कोशिका का आंतरिक भाग वृत्ताकार आकृति ही लिए हुए है लिंङ्गाकार आकृति तो प्रत्येक कोशिका का मूल भाग है।

              बीज हमेशा वृत्ताकार ही होते हैं ब्रह्माण्ड में उपस्थित दिव्य शक्ति बुद्धि और तर्क की भाषा से प्राप्त नहीं हो सकती है उन्हें प्राप्त करने के लिए या उनसे संवाद करने के लिए या फिर हमारी भावनाऐं उन तक बीज रूप में उन तक पहुँचाने के लिए हमें मंत्रों की आवृत्तियों का ही सहारा लेना पड़ेगा। यह आवृत्तियाँ उच्चारित होने से ही सूक्ष्म जगत में विराजमान देव और आदि शक्तियों तक बीज रूपी भावनाओं को सम्प्रेक्षित कर देती है।

              आदि शक्तियां इतनी बीज रूपी भावनाओं की तीव्रता एवं पवित्रतता के अनुसार ज्ञातत्व विशेष को फल प्रदान करती है। देवता तो देने के लिए सदैव तत्पर होते हैं परंतु यह तो साधक के विश्वास, तप और पवित्रता पर निर्भर है कि वह कितना ग्रहण कर सकता है, देवता मंत्रों के द्वारा ही आबद्ध होते हैं। वैदिक रीति में मंत्रोच्चार को ही मूल रूप से अत्यधिक महत्व दिया गया है एवं वैदिक मंत्रों में उच्चारण शुद्धता के साथ-साथ आठ प्रमुख बातें पाई जाती हैं जो कि अन्य मंत्रों में नहीं होती है । 

             ऋषि -- ऋषि शब्द का तात्पर्य उन दिव्य पुरुषों से है जिन्होंने अपने तप, योग और ध्यान के द्वारा विशेष दिव्य शक्ति से आत्म साक्षात्कार किया हो एवं उसके परम तेज को मंत्र के रूप में जन-मानस तक वितरित करके लोक कल्याण की परम्परा का निर्वाह किया तो उदाहरण के लिए विश्वामित्र ने गायत्री से आत्म साक्षात करके उनके दिव्य तेज को गायत्री मंत्र के द्वारा पृथ्वी लोक के कल्याण के लिए वितरित किया । 
               वैदिक मंत्र ईश्वर रचित हैं और ईश्वर रचित स्पंदन काल बंधनों में बंधा हुआ नहीं होता वह आदि स्वरूप का प्रतीक है। इनकी तीव्रता सदैव बनी रहती है । 
          छन्द : प्रत्येक वैदिक मंत्र में एक छन्द होता है । देवता : प्रत्येक वैदिक मंत्र आराध्य देवता के लक्ष्य पर आधारित रहता है । 

        बीज : प्रत्येक वैदिक मंत्र के अंदर बीज तत्व विद्यमान होता है जो कि मूल तत्व के रूप में सम्पूर्ण मंत्र को शक्ति प्रदान करता रहता है। उदाहरण के लिए 'ॐ' प्रणव एवं तेज का बीज है। 'ॐ' शिव और शासक बीज है। 'ह्रीं ' माया बीज है, 'फट' विसर्जन और चलन बीज है, 'स्वाहा' होम अथवा शांति बीज है, 'श्री' लक्ष्मी बीज है । 

         शक्ति: प्रत्येक मंत्र में उपस्थित बीज विभिन्न प्रकार की तीव्रता रूपी शक्ति मंत्र के समान स्वरूप को संचालित करने के लिए प्रदान करता रहता है । 

          कीलन : कीलन अर्थात बंधा हुआ होना। कीलन शब्द का तात्पर्य अन्य कोई शब्द से कर सकते हैं मंत्र का दुरुपयोग न हो मंत्र गलत प्रकृति के लोगों के हाथ में न पड़ जाए इसलिए सुरक्षात्मक उपाय के लिए मंत्र दृष्टाओं ने प्रत्येक मंत्र को कीलित कर रखा है। 

         अनेकों मंत्र मनुष्यों की दुष्ट बुद्धि के कारण मंत्र दृष्टाओं द्वारा हमेशा के लिए कीलित कर दिए गये हैं। कल्पना कीजिए अगर रावण जैसे दम्भी व्यक्ति को कोई अति तीव्र मंत्र सिद्ध हो जाए तो इससे जन कल्याण की अपेक्षा पृथ्वी पर हाहाकार ही उत्पन्न होगा।

           विनियोग : विनियोग का तात्पर्य साधक विशेष द्वारा मंत्र जप का उद्देश्य क्या है ? अर्थात वह किस संकल्प को ध्यान में रखकर दिव्य शक्ति की स्तुति कर रहा है।

         न्यास: न्यास के द्वारा मंत्र का पद छेद किया जाता है तथा मंत्र को शरीर के सम्पूर्ण अंगों में प्रतिष्ठित किया जाता है । 

             एक प्रकार से यह महा पूजा है और महापूजा के द्वारा साधक और मंत्र शक्ति के बीज दूरी समाप्त हो जाती है, न्यास के कारण ही मंत्र मुख से उच्चारित होने वाला स्पंदन न होकर एक समग्र शक्ति स्वरूप में साधक के रक्त की प्रत्येक बूंद में समाहित हो जाता है एवं साधक की समग्रता मंत्रमय हो जाती है ।

         प्रत्येक व्यक्ति को मंत्र जाप से समान सफलता नहीं मिलती है इसके कई कारण होते हैं। उदाहरण के लिए भोजन का सम्पूर्ण आनंद तभी प्राप्त होगा जब आप भूखे होंगे, भोजन उच्च कोटि का होगा, उसमें सभी रस विद्यमान होंगे । भोजन का निर्माण पवित्रता से किया गया होगा । आदरपूर्वक आपको परोसा गया होगा, उसकी गंध अनुकूल होगी, भोजन ताजा होगा एवं आपने भी उसे पूर्ण पवित्रता और शांत भाव के साथ ग्रहण किया होगा इसके साथ ही आपका पाचन संस्थान भी निरोगी होना चाहिए तब कहीं जाकर आप भोजन का सम्पूर्ण आनंद ग्रहण करने में सक्षम होंगे। इसके विपरीत अगर आपने नित्य क्रिया के अनुसार भोजन किया होगा एवं पेट ठीक न होने की स्थिति में भी आप उसे ग्रहण कर रहे होंगे। साथ ही भोजन का निर्माण भी आधा अधूरा हो तो फिर अमृतमय भोजन भी शरीर में जाकर विष का काम करेगा। 

           वैदिक मंत्र समग्रता का दृष्टिकोण रखते हैं। इसलिए भारत भूमि धर्म क्षेत्र के रूप में सदैव प्रतिष्ठित रही है। प्रत्येक कालखण्ड में इन्हीं वैदिक ऋषियों ने भारत की धर्म भूमि को मंत्र दृष्टाओं, स्वप्न दृष्टाओं एवं ऋषि-मुनियों की उत्पत्ति कराकर विश्व में धर्म की स्थापना की है।
               
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

What is Vedic Mantra ?
              The whole universe is vibrating. From one vibration to many vibrations and from many vibrations again, a continuous circular chain of uniform vibrations is formed, whenever the chain is formed, whenever the series is talked about, only the circular frequency is transmitted to the stars in the galaxy. Planets and constellations are also born through vibrations and this vibration also causes their death, it is another matter that we are not able to feel that vibration through the senses of hearing. Our hearing senses are limited. Hearing of strong vibrations proves to be catastrophic for us, whereas subtle vibrations can be received by us only because of the extreme sensitivity of the inner senses. The inner part of every cell present in the brain has a circular shape, the lingual shape is the basic part of each cell.

               Seeds are always circular, the divine power present in the universe cannot be received through the language of reason and reason, to receive them or to communicate with them, or to convey our feelings to them in the form of seeds, we need mantras. Frequencies have to be used only. When these frequencies are uttered, they communicate the feelings of the seed to the deity and the primal powers sitting in the subtle world.

               According to the intensity and purity of such seed-like feelings, the Adi Shaktis give fruit to a particular being. The deities are always ready to give, but it is dependent on the faith, tenacity and purity of the seeker that how much he can receive, the deities are bound by mantras only. In the Vedic system, chanting has been given utmost importance basically and along with the correctness of pronunciation in Vedic mantras, eight main things are found which are not there in other mantras.

              Rishi - The word rishi refers to those divine men who have realized themselves with a special divine power through their austerity, yoga and meditation, and by distributing its supreme brilliance to the public in the form of a mantra, they carry out the tradition of public welfare. For example, Vishwamitra self-realized Gayatri and distributed his divine radiance through Gayatri Mantra for the welfare of the earth.

                The Vedic Mantras are God's creation and the vibrations of God's creation are not bound by Kaal, it is a symbol of the original form. Their intensity remains constant.

           Chhand: Every Vedic mantra has a chhand. Deity: Every Vedic mantra is based on the goal of the deity.

         Beej: There is a seed element present inside every Vedic mantra, which continues to give power to the entire mantra as a basic element. For example, 'Om' is the seed of Pranava and Tej. 'Om' is Shiva and the ruling seed. 'Hreem' is the Maya seed, 'Phat' is the immersion and movement seed, 'Swaha' is the home or peace seed, 'Shri' is the Lakshmi seed.

          Power: The seed present in each mantra provides different types of intensity of power to operate the same form of mantra.

           Keelan: Keelan means to be tied. The meaning of the word Keelan can be done with any other word, the mantra should not be misused, the mantra should not fall in the hands of people of the wrong nature, so for a protective measure, the seers of the mantra have kept each mantra keeled.

          Due to the evil intellect of human beings, many mantras have been tarnished forever by the seers of the mantras. Imagine if a person who is arrogant like Ravana is proved to have a very intense mantra, then it will only create an outcry on the earth rather than the welfare of the people.

            Viniyog : Meaning of viniyog What is the purpose of chanting the mantra by a particular seeker? That is, keeping in mind what resolution he is praising the divine power.

          Nyas: The mantra is pierced by the trust and the mantra is established in all the parts of the body.
              In a way, this is a great worship and through Mahapuja, the distance between the seeker and the mantra power is removed, it is because of trust that the mantra should not be uttered from the mouth, but in the form of a holistic power that is contained in every drop of blood of the seeker. And the totality of the seeker becomes mantra.
               There are many reasons why every person does not get equal success by chanting mantras. For example, complete enjoyment of food will be attained only when you are hungry, the food will be of high quality, all the juices will be present in it. The food must have been prepared with purity. You must have been served respectfully, its smell will be favourable, the food will be fresh and you must have taken it with complete purity and calmness, along with this your digestive system should also be healthy, then you will be able to enjoy the full enjoyment of food somewhere. Will be On the contrary, if you would have taken food according to daily routine and you would be consuming it even in case of stomach upset. At the same time, if the preparation of food is also half incomplete, then the nectar of food will also go into the body and act as poison.
            Vedic mantras take a holistic approach. That is why the land of India has always been revered as a religious field. In every period, these Vedic sages have established religion in the world by making the land of religion of India the origin of mantras, dream seers and sages.


भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंङ्ग ।।

         यूं तो भगवान शिव के लिङ्गों की कोई संख्या नहीं है और लिंङ्ग से भिन्न अन्य कोई वस्तु नहीं है। भगवान शिव ने आकाश, पाताल या पृथ्वी पर जहाँ भी किसी देवता, मनुष्य अथवा दैत्यों को दर्शन दिये हैं वहीं वे लिंङ्ग रूप होकर स्थित हो गये हैं। इस पृथ्वी पर भी असंख्य शिवलिंङ्ग स्थापित हैं किन्तु उनमें से 12 लिंङ्गों को ज्योतिर्लिंङ्ग कहा जाता है। 

         शास्त्रों की मान्यता है कि इन ज्योतिर्लिंङ्गों में भगवान शिव पूर्णाश से विराजमान रहते हैं। भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंङ्गों का वृतान्त इस प्रकार है- पहले सोमनाथ जो सौराष्ट्र में गिरिजा सहित विराजमान है दूसरे 'मल्लिकार्जुन' श्री शैल पर स्थित हैं, तीसरे 'महाकाल' उज्जयिती में शुसोभित है, चौथे अमरनाथ हिमालय पर स्थित हैं, पाँचवे केदारेश्वर केदार में सुशोभित हैं, छठे 'भीमशंकर' डाकिनी तीर्थस्थल पर स्थित हैं, सातवें 'विश्वनाथ' काशी में विराजमान हैं, आठवें त्र्यम्बक गौतमी नदी के तट पर स्थित हैं, नवे वैद्यनाथ चिताभूमि में निवास करते हैं, दसवे नागेश दारुक वन में सुशोभित हैं, ग्यारहवे 'रामेश्वर' सेतु के अर निवास करते हैं तथा बारहवें 'द्युतिमान' शिवगृह में विराजमान हैं। 

            शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति प्रातः काल स्नानादि से निवृत्त होकर इन बारह ज्योतिर्लिंङ्गों का स्मरण करता है उसके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इन ज्योतिर्लिंगों की महिमा अपार है। ज्योतिर्लिङ्गों के दर्शन करने से नपुंसक तथा पापी मनुष्य भी ब्राह्मण का जन्म पाकर मुक्त हो जाते हैं। भगवान शिव के द्वादस ज्योतिर्लिंगों की स्थापना के अलग-अलग प्रयोजन है। दक्ष प्रजापति के शाप के कारण जब चन्द्रमा का प्रकाश क्षीण हो गया तब उन्होंने भगवान शिव की आराधना हेतु 'सोमनाथ' की स्थापना की। शास्त्रों के अनुसार इस शिवलिंङ्ग के स्मरण, ध्यान एवं पूजन सेसभी प्रकार के दुःख तथा शोक नष्ट हो जाते हैं इस ज्योतिर्लिंङ्ग के निकट ही चन्द्रकुण्ड नामक एक कुण्ड है। जिसमें स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। श्री शैल ( श्रीनगर) में 'मल्लिकार्जुन' की स्थापना समय हुयी जब शिव जी अपने पुत्र स्कन्द को लेने के लिये वहाँ पहुँचे थे और वहीं ज्योतिर्लिंङ्ग के रूप में स्थित हो हो गये थे । इस ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शन तथा पूजन से अनेक प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। 'महाकाल' के रूप में भगवान शिव ने अपने भक्तों की रक्षा के लिये दूषण नामक दैत्य को भस्म किया था और उसी स्थान पर ज्योतिर्लिंङ्ग बनकर प्रतिष्ठित हो गये। उनका दर्शन व पूजन भी दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करने वाला है। इसी तरह भगवान शिव ने अलग-अलग प्रयोजनों तथा लोक कल्याण के लिये अलग-अलग 12 स्थानों पर स्वयं को ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित किया। इन ज्योतिर्लिंङ्गों का स्मरण इस प्रकार करना चाहिए -

सौराष्टे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् । उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम ॥ 
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशक रम् । वाराणस्याम् च विश्वेशम् त्र्यंबंकम् गौतमीतटे।।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने । 
हिमालये तु केदारं घुसृणेशं शिवालये ॥

      इन ज्योतिर्लिंङ्गों की महिमा का वर्णन शास्त्रों में कुछ इस प्रकार मिलता है।

         ऐतानि ज्योतिर्लिंङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः । सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ॥ 

      अर्थात जो मनुष्य सुबह शाम उपरोक्त ज्योतिर्लिङ्गों का स्मरण करता है उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
                        शिव शासनत: शिव शासनत:

प्रतिदिन सम्पादित कर्मों को शुद्ध करने के लिए क्षमा प्रार्थना ।।

             मनुष्य रूपी देह में निवास करने वाली आत्मा के पूर्ण चेतनामय होने पर भी उसे प्रतिदिन अनेकों कर्म सम्पन्न करने पड़ते हैं। इन कर्मों में से कुछ कर्म अनचाहे में ही विपरीत फल देते हैं तो फिर कुछ कर्म बुद्धि और तर्क की उपस्थिति के कारण ही इस प्रकार सम्पन्न हो जाते हैं कि उनके लिए क्षमा याचना अत्यधिक आवश्यक हो जाती है। कर्मों की श्रृंखला में विरासत में भी प्राप्त होती है और इसके साथ जीवन में काल और परिस्थिति के अनुकूल शरीर को बनाये रखने के लिए अनेकों कर्म न चाहते हुए भी करने पड़ते हैं। मनुष्य देह के रूप में कर्मों से मुक्ति पाना लगभग असम्भव है विशेषकर गृहस्थ जीवन में तो अनेक अनचाहे कर्मों के बोझ से मनुष्य दबा रहता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह गृहस्थ छोड़कर वन की तरफ भाग जाये। मातृ रूपी आदि शक्ति माँ भवानी के अनंत चेतनामय नेत्र अपने बालक रूपी भक्त को सदैव निहार रहे होते हैं और जिस प्रकार माँ अपने बालक की - सभी गल्तियों को क्षमा कर देती है ठीक इसी प्रकार मातृ शक्तिका उपासक चाहे उसे पूजा आती हो या न आती हो, मंत्रों का उच्चारण वह ठीक से नहीं कर सकता, न ही वह विसर्जन एवं अन्य क्रियाओं से परिचित है पर फिर भी अगर वह हृदय से माँ के समक्ष अपने अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करता है तो भी उसे उतना ही फल प्राप्त होता है जितना कि एक कर्मकाण्डी साधक को ।

       यह एक सच्ची घटना है माँ दुर्गा के मंदिर में पुजारी प्रतिदिन नेवैद्य पूर्ण कर्मकाण्ड के साथ अर्पित करता था और माँ सूक्ष्म स्वरूप में उसे ग्रहण करती थी परंतु एक दिन किसी कारणवश पुजारी स्वयं माँ को नेवैद्य अर्पित करने मंदिर में नहीं जा पाया तब उसने अपने बालक से कहा कि आज तुम यह नैवेद्य ले जाकर माँ के चरणों के समक्ष अर्पित करो। अबोध बालक ने बिना कर्मकाण्डीय क्रिया को सम्पन्न किये नेवैद्य ले जाकर माँ के चरणों में अर्पित किया एवं पूर्ण हृदय से माँ का आह्वान करते हुए प्रसाद ग्रहण करने का अनुग्रह किया कुछ ही क्षणों में थाली में रखा सम्पूर्ण नेवैद्य खाली हो गया। यह बात जब बालक ने जाकर पुजारी सेबताई तो वह हतप्रभ हो गया एवं उसे एहसास हुआ कि बिना पूर्ण हृदय भाव से किया गया कर्मकाण्ड मात्र यंत्रवत प्रक्रिया है परंतु हृदय भाव से किया गया एक आह्वान सभी कर्मकाण्डों से उत्तम होता है।
              देवी का सानिध्य केवल भक्ति भाव के साधकों को ही मिलता है। भक्ति और श्रद्धा दुर्लभ तत्व है इन तत्वों के विकसित होने पर देवी साक्षात प्रकट हो जाती है और भक्त और इष्ट के बीच फर्क समाप्त हो जाता है। बुद्धिमान एवं तर्कवादी मनुष्य अध्यात्म का स्वाद जीवन पर्यन्त नहीं चख पाते। मातृ स्वरूप में जगदम्बा को प्राप्त करने के लिए साधक को बाल्य स्वरूप धारण करना पड़ता है यही आदि शक्ति माँ भवानी को प्राप्त करने का मूल तत्व है। बाल्य सुलभ साधक माता से कुछ भी नहीं छुपाता और माता भी उसकी बड़ी से बड़ी गलतियाँ उसके बाल्य स्वरूप के कारण माफ कर देती हैं।

            मातृ पूजन से ही आँखों में वह पवित्रता उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप प्रत्येक स्त्री में साधक को मातृ दर्शन ही होते हैं। माँ काली के परम भक्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस को काली इतनी सिद्ध थीं कि जब वे मूर्ति का श्रृंगार करते थे तो मूर्ति स्वयं शरीर धारण कर लेती थी और यहाँ तक कि विवाहित होने के पश्चात् भी वे अपनी पत्नी को 14 वर्ष की उम्र से माँ पुकारने लगे थे। परमहंस अवस्था में साधक माँ की प्रत्येक मूर्ति में उनके विशिष्ठ अंश का दर्शन करने में समर्थ होता है तो वहीं अगर एक वर्ष तक अखण्ड रूप में दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाय तो प्रत्येक स्त्री में भी चाहे वह किसी भी योनि की क्यों न हो मातृ स्वरूप के साक्षात दर्शन होने लगते हैं। दुष्ट से दुष्ट प्रवृत्ति की स्त्री साधक के सामने आते ही प्रेम और वात्सल्य की मूर्ति बन जाती है उसके अंदर भी प्रेम और वात्सल्य की धारा निर्मित होने लगती है।
 
           स्त्रियों का अनादर करने वाले, उनको ताड़ना देने वाले, उनका शोषण करने वाले, स्त्री के पैसों पर मौज करने वाले और स्त्री को सिर्फ भोग्या समझने वाले पुरुषों का सर्वनाश निश्चित होता है। नाना प्रकार के गुप्त रोग, त्वचा सम्बन्धित तकलीफें कठिन वृद्धावस्था एवं विधुर जीवन देवी के कोप का ही कारण है। पुरुषों में शिवत्व की कमी (नपुंसकता), श्रीहीनता, जीवन में स्त्री के द्वारा कष्ट, बदनामी, कलंक यह सब कहीं न कहीं उसके चाहे और अनचाहे कर्मों का प्रतिफल है जिसके द्वारा मातृ शक्ति का अनादर एवं अपमान हुआ हो।
क्रमशः

       वे पुरुष या परिवार जिसमें स्त्री भ्रूण की हत्या की जाती है, अकाल मृत्यु एवं शस्त्राघात या फिर यांत्रिक दुर्घटना के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सभी ऋषियों, परमहंसों एवं वेदपुरुषों ने अगर ब्रह्मचर्य का पालन किया है तो सिर्फ उसका एकमात्र उद्देश्य समग्रता के साथ मातृ शक्ति को माँ स्वरूप में अपनाना ही है। मातृ शक्ति का पूजन मात्र मानसिक या कर्मकाण्डी नहीं होता है। आपकी समस्त इन्द्रियाँ मातृ शक्ति के आदर स्वरूप क्रियान्वित होनी चाहिए। साधक का व्यवहार एवं आचरण बाल्य स्वरूप होना चाहिए। बाल्य स्वरूप निष्काम पूजन का द्योतक है। बालक की जिद के सामने माँ पिघलती है और येन, केन, प्रकारेण उसकी इच्छा पूर्ति करती है। मातृ पूजन केवल पुरुषों का ही विषय नहीं है स्त्रियाँ भी मातृ पूजन के द्वारा सम्पूर्ण कलामय होती है। रूप, रंग, ऐश्वर्य, पुत्र, सफल गृहस्थ जीवन, मनचाहा पति, सदा सुहागिन जीवन मातृ पूजन के द्वारा ही सम्भव है। वक्ष स्थलों का विकास चेहरे पर लालिमा लिये हुए कांति, स्त्री कष्टों से निवारण मातृ पूजन के द्वारा ही सम्भव है।

       आज के युग में स्त्रियों का नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित होना, गर्भपात, गर्भाशय का स्थान च्युत होना, वक्षस्थलों का अविकसित होना, उम्र से पहले वृद्धावस्था को प्राप्त करना इत्यादि समस्याओं के मूल में कहीं न कहीं मातृ शक्ति के प्रति अनादर भाव ही है। मातृ शक्ति पूजन ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया है। आप उस परम शक्ति का पूजन कर रहे हैं जिसके द्वारा आकाश गंगा, तारे, नक्षत्र इत्यादि का निर्माण हुआ है। यह अद्वेत चेतनामयी शक्ति जो कि सदैव जन्म देने को तत्पर है तुच्छ मनुष्य को अपना तथाकथित अहम त्यागकर उसके प्रति सदैव श्रद्धावान होना चाहिए ।

            जीवन में ज्ञान, अनुभव, प्रेम एवं समस्त सृजन प्रक्रिया उसी का अंश है। इसी परम शक्ति के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए क्षमा प्रार्थना का पाठ कम से कम रात्रि को निवृत्त होने के पश्चात् अवश्य करें ।

                         क्षमा प्रार्थना
 
            अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । 
            दासोऽयमिति माँ मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ।।
 
            आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । 
            पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ।।
 
            मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
            यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥
 
           अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । 
           यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥
 
           सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।                                             
           इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥

           अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्नयूनमधिकं कृतम्।  
            तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।।
 
           कामेश्वरी जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे । 
           गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥
 
           गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 
           सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ।।

परमेश्वरी ! मेरे द्वारा रात-दिन सहस्त्रों अपराध होते रहते हैं। यह मेरा दास है - यों समझकर मेरे उन अपराधों को तुम कृपापूर्वक क्षमा करो। परमेश्वरी ! मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन करना नहीं जानता तथा पूजा करने का ढंग भी नहीं जानता। क्षमा करो। देवि ! सुरेश्वरी! मैने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो । सैकड़ों अपराध करके भी जो तुम्हारी शरण में जा 'जगदम्ब’ कहकर पुकारता है, उसे वह गति प्राप्त होती है जो ब्रह्मादि देवताओं के लिये भी सुलभ नहीं है। जगदम्बिके! मैं अपराधी हूँ, किन्तु तुम्हारी शरण में आया हूँ। इस समय दया का पात्र हूँ। तुम जैसा चाहो, करो। परमेश्वरी! अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रान्त होने के कारण मैने जो न्यूनता या अधिकता कर दी हो, वह सब क्षमा करो और प्रसन्न होओ। सच्चिदानन्द स्वरूपा परमेश्वरी ! जगन्माता कामेश्वरि ! तुम प्रेमपूर्वक मेरी यह पूजा स्वीकार करो और मुझ पर प्रसन्न रहो। देवि ! सुरेश्वरि ! तुम गोपनीय से गोपनीय वस्तु की रक्षा करने वाली हो। मेरे निवेदन किये हुए इस जप को ग्रहण करो। तुम्हारी कृपा से मुझे सिद्धि प्राप्त हो । 
                            शिव शासनत: शिव शासनत:

Forgiveness prayer to purify the deeds performed daily

              Even though the soul residing in the human body is fully conscious, it has to perform many actions every day. Some of these actions give the opposite result unintentionally, then some actions are completed due to the presence of intelligence and reason in such a way that it becomes very necessary for them to apologize. It is also inherited in a series of karmas and with this, many actions have to be done even without wanting to maintain the body according to the time and situation in life. In the form of a human body, it is almost impossible to get rid of karma, especially in the life of a householder, because of the burden of many unwanted karmas, a man remains suppressed. This does not mean that he should leave the householder and run towards the forest. The eternal conscious eyes of Mother Bhavani in the form of mother are always admiring the devotee in the form of her child and just as the mother forgives all the mistakes of her child, in the same way the worshiper of mother power whether she comes to worship or not. He cannot pronounce the mantras properly, nor is he familiar with immersion and other activities, but even if he prays for his sins from the heart before his mother, he still gets the same result as To a ritualistic seeker. 
         This is a true incident. In the temple of Maa Durga, the priest used to offer nevaidya daily with complete rituals and the mother used to receive it in a subtle form, but one day due to some reason the priest himself did not go to the temple to offer nevaidya to the mother. Then he told his child that today you take this naivedya and offer it before the feet of the mother. The innocent child, without completing the ritualistic rituals, took the nevaidya and offered it at the feet of the mother, and with all his heart, while invoking the mother, offered grace to accept the prasad, within a few moments the entire nevaidya kept in the plate became empty. When the child went and told this to the priest, he was bewildered and realized that a ritual performed without full heart is a mere mechanical process, but a call made with a heart is better than all rituals.
                The company of the Goddess is available only to the seekers of devotion. Devotion and reverence are rare elements, on the development of these elements, the Goddess manifests itself and the difference between the devotee and the Ishta ends. Intelligent and rational human beings cannot taste the taste of spirituality for life. To attain Jagadamba in mother's form, the seeker has to assume the child's form, this is the basic element of attaining Adi Shakti Maa Bhavani. Child accessible seeker does not hide anything from mother and mother also forgives his biggest mistakes because of his childish nature. Only by worshiping the mother, that purity arises in the eyes, as a result of which the seeker gets the mother vision in every woman. Kali was so perfect to Swami Ramakrishna Paramhansa, a devotee of Maa Kali, that when he used to adorn the idol, the idol himself assumed the body and even after getting married, he started calling his wife mother from the age of 14. Were. In the state of Paramahansa, the seeker is able to see the specific part of the mother in each idol, whereas if Durga Saptashati is recited in the monolithic form for one year, then every woman, irrespective of her vagina, is in the mother's form. Real visions begin to appear. As soon as a woman of wicked to wicked attitude comes in front of the seeker, she becomes an idol of love and affection. The destruction of men who enjoy money and consider women to be only indulgent is certain. Various types of secret diseases, skin related problems, difficult old age and widowed life are the reason for the wrath of the goddess. Lack of Shivatva in men (impotence), impotence, suffering by women in life, slander, stigma, all this is the result of her desired and unwanted actions, by which the mother power has been disrespected and humiliated.

Those men or families in which female fetus is killed, get death due to premature death and stroke or mechanical accident. If all the sages, paramahansa and Veda Purush have followed celibacy, then only its only aim is to adopt the mother power in the form of mother in totality. Worship of Mother Shakti is not just mental or ritualistic. All your senses should be functional in the form of respect for the mother power. The behavior and conduct of the seeker should be childlike. The child form is a sign of selfless worship. The mother melts in front of the child's insistence and yen, ken, kindly fulfills his wish. Mother worship is not only a matter of men, women are also fully artistic through mother worship. Form, colour, opulence, son, successful household life, desired husband, always married life are possible only through mother worship. The development of the chest places is possible only by worshiping the mother with a red glow on the face, relief from female sufferings.
        In today's era, women are suffering from various types of diseases, abortion, loss of uterus, underdevelopment of breasts, attaining old age before age, etc. At the root of the problems is disrespect towards mother power. . Worshiping Mother Shakti is a cosmic process. You are worshiping the supreme power by which the sky Ganga, stars, constellations etc. have been created. This non-dual consciousness, which is always ready to give birth, the insignificant man should always be devoted to him by sacrificing his so-called ego.
             Knowledge, experience, love and all the creation process in life are part of Him. Keeping reverence for this supreme power, one must recite the forgiveness prayer at least after retiring at night.
                        
                      क्षमा प्रार्थना
 
            अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । 
            दासोऽयमिति माँ मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ।।
 
            आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । 
            पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ।।
 
            मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
            यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥
 
           अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् । 
           यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥
 
           सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके । इ इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥

           अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्नयूनमधिकं कृतम्।  
            तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।।
 
           कामेश्वरी जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे । 
           गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥
 
           गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । 
           सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ।।

God! Thousands of crimes are being committed by me day and night. This is my slave - understand that you kindly forgive those offences. God! I do not know the invocation, I do not know how to immersion and I do not know the method of worship. Excuse me Goddess! Sureshwari! The mantraless, actionless and devotional worship that I have performed, may all that be completed by your grace. Even after committing hundreds of crimes, the one who takes refuge in you and calls as 'Jagdamb', he attains that speed which is not accessible even to the gods of Brahma. Jagdambike! I am a criminal, but I have come under your shelter. I deserve mercy at this time. Do as you wish. God! Forgive all the deficiencies or excesses that I have done because of ignorance, by mistake or due to delusion of the intellect, and be happy. Satchidananda Swarupa Parameshwari! Jaganmata Kameshwari! You accept this worship of mine with love and be pleased with me. Goddess! Sureshwari! You are the one who protects the secret from the secret. Please accept this chant as requested by me. May I be blessed by your grace.

लिंग रहस्यम ।।

         शिव से उत्पन्न होकर शिव में विलीन हो जाना ही समस्त ब्रह्माण्डों, ग्रहों, नक्षत्रों, दैव शक्तियों, विभिन्न तत्वों, मनुष्यों एवं वनस्पतियों की नियति है। यही शिव चक्र है। वास्तव में शिव चक्र के अलावा कुछ भी नहीं है। समस्त क्रियायें, लीलायें, अवतरण, ज्ञान-विज्ञान सब कुछ शिव चक्र के ही अंश हैं। तुझमें भी शिव, मुझमें भी शिव और हम सबमें भी शिव । सर्वस्त्र विद्यमान है वह। एक क्षण भी उसके बिना बिताना सम्भव नहीं है। शिव के बिना न तो अद्वैत है और न ही द्वैत । द्वैत और अद्वैत के परे भी अगर कुछ है। तो उसमें भी शिव है। कृष्ण अगर गीता में कह रहे हैं कि ब्रह्माण्ड मुझमें समाया और मैं ब्रह्माण्ड में समाया तो उनका तात्पर्य शिवत्व की ओर ही है न कि स्वयं के शरीर की ओर। उनसे बड़ा शिव भक्त कौन है सभी पूजन पद्धतियों का चरम बिंदु शिव ही है ले देकर पूजन की सूक्ष्म आवृत्तियाँ शिव के चरणों में जाकर ही रुकती हैं।

                 भारतवर्ष तो क्या इस पृथ्वी के समस्त धर्मों का निचोड़ शिव आराधना ही है। यह समझने के लिये सभी लाग लपेटों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अंतर्दृष्टि से सब कुछ देखना होगा। सत्य आपके सामने आ जायेगा। शिव ही परम तत्व है। वहीं गुरुओं का सृजनकर्ता है, गुरु तक आपको पहुँचाता है और पुन: गुरु के माध्यम से शिवत्व के दर्शन कराता है। पृथ्वीलोक तो देव लोक, ब्रह्मलोक, नागलोक, पाताल लोक स्वर्ग, नर्क, पितृ लोक इत्यादि सभी लोकों में शिव पूजन और शिव अराधना ही सर्वोपरि रूप से की जाती है। हो सकता है विधियां अलग हो, सोचने का ढंग अलग हो परन्तु पूजन तो शिव का हो होता है। नाम तो मस्तिष्क की क्रिया है। इसका वास्तविकतासे कोई लेना देना नहीं है। शिव सदृश्य भी है और अदृश्य भी। जिस रूप में चाहो उस रूप में शिवत्व के दर्शन हो जायेगे । मनुष्य के रूप में व्यक्ति की निरंतर खोज शिवत्व को प्राप्त करने में ही लगी रहती है। जब वह अपने अंदर बैठे शिव को पहचान लेता है, उसके करीब होता है तो दूरी जैसे भ्रम समाप्त हो जाते हैं तब इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में वह शिव को देखने में सक्षम हो जाता है। यही पवित्र शिव दृष्टि है। 

           ऐसे मानव ही ऋषि कहलाते हैं, सद्गुरु कहलाते हैं, युग पुरुष और ब्रह्मण्ड नायक भी कहलाते हैं। इन्हीं के अंदर बैठा शिवत्व उनके मुख से ज्ञान की वर्षा करता है, उनके स्पर्श को पवित्र एवं परिवर्तनकारी बनाता है, उनके दर्शन आनंददायी होते हैं। बाद में मनुष्य इन्हीं महापुरुषों को पूजता है और जाने-अनजाने में शिव के नजदीक आ जाता है परन्तु वास्तव में शिव ही सब कुछ है वही मूल है ऋषियों का महापुरुषों द्वारा मैं अर्थात शिव का ही उच्चारण है। सद्गुरु तो हमेशा ककर से शंकर बनने या बनाने की प्रक्रिया में लीन रहते हैं जिस प्रकार प्राण निकल जाने पर मात्र कंकाल बचता है उसी प्रकार शिवत्व की अनुपस्थिति में मनुष्य कंकर है। जैसे-जैसे शिव सानिध्य मिलता जायेगा कंकर से शंकर बनने में देर नहीं लगेगी और शंकर से शंकराचार्य भी बन जाओगे। बस यहीं पर परीक्षा शुरू होगी कि तुम सुर हो या असुर असुर राज रावण भी शिव के परम भक्त थे और दूसरी तरफ भगवान श्री राम की शिव उपासना भी अनुपम है। उन्होंने ही रामेश्वर में ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना की है। रावण असुर है इसीलिये शिव से स्वयं के लिये वरदान मांगता है। कपट और धूर्तता उसके आभूषण हैं, शिव से भी युद्ध करने को तत्पर रहता है। स्वयं हिमालय को उठा लेने कीचेष्टा भी करता है। स्वयं को तीनों लोकों का स्वामी समझने लगता है। एक बीमार और कमजोर मानसिकता ही असुर प्रवृत्ति है। जिसकी शक्ति के कारण वह दम्भ में आ गया है उसी से शक्ति प्रदर्शन करने लगता है। दूसरी ओर श्री राम हैं जो कि साक्षात् रुद्रांश श्री हनुमंत को अपने साथ लिये हुये समस्त कष्टों को झेलते हुये मर्यादा की रक्षा के लिये धर्म युद्ध कर रहें हैं। उनके साथ सती सीता भी हैं जो कि शिव धनुष को आसानी से सहज ही एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रख देती हैं । 
                            शिव शासनत: शिव शासनत

              उस धनुष को जिसे राक्षम राज रावण हिला भी नहीं पाया और अंत में शिवांश धारण किये हुये अपने गुरु के आशीर्वाद से के श्री राम उसी शिव धनुष को तोड़ सीता से विवाह सम्पन्न करते हैं। राम और सीता के बीच धनुष रूपी शिव हैं तो वहीं सीता हरण के बाद श्री राम और सीता के वियोग को दूर करने वाले भी रुद्रेश्वर श्री हनुमान हो हैं। समस्त रामायण, महाभारत, वेद ग्रंथों और विश्व के अन्य धर्मग्रंथ सभी कुछ शिव के आसपास ही घूम रहे हैं। भगवान् वेद व्यास ने जितन भी ग्रंथों और पुराणों की रचना की है उन सब की रचना से पहले उन्होंने भगवान् शिव की परमशक्ति के कुछ अशों को अपनी जिह्वा पर स्थापित किया है। भगवान शिव ने ग्रंथों, पुराणों का निर्माण इसलिये करवाया कि जन साधारण कम-में-कम शब्दों, वचनों, अनुभवों, बुद्धि, जान और सामान्य चेतना के माध्यम से शिव को समझसकें । शिव को समझना ही सच कुछ समझ लेना है, स्वयं को भी समझ लेना है। वास्तव में स्वयं तो कुछ होता ही नहीं है। मनुष्य को मस्तिष्क भी शिव ने प्रदान किया है इसीलिये मस्तिष्क के माध्यम से भी शिव को समझ होगा। मस्तिष्क के माध्यम से न तो शिव की व्याख्या संभव है, न ही शिव की समग्रता और विराटता के दर्शन बस शिव कृपा ही उनके कुछ विलक्षण अंशों के दर्शन करा सकती है। शिव कृपा ही एक मनुष्य के सामने इस ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य परत दर परत खोलते हुये व्यक्ति सामान्य से महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करती है। ऋषि क्या है ? गुरु क्या है ? ये भी हमारी तरह दो हाथ दो पैर वाले हैं परन्तु इनकी शिव भक्ति, इन पर शिव की असीम कृपा इस जगत के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों को समझाती है, इन्हें दुनिया भर के भौतिक जंजालों के मुक्त कर इनके मस्तिष्क को पवित्र और पावन बनाती है, इनके समस्त भारों, पापों, शोकों और तापों को स्वयं शिव हर के इन्हें दिव्य कार्यों में अग्रसर करते हैं । 

          मनुष्य के रूप में, मनुष्य के बीच सम्प्रेषण अत्यंत ही आसान है। ऋषियों, गुरुओं, युगपुरुषों और अवतारों के प्राकट्य का यही रहस्य है। चेहरे बदलते रहते हैं, व्यक्ति आते जाते रहते हैं परन्तु शिव लीलायें और क्रियायें अनंत काल तक चलती ही रहती हैं। शिव का एक रूप महाकाल का भी है। वे कालों के काल हैं। जीव के रूप, प्रकृति, ढांचे, स्थान, क्रिया इत्यादि में काल के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। जीव का अध्यात्म, ज्ञान, चेतना, समझ, आराधना, पद्धति इत्यादि सभी कुछ काल के अधीन है। कालानुसार भी जीव शिव की महिमा और लीला को समझता रहता है। इस अखिल ब्रह्माण्ड में मात्र जीव ही सब कुछ नहीं है। जीव के अलावा अनेकों आकृतियाँ हैं, चैतन्य पिण्ड हैं, दिव्य आभामण्डल है, सूक्ष्म एवं पवित्र लोक हैं, अनेकों विभिन्न आयामी योनियां इत्यादि हैं। इन सब पर भी शिव ही विद्यमान हैं। अभी तो हम वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थात बुद्धि, तर्क और ज्ञान की सीमाओं से इन लोकों को समझ ही नहीं सके तो फिर शिव की विराटता का वर्णन नितांत मूर्खतापूर्ण है। मनुष्य रूप में शिव तक पहुंचने के असंख्यों मार्ग हैं सभी के सब शिव के द्वारा ही निर्मित हैं। जिसकी जैसी प्रवृत्ति, जैसी सोच वैसी ही उसकी यात्रा शिव यात्रा ही अंतिम यात्रा है। चाहो, न चाहो, हँस के चलो, रो के चलो, चलना तो इसी मार्ग पर पड़ेगा। शिव मार्ग ही जीवन की उत्पत्ति का कारण है।
                          शिव शासनत: शिव शासनत

Ling Rahasyam (1)

            Being born from Shiva and merging into Shiva is the destiny of all the universes, planets, constellations, divine powers, various elements, humans and plants. This is the Shiva Chakra. In reality there is nothing but Shiva Chakra. All actions, pastimes, incarnations, knowledge and science are all part of Shiva Chakra. Shiva in you too, Shiva in me and Shiva in all of us too. He is present everywhere. It is not possible to spend even a single moment without him. Without Shiva there is neither Advaita nor duality. If there is anything beyond duality and non-duality. So there is Shiva in that too. If Krishna is saying in the Gita that the universe merged into me and I merged into the universe, then he is referring to Shivatva and not to his own body. Who is a greater Shiva devotee than him, Shiva is the zenith of all worship practices, taking that subtle frequencies of worship stop only by going to the feet of Shiva.

                  In India, is worship of Shiva the essence of all the religions of this earth? To understand this, one has to rise above all attachments and prejudices and look at everything with insight. Truth will come before you. Shiva is the ultimate element. He is the creator of the Gurus, takes you to the Guru and again gives the vision of Shiva through the Guru. In all the worlds like Prithvilok, Dev Lok, Brahmaloka, Nagalok, Hades, Heaven, Hell, Pitru Lok etc., worship of Shiva and worship of Shiva is done above all. The methods may be different, the way of thinking may be different, but worship is done for Shiva. Naam is an action of the mind. It has nothing to do with reality. Shiva is visible as well as invisible. Shivatva can be seen in whatever form you want. As a human being, the constant search of the individual is engaged in attaining Shivatva. When he recognizes Shiva sitting inside him, is close to him, then illusions like distance disappear, then he becomes able to see Shiva in every particle of this universe. This is the holy sight of Shiva.

            Only such human beings are called sages, they are called Sadgurus, they are also called Yug Purush and Brahmand Nayak. Shivatva sitting inside them showers knowledge from their mouths, makes their touch pure and transformative, their darshans are blissful. Later man worships these great men and comes close to Shiva knowingly or unknowingly, but in reality Shiva is everything, that is the origin of the rishis by the great men, i.e. Shiva is pronounced by me. Sadhguru is always absorbed in the process of becoming or making Shankar out of Kakar, just as only a skeleton remains after the loss of life, similarly in the absence of Shivatva man is a kankar. As you get closer to Shiva, it will not take long to become Shankar from Kankar and you will also become Shankaracharya from Shankar. It is only here that the test will begin whether you are Sur or Asura, the demon king Ravana was also a great devotee of Shiva and on the other hand the worship of Lord Shri Ram is also unique. He has established Jyotirlinga in Rameshwar. Ravana is an asura that is why he asks Shiva for a boon for himself. Deception and cunning are his ornaments, he is ready to fight even with Shiva. He himself tries to lift the Himalayas. He considers himself to be the lord of the three worlds. A sick and weak mentality is the demonic tendency. Because of whose power he has become arrogant, he starts displaying his power. On the other hand, there is Shri Ram, who is fighting a religious war to protect the dignity of Lord Hanuman, bearing all the troubles he has taken with him. She is accompanied by Sati Sita, who easily lifts the bow of Shiva from one place and keeps it in another place.

               The bow which Raksham Raj Ravana could not even move and finally with the blessings of his Guru holding Shivaansh, Shri Ram breaks the same Shiva bow and solemnizes the marriage with Sita. There is Shiva in the form of a bow between Rama and Sita, while after Sita's abduction, the one who removes the separation of Shri Ram and Sita is also Rudreshwar Shri Hanuman. All Ramayana, Mahabharata, Vedas and other scriptures of the world are all revolving around Shiva. Before the creation of all the texts and Puranas that Lord Divyas has composed, he has established some parts of Lord Shiva's supreme power on his tongue. Lord Shiva got the granthas, Puranas made so that the common man could understand Shiva through at least words, words, experiences, intellect, knowledge and common consciousness. To understand Shiva is to understand the truth, you have to understand yourself too. In fact nothing happens by itself. The brain has also been given to man by Shiva, that is why Shiva will also understand through the brain. It is not possible to explain Toshiva through the mind, nor can the vision of Shiva's totality and vastness, only Shiva's grace can make us see some unique parts of him. It is the grace of Shiva that opens the subtle secrets of this universe layer by layer in front of a human being and establishes a person from an ordinary to a great man. What is Rishi? What is Guru? They are also two hands and two legs like us, but their devotion to Shiva, Shiva's infinite grace on them explains the subtle to the subtle mysteries of this world, frees them from the material chains of the world and makes their mind pure and pure. All their burdens, sins, sorrows and heats are carried by Shiva himself in the divine works of each.

           As human beings, communication between humans is very easy. This is the secret of the appearance of Rishis, Gurus, Yugpurushas and Avatars. Faces keep changing, people keep coming and going, but Shiva's pastimes and actions continue till eternity. Mahakal is also a form of Shiva. They are the ages of blacks. There are changes in the form, nature, structure, place, action etc. Spirituality, knowledge, consciousness, understanding, worship, method etc. of the soul are all subject to time. Even according to time, the soul keeps on understanding the glory and pastimes of Shiva. Jiva alone is not everything in this entire universe. Apart from the living beings, there are many forms, there are conscious bodies, there is a divine aura, there are subtle and holy worlds, there are many different dimensional vaginas etc. Shiva is present on all these too. Right now we have not been able to understand these worlds from the scientific point of view, that is, from the limits of intelligence, logic and knowledge, then the description of the vastness of Shiva is utterly foolish. There are innumerable ways to reach Shiva in human form, all of them are created by Shiva. The journey of the one who has the same tendency, the same way of thinking, the journey of Shiva is the last journey. Whether you want it, don't want it, walk with a laugh, walk with a cry, you will have to walk on this path. Shiva's path is the reason for the origin of life.
 respectively

शिवोपासना और ज्योतिष ।।

        वैसे तो ज्योतिष का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है जिसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति का वर्तमान भूत व भविष्य तक देखा जा सकता है और ग्रहों की गणना, उनकी अन्तर्दशा महादशा देखकर यह भी बताया जा सकता है। कि व्यक्ति के जीवन के किस पड़ाव पर उन्नति का योग है तथा कब वह मृत्युतुल्य कष्ट भोगेगा किन्तु शिव के बिना ब्रह्माण्ड की कोई भी विद्या या ज्ञान पूर्ण नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि शिवमय है। शिव ही सबकी उत्पत्ति स्थिति और विनाश के कारण हैं अतः शिव उपासना के बिना जीवन निरर्थक है।

               कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में भोगता है किन्तु यथार्थ यह है कि अपने दुष्कर्मों का फल उसे इसी जन्म में रोग, शोक, निर्धनता, लाचारी व परेशानियों के रूप में भोगना पड़ता है। जाने अनजाने मनुष्य कई गुप्त पाप करता है जिन्हें वह प्रकट नहीं करता किन्तु शिव तो कण-कण में व्याप्त हैं उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता अतः निश्चित है कि हमारे ज्ञात और अज्ञात हर कर्मों का हिसाब किताब उनके पास रहता है। इसलिए जीवन को सार्थक, सुखी व समृद्धिशाली बनाने के लिए शिवोपासना अपरिहार्य है
              ज्योतिष शास्त्र में स्वप्न, शकुन, प्रश्न, दशा, महादशा आदि के माध्यम से समय का परिज्ञान किया जाता है। की कुण्डली के अनुसार मिलने वाले सुख-दुखों की फलप्राप्ति काल निर्णय का बहुत महत्व है जिन्हें गृहों की दशा अन्तर्दशाओं तथा गोचर आदि के माध्यम से जाना जाता है। यहाँ हम ज्योतिष शास्त्र की बारीकियों में न जाकर शिव भक्तों के लिए कुछ ऐसी दुर्लभ जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके द्वारा विभिन्न ग्रहों की महादशा व अर्न्तदशा के कारण आने वाली परेशानियों से छुटकारा मिलता है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि शिव उपासना ही समस्त विपत्तियों का नाश करने वाली है अतः साधकों को चाहिए कि वे विभिन्न ग्रहों की शांति के लिए। बताए नीचे अनुसार भगवान सदाशिव के दुर्लभ मंत्रों का. जाप व अनुष्ठान करें क्योंकि भगवान भोलेनाथ की कृपा प्राप्त कर लेने पर सभी ग्रहजन्य बाधाएं दूर हो जाती हैं, साधक की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती तथा सभी दिव्य सुखभोग प्राप्त कर लेते हैं और भगवान के श्री चरणों में अखण्ड प्रीति भी प्राप्त हो जाती है।
     
               ज्योतिष शास्त्र में नौ ग्रह बताए गये हैं जो विभिन्न राशियों पर विचरण करते रहते हैं इसी तरह प्रत्येक राशि का एक स्वामी होता है तथा किसी एक ग्रह की महादशा के साथ यदि अन्य ग्रहों की अन्तर्दशा ठीक नहीं रहती तो साधक को तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सूर्य की महादशा में सूर्य की अनिष्टकारक अन्तर्दशा हो तो उस दोष की निवृत्ति के लिये मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। इससे समस्त दोषों की निवृत्ति हो जाती है और भगवान शिव एवं ग्रहराज सूर्यदेव का अनुग्रह प्राप्त होता है।

         तदोषपरिहारार्थं मृत्युंजयजपं चरेत् । सूर्यप्रीतिकरीं शान्तिं कुर्यादारोग्यमादिशेत् ॥

         इसी प्रकार सूर्य की महादशा में शनि एवं केतु की अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान करने से अपमृत्यु का निवारण होता है- मृत्युंजयजपं चरेत् । चन्द्रमा की महादशा में गुरु की अन्तर्दशा होने पर यदि अनिष्टकारक योग हो तो अपमृत्यु होती है, इसलिए इस दोष की निवृत्ति के लिए शिवसहस्त्रनाम का जप करना चाहिए। तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत्। शनि की अन्तर्दशा होने पर शरीर में कष्ट होता है, अतः मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। चन्द्रमा में केतु की अन्तर्दशा में भय होता है तथा शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिए मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। मृत्युंजयं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम् । इसी प्रकार चन्द्र में शुक्र की अन्तर्दशा में तथा सूर्य की अन्तर्दशा में क्रमशः रुद्र जाप तथा शिवपूजन करना चाहिए। तद्दोषविनिवृत्त्यर्थं रुद्रजापं च कारयेत्, तद्दोषपरिहारार्थं शिवपूजां च कारयेत् । मंगल की महादशा में मंगल की अन्तर्दशा में रुद्र- जप तथा वृषभदान करना चाहिए। राहु की अन्तर्दशा होने पर नाग का दान, ब्राह्मण भोजन तथा मृत्युंजय मंत्र के जप कराने से आयु एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है-
नागदानं प्रकुर्वीत देवब्राह्मणभोजनम् । मृत्युंजयजपं कुर्यादायुरारोग्यमादिशेत् ॥

     मंगल में बृहस्पति की खराब अन्तर्दशा होने पर शिवसहस्त्रनामावली का जप करना चाहिए तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् । इसी प्रकार शनि की दोषयुक्त अन्तर्दशा में मृत्युंजय मंत्र के जप का विधान है। राहु की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा दोषकारक होने पर अपमृत्यु की सम्भावना रहती है, इसलिए स्वर्णप्रतिमा का दान तथा शिवपूजन करना चाहिए - स्वर्णस्य प्रतिमादानं शिवपूजां च कारयेत् ।

          बृहस्पति की महादशा में अनिष्टकारक बृहस्पति के योग होने पर शिवसहस्त्रनाम का जप, रुद्र जप तथा गोदान करने से सुख शांति की प्राप्ति होती है तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् । रुद्रजाप्यं च गोदानं कुर्यादिष्टं समाप्नुयात् ॥ इसी प्रकार राहु की अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र के जप का विधान है।
             
          शनि की महादशा में शनि तथा राहु की खराब अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। इसी प्रकार बृहस्पति की अनिष्टकारक अन्तर्दशा होने पर शिवसहस्त्रनाम का जप तथा स्वर्ण दान करना चाहिए इससे आरोग्य प्राप्त होता है और सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। 

       तदोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।  
           स्वर्णदानं प्रकुर्वीत ह्यारोग्यं भवति ध्रुवम् ॥

बुध की महादशा में मंगल, बृहस्पति एवं शनि की अन्तर्दशा यदि ठीक न हो तो वृषभ दान और मृत्युंजय मंत्र तथा शिवसहस्त्रनाम के जप करने से अपमृत्यु का निवारण होता है तथा सर्वसौख्य प्राप्त होता है।

     अनड्वाहं प्रकुर्वीत मृत्युंजयजपं चरेत्।
      तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।

केतु की महादशा सात वर्ष तक रहती है। इस सात वर्ष में निश्चित क्रम से सभी ग्रह अपना समय अन्तर्भुक्त करते हैं। केतु में केतु तथा बृहस्पति ग्रह की दोषकर अन्तर्दशा रहने पर स्वास्थ्य हानि तथा आत्मबन्धु से वियोग और अपमृत्यु होती है, ऐसी स्थिति में मृत्युंजय जप तथा शिव सहस्त्रनाम का पाठ करने से सभी दुर्योग दूर हो जाते हैं।

           तदोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।
           महामृत्युंजयं जाप्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ॥

शुक्र ग्रह की महादशा में दोषयुक्त राहु, बृहस्पति तथा केतु की अन्तर्दशा में मृत्युंजय मंत्र के जप करने से अपमृत्यु दूर होती है और सौख्य प्राप्त होता है तथा भगवान् शंकर की प्रसन्नता प्राप्त होती है
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

Shivopasana and Astrology
         
         By the way, the field of astrology is very wide, through which the present past and future of any person can be seen and it can also be told by looking at the calculation of planets, their Antardasha Mahadasha. That at which stage of a person's life is the sum of progress and when he will suffer death-like suffering, but without Shiva no knowledge or knowledge of the universe is complete. Because the whole creation is Shiva. Shiva is the cause of all creation and destruction, so life is meaningless without worshiping Shiva.

                Some people believe that a person suffers the fruits of the actions of this birth in the next life, but the reality is that he has to suffer the consequences of his misdeeds in this birth in the form of disease, grief, poverty, helplessness and troubles. Knowingly and unknowingly man commits many secret sins which he does not reveal, but Shiva is pervasive in every particle, not even a leaf moves without his will, so it is certain that the account of all our actions, known and unknown, remains with him. Therefore, to make life meaningful, happy and prosperous, worshiping Shiv is indispensable.

          In astrology, the understanding of time is done through dreams, omens, questions, dasha, mahadasha etc. According to the horoscope, there is a lot of importance of the decision of the time to get the results of happiness and sorrows, which are known through the condition of the houses, antardashas and transits etc. Here we are presenting some such rare information for Shiva devotees without going into the nuances of astrology, by which one gets rid of the troubles caused by the Mahadasha and Antardasha of various planets. As it has been said earlier that worship of Shiva is the destroyer of all calamities, so seekers should pray for the peace of various planets. As mentioned below, of the rare mantras of Lord Sadashiv. Do chants and rituals because by getting the blessings of Lord Bholenath, all the planetary obstacles are removed, the seeker never dies prematurely and gets all the divine pleasures and unbroken love is also attained at the feet of the Lord.
     
          Nine planets have been
mentioned in astrology, which keep on moving in different zodiac signs, similarly each zodiac has a lord and with the Mahadasha of any one planet, if the antardasha of other planets is not good, then sadhak will face various kinds of problems. have to face. In the Mahadasha of the Sun, if there is a malefic Antardasha of the Sun, then the Mrityunjay Mantra should be chanted to get rid of that defect. With this, all the faults are removed and the grace of Lord Shiva and the planet Sun God is obtained.
      
         Similarly, in the Mahadasha of the Sun, when Shani and Ketu are in the antardasha, by performing the ritual of Mrityunjaya Mantra, the apologetics are prevented - Mrityunjayjapam Charet. If there is a malefic yoga in the mahadasha of the moon, if there is a malefic yoga, then Apamritya occurs, so to get rid of this defect, one should chant Shiva Sahasranama. Due to the antardasha of Shani, there is pain in the body, hence Mrityunjaya mantra should be chanted. There is fear in the antardasha of Ketu in the moon and diseases arise in the body, therefore Mrityunjaya mantra should be chanted. Similarly, in the antardasha of Venus in the moon and in the antardasha of the sun, Rudra Jaap and Shiva worship should be done respectively. Taddoshavinivrityatham Rudrajapancha kareet, Taddoshapariharartham Shiva worship cha karayet. In the Mahadasha of Mars, Rudra-japa and Vrishabhadaan should be done in the Antardasha of Mars. Donation of snake, Brahmin food and chanting of Mrityunjaya Mantra gives life and health when Rahu is in antardasha-

         If there is a bad Antardasha of Jupiter in Mars, one should chant the "Shiv Sahasranamavali" and chant Shivasahastrakam. Similarly, there is a law for chanting of Mrityunjaya mantra in the defective antardasha of Shani. In the Mahadasha of Rahu, if the antardasha of Jupiter is defective, there is a possibility of death, so donating the golden statue and worshiping Shiva should be done.

           In the Mahadasha of Jupiter, when there is a conjunction of malefic Jupiter, by chanting Shiva Sahasranama, chanting Rudra and donating God, one can attain happiness and peace. Similarly, there is a law to chant the Mrityunjaya mantra when Rahu is in the antardasha.
             
           In the Mahadasha of Shani, in case of bad Antardasha of Saturn and Rahu, one should chant Mrityunjay Mantra. Similarly, in case of malefic antardasha of Jupiter, chanting of Shiva Sahasranama and donating gold should bring health and remove all obstacles.
      
 In the Mahadasha of Mercury, if the antardasha of Mars, Jupiter and Saturn is not good, then by doing Vrishabha donation and by chanting Mrityunjaya Mantra and Shiva Sahasranama, one can get rid of the apocalyptic death and attain universal happiness.
    
        The Mahadasha of Ketu lasts for seven years. In this seven years, all the planets spend their time in a definite order. If Ketu and Jupiter remain in the dosha and antardasha of the planet Ketu, there is loss of health and separation from self-bonding and apamriti, in such a situation, by chanting Mrityunjaya and reciting Shiva Sahasranama, all the ill-yogis are removed.
           
      Chanting of Mrutyunjay Mantra in the mahadasha of Venus, Rahu, Jupiter and Ketu in the antardasha of the planet Venus, removes the death of death and attains goodness and happiness of Lord Shankar.