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लिंग रहस्यम ।।

         शिव से उत्पन्न होकर शिव में विलीन हो जाना ही समस्त ब्रह्माण्डों, ग्रहों, नक्षत्रों, दैव शक्तियों, विभिन्न तत्वों, मनुष्यों एवं वनस्पतियों की नियति है। यही शिव चक्र है। वास्तव में शिव चक्र के अलावा कुछ भी नहीं है। समस्त क्रियायें, लीलायें, अवतरण, ज्ञान-विज्ञान सब कुछ शिव चक्र के ही अंश हैं। तुझमें भी शिव, मुझमें भी शिव और हम सबमें भी शिव । सर्वस्त्र विद्यमान है वह। एक क्षण भी उसके बिना बिताना सम्भव नहीं है। शिव के बिना न तो अद्वैत है और न ही द्वैत । द्वैत और अद्वैत के परे भी अगर कुछ है। तो उसमें भी शिव है। कृष्ण अगर गीता में कह रहे हैं कि ब्रह्माण्ड मुझमें समाया और मैं ब्रह्माण्ड में समाया तो उनका तात्पर्य शिवत्व की ओर ही है न कि स्वयं के शरीर की ओर। उनसे बड़ा शिव भक्त कौन है सभी पूजन पद्धतियों का चरम बिंदु शिव ही है ले देकर पूजन की सूक्ष्म आवृत्तियाँ शिव के चरणों में जाकर ही रुकती हैं।

                 भारतवर्ष तो क्या इस पृथ्वी के समस्त धर्मों का निचोड़ शिव आराधना ही है। यह समझने के लिये सभी लाग लपेटों और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अंतर्दृष्टि से सब कुछ देखना होगा। सत्य आपके सामने आ जायेगा। शिव ही परम तत्व है। वहीं गुरुओं का सृजनकर्ता है, गुरु तक आपको पहुँचाता है और पुन: गुरु के माध्यम से शिवत्व के दर्शन कराता है। पृथ्वीलोक तो देव लोक, ब्रह्मलोक, नागलोक, पाताल लोक स्वर्ग, नर्क, पितृ लोक इत्यादि सभी लोकों में शिव पूजन और शिव अराधना ही सर्वोपरि रूप से की जाती है। हो सकता है विधियां अलग हो, सोचने का ढंग अलग हो परन्तु पूजन तो शिव का हो होता है। नाम तो मस्तिष्क की क्रिया है। इसका वास्तविकतासे कोई लेना देना नहीं है। शिव सदृश्य भी है और अदृश्य भी। जिस रूप में चाहो उस रूप में शिवत्व के दर्शन हो जायेगे । मनुष्य के रूप में व्यक्ति की निरंतर खोज शिवत्व को प्राप्त करने में ही लगी रहती है। जब वह अपने अंदर बैठे शिव को पहचान लेता है, उसके करीब होता है तो दूरी जैसे भ्रम समाप्त हो जाते हैं तब इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में वह शिव को देखने में सक्षम हो जाता है। यही पवित्र शिव दृष्टि है। 

           ऐसे मानव ही ऋषि कहलाते हैं, सद्गुरु कहलाते हैं, युग पुरुष और ब्रह्मण्ड नायक भी कहलाते हैं। इन्हीं के अंदर बैठा शिवत्व उनके मुख से ज्ञान की वर्षा करता है, उनके स्पर्श को पवित्र एवं परिवर्तनकारी बनाता है, उनके दर्शन आनंददायी होते हैं। बाद में मनुष्य इन्हीं महापुरुषों को पूजता है और जाने-अनजाने में शिव के नजदीक आ जाता है परन्तु वास्तव में शिव ही सब कुछ है वही मूल है ऋषियों का महापुरुषों द्वारा मैं अर्थात शिव का ही उच्चारण है। सद्गुरु तो हमेशा ककर से शंकर बनने या बनाने की प्रक्रिया में लीन रहते हैं जिस प्रकार प्राण निकल जाने पर मात्र कंकाल बचता है उसी प्रकार शिवत्व की अनुपस्थिति में मनुष्य कंकर है। जैसे-जैसे शिव सानिध्य मिलता जायेगा कंकर से शंकर बनने में देर नहीं लगेगी और शंकर से शंकराचार्य भी बन जाओगे। बस यहीं पर परीक्षा शुरू होगी कि तुम सुर हो या असुर असुर राज रावण भी शिव के परम भक्त थे और दूसरी तरफ भगवान श्री राम की शिव उपासना भी अनुपम है। उन्होंने ही रामेश्वर में ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना की है। रावण असुर है इसीलिये शिव से स्वयं के लिये वरदान मांगता है। कपट और धूर्तता उसके आभूषण हैं, शिव से भी युद्ध करने को तत्पर रहता है। स्वयं हिमालय को उठा लेने कीचेष्टा भी करता है। स्वयं को तीनों लोकों का स्वामी समझने लगता है। एक बीमार और कमजोर मानसिकता ही असुर प्रवृत्ति है। जिसकी शक्ति के कारण वह दम्भ में आ गया है उसी से शक्ति प्रदर्शन करने लगता है। दूसरी ओर श्री राम हैं जो कि साक्षात् रुद्रांश श्री हनुमंत को अपने साथ लिये हुये समस्त कष्टों को झेलते हुये मर्यादा की रक्षा के लिये धर्म युद्ध कर रहें हैं। उनके साथ सती सीता भी हैं जो कि शिव धनुष को आसानी से सहज ही एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रख देती हैं । 
                            शिव शासनत: शिव शासनत

              उस धनुष को जिसे राक्षम राज रावण हिला भी नहीं पाया और अंत में शिवांश धारण किये हुये अपने गुरु के आशीर्वाद से के श्री राम उसी शिव धनुष को तोड़ सीता से विवाह सम्पन्न करते हैं। राम और सीता के बीच धनुष रूपी शिव हैं तो वहीं सीता हरण के बाद श्री राम और सीता के वियोग को दूर करने वाले भी रुद्रेश्वर श्री हनुमान हो हैं। समस्त रामायण, महाभारत, वेद ग्रंथों और विश्व के अन्य धर्मग्रंथ सभी कुछ शिव के आसपास ही घूम रहे हैं। भगवान् वेद व्यास ने जितन भी ग्रंथों और पुराणों की रचना की है उन सब की रचना से पहले उन्होंने भगवान् शिव की परमशक्ति के कुछ अशों को अपनी जिह्वा पर स्थापित किया है। भगवान शिव ने ग्रंथों, पुराणों का निर्माण इसलिये करवाया कि जन साधारण कम-में-कम शब्दों, वचनों, अनुभवों, बुद्धि, जान और सामान्य चेतना के माध्यम से शिव को समझसकें । शिव को समझना ही सच कुछ समझ लेना है, स्वयं को भी समझ लेना है। वास्तव में स्वयं तो कुछ होता ही नहीं है। मनुष्य को मस्तिष्क भी शिव ने प्रदान किया है इसीलिये मस्तिष्क के माध्यम से भी शिव को समझ होगा। मस्तिष्क के माध्यम से न तो शिव की व्याख्या संभव है, न ही शिव की समग्रता और विराटता के दर्शन बस शिव कृपा ही उनके कुछ विलक्षण अंशों के दर्शन करा सकती है। शिव कृपा ही एक मनुष्य के सामने इस ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य परत दर परत खोलते हुये व्यक्ति सामान्य से महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करती है। ऋषि क्या है ? गुरु क्या है ? ये भी हमारी तरह दो हाथ दो पैर वाले हैं परन्तु इनकी शिव भक्ति, इन पर शिव की असीम कृपा इस जगत के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों को समझाती है, इन्हें दुनिया भर के भौतिक जंजालों के मुक्त कर इनके मस्तिष्क को पवित्र और पावन बनाती है, इनके समस्त भारों, पापों, शोकों और तापों को स्वयं शिव हर के इन्हें दिव्य कार्यों में अग्रसर करते हैं । 

          मनुष्य के रूप में, मनुष्य के बीच सम्प्रेषण अत्यंत ही आसान है। ऋषियों, गुरुओं, युगपुरुषों और अवतारों के प्राकट्य का यही रहस्य है। चेहरे बदलते रहते हैं, व्यक्ति आते जाते रहते हैं परन्तु शिव लीलायें और क्रियायें अनंत काल तक चलती ही रहती हैं। शिव का एक रूप महाकाल का भी है। वे कालों के काल हैं। जीव के रूप, प्रकृति, ढांचे, स्थान, क्रिया इत्यादि में काल के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं। जीव का अध्यात्म, ज्ञान, चेतना, समझ, आराधना, पद्धति इत्यादि सभी कुछ काल के अधीन है। कालानुसार भी जीव शिव की महिमा और लीला को समझता रहता है। इस अखिल ब्रह्माण्ड में मात्र जीव ही सब कुछ नहीं है। जीव के अलावा अनेकों आकृतियाँ हैं, चैतन्य पिण्ड हैं, दिव्य आभामण्डल है, सूक्ष्म एवं पवित्र लोक हैं, अनेकों विभिन्न आयामी योनियां इत्यादि हैं। इन सब पर भी शिव ही विद्यमान हैं। अभी तो हम वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थात बुद्धि, तर्क और ज्ञान की सीमाओं से इन लोकों को समझ ही नहीं सके तो फिर शिव की विराटता का वर्णन नितांत मूर्खतापूर्ण है। मनुष्य रूप में शिव तक पहुंचने के असंख्यों मार्ग हैं सभी के सब शिव के द्वारा ही निर्मित हैं। जिसकी जैसी प्रवृत्ति, जैसी सोच वैसी ही उसकी यात्रा शिव यात्रा ही अंतिम यात्रा है। चाहो, न चाहो, हँस के चलो, रो के चलो, चलना तो इसी मार्ग पर पड़ेगा। शिव मार्ग ही जीवन की उत्पत्ति का कारण है।
                          शिव शासनत: शिव शासनत

Ling Rahasyam (1)

            Being born from Shiva and merging into Shiva is the destiny of all the universes, planets, constellations, divine powers, various elements, humans and plants. This is the Shiva Chakra. In reality there is nothing but Shiva Chakra. All actions, pastimes, incarnations, knowledge and science are all part of Shiva Chakra. Shiva in you too, Shiva in me and Shiva in all of us too. He is present everywhere. It is not possible to spend even a single moment without him. Without Shiva there is neither Advaita nor duality. If there is anything beyond duality and non-duality. So there is Shiva in that too. If Krishna is saying in the Gita that the universe merged into me and I merged into the universe, then he is referring to Shivatva and not to his own body. Who is a greater Shiva devotee than him, Shiva is the zenith of all worship practices, taking that subtle frequencies of worship stop only by going to the feet of Shiva.

                  In India, is worship of Shiva the essence of all the religions of this earth? To understand this, one has to rise above all attachments and prejudices and look at everything with insight. Truth will come before you. Shiva is the ultimate element. He is the creator of the Gurus, takes you to the Guru and again gives the vision of Shiva through the Guru. In all the worlds like Prithvilok, Dev Lok, Brahmaloka, Nagalok, Hades, Heaven, Hell, Pitru Lok etc., worship of Shiva and worship of Shiva is done above all. The methods may be different, the way of thinking may be different, but worship is done for Shiva. Naam is an action of the mind. It has nothing to do with reality. Shiva is visible as well as invisible. Shivatva can be seen in whatever form you want. As a human being, the constant search of the individual is engaged in attaining Shivatva. When he recognizes Shiva sitting inside him, is close to him, then illusions like distance disappear, then he becomes able to see Shiva in every particle of this universe. This is the holy sight of Shiva.

            Only such human beings are called sages, they are called Sadgurus, they are also called Yug Purush and Brahmand Nayak. Shivatva sitting inside them showers knowledge from their mouths, makes their touch pure and transformative, their darshans are blissful. Later man worships these great men and comes close to Shiva knowingly or unknowingly, but in reality Shiva is everything, that is the origin of the rishis by the great men, i.e. Shiva is pronounced by me. Sadhguru is always absorbed in the process of becoming or making Shankar out of Kakar, just as only a skeleton remains after the loss of life, similarly in the absence of Shivatva man is a kankar. As you get closer to Shiva, it will not take long to become Shankar from Kankar and you will also become Shankaracharya from Shankar. It is only here that the test will begin whether you are Sur or Asura, the demon king Ravana was also a great devotee of Shiva and on the other hand the worship of Lord Shri Ram is also unique. He has established Jyotirlinga in Rameshwar. Ravana is an asura that is why he asks Shiva for a boon for himself. Deception and cunning are his ornaments, he is ready to fight even with Shiva. He himself tries to lift the Himalayas. He considers himself to be the lord of the three worlds. A sick and weak mentality is the demonic tendency. Because of whose power he has become arrogant, he starts displaying his power. On the other hand, there is Shri Ram, who is fighting a religious war to protect the dignity of Lord Hanuman, bearing all the troubles he has taken with him. She is accompanied by Sati Sita, who easily lifts the bow of Shiva from one place and keeps it in another place.

               The bow which Raksham Raj Ravana could not even move and finally with the blessings of his Guru holding Shivaansh, Shri Ram breaks the same Shiva bow and solemnizes the marriage with Sita. There is Shiva in the form of a bow between Rama and Sita, while after Sita's abduction, the one who removes the separation of Shri Ram and Sita is also Rudreshwar Shri Hanuman. All Ramayana, Mahabharata, Vedas and other scriptures of the world are all revolving around Shiva. Before the creation of all the texts and Puranas that Lord Divyas has composed, he has established some parts of Lord Shiva's supreme power on his tongue. Lord Shiva got the granthas, Puranas made so that the common man could understand Shiva through at least words, words, experiences, intellect, knowledge and common consciousness. To understand Shiva is to understand the truth, you have to understand yourself too. In fact nothing happens by itself. The brain has also been given to man by Shiva, that is why Shiva will also understand through the brain. It is not possible to explain Toshiva through the mind, nor can the vision of Shiva's totality and vastness, only Shiva's grace can make us see some unique parts of him. It is the grace of Shiva that opens the subtle secrets of this universe layer by layer in front of a human being and establishes a person from an ordinary to a great man. What is Rishi? What is Guru? They are also two hands and two legs like us, but their devotion to Shiva, Shiva's infinite grace on them explains the subtle to the subtle mysteries of this world, frees them from the material chains of the world and makes their mind pure and pure. All their burdens, sins, sorrows and heats are carried by Shiva himself in the divine works of each.

           As human beings, communication between humans is very easy. This is the secret of the appearance of Rishis, Gurus, Yugpurushas and Avatars. Faces keep changing, people keep coming and going, but Shiva's pastimes and actions continue till eternity. Mahakal is also a form of Shiva. They are the ages of blacks. There are changes in the form, nature, structure, place, action etc. Spirituality, knowledge, consciousness, understanding, worship, method etc. of the soul are all subject to time. Even according to time, the soul keeps on understanding the glory and pastimes of Shiva. Jiva alone is not everything in this entire universe. Apart from the living beings, there are many forms, there are conscious bodies, there is a divine aura, there are subtle and holy worlds, there are many different dimensional vaginas etc. Shiva is present on all these too. Right now we have not been able to understand these worlds from the scientific point of view, that is, from the limits of intelligence, logic and knowledge, then the description of the vastness of Shiva is utterly foolish. There are innumerable ways to reach Shiva in human form, all of them are created by Shiva. The journey of the one who has the same tendency, the same way of thinking, the journey of Shiva is the last journey. Whether you want it, don't want it, walk with a laugh, walk with a cry, you will have to walk on this path. Shiva's path is the reason for the origin of life.
 respectively

शिवोपासना और ज्योतिष ।।

        वैसे तो ज्योतिष का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है जिसके माध्यम से किसी भी व्यक्ति का वर्तमान भूत व भविष्य तक देखा जा सकता है और ग्रहों की गणना, उनकी अन्तर्दशा महादशा देखकर यह भी बताया जा सकता है। कि व्यक्ति के जीवन के किस पड़ाव पर उन्नति का योग है तथा कब वह मृत्युतुल्य कष्ट भोगेगा किन्तु शिव के बिना ब्रह्माण्ड की कोई भी विद्या या ज्ञान पूर्ण नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि शिवमय है। शिव ही सबकी उत्पत्ति स्थिति और विनाश के कारण हैं अतः शिव उपासना के बिना जीवन निरर्थक है।

               कुछ लोगों का मानना है कि मनुष्य इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में भोगता है किन्तु यथार्थ यह है कि अपने दुष्कर्मों का फल उसे इसी जन्म में रोग, शोक, निर्धनता, लाचारी व परेशानियों के रूप में भोगना पड़ता है। जाने अनजाने मनुष्य कई गुप्त पाप करता है जिन्हें वह प्रकट नहीं करता किन्तु शिव तो कण-कण में व्याप्त हैं उनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता अतः निश्चित है कि हमारे ज्ञात और अज्ञात हर कर्मों का हिसाब किताब उनके पास रहता है। इसलिए जीवन को सार्थक, सुखी व समृद्धिशाली बनाने के लिए शिवोपासना अपरिहार्य है
              ज्योतिष शास्त्र में स्वप्न, शकुन, प्रश्न, दशा, महादशा आदि के माध्यम से समय का परिज्ञान किया जाता है। की कुण्डली के अनुसार मिलने वाले सुख-दुखों की फलप्राप्ति काल निर्णय का बहुत महत्व है जिन्हें गृहों की दशा अन्तर्दशाओं तथा गोचर आदि के माध्यम से जाना जाता है। यहाँ हम ज्योतिष शास्त्र की बारीकियों में न जाकर शिव भक्तों के लिए कुछ ऐसी दुर्लभ जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके द्वारा विभिन्न ग्रहों की महादशा व अर्न्तदशा के कारण आने वाली परेशानियों से छुटकारा मिलता है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि शिव उपासना ही समस्त विपत्तियों का नाश करने वाली है अतः साधकों को चाहिए कि वे विभिन्न ग्रहों की शांति के लिए। बताए नीचे अनुसार भगवान सदाशिव के दुर्लभ मंत्रों का. जाप व अनुष्ठान करें क्योंकि भगवान भोलेनाथ की कृपा प्राप्त कर लेने पर सभी ग्रहजन्य बाधाएं दूर हो जाती हैं, साधक की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती तथा सभी दिव्य सुखभोग प्राप्त कर लेते हैं और भगवान के श्री चरणों में अखण्ड प्रीति भी प्राप्त हो जाती है।
     
               ज्योतिष शास्त्र में नौ ग्रह बताए गये हैं जो विभिन्न राशियों पर विचरण करते रहते हैं इसी तरह प्रत्येक राशि का एक स्वामी होता है तथा किसी एक ग्रह की महादशा के साथ यदि अन्य ग्रहों की अन्तर्दशा ठीक नहीं रहती तो साधक को तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सूर्य की महादशा में सूर्य की अनिष्टकारक अन्तर्दशा हो तो उस दोष की निवृत्ति के लिये मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। इससे समस्त दोषों की निवृत्ति हो जाती है और भगवान शिव एवं ग्रहराज सूर्यदेव का अनुग्रह प्राप्त होता है।

         तदोषपरिहारार्थं मृत्युंजयजपं चरेत् । सूर्यप्रीतिकरीं शान्तिं कुर्यादारोग्यमादिशेत् ॥

         इसी प्रकार सूर्य की महादशा में शनि एवं केतु की अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान करने से अपमृत्यु का निवारण होता है- मृत्युंजयजपं चरेत् । चन्द्रमा की महादशा में गुरु की अन्तर्दशा होने पर यदि अनिष्टकारक योग हो तो अपमृत्यु होती है, इसलिए इस दोष की निवृत्ति के लिए शिवसहस्त्रनाम का जप करना चाहिए। तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत्। शनि की अन्तर्दशा होने पर शरीर में कष्ट होता है, अतः मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। चन्द्रमा में केतु की अन्तर्दशा में भय होता है तथा शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिए मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। मृत्युंजयं प्रकुर्वीत सर्वसम्पत्प्रदायकम् । इसी प्रकार चन्द्र में शुक्र की अन्तर्दशा में तथा सूर्य की अन्तर्दशा में क्रमशः रुद्र जाप तथा शिवपूजन करना चाहिए। तद्दोषविनिवृत्त्यर्थं रुद्रजापं च कारयेत्, तद्दोषपरिहारार्थं शिवपूजां च कारयेत् । मंगल की महादशा में मंगल की अन्तर्दशा में रुद्र- जप तथा वृषभदान करना चाहिए। राहु की अन्तर्दशा होने पर नाग का दान, ब्राह्मण भोजन तथा मृत्युंजय मंत्र के जप कराने से आयु एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है-
नागदानं प्रकुर्वीत देवब्राह्मणभोजनम् । मृत्युंजयजपं कुर्यादायुरारोग्यमादिशेत् ॥

     मंगल में बृहस्पति की खराब अन्तर्दशा होने पर शिवसहस्त्रनामावली का जप करना चाहिए तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् । इसी प्रकार शनि की दोषयुक्त अन्तर्दशा में मृत्युंजय मंत्र के जप का विधान है। राहु की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा दोषकारक होने पर अपमृत्यु की सम्भावना रहती है, इसलिए स्वर्णप्रतिमा का दान तथा शिवपूजन करना चाहिए - स्वर्णस्य प्रतिमादानं शिवपूजां च कारयेत् ।

          बृहस्पति की महादशा में अनिष्टकारक बृहस्पति के योग होने पर शिवसहस्त्रनाम का जप, रुद्र जप तथा गोदान करने से सुख शांति की प्राप्ति होती है तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् । रुद्रजाप्यं च गोदानं कुर्यादिष्टं समाप्नुयात् ॥ इसी प्रकार राहु की अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र के जप का विधान है।
             
          शनि की महादशा में शनि तथा राहु की खराब अन्तर्दशा होने पर मृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए। इसी प्रकार बृहस्पति की अनिष्टकारक अन्तर्दशा होने पर शिवसहस्त्रनाम का जप तथा स्वर्ण दान करना चाहिए इससे आरोग्य प्राप्त होता है और सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। 

       तदोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।  
           स्वर्णदानं प्रकुर्वीत ह्यारोग्यं भवति ध्रुवम् ॥

बुध की महादशा में मंगल, बृहस्पति एवं शनि की अन्तर्दशा यदि ठीक न हो तो वृषभ दान और मृत्युंजय मंत्र तथा शिवसहस्त्रनाम के जप करने से अपमृत्यु का निवारण होता है तथा सर्वसौख्य प्राप्त होता है।

     अनड्वाहं प्रकुर्वीत मृत्युंजयजपं चरेत्।
      तद्दोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।

केतु की महादशा सात वर्ष तक रहती है। इस सात वर्ष में निश्चित क्रम से सभी ग्रह अपना समय अन्तर्भुक्त करते हैं। केतु में केतु तथा बृहस्पति ग्रह की दोषकर अन्तर्दशा रहने पर स्वास्थ्य हानि तथा आत्मबन्धु से वियोग और अपमृत्यु होती है, ऐसी स्थिति में मृत्युंजय जप तथा शिव सहस्त्रनाम का पाठ करने से सभी दुर्योग दूर हो जाते हैं।

           तदोषपरिहारार्थं शिवसाहस्त्रकं जपेत् ।
           महामृत्युंजयं जाप्यं सर्वोपद्रवनाशनम् ॥

शुक्र ग्रह की महादशा में दोषयुक्त राहु, बृहस्पति तथा केतु की अन्तर्दशा में मृत्युंजय मंत्र के जप करने से अपमृत्यु दूर होती है और सौख्य प्राप्त होता है तथा भगवान् शंकर की प्रसन्नता प्राप्त होती है
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

Shivopasana and Astrology
         
         By the way, the field of astrology is very wide, through which the present past and future of any person can be seen and it can also be told by looking at the calculation of planets, their Antardasha Mahadasha. That at which stage of a person's life is the sum of progress and when he will suffer death-like suffering, but without Shiva no knowledge or knowledge of the universe is complete. Because the whole creation is Shiva. Shiva is the cause of all creation and destruction, so life is meaningless without worshiping Shiva.

                Some people believe that a person suffers the fruits of the actions of this birth in the next life, but the reality is that he has to suffer the consequences of his misdeeds in this birth in the form of disease, grief, poverty, helplessness and troubles. Knowingly and unknowingly man commits many secret sins which he does not reveal, but Shiva is pervasive in every particle, not even a leaf moves without his will, so it is certain that the account of all our actions, known and unknown, remains with him. Therefore, to make life meaningful, happy and prosperous, worshiping Shiv is indispensable.

          In astrology, the understanding of time is done through dreams, omens, questions, dasha, mahadasha etc. According to the horoscope, there is a lot of importance of the decision of the time to get the results of happiness and sorrows, which are known through the condition of the houses, antardashas and transits etc. Here we are presenting some such rare information for Shiva devotees without going into the nuances of astrology, by which one gets rid of the troubles caused by the Mahadasha and Antardasha of various planets. As it has been said earlier that worship of Shiva is the destroyer of all calamities, so seekers should pray for the peace of various planets. As mentioned below, of the rare mantras of Lord Sadashiv. Do chants and rituals because by getting the blessings of Lord Bholenath, all the planetary obstacles are removed, the seeker never dies prematurely and gets all the divine pleasures and unbroken love is also attained at the feet of the Lord.
     
          Nine planets have been
mentioned in astrology, which keep on moving in different zodiac signs, similarly each zodiac has a lord and with the Mahadasha of any one planet, if the antardasha of other planets is not good, then sadhak will face various kinds of problems. have to face. In the Mahadasha of the Sun, if there is a malefic Antardasha of the Sun, then the Mrityunjay Mantra should be chanted to get rid of that defect. With this, all the faults are removed and the grace of Lord Shiva and the planet Sun God is obtained.
      
         Similarly, in the Mahadasha of the Sun, when Shani and Ketu are in the antardasha, by performing the ritual of Mrityunjaya Mantra, the apologetics are prevented - Mrityunjayjapam Charet. If there is a malefic yoga in the mahadasha of the moon, if there is a malefic yoga, then Apamritya occurs, so to get rid of this defect, one should chant Shiva Sahasranama. Due to the antardasha of Shani, there is pain in the body, hence Mrityunjaya mantra should be chanted. There is fear in the antardasha of Ketu in the moon and diseases arise in the body, therefore Mrityunjaya mantra should be chanted. Similarly, in the antardasha of Venus in the moon and in the antardasha of the sun, Rudra Jaap and Shiva worship should be done respectively. Taddoshavinivrityatham Rudrajapancha kareet, Taddoshapariharartham Shiva worship cha karayet. In the Mahadasha of Mars, Rudra-japa and Vrishabhadaan should be done in the Antardasha of Mars. Donation of snake, Brahmin food and chanting of Mrityunjaya Mantra gives life and health when Rahu is in antardasha-

         If there is a bad Antardasha of Jupiter in Mars, one should chant the "Shiv Sahasranamavali" and chant Shivasahastrakam. Similarly, there is a law for chanting of Mrityunjaya mantra in the defective antardasha of Shani. In the Mahadasha of Rahu, if the antardasha of Jupiter is defective, there is a possibility of death, so donating the golden statue and worshiping Shiva should be done.

           In the Mahadasha of Jupiter, when there is a conjunction of malefic Jupiter, by chanting Shiva Sahasranama, chanting Rudra and donating God, one can attain happiness and peace. Similarly, there is a law to chant the Mrityunjaya mantra when Rahu is in the antardasha.
             
           In the Mahadasha of Shani, in case of bad Antardasha of Saturn and Rahu, one should chant Mrityunjay Mantra. Similarly, in case of malefic antardasha of Jupiter, chanting of Shiva Sahasranama and donating gold should bring health and remove all obstacles.
      
 In the Mahadasha of Mercury, if the antardasha of Mars, Jupiter and Saturn is not good, then by doing Vrishabha donation and by chanting Mrityunjaya Mantra and Shiva Sahasranama, one can get rid of the apocalyptic death and attain universal happiness.
    
        The Mahadasha of Ketu lasts for seven years. In this seven years, all the planets spend their time in a definite order. If Ketu and Jupiter remain in the dosha and antardasha of the planet Ketu, there is loss of health and separation from self-bonding and apamriti, in such a situation, by chanting Mrityunjaya and reciting Shiva Sahasranama, all the ill-yogis are removed.
           
      Chanting of Mrutyunjay Mantra in the mahadasha of Venus, Rahu, Jupiter and Ketu in the antardasha of the planet Venus, removes the death of death and attains goodness and happiness of Lord Shankar.

नाग तंत्रम् ।।

            ज्योतिष अध्यात्म की एक शाखा है परन्तु यह सामान्यतः एक आध्यात्मिक स्तर पर पहुँच चुके साधक के लिए बेकार है। जहाँ साधक का हृदय शिवमय या गुरुमय हुआ, ज्योतिष की भविष्यवाणी उस पर कार्य नहीं करती। धर्म सत्ता के क्षेत्र में प्रविष्ट जातक पर सामान्य पशु रूपी मनुष्यों के लिए बने नियम स्थूल पड़ जाते हैं। यही ब्रह्म विद्या रहस्यम है। सर्प डस भी सकता है तो वहीं फण फैलाकर छाँव भी दे सकता है। महावीर के अंगूठे में सर्प ने डसा तो दुग्ध की धारा फूट पड़ी । काल सर्प योग है तो सर्प पूजन भी है।

              नागयोनि महर्षि कश्यप से उत्पन्न है एवं इतिहास साक्षी है कि देव-दानव संग्रामों में नागों ने सदा देवताओं का साथ दिया है। भगवान शिव एवं भगवति आद्या के साथ-साथ गणपति, भैरव इत्यादि सदा नागों को आभूषणों के रूप में धारण किये हुए हैं, शिवाभूषण हैं नाग, नागेन्द्र कुण्डल, नागेन्द्र हार, नागेन्द्र चर्म, नाग यज्ञोपवीत, नाग चूड़ामणि से भूषित हैं आद्य एवं आद्या । महाकाली के कोमलांगों को भी नागों ने आवेष्टित कर रखा है, उनके दिव्य स्तन मण्डल, , जानु, शिखा इत्यादि पर नाना प्रकार के नागराज प्रेम पूर्वक आरुढ़ हैं। नाग वाहन हैं गणपति का, देवियों का। भगवान विष्णु शेष शैय्या पर विराजमान हैं, अमृत कलश की सुरक्षा कर रहे हैं नागराज, अमृत मंथन में रज्जू बने हुए हैं नागराज, शिव के साथ विष का आचमन कर रहे हैं नागराज, छलके हुए अमृत का पान कर रहे हैं नागराज । मणि धारण कर रखी है नागराज ने। 

             नागपाश से बंधे हुए हैं राम लक्ष्मण एवं हनुमान। वे भी नाग पाश की अवमानना नहीं करते। नागों का विष भी अमृतदायी है। कैंसर, कोढ़, एड्स, मिर्गी, स्नायु दुर्बलता, लकवा जैसी लाइलाज बीमारियों में, जीवन की रक्षा हेतु, जीवन रक्षक औषधियों में, नाना प्रकार के विषों से रक्षा हेतु, विष रक्षक औषधि में नाग का विष ही सूक्ष्मांश में उपयोग किया जाता है। किसानों के लिए तो नाग देवता वरदान हैं। मूषक अन्न के भण्डारों को नष्ट कर दें अगर नागराज न हो तो । मूषक योनि को नियंत्रित करते हैं नागराज । नागों के बिल धरती को उर्वरकता प्रदान करते हैं कीट-पतंगों, टिड्डियों से रक्षा करते हैं नागराज । औषधि विज्ञान की प्रत्येक शाखा में नाग के विष को अति महत्वपूर्ण औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। अब तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि एक सर्पाकार नागाकृति अति सूक्ष्म गुरुत्व बल पृथ्वी को अपनी धूरी पर स्थिर रखे हुए हैं। पुराणों ने स्पष्ट कहा है कि पृथ्वी को शेषनाग ने अपने मस्तक पर धारण कर रखा है। नाग पंचमी का दिन ब्रह्मा ने इसलिए घोषित किया नाग ने पूजा हेतु क्योंकि शेषनाग ने पृथ्वी का भार उठा रखा है अपने मस्तक पर। देव शक्तियों से संस्पर्शित है नाग कुल । 

              नागराज वासुकी के फण पर स्वास्तिक का चिह्न स्पष्ट दिखता है, तक्षक कुल के नागों के कंठ में तीन रेखाएं होती हैं अर्थात त्रिपुण्ड होता है, पद्मकुल के नागों की आँखें माँ भगवती के पद्म नेत्रों के समान होती हैं, शंखपाल कुल के नागों के फण पर शंख का निशान होता है, कुलीक कुल के नागों के फण पर अर्ध चंद्र की आकृति होती है, अर्जुन कुल के नागों के फण पर धनुष का निशान होता है, कालिया दह कुल के नागों के फण पर भगवान कृष्ण के नन्हें पद चिन्ह बने होते हैं। शेषनाग कुल के नागों के फण पर श्रीवत्स का निशान होता है। नाग पूजन सार्वभौमिक है जापान के लोग स्वयं को नाग वंशीय कहते हैं, चीन में भी नागोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है एवं नागवंशीय राजाओं ने वहाँ पर कई पीढ़ियों तक राज्य किया। भारतवर्ष में नागों को देवता माना जाता है एवं उनकी उपासना, पूजन, संरक्षण से नाना प्रकार की समस्याओं का निवारण होता है। नाग वध सम्पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति में निषिद्ध है । मिश्र के पिरामिडों में प्राप्त चित्रों में वहाँ के राजा नाग युक्त मुकुट धारण करते रहे हैं। मिश्र की महारानी क्लियोपाट्रा स्वयं को नाग कन्या कहती थीं। उसने अपने जीवन का अंत सर्प दंश से ही करवाया। उसके समस्त आभूषणों पर नाग अंकित होते थे। जीवन की शुरुआत सरिसर्प प्राणियों से ही हुई। मनुष्य की अनुवांशिक संरचना सर्पों के समान सर्पीली है। नाग परम चैतन्यता, ऊर्ध्व गति का प्रतीक है। कुण्डलिनी शक्ति का स्वरूप सर्पाकार ही है, परम गोपनीय रस विद्या जिसमें कि पारद को स्वर्ण में परिवर्तित किया जाता है वह नाग विद्या के गोपनीय रहस्यों के द्वारा ही सम्भव है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

Nag tantram
             Astrology is a branch of spirituality but it is generally useless for a seeker who has reached a spiritual level. Where the heart of the seeker became Shivamaya or Gurumay, the predictions of astrology do not work on him. The rules made for human beings in the form of ordinary animals become gross on the person entering the field of religious authority. This is Brahma Vidya Rahasam. If a snake can bite, it can also spread its hood and give shade. When a snake bit Mahavira's thumb, a stream of milk broke out. If there is Kaal Sarp Yoga, then there is also snake worship.

               Nagyoni is born from Maharishi Kashyap and history is witness that the serpents have always supported the gods in the battles of gods and demons. Along with Lord Shiva and Bhagwati Aadya, Ganapati, Bhairav ​​etc. are always wearing serpents in the form of ornaments, Shivabhushan is Nag, Nagendra Kundal, Nagendra necklace, Nagendra skin, Nag Yagyopveet, Nag are adorned with Chudamani, Aadya and Aadya. The Komalangas of Mahakali have also been possessed by the serpents, and on their divine, Janu, Shikha, etc., various types of Nagraj are lovingly mounted. The serpent is the vehicle of Ganapati, of the goddesses. Lord Vishnu is seated on the rest of the bed, Nagraj is protecting the nectar urn, Nagraj remains in the churning of nectar, Nagraj is inhaling poison with Shiva, Nagraj is drinking the spilled nectar. Nagraj is wearing a gem.

              Rama, Lakshmana and Hanuman are bound by the Nagpasha. They also do not contempt Nag Pash. The poison of serpents is also nectar. In incurable diseases like cancer, leprosy, AIDS, epilepsy, nervous debility, paralysis, for the protection of life, in life saving medicines, for protection from various types of poisons, in poison protection medicine, the venom of snake is used in the subtle part. Snake gods are a boon for the farmers. The rodents should destroy the food stores, if there is no Nagraj. Nagraj controls the mouse vagina. The burrows of snakes provide fertility to the earth, Nagraj protects it from insects, moths, locusts. Snake venom is recognized as a very important medicine in every branch of medicine. Now even the scientists believe that a serpentine serpentine, very subtle gravitational force is keeping the earth fixed on its axis. The Puranas have clearly said that Sheshnag has kept the earth on his head. Brahma declared the day of Nag Panchami because the snake worshiped because Sheshnag has carried the weight of the earth on his head. The snake clan is in contact with the divine powers.

               The sign of the swastika is clearly visible on the hood of Nagraj Vasuki, there are three lines in the throat of the snakes of Takshak clan, that is, there is a tripund, the eyes of the serpents of Padmakul are like the Padma eyes of Mother Bhagwati, on the hood of the snakes of the Shankhpal clan. There is a mark of a conch, on the hood of the serpents of the Kulik clan there is a crescent moon, on the hood of the serpents of the Arjuna clan, there is a mark of a bow, on the hood of the serpents of Kaliya Dah clan, small footprints of Lord Krishna are made. . There is a mark of Shrivatsa on the hood of the serpents of Sheshnag clan. Snake worship is universal, the people of Japan call themselves the Naga dynasty, in China also the Naga festival is celebrated with pomp and the Naga dynasty kings ruled there for many generations. In India, serpents are considered as deities and by their worship, worship, protection, various types of problems are solved. Snake slaughter is completely prohibited in Indian culture. In the pictures found in the pyramids of Egypt, the kings there have been wearing a crown containing serpents. Empress Cleopatra of Egypt called herself Nag Kanya. He ended his life with a snake bite. Snakes were inscribed on all his ornaments. Life started with snakes only. The genetic structure of humans is similar to that of snakes.

Nag tantram

           There is a mark of Shrivatsa on the hood of the serpents of Sheshnag clan. Snake worship is universal, the people of Japan call themselves the Naga dynasty, in China also the Naga festival is celebrated with pomp and the Naga dynasty kings ruled there for many generations. In India, serpents are considered as deities and by their worship, worship, protection, various types of problems are solved. Snake slaughter is completely prohibited in Indian culture. In the pictures found in the pyramids of Egypt, the kings there have been wearing a crown containing serpents. Empress Cleopatra of Egypt called herself Nag Kanya. He ended his life with a snake bite. Snakes were inscribed on all his ornaments. Life started with snakes only. The genetic structure of humans is similar to that of snakes.The serpent is a symbol of supreme consciousness, upward movement. The nature of Kundalini Shakti is snake-like, the supreme secret of Rasa Vidya, in which the mercury is converted into gold, that is possible only through the secret secrets of Naga Vidya.

अक्षय कवच महापूजा ।।

       अध्यात्म का एकमात्र लक्ष्य ऊर्जा को अर्ध्वगामी बनाना एवं मनुष्य को संकीर्ण और खण्ड-खण्ड वाली सोच के प्रवृत्ति चक्र से मुक्ति दिलाना है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी व्यक्ति पूजा को महत्व नहीं दिया है। किसी भी वेद में व्यक्ति विशेष को पूजने के लिये नहीं कहा गया है, बस कहा गया है तो उस व्यक्ति को नमन करने के लिए और उसके प्रति श्रद्धा रखने के लिये जो कि वास्तव में सद्गुरु हो । यहाँ पर भी सद्गुरु के सद्गुरु रूपी उस शिवत्व के प्रति साधक को सदैव ऋणी रहने के लिये कहा गया है जो कि उसका परिचय ईष्ट अर्थात ब्रह्माण्डीय दिव्य ऊर्जाओं से करवाता है। इसके साथ ही वेद एक मार्गीय नहीं है। एकांगी पूजन सदैव साधक को पथ भ्रष्ट एवं अंत में योनियों के चक्कर में ही भटकाता है। एकांगी प्रक्रिया नाम की कोई चीज नहीं होती है, यह तो मानव निर्मित धर्म और अधकचरी पूजा प्रवृत्ति का द्योतक है। 

             वेदों में आदि मातृ शक्ति को भी पूजा गया है तो वहीं ब्रह्मा की भी उपासना, शिव की भी उपासना है एवं इनके साथ जगत पालक विष्णु और महालक्ष्मी के साथ-साथ अन्य दिव्य देवताओं इत्यादि की भी पूजा अर्चना है। वेदोक्त पूजन में सभी देवता स्थापित किये जाते हैं, समस्त शक्तियों का आह्वान किया जाता है। सभी को समान आदर प्रदान किया जाता है। मानव निर्मित धर्म एवं अध्यात्म में बस यही मूल फर्क है। ऐसा कोई भी महामंत्र नहीं है जिसके मात्र जाप से जीवन के सभी आयाम पूर्ण होते हैं । आप स्त्री को माँ स्वरूप में भी देखते हैं तो वही बहन के स्वरूप में भी, उससे प्रेम करते हैं एवं पत्नी स्वरूप मे जीवन भर के सहयोगी बनते हैं वहीं पुत्री स्वरूप में स्वयं कन्यादान भी करते हैं। एक स्त्री पुत्री भी होती है, बहन भी होती है, पत्नी भी होती है, तो वहीं माता या परदादी, दादी इत्यादि भी हो सकती है। इसके अलावा और अनेकों या फिर असंख्य स्वरूप में ही व्यक्ति विशेष का जीवन सम्पन्न होता है। प्रत्येक सम्बन्ध में व्यवहार भी सम्बन्धों के अनुकूल ही होता है। 

               वेद जब महापूजा की बात करते हैं तब मंत्र दृष्टा और हमारे ऋषि मुनि आदि शक्ति भवानी अनेकों स्वरूप में दृष्टा बनकर उसके दिव्य दृष्टांत को निहारते हुए परमानंद में खो जाते हैं। शिव की पूजा शक्ति पूजा के बिना अधूरी है। वास्तव में जो शिवत्व का पिपासु होगा उस पर तो आदि शक्ति की कृपा स्वयं ही बरसेगी। वेदोक्त पूजन में कहीं भी खण्डता दिखाई नहीं पड़ती। यह ब्रह्माण्डीय या फिर परब्रह्मण्डीय पूजन है पूजन का अर्थ नमन एवं दुर्लभ प्रेममयी अमृत कोष की स्थापना करना है जिस प्रकार शिशु अबोध अवस्था में सर्वप्रथम 'माँ' शब्द पुकारता है और उसके मुख से निकले माँ महामंत्र के कारण ही के वक्षस्थल से अमृतरूपी दुग्ध की धारा निकल पड़ती है। ठीक इसी प्रकार साधक जब अपने समस्त अधकचरे ज्ञान, व्यर्थ दम्भ और अहम के साथ-साथ अन्य तथाकथित मानवीय बुद्धि और तर्क इत्यादि को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा के साथ आदि शक्ति भवानी से पूजन, स्तुति इत्यादि के द्वारा सम्बन्ध स्थापित करता है तो फिर आदि शक्ति भवानी जो कि समस्त जग की निर्मात्री है, जिसकी कोख से असंख्य देवियाँ एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी जन्म हुआ है भक्त को इतना वात्सल्य देती कि वह इस पृथ्वी लोक के समस्त कष्टों और दुखों से मुक्त जाता है।

               जिस प्रकार एक स्त्री चाहे वह किसी भी योनि की क्यों न हो अपने नवजात शिशु को समस्त ऊर्जा मात्र दुग्ध के द्वारा ही प्रदान कर देती है ठीक उसी प्रकार आदि शक्ति माँ भवानी से प्रकट हुई दिव्य एवं मनोरम प्रकाश रूपी अमृत धारा साधक को शिशु के समान मस्त एवं सभी चिंताओं से मुक्त बना देती है। जिस साधक पर माँ भगवती की कृपा होती है उस पर तो शिव का वश भी नहीं चलता तो फिर उनके गणों जैसे कि राक्षस, वेताल, भूतप्रेत, डंकनी शंकनी इत्यादियों की क्या मजाल है। इस पृथ्वी लोक में मां भगवती की सेवा साधक को समस्त सुखों एवं ऐश्वर्य, से लाद देती है। यश, प्रसिद्धि कीर्ति, सौन्दर्य, भोग इत्यादि समस्त मानवीय जरूरतें देवी का ही अंश है। 
क्रमशः
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

स्वयं भगवान शंकर भी पार्वती या माँ अन्नपूर्णा के द्वारा ही भोजन पाते हैं। उनकी समस्त आवश्यकताओं का ध्यान भी आदि शक्ति ही रखती है। एक बार शिव भक्त आपको भूखे पेट मिल जायेंगे, उनके आसपास दरिद्रता भी विद्यमान मिल सकती है परंतु माँ भवानी के शिष्य आपको कभी भी भूख से तड़पते हुए नहीं मिलेंगे। पिता के अभाव में भी बच्चों का लालन पालन माँ करती है परंतु माँ के अभाव में बच्चों का लालन पालन पिता के वश की बात नहीं है। प्रकृति की संरचना ही कुछ ऐसी है। अपने भक्तों पर जरा सी भी आँच आती देख आदि शक्ति सिंहनी के समान रौद्र रूप धारण कर लेती है या फिर काली स्वरूप में समस्त जगत का ही संहार होने लगता है तो फिर भगवान शिव को भी उनके चरणों में लेटकर उन्हें पुनः शांत करना पड़ता है। शिव भी शक्ति की आज्ञा में बंधे हुए हैं। माँ भवानी के मुख से निकला कोई भी शब्द चूक नहीं सकता। शिव को उसे पूरा ही करना पड़ता है। प्रेम, ममता, सुरक्षा एवं ऊर्जा का अटूट भण्डार है माँ आदि शक्ति की उपासना । स्वयं भगवान शंकर अपने गणों एवं भक्तों को जीवन यापन एवं घोर दरिद्रता मिटाने के लिए माँ की आराधना करने को प्रेरित करते हैं।
 
              वैदिक ऋषि मार्कण्डेय जी ने एक बार मनुष्यों 'की अत्यंत ही दुर्दशा देखकर अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि हे पितामह आप कोई ऐसा दुर्लभ शिव रहस्य या शिव सूत्र बताइये जिससे कि पृथ्वी पर निवास करने वाले मेरे शिष्य जीवन में समस्त ऐश्वर्यों और सुख की प्राप्ति के साथ-साथ अपनी सम्पूर्ण आयु आरोग्य एवं सुरक्षापूर्वक व्यतीत कर सकें। इस पर पिता स्वरूप ब्रह्मा जी बोले हे पुत्र तुमने तो स्वयं आदि शक्ति शिव से महामृत्युंजय मंत्र प्राप्त किया है तो फिर तुम्हे अन्य किसी सुरक्षा चक्र की क्या आवश्यकता। इस पर मार्कण्डेय जी ने कहा कि प्रभु सुरक्षा चक्र तो प्राप्त कर लिया परंतु अभाव एवं ऐश्वर्य की अनुपस्थिति में जीवन पशुतुल्य हो चला है। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें अति गोपनीय देवी कवच की विधि एवं उसके महत्वों का विस्तारपूर्वक वर्णन बताया। 

              दुर्गा सप्तशती में इसे देवी कवच के नाम से वर्णित किया गया है। बाद में शक्ति इस महापूजा की सरल एवं समय अनुकूल पद्धति को दीक्षा एवं ज्ञान के रूप में प्राप्त किया। अध्यात्म के पथ पर सदगुरु के अनुसार जब तक शिष्य आरोग्य, धन, सुन्दर पत्नी, सुदर्शन स्वास्थ्य, सफलता, प्रसिद्धि कीर्ति यश इत्यादि को प्राप्त नहीं करता वह पूर्णत्व भी नहीं पा सकता है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी दरिद्रता या सब कुछ त्यागने की बात नहीं की है कोई भी ऋषि श्री विहीन नहीं था। सभी वैदिक ऋषियों ने शिव के साथ-साथ शक्ति की भी समान आराधना की और उनके कृपाबल पर ही जीवन में सभी भौतिक सुखों के साथ साथ शिवत्व का भी पान किया। जिस प्रकार शिव मात्र मृग छाल लपेटे बिना किसी सिहांसन के हिमालय पर निमग्न भाव से विराजमान रहते हैं तो वहीं आदि शक्ति स्वरूप माँ अन्नपूर्णा उनके साथ निवास करती हुई शिव के अलावा उनके सभी गणों भक्तों और यहाँ तक कि पुत्रों को भी किसी भी वस्तु की कमी नहीं होने देती हैं।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

सद्गुरु स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज द्वारा वर्णित महापूजनविधि ।।

        सर्वप्रथम प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर आदि शक्ति माँ भवानी के चित्र या मूर्ति के सामने आसन लगाकर बैठें। इसके पश्चात् पूर्ण श्रद्धा के साथ चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करें। तत्पश्चात् दोनों हाथों को जोड़ते हुए ग्यारह बार ॐ नमश्चण्डिकायै ।। (ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ) मंत्र का श्रद्धा के साथ जाप करें। अगर आप आसन के ऊपर पद्मासन की स्थिति में बैठ सकते हैं तो अति उत्तम होगा अन्यथा साधारण स्थिति भी चलेगी पर ध्यान रहे रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी हो। सिले हुए वस्त्रों को पहनकर पूजा करना सदैव वर्जित है। धोति का इस्तेमाल सर्वश्रेष्ठ होता है। आंतरिक वस्त्र स्वच्छ होने चाहिए। इसके पश्चात् लगभग पाँच बार “दुं दुर्गाये नमः " मंत्र का मानसिक जाप करते हुए नाड़ी शोधन प्राणायाम सम्पन करें । तत्पश्चात् वर्णित नीचे सम्पूर्ण कवच का पाठ करें। 

        ‌पूर्व दिशा में ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा

 करें अग्निकोण में अग्निशक्ति, दक्षिण दिशा में

 वाराही तथा नैऋत्य कोण में मृग पर सवारी

 करने वाली देवी मेरी रक्षा करें। उत्तर दिशा में

 कौमारी और ईशान कोण में शूल धारिणी देवी

 रक्षा करें। ब्रह्माणि ! तुम ऊपर की ओर से मेरी

 रक्षा करो और वैष्णवीदेवी नीचे की ओर से मेरी

 रक्षा करें। इसी प्रकार शव को अपना वाहन

 बनाने वाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी

 रक्षा करे । जया आगे से और विजया पीछे की

 ओर से मेरी रक्षा करें। वामभाग में अजिता और

 दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा , करें ।

 उद्योतिनी शिखा की रक्षा करें। उमा मेरे मस्तक

 पर विराजमान होकर रक्षा करे। ललाट में

 मालाधारी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी मेरी

 भौहों का संरक्षण करें। भौंहों के मध्य भाग में

 त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघणटा देवी रक्षा करें।

 दोनों नेत्रों के मध्यभाग में शखिनी और कानों में

 द्वारवासिनी रक्षा करें। कालिका देवी कपोलों

 की तथा भगवती शांकरी कानों के मूल भाग की

 रक्षा करें। नासिका में सुगन्धा और ऊपर के

 ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करें। नीचे के ओठ में

 अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा

 करें। कौमारी दाँतों की और चण्डिका

 कण्ठप्रदेश की रक्षा करें। चित्रघण्टा गले की

 घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा

 करें। कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमङ्गला मेरी

 वाणी की रक्षा करें। भद्रकाली ग्रीवा में और

 धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करें।

 कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ

 की नली में नलकूबरी रक्षा करें। दोनों कंधों में

 खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की

 वज्रधारिणी रक्षा करें। दोनों हाथों में दण्डिनी

 और अंगुलियों में अम्बिका रक्षा करें। शूलेश्वरी

 नखों की रक्षा करें। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में

 रहकर रक्षा करें। महादेवी दोनों स्तनों की और

 शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करें ।ललिता

 देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर

 रक्षा करें। नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की

 गुह्येश्वरी रक्षा करें। पूजना और कामिका लिंग

 की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करें।

 भगवती कटिभाग में और विन्धवासिनी घुटनों

 की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली

 महाबला देवी दोनों पिण्डलियों मेरी रक्षा करे।

 नारसिंही दोनों घुट्टियों की और तैजसी देवी

 दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करें। श्री देवी

 पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी पैरों के

 तलुओं में रहकर रक्षा करें। अपनी दाढ़ी के

 कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली

 देवी नखों की और अर्ध्वकेशिनी देवी केशों की

 रक्षा करें। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और

 त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करें। पार्वती देवी

 रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा

 करें।

आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी

 रक्षा करें। मूलाधार आदि कमल केशों में

पद्मावती देवी और कफ में चूडामणि देवी स्थित

 होकर रक्षा करें। नख के तेज की ज्वालामुखी

 रक्षा करें। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं

 हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त

 संधियों में रहकर रक्षा करें। ब्रह्माणि! आप मेरे

 वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्म

 धारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की

 रक्षा करें। हाथ में वज्र धारण करने वाली

 वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान

 और समान वायु की रक्षा करें। कल्याण से

 शोभित होने वाली भगवती कल्याणशोभना मेरे

 प्राण की रक्षा करें। रस, रूप, गंध, शब्द और

 स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय

 योगिनी देवी रक्षा करें तथा सत्वगुण, रजोगुण

 और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी रक्षा

 करें। वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की

 रक्षा करें तथा चक्रिणी (चक्र धारण करने वाली)

 देवी यश, कीर्ति लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा

 करें। इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें।

 चण्डिके मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी

 पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा

 करें। मेरे पथकी सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी

 रक्षा करे राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करें

 तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी

 सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करें । हे देवि! जो

 स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा

 से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो

 क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो । 

           इस प्रकार पाठ सम्पन्न करने के पश्चात सम्पूर्ण वेदोक्त रीति से माँ की आरती सम्पन्न करें। पूजन के पश्चात ही अन्न को ग्रहण करना चाहिए। पूजन से पूर्व किसी भी प्रकार का भोजन वर्जित है। इस प्रकार 21 दिनों तक और विशेषकर नवरात्रि के पवित्र 9 दिनों में यह महापूजा आपके रक्त के कण-कण में आदि शक्ति माँ भवानी को स्थापित कर देगी और जो साधक अखण्ड रूप से प्रतिदिन इस कवच का पाठ करते हैं उनकी यात्राओं में दुर्घटनाऐं नहीं होती। जिस भी वस्तु का वे चिंतन करते हैं वह उन्हें निश्चित ही प्राप्त होती है। माँ के कवच से सुरक्षित मनुष्य • निर्भय होकर पृथ्वी लोक में विचरता है। देवी कला प्राप्त करने का यह एकमात्र साधन है। शतायु जीवन इसी कवच के द्वारा दे सम्भव हो पाता है। चेचक, कोढ़ इत्यादि व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस 
           कवच से कवचित साधक पर सांप, बिच्छू एवं अन्य कृत्रिम विषों का असर नहीं होता। कुटिल तांत्रिकों द्वारा मारण, मूठ, मोहन जैसे प्रयोग उल्टे हो जाते हैं। शिव गण जैसे कि डाकिनी शाकिनी, ब्रह्म राक्षस, वेताल, यक्ष, गंधर्व, भूत पिशाच, कुष्माण्ड भैरव आदि कवचित साधक को देखकर स्वयं ही भाग जाते हैं। साधक की जिह्ना पर देवी स्वयं विद्यमान हो जाती है। उसके मुख से निकला शब्द ब्रह्म वाक्य होता है। यह कवच सौन्दर्य सम्मोहन की वृद्धि करता है एवं ग्रह कलह, स्त्री कष्ट इत्यादि से साधक को सर्वथा मुक्त रखता है। इस दुर्लभ कवच को प्राप्त करने के लिए देवता भी मानव शरीर धारण करने के लिए लालायित हो जाते हैं। स्त्रियाँ रजस्वला होने पर 5 दिन कवच का जाप कदापि न करें एवं घर में मौजूद किसी भी रजस्वला स्त्री को पूजा गृह में कदापि प्रवेश नहीं करना चाहिए। कवच का पाठ करने से पहले देवी की मूर्ति को दुग्ध स्नान या जल स्नान अवश्य करानी चाहिए एवं यथा शक्ति माँ की मूर्ति का श्रृंगार, तिलक भी करना चाहिए। 
           माँ चण्डिका की मूर्ति के पैरों में तिलक अवश्य लगाना चाहिए एवं इसके साथ ही उनके द्वारा धारण किये गये सभी अस्त्र-शस्त्रों का भी तिलक करना चाहिए। लाल पुष्प देवी को अत्यंत प्रिय हैं एवं इसके साथ ही धूप, अगरबत्ती भी अवश्य प्रज्जवलित करनी चाहिए। माँ चण्डिका का पूजन राजसिक पूजन होता है एवं राजसिक पूजन में नैवैद्य, पुष्प, अक्षत, चाँवल, कुमकुम, चन्दन इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। देवी का पूजन करने वाले साधक को अत्यंत ही सात्विक प्रवृत्तियाँ धारण करनी चाहिए। मांस, मदिरा एवं वेश्यागमन सर्वथा वर्जित है। इस प्रकार के कृत्य देवी को अत्यंत कुपित कर देते हैं। प्रातः काल देवी का पाठ सर्वश्रेष्ठ होता है एवं साधक को समय विशेष का भी ध्यान रखना चाहिए अगर आप प्रतिदिन सात बजे कवच का पाठ करते हैं तो फिर निश्चित समय पर ही पाठ करें। पाठ करते वक्त शरीर के रोम-रोम में देवी का स्थापत्य महसूस करना चाहिए एवं मानसिक रूप से किसी भी प्रकार का चिंतन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार आप सम्पूर्ण देह को चैतन्य, जागृत एवं मंदिर के समान पवित्र बनाने में सफल होंगे जीवन में होने वाले प्रत्येक कर्म अर्ध्वगामी और माँ आदिशक्ति के अनंत नेत्रों के समक्ष सम्पन्न होगे। आपका सम्पूर्ण जीवन मातृत्व की मधुरता के कारण मधुर एवं स्वस्थ हो जायेगा 

                 ‌‌ || ॐ श्री चण्डिकायै नमः ||