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एक साधारण व्यक्ति के लिए प्रतिदिन पूजा की एक सरल विधि हो सकती है, जिसे बिना जटिल प्रक्रियाओं के भी किया जा सकता है। इस विधि में मुख्य रूप से भक्ति, ध्यान और शुद्धता पर ध्यान दिया जाता है। यहां एक आसान पूजा विधि दी जा रही है:

1. स्नान और शुद्धि  
   सुबह उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा स्थल को साफ रखें और एकाग्र मन से पूजा करने का संकल्प लें।

2. धूप-दीप जलाना  
   पूजा स्थल पर दीपक और धूप जलाएं। दीपक भगवान की उपस्थिति का प्रतीक होता है और धूप वातावरण को शुद्ध करती है।

3. इष्ट देवता की प्रार्थना  
   अपने इष्ट देवता (जिन्हें आप पूजते हैं) की मूर्ति या चित्र के सामने बैठें। ध्यान करें और कुछ समय शांत रहें। प्रार्थना या मंत्र का जाप करें। आप "ॐ" का उच्चारण भी कर सकते हैं या फिर "ॐ नमः शिवाय", "ॐ विष्णवे नमः" जैसे मंत्रों का जप करें।

4. पुष्प अर्पण  
   भगवान को ताजे फूल अर्पित करें। यह भक्ति का प्रतीक होता है और पुष्पों से पूजा में सौंदर्य और पवित्रता आती है।

5. नैवेद्य (प्रसाद) चढ़ाएं  
   कोई भी शुद्ध और सरल भोजन जैसे फल या मिठाई भगवान को चढ़ाएं। यह प्रसाद अंत में सभी भक्तों के साथ बांटा जा सकता है।

6. आरती  
   छोटी सी आरती करें, जिसमें भगवान को दीपक दिखाएं। इसके साथ "ॐ जय जगदीश हरे" जैसी आरती गाएं या फिर कोई छोटी प्रार्थना कर सकते हैं।

7. प्रणाम और ध्यान  
   पूजा समाप्त होने पर भगवान को प्रणाम करें और कुछ समय तक ध्यान में बैठें। मन को शांति और स्थिरता प्रदान करें।

8. शांति मंत्र  
   पूजा के अंत में "ॐ शांति शांति शांति" का उच्चारण कर सकते हैं ताकि आपके और आपके परिवार के जीवन में शांति और संतुलन बना रहे।

इस प्रकार की सरल पूजा विधि से आप प्रतिदिन अपने इष्ट देवता की भक्ति कर सकते हैं।

 महत्वपूर्ण यह है कि श्रद्धा और भक्ति से किया गया कोई भी कर्म ही सही पूजा मानी जाती है।

जय श्री राधे  ।।

मूर्ति पूजा ।।

कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
 छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)

ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।

प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?

उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।

प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।

प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।

प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।

उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।

प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।

उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्

प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।

प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )

हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।

औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले 
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।

2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।

3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।

4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।

भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।

यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।

मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)

हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी नमस्कार है।

अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।

अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।

अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)

प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)

निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।

श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।

 (निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )

दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।

जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।

अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।

 ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।

आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।

चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।

राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।

हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।

आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।

,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।

जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।

आक्षेप करने से यदि राष्ट्रहित हो हिन्दुहित हो सनातन हित हो तो अवश्य करें।यदि समन्वय से सर्वहित हो तो अवश्य इस विषय में उदारवादी जन विवेकी महानुभाव एकतापथ पर बढ़ें।

 ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।

सङ्कलयिता 
पूर्वाचार्य पद सरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य:

रोजगार प्राप्ति के लिए करें ।।

।। मां काली पञ्च बाण ।।


इस साबर मंत्र का प्रयोग नवरात्रि से शुरू कर सकते हैं।

आज के इस युग में प्रत्येक व्यक्ति अच्छे रोजगार की प्राप्ति में लगा हुआ है पर बहुत प्रयत्न करने पर भी अच्छी नौकरी नहीं मिलती है ! रोजगार सम्बन्धी किसी भी समस्या के समाधान के लिए इस मन्त्र का प्रतिदिन 11बार सुबह और 11बार शाम को जप करे !

प्रथम वाण—-

ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ब्याली
चार वीर भैरों चौरासी
बीततो पुजू पान ऐ मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !

द्वितीय वाण ——-

ॐ काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ज्वाला वीर वीर
भैरू चौरासी बता तो पुजू
पान मिठाई !

तृतीय वाण ———

ॐ काली कंकाली महाकाली
सकल सुंदरी जीहा बहालो
चार वीर भैरव चौरासी
तदा तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !

चतुर्थ वाण ———

ॐ काली कंकाली महाकाली
सर्व सुंदरी जिए बहाली
चार वीर भैरू चौरासी
तण तो पुजू पान मिठाई
अब राज बोलो
काली की दुहाई !

पंचम वाण ———

ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मख सुन्दर जिए काली
चार वीर भैरू चौरासी
तब राज तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दोहाई !

 विधि 

इस मन्त्र को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है ! यह मन्त्र स्वयं सिद्ध है। केवल माँ काली के सामने अगरबती जलाकर 11 बार सुबह और 11 बार शाम को जप कर ले ! मन्त्र एक दम शुद्ध है। भाषा के नाम पर हेर फेर न करे !शाबर मन्त्र जैसे लिखे हो वैसे ही पढने पर फल देते है। शुद्ध करने पर निष्फल हो जाते है !

मां महिषासुरमर्दिनी स्रोत ।।

       ॥जय मां दुर्गा॥


अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥

नज़र लगने से बचने के लिए पहले से कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं ताकि बुरी नज़र का असर ही न हो।

1. नियमित पूजा और प्रार्थना: हर रोज़ सुबह और शाम पूजा करना, दीपक जलाना, और घर में सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह नकारात्मक शक्तियों से बचाने में सहायक हो सकता है।

2. घर में नमक और कपूर का प्रयोग: सप्ताह में एक बार घर में नमक और कपूर जलाने से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। साथ ही, नमक के पानी से पोछा लगाने से भी घर की नकारात्मक ऊर्जा कम होती है।

3. काले धागे या तावीज़ का प्रयोग: बच्चों या बड़ों को नज़र से बचाने के लिए लोग काले धागे या काले मनके पहनाते हैं। यह एक लोकप्रिय उपाय है, खासकर जब लोग किसी विशेष अवसर या कार्य के लिए जा रहे हों।

4. लाल धागा या रक्षासूत्र: मंदिर से अभिमंत्रित किया हुआ लाल धागा पहनने से भी लोग बुरी नज़र से सुरक्षित रहते हैं। इसे दाहिने हाथ की कलाई या गले में बांधा जाता है।

5. घर के मुख्य दरवाजे पर काला टीका: घर के मुख्य द्वार पर काला टीका लगाना या नज़र बट्टू लटकाना एक सामान्य तरीका है जिससे बुरी नज़र से बचा जा सकता है।

6. सकारात्मक सोच और आत्म-रक्षा: अपने मन में हमेशा सकारात्मक विचार रखना और किसी भी प्रकार की नकारात्मकता से दूर रहना एक अच्छी आदत मानी जाती है। इससे आप मानसिक रूप से मज़बूत रहते हैं और नकारात्मक शक्तियाँ कमज़ोर होती हैं।

7. दुर्गा सप्तशती या हनुमान चालीसा का पाठ: नियमित रूप से हनुमान चालीसा या दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से नकारात्मक ऊर्जा दूर रहती है और आप बुरी नज़र से बचे रहते हैं।

8. लाल मिर्च और नमक का पाउच: कुछ लोग लाल मिर्च और नमक को एक कपड़े में बांधकर अपनी जेब में या घर के कोने में रखते हैं, जिससे बुरी नज़र न लगे।

इन उपायों को अपनाकर आप नज़र लगने से बच सकते हैं। ये सब आपकी आस्था और विश्वास पर निर्भर करते हैं, और ये प्राचीन भारतीय परंपराओं में बहुत लोकप्रिय हैं।

सनातन संस्कृति के आश्चर्यों में से एक रहस्य -

🔺अग्नि के सर्वप्रथम आविष्कारक !

🔺वैदिक संस्कृति में अग्नि यज्ञों के प्रचलन कर्ता!
🔺 समुद्रों से प्राप्त पेट्रोल, गैस, केरोसिन के वैदिक खोजी !


     विश्व के प्रथम वैज्ञानिक- अथर्वा ऋषि
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आधुनिक काल में सबसे उच्च विश्वस्त विज्ञान विधा मानी जाती है तथा उनके शोधकर्ताओं को वैज्ञानिक शब्दों से विभूषित किया जाता है, आज के अंग्रेजी भाषी वैज्ञानिकों की लंबी रेखा के बीच भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति के एक वैदिक ऋषि पुरुष को विश्व का प्रथम वैज्ञानिक होने का रहस्य उद्घाटन किया जा रहा है विश्व के प्रथमतम वैज्ञानिक होने के श्रेय अथर्वा ऋषि को है। महर्षि अथर्वा ने ऋषि अंगिरस के साथ मिलकर अथर्ववेद की रचना की। महर्षि अथर्व का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि कर्दम की पुत्री शांति 'चित्ति' के साथ हुआ। इस मिलाप से महानतम महर्षि दधीचि का जन्म हुआ। ऋग्वेद में अथर्वा ऋषि का उल्लेख १५ बार हुआ है। (ऋग्० १.८०.१६, १.८३.५, ९.११.२ आदि)। अथर्वा ऋषि ने अग्नि-विषयक तीन आविष्कार किए हैं। इनका साक्षात विशिष्ट प्रमाण तथा उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के श्लोकों में है।


💫 (१) अरणि वृक्ष के मंथन से अग्नि का आविष्कार (Fire with Friction) —

 संसार के सभी काम अग्नि से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से चलते हैं। यजुर्वेद का भी कथन है कि विद्वानों ने अग्नि को उपयोगिता की दृष्टि से सर्वप्रथम स्थान दिया है। ऋग्वेद ने अग्नि को ऊर्जा का सम्राट् कहा है।

(क) अयमिह प्रथमो धायि धातृ‌भिर्होता यजिष्ठः।  
(यजु० ३.१५)
(ख) त्वामग्ने मनीषिणः सम्राजम्०।   
(ऋग्० ३.१०.१)

ऋग्वेद में अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने का वर्णन है। ऋग्वेद में कहा है कि अरणि नामक वृक्ष की समिधाओं में अग्नि है। दो अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है। 

(क) अरण्योर्निहितो जातवेदाः।
(ऋग्० ३.२९.२)
(ख) नवं जनिष्टारणी।
(ऋग्०५.९.३)
(ग) अग्निं मन्थाम पूर्वथा।
(ऋग्० ३.२९.१)

अथर्वा ऋषि ने सर्वप्रथम अरणि नामक वृक्ष की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि का अविष्कार किया ऋग्वेद और यजुर्वेद में इसका विस्तृत उल्लेख है। यजुर्वेद का कथन है कि अथर्वा ऋषि ने मन्थन (घर्षण, Friction) के द्वारा अग्नि उत्पन्न की। यज्ञ में इस अग्नि का प्रयोग सर्वप्रथम अथर्वा के पुत्र दधीचि ऋषि ने किया ।

(क) अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्यद् अग्ने। 
(यजु० ११.३२)
(ख) तमु त्वा दध्यङ् ऋषिः पुत्र ईधे अथर्वणः।
(यजु० ११.३३)

💫 (२) जल के मन्थन से अग्नि (Hydroelectric, Hydel) —

महान दधीचि पितृ अथर्वा ऋषि का द्वितीय अविष्कार है जलीय विद्युत् । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि अथर्वा ऋषि ने तालाब के जल से मन्थन (Friction) के द्वारा जलीय विद्युत् (Hydel) का आविष्कार किया था । 

त्वामग्ने पुष्करादधि-अथर्वा निरमन्बत। 
(ऋग्० ६.१६.१३ । यजु० ११.३२ । साम० ९। तैत्ति० ३.५.११.३)

💫 (३) भूगर्भीय अग्नि (पुरीष्य अग्नि, Oil and Natural Gas) —

भूगर्भीय अग्नि (Gas) का पता चलाना और उसे उत्खनन द्वारा निकालना, अथर्वा ऋषि का तृतीय अविष्कार है। इसका विस्तृत वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। ऋग्वेद आदि में 'पुरीष्यासो अग्नयः' शब्द का प्रयोग है। साथ ही इसे पृथ्वी एवं समुद्र से खोदकर निकालने का उल्लेख है। भूगर्भीय अग्नि का बहुवचन में उल्लेख सिद्ध करता है कि पुरीष्य अग्नि शब्द के द्वारा भूगर्भीय प्रज्वलनशील सभी पदार्थों, पेट्रोल, गैस, किरोसिन तेल (मिट्टी का तेल) आदि का ग्रहण है। यजुर्वेद में मंत्रों (यजु० ११.२८ से ३२) में इसकी उच्च प्रज्वलनशीलता का विस्तृत वर्णन है। 

(क) पुरीष्योऽसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने। 
(यजु०११.३२)
(ख) पृथिव्याः सधस्थाद् अग्निं पुरीष्यम्.. खनामः।
(यजु०११.२८)
(ग) अपां पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रम् अभितः पिन्वमानम्। 
(यजु०११.२९)
(घ) अग्निमन्तर्भरिष्यन्ती ज्योतिष्मन्तम् अजस्रमित् ।
(यजु०११.३१)
(ङ) पुरीष्यासो अग्नयः । 
(ऋग्० ३.२२.४, यजु० १२.५०, तैति० ४.२४३)

यजुर्वेद के मंत्र में 'योनिरग्नेः' से स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नि के कारण अत्यन्त प्रज्वलनशील पदार्थ हैं। 'समुद्रम् अभितः' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नियाँ (गैस, पेट्रोल आदि) समुद्रों के बहुत विस्तृत भाग में फैली हुई हैं।

यजुर्वेद में 'पुरीष्योऽसि विश्वभरा' के द्वारा उल्लेख है कि भूगर्भीय पेट्रोल, गैस आदि विश्व के लिए अत्यन्त उपयोगी है और ये संसार का पालन-पोषण करते हैं। 


।। मंत्र पुष्पांजलि ।।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तनि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा: ॥

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने।
नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे।
स मस कामान् काम कामाय मह्यं।
कामेश्र्वरो वैश्रवणो ददातु कुबेराय वैश्रवणाय।
महाराजाय नम: ।

ॐ स्वस्ति, साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं
वैराज्यं पारमेष्ट्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं ।
समन्तपर्यायीस्यात् सार्वभौमः सार्वायुषः आन्तादापरार्धात् ।
पृथीव्यै समुद्रपर्यंताया एकरा‌ळ इति ॥

ॐ तदप्येषः श्लोकोभिगीतो।
मरुतः परिवेष्टारो मरुतस्यावसन् गृहे।
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद इति ॥

        ॥ मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ॥

अन्तःचेतना में एक से एक विभूतियाँ प्रसुप्त, अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इनके जागने पर मानवीय सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होती है। आत्म सत्ता के पाँच कलेवरों के रूप में पंचकोश को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। पंचकोश का विवरण एवं उनकी शक्ति इस प्रकार हैं-

1.अन्नमय  कोश– प्रत्यक्ष शरीर, जीवन शरीर। अन्नमयकोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आँखों से  देखा और हाथों से छुआ जा सकता है। अन्नमयकोश के दो भाग किये जा सकते हैं। एक प्रत्यक्ष अर्थात् स्थूल, दूसरा परोक्ष अर्थात सूक्ष्म, दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है। पंचकोश की ध्यान धारणा में जिस अन्नमयकोश का उल्लेख किया गया है, वह सूक्ष्म है, उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमयकोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है। योगी लोगों का आहार- विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोगी और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण  उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही है। अन्नमय कोश की साधना जीवन शरीर को जाग्रत, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत रखने की विधि व्यवस्था है। जीवन-शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। जीवन शरीर को जीवित रखने वाली ऊष्मा और रक्त की गर्मी रोगों से लड़ती है, उत्साह  स्फूर्ति प्रदान करती है, यही ओजस् है।

2.प्राणमय  कोश– जीवनी शक्ति।
जीवित मनुष्य  में आँका जाने वाला विद्युत् प्रवाह, तेजोवलय एवं शरीर के अन्दर एवं बाह्य क्षेत्र में फैली हुई जैव विद्युत् की परिधि को प्राणमय कोश कहते हैं। शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता प्राण विद्युत के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है। चेहरे पर चमक, आँखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस एवं प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत् प्रवाह  का उपयुक्त मात्रा में होना है। इसे ही प्रतिभा अथवा तेजस् कहते हैं। शरीर के इर्दगिर्द फैला हुआ विद्युत् प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। यही प्राण विश्वप्राण  के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसे पात्रता  के अनुरूप जितना अभीष्ट है, प्राप्त कर सकते  हैं।

3.मनोमय  कोश– विचार बुद्धि, विवेकशीलता। 
मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। इसमें मन, बुद्धि और  चित्त तीनों का संगम है। मन कल्पना करता है। बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुँचाती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं, जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का  मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है। मनोमय कोश का प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र जिसे तृतीय नेत्र अथवा  दूरदर्शिता कह सकते हैं, इसका जागरण एवं  उन्मूलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का  उद्देश्य है। आज्ञाचक्र की संगति शरीर शास्त्री पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ करते  हैं।

4.विज्ञानमय  कोश – भाव प्रवाह।
विज्ञानमय कोश चेतना की तरह है जिसे अतीन्द्रिय-क्षमता एवं भाव  संवेदना के रूप में जाना जाता है। विज्ञानमय और आनन्दमय कोश का सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से ब्रह्मचेतना से है। सहानुभूति की संवेदना, सहृदयता और सज्जनता का सम्बन्ध हृदय से है। यही हृदय एवं भाव संस्थान अध्यात्म शास्त्र में विज्ञानमय कोश कहलाता है। परिष्कृत हृदय-चक्र में उत्पन्न चुम्बकत्व ही दैवी तत्त्वों को सूक्ष्म जगत् से आकर्षित करता और आत्मसत्ता में भर लेने की प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है। श्रद्धा जितनी  परिपक्व  होगी-दिव्य लोक  से अनुपम वरदान खिंचते चले आएँगे। अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म जगत् से अपने प्रभाव-पराक्रम पुरुषार्थ द्वारा अवतरित होता है।

5.आनन्दमय  कोश– आनन्दमय कोश चेतना का  वह स्तर है, जिनमें उसे अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती रहती है। आत्मबोध के दो पक्ष हैं- पहला अपनी ब्राह्मी चेतना, बह्म सत्ता का भान होने से आत्मसत्ता में संव्याप्त परमात्मा का दर्शन होता है। दूसरा संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धों का तत्त्वज्ञान भी हो जाता है। इस कोश के परिष्कृत होने पर एक आनन्द भरी मस्ती छाई रहती है। ईश्वर इच्छा मानकर प्रखर कर्त्तव्य-परायण; किन्तु नितान्त वैरागी की तरह काम करते हैं। स्थितप्रज्ञ की स्थिति आ जाती है। आनन्दमय कोश के जागरण से व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन आरम्भ होते हैं, जिसके सहारे क्रमिक गति  से बढ़ते हुए धरती पर रहने वाले देवता के रूप में आदर्श जीवनयापन कर सकने का सौभाग्य मिलता है। स्थितप्रज्ञता इसी कोश से प्राप्त होती है।

वास्तव में इन पांच कोशों को दिव्य शक्तियों के खजाने कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ध्यान धारणा के अभ्यास से इन कोषों को जाग्रत कर मानव से महामानव की श्रेणी में पहुंचा जा सकता है।

ब्रम्हचर्य औषधि समाधान ।।

🥗🥗बर्तन का महत्व🥗🥗

🥗एल्युमिनियम और स्टील के बर्तन दोनो ही जहर है।।।

🥗ऐसा भोजन कभी ना खाएं जो सूर्य के प्रकाश और वायु के सम्पर्क में ना बनाया गया हो , जैसे कुकर,माइक्रोवेव ओवन,फ्रिज आदि में पका हुआ रखा हुआ चावल , दाल, आलू आदि ।।।

🥗एल्युमिनियम के बर्तन जेल में बन्द भारत के क्रांतिकारी के लिए अंग्रेजो ने चलवाये जिससे ये कमजोर हो एव बीमार रहे और स्वत् ही मृत्यु को प्राप्त हो

🥗एल्युमिनयम बहुत भारी तत्व है, हमारा शरीर यह पदार्थ शरीर से बाहर नही निकाल पाता है, और विष के रूप में शरीर मे एकत्रित होता रहता है

🥗एल्युमिनियम के बर्तन में पका हुआ एव रखा हुआ भोजन जहर के समान ही है, कुल 48 बीमारियों का कारण है

🥗एल्युमिनियम के बर्तनों में पके भोजन से अस्थमा ,दमा, शुगर,थाइराइड, लकवा, ब्रेनहेमरेज और टीबी 100% हो जाएगा मात्र 10 वर्ष में

🥗सोलर कुकर में भी आजकल एल्युमिनियम का प्रयोग कर रहे है, वह भी बहुत हानिकारक है

🥗कुछ बदलाव घर के बर्तनों में कीजिये, सबसे अच्छे तो मिट्टी के है, सभी बर्तन मिट्टी के हो तो सबसे अच्छा।।

🥗कम से कम लोहे की एक कढ़ाई अवश्य हो,जिसमें सब्जी पकाई जाए

🥗दूध,दही आदि रखने के लिए मिट्टी के बर्तन हो

🥗दूध गर्म करने के लिए भी मिट्टी के बर्तन ही हो

🥗दाले आदि पकाने के बाद मिट्टी के बर्तन में ही रखें तो सबसे बेहतर

🥗सब्जी पकाने और पकाकर रखने के लिये कांसे के बर्तन भी अच्छे है एक दो बर्तन पतीला आदि लेकर रखें

🥗कांसे में खट्टी चीजे या खट्टी सब्जियां न पकाये न
और ना ही पकाकर रखे

🥗घर मे सभी सदस्यो के अनुसार ताँबे का लोटा रखें,जिससे समय समय पर ताँबे का पानी पीते रहे

🥗ताँबे के लोटे में दूध या इससे बना कुछ भी न पिएं

🥗सब्जी बनाने और बनाकर रखने के लिए पतीला, भगोना आदि पीतल के भी एक दो बर्तन लाये

🥗खांना खाने के लिए भी पीतल के कटोरी, चम्मच, थाली आदि लाये..... यदि घर मे 6 सदस्य है तो कम से कम....4 थाली कटोरी चम्मच गिलास आदि तो पीतल का ला ही सकते है

🥗सोना-
सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने, रखने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।
इसका इस्तेमाल सर्दी के मौसम में करे

🥗चाँदी-
चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।
इसका इस्तेमाल गर्मी के मौसम में करे

🥗तांबा-
तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है.

🥗तांबे के बर्तन में दूध,दही, छाछ नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।
इसका इस्तेमाल बारिश के मौसम में करे

🥗लोहा-
लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से शरीर की शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है।

✔लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।
🥗लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। 
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते ह

🥗पीतल-
पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल 7 प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है

🥗स्टील-
ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा भी नहीं पहुँचता
इसका इस्तेमाल न करें तो बेहतर अगर करे तो भी कोई फायदा नही।

🥗एलुमिनियम-
यह जहर है। एल्युमिनियम बॉक्साइट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम में खांना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।
इसका इस्तेमाल कभी न करें

🥗काँसा-
काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल 3 प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
🥗लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है, यह मिट्टी के बाद सर्वश्रेष्ट धातु है

🥗🥗🥗मिट्टी-
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त है मिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे 100 प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।
इसका उपयोग जीवन भर किसी भी मौसम में कर सकते है, यह एकलौता सर्वोत्तम धातु है

🥗मिट्टी के बर्तन में पके भोजन के लाभ:-

🥗गठिया ठीक
🥗शुगर ठीक
🥗दमा ठीक
🥗अर्थराइटिस ठीक
🥗आंखे कभी खराब नहीं होगी
🥗सरदर्द कभी नही
🥗फेफड़े, लीवर, किडनी कभी खराब नहीं
🥗कोई रोग कभी नही आएगा, यदि रोग है तो खुद ठीक हो जाएगा बिना किसी दवा के।

🥗कैंसर कभी नही हो सकता

🥗शरीर को सभी 18 पोषक तत्व मिलते है

🥗मिट्टी की हांडी की दाल,दूध, पानी, सब्जी, चावल, रोटी आदि के लिए बर्तन अवश्य लाये, यदि सभी बर्तन नही ला सकते तो।।।

आपके पैरों के आकार प्रकार आपके लिए शुभ है या अशुभ ??

➤ जानिए आपके आपके पैरों का संपूर्ण शास्त्रीय फलादेश !!

✧ मनुष्य के पैर - संपूर्ण लक्षण विचार ✧
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✧ पैर (चरण) --

प्राचीन शास्त्रकारों ने पैर के २० भेद बताए है, परन्तु उन सबको निम्नलिखित ४ श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -

(१) सर्वोत्तम 
(२) उत्तम 
(३) मध्यम 
(४) अधम 
(५) निकृष्ट 

(१) सर्वोत्तम --
इस श्रेणी के पैर वे होते हैं, जिनका रंग कमल के समान लाल होता है, तलवे कोमल होते हैं, नाबूनों का रंग तांबे के समान रक्‍ताभ होता है, उंगलियां परस्पर सटी हुई होती है तथा उनका ऊपरी भाग कछुए की पीठ की भांति उन्नत होता है, जिस पर नसें दिखाई नहीं देती। ऐसे पैरों के तलवों में पसीना नहीं आता, ग्रुल्फ छिपे रहते है, एड़ियां सुन्दर होती है तथा ऊपरी भाग में उष्णता बनी रहती है। ऐसे पैर वाले व्यवित राजा-महाराजा, विपुल ऐश्वर्यवान, धनवान गुणवानरु, यशस्वी, सौभाग्यशाली, दीर्घायु तथा सुखी जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष होते है। इसकी सभी आकांक्षाएं पूर्ण होती रहती हैं ।

(२) उत्तम --
इस श्रेणी के पैर सर्वोत्तम कोटि से कुछ ही कम होते हैं। इनकी उंगलियां लम्बी तथा परस्पर मिली हुई, नाखून सामान्यतः लम्बे तथा त्वचा स्पर्श में कोमल होती है। शेष सभी गुण पूर्वोक्त प्रकार के ही समझने चाहिए। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति नीतिज्ञ, कार्यकुशल, तीक्ष्ण बुद्धि, अच्छी सलाह देने वाले, साहित्य-प्रेमी, यशस्वी, धनी, यात्राप्रिय, तथा सर्वत्र सम्मान एवं सुख प्राप्त करने वाले होते हैं ।

(३) मध्यम --
इस श्रेणी के पैरों के तलवे कोमल तथा गेहूए रंग के, नाखून सर्पाकार तथा हल्के गुलावी गेरुआ अथवा पीले रंग के होते हैं । उन पर नसे सामान्य रूप से उभरी होती है तथा उगलियों पर बहुत ही सामान्य बाल होते है ।
ऐसे पैरों वाले व्यक्ति परिश्रमो, व्यवहार-कुशल, निर्भीक, दूरदर्शी, विद्वान, गणित अथवा विज्ञान में रुचि रखने वाले, साहित्यिक, पारिवारिक-चिन्ताग्रों से ग्रस्त तथा एक सीमित-क्षेत्र में यश-सम्मान प्राप्त करने वाले होते हैं । उंगलियां कुछ मिली तथा कुछ छितरी हुईं होती हैं |

(४) अधम--
इस श्रेणी के पैरों के तलवे कुछ-कुछ भूरापन लिए हुए श्वेत रंग के होते है, त्वचा स्पर्श मे कठोर, रूखी, तथा ठण्डी होती है । इनके भाग पर पसीना आता है। उंगलियां चौड़ी होती है और उनके ऊपर बाल जमे रहते है। नाखून चपटे, लम्बे अथवा अधिक चौड़े होते हैं । गुल्फ वाहर की ओर निकला रहता है । नाखूनों का रंग पीला अथवा सफेद होता है। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति अपने कुल के अ्भिमान में डूबे रहने वाले, विद्याओं के विशेष-प्रेमी, परिश्रम द्वारा भाग्योन्नति की इच्छा रखने वाले, कामुक-प्रवृति के तथा दरिद्री होते है ।

(५) निकृष्ट --
इस श्रेणी के पैरों के तलवों का रंग मिट्टी जैसे रंग का होता है। एड़ी मोटी तथा स्थान-स्थान पर फटी हुई, त्वचा स्पर्श में कठोर, ऊपरी भाग पर नसें उभरी हुई । उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी तथा उनके ऊपर अधिक बाल जमे हुए, गुल्फ बाहर की ओर काफी निकले का नाखून छोटे, चपटे और कालापन अथवा नीलापन लिए हुए रहते हैं। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति दरिद्री, बीमारियों से ग्रस्त रहने वाले, दासवृत्ति के, लम्बे समय तक अपने घर से दूर रहने वाले, मिथ्याभिमानी, क्रोधी, निश्चिन्त, गंवार, मूर्ख तथा कुसंगति मे रहने वाले होते है ।

स्कन्द पुराण में लिखा है --

“पादौ समांसलौ रक्तौ समौ सूत्मों सुशोमनौ। 
समगुल्फौ स्वेदहीनौ स्निग्ध वैश्वर्य सूचकौ।”

अर्थात मांसल, रकताभ, सुन्दर, समान ग्रुल्फ वाले, स्वेद-हीन, स्निग्ध तथा छोटे पैर ऐश्वर्य के सूचक होते है।

परन्तु अन्य ग्रन्थ में लिखा है --

“विशाल चरणों धनी”

अर्थात बड़े पैरोंवाला व्यक्ति धनी होता है। 
अधिकांश विद्वानों के मत से पैर का छोटा होना शुभ लक्षण नहीं है। अब यहां पर विचार करने की बात यह रह जाती है कि पैर छोटा या बड़ा इसका निश्चय कैसे किया जाए ? 

शरीर के अनुपात से पैर का छोटा-बड़ा आकार ज्ञात करने का तरीका शास्त्रकारों ने यह बताया है -

"आपार्ष्णि ज्येष्ठान्तं तल्लमत्र चतुर्दशांगुलायाम। 
विस्तारेण षङ्गगुल मंगुष्ठो व्यङ्गुलायामः॥
पञचांगुल परिणाहः पादोनं तन्‍न खोऽङ्गुलं दैध् र्यात । 
अङ्गुष्ठ समा ज्येष्ठा मध्या तत्षोडशांशोना ॥
अष्ठांशोनानामा कनिष्ठिका पष्ठभाग परिहीना। 
सर्वासाप्याप्तां नखा: स्वपर्व त्रिभाग मिताः ॥ 
सत्र्यंगुलि परिणाहा प्रथमाङ्गगुली विस्तृताङ्गगलौ भवति। 
अप्टाष्ट भागहीनाः शेषा: क्रमशः परिज्ञेया:॥”

भावार्थ-- पैर की एड़ी से पैर की तर्जनी उंगली तक पैर की लम्बाई चौदह उंगल होनी चाहिए। लम्बाई के अंगुल का परिमाण यह है कि जिस व्यक्ति का पैर हो, उसी के हाथ की मध्यमा उंगली के द्वितीय अर्थात्‌ बीच वाले पर्व की जितनी चौड़ाई हो, उसे एक अंगुल के बराबर मानना चाहिए। इसी अनुपात से पैर की चौड़ाई ६ अंगुल, पैर के अंगूठे की लम्बाई

२ अंगुल, पैर के अंगूठे का परिणाह ( अर्थात्‌ यदि धागे को अंगुठे के चारो ओर लपेटा जाए तो उस धागे की लम्बाई) ४ अंगुल होनी चाहिए। इससे अधिक लम्बा तथा मोटा पांव सामान्य से अधिक बड़ा समझना चाहिए और इससे छोटा तथा पतला पैर सामान्य से “कम लम्बा' समझना चाहिए।

पैर की प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली की लम्बाई पैर के अंगूठे के बराबर होनी चाहिए । मध्यमा अंगुली की लम्बाई तर्जनी अंगुली से सोलहवां भाग कम, अनामिका की लम्बाई मध्यमा से आठवां भाग कम तथा कनिष्ठक़ा की लम्बाई मध्यमा से छठा भाग कम होनी चाहिए। अर्थात्‌ अंगूठे और तर्जनी की लम्बाई तो बराबर की हो उसके बाद क्रमशः सभी उंगलियां एक दूसरी से कम लम्बी रहनी चाहिए। इन सभी उंगलियों के नाखून, पैर की ऊंगली के पर्व की लम्बाई से एक तिहाई लम्बे होने चाहिए। प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली की मोटाई का परिणाह तीन अंगुल का होना चाहिए। प्रदेशिनी उंगली जितनी मोटी हो, मध्यमा उंगली उससे आठवां भाग कम मोटी, मध्यमा की मोटाई से अनामिका उंगली आठवां भाग कम मोटी तथा अनामिका की मोटाई से कनिष्ठा उंगली की मोटाई का आठवां भाग कम होनी चाहिए ।

इस प्रकार पैर की न्यूनाधिक लम्बाई का आनुपातिक परिमाण ज्ञात कर लेने के वाद उसके प्रभाव के सम्बन्ध में विचार करना उचित रहता है ।

✧ पैर का अंगूठा --

पैर के अंगूठे के सम्बन्ध में 'सामुद्र तिलक' में लिखा है-

“ वृत्तो भुजग फणाकृति स्तुंगों मांसल शुभोङ्खुष्टः। सशिरो हस्वाश्चिपिटो वक्रो विपुलः स पुनर शुभ:॥” 

भावार्थ- 'पांव का अंगूठा यदि सर्प के फण के समान गोल ग्राकृति वाला, उन्नत तथा मांसल हो तो उसे शुभ समझना चाहिए। यदि अंगूठे पर नसे दिखाई देती हों, वह बहुत छोटा या बहुत बड़ा, टेढ़ा अथवा चिपटा हो तो उसे अशुभ जानना चाहिए।” 

पांव के अंगूठे के विषय में अन्यत्र इस प्रकार कहा गया है-

“वृत्तेस्ताम्रनखै रक्‍तै रंगुष्ठै राज्यभागिनः।
अङ्गुष्ठा प्रथुला ये षां ते नारा भाग्यवर्जिताः॥ 
क्लिश्यन्ते विकृताङ्गुष्ठास्ते नरा वन गामिनः । 
चिपिटैर्वित्ततैर्भग्नेरङ्गुष्ठे: रतिनिन्दिता:॥ 
वक्रै: रुत्तैस्तथा हृस्वैरङ्गुष्ठै: कलेश भागिनः॥” 

भावार्थ-- पांव का अंगूठा यदि गोल, ताम्रवर्ण नल वाला तथा लालिमा लिए हुए हो तो ऐसे व्यक्ति राज्यधिकार (ऐश्वर्य) प्राप्त करते है। जिन लोगों के पांव का अंगूठा बड़ा होता है, वे भाग्यहीन होते हैं । टेढ़े-मेढ़े अंगूठे वाले व्यक्ति जंगलों में (इधर-उधर) भटक ने वाले तथा कष्ट पाने वाले होते है। चपठे, कठे-फटे तथा टूटे हुए अंगूठे वाले व्यक्ति रति-निन्दित होते हैं तथा टेढ़े, रुखे और अधिक छोटे अंगूठे वाले व्यक्ति क्लेश उठाते है।

✧ पैरों की उंगलियां --

पुरुषों के पैरों की अंगुलियो के सम्बन्ध में शास्त्रकारो ने लिखा है-

“ प्रदेशिनी यदा दीर्घा अंगुष्ठं च व्यति क्रयेतू। 
स्‍त्री भोगंलभते नित्यं पुरुषो नात्र संशयः॥ 
मध्यमा यांतु दीर्घावां भार्याहानिर्विनिर्दिशेत्। 
अनामिकातु दीर्घायां विद्याभोगी भवेन्नरः:॥ 
सच हृस्वाभवेद्यस्य तत्वेद्या परदारगं। 
यस्‍य प्रदेशिनी स्थूला भर्तिश्चेव कनिष्ठिका॥ 
हृस्वा क्लेशाप भोगायां गुल्ठादीर्घा प्रदेशिनी:। 
समातुमध्यमा श्रेष्ठा श्रिये दीर्घा कनिष्ठिका। 
आयतयामध्यमया कार्यविनाशो हृस्वया दुखं। 
धनया समया पृत्रोत्पत्ति स्तोकं नृणामायु:।  
असंहताभिहृस्वासि रंगुलीभिस्तु मानवः। 
दासोवादासकर्मोवा समुद्र वचन यथा॥ 
अंगुल्यपि समादीर्घा संहृता श्चसमुन्नता। 
तेपां प्रदत्तिणावर्ता प्रथिव्यास्तेन संशयः॥
दीर्घा कनिष्ठिका पिस्याद्यस्य स्वर्णभाज नं सनरः।
यदि सापिपुनर्लध्वी परदारापरायण: सततम्‌॥ ”

भावार्थ-- यदि पैर की तर्जनी उंगली अंगूठे से आगे निकली हुई (लम्बी) हो तो जातक को स्त्री-भोग का सुख नित्य प्राप्त होता है। यदि यह तर्जनी उंगली छोटी हो तो क्लेशकारक होती है। यदि अंगूठे के बराबर की हो तो मध्यम फल समझना चाहिए। अंगूठे से बड़ी तर्जनी उंगली शुभ फल देने वाली समझनी चाहिए।
यदि मध्यमा उंगली अगूठे से बड़ी हो तो जातक की पत्नी की हानि (मृत्यु) होती है । यदि तर्जनी के बराबर लम्बी हो तो श्रेष्ठ फल देने वाली कही गई है। (अधिक मोटी हो तो फल अशुभ होता है)। यदि अनामिक़ा उंगली लम्बी हो तो पुरुष विद्यानुरागी होता है। यदि छोटी हो तो पर- स्त्री गामी होता है। (इसकी लम्बाई का विचार मध्यमा उंगली की लम्बाई से करना चाहिए)।यदि तर्जनी उंगली स्थल तथा कनिष्ठा उंगली लम्बी हो तो जातक सुखी और धनी होता है। यदि कनिष्ठा उंगली छोटी हो तो पर-स्त्री-गामी होता है। यदि कनिष्ठा उंगली छोटी तथा लट्टू के समान मोटी हो तो जातक को बाल्यावस्था में ही मातृ-वियोग का दुःख उठाना पड़ता है। यदि मध्यमा उंगली अत्याधिक लम्बी हो तो अपयश प्राप्त होता है। यदि अधिक छोटी हो तो जातक दु:खी रहता है । यदि अन्य उंगलियों के समान ही लम्बी हो तथा सभी उंगलियां परस्पर मिलो हुई हों तो जातक पुत्रोत्पत्ति की क्षमता से युक्त, परन्तु अल्पायु होता है।

यदि पैर की सभी उंगलियां छोटी-छोटी और फैली हुई हों तो जातक दास अथवा दास प्रवृत्ति जैसा काम करने वाला होता है। यदि सब उंगलियां समान आनुपातिक लम्बाई, पुष्ट, ऊंची उठी हुई तथा एक दूसरी से मिली हुई हों तो उन्हें शुभ फलदायक समझना चाहिए।

पैरों की उंगलियों के सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के मत का सार संक्षेप यह है -

(१) यदि पैरों की उंगलियां समात आनुपातिक लम्बाई की हों, कुछ दाई ओर को झुकी हुई हों, कोमल, उन्नत, अग्रभाग पर गोल, चिकनी, चमकदार तथा परस्पर मिली हुई हों तो ऐसा जातक अत्यन्त ऐशर्यशाली, उच्च-पदाधिकारी तथा यशस्वी होता है ।

(२) यदि मध्यमा उंगली अनामिका उंगली से छोटी हो तो स्त्री हानि होती है।

(३) यदि अनामिका उंगली मध्यमा से बड़ी हो तो जातक को स्वर्ण का लाभ होता है ।

✧ पैरों की उंगलियों के नाखून --

(१) यदि पैरों की उंगलियों के नाखून लाल रंग के, शंख की भाँति घुमाव वाले तथा चमकदार हों तो ऐसे जातक उच्च पद प्राप्त करते हैं ।

(२) यदि पैरों के नाखून चिकने तथा श्वेत-बिन्दु-चिन्ह से युक्त हों तो जातक सौभाग्यशाली होता है | उंगलियों के नाखूनों पर श्वेतविन्दु-चिन्हों के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत है। कुछ लोग इन्हे शुभ तथा कुछ लोग अशुभ मानते हैं ।

(३) कुछ विद्वानों के मतानुसार यदि दाएं पैर के नाखूनो में सफेद, पीले, काले अथवा लाल रग के बिन्दु-चिन्ह हों तो उन्हे “उत्पात जनक' समझना चाहिए । यदि दाएं पैर के अंगुठे के नख में ऐसे चिन्ह हों तो जातक के धन का विनाश होता है तथा उसे अपयश प्राप्त होता है। यदि तर्जनी उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हों तो जातक का किसी से झगड़ा होता है। यदि मध्यमा उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हो तो वे जातक के लिए चिन्ता एवं उद्वेगजनक होते हैं। यदि अनामिका उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हों तो ये जातक के लिए शुभ होते है। यदि कनिष्ठा उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हो तो नवीन सन्तान का जन्म होता है अथवा पुत्र को धन-लाभ होता है। बाएं पैर के नाखूनों में इसका उल्टा फल समझना चाहिए ।

✧ पैर का ऊपरी भाग --

पैर का ऊपरी भाग मांसल, उन्नत तथा कोमल हो तो उसे शुभ समझना चाहिए। यदि इस भाग पर नसे दिखाई देती हों, पसीना आता हो अथवा बाल (केश) हों तो उसे अशुभ लक्षण समझना चाहिए ।

✧ गुल्फ (टखने) --

पैर के टखने मांस से ढके हुए हों तो उन्हे शुभ समझना चाहिए। टखनों का टेढ़ा होना अशुभ होता है। शुकर को गुल्फ जैसे गुल्फ वाले व्यक्ति कष्ट उठाते है। तथा भैसे के टखनों की भांति टखने वाले व्यक्ति पापो तथा दु:खी होते है| यदि गुल्फों पर रोम हों तो संन्तान का अभाव होता है अथवा पुत्र-सुख कम प्राप्त होता है।

✧ एड़ी --

यदि एड़ी बड़ी हो तो जातक दीर्घायु होता है। पैर के अनुपात के बराबर हो तो कभी दु.खी और कभी सुखी रहता है। यदि एड़ी छोटी हो तो जातक दरिद्र होता है और यदि एड़ी उठी हुई हो तो शत्रुओ पर विजय पाता है। एड़ी गुदगदी हो तो उत्तम होतो है और कड़ी हो तो सन्‍तान-सुख में कमी रहती है।

✧ पिडली, जाँघ और टांग --

(१) यदि पांव को पिंडलियां गोल, गुदगुदी तथा रोमरहित हो तो उन्हे शुभ अथवा विपरीत हो तो अशुभ समझना चाहिए ।

(२) गोल, छोटी, गुदगुदी तथा हाथी की सुड की भाँति ढलवां जांघों वाला व्यक्ति भाग्यशाली होता है। पतली जांघो वाले मनुष्य दरिद्र होते हैं।

(३) ऊपर के घड़ से अधिक लम्बी टाँगे शुभ होती है, ऐसा व्यक्ति शीघ्रगामी होता है। यदि टांगे कम लम्बी हों तो शूरवीर होता है ।

(४) टांगों का निचला आधा भाग हिरन अथवा घोडे जैसा हो तो जातक भाग्यवान होता है ।

(५) व्याघ्र अथवा सिंह जैसी पिंडलियों वाले व्यक्ति धूर्त होते हैं ।

(६) मछली जैसी जांघ वाले व्यक्ति ऐश्वर्यवान होते हैं।

(७) सियार कुत्ता, गधा अथवा रीछ जैसी जांघो वाले व्यक्ति दुर्भाग्यशाली तथा कौए जँसी टांगी वाले दुःखी होते हैं।

(८) जांघ का अधिक बड़ा तथा मोटा होना तथा पिडलियों पर अधिक रोमो का होना दरिद्रता का लक्षण समझना चाहिए ।

(६) कमर तथा मुलायम रोमों वाली जांघें शुभ तथा सौभाग्यदायक होतो हैं । 

✧ रोमें (रोएं ) --

(१) यदि रोम-कूप से ही एक ही रोम निकले तो जातक अत्यन्त उच्च-पद प्राप्त करता है। यदि एक रोम- कूप में से दो-दो रोम निकले तो जातक परम-विद्वान्‌ तथा बुद्धिमात्‌ होता हैं। यदि एक रोम-कृप में से तीन अथवा अधिक रोम निकले तो जातक दुखी तथा दरिद्र होता है।

(२) भ्रमर के समान काले, चिकने, पतले, सुन्दर तथा मुलायम रोमों वाला व्यक्ति अत्यन्त उच्च पद प्राप्त करता है। अधिक घने रोमों वाला व्यक्ति विद्वान तथा बुद्धिमान होता है। रोम-हीन अंगों वाला व्यक्ति 'सन्‍यासी होता है । पीर्तवर्ण रोमों वाला व्यक्ति पापी होता है। मोटे तथा रूखे रोमों वाला व्यक्ति अधम होता है। यदि रोम श्रपने अग्रभाग में घिरे हुए हों तो जातक धनी होता है ।

यह फलादेश शरीरस्थ किसी भी अंग पर पाए जाने वाले रोगों के सम्बन्ध में लागू होता है। पांव के रोगों पर भी यही फल समझना चाहिए ।

✧ घुटने --

(१) जिस व्यक्ति के छुटने भीतर को धंसे हुए हों, वह अपनी स्त्री अथवा अन्य स्त्रियों के वश में रहता है तथा उसकी मृत्यु परदेश में होती है ।

(२) खुब मोटे तथा मांसल छुटनों वाला व्यक्ति ऐश्वर्यशाली, भू-स्वामी तथा दीर्घजीवी होता है।

(३) हाथी के समान घुटनों वाला व्यक्ति भोगी होता है ।

(४) घोड़े के समान घुटनों वाला व्यक्ति दुर्गति को प्राप्त होता है।

(५) तालफल जैसे घुटनों वाला व्यक्ति अत्यन्त दुःख प्राप्त करता है।

(६) टेढे-मेढे, विकराल अथवा बहुत छोटे घुटनों वाला व्यक्ति दरिद्र होता है ।

(७) ऊंचे- नीचे तथा कमजोर घुटनों वाला व्यक्ति दरिद्र होता है तथा दास-वृत्ति करता है।

(८) यदि घुटनों पर मांस एक जैसा न हो, कही कम और कहीं अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति निर्धन होता है। ऐसे घुटनो को अशुभ समझना चाहिए।

✧ अन्य बातें --

(१) यदि पुरुष के दाएं पैर के तलवे मे पसीना आता हो तो उसे अशुम तथा भयकारक समझना चाहिए । ऐसे लोगो को यात्राए करनी पड़ती हैं ।

(२) यदि पुरुप के दाए पैर के तलवे मे पसीना आता हो तो उसे अशुभ लक्षण समझना चाहिए।

(३) यदि पैर में खुजली मचे तो रोग, यात्रा अथवा धन की हानि आदि अशुभ फल होते है। पैर की खुजली का प्रभाव एक पखवाड़े (१५ दिन) के भीतर प्रकट हो जाता है ।