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शास्त्रों के अनुसार कमाई का कितना हिस्सा दान करना चाहिए और दिया दान कब नष्ट हो जाता है?

हिन्दू धर्म के साथ-साथ कई अन्य धर्मों में भी दान करने की बात कही गयी है। दान देने से आपमें विनम्रता बनी रहती है और कई तरह धार्मिक लाभ भी मिलते हैं। दान के कई प्रकार होते हैं। गीता में तीन प्रकार के दान की बात कही गई है, 
दान करना पुण्य का काम है और यह व्यक्ति के व्यक्तित्व को बेहतर बनाता है।
ऋग्वेद के अनुसार, दान करने का फल यज्ञ करने के फल के समान होता है। 
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत, जिसे 'दशांश' कहा जाता है, दान करना चाहिए ।
भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है: सात्विक, राजसिक और तामसिक।

 दान देने का मन में पश्चाताप या अश्रद्धा होने पर वह दान नष्ट हो जाता है। 

 यज्ञ करने के बाद जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल किसी को दान करने से भी मिलता है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में भी दान का विशेष महत्व बताया गया है लेकिन साथ में कुछ नियम भी बताये गए हैं। उन्हीं नियमों में इस बात की भी व्याख्या है कि आपको अपनी कमाई का कितना प्रतिशत हिस्सा जरूर दान करना चाहिए। 

 दस प्रतिशत हिस्सा जरूर दान दें 

 धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत जरूर दान करना चाहिए । इसे "दशांश" या "दशवंध" कहा जाता है। हिन्दू धर्म के अलावा यहूदी, ईसाई और इस्लामी धर्मों में भी दान देने की सलाह दी गयी है और इसे धार्मिक और नैतिक कर्तव्य माना जाता है। शास्त्रों की मानें, तो हर व्यक्ति को अपनी समर्थता और परिस्थिति के अनुसार दान करना चाहिए। यदि किसी की आय अधिक है और वह अधिक दान करने में सक्षम है, तो उसे अधिक दान करना चाहिए। दान से समाज में संतुलन और समृद्धि बनी रहती है। 

 दान देने के नियम 

भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है। पहला दान है सात्विक दान , जो बिना किसी अपेक्षा के और सही स्थान और समय पर किया जाता है। दूसरा दान है राजसिक दान, जो फल की अपेक्षा के साथ और किसी अन्य स्वार्थ के लिए किया जाता है। तीसरा है तामसिक दान , जो अनुचित स्थान, समय और व्यक्ति को किया जाता है। दान हमेशा सत्पात्र अर्थात् दान लेने हेतु योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए और ऋण लेकर कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए । दान कभी भी अपनों को दुखी या प्रताड़ित करके भी नहीं दिया जाना चाहिए। दान को लेकर यह भी कहा जाता है कि अपने संकट काल के लिए संरक्षित धन यानि सेविंग का कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए। 

 कब दिया दान नष्ट हो जाता है? 

दान देने से आपके मन के भाव में सकारात्मकता आती है। इसलिए अगर दान देने के बाद दान दाता के मन में पश्चाताप आ जाए या उसे दान देने का अफसोस हो, तो वो दान नष्ट हो जाता है। जो दान अश्रद्धापूर्वक या किसी गलत भाव के साथ दिया जाए, तो वह भी नष्ट हो जाता है। जो भयपूर्वक दिया जाता है। वह भी नष्ट हो जाता है। ऐसा दान जो स्वार्थ पूर्वक अर्थात् दान देने वाले से बदले में कुछ अपेक्षा रखकर दिया जाता है, तो वो भी नष्ट हो जाता है।

जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है जानिए...

जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
 
1. नित्य जप

प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
 
2. नैमित्तिक जप

किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।   
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
 
3. काम्य जप

किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
 
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
 
4. निषिद्ध जप

मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
 
5. प्रायश्चित जप

अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
 
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
 
6. अचल जप

यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
 
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
 
7. चल जप

यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
 
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप

जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
 
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
 
9. उपांशु उपाय

वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
 
10. भ्रमर जप

भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
 
11. मानस जप 

यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए

कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
 
12. अखंड जप 

यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
 
13. अजपा जप 

यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 
 
राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
 
14. प्रदक्षिणा जप

इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है।

महामृत्युंजय मंत्र की महिमा ।।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

देवाधिदेव महादेव ही एक मात्र ऐसे भगवान हैं, जिनकी भक्ति हर कोई करता है, चाहे वह इंसान हो, राक्षस हो, भूत-प्रेत हो अथवा देवता हो, यहां तक कि पशु-पक्षी, जलचर, नभचर, पाताललोक वासी हो अथवा बैकुण्ठवासी हो, शिव की भक्ति हर जगह हुई और जब तक दुनिया कायम है, शिव की महिमा गाई जाती रहेगी। 

शिव पुराण कथा के अनुसार शिव ही ऐसे भगवान हैं, जो शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों को मनचाहा वर दे देते हैं, वे सिर्फ अपने भक्तों का कल्याण करना चाहते हैं, वे यह नहीं देखते कि उनकी भक्ति करने वाला इंसान है, राक्षस है, भूत-प्रेत है या फिर किसी और योनि का जीव है, शिव को प्रसन्न करना सबसे आसान है। 

शिवलिंग की महिमा अपरम्पार है, शिवलिंग में मात्र जल चढ़ाकर या बेलपत्र अर्पित करके भी शिव को प्रसन्न किया जा सकता है, इसके लिए किसी विशेष पूजन विधि की आवश्यकता नहीं है, एक कथा के अनुसार वृत्तासुर के आतंक से देवता भयभीत थे, वृत्तासुर को श्राप था कि वह शिव पुत्र के हाथों ही मारा जायेगा। 

इसलिए पार्वती के साथ शिवजी का विवाह कराने के लिए सभी देवता चिंतित थे, क्योंकि भगवान शिव समाधिस्थ थे और जब तक समाधि से उठ नहीं जाते, विवाह कैसे होता? देवताओं ने विचार करके रति व कामदेव से शिव की समाधि भंग करने का निवेदन किया, कामदेव ने शिवजी को जगाया तो क्रोध में शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया, रति विलाप करने लगी तो शिव ने वरदान दिया कि द्वापर में कामदेव भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे। 

इस बात में तो सभी यकीन करते होंगे, कि वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता, पर यह सभी जानते है कि वक़्त और किस्मत पर भी विजयी हो सकते हैं, अगर आप भगवान् भोलेनाथ की असीम शक्ति में विश्वास रखते है, इसके उदाहरण स्वरुप मैं एक कथा बताना चाहूंगा।

भगवान शिव यानि देवाधिदेव महादेव को तो सब जानते हैं जो परमपिता परमेश्वर, जगत के स्वामी और सब देवो के देव है, कथा से पहले आपको यह बता दूँ की यह वह समय हैं, जब महादेव की अर्धांगिनी देवी पार्वती, बाल्यवस्था में अपनी माता मैना देवी के साथ मार्कंडय ऋषि के आश्रम में रहती थी, और पार्वती देवी एक दिन असुरो के कारण संकट में पड़ गयी और महादेव ने उनके प्राणों की रक्षा की।

मैना ने जब अपनी पुत्रि की जान पर आई आपदा के बारे में सुना तो वह अत्यंत दुखी और भयभीत हो गयी, पर ऋषि मार्कंडय ने उन्हें जब बताया कि कैसे महादेव ने देवी पार्वती की रक्षा की, पर वह तब भी संतोष न कर सकी, मैना देवी विष्णु भगवान की उपासक थी, जिस वजह से शिव की महिमा में ज़रा भी विश्वास नहीं रखती थी, शिवजी ठहरे वैरागी और श्मशान में रहने वाले तो भला वह कैसे उनकी पूजा करे। 

तत्पश्चात ऋषि मार्कंडय ने मैना को शिव भगवान की महिमा के बारे में बताने का विचार किया, और उनको यह कथा विस्तार से बताई- जब मार्कंडय ऋषि केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब उनके पिता ऋषि मृकण्डु को गुरुकूल आश्रम के गुरु से यह ज्ञात हुआ की मार्कंडय की सारी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो चुकी है और अब वह उन्हें अपने साथ ले जा सकते है।

क्योंकि उन्होंने सारा ज्ञान इतने कम समय में ही अर्जित कर लिया और अब उनको और ज्ञान देने के लिए कुछ शेष नहीं था, यह जानने के बाद भी की उनका पुत्र मार्कंडय इतना बुद्धिमान और ज्ञानवान है, उनके माता पिता खुश नहीं हुयें, मार्कंडय ने जब पूछा की उनके दुःख का कारण क्या है? तब उनके पिता ने उनके जन्म की कहानी बताई कि पुत्र की प्राप्ति हेतु उन्होंने और उनकी माता ने कई वर्षो तक कठिन और घोर तप किया है।

तब भगवान् महादेव प्रसन्न होकर प्रकट हुयें, और उनको इस बात से अवगत कराया की उनके भाग में संतान सुख नहीं है, परन्तु उनके तप से प्रसन्न होकर उनको पुत्र का वरदान दिया, और उनसे पूछा की वह कैसा पुत्र चाहते है, जो बुद्धिवान ना हो पर उसकी आयु बहुत ज्यादा हो या ऐसा पुत्र जो बहुत बुद्धिमान हो परन्तु जिसकी आयु बहुत कम हो।

मृकण्डु और उनकी पत्नी ने कम आयु वाला पर बुद्धिमान पुत्र का वरदान माँगा, महादेवजी ने उनको बताया की यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही जीवित रहेगा, वह फिर विचार कर ले, पर उन्होंने वही माँगा और महादेव उनको वरदान देकर भोलेनाथ अंतर्ध्यान हो गये, ऋषि मृकंदु ने यह सब अपने पुत्र को बताया, जिसको सुनने के बाद वह बहुत दुःखी हुआ, यह सोचकर की वह अपने माता -पिता की सेवा नहीं कर सकेगा।

परन्तु बालक मार्कंडय ने उसी समय यह निर्णय किया की वह अपनी मृत्यू पर विजय प्राप्त करेंगे और भगवान शिव की पूजा से यह हासिल करेंगे, बालक मार्कंडय ग्यारह वर्ष की आयु में वन को चले गयें, लगभग एक वर्ष के कठिन तप के दौरान उन्होंने एक नए मंत्र की रचना की जो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सके, वह है- "ॐ त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं, उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्योर्मोक्षिय मामृतात्" 

जब वह 12 वर्ष के हुए तब यमराज उनके सामने, प्राण हरण के लिये प्रकट हो गये, बालक मार्कंडय ने यमराज को बहुत समझया और याचना की, कि वह उनके प्राण बक्श दे, परन्तु यमराज ने एक ना सुनी और और वह यमपाश के साथ उनके पीछे भागे बालक मार्कंडय भागते-भागते वन में एक शिवलिंग तक पहुचे जिसे देख कर वह उनसे लिपट गये, और भगवान् शिव का मंत्र बोलने लगे जिसकी रचना उन्होंने स्वयं की थी। 

यमराज ने बालक मार्कंडय की तरफ फिर से अपना यमपाश फेका परन्तु शिवजी तभी प्रकट हुए और उनका यमपाश अपने त्रिशूल से काट दिया, बालक मार्कंडय शिवजी के चरणों में याचना करने लगे की वह उनको प्राणों का वरदान दे, परन्तु महादेव ने उनको कहा की उन्होंने ही यह वरदान उनके माता-पिता को दिया था, इस पर बालक मार्कंडय कहते है कि यह वरदान तो उनके माता पिता के लिये था ना कि उनके लिये? 

यह सुनकर महादेव बालक मार्कंडय से अत्यंत प्रसन्न होते है और उनको जीवन का वरदान देते है, भगवान् भोलेनाथ ने यमराज को आदेश देते है की वह इस बालक के प्राण ना ले, कथा से क्या इस बात पर पुन: विचार करने का मन होता है की भक्ति में बहुत शक्ति है, ऐसा क्या नहीं है जो इस संसार में ईश्वर की भक्ति करने से प्राप्त ना किया जा सके, भगवान् भोलेनाथ की भक्ति और शक्ति की महिमा का बहुत बड़ा महात्म्य है।

        
       

संस्कृत मंत्रो में बहुत बार आनेवाले शब्द - "धीमहि", "पाहि माम्" और "प्रचोदयात्" का क्या अर्थ होता है।?

संस्कृत मंत्रों में आनेवाले शब्द- धीमहि,पाहि माम् और प्रचोदयात् शब्दों के अर्थ इस प्रकार होते हैं।-


धीमहि- यह शब्द "ध्या" धातु के लिङ् लकार का बहुवचन में छान्दस(वैदिक) प्रयोग है। जिसका अर्थ है। - ध्यायेमहि= हम सब ध्यान करते हैं।

प्रचोदयात्- यह शब्द प्रेरणार्थक चुद् धातु के लिङ् लकार का रूप है। जिसमें प्र उपसर्ग लगा है। जो प्रकृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ का वाचक है। अतः प्रचोदयात् शब्द का अर्थ है।- अच्छे(श्रेष्ठ) कर्मों में प्रेरित करें।

इन दोनों शब्दों का प्रयोग प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में किया गया है। जो इस प्रकार है-ऊँ भूर्भुवःस्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात्।।ऋग्वेद ३।६२।१०।। उँ प्रणव,ब्रह्मस्वरूप। भूर्= पृथ्वीलोक, भुवः=अन्तरिक्षलोक,स्वः=द्युलोक।गायत्री मंत्र में प्रणव(ऊँ) एवं व्याहृति(भूर्भुवःस्वः) लगाकर ही जप करने का विधान है। अतः गायत्री मंत्र का प्रणव एवं व्याहृति सहित उल्लेख किया गया है।

गायत्री मंत्र के विश्वामित्र ऋषि एवं सविता देवता हैं। गायत्री मंत्र नही,महामंत्र है। गायत्री के जाप एवं अराधना से सभी देवताओं अथवा स्व इष्ट की अराधना हो जाती है।इसीलिए कहा गया है।- अभावे सर्व विद्यानां गायत्री जपेत्= सभी विद्या(ब्रह्मविद्या) के अभाव में गायत्री जपना चाहिए।

अन्वय- देवस्य सवितुः वरेण्यं तत् भर्गो धीमहि यो नः धियः प्रचोदयात्।अर्थ- सविता(=सूर्य,प्रेरणा देने वाले,सृजन करनेवाले) देव(=देवो दानात् दीपनात् वा= जो दाता है। अथवा, प्रकाशमान हैं। )के वरणीय सर्वश्रेष्ठ(=वरेण्य)तेजःस्वरूप(=भर्गः)का हम ध्यान करते हैं। (=धीमहि)जो(=यः)हम सबकी(=नः)बुद्धि को(=धियः)अच्छे कर्मों में प्रेरित करें(=प्रचोदयात्)।

ऊपर गायत्री मंत्र का शास्त्र सम्मत अर्थ दिया गया है। एवं कोष्ठ में उनके संस्कृत शब्दों को रखा गया है।

पाहि माम्— याचना अर्थ में पा रक्षणे धातु से लोट् लकार में मध्यम पुरुष में पाहि शब्द बनता है जिसका अर्थ होता हैह - रक्षा करो।

माम् - अस्मद् शब्द(सर्वनाम) के द्वितीया विभक्ति,एकवचन में माम् शब्द का अर्थ होता है।- मुझको। किन्तु यहां अर्थ होता है।- मेरी।

अतः पाहि माम् का अर्थ होगा= मेरी रक्षा करो। यहां माम् =मेरी(मेरा) का अर्थ संबंध वाचक नहीं है। उसके लिये संस्कृत में मम शब्द है।

पाहि माम् का प्रयोग चन्द्रशेखर अष्टकम् में किया गया है।

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्।चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्।। अर्थ- हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर(भगवान् शंकर) मेरी रक्षा करो। हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर मेरी रक्षा करो।।

      ।। जय श्री महाकाल।।


☀️ भगवन्नाम-जप में होने वाले दस नामापराध ☀️

सन्निन्दासति नामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधीरश्रद्धा
श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्र्यर्थवादभ्रम:।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ च धर्मान्तरै:
साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश॥

भगवन्नाम-जप में दस अपराध होते हैं। उन दस अपराधों से रहित होकर हम नाम जपना चाहिए। कई ऐसा कहते हैं—

राम नाम सब कोई कहे, दशरथ कहे न कोय।
एक बार दशरथ कहे, तो कोटि यज्ञ फल होय॥

और कई तो । ‘दशरथ कहे न कोय’ की जगह । ‘दशऋत कहे न कोय’ कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत’—दस अपराधों से रहित नहीं करते।

‘सन्निन्दा’—(१) पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषों की निन्दा की जाय। अच्छे-पुरुषों की, भगवान के प्यारे भक्तों की जो निन्दा करेंगे, भक्तों का अपमान करेंगे तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे। इस वास्ते किसी की भी निन्दा न करें; क्योंकि किसी के भले-बुरे का पता नहीं लगता है।
ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ- आश्रम में रहनेवाले, मामूली वर्ण में, मामूली आश्रम में, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान के बड़े प्रेमी और भगवान का नाम लेनेवाले होते हैं। उनका तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान के भक्त की निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे।

‘असतिनामवैभवकथा’—(२) जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान की महिमा नहीं जानता, भगवान् की निन्दा करता है, जिसकी नाम में रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान् के नाम की महिमा मत सुनाओ। वह सुनने से तिरस्कार करेगा तो नाम महाराज का अपमान होगा। वह एक अपराध बन जायगा। इस वास्ते उसके सामने भगवान् के नाम की महिमा मत कहो।
भगवान् के ग्राहक के बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई ? वह तो आया है दो पैसों की मूँगफली लेने के लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना ? क्या करेगा वह रतन का ? उसके सामने भगवान् का नाम क्यों रखो भाई ? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नाम की महिमा सुन नहीं सकते। उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है।

तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात।
जैसे जुर के जोर से, भोजन की रुचि जात॥

‘श्रीशेशयोर्भेदधी:’—(३) भगवान् विष्णु के भक्त हैं तो भगवान शंकर की निन्दा न करें। दोनों में भेद-बुद्धि न करें। भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं—
उभयो: प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्भाति।
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम्॥

भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनों का स्वभाव एक है। परन्तु भक्तों के भावों के भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं। इस वास्ते कोई मूढ़ दोनों का भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता। दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है। हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं। ‘हरि-हर’ के भेद को लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’—अपना नाश करने का अस्त्र है।

उपनिषदों में कहा गया है —

येनमस्यन्तिगोविन्दंतेनमस्यन्ति_शंकरम् ।
येऽर्चयन्तिहरिंभक्त्यातेऽर्चयन्तिवृषध्वजम् ॥
जो गोविंद को नमस्कार करते हैं ,वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं । जो लोग भक्ति से विष्णु की पूजा करते हैं, वे वृषभ ध्वज भगवान शंकर की पूजा करते हैं ।

यद्विषन्तिविरूपाक्षंतेद्विषन्ति_जनार्दनम्।
येरुद्रंनाभिजानन्तितेनजानन्तिकेशवम् ॥
जो लोग भगवान विरुपाक्ष त्रिनेत्र शंकर से द्वेष करते हैं, वे जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। जो लोग रूद्र को नहीं जानते ,वे लोग भगवान केशव को भी नहीं जानते ।
(रुद्रहृदय उपनिषद)

‘अश्रद्धा_श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’—वेद, शास्त्र और सन्तमहापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है! (४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है ? वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है। इस प्रकार वेदों पर अश्रद्धा करना नामापराध है।

(५) शास्त्रों ने बहुत कुछ कहा है। कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है। उनकी आपस में सम्मति नहीं मिलती। ऐसे शास्त्रों को पढऩेसे क्या फायदा है ? उनको पढऩा तो नाहक वाद-विवाद में पडऩा है। इस वास्ते नाम-प्रेमी को शास्त्रों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रों में अश्रद्धा करना नामापराध है।

(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करने की क्या आवश्यकता है ? गुरु की आज्ञापालन करने की क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जप को गुरु-सेवा आदि से बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जप में इतनी सामथ्र्य नहीं है जो कि गुरु की सेवा करनी पड़े ? सहारा लेना पड़े ? इस प्रकार गुरु में अश्रद्धा करना नामापराध है।

वेदों में अश्रद्धा करनेवाले पर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं। सबको रास्ता बतानेवाली हैं। इस वास्ते वेदों में अश्रद्धा न करे। ऐसे शास्त्रों में—पुराण, शास्त्र, इतिहास में भी अश्रद्धा न करे, तिरस्कार-अपमान न करे। सबका आदर करे। शास्त्रों में, पुराणों में, वेदों में, सन्तों की वाणी में, भगवान् के नाम की महिमा भरी पड़ी है। शास्त्रों, सन्तों आदि ने जो भगवन्नाम की महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारत से बड़ा पोथा बन जाय। इतनी महिमा गायी है, फिर भी इसका अन्त नहीं है। फिर भी उनकी निन्दा करे और नाम से लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?

‘नाम्र्यर्थवादभ्रम:’—(७) नाम में अर्थवाद का भ्रम है। यह महिमा बढ़ा-चढ़ाकर कही है; इतनी महिमा थोड़ी है नाम की ! नाममात्र से कल्याण कैसे हो जायगा ? ऐसा भ्रम न करें; क्योंकि भगवान् का नाम लेने से कल्याण हो जायगा। नाम में खुद भगवान् विराजमान हैं। मनुष्य नींद लेता है तो नाम लेते ही सुबोध होता है अर्थात् किसी को नींद आयी हुई है तो उसका नाम लेकर पुकारो तो वह नींदमें सुन लेगा।
नींदमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्यामें लीन हुई रहती है—ऐसी जगह भी नाम में विलक्षण शक्ति है।

अनेक तार्किकों के मन में यह कल्पना उठती है कि नाम की महिमा वास्तविक नहीं है, अर्थवादमात्र है। उनके मन में यह धारणा तो हो ही जाती है कि शराब की एक बूँद भी पतित बनानेके लिये पर्याप्त है, परंतु यह विश्वास नहीं होता कि भगवान्‌ का एक नाम भी परम कल्याणकारी है। शास्त्रों में भगवन्नाम-महिमा को अर्थवाद समझना पाप बताया है।

पुराणेष्वर्थवादत्वं ये वदन्ति नराधमा:।
तैरॢजतानि पुण्यानि तद्वदेव भवन्ति हि ।।
मन्नामकीर्तनफलं विविधं निशम्य
न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् ।।
यो मानुषस्तमिह दु:खचये क्षिपामि संसारघोरविविधार्तिनिपीडिताङ्गम् ।।
अर्थवादं हरेर्नाम्रि संभावयति यो नर:।
स पापिष्ठो मनुष्याणां नरके पतति स्फुटम् ।।

‘जो नराधम पुराणोंमें अर्थवादकी कल्पना करते हैं उनके द्वारा उपाॢजत पुण्य वैसे ही हो जाते हैं।’

‘जो मनुष्य मेरे नाम-कीर्तन के विविध फल सुनकर उसपर श्रद्धा नहीं करता और उसे अर्थवाद मानता है, उसको संसार के विविध घोर तापों से पीडि़त होना पड़ता है और उसे मैं अनेक दु:खों में डाल देता हूँ।’ – – – – ‘जो मनुष्य भगवान्‌ के नाम में अर्थवादकी सम्भावना करता है, वह मनुष्यों में अत्यन्त पापी है और उसे नरक में गिरना पड़ता है।’

‘नामास्तीति_निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ’—(८) निषिद्ध आचरण करना और
(९) विहित कर्मोंका त्याग कर देना।
जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया, दूसरों को धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरों का हक मार लिया तो इसमें क्या पाप लगेगा। अगर लग भी जाय तो नाम के सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाम में पापों के नाश करने की अपार शक्ति है—इस भाव से नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है।

भगवान् का नाम लेते हैं। अब सन्ध्या की क्या जरूरत है ? गायत्री की क्या जरूरत है ? श्राद्ध की क्या जरूरत है ? तर्पणकी क्या जरूरत है ? क्या इस बात की जरूरत है ? इस प्रकार नाम के भरोसे शास्त्र-विधिका त्याग करना भी नाम महाराजका अपराध है। यह नहीं छोडऩा चाहिये। अरे भाई ! यह तो कर देना चाहिये। शास्त्रने आज्ञा दी है। गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये।

नाम्रोऽस्ति यावती शक्ति: पापनिहर्रणे हरे:।
तावत् कर्तुं न शक्रोति पातकं पातकी जन:॥

‘धर्मान्तरै:_साम्यम्’ (१०) भगवान् के नाम की अन्य धर्मों के साथ तुलना करना अर्थात् गङ्गास्नान करो, चाहे नाम-जप करो। नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो । सब बराबर है। ऐसे किसी के बराबर नाम की बात कह दो तो नाम का अपराध हो जायगा। नाम महाराज तो अकेला ही है। इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं। भगवान् शंकर का नाम लो चाहे भगवान् विष्णु का नाम लो। ये नाम दूसरों के समान नाम नहीं हैं। नाम की महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है।
इसलिए नामजप सदैव इन दस नामापराधों से रहित हो कर करना चाहिए ।

।। नारायण ।।

सूर्य उपासना से हमें क्या-क्या लाभ होते हैं?

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1) भगवान सूर्य की उपासना से दाद फोड़ा कुष्ठ हैजा प्रभृत्ति रोग नष्ट हो जाते हैं
( वही -75/88)

 2) भगवान सूर्य का उपासक कठिन से कठिन रोगों से मुक्ति पाकर अनेकों वर्ष की लंबी आयु प्राप्त करता है
( वही -75/88)

3) भगवान सूर्य की उपासना मात्र से सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है

( पद्म पुराण सृष्टि खंड अध्याय नंबर 79 श्लोक नंबर 17)

4) जो भी भक्ति पूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करता है वह निरोग होता ही है।

( स्कंद पुराण भाग 2 काशी खंड महत्यम अध्याय नंबर 3 श्लोक नंबर 15)

5) सूर्य देव उदय होने पर रोगो का अपहरण कर लेते हैं
( शुक्ल यजुर्वेद 33/36)

6) शरीर के सभी रोग भगवान सूर्य की रश्मियों के द्वारा नष्ट हो जाते हैं
( अथर्ववेद)
7) अगर शरीर में तेज की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( श्रीमद्भागवत महापुराण)

8) अगर सुख की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( स्कंद पुराण)
9) अगर शत्रु को पराजय करना हो शत्रु विजय प्राप्त करनी हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए।
( वाल्मीकि रामायण)
10) अगर आरोग्य की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( मत्स्य महापुराण 67/61)

11) भगवान सूर्य की उपासना करने पर वह शरीर को निरोग तो बनते ही बनाते हैं साथ में दृढ़ भी कर देते हैं
( स्कंद पुराण)

12) भगवान भास्कर जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे निः संदेह धन और यश भी प्रदान करते हैं।
( पद्म पुराण)

13) सूर्य की जो लालिमा युक्त किरणे होती है इसका सेवन करने से शरीर का पीलापन और हृदय रोग नष्ट होते हैं
( अथर्ववेद)

14) भगवान सूर्य की लालिमा युक्त किरणो का सेवन करने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है
( अथर्ववेद)

15) सूर्य की विधिवत उपासना करने पर नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं
( चाक्षुषोपनिषद्)

16) भगवान सूर्य की उपासना करने पर प्राण शक्ति प्रबल होती है
( यजुर्वेद)

17) ज्योति युक्त चीजों में मैं सूर्य हूं।
( गीता)
18) सूर्य में जो तेज है उसे तू मेरा ही तेज जान
( गीता)
19) विराट स्वरूप में मै सूर्य को आपका नेत्र देख रहा हूं
( गीता)
20) शिव जी की आठ मूर्तियों में से एक मूर्ति सूर्य है
( शिव महापुराण)

21) भगवान सूर्य की विधिवत आराधना करने से बुरे सपनों का नाश हो जाता है
( सामवेद)

22) भगवान सूर्य की उपासना करने से घर में कभी अन्न जल की कमी नहीं रहती है
( यजुर्वेद)

23) भगवान सूर्य सभी प्राणियों के जीवन है
( ब्रह्म पुराण)

24) सूर्य अपने उपासक को दीर्घायु आरोग्य ऐश्वर्या धन पशु मित्र पुत्र स्त्री विविध प्रकार की उन्नति के क्षेत्र आठ प्रकार के भोग स्वर्ग और सब कुछ प्रदान कर देते हैं
( स्कंद पुराण)

गंगा स्नान करने की शास्त्रीय विधि ।।

1) जहां से गंगा जी का जल दिखने लगे वहां से पादुकाओं का त्याग करके पैदल ही चलना चाहिए।
2) गंगा जी के समीप जाकर के सबसे पहले उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करना चाहिए-:
 मां आज मेरा जन्म सफल हो गया मेरा पृथ्वी पर जिना सफल हो गया जो मुझे आज साक्षात् ब्रह्म स्वरूपिणी आपका दर्शन हुआ और मैं इन आंखों से आपको देख पाया। देवी आपके दर्शन के प्रभाव से मेरे अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाए ऐसी कृपा करें।
 ऐसा बोलकर गंगा जी को दंडवत करें और गंगा जी की मिट्टी अपने माथे से लगाए

3) इसके बाद गंगा जी से प्रार्थना करें कि मां आपका जल बहुत पवित्र है देवताओं के लिए भी दुर्लभ है मैं आपके इस पवित्र दिव्य जल को पैरों से स्पर्श कर रहा हूं इसके लिए मुझे क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न होंईए अपना वात्सल्य मुझ पर रखिए।

4) इतना बोलने के पश्चात गंगा जी का नाम लेते हुए गंगा जी के जल को शिरोधार्य करके फिर उसमे डुबकी लगाई

5) डुबकी लगाने के पश्चात अपने कपड़े इतनी दूर निचोड़ की उसका जल गंगा जी में वापस न जाए। उसके बाद अपने शरीर पर गंगा जी की मिट्टी का तिलक करें और वस्त्र आदि पहनकर संध्या वंदन गायत्री जप आदि करें

सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार जन्मदिन मनाने की प्रामाणिक और शास्त्रीय विधि क्या हैं चलिए जानते हैं-:


( यह सभी निर्देश तिथि के अनुसार है परंतु आज के समय में दिनांक से जन्मदिन मनाने का प्रचलन है तो यह नियम दोनों ही दिन निभाए जा सकते हैं)

 जन्मदिन मनाने के विषय में निर्णय सिंधु नामक ग्रंथ में पेज नंबर 531 में निम्नलिखित निर्देश प्राप्त होते है -:
1) व्यक्ति को अपने जन्मदिन के दिन नए वस्त्र धारण करने चाहिए
( नवाम्बरधरो भूत्वा )
2) अपने जन्मदिन के दिन व्यक्ति को आठ चिरंजीवियों की पूजा करनी चाहिए
( पूजयेच्च चिरायुषम्)

3) अपने जन्मदिन के दिन दही और चावल का षष्ठी देवी को भोग अवश्य लगाना चाहिए।

4) अपने जन्मदिन के दिन माता-पिता और गुरुजनों का पूजन करके प्रतिवर्ष महोत्सव (Celebration)करना चाहिए

5)हाथ में मोली बांधना चाहिए।

6) अपने जन्मदिन के दिन एक अंजलि में दूध लेकर उसमें थोड़ा सा गुड और थोड़ी सी तिल्ली डालकर उस दूध को पीना चाहिए और दूध पीते समय यह बोलना चाहिए-:
 हे भगवान आप मुझ पर प्रसन्न होइए और मुझे आरोग्यता और आयु प्रदान कीजिए हे अष्ट चिरंजीवीयो आप मुझ पर कृपा किजीएऔर मुझे आयुष्य का वर दीजिए यही कामना रखकर मैं इस दूध का पान कर रहा हूं।
 आप सभी मेरे पर कृपा करें।
7) अपने जन्मदिन के दिन ठंडे जल से ही स्नान करना चाहिए गर्म जल को प्रयत्नतः त्याग देना चाहिए।


सभी पापों से छुड़ाने वाले गंगा जी के द्वादश (बारह ) नाम कौन कौन से हैं ?

 उत्तर :---
स्नान के समय निम्नलिखित श्लोक का जहाँ भी स्मरण किया जाय गंगा जी वहाँ के जल में प्रवेश कर जाती हैं। इसमें गंगा जी के द्वादश (बारह) नाम हैं जो सभी पापों को हरने वाले हैं। इसे गंगा जी ने स्वयं अपने मुख से कहा है :---

 नन्दिनी नलिनी सीता मालती च महापगा ।
 विष्णुपादाब्जसम्भूता गङ्गा त्रिपथगामिनी ।। 
 भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी । 
 द्वादशैतानि नामानि यत्र तत्र जलाशये । 
 स्नानोद्यतः स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम् ।। 

नन्दिनी, नलिनी, सीता, मालती, महापगा, विष्णुपादा, गङ्गा, त्रिपथगामिनी, भागीरथी, भोगवती, जाह्नवी और त्रिदशेश्वरी । 
       वैसे तो गंगा जी के 108 नाम हैं पर ये द्वादश नाम मुख्य नाम हैं। 

दामोदर मास कार्तिक ।।

पढे़ समझे व करे 
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वैकुंठ चतुर्दशी हिंदू कैलेंडर में एक पवित्र दिन है जो कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन पहले मनाया जाता है । कार्तिक माह के दौरान शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को भगवान विष्णु के साथ-साथ भगवान शिव के भक्तों के लिए भी पवित्र माना जाता है क्योंकि दोनों देवताओं की पूजा एक ही दिन की जाती है। अन्यथा, ऐसा बहुत कम होता है कि एक ही दिन भगवान शिव और भगवान विष्णु की एक साथ पूजा की जाती है।

वाराणसी के अधिकांश मंदिर वैकुंठ चतुर्दशी मनाते हैं और यह देव दिवाली के एक और महत्वपूर्ण अनुष्ठान से एक दिन पहले आता है । वाराणसी के अलावा, वैकुंठ चतुर्दशी ऋषिकेश, गया और महाराष्ट्र के कई शहरों में भी मनाई जाती है।

शिव पुराण के अनुसार कार्तिक चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु भगवान शिव की पूजा करने वाराणसी गए थे। भगवान विष्णु ने एक हजार कमल के साथ भगवान शिव की पूजा करने का संकल्प लिया। कमल के फूल चढ़ाते समय, भगवान विष्णु ने पाया कि हजारवां कमल गायब था। अपनी पूजा को पूरा करने और पूरा करने के लिए भगवान विष्णु, जिनकी आंखों की तुलना कमल से की जाती है, ने अपनी एक आंख को तोड़ दिया और लापता हजारवें कमल के फूल के स्थान पर भगवान शिव को अर्पित कर दिया। भगवान विष्णु की इस भक्ति ने भगवान शिव को इतना प्रसन्न किया कि उन्होंने न केवल भगवान विष्णु की फटी हुई आंख को बहाल किया, बल्कि उन्होंने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र का उपहार भी दिया, जो भगवान विष्णु के सबसे शक्तिशाली और पवित्र हथियारों में से एक बन गया।

वैकुंठ चतुर्दशी पर, निशिता के दौरान भगवान विष्णु की पूजा की जाती है जो दिन के हिंदू विभाजन के अनुसार मध्यरात्रि है। भक्त भगवान विष्णु के हजार नामों, विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते हुए भगवान विष्णु को एक हजार कमल चढ़ाते हैं।

यद्यपि वैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों की पूजा की जाती है, भक्त दिन के दो अलग-अलग समय पर पूजा करते हैं। भगवान विष्णु के भक्त निशिता को पसंद करते हैं जो हिंदू मध्यरात्रि है जबकि भगवान शिव के भक्त अरुणोदय को पसंद करते हैं जो पूजा के लिए हिंदू भोर है। शिव भक्तों के लिए, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर अरुणोदय के दौरान सुबह का स्नान बहुत महत्वपूर्ण है और इस पवित्र डुबकी को कार्तिक चतुर्दशी पर मणिकर्णिका स्नान के रूप में जाना जाता है।

यह एकमात्र दिन है जब भगवान विष्णु को वाराणसी के एक प्रमुख भगवान शिव मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में विशेष सम्मान दिया जाता है । ऐसा माना जाता है कि विश्वनाथ मंदिर उसी दिन वैकुंठ के समान पवित्र हो जाता है। दोनों देवताओं की पूजा इस तरह की जाती है जैसे वे एक-दूसरे की पूजा कर रहे हों। भगवान विष्णु शिव को तुलसी के पत्ते चढ़ाते हैं और भगवान शिव बदले में भगवान विष्णु को बेल के पत्ते चढ़ाते हैं।

अप्सरा

      श्रीविद्या साधना के अंतर्गत अप्सरा सिद्धि जातक को प्राप्त होती है। अप्सराएं दयालू प्रवृत्ति की अहिंसक शक्तिपुंज हैं। खगोल के माध्यम से ही सभी कुछ इस पृथ्वी पर आता है। समस्त संवेग खगोल अर्थात आकाश के माध्यम से ही मानव मस्तिष्क को उत्प्रेरित करते हैं, अप्सराएं वो जीवन शक्ति का प्रचण्ड माध्यम हैं जिनके द्वारा मस्तिष्क का पोषण होता है। ये मस्तिष्क के रस विज्ञान को परम संतुलित रखती हैं एवं उसे सदैव रसमयी बनाये रखती हैं। साधनाकाल में जातक खगोलीय मस्तिष्क एवं खगोलीय शरीर को प्राप्त कर लेता है, वह आकाश की अनंत ऊंचाईयों में विचरण करने लगता है। ऐसे खगोलीय मस्तिष्क अत्यधिक क्रियाशील हो जाते हैं उनमें नित नये विचार, चिंतन, सृजनात्मकता इत्यादि अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। इन असामान्य परिस्थितियों में अप्सराएं ही जातक के खगोलीय मस्तिष्क का वास्तविक पोषण करने में सक्षम होती है। 

            हे सागर कन्याओं, हे सागर की पुत्रियों, हे लक्ष्मी की बहिनों, हे भगवान धन्वन्तरी की बहनों, हे रत्न प्रियाओं, हे अमृत-युक्ताओं तुम सबको मेरा बारम्बार नमस्कार है। अप्सराएं श्रीहरि की सालियाँ हैं, श्रीहरि की परम प्रियायें हैं क्योंकि वे सब भगवती लक्ष्मी की बहिनें हैं और सागर मंथन के समय लक्ष्मी जी से पहले उत्पन्न हुई हैं। भगवान धन्वन्तरी जो कि देवताओं को भी आरोग्य प्रदान करते हैं वे अप्सराओं के भाई हैं। समस्त रत्न अप्सराओं के साथ ही समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुए हैं अतः अप्सराओं में रत्नों सी चमक है। ये अप्सराएं कल्प- वृक्ष स्वरूपा हैं क्योंकि कल्पवृक्ष भी समुद्र मंथन में उत्पन्न हुआ है। कल्पवृक्ष का तात्पर्य है समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला वृक्ष। 

              समुद्र मंथन में जब कामधेनु उत्पन्न हुईं तो ऋषियों ने उन्हें ले लिया, कामधेनु के दुग्ध का पान करके ही ऋषि-मुनि अपने मस्तिष्क एवं शरीर का पोषण करते हैं अतः अप्सराएं भी दिव्य वृक्ष-स्थल की मल्लिकाएं हैं। तप से तपे हुए विश्वामित्र का मस्तिष्क मेनका रूपी अप्सरा के वक्ष स्थल पर ही स्थित होकर शीतल हुआ। जिस प्रकार इन्द्र का ऐरावत हाथी जो कि समुद्र मंथन के समय अप्सराओं के साथ उत्पन्न हुआ है द्रुत गति से ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकता है ठीक उसी प्रकार अप्सरा भी द्रुत गति से समस्त लोकों में विचरण करने हेतु सक्षम हैं। अप्सराओं की उत्पत्ति के समय ही ब्रह्मा ने उन्हें समस्त लोकों में विचरण का अधिकार दिया, ब्रह्मा ने स्वयं अप्सराओं को परम स्वतंत्रता प्रदान की। समुद्र मंथन में जो-जो भी उत्पन्न हुआ उन सब पर वर्ग विशेष का अधिकार रहा परन्तु केवल अप्सराओं को वर्ग विशेष के अधिकार से मुक्त रखा गया उन्हें किसी भी प्रकार से बंधन-युक्त नहीं किया गया। 

              भगवती लक्ष्मी श्रीहरि धाम चली गईं परन्तु अप्सराएं आज भी सभी जगह विचरण करती हैं। समुद्र मंथन में अमृत भी प्रकट हुआ, समुद्र मंथन में मदिरा भी प्रकट हुई इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य मादक है, इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य अमृतमयी है। विश्व के सभी धर्मों ने एक स्वर में अप्सराओं की उपस्थिति का प्रमाणीकरण किया है। ईसाई धर्म में इन्हें ऐन्जल कहा गया, इस्लाम में इन्हें जन्नत की हूर कहा गया, बौद्ध धर्म में इन्हें देव-कन्या कहा गया, सनातन धर्म में इन्हें अप्सरा कहा गया इत्यादि-इत्यादि। कहीं पर भी इनके अस्तित्व को नकारा नहीं गया। समुद्र मंथन क्यों किया गया ? समुद्र मंथन का एकमात्र उद्देश्य था ब्रह्मा द्वारा सृजित सृष्टि की रुग्णता, शिथिलता, बोझिलता एवं लकवा-ग्रस्तता को दूर करना। सृष्टि की रचना एक बात है, सृष्टि चलाना एवं उसे क्रियाशील करना दूसरी बात है जिसमें ब्रह्मा जी सर्वथा असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। जीवन प्राप्त करने से क्या होगा ? निराशा युक्त, लक्ष्यहीन, आनंदहीन, शक्तिहीन, बोझिल, ढला हुआ, वृद्धता की ओर अग्रसर होता हुआ जीवन किस काम का। इस स्थिति में तो जीवन की उत्पत्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। ब्रह्मा जी की सृष्टि पर तो अनेकों प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं अतः भगवती त्रिपुर सुन्दरी एवं देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की अंतःप्रेरणा से समुद्र मंथन का प्रयोजन किया गया जिससे कि जीवन- दायिनी शक्तियों का, जीवन के प्रवाह को सुगम बनाने वाली शक्तियों का, जीवन को आनंददायी, मधुरतम एवं क्रियाशील करने वाली शक्तियों का उत्पादन किया जा सके। 

             कर्म के ताप को नियंत्रित किया जा सके और इसके साथ-साथ जीवन जीने के प्रति लालसा, उत्साह के भाव बने रहे इस हेतु अप्सराओं की उत्पत्ति की गई। शक्ति का एक विशेष रूप में अनुसंधान किया गया। जब-जब जीवन उत्साहहीन एवं निरर्थक होने लगता है तब-तब अप्सराएं उसमें पुनः प्राण फूंकती हैं।

          भगवती महाअप्सरा हैं और अप्सराओं का निर्माण करती हैं। अप्सरा साधना पूर्णिमा या फिर चंद्रकला की उपस्थिति में करनी चाहिए। अप्सराएं चंद्र मण्डल के माध्यम से ही चंद्र रश्मियों के द्वारा ही गमन करती हैं। ध्यान रहे चंद्रमा की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन के दौरान हुई है। ग्रह नक्षत्र मण्डलों में भगवान शनि के पास सबसे ज्यादा अप्सराएं हैं, 16 अप्सराओं का समूह शनि मण्डल में गमन करता है। ये अप्सराएं अगर शनि मण्डल में नहीं होती तो न जाने शनि महाराज कब के वृद्ध होकर परलोक सिधार गये होते। निरंतर कर्मशील भगवान सूर्य के रथ के आगे अप्सराएं चलती रहती हैं और सूर्य देव को प्रसन्नता प्रदान करती रहती हैं। अप्सरा साधना कभी भी उन्हें माता समझकर न करें, अप्सराएं संतान उत्पत्ति नहीं करती हैं, वे किसी बंधन में नहीं बंधती, वे किसी की पत्नी नहीं बनती अपितु वे एक अच्छी मित्र, अच्छी सहयोगी, अच्छी प्रेयसी के रूप में सब कुछ प्रदान करती हैं। स्त्री सौन्दर्य का विकास तभी सम्भव है जब उसके साथ किसी अप्सरा विशेष का गमन अवश्यम्भावी हो। रूप, लावण्य, ऐश्वर्य, नृत्य, मुस्कान, पवित्र हृदयता, छलकता हुआ यौवन बाजार में नहीं मिलता, औषधि की दुकान पर नहीं मिलता अपितु इसकी एकमात्र प्रदात्री हैं अप्सराएं।

यक्ष व यक्षिणी ।।

💫यक्षिणी (या यक्षी ; पालि: यक्खिनी या यक्खी ) हिंदू, बौद्ध और जैन धार्मिक पुराणों में वर्णित एक वर्ग है जो देवों (देवताओं), असुरों (राक्षसों), और गन्धर्वों या अप्सराओं से अलग हैं। यक्षिणी और यक्ष, भारत के सदियों पुराने पवित्र पेड़ों से जुड़े कई अपसामान्य प्राणियों में से एक हैं।

यक्ष-यक्षिणी का वर्णन, अनेक धर्म ग्रंथों में मिलता है। इन्हें भगवान शिव के, सेवक माना जाता है। इनके राजा यक्षराज कुबेर हैं, जो धन के स्वामी हैं। ये कुबेर रावण के भाई भी हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, यक्ष-यक्षिणीयों के पास रहस्यमयी ताकत होती है।

मनोकांमना पूर्ति हेतु यक्ष - यक्षिणी पूजा ----

तंत्र शास्त्र के अनुसार, इस ब्रह्मांड में , कई लोक हैं। सभी लोकों के अलग-अलग देवी-देवता हैं। पृथ्वी से , इन सभी लोकों की दूरी अलग-अलग है। मान्यता है कि, नजदीक लोक में रहने वाले देवी-देवता जल्दी प्रसन्न होते हैं। क्योंकि, लगातार ठीक दिशा और समय पर, किसी मंत्र विशेष की साधना करने पर, उन तक तरंगे जल्दी पहुंचती हैं। यही कारण है कि, यक्ष-यक्षिणी की साधना जल्दी पूरी होती है । क्योंकि, इनके लोक पृथ्वी से पास माने गए हैं।

यक्ष एक दैवी प्रजाति है, इनका स्वामी शिव का भक्त कुबेर है । शिव, कुबेर की भक्ति से, इतने प्रसन्न हो गए कि, उसे देवताओं का खजांची अथवा कोषाध्यक्ष बना दिया। ये सबसे धनवान देवता हैं और अपने कैलास के बगल में , उनको रहने का स्थान ( लोक ) दिया , यक्षों के राजा कुबेर हैं , और उनके लोक का नाम ' अलकापूरी ' है । यक्ष लोग देवताओं जैसे होते है।

योगिनी, किन्नरी, अप्सरा आदि की तरह ही यक्षिणियां भी, मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं। साधारणतया, 36 यक्षिणियां हैं तथा उनके वर देने के प्रकार अलग-अलग हैं। माता, बहन या पत्नी के रूप में , उनका वरण किया जाता है। उनकी साधना के पहले तैयारी की जाती है, जो अधिक कठिन है, बजाय साधना के।

रहस्यमयी शक्तियों के स्वामी होते हैं यक्ष-यक्षिणी, इनकी पूजा से पूरी हो सकती है , हर मनोकामनाएं !

।। श्रीगोवर्धनाष्टकम् ।।

 
कृष्णप्रसादेन समस्तशैल
साम्राज्यमाप्नोति च वैरिणोऽपि ।
शक्रस्य यः प्राप बलिं स साक्षा-
द्गोवर्धनो मे दिशतामभीष्टम् ॥ १॥
स्वप्रेष्ठहस्ताम्बुजसौकुमार्य
सुखानुभूतेरतिभूमि वृत्तेः ।
महेन्द्रवज्राहतिमप्यजानन्
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ २॥
यत्रैव कृष्णो वृषभानुपुत्र्या
दानं गृहीतुं कलहं वितेने ।
श्रुतेः स्पृहा यत्र महत्यतः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभिष्टम् ॥ ३॥
स्नात्वा सरः स्वशु समीर हस्ती
यत्रैव नीपादिपराग धूलिः ।
आलोलयन् खेलति चारु स श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ४॥
कस्तूरिकाभिः शयितं किमत्रे-
त्यूहं प्रभोः स्वस्य मुहुर्वितन्वन् ।
नैसर्गिकस्वीयशिलासुगन्धै-
र्गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ५॥
वंशप्रतिध्वन्यनुसारवर्त्म
दिदृक्षवो यत्र हरिं हरिण्याः ।
यान्त्यो लभन्ते न हि विस्मिताः स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ६॥
यत्रैव गङ्गामनु नावि राधां
आरोह्य मध्ये तु निमग्ननौकः ।
कृष्णो हि राधानुगलो बभौ स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ७॥
विना भवेत्किं हरिदासवर्य
पदाश्रयं भक्तिरतः श्रयामि ।
यमेव सप्रेम निजेशयोः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ८॥
एतत्पठेद्यो हरिदासवर्य
महानुभावाष्टकमार्द्रचेताः ।
श्रीराधिकामाधवयोः पदाब्ज
दास्यं स विन्देदचिरेण साक्षात् ॥ ९॥
इति महामहोपाध्याय श्रीविश्वनाथचक्रवर्ति विरचितं श्रीगोवर्धनाष्टकं सम्पूर्णं ।।

जानिए आपके प्राण कहाँ से निकलेंगे...

प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है।किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। 

अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।

आपकी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मृतक को जब मरघट ले जाते हैं तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। पर समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।

जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। 

जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।

उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! 

प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। 

यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। 

इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है।

प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था।

उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।

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मृत्यु के समय जीव के साथ क्या घटित हो रहा होता है उसका वहां अन्य लोगों को अंदाज़ नही हो पाता । लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं । मृत्यु के समय व्यक्ति की सबसे पहले वाक उसके मन में विलीन हो जाती है ।उसकी बोलने की शक्ति समाप्त हो जाती है।

उस समय वह मन ही मन विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता । उसके बाद दृष्टिऔर फिरश्रवण इन्द्रिय मन में विलीन हो जाती हैं । उस समय वह न देख पाता है, न बोल पाता है और न ही सुन पाता है ।

उसके बाद मन इन इंद्रियों के साथ प्राण में विलीन हो जाता है उस समय सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है ।

इसके बाद सबके साथ प्राण सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करता है । फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश (पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर हृदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है ।

हृदय देश से जो 101 नाड़ियां निकली हुई है, मृत्यु के समय जीव इन्हीं में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश कर देह-त्याग करता है । मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी हृदय से मस्तिष्क तक फैली हुई है । जो मृत्यु के समय आवागमन से मुक्त नहीं हो रहे होते वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं ।

जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों की एक गति एक ही तरह की होती है । नाड़ी में प्रवेश करने के बाद जीवन की अलग अलग गतियां होती हैं।

श्री आदि शंकराचार्य जी का कथन है कि 'जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं वो मृत्यु के बाद देह ग्रहण नही करते, बल्कि मृत्यु के बाद उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है' । श्री रामानुज स्वामी का कहना है 'ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के बाद भी जीव जीव देवयान पथ पर गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मुक्त हो जाता है' ।

देवयान पथ के संदर्भ में श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'जो सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं वे ही सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते'। 

अग्नि के सहयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता ।

मृत्यु के बाद शरीर का जो भाग गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से सूक्ष्म शरीर देह त्याग करता है । इसलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है ।

 गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको 'अग्नि' और 'ज्योति' नाम के देवता अपने अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं । उसके बाद 'अह:' अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते हैं । उसके बाद शुक्ल-पक्ष व उत्तरायण के देवता ले जाते हैं ।

थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहे तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्नि-देवता का देश आता है फिर दिवस-देवता, शुक्ल-पक्ष, उत्तरायण, वत्सर और फिर आदित्य देवता का देश आता है । देवयान मार्ग इन्हीं देवताओं के अधिकृत मार्ग से ही होकर गुजरता है ।

उसके बाद चन्द्र, विद्युत, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा, क्रमशः आदि के देश पड़ते हैं । जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता तथा वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम चले जाते हैं ।
 
पितृयान मार्ग से भी चन्द्रलोक जाना पड़ता है, लेकिन वो मार्ग थोड़ा अलग होता है । उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्ण-पक्ष, दक्षिणायन आदि के अधिकृत देश पड़ते हैं। अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने देश के अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं। 

चन्द्रलोक कभी अधिक गर्म तो कभी अतरिक्त शीतल हो जाता है । वहां अपने स्थूल शरीर के साथ कोई नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर (जो मृत्यु के बाद मिलता है) कि साथ चन्द्रलोक में रह सकता है ।

जो ईश्वर पूजा नहीं करते, परोपकार नही करते, हर समय केवल इन्द्रिय सुख-भोग में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग मृत्यु के बाद न तो देवयान पथ से और न ही पितृयान पथ से जाते है बल्कि वे पशु योनि 
(जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार बार यही जन्म लेकर यही मरते रहते हैं ।

जो लोग अत्यधिक पाप करते है, निरीह और असहायों को सताने में जिनको आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्य के बाद) निम्न लोकों में यानी कि नरक में होती है । यहां ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते हैं उसका दस गुणा कष्ट पाते हैं । विभिन्न प्रकार के नरकों का वर्णन भारतीय ग्रंथों में दिया गया है ।

अतः नारायण का स्मरण सदैव करें।समय बीतता जा रहा है।जीवन क्षणभंगुर है।


कार्तिक मास

🔺 श्री हरि नारायण को सर्वाधिक प्रिय कार्तिक मास का अलौकिक वेदोक्त वर्णन ⁉️
🔺 कार्तिक मास की सर्वोपयुक्त व्रत विधि ⁉️
🔺 कार्तिक मास में वेदानुसार किन-किन पदार्थों का त्याज्य कर दें ⁉️
🔺 कार्तिक मास के लिए कितने प्रकार के महात्म्य बताए गए हैं ⁉️

🛑 विशेष ➺ कार्तिक मास स्नान की संपूर्ण विधि व्याख्या अवश्य पढ़ें।

           ।। कार्तिक मास ।।
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सत्य सनातन धर्म में कार्तिक मास की महत्ता अति श्रेष्ठ मानी गई है। सभी बारह मासों में मार्गशीर्ष मास को अत्यन्त पुण्यदायक कहा गया है, उससे भी अधिक पुण्य देने वाला वैशाख मास कहा गया है, प्रयाग में माघ मास का अधिक महत्व है तथा इससे भी महान तथा अधिक फलदायी कार्तिक मास को कहा गया है, जब ब्रह्मा जी ने एक तरफ सभी प्रकार के दान, व्रत तथा नियम रखे और दूसरी ओर कार्तिक का स्नान रखकर तौला तो कार्तिक स्नान का पलड़ा ही भारी पाया।

सूर्य भगवान जब तुला राशि पर आते है तो कार्तिक मास का प्रारम्भ होता है इस मास का माहत्म्य पद्मपुराण तथा स्कन्दपुराण में विस्तार पूर्वक मिलता है। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है इस मास को धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला बताया गया है नारायण भगवान ने स्वयं इसे ब्रम्हा को, ब्रम्हा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण सम्पन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।

कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।
न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम्।। 

कार्तिक मास से श्रेष्ठ कोई अन्य मास नहीं,
सतयुग के समान कोई अन्य युग नहीं।
वेद के समान कोई अन्य शास्त्र नहीं और
गंगाजी के समान कोई और तीर्थ नहीं है।

भगवान नारायण के शयन और प्रबोधन से चातुर्मास्य का प्रारम्भ और समापन होता है उत्तरायण को देवकाल और दक्षिणायन को आसुरिकाल माना जाता है दक्षिणायन में सत्गुणों के क्षरण से बचने और बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में व्रत और तप का विधान है सूर्य का कर्क राशि पर आगमन दक्षिणायन का प्रारम्भ माना जाता है और कातिक मास इस अवधि में ही होता है पुराण आदि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है यूँ तो हर मास का अलग अलग महत्व है परन्तु व्रत, तप की दृष्टि से कार्तिक मास की महता अधिक है शास्त्रों में भगवान विष्णु और विष्णु तीर्थ के ही समान कर्तिक् मास को श्रेष्ट और दुर्लभ कहा गया है शास्त्रों में ये मास परम कल्याणकारी कहा गया है।

 कार्तिक मास के व्रत नियम
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कार्तिक मास में जो भी व्रत आदि रखता है उसे सदा एक पहर रात बचते ही उठ जाना चाहिए फिर स्तोत्र आदि के द्वारा अपने इष्ट देव की स्तुति करते हुए दिन के बाकी कामों को करना चाहिए। गाँव अथवा नगर के अनुसार दैनिक कर्म मल-मूत्र त्याग आदि कर उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। इसके साथ ही दाँत व जिह्वा की शुद्धि के लिए वृक्ष के समीप जाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए - 

आयुर्बल यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च ।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेघां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।

अर्थात हे वनस्पति! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा एवं धारणाशक्ति प्रदान करें. इस प्रकार कहकर वृक्ष से दाँतुन लेनी चाहिए. दूध वाले वृक्षों की दाँतुन लेना वर्जित माना गया है। दाँतों को विधिपूर्वक शुद्ध करके मुँह को जल से धोना चाहिए, इसके बाद कार्तिक का व्रत करने वाले को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

स्नान के बाद नए अथवा स्वच्छ वस्त्र धारण करके तिलक लगाना चाहिए फिर अपनी गोत्र विधि के अनुसार अथवा अपने घर के नियमानुसार संध्या उपासना करनी चाहिए. जब तक सूर्योदय ना हो जाए तब तक गायत्री मंत्र का जाप करते रहना चाहिए। संध्योपासना के अंत में विष्णु सहस्त्रनाम आदि का पाठ करना चाहिए, फिर व्यक्ति को अपनी दिनचर्या आरंभ करनी चाहिए जैसे वह जो भी काम करता हो उस पर जाना चाहिए। मध्यान्ह में दाल के अलावा शेष अन्न का भोजन करना चाहिए। जो व्यक्ति अतिथियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करता है वह भोजन अमृततुल्य होता है।

मुख शुद्धि के लिए तुलसी का सेवन करना उत्तम है। उसके बाद शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करना चाहिए, सायंकाल में पुन: भगवान के मन्दिर जाकर संध्या करके यथाशक्ति दीपदान करना चाहिए. भगवान विष्णु अथवा अपने देवता को प्रणाम करके आरती उतारनी चाहिए, प्रथम प्रहर में कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए, प्रथम प्रहर के बीत जाने पर शयन करना चाहिए, इस प्रकार जो व्यक्ति एक महीने तक शास्त्र अनुसार विधि का पालन करते हुए कार्तिक मास में स्नान-दान करता है, उसे भगवान का सालोक्य प्राप्त होता है।

कार्तिक मास त्याज्य पदार्थ
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हिन्दू धर्म में इस महीने में कुछ परहेज/ त्याज्य बताए गए हैं। कार्तिक स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को इसका पालन करना चाहिए। इस मास में धूम्रपान निषेध होता है। यही नहीं लहुसन, प्याज और मांसाहर का सेवन भी वर्जित होता है। 

कार्तिक मास में प्याज, सिंघाड़ा, सेज, बेर, राई, नशीली वस्तुएँ और चिवड़ा इन सभी का उपयोग भी वर्जित है, कार्तिक व्रत करने वाले व्यक्ति को देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री और महात्माओं की निन्दा नहीं करनी चाहिए, कार्तिक मास में नरक चतुर्दशी को (छोटी दीवाली) शरीर में तेल लगाना चाहिए, इसके अलावा व्रती मनुष्य को अन्य किसी भी दिन तेल नहीं लगाना चााहिए, व्रत करने वाले को कार्तिक में चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मण द्वेषी और वेद बहिष्कृत लोगों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।

इस महीने में भक्त को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए उसे भूमि शयन करना चाहिए। इस दौरान सूर्य उपासना विशेष फलदायी होती है। साथ ही दाल खाना तथा दोपहर में सोना भी अच्छा नहीं माना जाता है। तेल लगाना, दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करना, तेल खाना, अधिक बीज वाले फलों का सेवन, चावल तथा दाल ये खाद्य पदार्थ कार्तिक मास में नहीं खाने चाहिए. इसके अलावा गाजर, बैंगन, बासी खाना, मसूर, कांसे के बर्तन में भोजन, कांजी, दुर्गंधित पदार्थ, किसी भी समुदाय का अन्न अर्थात भण्डारा, शूद्र का अन्न, सूतक का अन्न, श्राद्ध का अन्न यह कार्तिक व्रत करने वाले को त्याग देने चाहिए।

कार्तिक मास वेदोक्त महात्म्य 
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भगवान श्रीकृष्ण कहते है- हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। इनसे मुक्ति, भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है। कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है। कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष नियम निम्न प्रकार हैं 

1 ➾ जो कार्तिक मास प्राप्त हुआ देख पराये अन्न का सर्वथा त्याग करता है (बाहर का कुछ नही खाता) उसे अतिक्रच्छ नामक यज्ञ करने का फल मिलता है।

2 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु को कमल के फूल चढाता है। वह 1 करोड जन्म के पाप से मुक्त हो जाता है।

3 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु को तुलसी चढाता है , वह हर 1 पत्ते पर 1 हीरा दान करने का फल पाता है।

4 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज गीता का एक अध्याय पड़ता है वह कभी यमराज का मुख नही देखता।

5 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे शालिग्राम शिला का दान करता है उसे सम्पूर्ण पृथ्वी के दान का फल मिलता है।

6 ➾ कार्तिक मास मे जो व्यक्ति पुरे मास पलाश की पत्तल मे भोजन करता है । वह विष्णु लोक को जाता है।

7 ➾ कार्तिक मास मे तुलसी पीपल और विष्णु की रोज पूजा करनी चाहिए।

8 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु के मंदिर की परिक्रमा करता है । उसे पग पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

9 ➾ इस जन्म मे जो पाप होते है वह सब कार्तिक मास मे दीपदान करने से नष्ट हो जाता है।

10 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज नाम जप करते है। उन पर भगवान विष्णु प्रसन्न रहते है।

11 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे तुलसी ,पीपल या आवले का वृक्षारोपण करते है। वह पेड़ जब तक पृथ्वी पर रहते है। लगाने वाला तब तक वैकुण्ठ मे वास करता है।

🛑 विशेष ➺
 
 कार्तिक स्नान सम्पूर्ण विधि
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कार्तिक महीने में दान, पूजा-पाठ तथा स्नान का बहुत महत्व होता है तथा इसे कार्तिक स्नान की संज्ञा दी जाती है। यह स्नान सूर्योदय से पूर्व किया जाता है। इस समय घर की महिलायें नदियों में ब्रह्ममूहुर्त में स्नान करती हैं। यह स्नान विवाहित तथा कुंवारी दोनों के लिए फलदायी होता है। स्नान कर पूजा-पाठ को खास अहमियत दी जाती है। कार्तिक स्नान आश्विन माह की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर अगले माह कार्तिक माह की पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस पवित्र स्नान को आरंभ करने से पहले आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी आने पर भगवान विष्णु को प्रणाम कर कार्तिक व्रत करने की आज्ञा लेनी चाहिए। इस तरह से आज्ञा लेने से भगवान प्रसन्न होते हैं और अपने भक्त पर कृपा कर उसे आत्मिक बल तथा मनोबल प्रदान करते हैं. साथ ही ईश्वर अपने भक्त को विधिपूर्वक कार्तिक व्रत करने की सद्बुद्धि देते हैं।

इस काल खंड में देश की पवित्र नदियों में स्नान का खास महत्व होता है। भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए आश्विन की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक प्रतिदिन गंगा जी में स्नान करना चाहिए. यदि गंगा जी नहीं है तब किसी भी नदी, तालाब अथवा पोखर आदि में कार्तिक स्नान करना चाहिए. यदि कुछ भी नहीं है तब नियमित रुप से घर पर ही शुद्ध बाल्टी अथवा पात्र से स्नान करना है उसमें गंगा जी सहित सभी पवित्र नदियों की कल्पना करके स्नान करना चाहिए।
 
देवी पक्ष अर्थात भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की महारात्रि आने तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए। श्रीगणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आश्विन कृष्ण चतुर्थी से लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तक नियमपूर्वक स्नान करना चाहिए। भगवान जनार्दन को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।
 
जो मनुष्य जाने-अनजाने कार्तिक मास में नियम से स्नान करते हैं, उन्हें कभी यम-यातना को नहीं देखना पड़ता, कार्तिक मास में तुलसी के पौधे के नीचे राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे भाव के साथ पूजा करनी चाहिए. यदि आंवले का पेड़ है तब उसके नीचे भी राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे श्रद्धा भाव से पूजन करना चाहिए।
 
विधिपूर्वक स्नान करने के लिए जब दो घड़ी रात बाकी बच जाए तब तुलसी की मिट्टी, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय या गंगा तट अथवा पवित्र नदी के किनारे जाकर पैर धोने चाहिए तथा गंगा जी के साथ अन्य पवित्र नदियों का ध्यान करते हुए विष्णु, शिव आदि देवताओं का ध्यान करना चाहिए. उसके बाद नाभि तक जल में खड़े होकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

कार्तिकेsहं करिष्यामि प्रात: स्नानं जनार्दनं ।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ।।

अर्थात हे जनार्दन देवेश्वर ! लक्ष्मी सहित आपकी प्रसन्नता के लिए मैं कार्तिक प्रात: स्नान करुँगा। 

उसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करें - 

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।
नम: कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।।।
नमस्तेsस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोsस्तुते ।।

अर्थात आप मेरे द्वारा दिये गये इस अर्घ्य को श्रीराधाजी सहित स्वीकार करें, 
हे हरे! आप कमलनाभ को नमस्कार है, जल में शयन करने वाले आप नारायण को नमस्कार है. इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिए, आपको बारम्बार नमस्कार है।
 
व्यक्ति किसी भी जलाशय में स्नान करे, उसे स्नान करते समय गंगा जी का ही ध्यान करना चाहिए. सबसे पहले मृत्तिका (मिट्टी) आदि से स्नान कर ऋचाओं द्वारा अपने मस्तक पर अभिषेक करें. अघमर्षण और स्नानांग तर्पण करें तथा पुरुष सूक्त द्वारा अपने सिर पर जल छिड़्के. इसके बाद जल से बाहर निकलकर दुबारा अपने मस्तक पर आचमन करना चाहिए और कपड़े बदलने चाहिए। कपड़े बदलने के बाद तिलक आदि लगाना चाहिए। जब कुछ रात बाकी रह जाए तब स्नान किया जाना चाहिए क्योंकि यही स्नान उत्तम कहलाता है तथा भगवान विष्णु को पूर्ण रूप से संतुष्ट करता है। 

प्राचीनकाल में कार्तिक मास में पुष्कर का स्पर्श पाकर नन्दा परम धाम को प्राप्त हुई थी, राजा प्रभंजन भी कार्तिक मास में पुष्कर में स्नान करने से व्याघ्र योनि से मुक्त हुए थे,अत: कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रात:काल उठकर तीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर श्री हरि को प्राप्त होता है। सूर्योदय काल में किया गया स्नान मध्यम स्नान कहलाता है, कृत्तिका अस्त होने से पहले तक का स्नान उत्तम माना जाता है, बहुत देर से किया गया स्नान कार्तिक स्नान नहीं माना जाता है। 
इस प्रकार संपूर्ण कार्तिक स्नान कर्म विधि को सर्व मोक्ष एवं कल्याण रूप में निरूपित किया जाना चाहिए। 


🚩नमो नारायण 🚩

आवाहन बंधन, संकल्प जाप और विसर्जन कैसे करते हैं ??

सभी का आवाहन मंत्र अलत होता है।
साधारण रूप से आवाहन करना है तो
आवाहन मुद्रा बनाकर उनका मंत्र बोलते हुए आवाहयामी बोला जाता है
जैसे गणेश जी का आवाहन करना है तो "ॐ गं गणपतये नमः आवाहयामी स्थापित नमः"

संकल्प के लिए हाथ में थोड़ा सा जल लेकर अपना संकल्प को बोला जाता है आप हिंदी में भी हो सकते हैं उसमें अपना नाम, गोत्र, तिथि, वार, किस चीज के लिए साधना कर रहे हैं इत्यादि बोला जाता है।

बंधन के लिए मंत्र दिया होगा उसे बोलते हुए करना है।

मंत्र जप में विसर्जन नहीं होता समर्पण होता है।

१.पवित्रीकरण

बायें हाथ में जल लेकर उसे दायें हाथ से ढककर निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

इस अभिमंत्रित जल को दाहिने हाथ की उंगलियों से अपने सम्पूर्ण शरीर पर छिड़कें, जिससे आन्तरिक और बाह्य शुद्धि हो।

२. आचमन

मन, वाणी तथा हृदय की शुद्धि के लिए पंचपात्र से आचमनी द्वारा जल लेकर तीन बार निम्न मंत्रों के उच्चारण के साथ पियें

ॐ केशवाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः।
ॐ गोविंदा य नमः।

ओम ऋषिकेशाय नमः एक आचमनी जल ले कर हाथ धो ले।

३.शिखा बन्धन

शिखा पर दाहिना हाथ रखकर दैवी शक्ति का स्थापन करें, जिससे साधना पथ में प्रवृत्त होने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त हो सके

चिद्रूपिणि महामाये दिव्य तेजः समन्विते । 
तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धिं कुरुष्व मे॥

४.न्यास

इसके उपरान्त मंत्रों के द्वारा अपने सम्पूर्ण शरीर को पुष्ट व सबल बनाएं। प्रत्येक मंत्र उच्चारण के साथ सम्बन्धित अंग को दाहिने हाथ से स्पर्श करें।

५.आसन पूजन

अब अपने आसन के नीचे कुंकुम या चन्दन से त्रिकोण बनाकर उस पर अक्षत, चन्दन व पुष्प निम्न मंत्र बोलते हुए समर्पित करें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें

ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता। 
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ॥

६.दिग् बन्धन

बायें हाथ में जल या चावल लेकर दाहिने हाथ से सभी दिशाओं में निम्न मंत्र बोलते हुए ऊपर व नीचे छिड़कें

ॐ अपसर्पन्तु ये भूता ये भूताः भूमि ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।। 
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम्। सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे ।।

गणेश स्मरण

तत्पश्चात् गणपति के बारह नामों का स्मरण करें, प्रत्येक कार्य करने के पूर्व भी इन बारह नामों का स्मरण सिद्धिदायक माना गया है।

 सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
 लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।।
 धूम्रकेतु र्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। 
 द्वादशै तानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।
 विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
 संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥

इतना करने के बाद जिसकी मंत्र जाप करना है उसे देवी/देवता का संक्षिप्त पूजन करें।

पूजन में सबसे पहले हाथ जोड़कर ध्यान करें ध्यान मंत्र बोलते हुए।

फिर आवाहन मुद्रा बनाते हुए आवाहन मंत्र बोलकर आवाहन करें।

फिर आसन के लिए कुछ पुष्प लेकर आसान मंत्र बोलते हुए उसके पुष्प चढ़ाएं।

फिर पैर धोने के लिए पाद्य, हाथ धोने के लिए अर्ध्य ,स्नान,वस्त्र, चंदन,अक्षत,पुष्प,धूप,दीप नैवेद्य, निरंजन जल आरती पुष्पांजलि विशेषार्ध्य, समर्पण (सभी का मंत्र अलग-अलग होगा)
फिर उसके बाद मानसिक रूप से गुरु आज्ञा लेकर मंत्र जप शुरू करें अंत में जप समर्पण कर दें।