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नवरात्रि में 9 तिथियाँ ।।

                  नवरात्रि में 9 तिथियों को 3-3-3 तिथि में बाँटा गया है। प्रथम 3 दिन मां दुर्गा की पूजा (तामस को जीतने की आराधना) बीच की तीन तिथि माँ लक्ष्मी की पूजा(रजस)को जीतने की आराधना) तथा अंतिम 3 दिन माँ सरस्वती की पूजा (सत्व को जीतने आराधना) विशेष रुप से की जाती है।
                  दुर्गा की पूजा करके प्रथम दिनों में मनुष्य अपने अंदर उपस्थित दैत्य,अपने विघ्न,रोग,पाप तथा शत्रु का नाश कर डालता है। उसके बाद अगले तीन दिन सभी भौतिकवादी,आध्यात्मिक धन
और समृद्धि प्राप्त करने के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा करता है।अंत में आध्यात्मिक ज्ञान के उद्देश्य से कला तथा ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती की आराधना करता है।
                  अब तीनों देवी के आराधना हेतू मंत्रोँ का वर्णन करता हूँ- माँ दूर्गा के लिए नवार्ण मंत्र महाम्ंत्र है, इसको मंत्रराज कहा गया है। नवार्ण मंत्र की साधना से धन-धान्य,सुख-समृद्धि
आदि सहित सभी मनोकामनाएं 
पूरी होती है।
                 "ऐं हीं क्लीँ चामुण्डायै विच्चे"
  श्री लक्ष्मी जी का मूल मंत्र
                  "ऊँ श्री हीं क्लीँ ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा"
              
श्री माँ सरस्वती जी का वैदिक अष्टाक्षर मूल मंत्र 
                  जिसे भगवान शिव ने कणादमुनी तथा गौतम मुनि, श्री नारायण ने वाल्मीकि को, ब्रह्मा जी ने भृगु को, भृगुमुनि ने शुक्राचार्य को, शुक्राचार्य ने कश्यप को, कश्यप ने बृहस्पति को दिया था। जिसको सिद्ध करने से मनुष्य बृहस्पति के समान हो जाता है--

                  "श्री हीं सरस्वत्यै स्वाहा"

शारदीय नवरात्रि 2024 तिथियाँ
      
 *पञ्चाङ्ग के अनुसार इस वर्ष आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि का आरंभ 02 अक्तूबर 2024 की रात्रि 12 बजकर 19 मिनट से हो रहा है। इसका समापन 4 अक्टूबर को प्रातः 02 बजकर 58 मिनट पर होगा। उदया तिथि के अनुसार शारदीय नवरात्रि का पहला दिन 03 अक्टूबर 2024 को होगा, और इस दिन से ही नवरात्रि की शुरूआत होगी।

पहला दिन - माँ शैलपुत्री की पूजा

दूसरा दिन- मां ब्रह्मचारिणी की पूजा – 4 अक्तूबर 2024

तीसरा दिन- मां चंद्रघंटा की पूजा – 05 अक्तूबर 2024

चौथा दिन- मां कूष्मांडा की पूजा 06 अक्तूबर 2024

पांचवां दिन- मां स्कंदमाता की पूजा – 7 अक्तूबर 2024

छठा दिन- मां कात्यायनी की पूजा – 8 अक्तूबर 2024

सातवां दिन- मां कालरात्रि की पूजा – 9 अक्तूबर 2024

आठवां दिन- मां सिद्धिदात्री की पूजा – 10 अक्तूबर 2024

नौवां दिन- मां महागौरी की पूजा – 11 अक्तूबर 2024

विजयदशमी – 12 अक्टूबर 2024, दुर्गा विसर्ज

पूजा में कलश स्थापन का महत्व तथा शुभ कार्यों में श्रीफल चढ़ाने का महत्व ।।


🔹 कलश का सरल अर्थ है जल से भरा हुवा सुशोभित पात्र है। हिंदू धर्म में सभी मांगलिक कार्यों में कलश स्थापित करने का विशेष महत्व माना गया हैं। 

हिंदू संस्कृति में कलश को एक विशेष आकार के पात्र को कहा जाता हैं, धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कलश के ऊपरी भाग में भगवान विष्णु, मध्य में भगवान शिव और मूल में ब्रह्माजी का निवास होता है। इसलिए पूजन में कलश को देवी-देवता की शक्ति, तीर्थस्थान आदि का प्रतीक मानकर कलश स्थापित किया जाता है। हिंदू धर्म में कलश को सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना जाता है। इसलिए विभिन्न धार्मिक कार्यों एवं गृहप्रवेश इत्यादि शुभ कार्यों में कार्य की शुभता में वृद्धि एवं मंगल कामनाके उद्देश्य से पूजन के दोरान कलश स्थापित किया जाता है।

🔹कलश में प्रयुक्त होने वाली सामग्री 

हिंदू शास्त्रों में उल्लेख हैं की कलश को बिना जल के स्थापित करना अशुभ होता है। इसीलिए कलश को हमेशा पानी इत्यादि सामग्री से भर कर रखना चाहिए। प्राय कलश में जल, पान के पत्ते, अक्षत, कुमकुम, केसर, दुर्वा-कुश, सुपारी, पुष्प, सूत, श्रीफल, अनाज इत्यादि का उपयोग पूजन हेतु किया जाता हैं। विभिन्न पूजन हेतु जल के साथ भिन्न सामग्रीयों का प्रयोग किया जाता है।

🔹कलश का पवित्र जल मनुष्य के मन को स्वच्छ, निर्मल एवं शीतल बनाएं रखने का प्रतिक माना गया हैं। कलश पर स्वस्तिक चिह्न बनाने का प्रतिक को शास्त्रों में स्वस्तिक ब्रह्मांड का प्रतीक माना गया है। स्वस्तिक को भगवान श्री गणेश का साकार रूप है। मान्त्यता हैं, कि स्वस्तिक के मध्य भाग को भगवान विष्णु की नाभि, चारों रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में प्रकट करने की भावना मानी जाती हैं।

🔹कलश के ऊपर श्रीफल स्थापित करना भगवान श्री गणेश का प्रतीक माना जाता है। कलश में सुपारी, पुष्प, दुर्वा इत्यादि आदि सामग्री मनुष्य की जीवन शक्ति का प्रतिक माना जाता हैं।


शुभ कार्यों में श्रीफल चढ़ाने का महत्व

🔹नारियल शुभता का सूचक होने के कारण ही इसे "श्रीफल" कहा जाता हैं। श्रीफल का महत्व अत्याधिक एवं सर्वत्र रहा हैं। श्रीफल को हिंदी में नारियल, खोपरा, गरी, गोला आदि नाम से जाना जाता हैं, इस मराठी में नारळ, गुजराती में नारियर, श्रीफल, नारियेळ, बंगाली में, नारिकेल, डाबेर नारकेल, पयोधर, कन्नड में तेंगिनकायि, तेंगिन, कोब्बरि, तेंगिनकायिय मलयालम में नाळिकेर, वेळिच्चेण्ण, तेण्णा, नेपालि में नरिवल, नरिवलको तमिल में तैकाय, तेन्नै, तेनकु, तेलुगु कोब्बरि, आदि नामों से जाना जाता हैं।

🔹नारियल को संस्कृत में श्रीफल कहा जाता हैं। हिंदू धर्म में सभी प्रकार के धार्मिक एवं मांगलिक कार्यों में श्रीफल अर्थात नारियल का विशेष महत्व पौराणिक काल से ही रहा है। हिंदू धर्म की परंपराओं के अनुशार जब किसी नये कार्या या शुभ कार्य का प्रारंभ या शुभारंभ करना हो तो देवी-देवता के सम्मुख श्रीफल अर्पण करने और उसे फोड़ने का विशेष महत्व रहा है।

🔹यहि कारण हैं की सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों में अन्य पूजन सामग्रीयों के साथ में श्रीफल भी विशेष रुप से होता हैं। धार्मिक मान्यता के अनुशार श्रीफल का उपयोग बलि कर्म के प्रतिक के रुप में भी किया जाता हैं। बलि कर्म अर्थात उपहार अथवा नैवेद्य की वस्तु। देवी-देवताओंको बलि अर्पण करने का तत्पर्य होता हैं उनकी विशेष कृपा प्राप्त करना या उनकी द्वारा प्राप्त हुई कृपा के प्रति कृतज्ञता अर्थात आभार व्यक्त करना।

🔹 श्रीफल को मनुष्य के मस्तक का प्रतिक मान कर बलि स्वरुप चढ़ाया जाता हैं। श्रीफल की जटा को मनुष्य के बाल, श्रीफल की जटा के निकट दिखने वाले तीन गोलाकार चिह्नों को को मनुष्य की आंखों एवं नाक, श्रीफल के कठोर कवच को मनुष्य की खोपड़ी, श्रीफल के पानी को मनुष्य के खून, श्रीफल के गूदे को मनुष्य का दिमाग माना जाता है।

🔹 श्रीफल फोड़ने का महत्व 

श्रीफल फोड़ने मुख्य उद्देश्य मनुष्य के अहंकार को दूर कर और स्वयं को भगवान समर्पित करने की भावना हैं। मान्यता हैं कि ऐसा करने पर मनुष्य की अज्ञानता एवं अहंकार का कठोर कवच टूट जाता है और यह आत्म शुद्धि और ज्ञान का द्वार खोलता है, जिससे नारियल के गूदे वाले सफेद हिस्से के रूप में देखा जाता है। श्रीफल को देवी-देवता को आर्पभ कर उसका प्रसाद बॉटने की प्रथा हिंदू संस्कृति में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। विद्वानों को मतानुशार श्रीफल के पानी को पीने से मनुष्य को अत्यधिक सुख एवं संतुष्टि की अनुभूति होती हैं।

Energy Centres and the Subtle System

जिस प्रकार भूमण्डल का आधार मेरु पर्वत वर्णित है उसी प्रकार इस मनुष्य शरीर का आधार मेरुदण्ड अथवा रीढ़ की हड्डी है। मेरुदण्ड तैंतीस अस्थि-खण्डों के जुड़ने से बना हुआ है (सम्भव है, इस तैंतीस की संख्या का सम्बन्ध तैंतीस कोटि देवताओं अथवा प्रजापति, इन्द्र, अष्ट यसु, द्वादश आदित्य और एकादश रुद्र से हो )। भीतर से यह खोखला है। इसका नीचे का भाग नुकीला और छोटा होता है। इस नुकीले स्थान के आसपास का भाग कन्द कहा जाता है और इसी कन्द में जगदाधार महाशक्ति की प्रतिमूर्ति कुण्डलिनी का निवास माना गया है।

            इस शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियों की स्थिति कही गयी है, इनमें से मुख्य नाड़ियाँ संख्या में चौदह हैं। इनमें से भी प्रधान नाड़ियाँ तीन हैं। इनके नाम इडा पिंगला तथा सुषुम्ना हैं। इडा नाड़ी मेरुदण्ड के बाहर बायीं ओर से और पिंगला दाहिनी ओर से लिपटी हुई हैं। सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड के भीतर कन्दभाग से प्रारम्भ होकर कपाल में स्थित सहस्रदलकमल तक जाती हैं जिस प्रकार कदलीस्तम्भ में एक के बाद दूसरी परत होती है उसी प्रकार इस सुषुम्ना नाड़ी के भीतर क्रमशः वज्रा, चित्रिणी तथा ब्रह्मनाड़ी हैं। योगक्रियाओं द्वारा जागृत कुण्डलिनी शक्ति इसी ब्रह्मनाड़ी के द्वारा कपाल में स्थित ब्रह्मरन्ध्र तक (जिस स्थान पर खोपड़ी की विभिन्न हड्डियाँ एक स्थान पर मिलती हैं और जिसके ऊपर शिखा रक्खी जाती है) जाकर पुनः लौट आती है। मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में पिरोये हुए छः कमलों की कल्पना की जाती है। यही कमल षट्चक्र हैं। प्रत्येक कमल के भिन्न संख्या में दल हैं और प्रत्येक का रंग भी भिन्न है। ये छः चक्र शरीर के जिन अवयवों के सामने मेरुदण्ड के भीतर स्थित हैं उन्हीं अवयवों के नाम से पुकारे जाते हैं।.


एक साधारण व्यक्ति के लिए प्रतिदिन पूजा की एक सरल विधि हो सकती है, जिसे बिना जटिल प्रक्रियाओं के भी किया जा सकता है। इस विधि में मुख्य रूप से भक्ति, ध्यान और शुद्धता पर ध्यान दिया जाता है। यहां एक आसान पूजा विधि दी जा रही है:

1. स्नान और शुद्धि  
   सुबह उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पूजा स्थल को साफ रखें और एकाग्र मन से पूजा करने का संकल्प लें।

2. धूप-दीप जलाना  
   पूजा स्थल पर दीपक और धूप जलाएं। दीपक भगवान की उपस्थिति का प्रतीक होता है और धूप वातावरण को शुद्ध करती है।

3. इष्ट देवता की प्रार्थना  
   अपने इष्ट देवता (जिन्हें आप पूजते हैं) की मूर्ति या चित्र के सामने बैठें। ध्यान करें और कुछ समय शांत रहें। प्रार्थना या मंत्र का जाप करें। आप "ॐ" का उच्चारण भी कर सकते हैं या फिर "ॐ नमः शिवाय", "ॐ विष्णवे नमः" जैसे मंत्रों का जप करें।

4. पुष्प अर्पण  
   भगवान को ताजे फूल अर्पित करें। यह भक्ति का प्रतीक होता है और पुष्पों से पूजा में सौंदर्य और पवित्रता आती है।

5. नैवेद्य (प्रसाद) चढ़ाएं  
   कोई भी शुद्ध और सरल भोजन जैसे फल या मिठाई भगवान को चढ़ाएं। यह प्रसाद अंत में सभी भक्तों के साथ बांटा जा सकता है।

6. आरती  
   छोटी सी आरती करें, जिसमें भगवान को दीपक दिखाएं। इसके साथ "ॐ जय जगदीश हरे" जैसी आरती गाएं या फिर कोई छोटी प्रार्थना कर सकते हैं।

7. प्रणाम और ध्यान  
   पूजा समाप्त होने पर भगवान को प्रणाम करें और कुछ समय तक ध्यान में बैठें। मन को शांति और स्थिरता प्रदान करें।

8. शांति मंत्र  
   पूजा के अंत में "ॐ शांति शांति शांति" का उच्चारण कर सकते हैं ताकि आपके और आपके परिवार के जीवन में शांति और संतुलन बना रहे।

इस प्रकार की सरल पूजा विधि से आप प्रतिदिन अपने इष्ट देवता की भक्ति कर सकते हैं।

 महत्वपूर्ण यह है कि श्रद्धा और भक्ति से किया गया कोई भी कर्म ही सही पूजा मानी जाती है।

जय श्री राधे  ।।

मूर्ति पूजा ।।

कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
 छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)

ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।

प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?

उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।

प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।

प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।

प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।

उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।

प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।

उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्

प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।

प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )

हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।

औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले 
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।

2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।

3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।

4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।

भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।

यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।

मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)

हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी नमस्कार है।

अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।

अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।

अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)

प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)

निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।

श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।

 (निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )

दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।

जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।

अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।

 ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।

आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।

चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।

राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।

हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।

आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।

,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।

जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।

आक्षेप करने से यदि राष्ट्रहित हो हिन्दुहित हो सनातन हित हो तो अवश्य करें।यदि समन्वय से सर्वहित हो तो अवश्य इस विषय में उदारवादी जन विवेकी महानुभाव एकतापथ पर बढ़ें।

 ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।

सङ्कलयिता 
पूर्वाचार्य पद सरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य: