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7 दिनों में कब और किस समय होता है राहु काल, यह जानकारी आपको जरूर होनी चाहिए..! 🐉

राहु काल : 
भारतीय ज्योतिष में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चंद्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु। जिसमें राहु, राक्षसी सांप का मुखिया है जो हिन्दू शास्त्रों के अनुसार सूर्य या चंद्रमा को निगलते हुए ग्रहण को उत्पन्न करता है। राहु तमस असुर है। राहु का कोई सिर नहीं है और जो आठ काले घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार हैं। 

ज्योतिष में राहु काल को अशुभ माना जाता है। अत: इस काल में शुभ कार्य नहीं कि जाते है। यहां आपके लिए प्रस्तुत है सप्ताह के दिनों पर आधारित राहुकाल का समय,जिसे देखकर आप अपना दैनिक कार्य कर सकते हैं। 
 
🐍यहां आपके लिए प्रस्त‍ुत हैं वार के अनुसार राहु काल का समय:-

👉रविवार:- सायं 4:30 से 6:00 बजे तक।
 
👉सोमवार:- प्रात:काल 7:30 से 9:00 बजे तक।
 
👉मंगलवार:- अपराह्न 3:00 से 4:30 बजे तक।
 
👉बुधवार:- दोपहर 12:00 से 1:30 बजे तक।
 
👉गुरुवार:- दोपहर 1:30 से 3:00 बजे तक।

 
👉शुक्रवार:- प्रात:10:30 से दोपहर 12:00 तक।
 
👉शनिवार:- प्रात: 9:00 से 10:30 बजे तक।


।। इति शुभं भवतु ।।

मंत्र पुरश्चरण विधि ।।


किसी मंत्र का प्रयोग करने से पहले उसका विधिवत सिद्ध होना आवश्यक है। उसके लिये मंत्र का पुरष्चरण किया जाता है।
पुरष्चरण का अर्थ है मंत्र की पांच क्रियाएं , जिसे करने से मंत्र जाग्रत होता है और सिद्ध होकर कार्य करता है।
जिनमें पहली है मंत्र का जाप।
दूसरा है हवन।
तीसरा है अर्पण।
चौथा है तर्पण।
पॉचवा है मार्जन।

अब इनके बारे मे विस्तार से जानते है

1. मंत्र जाप
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गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का मानसिक उपांशु या वाचिक मुंह द्वारा उच्चारण करना मंत्र जाप कहलाता है। अधिकांश मंत्रों का सवा लाख जाप करने पर वह सिद्ध हो जाते हैं। लेकिन पुरश्चरण करने के लिए उपरोक्त मंत्र में अक्षरों की संख्या को एक लाख से गुना कर जितनी संख्या आये उसके बराबर जप, जप का दशांश हवन, हवन का दशांश अर्पण, अर्पण का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन करने पर पुरश्चरण की विधि शास्त्रोक्त रीति से पूर्ण मानी जाती है इस विधि से पुरश्चरण करने पर साधक के अंदर एक दिव्य तेज प्रस्फुरिट होता है तथा प्राप्त सिद्धि को दीर्घ काल तक स्थायी रख पाने का सामर्थ्य आता है।

2. हवन
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हवन कुंड में हवन सामग्री द्वारा अग्नि प्रज्वलित करके जो आहुति उस अग्नि में डाली जाती है, उसे हवन या यज्ञ कहते है। मंत्र जाप की संख्या का दशांश हवन करना होता है। मंत्र के अंत में स्वाहा लगाकर हवन करें। दशांश यानि 10% यानि सवा साख मंत्र का 12500 मंत्रों द्वारा हवन करना होगा।

3. अर्पण
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दोनो हाथो को मिलाकर अंजुलि बनाकर हाथो मे पानी लेकर उसे सामने अंगुलियो से गिराना अर्पण कहलाता है। अर्पण देवो के लिये किया जाता है । मंत्र के अंत मे अर्पणमस्तु लगाकर बोले। हवन की संख्या का दशांश अर्पण किया जाता है यानि 12500 का 1250 अर्पण होगा।

4. तर्पण
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अर्पण का दशांश तर्पण किया जाता है।यानि 1250 का 125 अर्पण करना है।मंत्र के अंत में तर्पयामि लगाकर तर्पण करें। तर्पण पितरों के लिये किया जाता है। दाएं हाथ को सिकोड़कर
पानी लेकर उसे बाईं साइड में गिराना तर्पण कहलाता है।

5. मार्जन
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मंत्र के अंत में मार्जयामि लगाकर डाब लेकर पानी में डुबा कर अपने पीछे की ओर छिड़कना मार्जन कहलाता है। तर्पण का दशांश मार्जन किया जाता है।
ये पुरष्चरण के पॉच अंग हैं, इऩके बाद किसी ब्राह्मण को भोजन कराना चाहें तो करा सकते हैं। मंत्र सिद्धि के बाद उसका प्रयोग करें। आपको अवश्य सफलता मिलेगी
आज साधकों को वो नियम की जानकारी देते हैं जिनके कारण उनकी साधना सफल /असफल होती है।
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कुछ साधको को तंत्र के प्राथमिक नियम नही पता है नतीजा ये रहता है कि साधना सफल नही होती।
1-- तंत्र का पहला नियम है कि ये एक गुप्त विद्या है इसलिये इसके बारे मे आप केवल अपने गुरू के अलावा किसी अन्य को अपनी साधना या साधना के दोरान होनी वाली अनुभूति को किसी अन्य को न बताये,चाहे वो कोई हो चाहे कुछ हो,सपने तक किसी को नही बताये।और मंत्र को गोपनोय रखें।
यदि ऐसा किया जाता है तो जो अनुभूति मिल रही है वो बन्द हो सकती है साधना असफल हो सकती है।
उग्र देव की साधना मे प्राण तक जाने का खतरा है। इसलिये किसी से कुछ शेयर न करे सिवाय गुरू के।
2-- दूसरा नियम गुरू द्वारा प्रदान किये गये मंत्रो को ही सिद्ध करने की कोशिश करे।
3-- साधना काल मे यानि जितने दिन साधना करनी है उतने दिन ब्रह्मचर्य रखे। शारीरिक सम्बंध न बनाये, मानसिक ब्रह्मचर्य के टूटने की चिंता नही करे।इस पर किसी का वश नही हैजैसे नाइट फॉल।
4-- साधना के दौरान कमरे मे पंखा कूलर न चलाये ये तीव्र आवाज करते है जिनसे ध्यान भंग होता है। एसी रूम मे बैठ सकते है, या पंखा बहुत स्लो करके बैठे सबसे अच्छा यही है कि पंखा न चलाये,क्योकि साधना के दौरान होने वाली आवाज को अाप पंखे की आवाज मे सुन नही पाते हो।
5-- कमरे मे आप बल्ब भी बन्द रखे क्योकि ये पराशक्तियॉ सूक्ष्म होती है इन्हें तीव्र प्रकाश से प्रत्यक्ष होने मे दिक्कत होती है।
6-- जप से पहले जिस की साधना कर रहे हो उसे संकल्प लेते समय जिस रूप यानि मॉ , बहन, पत्नी, दोस्त, दास, रक्षक , जिस रूप मे करे उसका स्पष्ट उल्लेख करे ताकि देवता को कोई दिक्कत न हो और वो पहले दिन से आपको खुलकर अनुभूति करा सके।
7-- जाप के समय ध्यान मंत्र पर ऱखे। कमरे मे होने वाली उठापटक या आवाज की तरफ ध्यान नही दे।
8-- कोई भी उग्र साधना करने पर सबसे पहले रक्षा मंत्रो द्वारा अपने चारो ओर एक घेरा खींच ले मे परी ,अप्सरा ,यक्ष ,गन्धर्व , जिन्न की साधना मे कवच का पाठ कर लें तो अति उत्तम होगा।वैसे आप भी इन्हें बिना कवच के कर सकते है ये सौम्य साधना है। घर से बाहर हमेशा कवच करके बैठे।

*रक्षा कवच के लिए ,चाकू , लोहे की कील , पानी , आदि से अपने चारो ओर मंत्र पढते हुये घेरा अवश्य खीचे।
9-- जाप के बाद जाने- अनजानेअपराधो के लिये क्षमा अवश्य मॉगे।
10-- जाप के बाद उठते समय एक चम्मच पानी आसन के कोने के नीचे गिराकर उस पानी को माथे से अवश्य लगाये,इससे जाप सफल रहता है।
11-- साधना के दौरान भय न करे ये शक्तियॉ डरावने रूपो मे नही आते। अप्सरा, यक्ष , यक्षिणी, परी गन्धर्व, विधाधर ,जिन्न आदि के रूप डरावने नही है ,मनुष्यो जैसे है ,आप इनकी साधना निर्भय होकर करे।
12-- अप्सरा हमेशा प्रेमिका रूप मे सिद्ध करे।
13-- यक्षिणी जिस रूप मे सिद्ध की जाती है उस रूप को थोडी दिक्कत रहती है लेकिन ये उन्हें मारती नही है, डरावने रूप भी नही दिखाती ,कुछ यक्षिणी कोई भी कष्ट नही देती।
अतएव आप निर्भय होकर इनकी साधना कर सकते है।
14-- सबसे जरूरी बात जो भी साधना सिद्ध होती है या सफल होती है तो पहले या दूसरे दिन प्रकृति मे कुछ हलचल हो जाती है यानि कुछ सुनायी देता है या कुछ दिखायी देता है या कुछ महसूस होता है।
यदि ऐसा न हो तो साधना बन्द कर दें वो सफल नही होगी। लम्बी साधना जैसे 40 या 60 दिनो वाली साधना मे सात दिन मे अनुभूति होनी चाहिये।
15-- साधना के लिये आप जिस कमरे का चुनाव करे उसमे साधना काल तक आपके सिवा कोई भी दूसरा प्रवेश नही करे।कमरे मे कोई आये जाये ना सिवाय आप को छोड़कर।
16-- साधना काल मे लगने वाली समस्त सामग्री का पूरा इंतजाम करके बैठे।
17-- फल फूल मिठाई हमेशा प्रतिदिन ताजे प्रयोग करे।
18-- पूरी श्रद्धा विश्वास एकाग्रता से साधना करे ये सफलता की कुंजी हैं।
19-- ये पराशक्तियॉ प्रेम की भाषा समझती हैं इसलिये आप जिस भाषा का ज्ञान रखते है इनकी उसी भाषा मे पूजन ध्यान प्रार्थना करे।
इन्हें सस्कृत या हिन्दी या अग्रेजी से कोई मतलब नही है। अगर आप गुजराती हो तो आप पूरा पूजन गुजराती मे कर सकते है ।अगर आप मराठी हो तो पूरा पूजन मराठी मे कर सकते हैं, कोई दिक्कत नही होगी।
20-- और ये महान शक्तियॉ है इसलिये हमेशा इनसे सम्मान सूचक शब्दो मे बात करे।
21-- साधना कोई वैज्ञानिक तकनीक नही है, जैसा आप लोगो को बताया जा रहा है अगर ऐसा होता तो अब तक भूत प्रेत का अस्तित्व वैज्ञानिक साबित कर चुके होते।
ये एक जीवित शक्तियो की साधना है जिसमे देवता का आना/ ना आना उस देव पर भी निर्भर करता है कि आपसे वो कितना खुश है।
22-- ऐसा कभी नही होगा कि कोई भी 11 दिन 21 माला का जाप बिना श्रद्धा विश्वास कर दे और अप्सरा आदि उसके समक्ष आकर खडी हो जाये।
23-- मंत्रो का शुद्ध स्वर/ध्वनि के साथ उच्चारण की जानकारी प्राप्त करके ही साधना में प्रवृत्त हों।

यंत्र साधना ।।


साधना विज्ञान में विशेषकर वाममार्गी ताँत्रिक साधनाओं में ‘यंत्र-साधना’ का बड़ा महत्व है। जिस तरह देवी देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, प्रेरणाओं की अवधारणा की जाती है, उसी तरह ‘यंत्र’ भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। इनकी रचना ज्यामितीय होती है। यह बिंदु, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और पद्मदलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं। कई का तो बनाना भी कठिन होता है। इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है। इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है। जिस तरह से देवी-देवताओं के रंग, रूप, आयुध, वाहन आदि विशेष गुणों का प्रेरणाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है। रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को ‘मंडल’ कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किंतु ‘यंत्र’ किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। 

 तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान हैं। ये सामान्यतया स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं पर बनाये जाते हैं। भोजपत्र पर बने यंत्र भी उत्तम माने जाते हैं। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगें उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं। ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बन ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है। जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं। इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है। भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देवशक्तियां पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। मानवी काया-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती हैं। यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करते हुए ब्रह्माण्ड का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है। एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है। उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है। वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है। वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता। वह अद्वैत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं। साधक चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर लेती है। यंत्र पूजा में यही भाव निहित है। 

 ‘यंत्र’ का अर्थ ‘ग्रह’ होता है। यह ‘यम्’ धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यहीं नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए मोटर कार, रेलगाड़ी, वायुयान, सेटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं। इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है। इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है। ताँत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है।

अध्यात्मवेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-”जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है। तंत्र परंपरा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में देखा जाता है। यंत्र उस देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है।” इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा। इसके द्वारा मन को केन्द्रित और नियंत्रित किया जाता है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार-”यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे ‘यंत्र’ कहा जाता है। यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुखों का नियंत्रण करता है। इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।” सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपनी कृति “प्रिंसिपल्स ऑफ तंत्र” में लिखा है कि इसका नाम ‘यंत्र’ इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है। 

 यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता की सिद्धि प्राप्त करना है। यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं। इनका संकेत-सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है। उनका चिंतन-मनन करना होता है। विचार परिष्कार एवं भाव-साधना से ही उत्कर्ष होता है। यंत्र के बीच में बिंदु होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है। शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत् चक्कर काट रहा हैं यह सर्वव्यापक है। अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन् हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील रहना है, तभी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा गतिशील हो सकते हैं। बिंदु आकाशतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है। बिंदु यंत्र का आदि और अंत भी होता है अतः यह उस परात्पर परम चेतना का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं। 

 वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है। इसमें उलटा त्रिकोण ‘शक्ति’ का और सीधा त्रिकोण ‘शिव’ का प्रतीक माना जाता है। एक दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है। त्रिभुज का शीर्षकोण जब ऊपर की ओर बना होता है तो अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है। जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्व का द्योतक माना जाता है,क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है। यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत्त-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है। इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत्त में चक्राकार गति के लक्षण पाये जाते हैं। जब एक बिंदु दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत्त बनता है। वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है। अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है। 

 यंत्र में इस गोलाकार वृत्त के सबसे बाहर जो चार ‘द्वार’ वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे ‘भूपुर’ कहते हैं। इसमें बहुमुखता का भाव है। यह पृथ्वी का भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है। किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिंदु तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है। यह बिंदु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है। वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है। 

 आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों का निर्माण होता है। इन यंत्रों में 36 तत्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ और पाँच इनके विषय-रूप, रस, गंध आदि तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं। जिस तरह मंत्रों में बीजाक्षर होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी 1 से लेकर 36 तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है। ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर 36 तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देवशक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं। इन्हीं 36 तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो 25 तत्व हैं, वे वर्णमाला के 25 वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं।

यंत्र विज्ञान में 1, 9 तथा (0) की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं। ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं। मीमाँसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती। वे मंत्र मूर्ति होते हैं। वे यंत्रों में आबद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रों पर भी पड़ता है। यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्दीप्त उत्तेजित करता है। मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है। यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तद्नुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोत्कर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है। 

 मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविधि एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है। तंत्रशास्त्रों में इस तरह के 960 प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विषद व्याख्या भी की गयी है। इनमें से कुछ यंत्रों को ‘दिव्य यंत्र’ कहा जाता है। ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं। उदाहरण के लिए वीसोयंत्र, श्रीयंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है। इनमें से ‘श्री यंत्र’ सबसे प्रसिद्ध है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में ‘योगिनी हृदय’ में कहा गया है कि “जब परात्पर शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्माँड का रूप धारण करती और अपने स्वरूप को निहारती है तभी ‘श्री यंत्र’ का आविर्भाव होता है।” 

 ‘श्री यंत्र’ आद्यशक्ति का बोधक है। इसका आकार ब्रह्मांडाकार है जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास का प्रदर्शन किया गया है। यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपनी महिमा-महत्ता है। इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिंदु स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं। इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है। ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है। नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ‘श्री कंठ’ कहते हैं। ऊर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा के प्रतीक हैं और ब्रह्माँड में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिकोण के बाहर या पश्चात् जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं। इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है। सबसे बाहर चार द्वारों वाला ‘भूपुर’ है जो विश्व ब्रह्माँड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है। 
 इस यंत्र में ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिंदु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। यह तंत्र सृष्टिक्रम का है।

 “आनंद लहरी” में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। वे स्वयं इसके उपासक थे। उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है। योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है। सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान का संकेत है।

यंत्रों में बिंदु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है। इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्त्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला (कुछ शब्द मिसप्रिंट हैं) यह घोषणा लिखवादी थी कि जो विद्यार्थी ज्यामिति से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें। आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पॉवर-एवं अद्भुत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं। मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्साई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर ‘श्री यंत्र’ के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतर्निहित नौ त्रिभुजों से बनी है। उच्च बीज गणित, सांख्यिकी-विश्लेषण, ज्यामिति एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए। उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पत्ति की ‘बिग-बैंग’ वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा ‘तप्त विश्व’ के सिद्धाँतों से मिलती जुलती हैं। यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों के लिए अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतर्निहित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं।

अंतर्द्वंद ।।

      आध्यात्मिक लोगो और सामान्यजनों में अधिकांशतः सभी अपने जीवन के किसी न किसी काल में अध्यात्म के प्रति सशंकित रहते हैं। मानव मस्तिष्क ही कुछ ऐसा है आत्मा की आवाज कहती है कि अध्यात्म ही सत्य का मार्ग है परन्तु मस्तिष्क माया संसार की तरफ मनुष्य को खींचता है। बड़े-बड़े साधक डिग जाते हैं। अब तो कलयुग है प्रत्येक का मानस अंतद्वंद से ग्रसित है। हजारों महाभारत को एक तरफ रख लीजिए और अंतद्वंद को एक तरफ निश्चित ही अंतद्वंद भारी पड़ेगा। अंतर्द्वद के निराकरण के पश्चात ही महाभारत का अभ्युदय हुआ। सर्वप्रथम अर्जुन अंतद्वंद से ग्रसित हुआ उसके अंदर विचारों और तर्कों का तूफान उठा सब कुछ उलझ गया, संकल्प शक्ति क्षीण पड़ गई। पथ भ्रष्ट होने ही वाला था तभी श्रीकृष्ण ने गीता का प्रकाश आलोकित कर दिया। अंतद्वंद मिट गया। अर्जुन पुनः कर्मशील बन पाया। 

          नीचे एक कथा वर्णित कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी भी अंतद्वंद से ग्रसित हो एक बार नास्तिक हो बैठे थे। यह कहानी फार्मूला पद्धति पर चल रहे साधकों के लिए एक प्रकाश पुंज का कार्य करेगी। आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी ने अपने गुरु के निर्देशानुसार ग्यारह अनुष्ठान किये पर कोई परिणाम नहीं निकला। कुछ भी चमत्कार नहीं हुआ। तब उन्होंने स्थण्डिल पर अग्नि प्रज्वलित कर झोली, माला, आसन, पुस्तक आदि सबको अग्निसात् कर दिया। बस, केवल एक श्री यंत्रमय शिवलिङ्ग ही हाथ में बचा था। उसे भी वे अग्नि में डाल ही रहे थे कि एक स्त्री वहाँ आ गयी और बोली महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पूजा-पाठ, उपासना सब पाखण्ड है, इसलिये मैं इन सबों को जलाकर लोगों को सचेत करूंगा कि वे उपासना छोड़कर अन्य पुरुषार्थ एवं परिश्रमों का आश्रय लें। इस पर वह स्त्री बोली कि यह सब तो ठीक है, पर जरा आप अपने पीछे देखिए कि वहाँ क्या हो रहा है, विद्यारण्य ने जब पीछे देखा तो वह स्थण्डिलाग्नि उनके पीछे ही दिखायी दी और उसमें ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर गिरकर फूटने लगे। 

       वे घबराकर खड़े हो गये और धीरे-धीरे अग्नि से दूर हटने लगे। तब तक लगातार ग्यारह पत्थर आकाश से गिरकर भयंकर ध्वनि करते हुए अग्नि में नष्ट हो गये। उन्होंने सोचा कि यह स्त्री इस विषय में कुछ अवश्य जानती होगी, क्योंकि उसी ने ही पीछे देखने को कहा है पर जब वे स्त्री को खोजने लगे तो वह कहीं न दिखी। निकट के उपवन की झाड़ियों में भी उसे चिल्लाकर पुकारा पर वह नहीं आयी। अंत में आकाश से एक ध्वनि आयी कि तुम घोर नास्तिक हो। मैं तो ठीक समय पर आ गयी थी। पर तुम्हारी गुरु और शास्त्रों में श्रद्धा नहीं थी। अतः तुमने सबको जला दिया, गुरु का अपमान किया और नास्तिकता का प्रचार करने को उद्यत हो गये थे। अब भला बताओ तुम्हें किस देवता का दर्शन होगा और कौन सी सिद्धि प्राप्त होनी चाहिए। तुम्हारे ग्यारह जन्मों के पाप थे जो ग्यारह पहाड़ के रूप में गिरकर अग्नि में नष्ट हुए। अब पुनः गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करो। विद्यारण्य अपने गुरु के चरणों में गिरकर यह सारी घटना सुनाई। उनके गुरु अत्यंत कृपालु थे उन्होंने उन्हें पुन: दूसरी माला, झोली और पुस्तकें आदि दे दीं और कहा कि तुम्हे एक ही अनुष्ठान से भगवती का सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। फिर सब कुछ वैसा ही हुआ। 

            शंकराचार्य के सम्प्रदाय में वे ही सबसे बड़े विद्वान् हुए। फिर उन्होंने श्रीविद्यार्णव, नृसिंहोत्तरतापिनी उपनिषद्-भाष्य आदि विशाल मंत्रोपासना ग्रंथ, जीवन्मुक्ति विवेक, उपनिषद् भाष्य, वेद, आरण्यक भाष्य और पंचदशी आदि प्रायः शताधिक छोटे- बड़े ग्रंथ लिखे तथा देवी से यह भी प्रार्थना की कि जो शुद्ध हृदय से गुरु न मिलने पर मुझे ही गुरु मानकर इस ग्रंथ की विधिपूर्वक उपासना करे तो उसे आप शीघ्र दर्शन दें, अन्यथा कलियुग में सभी नास्तिक हो जायेंगे। ये ही विद्यारण्य भगवान् शंकर की कृपा से शृंगेरी मठ के आचार्य हुए और प्रायः सौ वर्षों से अधिक दिनों तक जीवित रहे। इन्होंने काश्मीर तथा विजयनगर दो विशाल साम्राज्यों की स्थापना की थी, जिनकी राजधानियाँ श्री यंत्र पर स्थित होने के कारण श्री नगर तथा विद्यानगर (विजय नगर ) के नाम से प्रसिद्ध हुई।

         दोनों के शासक नरेश इनके अत्यन्त अनुगत शिष्य थे और साम्राज्यों का सीधा संचालन इनके ही हाथों में था। यों ही हाथों में था। यों देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र में मया पञ्चशीतेरधिकमपनीते तु वयसि इसमें पचासी वर्ष से अधिक जीने की जो बात कही गयी है, वह इन्हीं की रचना सिद्ध होती है, क्योंकि शंकराचार्य जी 32 वर्ष तक ही जीवित थे। 

       देवता का ध्यान प्रायः हृदय में होता है, यदि हृदय शुद्ध नहीं है, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि से तनिक भी दूषित हैं तो वहाँ देवता कैसे आयेंगे। जिस गंदे तालाब में सुअर, गदहे, कुत्ते, गीध, कौए, बगुले आदि लोट लोटकर स्नान आदि कर दूषित करेंगे, वहाँ राजहंस कैसे आ सकते हैं? गोस्वामी जी ने भी कहा है 
जेहि सर काक कंक बक सूकर क्यों मराल तहँ आवत।।
 शैवागमों में शिव-ज्ञान की बहुत चर्चा है। तदनुसार अभ्यास, ज्ञान, वैराग्य ही शिव की प्रसन्नता के लिये मूल स्रोत बतलाये गये हैं। शिवगीता एवं भगवद्गीता में प्रायः यही बात कही गयी है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि शिवरूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित ही हैं। पर विनम्रता और श्रद्धारूपी भवानी तथा त्याग, वैराग्य, दैन्य और विश्वासरूपी शिव के अभाव में वह प्रत्यक्ष नहीं होता

 भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरू पिणौ । 
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम् ॥ 
देवो भूत्वा यजेद्देवम् शिवो भूत्वा शिवं यजेत् के अनुसार विष्णु बनकर विष्णु की आराधना होती है अतः शिव की प्राप्ति के लिये अपने को निरन्तर ऊपर उठाते हुए शिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, सहिष्णु और काम, क्रोध, लोभ आदि से शून्य होकर केवल विज्ञानमय, साधनामय एवं उपासनामय ही बनना पड़ेगा। गीता के नासतो विद्यतो भावो नाभावो विद्यते सतः के आधार पर मानसिक योग्यता न होने तथा अर्थ, काम लिप्सा के कारण ही अन्तर-बाह्य व्याप्त शिव नहीं दिखते। शुद्ध उपासना का आश्रय लेने पर सभी दोष धीरे-धीरे दूर होकर एकमात्र शांत शिव ही सर्वत्र उद्भासित होते दिखेंगे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

उत्पादन ।।

        गुरु उद्यमशीलता का पर्यायवाची है। गुरु का कर्तव्य है जनमानस को अध्यात्म के उद्यम हेतु प्रेरित करना संचालित करना एवं क्रियाशील करवाना। उद्यम से ही उत्पादन होता है। इस सृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति का भी उत्पादन किया जाता है। मनुष्य एक परम उद्यमशील संरचना है सृष्टि के विकास क्रम में जीव सबसे परिष्कृत और शक्तिशाली इकाई है। यह ईश्वर का प्रतिरूप है। ब्रह्माण्ड की समस्त झलकियाँ मनुष्य के अंदर निहित कर दी गई हैं एवं एक अकेला मनुष्य आध्यात्मिक उद्यम, का स्तोत्र बन सकता है। एक अकेला मनुष्य अध्यात्म की धारा प्रवाहमान करने में सक्षम है और वह भी कई कल्पों तक एक अवतार या एक महापुरुष एक वृहद धर्म संस्थान की स्थापना कर सकता है। एक कृष्ण हुए हैं पर आज भी अनंत जनमानस, साधक एवं कृष्ण भक्त उनके द्वारा प्रवाहित गीता ज्ञान को आधार मानकर। आध्यात्मिक शक्ति का उत्पादन कर रहे हैं जो उत्पादन कर रहे हैं वही कृष्ण को प्रिय है। 

      प्रत्येक व्यक्ति का अपना मानस है, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग आवश्यकता है। अतः सभी से कृष्णोपासना नहीं करवाई जा सकती और यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति जीवन में अनेकों प्रकार की साधनाएँ सम्पन्न करे। अतः ईश्वर विभिन्न ॐ स्वरूपों में प्रकट होता है। जिसे जो स्वरूप पसंद आता है वह उसी स्वरूप में ध्यानस्थ हो अध्यात्म का उत्पादन करता है। अध्यात्म ही श्री है। चाहे भैरव उपासना करो,शिव उपासना करो या विष्णु उपासना मूलभूत रूप से अध्यात्म का ही उत्पादन होता है। जब तक अध्यात्म का उत्पादन होता रहता है जीव ईश्वर को प्यारा होता है। अनुत्पादक मनुष्य से गुरु को क्या काम? जो धरती मरु भूमि बन जाती है वहाँ से मनुष्य भी पलायन कर जाता है। ठीक इसी प्रकार जब जीव धर्मोपासना नहीं करता तो परम शक्ति पलायन कर जाती है। अध्यात्म की शक्ति ईश्वर को नहीं चाहिए बल्कि ईश्वर के द्वारा रचित इस जगत को चाहिए होता है। 

       सूर्य, चंद्र, आकाश, नक्षत्र इन सबको गतिमान रखने । के लिए यथा स्थिति बनाये रखने के लिए अध्यात्म बल की ही जरूरत पड़ती है। केवल मनुष्य अकेला अध्यात्म का उत्पादन नहीं करता है अपितु सभी ग्रह- नक्षत्र, पिण्ड, सूर्य इत्यादि भी आध्यात्मिक बल के उत्पादन की एक इकाई हैं। मनुष्य तो बहुत बाद में आता है। जैसे ही कोई आध्यात्मिक बल के उत्पादन से विमुख होता है उसकी संरचना खण्डित होने लगती है। गुरु के लिए प्रत्येक शिष्य मात्र अध्यात्म के उत्पादन की एक इकाई है। उससे किस प्रकार की साधना करवानी है, उसे किस प्रकार फल देना है इत्यादि यह गुरु का विषय है। गुरु शिष्य की परम्परा के अंतर्गत फल का विधान अनंत गुना होता है। आध्यात्मिक उत्पादन की इकाई बनने की स्थिति में जो फल प्राप्त होता है वह कई पीढ़ियों तक संरक्षित रहता है एवं उसी का भोग आने वाली पीढ़ियाँ करती हैं। जिसमें जितनी ज्यादा । उत्पादन की क्षमता होती है उसे उसी के हिसाब से पद प्राप्ति होती है। चाहे ब्रह्मा का पद हो या फिर विष्णु पद या फिर रुद्र गणों के पद इत्यादि यह सब निरंतर बदलते रहते हैं। 

          साधक अपनी उत्कृष्ट उत्पादन क्षमता के हिसाब से कोई भी पद प्राप्त कर सकता है। जीवन इसी शर्त पर मिलता है कि उत्पादन करो अन्यथा जीवन की प्राप्ति नहीं होगी। उत्पादन की विभिन्नता के हिसाब से ही लोक निर्मित होते हैं। महालक्ष्मी सर्वलोकों में सुपूजित हैं। इनकी विशुद्धतम एवं पवित्रतम मूल शक्ति । बैकुण्ठ में महाविष्णु के साथ शोभायमान हैं। वह दिव्यता केवल बैकुण्ठ में जाकर ही अनुभव की जा सकती है। समुद्र मंथन के समय इन्होंने मात्र अपनी दृष्टि स्वर्गलोक की तरफ केन्द्रित की थी एवं उसी से स्वर्ग पूर्ण ऐश्वर्यशाली बन गया और वहाँ पर ये स्वर्ग लक्ष्मी के नाम से प्रतिष्ठित हुई परन्तु पराकाष्ठा तो बैकुण्ठधाम में ही हैं। महालक्ष्मी तो माया हैं। दृश्यों को जन्म देने वाली जगत प्रसूतिका हैं एवं एक क्षण में दृश्य को बदलकर रख देती हैं। 

गरीब के झोपड़े का दृश्य कुछ और है तो वहीं राजा के महल के दृश्य कुछ और हैं। दृश्य इन्द्रियों का विषय है एवं इन्द्रियों को दृश्य बहुत प्रिय हैं। दृश्य संस्पर्शित भी किये जाते हैं दृश्यों के आयाम ध्वनि, स्पर्श, गंध इत्यादि से युक्त हैं। दृश्य ही सुख और दुख का कारण बनते हैं। अत: व्यक्ति सुखद दृश्यों को निर्मित करने हेतु लक्ष्मी का अनुसंधान करता है। मनुष्य दृश्य जगत में जीता है इसलिए लक्ष्मी को दृश्यों के अधीन समझता है परन्तु यह अर्ध सत्य है। लक्ष्मी दृश्यों से भी परे हैं, सुख से भी ऊपर हैं। वह परम तृप्तिका हैं एवं इन्द्रियों के अलावा अन्य अंतेन्द्रिय चक्षुओं और तंतुओं को भी तृप्ति प्रदान करती हैं। लक्ष्मी पूर्णता हैं। पूर्णता इसलिए हैं क्योंकि वह विष्णु की अर्धांगिनी हैं, विष्णु की शक्ति हैं। विष्णु नारायण हैं, पुरुषोत्तम हैं, वे परम हैं वे शिव केद्वारा निर्मित प्रथम पुरुष हैं। अतः पुरुषोत्तम के साथ पुरुषोत्तमा ही होंगी, नारायण के साथ नारायणी ही सुशोभित होती हैं। एक खास बात यह है कि विष्णु और लक्ष्मी ने संतानोत्पत्ति व्यक्तिगत तौर पर नहीं की है। यही सबसे विशेष बात है इसलिए वे जगत पुरुष और जगतमाता हैं, व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। व्यक्तिगतता मनुष्यों का विषय है। विष्णु और लक्ष्मी व्यक्तिगत कारणों से क्रियाशील नहीं होते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में जगत कल्याण का लक्ष्य छिपा हुआ होता है। महाविद्या साधनाओं के अंतर्गत सबसे कल्याणकारी साधना कमला सांधना ही है।