सिद्धभूमियाँ विशेष एवं रहस्यमय होती हैं। यहाँ की
सत्ता पर देश एवं काल का प्रभाव नहीं पड़ता है।
ये सिद्धों की वासस्थली होती हैं, जिनकी तपस्या की
ऊर्जा से ये भूमियाँ ओत-प्रोत होती हैं। इन भूमियों के
कण-कण में सिद्धों की तपस्या सन्निहित होती है, अत: ये
भूमियाँ सिद्धों की इच्छाओं एवं विचारों से संचालित एवं
परिचालित होती हैं। इस विचित्रता का कारण यह है कि इन भूमियों की स्थिति स्थूल में होकर भी सूक्ष्मसत्ता में होती है। इन भूमियों की प्रभा एवं आभा दिव्य एवं विशिष्ट होती है। तपस्वियों के महातप से उनका निवासस्थल दिव्य एवं सिद्ध बन जाता है। ध्रुवलोक तपस्वी बालक ध्रुव की तपस्या से ओत-प्रोत है। सुखावती पुरी भगवान बुद्ध की तपस्या से परिपूर्ण है। ज्ञानगंज का राजराजेश्वरी स्थल भी सिद्धभूमि माना जाता है। गंगाद्वार से कैलासपर्यंत का विशाल क्षेत्र सिद्धमंडल है। यमुनोत्तरी से लेकर नंदादेवी
तक का क्षेत्र सिद्धक्षेत्र के नाम से परिचित है। श्रीशैल
पर्वत, नंदा देवी, विंध्यांचल, दक्षिण भारत का अरुणाचलम् पर्वत, बिहार स्थित गुह्यकूट पर्वत सिद्धस्थली कहे जाते हैं। कैलास मानसरोवर तो भगवान शिव की विख्यात तपस्थली है। कैलास को तो धरती का ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि का केंद्रबिंदु माना जाता है। सारी सृष्टि उसी केंद्र पर आधारित मानी जाती है।
वाल्मीकि रामायण में ऐसे दिव्य एवं सिद्ध क्षेत्रों का
वर्णन प्रचुरता से आया है। किष्किंधाकांड में उल्लेख
मिलता है कि सीता माता की खोज करते-करते हनुमान
जी एवं वानरगण एक अलौकिक स्थान पर पहुँच गए थे।
इसका नाम था ऋक्षबिल, जो मंत्रशक्ति द्वारा नियोजित था और एक दानव इसकी रक्षा करता था। वह गुफा अत्यंत भयानक एवं रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। गुफा में गहन अंधकार था। वानरगण किसी तरह से इस अंधकार को पार करने के बाद जब आगे पहुँचे तो उनको प्रकाश दिखाई दिया। यह प्रकाश स्वर्णिम आभायुक्त था और उसके प्रकाश से लता, वृक्ष, भवन और यहाँ तक कि जलाशय के जलचर भी प्रकाशित हो रहे थे।
हनुमान जी को वहाँ एक तपस्विनी तप करते हुए दिखाई दी। तपस्विनी ने हनुमान जी से कहा कि इस स्थान में प्रवेश करने के बाद यहाँ से अपने प्रयास के बल पर बाहर नहीं जाया जा सकता है। यहाँ के सिद्ध महात्मा ही उन्हें बाहर कर सकते हैं। हनुमान जी के आग्रह पर तपस्विनी ने उनको अपने तपोबल से बाहर निकाला। जब वे बाहर निकले तो समुद्र के पास प्रस्रवण के पर्वत के पास थे; जबकि गुफा में प्रवेश करते समय वे विंध्यपर्वत के नैऋत्य कोण से होते हुए दक्षिण भारत की पर्वतमाला तक पहुँचे थे।
मतंगाश्रम भी इसी प्रकार का दिव्यक्षेत्र था। भगवान
श्रीराम ने वहाँ पर भक्तिमती शवरी से भेंट की थी। उस
दिव्य आश्रम में बहुत सारे ऋषि तपस्यारत थे, परंतु भगवान राम के वनगमन के दस वर्ष पूर्व उच्चस्तरीय लोकों को प्रस्थान कर चुके थे। शबरी श्रीराम को वह स्थल दिखाते हुए कह रही थी कि दस वर्ष पूर्व जो ऋषि स्नान के पश्चात अपने गीले वस्त्र सूखने के लिए फैलाकर छोड़ गए थे, वे अभी तक इसी प्रकार गीले हैं। सिद्धों द्वारा छोड़ी कमल की मालाएँ, कई प्रकार के पुष्प, दूर्वा आदि वैसे ही थे, मुरझाए नहीं थे। इन वस्तुओं से एक विशेष प्रकार की किरणें निकल रही थीं, जो ऋषियों की तपस्या की ऊर्जा से सन्निहित थीं।
महाभारत के वनपर्व में भी ऐसे सिद्ध आश्रमों का उल्लेख मिलता है। दमयंती राजा नल को खोजते-खोजते एक ऐसे वन में चली गई थी, जहाँ का दृश्य अत्यंत मनोरम एवं सुंदर था। उस वन के अंदर एक तपोवन था।
अनेक ऋषि वहाँ तपस्या कर रहे थे। वे वल्कल एवं
मृगछाला धारण किए हुए थे। दमयंती ने जब उनको
प्रणाम किया और अपनी व्यथा सुनाई तो ऋषियों ने
आशीर्वाद दिया कि महाराज नल निषध प्रदेश पर पुनः
सिंहासनारूढ़ होंगे और तुम्हारे साथ उनका पुनर्मिलन
होगा। इसके पश्चात सभी ऋषिगण उस तपोवन के साथ
अदृश्य हो गए। दमयंती तमाम प्रयासों के बावजूद उस
दिव्य तपोवन का पुनः दर्शन नहीं कर सकी।
महाभारत में आए एक अन्य कथानक के अनुसार,
पांडवों ने भी अपने वनवास काल में महर्षि लोमश तथा
धौम्य के साथ अनेक सिद्धाश्रमों का दर्शन प्राप्त किया
था। कैलास पर्वत के पूर्व में स्थित मणिमंत प्रदेश को भी
सिद्धों की गुप्तस्थली कहते हैं। वर्तमान में इसे माणा
शिखर के नाम से जाना जाता है। भौगोलिक दृष्टि से
गंधमादन पर्वत तथा माणा को अलकनंदा के पश्चिम तट
पर तथा नंदादेवी को अलकनंदा के पूर्व तट पर स्थित
मानते हैं। अलकनंदा के दोनों भागों को सिद्धों का विचरण स्थल माना जाता है। यहाँ पर सिद्ध महात्मा एवं ऋषि अभी भी तपस्यारत हैं और स्वेच्छा एवं अनुग्रहवश कभी- कभी जनसामान्य को दर्शन भी दिया करते हैं।
महाकवि कालिदास ने मंदाकिनी के पार्श्व में स्थित उपत्यका श्रेणी को गौरी का पिता कहा है। यह भी अत्यंत रहस्यावृत प्रदेश है। आदिशंकराचार्य, गोरक्षनाथ, माधवाचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरुषों को इस क्षेत्र में अलौकिक एवं अद्भुत दर्शन मिल चुके हैं।
यमुनोत्तरी पर आज भी कुछ सिद्ध रहते हैं तथा भीषण
हिमपात में भी वे वह स्थान नहीं छोड़ते। दीपावली के बाद होली तक वहाँ भोजन सामग्री नहीं मिलती और कहते हैं कि इस स्थिति में यक्ष लोग उनके लिए भोजन सामग्री की व्यवस्था कर देते हैं। इस तरह सिद्ध-महात्मा अपनी तपस्या में दीर्घकाल तक निमग्न रह पाते हैं।
एक बार महायोगी त्रिपुरलिंग असम के जयंतिया
पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहाँ उनको गहन वन में एक
गुफा दीखी। उन्होंने वहाँ पर रात्रि व्यतीत करना चाही।
अर्द्धरात्रि में संपूर्ण वन गंभीर निस्तब्धता से व्याप्त हो
उठा। तब योगिराज त्रिपुरलिंग भगवान शिव की आराधना में तल्लीन थे। ध्यान से बाहर निकलने के बाद उन्होंने देखा कि गुफा एक दिव्य ज्योति से उद्भासित है और एक जटाजूटधारी तेजोदीप्त महापुरुष उनके सामने खड़े हैं। वे योगिराज को अनेक प्रकार के उपदेश देकर अदृश्य हो गए। योगिराज ने देखा कि महापुरुष के साथ वह गुफा एवं वह सिद्ध भूमि भी सूक्ष्म में समाहित हो गई।
इसी तरह बंगाल के प्रख्यात लेखक प्रमोद कुमार
चट्टोपाध्याय ने प्रयाग क्षेत्र में झूसी के पास एक सिद्ध
गुफा के दर्शन किए थे। यह विवरण उनके बंगाली ग्रंथ
'अवधूत ओ योगिसंग' में उल्लेख है। उन्होंने वहाँ किले
के पास देखा कि किले के भग्नावशेष के नीचे पर्वत पर
कई गुफाएँ थीं, जिनके ऊपर कुछ कमरे थे और ८-१०
सीढ़ियाँ उतरते ही वहाँ एक गली जैसा संकीर्ण मार्ग था।
ऐसी ही एक गुफा में एक दीपक जल रहा था। उस
दीपक के प्रकाश में मृगचर्मासन पर बैठे एक सिद्ध का
दर्शन उन्हें हुआ। कहते हैं कि वे बाबा कल्पनाथ थे।
बाबा ने उस निर्जन गुफा में पूड़ी, साग, अचार तथा
मालपुआ प्रस्तुत किए। सभी वस्तुएँ ताजी लाई गई थीं।
भोजनोपरांत उन्हें उपदेश देकर पूरी गुफा ही अंतर्धान हो
गई। इस प्रकार सिद्ध एवं सिद्धाश्रम होते हैं, जहाँ पर वे
जनकल्याण हेतु तपस्या करते हैं। श्रद्धासिक्त एवं ज्ञानपिपासु को ही उनकी कृपा की प्राप्ति होती है .