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सुसन्तति उत्पादन व निर्माण ।।

नारी का जननी रूप सर्वविदित है। नारी का गौरव मातृत्व में है। सृष्टा ने संसार की निरन्तरता को बनाए रखने के लिए पृथ्वी पर अपनी जगह नारी की रचना की है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि वह ईश्वर की प्रतिनिधि बनकर समाज में अपनी कोख से, चरित्र से, व्यवहार से, ज्ञान से देवता गढ़े और देवत्व का संचार करे। इस क्रम में सन्तान उत्पादन उसकी बड़ी जिम्मेदारी है, लेकिन इस जिम्मेदारी की गम्भीरता को न समझने के कारण आज समाज में उद्भिजों की तरह एक्सीडेंटल बच्चे पैदा हो रहे हैं। इसी वजह से व्यसनी, व्यभिचारी, हिंसक, कामुक, विलासी, आलसी बच्चों से समाज भरा पड़ा है। नारी समाज को श्रेष्ठ, संस्कारवान पीढ़ी, श्रेष्ठ नस्ल की सन्तान देने में समर्थ हो सकें इस क्रम में ध्यान देने योग्य बिन्दु है कि कन्या-

1. स्वयं संस्कारवान, चरित्रनिष्ठ बने, ब्रह्मचर्य शिक्षा को जीवन में उतारने का सतत अभ्यास करे।
2. उपासना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के अभ्यास से तपी हुई नारी का व्यक्तित्व देवताओं को भी आकर्षित करती है, अतः वह ऐसे अभ्यास से नर रत्न गढ़ने वाली सांख बने।
3. सतोगुणी प्रवृत्ति प्रधान पवित्र गर्भ को, देवात्माएँ, पवित्र आत्माएँ तलाश कर रही हैं, ताकि पृथ्वी पर अवतरित हो सकें। परन्तु उपयुक्त गर्भ के अभाव में वापस चली जाती हैं। पवित्र चिन्तन, चरित्रवाली एवं आदर्श लक्ष्य वाली कन्या ही ऐसी आत्माओं का जन्म देने योग्य होती हैं। उसके गर्भ में सन्त, शहीद, सूर, आविष्कारक, विचारक अवतरित हो सकेंगे।
4. श्रेष्ठ संतान ही पैदा करने का संकल्प करें और श्रेष्ठ परिवार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण में सहयोग करें।

श्रेष्ठ संतान कैसे पाएँ

प्रकृति से ऊपर उठना संस्कृति है तथा प्रकृति से नीचे गिर जाना विकृति है। मनुष्य यदि गिरना चाहे तो वह पशु और दानव से भी नीचे गिर सकता है और उठना चाहे तो देव व उससे भी श्रेष्ठ बन सकता है। इसके लिए भारतीय संस्कृति में संस्कार परम्परा के अन्तर्गत 16 संस्कारों का आविष्कार किया गया है।

संस्कार एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रथम संस्कार गर्भाधान संस्कार है। जिसका आज लोप हो गया है। आज कामज विवाहों की बाढ़ है तथा बिना किसी योजना के सन्तानें पैदा हो जाती है जिससे परिवार व समाज का स्वरूप अपाहिज जैसा हो गया है।

विकलांग, मंदबुद्धि, नीचबुद्धि, हिंसक, पशुतुल्य सन्तान न हो, इस हेतु आवश्यक है कि गर्भाधान संस्कार ठीक से हो। गर्भाधान संस्कार अर्थात् वर- वधू शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक सभी दृष्टि से उन्नत सन्तुष्ट होकर भलीभाँति सोच विचार कर, श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति की इच्छा से, गुरुजन, ईश्वर व माता- पिता से आशीष लेकर श्रेष्ठ तिथि में सन्तानोत्पादन हेतु श्रेष्ठ, श्रद्धापर्ण (कामवासना रहित) मनोभाव के साथ प्रवृत्त होते हैं।

गर्भाधानकाल से सम्बन्धित कुछ बातें विशेष महत्व के हैं-

1. यदि पत्नी के हृदय में पति के प्रति श्रद्धा का अभाव होगा तो अश्रद्धा की स्थिति में गर्भाधान होने पर श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति सम्भव नहीं। अतः पत्नी के हृदय में पति के प्रति प्रेम व श्रद्धा हो।

उदा.- महाभारत में वर्णन आता है कि जब रानी सत्यवती के दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य निःसंतान मर गए, तब माता सत्यवती ने ऋषि वेदव्यास को नियोग परम्परा द्वारा पुत्रवधू अम्बिका व अम्बालिका से एक- एक पुत्र उत्पन्न करने को कहा। गर्भाधान के समय अम्बिका ने ऋषि की जटा, दाढ़ी व तप से काले हुए चेहरे को देखकर घृणा से आँखें बंद कर ली, इसलिए उसका अन्धा पुत्र धृतराष्ट्र हुआ और ऋषि अम्बालिका के पास गए तो वह भय से पीली पड़ गई इसलिए उससे पीले रंग व कमजोर शरीर वाला पाण्डु हुआ। जब इनकी दासी ऋषि के पास गई तब उसने एक ऋषि की सन्तान की माँ बनना अपना अहोभाग्य माना इसलिए उसकी विदुर जैसी श्रेष्ठ संतान हुई।

गर्भाधान शास्त्र में समस्त तिथियों में हो तथा गर्भाधान की अवधि में पति- पत्नी का मनोभाव, प्रेम समर्पण, श्रद्धा, भक्तिपूर्ण हो तथा समाज को श्रेष्ठ सुसंस्कृत, संत, शहीद, सूर, आविष्कारक, बुद्धिमान संतान देने का हो।

2. पुरुष के एक बार के वीर्य में 2 करोड़ से 5 करोड़ शुक्राणु होते हैं। प्रत्येक शुक्राणु में एक जीवात्मा होती है, जो मानव देह धारण करने के लिए आतुर होती है। इनमें अधिकांश जीवात्माएँ सामान्य श्रेणी की होती है, जबकि कुछ तो बहुत ही श्रेष्ठ या पुष्ट होती हैं। गर्भाधान के समय जिस शुक्राणु को सबसे अनुकूल वातावरण मिलता है, वह तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है, अन्य मरते व पिछड़ते चले जाते है। श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, विवशता, उदासीनता, झुँझलाहट, क्रोध, घृणा, भय, वासना, लोभ, छल आदि भावों के समय शरीर में अलग- अलग प्रकार के हार्मोनों का स्राव होता है। गर्भाधान काल में जिस प्रकार का भाव होगा, उसी प्रकार के हार्मोन्स की प्रधानता होगी और उस वातावरण में जो शुक्राणु सर्वाधिक सक्षम होगा वही डिम्ब का निषेचन करने में सफल होगा।

पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार कौन सा शुक्राणु निषेचन करेगा और सन्तान किस प्रकार की होगी यह मात्र संयोग पर आधारित है। उनके अनुसार जानवर और मनुष्य की गर्भाधान क्रिया में कोई अन्तर नहीं है इसलिए पाश्चात्य देशों में गर्भाधान संस्कार नहीं होता। भारतीय ऋषियों ने मनुष्य की नस्ल सुधार के विज्ञान का आविष्कार किया। इस विज्ञान के अनुसार यह पति- पत्नी के हाथ में है कि वे किस प्रकार की सन्तान उत्पन्न करे।

इसके लिए मुहूर्त्त का बड़ा महत्त्व है। महाभारत में एक कथा आती है। पाराशर ऋषि विद्वानों में मतभेदों से उत्पन्न मन भेद के कारण बड़े दुःखी थे। वे दुःखी मन से आकाश की ओर निहार रहे थे कि आकाश में नक्षत्रों की स्थिति देखकर उनके ध्यान में आया कि इस समय ऐसा मुहूर्त्त है, जो हजारों साल में एक बार आता है। इस समय यदि योग्य स्त्री में गर्भाधान हो तो ऐसा पुत्र पैदा होगा जो समस्त मतभेदों को मिटाकर विद्वानों को एक साथ ला सकेगा। उन्होंने अपने सम्मुख खड़ी पवित्र और निश्चल मत्स्य कन्या को देखा और अपना हेतु बताया। उसने ऋषि के उत्कृष्ट हेतु को जानकर स्वयं को ऋषि को समर्पित कर दिया, परिणाम स्वरूप वेदव्यास जी का जन्म हुआ। वेदव्यास जी ने वेदों के बिखरे ज्ञान को चार खण्डों में व्यवस्थित कर विद्वानों में व्याप्त मतभेदों को मिटाया। 18 पुराणों और महाभारत की रचना की।

इसलिए हमारे शास्त्रों में कुछ विशेष दिन वार, तिथियों में गर्भाधान की मनाही है। दिन के समय, रजोदर्शन के बाद प्रथम चार रात्रियाँ, कृष्ण तथा शुक्ल दोनों ही पक्षों की- चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथि। मंगल, शनि, रविवार, मूल, मघा व रेवती नक्षत्र, नक्षत्र की संधि, माता- पिता का श्राद्ध दिवस, स्वयं का जन्म नक्षत्र, जन्मतिथि व जन्मवार आदि में गर्भाधान से श्रेष्ठ सन्तान पैदा नहीं होती।

श्रेष्ठ पुत्र व कन्या के लिए रजोदर्शन के बाद पीछे की रात्रियाँ पहले की रात्रियों से अधिक श्रेष्ठ होती है। विवाह के पश्चात् पहले होने वाले/वाली सन्तान प्रायः वासना की प्रमुखता से होती है। बाद की सन्तानें विचार की प्रमुखता से होती है।

संयम साधना से श्रेष्ठ सन्तान पाना सम्भव है। वर- वधू पहले श्रेष्ठ आदतें, संस्कार अपने व्यक्तित्व में लाएँ तब सन्तान की इच्छा करें। माता- पिता भी शीघ्र सन्तान हेतु दबाव न डालें।

नारी स्वास्थ्य

लड़कियाँ/महिलाएँ यूँ तो सामान्य क्रम में पुरुषों की ही भाँति स्वास्थ्य की समस्याओं से ग्रस्त होती हैं, परन्तु यौवन काल में कुछ समस्याएँ चरम पर होती हैं जैसे- गर्भाशय संबंधी तकलीफें, गर्भाशय में सूजन, सफेद पानी का जाना, प्रदर रोग, मासिक धर्म की अनियमितता, मासिक धर्म से पहले या उसी अवधि में कमर, पेडू आदि में अत्यधिक दर्द होना आदि। ऐसे समय में वे एलोपैथी दवाएँ लेकर तत्काल राहत पाना चाहती हैं, जो कि बहुत खतरनाक दुष्परिणाम पैदा करती है। थोड़ी उम्र में बढ़ने के बाद गर्भाशय से अत्यधिक रक्तस्राव और उसके बाद उसका ऑपरेशन द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिये जाने की डॉक्टरों की सलाह से आज बहुत सी महिलाओं को नई समस्या से जूझना पड़ रहा है।

बहुत सी महिलाएँ मासिक धर्म को समय से पहले या बाद में लाने या टालने हेतु दवाएँ लेती हैं, जो अत्यधिक नुकसान देह होती है। मासिक के समय वाँछित स्वच्छता सफाई न बरतना खान- पान का समय न बरतना भी नई तकलीफों को जन्म देता है।

इस विषय में ध्यान देने योग्य कुछ बिन्दु है-

1. मासिक धर्म काई छूत का रोग नहीं है। प्रकृतिगत स्वाभाविक क्रिया है, जिससे शरीर की सफाई होती है। अतः मासिक धर्म को लेकर लड़कियाँ हीनता ही भाव न लाएँ और न ही परिवार में अन्य सदस्य उनसे हीनतापूर्ण छुआछूत का व्यवहार करें।

2. इस अवधि में शरीर को आराम चाहिए अतः अतिश्रम से बचें। सर्दी गर्मी से बचें। पूजा पाठ सम्बन्धी नियमों का पालन के क्रम में इतना ही पर्याप्त है कि स्थूल पूजा सामग्री को न छुए। मानसिक जप, ध्यान, मन्त्रलेखन से कोई परहेज करने की आवश्यकता नहीं है।

3. मासिक धर्म की अवधि में दर्द होने पर एलोपैथी दवा न लें। योग्य विशेषज्ञ से सलाह लेकर आयुर्वेदिक या होमियोपैथी दवा ले सकते हैं। पेडू व पेट में गरम पानी की थैली या बाटल से सेंक करें ठंडी खट्टी चींजे न खाएँ। गरम पेय, गरम भोजन लें। मिर्च मसालेदार भोजन न लें।

4. मासिक धर्म की अवधि में वस्त्रों की सफाई का पर्याप्त ध्यान रखें। मेडिकल के पैड इस्तेमाल करें। यदि कॉटन कपड़ा इस्तेमाल करते हों तो एक कपड़े को (छः बार) अधिक इस्तेमाल न करें। कपड़े को अच्छी तरह साबुन से धोकर धूप में सुखाएँ तथा कीटाणु रहित स्वच्छ स्थान में रखें। ग्रामीण क्षेत्रों की बहनें विशेष रूप से ध्यान रखें।

5. पूजा- पाठ अनुष्ठान के कारण कभी भी मासिक धर्म के समय को आगे बढ़ाने तथा उसके लिए दवाएँ लेने की गलती न करें। प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया में दखल न दें।

6. विवाहित बहनें अपने दाम्पत्य जीवन में संयम बरतें असंयमित (ब्रह्मचर्य का अभाव) मर्यादाहीन यौन संबंधों के कारण यौन रोग, गर्भाशय संबंधी तकलीफें, अत्यधिक रक्तस्राव की स्थिति आती है।

7. उत्तेजक खान- पान, माँसाहार, टी.वी. के उत्तेजक दृश्य, अश्लील साहित्य तथा अश्लील यौन संबंधी चर्चा से मासिक धर्म संबंधी तकलीफें अधिक बढ़ जाती है।

8. मासिक धर्म संबंधी तकलीफों व अनियमितताओं के लिए मेंहदी बीज (सूखी) का पाउडर बना लें। एक- एक चम्मच सबेरे शाम आधा कप पानी में 6- 8 घण्टे के लिए भिगा दें। सबेरे भिगाया हुआ शाम को एवं शाम को भिगाया हुआ सबेरे के समय खाली पेट लें। ऐसा दो- तीन महीने लगातार देते रह सकते हैं।

9. काले तिल एक पाव, पानी 3 लीटर पानी में मिलाकर उबालें। डेढ़ गिलास बच जाए तो 3 खुराक बनाकर खाली पेट में सबेरे शाम ले लें। यह क्रिया माह में एक बार करें। सीता अशोक की छाल का काढ़ा भी फायदेमन्द होता है।

10. गायनिक समस्या हेतु नियमित रूप से चक्की आसन, तितली आसन, पश्चिमोत्तासन, प्रज्ञायोग तथा कपालभाति प्राणायाम करें।

11. विवाहिताएँ इस अवधि में ब्रह्मचर्य का सख्ती से पालन करें।

संदर्भ पुस्तकें:-

1. ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता।
2. काम तत्त्व ज्ञान विज्ञान।
3. अपने डॉ. स्वयं बनें- डॉ. गौरीशंकर माहेश्वरी, मुम्बई।
4. स्वस्थ एवं सुन्दर बनने की विद्या।
5. ब्रह्मचर्य साधना- स्वामी शिवानन्द।

प्राचीन सनातनी भारत में, शिक्षा और ज्ञान का एक विशाल इतिहास है।


हमारे प्राचीन भारत के 25 प्राचीन विश्वविद्यालय... 

दुनिया भर से हजारों प्रोफेसर और लाखों छात्र यहां रहते थे और कई विज्ञानों और विषयों का अध्ययन और अध्यापन करते थे। यहाँ पर कुछ प्रमुख प्राचीन विश्वविद्यालयों की जानकारी दी जा रही है......

1.#नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 5वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था और इसमें विभिन्न विज्ञान, दर्शन, और धर्म का अध्ययन किया जाता था। यहाँ पर 10,000 छात्र और 2,000 शिक्षक थे।

2.#तक्षशिला विश्वविद्यालय (Taxila University):

स्थान: #पाकिस्तान
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व
विशेषता: यह भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है। यहाँ पर चिकित्सा, कानून, कला, सैन्य विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती थी।

3.#विक्रमशिला विश्वविद्यालय (Vikramshila University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह भी बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

4.ओदंतपुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: बौद्ध शिक्षा और साहित्य का प्रमुख केंद्र।

5.मिथिला विश्वविद्यालय (Mithila University):

स्थान: #बिहार
विशेषता: न्यायशास्त्र और तंत्र की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध।

6.वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi University):

स्थान: #गुजरात
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यहां पर धर्म, कानून, और चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी।

7.स्रृंगेरी मठ (Sringeri Math):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत का प्रमुख केंद्र।

8.#कांचीपुरम विश्वविद्यालय (Kanchipuram University):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: यहाँ पर तमिल साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया जाता था।

9.पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: यह बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र था।

10.उज्जयिनी विश्वविद्यालय (Ujjayini University):

स्थान: #मध्यप्रदेश
विशेषता: यहाँ पर ज्योतिष, खगोल विज्ञान, और गणित की शिक्षा दी जाती थी।

11.कृष्णापुर विश्वविद्यालय (Krishnapur University):

स्थान: #पश्चिम_बंगाल
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और संस्कृत की शिक्षा का केंद्र।

12.#नेल्लोर विश्वविद्यालय (Nellore University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: यहां पर धर्म और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी।

13.#सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura University):

स्थान: #बांग्लादेश
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

14.अमरावती विश्वविद्यालय (Amravati University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र।

15.नागरजुनकोंडा विश्वविद्यालय (Nagarjunakonda University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र।

16.रत्नागिरी विश्वविद्यालय (Ratnagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

17.माल्कापुरम विश्वविद्यालय (Malkapuram University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: विभिन्न धर्मों और विज्ञानों की शिक्षा।

18.#त्रिसूर विश्वविद्यालय (Trissur University):

स्थान: केरल
विशेषता: कला, साहित्य और ज्योतिष की शिक्षा।

19.#विजयपुरा विश्वविद्यालय (Vijayapura University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म, तंत्र, और ज्योतिष की शिक्षा।

20.कादयर विश्वविद्यालय (Kadayar University):

स्थान: #तमिलनाडु
विशेषता: तमिल साहित्य और कला का अध्ययन।

21.#मयंकट विश्वविद्यालय (Manyaket University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

23.उडीपी मठ (Udipi Math):

स्थान: #कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत और धर्म की शिक्षा।

23.कण्णूर विश्वविद्यालय (Kannur University):

स्थान: #केरल
विशेषता: साहित्य, कला और ज्योतिष की शिक्षा।

24.अन्नूरधपुर विश्वविद्यालय (Anuradhapura University):

स्थान: श्रीलंका
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

25.कंथालूर शाला (Kanthaloor Shala):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

ये #प्राचीन विश्वविद्यालय शिक्षा के उच्चतम मानकों के प्रतीक थे और यहाँ पर #दुनिया भर से छात्र और शिक्षक ज्ञान प्राप्त करने और साझा करने के लिए आते थे। इन संस्थानों में विभिन्न विज्ञान, धर्म, कला, और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी, जो #भारत की समृद्ध #सांस्कृतिक और बौद्धिक #धरोहर का हिस्सा हैं।

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बाल्य भाव ।।

        विवेकानंद अमेरिका की यात्रा पर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने प्रथम बार विशालकाय गुब्बारों को देखा जिसमें कि मनुष्य बैठ कर आकाश की सैर कर सकता था, अचानक उनके अंदर बाल सुलभ भाव जाग उठा। उनके साथ बहुत सारे चेले चपाटे थे जो कि स्वामियों, गुरुओं या आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को केवल गम्भीर, मुँह बना कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले प्राणी समझते थे। विवेकानंद बच्चों के समान सबके सामने गुब्बारे में बैठने के लिये लालायित हो उठे तुरंत दौड़कर गुब्बारे में बैठ गये और बाल सुलभ हो बड़े-बड़े नेत्रों से ऊपर उड़ते हुए विस्मयकारी दृश्य देख कर बच्चों के समान खिलखिलाने लगे। उनके आसपास के चेले चपाटे बोले स्वामी जी आप इतना साधारण व्यवहार मत कीजिए अन्यथा आप की छवि धूमिल हो जायेगी, लोग आप को पाखण्डी कहने लगेंगे,आप सामान्य मनुष्य लगने लगेंगे।

         ‌‌ विवेकानंद ने किसी की नहीं सुनी, बाल सुलभ थे बाल सुलभ बने रहे। बाल सुलभ मन और हृदय ही कौतुहल की दृष्टि प्रदान कर सकता है,बाल सुलभ मन ही विस्मयकारी हो सकता है।बाल सुलभता दुर्गोपासना की प्रथम आवश्यकता है,स्त्री और पुरुष बन कर कृपया कर दुर्गोपासना सम्पन्न न करें अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।स्त्री और पुरुष बन कर केवल भोग होता है, स्त्री और पुरुष की योगमार्ग में क्या जरूरत? स्त्री और पुरुष एक विशेष अवस्था है। जिन युवाओं में पुरुषत्व की बहुलता है वे केवल स्त्री से आकर्षित होंगे, हर दूसरा युवक सुंदर स्त्री से विवाह मांगता है, हर दूसरी युवती बस वर को ही खोजती है एवं इन्हें अध्यात्म से क्या लेना देना अगर अध्यात्म के - बल पर कुछ स्वार्थ पूर्ति हो जाये तो ठीक है नहीं तो इन्हें एक से बढ़कर एक मार्ग आते हैं। इस सृष्टि में समस्या की जड़ स्त्री और पुरुष के भाव ही हैं।

          विवेकानंद भला क्यों बाल सुलभ नहीं होते आखिरकार उनके गुरु परमहंस तो अति में बाल सुलभ थे। वे तो मिठाई की दुकान पर खड़े हो जाते थे, सभी शिष्यों के बीच मिठाई खाने लगते थे, एक बार खुले में शौच कर रहे थे तभी एक भैरवी साधिका उनकी परीक्षा लेने के लिये अचानक वहाँ पर आकर खड़ी हो गयी। वे बालकों की भांति हँसने लगे और पास पड़े पत्थरों से उसे मार कर दूर भगाने लगे, भैरवी का हृदय परिवर्तन हो गया। परमहंस के एक शिष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये उन्हें कलकत्ता के वेश्यालय में छोड़ दिया वे क्रिया योग में दक्ष थे दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने बाल्यभाव को समग्रता के साथ जाग्रत कर लिया, वेश्याओं को देख माँ-माँ चिल्लाने लगे। वेश्याओं को बहुत घमण्ड होता है क्योंकि वे पुरुषों को पराजित करती है परन्तु बालक भाव से वेश्याएँ हार गयी, घबरा गयी, उनका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। स्त्री भाव भी मूल प्रकृत्ति ही प्रदान करती है। प्रकृति परमेश्वरी का ही विग्रह है अतः प्रकृति भी नियंत्रिका का काम करती है इसलिए स्त्रियों में नियंत्रण की जन्मजात प्रवृत्ति कूट-कूट कर -भरी हुई होती है। पुरुष या पिण्ड पर नियंत्रण करने के लिये सदैव लालायित रहने वाली शक्ति को ही स्त्री कहते हैं।

          जीवन में भले ही एक क्षण के लिये या फिर सम्पूर्ण जीवनभर स्त्री अंतत: पुरुष को सम्पूर्ण नियंत्रण में ले ही लेती है। नियंत्रण की इस रस्साकशी में वह गोपनीय तौर पर प्रतिक्षण माया का निर्माण करती ही रहती है एवं उसका एकमात्र ध्येय पुरुष पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है परन्तु स्त्री बाल्यभाव पर नियंत्रण कभी प्राप्त नहीं कर पाती और यहीं पर वह हारती है। बालक जीतता है माता हारती है, यह निश्चित है। अंतत: माता झुकती है। बालभाव स्त्री कला पर अंकुश है। स्त्री भाव का दम्भ बाल भाव के सामने खण्डित हो ही जाता है। भारत के सभी ऋषि मुनियों ने नियंत्रिका रूपी परमेश्वरी की अंततः मातृ भाव में ही उपासना की है। विश्वामित्र जैसा पुरुष प्रधान व्यक्तित्व दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व बचा था तभी मेनका के हाथों पतोन्मुखी हुए, लम्बा समय लगा तब कहीं जाकर बाल्यभाव जाग्रत हुए अंतत: गायत्री कल्प प्राप्त हुआ।

        दत्तात्रेय विष्णुअवतार माने गये हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी थे एवं लक्ष्मी उनके पास में खड़ी रहती थी। एक बार असुरों के हाथ इंद्र समेत देवताओं की दुर्गति हुई। दुर्गति इसलिये हुई क्योंकि रासरंग में डूब गये थे रासरंग में तो स्त्रियाँ चलती हैं। नारद ने कहा जाओ दत्तात्रेय ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। लुटे-पिटे देवता दत्तात्रेय के पास पहुँचे। दत्तात्रेय बोले मैं बहुत परेशान हो गया हूँ इस सुंदर स्त्री को साथ मे लेकर घूमते-घूमते देवता बोले नहीं नहीं यह तो साक्षात् लक्ष्मी हैं, मातेश्वरी हैं बस दत्तात्रेय उनके मुख से मातेश्वरी ही सुनना चाह रहे थे, उन्हें पुनः बाल भाव का अनुभव कराना चाह रहे थे। एक शब्द में ही देवताओं ने मातृ भाव की स्तुति कर ली ।दत्तात्रेय बोले किसी तरह असुरों को यहाँ तक ले आओ।देवता पुनः युद्ध करने गये और दैत्य उनके पीछे-पीछे दत्तात्रेय तक आ पहुँचे। एक मुनि के पास अत्यंत परम शोभावान, रत्नों से सुसज्जित दिव्य विभूति को देख दैत्य मोहित हो गये एवं उनके अंदर पुरुषत्व जाग उठा दैत्य सम्राट बोला अरे मुनि यह तो विलक्षण स्त्री रत्न है इसका यहाँ क्या काम तुम इसे हमें सौंप दो तब दत्तात्रेय ने कहा ले जाओ दैत्य खुशी-खुशी लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर ले जाने लगे दत्तात्रेय ने तुरंत देवताओं से कहा कि अब हमला करो यह नियंत्रिका के नियंत्रण में आ गये हैं।देवता शस्त्रों के साथ असुरों पर टूट पड़े और कुछ ही क्षणों में दैत्य पराजित हो गये।

            रामकृष्ण परमहंस आज से 150 वर्ष पूर्व हुए थे अतः समझ गये थे कि स्त्री-पुरुष भाब सत्यानाशी है एवं इनके चक्कर में झंझट ही झंझट है।इसलिए अपनी पत्नी को माता के रूप में स्वीकार कर लिया।परमेश्वरी को उन्हें अपना सानिध्य प्रदान करना था इसीलिये रामकृष्ण की युवा पत्नी में भी मातृत्व के भाव स्वतः प्रकट हो गये एवं रामकृष्ण परमहंस को परिवार की तरफ से कोई कष्ट नहीं हुआ अन्यथा अगर उनकी पत्नी में स्त्री भाव एकांश भी आ जाते तो लेने के देने पड़ जाते।जैसे ही एक युवक में पुरुष ग्रंथि विकसित होती है या फिर एक बालिका में रजोस्त्राव होता है उनकी ऊपर की तरफ बढ़नी वाली लम्बाई स्वत: रूक जाती है।जितने लम्बे हो गये या जितनी कद काठी मिल गयी बस मिल गयी अर्थात अब फैल सकते हैं,मोटे हो सकते हैं, बेडौल हो सकते हैं परन्तु लम्बवत उन्नति नहीं होगी। यही ब्रह्मचर्य का सिद्धांत है।जितना ज्यादा विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होगा उतनी ही आध्यात्मिक अवनति होगी, उतना ही साधक मातृत्व से दूर हटता जायेगा और जैसे-जैसे मातृत्व के हाथ से निकलकर नियंत्रण स्त्री के हाथ में जाता जायेगा व्यक्ति वृद्ध होता जायेगा इसलिए कामुक स्त्री पुरुष शीघ्र ही ढल जाते हैं, रोगग्रस्त हो जाते हैं, समस्याओं में उलझ जाते हैं, बालों में सफेदी आ जाती है और एक दूसरे का शोषण शुरू हो जाता है।

          दो धाराएं है,दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। एक सम्बन्ध में मातृत्व की बहुलता है। एवं यह पुष्टिदायक है यह उन्नति का मार्ग है,यह एक मार्गीय व्यवस्था है,इसमें लेन-देन नहीं है, पुत्र का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि वह माता से प्रेमपूर्वक,हठपूर्वक प्राप्त करता रहे।पुत्र कैसा भी हो, बालक कैसा भी हो फिर भी माता के लिये वह अत्यंत ही प्रिय है, यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं है पुत्र से माता की अपेक्षा शून्य है। दूसरा विभाग इसके सर्वथा विपरीत है एवं इस मार्ग में पुरुष अगर उपयोगी नहीं है तो फिर दिक्कत हो जायेगी, पुरुष को हर क्षेत्र में स्त्री के लिये उपयोगिता सिद्ध करनी होती है, इसमें लेन-देन है। सम्बन्ध क्या हैं? इस प्रकार अनंत काल से क्यों होता चला आ रहा है? यह सब किसी ने किसी को नहीं सिखाया। सीधी सी बात है मस्तिष्क का निर्माण जिन शक्तियों ने मिलकर किया है एवं जिन शक्तियों के सानिध्य में मस्तिष्क निर्मित हुआ है उनकी मूल प्रकृति ही ऐसी है। मस्तिष्क के अंदर क्रियाशील होने वाली मूल प्रकृति के ही लक्षण सम्बन्धों के रूप में परिलक्षित होते हैं, यह सब आदि व्यवस्था के अंतर्गत आता है।

              मस्तिष्क का विकास,उसकी सक्रियता, उसकी क्रियाशीलता को जो एकमात्र भाव प्रबलता प्रदान करता है वह बालभाव है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि बालभाव ही सब कुछ हैं परन्तु इतना जरूर कह रहा हूँ कि बाल भाव जीवन पर्यन्त विलोप नहीं होना चाहिये एवं इसे त्यागना नहीं चाहिये।सृष्टि काल अनुसार अन्य भाव भी उत्पन्न करती है, सृष्टि भाव आधारित है अगर बाल्य भाव चलता रहा तो सृष्टि पर अतिरिक्त भार बढ़ जायेगा क्योंकि मृत्यु सम्भव नहीं हो पायेगी। बाल्यभाव में मृत्यु सबसे दारूण और कष्टप्रद होती है साथ ही बालभाव की मृत्यु मातृत्व सहन नहीं कर पाता ।मातृत्व में इस सिद्धांत की इतनी प्रबलता है कि वह सर्वप्रथम खुद को मरते हुए देख सकती हैं पर बाल्यभाव को नहीं। हर माता वही चाहती है कि उसकी आँखों के सामने उसके पुत्र सदैव बने रहे वे आँखे मूंद लें पर पुत्र जीवित हो।

           यह मस्तिष्क की परम इच्छा शक्ति है एवं इस शक्ति की तरफ इशारा ही इस का व्येय है कि एक मूल मातेश्वरी शक्ति है जो कि यह कदापि बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है, किसी भी कीमत पर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसकी संतान उससे पहले काल कवलित हो जाये। इसी शक्ति की मनु ने उपासना की, इसी शक्ति को प्रत्येक मनवंतर में मनु ने दुर्गा रूपी कुलदेवी को स्थापित किया,यही वह उर्वरक शक्ति है जिसका कि मार्कण्डेय ने पान किया और चिरंजीवी, हो गये, इसी शक्ति को विभिन्न रूपों में ऋषिगण प्रतिक्षण भजते रहते। हैं। यह शक्ति अत्यंत ही कातर, दयालु और प्रेममयी है, यह भोली है,यह सीधी-साधी एवं एक मार्गीय है।

अतः यही परम विशुद्ध मातृशक्ति है जो कि सर्वस्व लुटा कर पुत्रों को जीवित रखे हुए है । यही भाव ब्रह्मचारी बनाते हैं। इस कातर और दयामयी शक्ति के संस्पर्श से ही काम विकार नष्ट होते हैं एवं मातृभाव जाग्रत होते हैं।

        यह है योगमयी शक्ति, इसी को ढूंढते फिरते हैं तत्व ज्ञानी एवं मुमुक्ष जन पर यह तो बिल्कुल पास खड़ी होती है, अपलक आँखों से बस पुत्र का इन्तजार कर रही होती है। पुरुषार्थ, स्त्री- आकर्षक, जग-संसार के प्रपंचों में उलझे अपने पुत्र को पुनः प्राप्त करने की लम्बी प्रतीक्षा कर रही होती है। समस्त शस्त्रों से युक्त होते हुए भी पुत्र के सामने निशस्त्र होती है, पुत्र को भटकता देख कर भी मोह में लिप्त होती है। मोह इस शक्ति की मुख्य पहचान है एवं केवल पुत्र मोह ही इसके मूल में है। यह जागृत भी पुत्र की आवाज पर ही होती है और सुप्त भी पुत्र के आचरण से ही होती है। इसका कीलन, उत्कीलन केवल पुत्र ही दूर कर सकता है। वाल्यभाव के अधीन दुर्गेश्वरी है। यह समस्त ब्रह्माण्ड की नेत्री हैं, समस्त ब्रह्माण्ड की नियंत्रिका है पर इस पर नियंत्रण बालक का है। यह किसी को कुछ नहीं समझती, सबसे परे है, कोई भी इसकी हद तक नहीं पहुँच सकता सिवा बालक के। बालक पुकारेगा तो जाग जायेगी, समस्त कार्यों को छोड़ सामने खड़ी होगी। आप दस महाविद्या सिद्ध करना चाहते हैं, महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, दुर्गा के दर्शन चाहते कुछ बनना चाहते हैं तो उसका एक मात्र विधान है "बाल्यभाव।

           बाल्यभाव व्यक्ति की युवा अवस्था लम्बा करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिन लोगों में बाल्यभाव होता है वे 18 वर्ष की उम्र से लेकर 50 वर्ष की उम्र तक एक जैसे ही दिखते हैं। बुढ़ापा उन्हें - स्पर्श नहीं कर पाता, वृद्धावस्था की अवधि घट जाती है। योग क्या है? रसेश्वरी विद्या क्या है? रसोत्पादन क्या है? इनके मूल में बाल्य भाव का अनुसंधान ही छिपा हुआ है। शरीर को बच्चो के समान हर दिशा में मोड़ना, शरीर के अंदर प्राण शक्ति का प्रबल संचार होना ही बाल्यभाव का प्रमाण है। बच्चों को चोट लगती है तुरंत ठीक हो जाती है, बच्चे भीषण से भीषण दुर्व्यवहार को भी तुरंत भूल जाते हैं, बच्चे ही सीख सकते हैं। सिखायेगी माता और सीखेगे बच्चे।

            सयानों को क्या सिखाना? सवाल उठता है कि सृष्टि ने सबको भौतिक रूप से एक माता प्रदान की है, उसका सानिध्य दिया है तो फिर मातृोपासना या दुर्गापासना की क्या जरूरत? जन्म देने वाली माता एक कड़ी है, जिसने हमें प्रदुर्भावित किया परंतु सर्व समर्थता एवं विभिन्न कलाएँ जरूरी नहीं है कि हमें वर्तमान की माता से प्राप्त हो गयी हो अतः दुर्गोपासना के द्वारा हम अनंत अव्यक्त संस्कारों, कलाओं एवं साधनो इत्यादि में से अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करते रह सकते हैं। दुर्गोपासना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जितनी बार हम इस साधना को सम्पन्न करेंगे हर बार कुछ नया प्राप्त होगा, हर बार एक नया दृष्टिकोण मिलेगा, हर बार कुछ सीखने को मिलेगा। ये लेख अटपटा, अविकसित और अर्थहीन भी हो सकते हैं क्योंकि दुर्गा पर लिखा गया है। एक बालक के रूप में जो मिल गया उसे प्राप्त कर लेना सहज रूप से आगे फिर कभी देखेंगे।

                         शिव शासनत: शिव शासनत:


प्रकृति से किस प्रकार से जुड़ें, किस प्रकार से सीखें ~

० जहां घोड़े पी रहे हैं वहीं पानी पिएं क्योंकि वे कभी भी दूषित पानी नहीं पीएंगे।


० अपना बिस्तर वहीं लगाएं जहां बिल्ली सोती है,क्योंकि उसे शांति पसंद है।

० जिस भी फल को कीड़े ने छुआ है लेकिन उसमें घुसा नहीं है वह खाएं,कीड़ा हमेशा पके फल की तलाश में रहता है।
और जहाँ छछूँदर खोदे, वहाँ अपना पेड़ लगाओ, क्योंकि वह उपजाऊ भूमि है।

० अपना घर बनाओ वहां जहाँ साँप अपने आप को गर्म करने के लिए बैठता है, क्योंकि वह स्थिर भूमि है जो गिरती नहीं है।

० उस जगह पर पानी को खोजने के लिए खुदाई करें जहां पक्षी गर्मी से छिपते हैं। पक्षी जहां भी खड़े होते हैं, पानी छिप जाता है।

० और सो जाओ पक्षियों के कलरव के साथ और पक्षियों के साथ जागो - यह सफलता की खोज है।

० सब्जियां ज्यादा खाएं-आपके पास मजबूत पैर और जंगल के जानवरों की तरह प्रतिरोधी दिल होगा।

० जब भी आपको समय मिले तैरें तब आपको ऐसा लगेगा जैसे आप पानी में मछली की तरह जमीन पर हैं।

० जितना हो सके आकाश की ओर देखें आपके विचार शुद्ध,उज्ज्वल और नीति और निर्णय स्पष्ट होते जाएंगे।
शांत और मौन रहो तुम्हारे हृदय में शांति छा जाएगी, और तुम्हारी आत्मा को शांति मिलेगी


जय श्री राम 🚩🙏🙏

नवरात्र में व्रत तीन प्रकार से हो सकता है-


• एकभुक्त: आधा दिन व्यतीत हो जाने पर हविष्यान्न भक्षण।
• नक्त: रात्रिकाल में एक समय हविष्यान्न भक्षण।
• उपवास: व्रत के दिन भोजन का पूर्णतः त्याग। 

जो नवरात्र में एकभुक्त अथवा नक्त रूप से व्रक करेंगे वे हविष्यान्न भक्षण करें और आमिष वस्तु का सर्वथा त्याग करें। 
ध्यातव्य- द्विजों के लिए भैंस का दुग्ध आदि निषिद्ध है।

सामान्य दिनों में भी अधिक से अधिक प्रयास रहना चाहिए कि आमिष भक्षण ना हो।

व्रत करने वाले-
• सूर्योदय से पूर्व स्नान इत्यादि समाप्त करें एवं दिन में शयन ना करें।
• भूमि पर ही शयन करें।
• प्यास लगने पर ही जल ग्रहण करें।
• पुरुष और अविवाहित स्त्रियाँ तेल, इत्र, शृंगार इत्यादि का त्याग करें।


● जो नौ दिन का व्रत नहीं कर सकते वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी -इन तीन दिनों व्रत करके फल प्राप्त कर सकते हैं।