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श्री सूक्त ।।

          लक्ष्मी से संबंधित समस्त स्तोत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह स्तोत्र भौतिक कामनाओं की पूर्ति तथा यश सौभाग्य प्राप्त करने का अमोघ साधन है।
पूर्ण तन्मयता से किया गया इसका नियमित पाठ निश्चय ही फलदायक होता है।
इस लेख में इस सूक्त की पाठ-विधि तथा संबंधित अनुष्ठान विधियाँ स्पष्ट की गई हैं। आशा है गृहस्थ साधक इस ज्ञान का लाभ उठायेंगे ।

                विश्व में लक्ष्मी से संबंधित जितने भी स्तोत्र हैं, उनमें यह स्तोत्र सर्वश्रेष्ठ एवं विश्व विख्यात है। यह स्तोत्र स्वयं मंत्रमय है अतः सम्पुट देकर भी इस स्तोत्र का पाठ होता है। जो साधक लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहते हैं, जो अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये यह स्तोत्र आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है।

          यह स्तोत्र स्वयं विश्व विख्यात है। कहते हैं कि इस स्तोत्र के प्रथम तीन पदों में स्वर्ण बनाने की विधि स्पष्ट की गई है वस्तुतः साधक को चाहिए कि वह इस स्तोत्र का पूर्ण तन्मयता के साथ पाठ करे और अपने जीवन में इसको महत्व दे अनुभव यह रहा है कि जो साधक इस स्तोत्र का नित्य एक बार पाठ करता है, उसे जीवन में भौतिक दृष्टि से किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहता ।

            नीचे मूल श्री सूक्त, उसका विनियोग और ध्यान स्पष्ट किया जा रहा है। साधक को सर्वप्रथम लक्ष्मी का ध्यान करके हाथ में जल लेकर विनियोग करने के बाद मूल श्री सूक्त का पाठ करना चाहिए ।

ध्यान

या सा पद्मासनस्था विपुल कटि तटि पद्म पत्रायताक्षी । गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभरनमितांशुभ्र वस्त्रोत्तरिया । लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्दै मणिगण खचितैः स्रापिता हेमकुम्भै । नित्यं सा पद्हस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ॥१॥

हिमगिरि कान्त्या कांचनसन्निभां प्रख्येश्चतुतुर्भिर्गजैर्हस्तौत्क्षिप्त हिरण्मयामृतघटैरा सिच्यमानां श्रियम् । बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तं किरीटोज्ज्वलं क्षौमा बद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्दे रविन्द स्थिताम् ॥२॥

विनियोग:-

ॐ हिरण्यवर्णामिति पंचदशर्चस्य श्री सूक्तस्य श्री आनन्द कर्दमचिक्लीतेन्दिरा सूता महर्षयः श्रीरग्निर्देवता, आद्यास्तिस्त्रोऽनुष्टुभः । चतुर्थी बृहती पंचमी षष्ठ्यो त्रिष्टुभौ ततौष्टावनुष्टुभः अन्त्या प्रस्तारपक्तिः । हिरण्य वर्णामिति बीजम ताम आवह जातवेद इति शक्तिः । 'कीर्तिमृद्धिं,ददातु में इति कीलकम् । मम श्री महालक्ष्मी प्रसीद सिद्धयर्थे, न्यासे जपे च विनियोगः ।

              प्राचीन ग्रन्थों में श्री सूक्त के मूल पाठ के पहले दो श्लोक या दो सूक्त हैं जो कि मूल पाठ का ही भाग है। ये दोनों सूक्त अब तक गोपनीय रहे हैं। साधकों को चाहिए कि इन सूक्तों के पाठ से ही श्री सूक्त का प्रारम्भ करें ।

ये दोनों श्री सूक्त इस प्रकार है -

त्वं श्रीरूपेन्द्रसदने मदनैकमाता ज्योत्स्रासि चन्द्रमसि चन्द्रमनाहरास्ये । सूर्ये प्रभासितजगत्रितथै प्रभासि लक्ष्मीं प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥

अर्थ हे लक्ष्मी ! आप इन्द्र के घर में रहने वाली श्री उपेन्द्र के घर में लक्ष्मी स्वरूप से स्थिर हैं। हे मदन जननी ! आप चन्द्रमण्डल में चांदनी स्वरूप हैं। हे विधुवदने ! आप सूर्य मण्डल में प्रभास्वरूप और त्रिभुवन में प्रभास्वरूपिणी हैं। हे शरण्ये ।। मैं आपको प्रणाम करता हूं, आप मुझ पर प्रसन्न हों।

त्वं जातवेदसि सदा दहनात्मशक्ति- र्वेधास्त्वया जगदिदं विविधं विदध्यात् । 
विश्वम्भरौऽपि विभृयादखिल भवत्या लक्ष्मी प्रसीद सततं नमतां शरण्ये ॥

अर्थ- हे भगवती। आप अग्नि में जलाने वाली शक्ति स्वरूपिणी हो। आपकी सहायता के बल से ही ब्रह्मा संसार की समस्त बातों को लिखने में समर्थ हैं। स्वयं विष्णु भी आपकी ही सहायता से जगत की रक्षा करते हैं। हे देवी हम आपके चरणों में प्रणाम करते हैं, आप हम पर प्रसन्न हों।

जो भक्ति भावना से श्री सूक्त का पाठ करना चाहते हैं, उन्हें अग्रलिखित सूक्त से ही श्री सूक्त पाठ प्रारम्भ करना चाहिए ।

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् । 
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ॥१॥

अर्थ हे लक्ष्मी ! हे अग्ने! जिनका वर्ण सोने के समान उज्जवल हैं, जो हरिणी के समान नेत्रों वाली सुन्दर रूप वाली है, जिनके कंठ में सुवर्ण और चांदी के फूलों की माला शोभा पाती है, जो चन्द्रमा के समान प्रकाशवान है, जिनकी माला देह स्वर्णमय हैं, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिए आह्वान करो । हे जातवेद ! आप ही देवताओं के होता हो, लक्ष्मी देवी को आह्वान करके बुलाने में केवल आप ही सामर्थ्यवान हैं।

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । 
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

अर्थ हे अग्रे ! जिनके प्रसन्न हो जाने से स्वर्ण, भूमि, अश्व, पुत्र, पौत्र, सब कुछ अनायास ही प्राप्त हो जाता है, उन्हीं महालक्ष्मी को आप हमारे लिये आह्वान करें।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् । 
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥

अर्थ घोड़े जिसके आगे चलते हैं जिसके मध्य में सम्पूर्ण रथ सुशोभित हैं, जो हाथियों की चिंग्घाड़ से सबको जगाती है, जो एक मात्र लक्ष्मी, धन और ऐश्वर्य की आश्रयस्थली है उन्हीं लक्ष्मी का मैं आह्वान करता हूं, वह आकर हमारी सेवा को स्वीकार करे ।

कांसोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्दा ज्वलन्तीं तृप्तांतर्पयन्तीम् । 
पद्म स्थितां पदमवर्णा तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥

अर्थ- जिनका शरीर विकसित कमल के समान सुन्दर और सुरम्य हैं, जिनका वर्ण सुवर्ण के समान दैदीप्यवान है, जो क्षीरसागर में से निकलने से सर्वदा आप्लावित हैं, जिनकी कांति सर्वदा उज्ज्वल रहती है, जो हमेशा परितृप्त और प्रसन्न होकर अपने आश्रित भक्तजनों के मनोरथ पूर्ण करती है, जो कमल के आसन पर विराजमान है और कमल के समान ही वर्ण वाली है, मैं उन्हीं श्री लक्ष्मी देवी का आवाहन करता हूं।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मनेमीं शरणमहं प्रपद्येऽ लक्ष्मीम्र्मे नश्य- ता त्वां वृणोमि ॥५॥

अर्थ जो चन्द्रमा के समान प्रभाव युक्त हैं, जिसका शरीर दीप्तिवान है, जो यश से प्रकाशवान हैं, देवलोक में जिसकी हमेशा देवता आराधना करते हैं, जो उदारचित्त वाली है, जो कमल के समान रूप वाली और ईकार स्वरूपिणी हैं, मैं उन्हीं लक्ष्मी देवी की शरण में हूं। हे देवी! मैं आपको प्रणाम करता हुआ प्रार्थना करता हूं कि शीघ्रातिशीघ्र मेरी दरिद्रता दूर करो ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसा नुदन्तुमायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥

अर्थ- हे देवी। आपका वर्ण सूर्य के समान उज्ज्वल है। आपकी तपस्या के प्रभाव से ही समस्त वृक्ष, फल, बिल्व वृक्ष, आदि उत्पन्न होते हैं। हे शरण्ये ! उन्हीं बिल्व वृक्षों के पके हुए फल समूह के साथ आप हमारे अन्दर और बाहर की दरिद्रता को दूर करें ।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह । 
प्रादुर्भुतः सुराष्ट्र स्मिन्कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥

अर्थ- हे देवी। आपकी कृपा से ही शिव का मित्र कुबेर और कीर्ति देवी मणिरत्नों के साथ मेरे घर में हमेशा-हमेशा के लिए उपस्थित हों। मैंने इस संसार मैं देह धारण किया है अतः आप आकर हमें हमेशा के लिये कीर्ति और समृद्धि प्रदान करें ।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठाअलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् । 
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वा निर्णद मे गृहात् ॥८ ॥

अर्थ हे देवी। मैं आपकी कृपा से ही क्षुधा और तृष्णा के मल से परिपूर्ण अलक्ष्मी का विनाश करने में समर्थ हो सकूंगा। हे देवी! आप हमारे घर से दरिद्रता, अभूति और समृद्धि को दूर करो।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम । 
ईश्वरीं सव्वभूतानां त्वामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥

अर्थ गन्ध ही जिसका लक्षण है अर्थात् जिसकी उपस्थिति से ही सर्वत्र सुगन्ध व्याप्त हो जाती है जिसको कोई भी परास्त करने में समर्थ नहीं है, जो नित्य गौ इत्यादि पशुओं से युक्त है, जो समस्त जीवों की आधार है, मैं उन्हीं लक्ष्मी देवी का आह्वान करता हूं।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि । 
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥

अर्थ- हे देवी, आप प्रसन्न होकर मुझे आशीर्वाद दो। आपकी कृपा से ही मेरा मनोरथ पूर्ण हो सकेगा। आपकी कृपा से ही मेरा संकल्प सिद्ध हो सकेगा। मेरी बुद्धि हमेशा सत्य वचन बोलने में रहे। मुझे पशुओं से प्राप्त अमृत मिलता रहे। मेरे घर में चारों और धन-धान्य की समृद्धि बनी रहे व आपकी कृपा से ही मेरा यश विश्व में व्याप्त हो ।

कर्द्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भ्रम कर्द्दम । 
श्रियं वासय मे कुले मातर- पद्ममालिनीम् ॥११॥

अर्थ- संसार की समस्त प्रजा कर्द्दम से ही उत्पन्न हुई है, इस कारण हे कर्द्दम। आप हमारे स्थान में स्थित हों और अपनी जननी पद्ममालिनी लक्ष्मी देवी को हमारे वंश में स्थापित करें जिससे मेरी आगे की सारी पीढ़ियां सुख-समृद्धि से युक्त बनी रहें।

आपः सृजन्तु सिग्धानि चिक्लित वस में गृहे । 
निजदेवीं मातरं श्रियं वासय में कुले ॥१२॥

अर्थ- हे कर्दम ! जल देवता नित्य चिकनाई पूर्ण द्रव्य उत्पन्न करें। आप हमारे स्थान में स्थित हों और अपनी जननी लक्ष्मी देवी को हमारे कुल में स्थापित करें।

आर्द्रायः करणीं यष्टिपिंगलांपद्ममालिनीम् 
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मींजातवेदोम आवह ॥ १३॥

अर्थ- हे अग्रे ! जो क्षीरसागर से उत्पन्न महालक्ष्मी हैं जिनके हाथ में शोभायमान यष्टि है, जो पुष्टियुक्त है, जो पीले वर्णवाली है, जो पद्मचारिणी, पद्ममालिनी, और जिसका निवास स्थान पद्म पर ही है, जो सुवर्ण के समान देदीप्यमान है, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिये आप आह्वान करें।

आर्द्रायः करणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् । 
सूर्या हिरण्यमयीं लक्ष्मी जातवेदो म आवह ॥१४॥

अर्थ हे अनल ! जो गीले देह वाली, है, जिनके हाथ में सुन्दर शोभायमान यष्टि है, जिनकी देह सोने के समान चमकने वाली है, जिनकी कांति सूर्य के समान दैदीप्यमान है, उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे निमित्त आह्वान करें।

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । 
यस्यां हिरण्य प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ॥१५॥

अर्थ- हे अग्ने ! जिसकी कृपा से बहुत सा स्वर्ण गौ, अश्व, दास-दासी, पुत्र-पौत्र इत्यादि प्राप्त हो सकते हैं, जिसकी कृपा से संसार में यश, और सम्मान प्राप्त हो सकता है, आप उन्हीं लक्ष्मी देवी का हमारे लिये आह्वान करें ।

फल- यः शुचिप्रः यतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् । 
सूक्तं पन्चदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥

अर्थ यह लक्ष्मी से संबंधित सूक्त अत्यन्त उच्च कोटि का और महत्वपूर्ण है इसलिये जो पूर्ण भौतिक सुख सम्पत्ति और उन्नति चाहते हैं जो यश, सम्मान और जीवन में अग्रगण्यता चाहते हैं, उन्हें श्रीसूक्त के उपरोक्त पन्द्रह श्लोकों का पाठ नित्य करना चाहिए ।

         इस प्रकार श्री सूक्त के पाठ करने वाले साधकों को चाहिए कि वे उपरोक्त सोलह श्लोकों का पाठ नियम पूर्वक करे। इसमें श्री सूक्त से संबंधित पन्द्रह श्लोक हैं और एक श्लोक फल से संबंधित है, इस प्रकार कुल सोलह श्लोक मिलकर पूर्ण श्री सूक्त माना जाता है।

         श्री सूक्त से संबंधित कई अनुष्ठान हैं। जानकारी के लिये कुछ अनुष्ठान विधियां स्पष्ट कर रहा हूं।

१- यदि नित्य १०८ पाठ श्री सूक्त के करे, तो चालीस दिनों में अनुष्ठान सम्पन्न होता है और उसकी भौतिक मनोकामना पूर्ण होती है।

२- लक्ष्मी बीज का सम्पुट देकर भी श्री सूक्त पाठ किया जाता है। लक्ष्मी बीज सम्पुट इस प्रकार है -

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्यै नमः ।

सबसे पहले उपरोक्त बीज मन्त्र पढ़कर फिर श्री सूक्त के १६ श्लोक पढ़े और बाद में पुनः इसी बीज मन्त्र को पढ़ने से एक पाठ माना जाना चाहिए, इस प्रकार नित्य १०८ पाठ किये जा सकते हैं।

३- धनदा लक्ष्मी प्रयोग के लिये एक अलग सम्पुट है जिसको श्री सूक्त के प्रारम्भ और अन्त में पढ़ा जाता है। यह धनदा लक्ष्मी सम्पुट इस प्रकार है-

ॐ आं ह्रीं श्रीं क्लीं व ऐं ब्लू रंॐ महालक्ष्म्यै नमो नमः स्वाहा ॥

४- दारिद्र्य विनाशक प्रयोग के लिये प्रत्येक सूक्त के पहले और बाद में दरिद्र विनाशक मन्त्र उच्चारण होता है। मैं एक श्लोक का प्रयोग समझा देता हूं। बाकी सभी श्लोकों में इसी प्रकार मन्त्र का सम्पुट प्रयोग किया जायेगा ।

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः

ॐ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेष जन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

ॐ हिरण्य वरर्णा हरिणीं सुवर्ण रजतस्रजाम् । 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो ममावह ॥

दाद्ररिय दुःख भय हारिणी कात्वदन्या । 
सर्वोपकार करणाय सदार्द्रचित्ता ॥

ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नमः ॥१॥

इस प्रकार यह एक श्लोक पूर्ण हुआ । इसी प्रकार सम्पुट सोलह श्लोकों के साथ देने से श्रीसूक्त का एक पाठ पूरा माना जाता है। इस प्रकार भी दिन भर में १०१ पाठ करने का विधान है।

          इसके अलावा भी श्री सूक्त से संबंधित कई प्रयोग और अनुष्ठान हैं। साधक किसी योग्य गुरू से ज्ञान प्राप्त कर इससे संबधित प्रयोग सम्पन्न कर सकता है।

         पर यह मेरा अनुभव है कि किसी भी प्रकार से श्री सूक्त का पाठ किया जाय वह निश्चय ही फलदायक है और इसका प्रभाव तुरन्त अनुभव होता है।
श्री सूक्त का अनुष्ठान पूर्ण होने के बाद निम्न श्लोक से क्षमा याचना करे-

अपराध सहस्र भाजन पतितं भोम भवार्णबोदरे । अगति शरणागतं देवी कृपया केवलमात्मसात्कुरु ॥

गजेन्द्र मोक्ष ।।

       गजेन्द्र मोक्ष स्तुति सभी स्तुतियों से अधिक श्रेष्ठ एवं प्रभावकारी मानी गई है। महामना मालवीय इस के परम भक्त थे। एक बार उन्होंने बताया था कि जब-जब भी मेरे जीवन पर समस्याएँ आई हैं, हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के समय आर्थिक संकट से मैं परेशान हुआ हूं तब-तब गजेन्द्र मोक्ष का मैंने पाठ किया है और मैंने विपत्तियों से छुटकारा पाया है।

            एक बार मालवीय जी का पुत्र अत्यन्त बीमार पड़ा । उसने तार द्वारा मालवीय जी को सूचना दी। उन दिनों मालवीय जी किसी ऐसे कार्य में उलझे हुए थे कि चाह कर भी उधर नहीं जा सकते थे। उन्होंने पुनः अपने पुत्र को एक लम्बा पत्र लिखते हुए कहा कि तुम्हें अपने स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने तुम्हें गजेन्द्र मोक्ष के समान अद्भुत औषधि दी है, तुम उस औषधि का सेवन क्यों नहीं करते ?

          पुत्र ने गजेन्द्र मोक्ष का पाठ किया और कुछ ही दिनों में वह उस भयानक रोग से बच गया ।

            एक बार जब मालवीय जी वाराणसी में थे तो एक महात्मा उनसे मिलने के लिये उनके घर आये और पूछा कि आप गृहस्थ होते हुए भी परम तपस्वी कैसे हैं ? आपके पास वह कौन सा मंत्र है जिससे कि आप इस गृहस्थी रूपी कीचड़ में भी कमलवत् खिले रहते हैं।

         मालवीय जी ने उत्तर दिया आज मैं पहली बार आपको इस रहस्य की बात बताता हूं। मेरी माता ने मुझे इस अद्भुत मंत्र की शिक्षा दी थी और कहा था कि जब भी तुझ पर संकट आए या किसी प्रकार की परेशानी महसूस हो तब तुम इसी मंत्र- राज का उपयोग करना। यह मंत्र अपने आप में अद्भुत है। मेरा जीवन बाधाओं और समस्याओं का घर हैं, शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जिस दिन मेरे सामने नई समस्या न आती हो मगर जब भी समस्या मेरे सामने आती है तो मैं एक क्षण के लिये भी हिचकिचाता नहीं हूं। मैं जानता हूं कि मेरे पास मेरी पूज्य माताजी द्वारा दिया हुआ एक ऐसा अमोघ मंत्र है जो इस विपत्ति को चुटकी बजाते ही दूर कर देगा। मेरे जीवन में जब-जब भी विपत्ति या कोई समस्या आई है, तभी मैंने इस मंत्र का स्मरण किया है और आज तक भी इस मंत्र का प्रताप व्यर्थ नहीं गया।

          महात्मा जी बोले- मालवीय जी मैं वह अद्भुत मंत्र आपसे सीखना चाहूंगा। मुझे विश्वास है कि आप मेरी इस प्रार्थना को ठुकराएंगे नहीं।

           मालवीय जी ने अन्दर से गजेन्द्र मोक्ष की पुस्तक लाकर उन्हें दी और कहा-यही वह अद्भुत एवं अमोघ मंत्र है, जिसकी वजह से मै आज तक अपने प्रत्येक कार्य में सफल होता आया हूं, यद्यपि अपने जीवन में अन्य कई स्तोत्रों का पाठ किया है, उनका प्रभाव देखा है, परन्तु गजेन्द्र मोक्ष में एक विशेषता है, कि इसका प्रभाव तुरन्त होता है और अपने आप से अद्भुत एवं पूर्ण होता है। मेरी मां ने मुझे जो अमोघ मंत्र दिया था, वही मैंने आपके सामने रखा है, और आप भी श्रद्धा से यदि इसका पाठ करेंगे तो निश्चय ही आप अपने प्रत्येक कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकेंगे ।

          दो प्रकार के गजेन्द्र मोक्ष पाठ उपलब्ध हैं। एक पाठ वामन पुराण के अन्तर्गत गजेन्द्र मोक्ष अध्याय से लिया गया है। दूसरा पाठ श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के द्वितीय अध्याय से लिया हुआ है। यद्यपि दोनों ही पाठ अपने आप में पूर्णतः अनुकूल हैं, पर महामना मालवीय श्रीमद्भागवत् के पाठ को ही फलप्रद समझते थे ।

          मेरी भी ऐसी धारणा है कि श्रीमद्भागवन्तान्तर्गत गजेन्द्र मोक्ष पाठ ज्यादा अनुकूल तथा सिद्धिप्रद है।

           मुझे इस स्तोत्र के प्रभाव से संबंधित कई आख्यान सुनने को मिले हैं, और कई व्यक्तियों से इसकी सिद्धि के बारे में भी जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। जयपुर में एक बार इस स्तोत्र की परीक्षा करने का अवसर आया। मेरे परिचित बन्धु श्री हरिराम जी के पुत्र आई. ए. एस. की परीक्षा दे रहे थे । जिस दिन सुबह उनका पेपर था उससे एक दिन पहले ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। बुखार के साथ-साथ तेज सिर दर्द तथा खांसी भी थी । ऐसी स्थिति में परीक्षा देना संभव ही नहीं था, और यदि परीक्षा दी भी जाती तो उसके लिये भली प्रकार तैयारी नहीं हो सकती थी।

          श्री हरीराम जी ने मेरे सामने इस समस्या को रखा। उन्होंने बताया कि डाक्टरों का इन्जेक्शन देने से बुखार तो टूट जायगा पर इससे कमजोरी इतनी अधिक बढ़ जायगी कि यह शान्त चित्त से परीक्षा नहीं दे पाएगा। मैंने उन्हें बताया कि इस समय और कोई उपाय नहीं है, यदि वह लड़का शान्त चित्त से मात्र गजेन्द्र मोक्ष के ११ पाठ कर ले तो मुझे विश्वास है कि वह परीक्षा में अवश्य ही सफलता प्राप्त कर सकेगा। मै हरीराम जी के साथ उनके घर गया और उनके पुत्र को सारी बात बताई तथा गजेन्द्र मोक्ष के पाठ की विधि भी समझाई।

उसने मेरी बात तुरन्त स्वीकार कर ली। वह उसी समय हाथ पैर धोकर पूजा-कक्ष में आसन पर बैठ गया, तथा गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करने लग गया ।

          शाम को लगभग सात-आठ बजे उसने ऐसा अनुभव किया जैसे वह पूर्णतः स्वस्थ है तथा बुखार व खांसी का नाम तक नहीं है। रात भर उसने परीक्षा की तैयारी की और दूसरे दिन प्रसन्न चित्त से आई. ए. एस. की परीक्षा दी। इस परीक्षा में वह पूर्णतः सफल भी रहा।

                 वस्तुतः गजेन्द्र मोक्ष अपने आप में एक अद्भुत स्तुति है। मैंने अपने स्वयं के जीवन में सैकड़ों बार इसका प्रयोग किया है और जब-जब इसका प्रयोग किया है मुझे आशातीत सफलता प्राप्त हुई । विशेषकर नौकरी के संबंध में, ऋण से संबंधित मामलों में, तथा अन्य किसी भी तरह की परेशानियों में यदि इसका प्रयोग किया जाता है, तो कुछ पाठ करने के बाद ही आशाजनक सफलता मिलती दिखाई देती है। कुछ समय के बाद तो पूरी तरह से समस्या से मुक्ति मिल जाती है। मेरी स्वयं की नित्य की पूजा में यह पाठ सम्मिलित है।

           मुझे विश्वास है कि यदि व्यक्ति कोई अन्य पाठ या स्तुति न करे तब भी उसे चाहिए कि नित्य उठकर एक बार अवश्य गजेन्द्र मोक्ष का पाठ कर ले। ऐसा करने से उसके जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या रह ही नहीं सकती। वस्तुतः कलियुग में इसे एक आश्चर्यजनक स्तुति कह सकते हैं।

                      गजेन्द्र मोक्ष

एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥१॥ 

ॐ नमो भगवते तस्मै, यत एतच्चिदात्मकम् । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् ।
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तै प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व चतत्तिरोहितम् ।
अविद्धद्दक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥४॥ 

कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्रशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु । तमस्तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः
॥ ५॥ 

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥

दिदृक्षवी यस्य पदं सुमंगलं विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ॥७॥

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा । 
तथापि लो काप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥ 

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये । 
अरूपायोरुरूपाय नमः आश्चर्यकर्मणे ॥९॥ 

नमः आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने । 
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥ 

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्येण विपश्चिता । 
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाण सुखसंविदे ॥११॥ 

नमः शान्ताय घोराय मढ़ाय गुणधर्मिणे । 
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥ 

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । 
पुरुषायात्ममूलाय मूल प्रकृतये नमः ॥१३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्टे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय ।
सर्वागमाम्नाय महार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥१५॥

गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागमस्वयम्प्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय । 
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीतप्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥ 

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेष सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंग क्विर्जिताय । 
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नमः ईश्वराय ॥ १८ ॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥ 

एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थं वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । 
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ॥२०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फलव्या च कलया कृताः ॥२२॥

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः । 
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खा नि शरीरसर्गाः ॥२३॥

 सवै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ् न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः । 
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन् निषेध शेषो जयतादशेषः ॥२४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतये भयोन्या । 
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥२५॥

सोऽहं विश्वसृजंविश्वमविश्व विश्ववेदसम् ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥२६॥

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥२७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेगशक्तित्रयायाखिलधीगुणाय । 
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवत्र्मने ॥२८॥

नायंवेद स्वमात्मनं यच्छक्त्या हंधिया हतम् । 
तं दुरत्यय महात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥२९॥ 

एवं गजेन्द्रमुपवर्णित निर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । 
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात् तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥ 

तं तद्वदार्त्तमुपलश्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः। 
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥

 सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्ती दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् । 
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्नारायणाखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥३२॥ 

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार । 
प्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्रियाणाम् ॥३३॥

                                                    --श्रीमद्भागवत



राम रक्षा स्तोत्र ।।

           प्रसिद्ध संत स्वामी महेशानन्दजी भारत की दिव्य विभूति हैं। उनसे इस जीवन में कई बार मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे उच्च कोटि के साधक एवं योगी हैं। एक बार जब 'राम रक्षा स्तोत्र' की बात चल पड़ी तो उन्होंने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि 'रामरक्षा स्तोत्र' इस युग का सर्वश्रेष्ठ स्तोत्र है। मैंने अपने जीवन में इस स्तोत्र का विभिन्न अवसरों पर विभिन्न स्थितियों में प्रयोग किया है और वे सभी प्रयोग शत-प्रतिशत सही रहे हैं। बिच्छु काटने से लेकर भयंकर विष का सेवन कर लेने की परिस्थितियों तक में इस स्तोत्र के पाठ से लाभ पहुंचा है। घोर आर्थिक सकट से ग्रस्त व्यक्ति इसका पाठ करके कुछ ही समय में ऋण से उबर जाते हैं। नौकरी छूटना, बुखार आना, जी मिचलाना, मुसीबत, व्यर्थ की परेशानी तथा संकटकालीन परिस्थितियों में मात्र एक दो पाठ से ही व्यक्ति परेशानी से मुक्त हो जाता है और उसे उसी समय नई राह सूझने लग जाती है।

            मंत्र में शब्दों का गुंफन ही अपने आप में महत्वपूर्ण है। स्तोत्र का प्रभाव या किसी मंत्र का प्रभाव इसलिये होता है कि उसके शब्दों का संयोजन अपने आप में विलक्षण होता है। उन्होंने बताया कि ध्वनि के माध्यम से कई असंभव कार्यों को संभव किया जा सकता है। युद्ध में बम के धमाके से आदमी बहरा हो जाता है, मकान की खिड़कियाँ टूट जाती है, तथा कई मकान नीचे गिर जाते हैं। अमेरिका में ध्वनि के प्रयोग से बड़े-बड़े तालाब खोद लिये जाते हैं तथा केवल मात्र, ध्वनि से बड़े-बड़े बांध तथा पहाड़ को इधर-उधर खिसकाया जाता है। कई बार युद्ध में केवल बम की ध्वनि के आघात से व्यक्तियों को लकवा हो जाता है, उनके मुँह टेढ़े हो जाते हैं, नाड़ी-संस्थान कार्य करना बन्द कर देता है, गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, तथा हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों का देहान्त हो जाता है। तेज आवाज से वायु मण्डल में तीव्र कम्पन्न पैदा होते हैं और जब वे कम्पन हमारे मस्तिष्क को स्पर्श करते हैं तो उसके दुष्प्रभाव से व्यक्ति पागल हो जाता है। 

         मंत्रों के प्रभाव के मूल में यही ध्वनि-विज्ञान कार्य करता है। मंत्रों के प्रत्येक अक्षरों का आपस में संबंध रहता है और उन अक्षरों के संयोग से एक विशेष ध्वनि का प्रादुर्भाव होता है और यही ध्वनि वायुमण्डल में फैलकर इच्छित कार्य करने में सफल होती है।

           "राम रक्षा स्तोत्र" के प्रभाव के मूल में भी यही ध्वनि कार्य करती है। इस स्तोत्र में शब्दों का संयोजन अपने आप में विलक्षण एवं अप्रतिम है, जिसकी वजह से एक विशेष ध्वनि का निर्माण होता है और उस ध्वनि के कम्पन, बीमार के अचेतन मन में जाकर उसे साहस एवं दृढ़ता प्रदान करते हैं। इस आत्म बल से ही रोग दूर होते हैं तथा उसे आरोग्य, बल एवं शान्ति मिलती है। जो व्यक्ति जितनी ही पुष्टता तथा विश्वास से इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे उतनी ही जल्दी सफलता प्राप्त होती है। यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, और यह प्रक्रिया लाखों लोगों ने लाखों बार आजमाई है तथा उन्हें अपने कार्यों में सफलता मिली है।

           कई पुस्तकों तथा पत्र पत्रिकाओं में राम रक्षा स्तोत्र के फल के बारे में समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। सैकड़ों लोगों ने मुझे राम रक्षा स्तोत्र की सफलता के बारे में बताया है।

                       राम रक्षा स्तोत्रम् 

विनियोगः- अस्य श्रीराम रक्षा स्तोत्रमन्त्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्रीसीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप् छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्रीरामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥

 ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥ 

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तंचरान्तकम् । 
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥ 

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् । 
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥४॥
 
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती । 
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ॥५॥
 
जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः । 
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥६॥
 
करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्र्यजित् । 
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥७॥ 

सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । 
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षः कुलविनाशकृत ॥८॥ 

जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तकः । 
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः ॥९॥ 

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । 
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥ 

पाताल भूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः । 
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥११॥


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रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन्। 
नरो न लिप्यते पापैर्मुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
 
जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् । 
यः कण्ठेधारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥१३॥ 

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्। 
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥१४॥ 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः । 
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥१५॥

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्सः नः प्रभुः ॥१६॥ 

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । 
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥ 

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। 
पुत्रौ दशरथस्यतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥ 

शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। 
रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥१९॥

 आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ । 
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥२०॥

संनद्धः कवची खंगी चापबाणधरो युवा। 
गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥२१॥ 

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। 
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ॥२२॥ 

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः । 
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥२३॥

इत्येतानि जपन्नित्यं मुद्भक्तः श्रद्धयान्वितः। 
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशय ॥ २४॥ 

रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । 
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्नते संसारिणो नराः ॥२५॥ 

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापति सुन्दरं । 
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । 

राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति । 
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥२६॥

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । 
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥२७॥

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम,श्रीराम राम भरताग्रज राम राम।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम । 
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि । श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा । 
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥३१॥

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।  
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । 
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । 
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥ 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् । 
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥ 

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे। 
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । 
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं। 
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राममामुद्धर ॥ ३७॥ 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। 
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

गणेश स्तोत्र ।।

              स्मार्त पंचदेवोपासक होते हैं। ये पांच देव हैं- १. श्री विष्णु २. श्री शिव ३. श्री शक्ति ४. श्री सूर्य ५. श्री गणपति । इनमें से जो मात्र वैष्णव हैं वे विष्णु को ही मुख्य अंग मानकर पूजा करते हैं, इस प्रकार शैव शिव को, शाक्त शक्ति को, सौर्य सूर्य को और गणपत्य गणेशजी को मुख्य मानते हैं।

               गणेश शब्द का मूल अर्थ है समस्त जीव जाति के स्वामी । कुछ लोगों का यह कथन है कि ये अनार्यों के देवता थे और बाद में आर्यों ने इन्हें पंच देवताओं में स्थान दिया। यह भ्रम विदेशियों द्वारा फैलाया हुआ है। हमारी सभ्यता के प्रारम्भ से ही जिन देवताओं की उपासना होती आई है उनमें गणेश सर्व प्रथम पूजनीय रहे हैं।

            गणेश का वर्णन कई स्थानों पर आया है और अनुभवों से यह सिद्ध हुआ है कि गणपति की पूजा जीवन में मंगलकारी एवं अत्यन्त अनुकूल रहती है। जो व्यक्ति अन्य किसी देवी-देवताओं की पूजा नहीं कर सकता उसे गणेश पूजन अवश्य ही करना चाहिए । मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह रहा है कि यदि हम नित्य प्रातः उठते समय गणपति का स्मरण कर लें तो सारा दिन प्रसन्नता से बीतता है, और उस दिन विशेष शुभ फलदायक समाचार मिलते हैं।

             आगे गणपति से सम्बन्धित स्तोत्र दिये हैं जो संक्षिप्त होते हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। प्रातः उठकर यदि व्यक्ति इनमें से किसी एक स्तोत्र का भी पाठ कर ले तो उसके जीवन में किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं रहता। चिन्ता एवं रोग निवारण के लिये "मयूरेश स्तोत्र" अत्यन्त समर्थ है। यह स्तोत्र मनुष्य को भक्ति मार्ग में लगाने वाला तथा समस्त प्रकार के पापों का नाश करने वाला है। मानसिक रूप से चाहे कितनी ही चिन्ताएं व्यक्ति को परेशान कर रही हों, यदि वह ११ दिन ही प्रातः उठकर "मयूरेश स्तोत्र" का पाठ कर ले तो वह स्वयं ही आश्चर्यजनक रूप से अनुभव करेगा कि चिन्ताएं एवं समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो रही हैं, और उन समस्याओं का सुलझाव अपने अनुकूल हो रहा है। यह शुभ स्तोत्र मानसिक चिन्ता तथा शारीरिक रोग को दूर करने में अत्यधिक सहायक एव अनुकूल है।

             संकटनाश के लिये गणपति से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण स्तोत्र 'संकटनाशन स्तोत्र' है। यह स्तोत्र भी अपने आप में महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के जीवन में कितना ही भयंकर संकट क्यों न आया हो, यदि इस स्तोत्र का पाठ नित्य श्रद्धापूर्वक करे तो वह उस संकट से मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो जाता है। इस स्तोत्र का प्रभाव यहां तक देखा है गया है कि व्यक्ति जेल से मुक्त हो जाता है तथा मुकदमें में सफलता प्राप्त कर लेता है।

            जिन व्यक्तियों पर मुकदमें चल रहे हों या शत्रु परेशान कर रहे हों तो उनके लिये यह स्तोत्र कल्प वृक्ष के समान है। उन्हें चाहिए कि इस स्तोत्र का पाठ नित्य पांच बार करें, और तब तक इस स्तोत्र का पाठ चालू रखें जब तक कि उन्हें अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त न हो जाय। शत्रु विजय, मुकदमें में सफलता तथा बाधाओं की शान्ति के लिये इससे बढ़ कर कोई अन्य स्तोत्र नहीं है।

चिन्ता एवं रोग निवारण के लिये 
मयूरेशस्तोत्रम्

पुराणपुरुषं देवं नानाक्रीडाकरं मुदा । 
मायाविनं दुर्विभाव्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

परात्परं चिदानन्दं निर्विकारं हृदि स्थितम् । 
गुणातीतं गुणमयं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

सृजन्तं पालयन्तं च संहरन्तं निजेच्छया। 
सर्वविघ्नहरं देवं मयूरेशं नमाम्यहम् ।। 

नानादैत्यनिहन्तारं नानारूपाणि बिभ्रतम् । 
नानायुधधरं भक्त्या मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

इन्द्रादिदेवतावृन्दैरभिष्टुतमहर्निशम् । 
सदसद्ध यक्तमव्यक्तं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

सर्वशक्तिमयं देवं सर्वरूपधरं विभुम् । 
सर्वविद्याप्रवक्तारं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

पार्वतीनन्दनं शम्भोरानन्दपरिवर्धनम् । 
भक्तानन्दकरं नित्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

मुनिध्येयं मुनिनुतं मुनिकामप्रपूरकम् । 
समष्टिव्यष्टिरूपं त्वा मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

सर्वाज्ञाननिहन्तारं सर्वज्ञानकरं शुचिम् । 
सत्यज्ञानमयं सत्यं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥ 

अनेककोटिब्रह्माण्डनायकं जगदीश्वरम् । 
अनन्तविभवं विष्णुं मयूरेशं नमाम्यहम् ॥

                   मयूरेश उवाच
इदं ब्रह्मकरं स्तोत्रं सर्वपापप्रनाशनम् । 
सर्वकामप्रदं नृणां सर्वोपद्रवनाशनम् ॥ 

कारागृहगतानां चमोचनं दिनसप्तकात्। 
आधिव्याधिहरं चैव भुक्तिमुक्तिप्रदं शुभम् ॥


(क्रमशः)

@Sanatan

गणेश स्तोत्र (२)
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संकटनाश के लिये 
                    संकष्टनाशन स्तोत्रम्

नारद उवाच
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् । 
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुः कामार्थसिद्धये ॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्। 
तृतीयं कृष्ण पिंगाक्षं गजवकां चतुर्थकम् ॥ 

लम्बोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च। 
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टकम् ॥ 

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्। 
एक द गणपति द्वादशं तु गजानानम् ॥ 

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः। 
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ 

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्। 
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम् ।। 

जपेद गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत्। 
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ 

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् । 
तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥

स्तोत्र पाठ से सम्बन्धित ज्ञातव्य तथ्य ।।

         शास्त्रों में कहा गया है कि कलियुग में स्तोत्र सबसे अधिक शक्तिशाली और शीघ्र प्रभावकारी हैं। स्तोत्र पाठ करते समय साधक को कुछ विशेष सावधानियां बरतनी चाहिए। नीचे मैं शास्त्रों में वर्णित कुछ तथ्य स्पष्ट कर रहा हूं जो कि स्तोत्र पाठ करते समय ध्यान में रखने चाहिए--

१ - स्तोत्र हिन्दी या संस्कृत में हों तो यथासम्भव मूल पाठ को ही पढ़ना चाहिए । उनका अनुवाद पढ़ने से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता ।

२ - हम ईश्वर के सामने बालक के समान हैं और यही भाव मन में रखकर स्तोत्र पाठ करना चाहिए बालक यदि त्रुटियां करता है तब भी वह क्षम्य है,अतः हम भी इसी भावना को लेकर पाठ करें ।

३ - शुद्ध होकर, शुद्ध आसन बिछाकर सामने उस देवता का विग्रह या मूर्ति रखकर स्तोत्र पाठ करें, यदि यह सम्भव नहीं हो तो आँख बन्द कर संबंधित देवता का ध्यान मानस में करके, फिर पाठ करना चाहिए ।

४ - पाठ शुद्धता अति आवश्यक है अतः यथासम्भव स्तोत्र का पाठ शुद्ध रूप में करें, यदि संस्कृत का ज्ञान न हो तो किसी संस्कृत जानने वाले विद्वान् से वह स्तोत्र दो तीन बार सुनकर शुद्ध पाठ ज्ञात कर लें और इसके बाद ही उसका पाठ करें ।

५ - स्तोत्र पाठ गेय रूप में करें, अर्थात् यदि स्तोत्र को गाया जा सके तो गाकर ही पाठ करना चाहिए ।

६ - पाठ करते समय क्रोध, आलस्य, निद्रा, तन्द्रा या अन्य व्यवधान नहीं होने चाहिए। जब हम प्रफुल्ल चित्त हो तभी हमें स्तोत्र पाठ करना चाहिए ।

७ - स्तोत्र पाठ करते समय हमारे वस्त्र स्वच्छ और पवित्र हों।

८ - स्तोत्र पाठ सात्विक भाव से करें और इस बात का ध्यान रखें कि हम जो कुछ बोल रहें हैं, वह सत्य और प्रामाणिक रूप से बोल रहे हैं।

९ - स्तोत्र पाठ करने वाले साधक को उस स्तोत्र का अर्थ ज्ञात होना चाहिए, बिना अर्थ ज्ञात किये मात्र तोते की तरह पढ़ने से कोई लाभ नहीं होता ।

१० - स्तोत्र पाठ में मधुरता होनी आवश्यक है। उतावली में या समय की न्यूनता के कारण जल्दी-जल्दी स्तोत्र पाठ पूरा करना किसी भी दृष्टि से अनुकूल नहीं है।

११ - स्तोत्र पाठ करते समय मुंह में कोई अन्य वस्तु नहीं होनी चाहिए और पाठ करते समय किसी प्रकार का नशा या व्यसन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

१२ - स्तोत्र पाठ प्रारम्भ करने के बाद तब तक आसन से नहीं उठना चाहिए जब तक वह स्तोत्र पूरा न हो जाय ।

१३ - स्तोत्र पाठ सरल चित्त से करना चाहिए। मन में किसी प्रकार का अहंभाव लेकर स्तोत्र पाठ करना वर्जित है।

१४ - यदि हम सही रूप में, सही स्वर में तथा सही भावना से स्तोत्र पाठ करें तो स्तोत्र पाठ का तुरन्त प्रभाव होता है। स्तोत्र पाठ में यद्यपि त्रुटि क्षम्य है फिर भी यथासम्भव त्रुटि न हो, तो ज्यादा अच्छा है।

१५ स्तोत्र पाठ करते समय यदि सामने दीपक और अगरबत्ती प्रज्वलित हो तो अनुकूल रहता है।

१६ - स्तोत्र पाठ करते समय उस स्तोत्र की भावना, मधुरता और रम्यता में पूरी तरह डूब जाना चाहिए। एक प्रकार से साधक को उस स्तोत्र का ही एक भाग बन जाना चाहिए। जब तक साधक स्तोत्र और संबंधित देवता से एक रूपता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसका लाभ पूरी तरह प्राप्त नहीं हो पाता ।

१७ - अधिकतर स्तोत्र संस्कृत में हैं अतः साधक को पहले संस्कृत का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए ।

१५ - मन ही मन स्तोत्र पाठ करना वर्जित है। स्तोत्र पाठ उच्चारण के साथ करना चाहिए ।

१९ - नित्य नियमित रूप से स्तोत्र पाठ करने पर वह मन्त्र स्वरूप हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देने लग जाता है, अतः स्तोत्र का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए ।

२० - स्तोत्र पाठ सुखासन में बैठकर किया जाना चाहिए । इसके अलावा यदि साधक किसी अन्य आसन में बैठकर पाठ करना चाहे तो कोई हानि नहीं हैं।

२१ - स्तोत्र पाठ करते समय सामने संबंधित देवता का चित्र, अगरबत्ती, दीपक व जल का पात्र हो तो ज्यादा अनुकूल रहता है, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार अग्नि (दीपक), वरुण (जल पात्र) की साक्षी में ही स्तोत्र पाठ होना चाहिए ।

२२ स्तोत्र पाठ प्रातः सांय या रात्रि किसी भी समय किया जा सकता है। इसके लिये कोई विशेष समय निश्चित नही होता। जब भी मन में तरंग उठे, जब भी स्तोत्र पाठ करने की इच्छा जाग्रत हो, जब भी प्रभु के समीप बैठने की भावना बने, तभी बैठकर स्तोत्र पाठ किया जा सकता है, परन्तु अपवित्र शरीर से या अपवित्र स्थान पर बैठकर स्तोत्र पाठ करना वर्जित है।

२३ - स्तोत्र पाठ करते समय या इससे पूर्व भारी भोजन नहीं करना चाहिए। शरीर को स्वच्छ व हल्का बनाये रखना अनुकूल रहता है।

२४ कलियुग में स्तोत्र पाठ ही श्रेष्ठतम विधान माना गया है। .