देवाधिदेव भगवान शंकर आदिदेव हैं, 'श्वेताश्वेतरोपनिषद' के अनुसार "सृष्टि के आदिकाल में जब अन्धकार ही अन्धकार था, न दिन था, न रात थी, न सत था, न असत था, तब केवल एक निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।" महाभारत के अनुशासन पर्व में तो उन्हें ब्रह्मा व विष्णु का रचयिता भी कहा गया है, इसीलिये तो इन्हें देवों के देव महादेव कहा गया है।
एकाकी शिव प्रायः योगी रूप में ही प्रकट हुए हैं, शिव योगीराज हैं, योगाधीश्वर है। उनका रूप विलक्षण होते हुए भी प्रतीक पूर्ण है। उनकी स्वर्णिम लहराती जटा उनकी सर्वव्यापकता की सूचक है, जटा में स्थित गंगा कलुषता-नाश तथा चन्द्रमा अमृत का द्योतक है, गले में लिपटा सर्प,कालस्वरूप हैं, जिस पर शिवाराधना कर विजय पाई जा सकती है, इस सर्प अर्थात काल को वश में करने से ही ये 'मृत्युञ्जय' कहलाये । त्रिपुण्ड, योग की तीन नाड़ियों - इड़ा, पिंगला, एव सुषुम्ना की द्योतक है, तो ललाट मध्य स्थित तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का द्योतक होने के साथ साथ भविष्यदर्शन का प्रतीक है। उनके हाथों में स्थित त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैहिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है, तो त्रिफल युक्त आयुध सात्विक, राजसिक, तामसिक-तीन गुणों पर विजय प्राप्ति को प्रदर्शित करता है, कर स्थित डमरू उस ब्रह्म निनाद का सूचक है जिससे समस्त वाङ्गय निकला है, कमण्डल, समस्त ब्रह्माण्ड के एकीकृत रूप का द्योतक है, तो व्याघ्रचर्म मन की चंचलता का दमन का सूचक है। शिव के वाहन नंदी धर्म के द्योतक है,जिस पर वे आरुढ़ रहने के कारण ही धर्मेश्वर कहलाते हैं, उनके शरीर पर लगी भस्म संसार की नश्वरता की द्योतक है।
शिव और शक्ति मिल कर ही पूर्ण बनते है, शक्ति 'इकार' का द्योतक तक है, इसीलिये शिव में से 'इकार' अर्थात् शक्ति हटा दी जाय तो पीछे 'शव' ही रहता है, अतः शक्ति की सारूप्यता से ही 'शव' पूर्ण रूप से' शिव कहलाते है, और यही इनका अर्द्धनारीश्वर रूप है। शैव दर्शन के अनुसार यह रूप 'ब्रह्म' और 'आत्मा' का समन्वित रूप है, जो द्वैतवाद का सूचक है। इस अर्द्धनारीश्वर रूप में शिव का आधा दायां भाग पुरुष का एवं आधा बांया भाग पार्वती का है। शिव वाले भाग में सिर पर जटाजूट, सर्पमाल, सर्प-यज्ञोपवीत, सर्प कुण्डल, बाधाम्बर त्रिशूल आदि है, जब कि पार्वती वाले भाग में सिर पर मुकुट, कुण्डल, सुन्दर वस्त्र, रम्य आभूषण केयूर-मेखला, कंकण आदि है, इस प्रकार का रूप ही रम्य तथा शैव शाक्त का समन्वित स्वरूप है।
शिव का एक रूप हरिहर भी है जिसमें 'हरि' अर्थात् विष्णु और 'हर' अर्थात् शिव का समन्वित स्वरूप है। यह पालन और संहार का सूचक है, मानव जाति के नित्य उज्जवल नवीन रूप का द्योतक है। भगवान् शंकर त्रिगुणात्मक है, ब्रह्मा स्वरूप सृजन कर्ता, विष्णु स्वरूप पालन कर्ता एवं रुद्र स्वरूप संहारकर्ता ये तीनों ही रूपों का समन्वित रूप महादेव है, इसीलिये तो इन्हें "हरिहर पितामह" कहा गया है, अथर्ववेद में भगवान् 'शिव' को "हरिहर हिरण्यगर्भ भी कहा गया है, अतः भगवान् शंकर ब्रह्मा, विष्णु एवं सूर्य का समन्वित रूप जो शिव है, केवल मात्र इनकी पूजा ही समस्त देवताओं की पूजा-अर्चना है, जो कुछ दृश्य है वह शिव है, जो कुछ घटित है, वह शिव है..... यह सारा संसार शिवमय है, शिवस्वरूप है, शिव युक्त है।
भगवान् शंकर स्वयं निर्विकार रहकर विकार युक्त विश्व की व्यवस्था करने में संलग्न है, कैलाश के युक्त उत्तंग शिखर पर हिमाच्छादित चोटियों के मध्य "शंकर धाम" कैलाश में न तो कोई चिन्ता है, और न कोई सन्ताप ही । स्वयं निर्मुक्त होते हुए भव बन्धन को तोड़ने में सक्षम, शिव के अतिरिक्त और कोई देवता ऐसा नहीं है जो जन्म मरण के कल्मष को धोकर अभय दे सके.... स्वयं स्थिर और निश्चल होते हुए भी चराचर जगत के कण कण में व्याप्त है, इसीलिये तो शंकर चराचरात्मक है, शंकर है, अभयंकर है।
शिव का अर्थ ही कल्याण है, शुभ है, मंगल युक्त है..... जीवन में पूर्णता देने में शिव अग्रणी है, क्योंकि शिव भोग और मोक्ष दोनों के ही प्रदाता है, शिव ओढरदानी है, जो क्षण में ही पसीज कर भक्तों को अभय कर देते है, भगवान शंकर आशुतोष हैं, जो भक्तों की जैसी इच्छा होती है, उसी के अनुसार उनकी इच्छा तुरन्त पूर्ण करने में अग्रणी हैं, इसीलिये तो शंकर को "भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव" कह कर संबोधित किया है, इसीलिये तो भीष्म पितामह को केवल यही कह कर चुप हो जाना पड़ा कि 'जो सब में रहते हुए कहीं किसी को दिखाई नहीं देते, ऐसे महादेव के गुणों का वर्णन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ - अशक्तोऽहं गुणान् वक्तुं महादेवस्य धीमतः ।
यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते ॥