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खगोलशास्त्री सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर // पुण्यतिथि ।।

जन्म : 19 अक्टूबर 1910
मृत्यु : 21 अगस्त 1995

विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार पाने वाले सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर तीसरे भारतीय वैज्ञानिक थे। उनसे पहले विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार चंद्रशेखर वेंकटरमन (भौतिकी विज्ञान) 1930 में तथा दूसरे डॉक्टर हरगोविंद खुराना (शरीर एवं औषधि विज्ञान) 1968 में यह उपलब्धि प्राप्त कर चुके है। हालांकि नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पांचवें भारतीय थे। विज्ञान के क्षेत्र से अलग यह उपलब्धि पाने वाले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर जिन्हें साहित्य के लिए 1913 में तथा दूसरा मदर टेरेसा जिन्हें शांति और सद्भावना के लिए 1979 मे नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने कार्यों और उपलब्धियों द्वारा नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत का झंडा विश्व में ऊंचा किया था। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में सुब्रमण्यम की प्रसिद्धि और उनको नोबेल पुरस्कार दिए जाने का कारण है। तारों के ऊपर किए गए उनके गहन अनुसंधान कार्य और एक महत्वपूर्ण सिद्धांत जिसे चंद्रशेखर लिमिट के नाम से आज भी खगोल विज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की इस महान खोज ने जहां पूर्व में की गई आधी अधूरी खोजो के सिद्धांतो को सुधार कर उन्हें पुनर्स्थापित किया, वहीं भविष्य में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले अनेक अनुसंधानों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी इसी सफलतापूर्वक खोज ने उन्हें नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बनाया।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का जन्म <<

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुब्रमण्यम अपने 7 भाई बहनों के परिवार में सबसे बड़े पुत्र थे। उनके पिता श्री सी.एस. अय्यर ब्रिटिश सरकार के रेल विभाग में अधिकारी पद पर कार्यरत थे। अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति और कुशाग्र बुद्धि के स्वामी सुब्रमण्यम की प्रतिभा के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे थे।

सुब्रमण्यम की बचपन से ही खेलों से कहीं अधिक रूचि किताबों में थी। यदि यह कहा जाए कि भविष्य में महान वैज्ञानिक बनने के गुण उनके खून में ही थे, तो गलत नहीं होगा। शिक्षित माता पिता की संतान के रूप में जन्मे सुब्रमण्यम चंद्रशेखर महान भौतिक विज्ञानी श्री चंद्रशेखर वेंकट रमन के भांजे थे। जिस समय सुब्रमण्यम का जन्म हुआ, उस समय वेंकटरमन भारत में भौतिक विज्ञान की आधारशिला रख रहे थे।

>> सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की शिक्षा <<

सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में ही हुई थी। सन् 1925 में जब उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उसी साल के अंत में उनके पिता लाहौर छोड़कर मद्रास चले आएं। आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति सहित कॉलेज में अध्ययन आरम्भ किया। जैसे जैसे वे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले जा रहे थे, वैसे वैसे पढ़ने के प्रति उनकी रूचि भी तेजी से बढ़ती जा रही थी।

उनके सहपाठी अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ते थे, किंतु सुब्रमण्यम नियमित रूप से पुस्तकालय जाते और भौतिक विज्ञान की जो भी नई पुस्तक मिलती, यहां तक की शोध पत्र भी पढ़ डालते थे। उन्होंने बी.एस.सी की भौतिकी विज्ञान ऑनर्स की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त की।

बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने मामा वेंकटरमन से भौतिक विज्ञान की अनेक बारिकियों को जाना। और सन् 1930 में सुब्रमण्यम इंग्लैंड पहुंचे, और कैंम्बिज विश्विविद्यालय में भौतिक विज्ञान के छात्र के रूप में अपना शोध कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्होंने रॉल्फ हॉवर्ड फाउलर द्वारा प्रतिपादित उन सिद्धांतों का अध्ययन किया जो सुदूर आकाश गंगा में स्थित श्वेत बौने तारों की प्रकृति पर आधारित थे।

निश्चित समय पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके सन् 1933 में उन्होंने विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.(P.H.D) की उपाधि प्राप्त की। इसी साल उन्हें कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज का फैलो चुन लिया गया। ट्रिनिटी कॉलेज (Trinity College Of London) की फैलोशिप पाना अपने आप में एक महत्वपूर्ण सफलता थी। वे सन् 1937 तक यहां फैलो के रूप मे अपने शोध और अनुसंधान कार्यों में तन्मयता से जुटे रहे।

सन् 1933 से 1937 तक 4 वर्षों का समय सुब्रमण्यम और विश्व खगोल विज्ञान के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसी समयावधि में सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर ने अपनी महत्वपूर्ण खोज “चंद्रशेखर लिमिट” को विश्व विज्ञान जगत के सामने रखा। यह अलग बात है कि पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित किए गए पारंपरिक सिद्धांतों को ही सर्वोपरि

मानने वाले वैज्ञानिक समुदाय ने उनकी इस खोज को स्वीकारने में अपेक्षाकृत अधिक समय ले लिया। किंतु अपनी इसी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर उन्होंने सिद्ध कर ही दिया कि वे अपनी जगह कितने सही थे।

>> नोबेल पुरस्कार <<
 
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर के उपलब्धियों भरे वैज्ञानिक जीवन में इसे विडम्बना ही कहा जाएगा, कि जो खोज “चंद्रशेखर लिमिट” उन्होंने सन् 1935-1936 में ही कर ली थी, उसके लिए लगभग 47-48 सालो के बाद सन् 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया, जबकि उन्हीं के दो शिष्य सन् 1957 में ही यह सम्मान प्राप्त कर चुके थे। यह अलग बात है कि बाद के सालो में किए गए उनके अन्य अनुसंधान कार्यों जैसे कि ब्लैक होल (Black hole) की उत्पत्ति और संरचना व आकाश गंगा के अन्य रहस्यों को उजागर करने के परिणामस्वरूप और अधिक समय तक इस सम्मान से वंचित रख पाना संभव नहीं रह गया था। सन् 1983 मे उन्हें नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर विश्व के समस्त वैज्ञानिक समुदाय ने प्रसन्नता प्रकट की।

>> परिवारिक और व्यक्तिगत जीवन <<
 
हालांकि सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर 20 साल की आयु में ही अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश आ गए थे। जहां लगभग 7 साल इंग्लैंड और बाकी का जीवन अमेरिका की पश्चिमी सभ्यता संस्कृति के संपर्क में रहकर बिताया, किंतु वे कभी भी अपने देश भारत और उसकी संस्कृति को नहीं भूले। वे भारतीय रंग ढ़ंग के अनुरूप ही रहते थे। अपने घर में दक्षिण भारतीय पहनावा धोती कुर्ता पहने उन्हें अक्सर देखा जाता था। एक खगोलीय विज्ञानी होते हुए भी उन्हें संगीत में विशेष रूची थी। सन् 1936 मे चंद्रशेखर भारत आए थे। हालांकि वे बहुत थोडे समय के लिए यहां रूके। किंतु इसी समय उन्होंने अपनी जीवन संगिनी का वरण किया और उन्हें भी अपने साथ अमेरिका ले गए। सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की पत्नी श्रीमती ललिता दुरई स्वामी भी एक वैज्ञानिक थी। और भारत में महान वैज्ञानिक वेंकटरमन की विज्ञान अनुसंधान शाला में काम करती थी। विदेश में रहते हुए भी वे अपने पति की अच्छी सहयोगिनी सिद्ध हुई।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की मृत्यु <<

अपना महत्वपूर्ण जीवन विज्ञान को सीखने और सीखाने में अर्पित कर देने वाले महान वैज्ञानिक सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने 85 वर्ष की आयु में 21 अगस्त 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज सुब्रमण्यम चंद्रशेखर हमारे बीच नहीं है। किंतु वे अपने जाने से पूर्व अपने शिष्यों के रूप में भविष्य के वैज्ञानिकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर गए है, जिसके सुपरिणाम हमें निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं

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हनुमान जी की भयंकर गर्जना ।।

ऐसा पढ़ने में आता है की अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमान जी कभी कबार खड़े हो कर कौरवो की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवो की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग निकलती..

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हनुमान जी की दृष्टि का सामना करने
का साहस किसी में नही था..
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उस दिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था..
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कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणो की वर्षा किये जा रहा था उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए..
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अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगो पर लगने लगे..
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रथ की छत पर बैठे पवनपुत्र हनुमान जी  एक टक नीचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
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श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे, उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था..
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हनुमान जी से यह सहन नही हुआ..
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अकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्ण को मार देने के लिए उठ खड़े हुए।
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हनुमान जी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो..
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कौरव-सेना तो पहले ही भाग चुकी थी 
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अब पांडव पक्ष की सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण के हाथ से धनुष छूट कर गिर गया।
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भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमान जी को स्पर्श करके सावधान किया..
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रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।
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श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गए किन्तु उनकी पूछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी..
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उनके दोनों हाथों की मुठियां बंध थीं, वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे और स्वेद धरा चल रही थी दोनों ने दृष्टि निचे कर रखी थी।
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हनुमान जी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा 
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हनुमान ! मेरी और देखो, अगर तुम इस प्रकार कर्ण की और कुछ क्षण देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।
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यह त्रेतायुग नही है। तुम्हारे पराक्रम को तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता।
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तुमको मैंने इस युद्ध मे शांत रहकर बैठने को कहा है।
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फिर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव की और नीचे देखा और शांत हो कर बैठ गए..
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((((जय जय श्री राधे)))))
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धर्म की जय हो अधर्मी का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो 🙏🚩

चांद्रायण साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना ।।

कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं । इन्हें अनिवार्य साधनाओं में गिना गया है। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नादयोग को ‘अनाहत ध्वनि' भी कहते हैं । लययोग को आत्मदेव की साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लययोग सूक्ष्म के साथ बिंदुयोग और कारण शरीर के साथ नादयोग का सीधा संबंध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अन्न, जल, वायु की तरह इन तीन साधनाओं को भी समान उत्कर्ष की दृष्टि से सर्व सुगम किंतु साथ ही असाधारण रूप से प्रभावी भी माना गया है। 

बिंदुयोग-त्राटक साधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र का उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भवों के बीच मस्तक के भृकुटि भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य एक भूकुटि स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट के दर्शन कराए थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालते व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केंद्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह, दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आंखों देखा हाल सुनाते रहे। आज्ञाचक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार और पिट्यूटरी ग्रंथियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का त्रिदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केंद्र, कहा जाता है। टेलीविजन राडार, टेलीस्कोप के समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन सूक्ष्म दर्शनविचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलताकिंतु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूंकि यह केंद्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिंदु माना जाता है इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिंदुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी है।

अब तक.... , कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। 

अभी हम सभी प्रथम योग बिंदुयोग को समझेंगे..... 

बिंदुयोग का एक नाम त्राटक साधना भी है।

यह साधना सरल है। आमतौर से पालथी मारकर, कमर सीधी कर एकांत स्थान में साधना के लिए बैठते हैं। तीन फुट दूरी पर कंधे की सीध में ऊँचाई पर एक घृत दीप जलाकर रखते हैं। दस सैकिन्ड तक उसकी लौ को खुली आँख से देखना, फिर एक मिनट बंद रखना। फिर दस सैकिंड देखने, पचास सैकिंड बंद रखने का अभ्यास अनुमान से ही करना पड़ता है। घड़ी का उपयोग इस बीच बन पड़ना सुविधाजनक नहीं रहेगा। दूसरा कोई चुपके से धागे आदि का संकेत कर दे तो दूसरी बात है।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बंद करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केंद्रों को जागृत कर रहा है। आरंभ में यह ध्यान दस मिनट से आरंभ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। खोलने बंद करने का समय एक सा ही रहेगा। दीपक का सहारा आरंभ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उनकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलंबन के मात्र कल्पना-भावना के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुंज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण ‘सविता' वही है। पालथी मारना हाथ गोदी में और कमर सीधी रखने को ध्यान मुद्रा कहते हैं। दीपक धारणा की तरह प्रभात कालीन अरुणाभ सूर्य को पाँच सैकिंड खुली आँख से देखकर बाद में पचपन सैकिंड के लिए आँखें बंद कर लेते हैं और आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा संवेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुंज बनाती हैं। सूर्य त्राटक की ध्यान धारणा आरंभ में दस मिनट करनी चाहिए और धीरे-धीरे बीस मिनट तक बढ़ा देनी चाहिए। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण, तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। कुछ समय तो लगता ही है। बीज बोने से लेकर वृक्ष फलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय तो चाहिए ही। हथेली पर सरसों तो बाजीगर ही जमा सकते हैं।

संदर्भ : 
📕वांग्मय ७ प्रसुप्ति से जगृति की ओर 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

कल्प साधना का क्रिया पक्ष ।।

चिंतन, आदत और विश्वास अंतराल के यह तीन क्षेत्र हैं। इन्हें क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त कहते हैं। मनः क्षेत्र की यह तीन परतें हैं। इन्हीं को तीन शरीर, स्थूल, सूक्ष्म, कारण भी कहते हैं*। पंच भौतिक काया तो इन तीनों की आज्ञा एवं इच्छा का परिवहन मात्र करती रहती है। आत्म सत्ता इनसे ऊपर है।

उपरोक्त शरीरों की परोक्ष स्थिति को परिष्कृत करने के लिए योगाभ्यास में तीन साधनाएँ हैं। स्थूल को मुद्राओं से, सूक्ष्म को प्राणयाम से और कारण को योगत्रयी से परिमार्जित किया जाता है। मुद्राओं में तीनों प्रधान हैं- (१) शक्तिचालिनी मुद्रा, (२) शिथिलीकरण मुद्रा, (३) खेचरी मुद्रा । प्राणायामों में तीन को प्रमुखता दी गई है- (१) नाड़ी शोधन प्राणायाम, (२) प्राणाकर्षण प्राणायाम, (३) सूर्यवेधन प्राणायाम। योगाभ्यासों में तीन प्रमुख हैं- (१) नादयोग, (२) बिंदुयोग, (३) लययोग कल्प ।साधना में इन नौ का अभ्यास कराया जाता है। दिव्य अनुदान की ध्यान धारणा इन नौ के अतिरिक्त है। क्रियायोग के यह तीन प्रयोग साधक के त्रिविध शरीरों को परिष्कृत करने की उपयोगी भूमिका संपन्न करते हैं। शरीरों के हिसाब से इनका वर्गीकरण करना हो तो स्थूल शरीर के निमित्त शक्तिचालनी मुद्रा, नाड़ी शोधन प्राणायाम और नादयोग की गणना की जाएगी। सूक्ष्म शरीर के निमित्त प्राणाकर्षण प्राणायाम, शिथिलीकरण मुद्रा और बिंदुयोग को महत्त्व दिया जाता है। कारण शरीर में खेचरी मुद्रा, सूर्यवेधन प्राणायाम और लययोग का अभ्यास किया जाता है।

हर साधक को उन नौ को एक साथ करना आवश्यक नहीं। त्रिविध योग साधनाएँ तो सभी को सामान्य परिमार्जन करने की दृष्टि से आवश्यक मानी गई हैं। इनको हर स्थिति के साधक को साथ- साथ चलाने का प्रावधान है। नादयोग, बिंदुयोग और लययोग का अभ्यास सभी कल्प साधकों की दिनचर्या में सम्मिलित है।

मुद्राएँ तथा प्राणायाम तीन-तीन हैं। इनमें से साधक के अंतराल का सूक्ष्म निरीक्षण करके एक-एक का निर्धारण करना पड़ता है। दोनों मुद्राएँ, दोनों प्राणायाम भी तीन योगों की तरह प्रतिदिन साधने पड़ें ऐसी बात नहीं हैं। मुद्राओं में से एक, प्राणायामों में से एक का ही चयन करना होता है। इस प्रकार तीन योग, एक मुद्रा, एक प्राणायाम का पंचविध कार्यक्रम हर एक की दिनचर्या में सम्मिलित रहता है।

संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना 
 ✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन ।।

चिंतन और मनन की प्रक्रिया चांद्रायण कल्प का मेरुदंड है। इसलिए इन दिनों गंभीरतापूर्वक  विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश करना  चाहिए।

आज के स्वाध्याय में हम सभी जानेंगे चिंतन का विषय क्या हैं और मनन का उद्देश्य क्या है।

चिंतन का विषय है-आत्मशोधन मनन का उद्देश्य है- आत्म-परिष्कार। दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरांत पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रंगाई होती है।  आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है। 

आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म- चिंतन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर श्रम का - जितना लाभ हो सकता है उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्धपुरुषों द्वारा बताई गई है।


समझा जाना चाहिए कि चिंतन का विषय अनुशासन है इसी को संयम कहा जाता है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय-संयम और विचार-संयम ये चार प्रकार के संयम है। अपने वर्तमान स्वभाव- अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ-क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना- अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म- समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिन्ह है। पाप कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अगला कदम स्वाध्याय- सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिंतन-मनन है। चिंतन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूंढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाए यह न केवल सोचना होता है वरन उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वंदी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है, असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से जिन कार्यक्रमों से बनती है उनको भी बदलवना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसीलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरंभ कर दिया जाए। कल्पावधि इस अभ्यास के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए।  इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए। साथ ही यह भी निश्चित किया जाए कि इन निर्धारणों को  भविष्य में नियमित रूप से जारी रख जाएगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ़ व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक-दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैं।


निष्कर्ष: 

कल्प साधना में जितना महत्व आहार संयम और जप, ध्यान का है  उतना ही महत्व  आत्म चिंतन का भी समझना चाहिए। आत्म चिंतन का विषय अनुशासन है जिसमें अपने वर्तमान स्वभाव अभ्यास में चार प्रकार के संयम से संबंधित कहां-कहां त्रुटियां है इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जांच पड़ताल की जानी चाहे चाहिए,  साथ ही उन गलत आदतो को किस प्रकार दूर भगाया जाए इसके  लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर चारों संयम का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। 

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन 

मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के  लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है,  दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।

पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।

परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।

संदर्भ : चांद्रायण  कल्प साधना 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।