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माँ दुर्गा ।।

       मनुष्य का शरीर असंख्य दुर्गरूपी लघु कोशिकाओं से निर्मित है, मनुष्य के मस्तिष्क में असंख्य अत्यंत गूढ़ लघु कोशिकाएं हैं। जितनी कोशिकाएं उतने बिजलीघर एवं प्रत्येक कोशिका किसी न किसी प्रकार की शक्ति का
उत्पादन कर रही है परन्तु इन सबमें एक अद्भुत संयोजन है। यह संयोजन कौन कर रहा है? इन सबको एक सूत्र में कौन बांधे हुए हैं? इन सबको कौन समय-समय पर क्रियाशील कर रहा है, स्व चलित कर रहा है, बंद और चालू कर रहा है, आदेशित कर रहा है, किसके भय से ये सब एकसूत्र में बंधी हुई हैं यह सोचने का विषय है एवं यही श्री दुर्गा सप्तशती रहस्यम है। 

        श्री दुर्गा सप्तशती में भगवती दुर्गा देवासुर संग्राम में ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों की नायिका बनी हुई हैं और उन्हीं के नेतृत्व में प्रत्येक शक्ति अपनी क्षमता एवं योग्यतानुसार युद्ध को तत्पर है। जब हम इस सिद्धांत को समझ जाते हैं तब हमें पराम्बा के परम प्रज्ञावान होने का भाव होता है, उनकी दैवीय विलक्षणता का हमें आभास होता है और हम शाक्तोपासक बनते हैं। दैवीय बल के अभाव में शारीरिक बल, भौतिक बल, स्थूल बल इत्यादि पशुतुल्य हो जाते हैं, पशु प्रवृत्ति से ग्रसित हो जाते हैं और कालान्तर आसुरी बल में परिवर्तित हो जाते हैं। आसुरी बल का अंत आत्मघात है। आसुरी बल का विसर्जन स्वघात के माध्यम से ही सम्पन्न होता है अतः जिस मानव समुदाय ने दैवीय बल के महत्व को समझा, उसका अनुसंधान किया, उसकी स्तुति की, उसके द्वारा स्वयं को संचालित किया वही भविष्य में अति विकसित मानव के रूप में उदित हुआ है। 

        भगवती दुर्गा त्रिनेत्रा हैं अतः वे शैव कुल की परम शक्ति हैं। आपका दाहिना नेत्र सूर्य, बांया नेत्र चंद्रमा एवं तीसरा नेत्र अग्नि का प्रतीक है। तीनों नेत्रों का तात्पर्य यह है कि आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रतिक्षण किसी भी अवस्था में निहार सकती हैं। आपकी दृष्टि ब्रह्माण्ड के कण-कण पर है। प्रत्येक लोक में प्रत्येक प्रकार के कोशमय जीवन की आप रक्षिका हैं। जीवात्मा कोशमय जीवन की आदि है एवं प्राण और कोश का चोली दामन का साथ है। 36 भुवनों का निर्माण जब पराम्बा ने अपने लीला प्रपंच को विस्तारित करने के लिए किया तब इन 36 कोश रूपी दुर्गों की व्यवस्था बनाने के लिए, उन्हें सुदृढ़ करने के लिए वे दुर्गा के रूप में अवतरित हुईं। 36 भुवनों में से प्रत्येक भुवन रूपी दुर्ग की संरक्षिका, द्वारपालिका दुर्गा ही हैं। जीवन चूंकि कोश आधारित हो गया है अतः कोश में उसकी दुर्गति न हो, कोश के साथ उसका समन्वय बना रहे, कोश स्वयं समय परिस्थिति अनुसार जीवात्मा के लिए विकसित, प्रसारित होता रहे इसकी जिम्मेदारी भी दुर्गा पर आती है ।

           एक कोश से या एक भुवन से दूसरे भुवन तक की दुर्गम यात्रा सुगम हो सके इसके लिए भी भगवती के दुर्गा स्वरूप की स्तुति की जाती है। मनुष्य स्वयं एक लघु ब्रह्माण्ड है और इसकी क्रियाशीलता शक्ति अनुसंधान पर टिकी हुई है। शक्ति अनुसंधान की प्रवृत्ति निरंतर बनी रहे इसलिए भगवती दुर्गा चुनौतियाँ, युद्ध, विषम परिस्थितियाँ, मुसीबतें, दुर्गमताए रचती रहती हैं एवं इन्हीं को ध्यान में रखकर मनुष्य शिथिलता छोड़कर क्रियाशील बना रहता है और नित नये शक्ति संबंधित अनुसंधान प्रत्येक तल पर सम्पन्न करता रहता है ।समस्त ब्रह्माण्ड शक्ति की ही स्तुति कर रहा है एवं आज तक कोई शक्ति का वास्तविक उत्पादन नहीं कर पाया है, कोई भी शक्ति का सृजन नहीं कर पाया है, कोई शक्ति का अविष्कार नहीं कर पाया है अपितु उसने शक्ति का अर्जन करने की चेष्टा की है, स्वयं को शक्ति के अनुरूप ढाला है। 

        शक्ति कहाँ से आती है? शक्ति कहाँ उत्पन्न हो रही है ? यह कोई नहीं जानता। डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने एक अद्भुत यंत्र बनाया एवं उसमें उन्होंने चाँदी के तार की शक्ति नापने की कोशिश की। उन्होंने देखा कि कुछ घण्टों पश्चात अचानक यंत्र रुक गया क्योंकि चाँदी थक गई और उसे कुछ समय लगा पुनः शक्तिकृत होने में तब जाकर वह पुन: क्रियाशील हुई। उन्होंने रत्नों पर भी प्रयोग किए और पाया कि रत्न भी मर जाते हैं। उन्होंने कुछ रत्नों को विष में डुबो दिया और पाया कि रत्न मर गये, बुझ गये, उनमें शक्ति संचार बंद हो गया। उन्होंने पेड़ों पर प्रयोग किया और देखा कि पेड़ हँस रहे हैं, पेड़ रो रहे हैं, पेड़ भी मनुष्यों के समान डर रहे हैं। एक विशेष प्रकार की चैतन्यता उन्होंने रत्नों में, जल में, वायु में, पेड़-पौधों में, धातुओं इत्यादि में पायी । उन्होंने देखा कि धातु भी रोती है, धातु भी डरती है, धातु भी सोती है, धातु भी थकती है अर्थात जो कुछ मनुष्यों में हो रहा है, जो संवेग मनुष्यों में हैं वो ही संवेग रत्नों, धातुओं, पेड़ पौधों में भी हैं बस फर्क इतना है कि कुछ हद तक मनुष्य अन्यों की अपेक्षा कुछ ज्यादा प्रखरता से अपने इन्द्रिय विकास के द्वारा संवेगा का प्रकट करने में सक्षम है।

       डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने 2 घड़ियाँ बनाई। एक घड़ी उन्होंने मंदिर में लगाई और एक घड़ी उन्होंने कारखाने में लगाई। कारखाने में लगी घड़ी जहाँ प्रदूषण, शोर-शराबा इत्याद था वहाँ पर कुछ ही दिनों में गलत समय बताने लगी अर्थात पीछे चलने लगी एवं दूसरी ओर जहाँ वेद-मंत्रों, पवित्र आवृत्तियों इत्यादि का गुंजन हो रहा था वहाँ पर लगी हुई घड़ी वर्षों तक सही समय बताती रही, कभी खराब नहीं हुई । डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने दो वृक्ष लिए एक वृक्ष उन्होंने सड़क के किनारे लगा दिया और दूसरा वृक्ष घर में लगाया। घर में लगे हुए वृक्ष को उन्होंने पवित्र जल से सींचा, उसके सामने शक्ति संबंधित दिव्य कवचों एवं स्तोत्रों का पठन किया । ऐसा वृक्ष अति अल्प समय में पूर्ण रूप से विकसित होकर फल देने लगा, उसमें पुष्टि हो गई एवं दुर्गा तत्व का उसमें विकास हो गया । विज्ञान भी आज वैज्ञानिक दृष्टि से परा शक्तियों की महिमा का यशोगान कर रहा है।

ऐं ऐं ऐं

         परम मातृ उपासक भगवान शंकराचार्य बद्रीनाथ, केदारनाथ, काशी, मथुरा, उड़ीसा, मध्यभारत, महाराष्ट्र, कन्याकुमारी इत्यादि से लेकर देश के अनेक भागों में देशाटन करते रहे एवं अधर्म के एक-एक दुर्ग को ध्वस्त करते रहे परन्तु सनातन धर्म के दुर्ग की स्थापना हेतु उन्हें आध्यात्मिक रूप से परम पवित्र एवं अभेद स्थान प्राप्त नहीं हो रहा था जहाँ कि वे भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभेद दुर्ग की स्थापना कर सकें, अपना प्रथम मठ स्थापित कर सकें। इसी उहापोह में वे आसाम गये, नेपाल गये परन्तु वहाँ पर भी उन्होंने अपने मठ की स्थापना नहीं की आखिरकार घूमते-घूमते दक्षिण भारत में एक दिव्य स्थान पर पहुँचे। 

         रात्रि को वे विश्राम कर रहे थे कि अचानक भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने उन्हें अष्टभुजी दुर्गा के रूप में दर्शन दे दिए कुछ समय पश्चात् वे महाकाली बन गईं, कुछ ही क्षणों पश्चात् वे महालक्ष्मी के रूप में प्रकट हो गईं और देखते ही देखते भगवती त्रिपुराम्बा ने अपने महासरस्वती रूप का भी प्राकट्य कर दिया अर्थात रात्रि की स्वप्नावस्था में भगवान शंकराचार्य को एक साथ त्रिशक्ति के दर्शन हो गये और उनके कानों में शंख, घण्टे, मृदंग इत्यादि की दिव्य ध्वनियाँ स्वतः ही सुनाई पड़ने लगीं। उनके मुख से स्वतः ही नवार्ण मंत्र अर्थात ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै प्रस्फुटित होने लगा। वे उठकर बैठ गये और इसी नवार्ण मंत्र को पढ़ते हुए रात्रि के लगभग 4 बजे वे नदी तट की तरफ चल पड़े, उन्हें ऐसा लगा मानो कोई दिव्य शक्ति स्वतः ही उन्हें किसी दैवीय कार्य हेतु स्थान विशेष पर ले जा रही हैं तभी सामने वे एक अद्भुत दृश्य देखते हैं। एक गर्भिणी मेंढकी बड़े आराम से बैठी हुई है और उसके ऊपर एक विशाल सर्प फण ऊपर करके उसे छाया प्रदान कर रहा है, उसकी रक्षा कर रहा है। 

         भगवान शंकराचार्य यह दृश्य देखकर रोमांचित हो उठे, सामान्यत: मेंढक सर्प का प्रिय भोजन है और मेंढक को देखते ही सर्प उसका भक्षण कर अपनी भूख को शांत करता है परन्तु यहाँ पर तो ब्रह्माण्ड के सबसे विषैले प्राणी सर्प में भी उन्हें मातृकोपासना स्पष्ट दिखाई दी अर्थात वह अपनी क्षुधा को भूल अपनी प्रकृति के ठीक विपरीत गर्भिणी मेंढकी की रक्षा कर रहा था, उसे आश्रय प्रदान कर रहा था। भाव विभोर शंकराचार्य कह उठे “भजं भवानी जपं भवानी नमः भवानी नमः भवानी" और दूसरे ही क्षण उन्होंने वहाँ पर अपना दण्ड गाड़ दिया बस हो गई दुर्ग की स्थापना हाँ यह दैवीय दुर्गा तत्व से युक्त प्रत्यक्ष क्षण सनातन धर्म के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण क्षण था और इस प्रकार अंगेरी में शंकराचार्य जी ने अपने प्रथम मठ की स्थापना की। भगवान शंकराचार्य जी को अपना दुर्ग मिल गया, उसकी रक्षिका दुर्गा मिल गईं तब से लेकर आज तक शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित इस अभेद दुर्ग से सनातन धर्म की अविरल गंगा प्रवाहित हो रही है और एक बार पुनः सम्पूर्ण भारतवर्ष अपनी आध्यात्मिक क्षुधा को मिटाकर पूर्ण तृप्त हो गया। यहीं पर भगवान शंकराचार्य जी ने श्रीयंत्र की स्थापना की, ललिताम्बा की स्थापना की।

         हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी आप इस ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी प्रायोजिका हैं। आप ही आयोजन करती हैं, आप ही प्रायोजन करती हैं ब्रह्माण्ड विलास का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आपके इशारे पर ही नृत्यगान होता है, जब जैसा चाहती हैं वैसा प्रायोजन आप सृष्टि में करती रहती हैं। मणिद्वीप के भव्य रत्न मंडप में भगवती त्रिपुर सुन्दरी विद्यमान हैं अचानक उन्हें तेज-तत्व के प्रायोजन का विचार आ गया और वे तेजोमय हो उठीं। आपके नेत्र ऊर्ध्व की तरफ उठ गये, आप अपने कोमल मेरुदण्ड को सीधा करके तेजोमय मुद्रा में बैठ गईं। दूसरे ही क्षण आपके प्रत्येक अंग से तेज तत्व का प्रवाह होने लगा। आपके रोम-रोम, अंग-अंग से निकले विभिन्न तेज पुंजों ने मिलकर एक दिव्य तेज पुंज का निर्माण किया और दूसरे ही क्षण आप अष्ट भुजी दुर्गा के रूप में मणिद्वीप में प्रतिष्ठित हो गईं। 

            हे भगवती आपके 6 हाथ दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए थे और एक हाथ वर मुद्रा में था तो दूसरा हाथ अभय मुद्रा में था। आपका तेजोमय मुख मण्डल मंद-मंद मुस्कुरा रहा था तभी आपने तेज तत्व से कुछ अलौकिक पुरुषों के प्रायोजन का विचार किया और देखते ही देखते आपके दाहिने हाथ के अंगूठे से प्रथम अवतार अर्थात मत्स्य अवतार सृष्टि में उत्पन्न हो गया जिसने शंखासुर को मारकर वेदों की रक्षा की, उसी हाथ की तर्जनी अंगुली के नख से दूसरा कूर्म अवतार हुआ जिसने मंदराचल को पीठ में धारण कर अमृत मंथन सम्पन्न किया, उसी हाथ की मध्यमा के नख से तीसरा वाराह अवतार हुआ जो इस पृथ्वी को मुख पर धारण कर पाताल से ले आये और हिरण्याक्ष का वध किया। उसी हाथ की अनामिका के नख से चौथा नरसिंह अवतार हुआ जिसने प्रहलाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु का वध किया, उसी हाथ की कनिष्ठा के नख से वामन अवतार हुआ उसने बलि से तीन पग भूमि मांगी तथा दैत्यों को पाताल भेजा।

         ठीक इसी प्रकार आपके बायें हाथ के अंगूठे के नख से छठा परशुराम अवतार हुआ जिन्होंने 21 बार भूमि को क्षत्रीय रहित किया, हे दुर्गे आपके वाम हाथ की तर्जनी के नख से सातवा रामावतार हुआ जिन्होंने युद्ध में रावण को मारा और सीता की रक्षा की, मध्यमा के नख से आठवां कृष्णावतार हुआ जिन्होंने गोपागंनाओं के साथ अनेक क्रीड़ाएं की और कंसादि दैत्यों का विनाश किया। हे दुर्गे आपकी इसी हाथ की अनामिका के नख से नवाँ बौद्धावतार हुआ जिन्होंने मनुष्यों को स्वाश्रमगामी बनाया, हे दुर्गे आपके बायें हाथ की कनिष्ठा के नख से घोर कलयुग में दसवां अश्वावतार होगा जो अपने खुराघात से संहार करके पृथ्वी को बराबर कर देगा। हे दुर्गे इस प्रकार आप विष्णु के दसों अवतारों की प्रयोजिका हैं और जब-जब अधर्म बढ़ता है तब- तब आपके विभिन्न चरण कमलों, हस्तकमलों के नखों से अनेकों रुद्रावतार, विष्णु अवतार, भैरव अवतार इत्यादि प्रादुर्भावित होते हैं और अपने जीवनकाल में आपकी उपासना कर आपके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूर्ण करते हैं अर्थात असुरों का विनाश करते हैं, धर्म की स्थापना करते हैं, युद्ध का महाआयोजन सम्पन्न करते हैं। 

        सर्व विदित है कि रावण से युद्ध करने से पूर्व भगवान श्रीराम ने रुद्र चण्डी की उपासना की, महाभारत के युद्ध से पूर्व वायव्य कोण में मुख करके अर्जुन ने कृष्ण के आदेश पर दुर्गा स्तुति सम्पन्न की। परशुराम, वामन इत्यादि सभी ने युद्ध से पूर्व हे भगवती दुर्गे आप ही की उपासना की, नरसिंह अवतार ने तो साक्षात् सिंह रूप धारण किया जो कि हे भगवती दुर्गा आपका वाहन है। हे भगवती दुर्गे जब भगवान शंकराचार्य इस पृथ्वी पर उदित हुए तो उनकी दाहिने हाथ की भुजा पर त्रिशूल का निशान स्पष्ट अंकित था, हे शूलिनी दुर्गे इसलिए वे सर्वत्र विजयी हुए। हे शूलिनी दुर्गे तू तो अपने अवतारों को त्रिशूल देती है जिसके द्वारा वे असुरों को शूल प्रदान करते ही हैं। हे शूलिनी दुर्गे जब भगवान शिव दिव्य महाकैलाश में आनंद क्रीड़ा करते हैं तब आप दिव्य महाकैलाश के वायव्य कोण में स्थित द्वार की प्रमुख द्वार पालिका बनती हैं। 

         दिव्य महाकैलाश के वायव्य कोण का द्वार अत्यंत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि जितने भी ऋषि-मुनि, सात्विक प्रवृत्ति के साधक, संत इत्यादि होते हैं वे इसी कोण में मुख करके अपने इष्ट की आराधना करते हैं। ब्रह्मा की आराधना, विष्णु की आराधना, विष्णु के प्रत्येक अवतार की आराधना, इन्द्र की आराधना, कुबेर की आराधना इत्यादि वायव्य कोण में मुख करके ही की जाती है। अनेकों ब्रह्माण्डों के महाविष्णु, महाब्रह्मा, महाइन्द्र, महाकुबेर इत्यादि हे दुर्गे आपके इसी द्वार पर आकर हाथ जोड़कर विनम्र शब्दों में आपकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे माँ मेरा ये भक्त बड़ी ही निष्ठा से, अनेक वर्षों से मेरी उपासना कर रहा है और मैं इसे संसार समस्त सुख, ऐश्वर्य, स्वलोक, धन, सिद्धियाँ इत्यादि देने को तैयार हूँ परन्तु यह मानता ही नहीं है। मेरा यह भक्त मोक्ष मांग रहा है, कामेश्वर शिव एवं कामेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी के सायुज्य के दर्शन मांग रहा है। यह मैं इसे कैसे दूं? यह मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर की मांग है अतः अपने भक्त की याचना लेकर हे दुर्गे मैं आपसे याचना कर सकता हूँ कि आप मेरे भक्त की याचिका पर मेरी याचना के साथ स्वीकृति प्रदान करें, मेरी लाज रखें अन्यथा भक्त का मुझ पर से विश्वास उठ जायेगा तब जाकर हे दुर्गे आप महाविष्णुओं, महाब्रह्माओं, महाइन्द्रों, महाकुबेरों इत्यादि पर कृपा करती हैं एवं उनके भक्तों के साथ-साथ उन्हें भी दिव्य महाकैलाश एवं मणिद्वीप के वायव्य कोण से उन्हें दिव्य शिवलोक और मणिद्वीप में प्रवेश प्रदान करती हैं।

           हे अष्टभुजी दुर्गे आपका दिव्य स्वरूप श्रीयंत्र नुमा मणिद्वीप के वायव्य कोण का रक्षक है जब-जब सृष्टि के किसी भी ब्रह्माण्ड में विपत्ति आती है, असुरों का आतंक फैलता है, देव निधियों का हरण होता है, देव शक्तियाँ पदविहीन होती हैं तब-तब हे अष्टभुजी दुर्गे, आप ही के अंशांश से अनेकों दुर्गा सिद्धियों का प्राकट्य होता है और वे उस ब्रह्माण्ड विशेष में पुन: देव शक्तियों की सहायता करती है। हे दुर्गे मणिद्वीप में आप 10 भुजी दुर्गा हैं एवं अपनी दसों भुजाओं से भगवती त्रिपुर सुन्दरी के मणिद्वीप की दसों दिशाओं की रक्षा करती हैं तो दूसरी तरफ आप दिव्य शिवलोक महाकैलाश पर अष्टभुजी दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित हैं और दिव्य कैलाश की रक्षा अपनी आठों भुजाओं से करती हैं। चतुभुर्जी विष्णु के बैकुण्ठलोक में आप चार भुजाओं से युक्त हैं और बैकुण्ठ लोक की चारों दिशाओं की रक्षा आप अपनी चारों भुजाओं से करती हैं। 

        हे दुर्गे आप दसों महाविद्याओं के साथ चलती हैं, दसों महाविद्याओं के प्रत्येक यंत्र में भगवती दुर्गा की स्थापना है एवं इसका भी बड़ा विचित्र महत्व है। दसों महाविद्याओं के पूजन से पूर्व जैसे ही साधक द्वार पूंजन प्रारम्भ करता है उसे क्षेत्रपाल के साथ भगवती के दुर्गा स्वरूप की भी पूजा करनी पड़ती है तब जाकर उसकी पूजा दसों महाविद्याएं स्वीकार करती हैं एवं साधक के दिव्य मंत्रोच्चार दसों महाविद्याओं के बिन्दु तक पहुँचते हैं अन्यथा भगवती दुर्गा मंत्रोच्चारों को बिन्दु तक पहुँचने ही नहीं देगीं बीच में ही नष्ट कर देगीं। देवासुर संग्राम के समय हे भगवती दुर्गे आपने सिर्फ ‘‘हुं" शब्द का उच्चारण करके असंख्य दैत्यों को मार दिया था, आपके घण्टे के नाद से ही असंख्य असुरों के कर्ण फट् गये थे और वे रक्त वमन करने लगे थे, आपके धनुष की टंकार से ही असंख्य दैत्यों के हृदय की धमनियाँ फट् गईं थीं और वे रक्त वमन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए थे। हे दुर्गे तेरे तांत्रिक महत्व के बारे में क्या कहूं? जो साधक “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" मंत्र का जप मात्र दिन में 21 बार करता है उसके मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक आप स्वच्छंद रूप से प्रतिश्वास विचरण करती हैं और उसके षटचक्रों में विराजमान एक-एक नकारात्मक शक्ति को दुर्गति प्रदान करती हैं।

           मैं आपका एक तुच्छ साधक हूँ फिर भी आपके मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक के स्वच्छंद गमन पर कुछ कहने की धृष्टता कर रहा हूँ कृपया क्षमा करें। एक मनुष्य 24 घण्टों में केवल 21 हजार 600 बार श्वास लेने का अधिकारी है। हे दुर्गे यह अधिकार आपने ही उसे प्रदान किया है न तो वह इससे एक श्वास कम ले सकता है और न ही एक श्वास ज्यादा, यही मनुष्य होने का प्रमाण है। हाथी 24 घण्टे में 18 हजार बार श्वास लेता है, कछुआ 2 हजार बार श्वास लेता है, मछली 24 घण्टे में एक हजार बार श्वास लेती है, सिंह 24 घण्टे में केवल 4 हजार बार श्वास लेता है, सबसे ज्यादा श्वास केवल मनुष्य ही लेता है एवं 21 हजार 600 श्वासों का आंकड़ा ही उसे जीवों में सर्वश्रेष्ठ बनाता है अतः मात्र 21 बार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का जाप करने से आप 21 हजार 600 बार मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक मनुष्य के षट्चक्रों में गमन करती हैं, विलास करती है, निवास करती हैं। 

         मनुष्यों के मूलाधार में गणपति का वास है एवं यहाँ आप 600 श्वास तक गणपति के साथ निवास करती हैं, मनुष्य का दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान लिंग स्थान में है यहाँ पर सरस्वती के साथ ब्रह्मा रहते हैं एवं आप 6000 श्वास तक मनुष्य के आंतरिक ब्रह्मलोक में निवास कर वहाँ के दुर्ग की रक्षा करती हैं। मनुष्य का तीसरा चक्र मणिपुर नाभि में है यहाँ भगवान रमापति अर्थात विष्णु रमा सहित निवास करते हैं यहाँ भी आप 6000 श्वासों के लिए विचरण करती हैं और इस प्रकार मणिपुर चक्र अर्थात विष्णुलोक को भी दैत्य विहीन करती हैं, मनुष्य के शरीर में चौथा चक्र अनाहत चक्र कहलाता है यहाँ पर उमा समेत उमेश निवास करते हैं साधक के इस चक्र में 6000 श्वासों तक निवास कर आप इसे असुर विहीन करती हैं। मनुष्य के शरीर में पाँचवा चक्र विशुद्धि चक्र कहलाता है एवं इसमें जीवात्मा निवास करती है। जीवात्मा के इस जीव मय कोष में भी हे भगवती दुर्गे आप मात्र 1000 श्वास के लिए भ्रमण करती हैं और इस प्रकार जीवात्मा कोष दुष्टात्माओं से मुक्त हो जाता है एवं अशुद्धि को त्याग विशुद्धि को प्राप्त होता है।

         मनुष्य के शरीर का छठवाँ चक्र आज्ञा चक्र कहलाता है एवं यहाँ पर भगवान शिव का परमात्मा स्वरूप वास करता है। हे दुर्गे जो जातक दिन में मात्र 21 बार " ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" मंत्र का जाप करता है उसकी 1000 श्वासों के लिए आप आज्ञा चक्र में गमन करती हैं और इस प्रकार उसे परमात्मा के दर्शन प्राप्त होते हैं। मनुष्य के शरीर में सबसे ऊपर सहस्त्र दल कमल से युक्त सहस्त्रार विराजमान हैं जिसमें गुरु तत्व धारण किए हुए भगवान शिव विराजमान है अर्थात गुरुदेव के रूप में शिव की स्थिति है। यहाँ पर भी आप 1000 श्वासों के लिए विचरण करती हैं कहने का तात्पर्य यह है कि इन 6 चक्रों में द्वारपाल के रूप में, रक्षिका के रूप में आप ही विराजमान हैं। जब आप जातक पर अति कृपावान होती हैं तब आप ऊपर वर्णित श्वासों में से कुछ श्वासों के लिए जातक की आत्मा को इन षटचक्रों के द्वार खोलकर इनमें विराजमान देवताओं से उसका सायुज्य करा देती हैं अर्थात उस आत्मा विशेष को देव विशेष के दर्शन करा देती हैं, प्रत्यक्षीकरण करा देती हैं अन्यथा दरवाजे बंद रहते हैं और आपकी कृपा के अभाव में हे दुर्गे मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण दरवाजे खटखटा खटखटा कर निराश होकर वापस लौट जाते हैं। 

        षट्चक्रों के दरवाजे खोलने का एक ही मंत्र है ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। यही कुण्डलिनी जागरण का विधान है, यही शाक्तोपासकों का मूल मंत्र है यही उनकी पहचान है। इसी मंत्र को सुनकर त्रिशक्ति चामुण्डा रूपी दुर्गा जातक को महाकाली तत्व, महासरस्वती तत्व, महालक्ष्मी तत्व एक साथ प्रदान करती हैं। एक रहस्य की बात तो कहना भूल ही गया सहस्त्र दल कमल के ऊपर अर्थात सहस्त्रार के ऊपर ऊर्ध्व आमान्य में अति गोपनीय विशंति सहस्त्र दल कमल है जिसमें सर्वोपरि शक्ति भगवती त्रिपुर सुन्दरी पंचप्रेतासन पर विराजमान हैं। सहस्त्र दल कमल अर्थात सहस्त्रार एवं विशंति सहस्त्र दल कमल के मध्य में हे दुर्गे आप सहस्त्र भुज धारिणी, त्रिनेत्र स्वरूपिणी, स्वर्ण वस्त्र धारिणी, स्वर्ण आभामयी महालक्ष्मी के रूप में विद्यमान हैं। यहाँ पर जातक को कहना पड़ता है ॐ ऐं ह्रीं क्लीं विशंति सहस्त्रेभ्यो परेभ्यो दुर्गेभ्यो नमः तब जाकर षट्चक्रों का भेदन करते हुए जातक की आत्मा त्रिपुर सुन्दरी के अलौकिक सौन्दर्य को निहार पाती है अर्थात आप दरवाजे से हट जाती हैं और सामने पंच प्रेतासन पर श्री श्री त्रिपुर सुन्दरी विद्यमान होती हैं।

तांत्रोक्त दुर्गा सप्तशती
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         मार्कण्डेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती की रचना नासिक के पास सात पहाड़ों के बीच स्थित सप्तश्रृंग देवी के सानिध्य में की है। यह पूरा क्षेत्र तंत्रमय है। यहीं पर अनेक नाथ सम्प्रदाय के योगियों ने तप किया है। यह अत्यंत ही तीक्ष्ण है एवं त्वरित परिणाम उत्पन्न करती है। देवी भक्तों के लिए यह एक विशेष उपहार है।

 वीं वीं वीं वेणुहस्ते स्तुतिविध बटुके हां तथा तानमाता स्वानन्दे नन्दरूपे अविहत निरुते भुक्तिदे मुक्तिदे त्वम्।
हंसः सोहम् विशाले वलयगतिहसे सिद्धिदे वाममार्गे ह्रीं ह्रीं ह्रीं सिद्धलोके कषकषविपुले वीरभद्रे नमस्ते ॥

 ह्रींकारं चोच्चारन्ती मम हरतु नयं चर्ममुण्ड प्रचण्डे खां खां खां खड्गपाणे ध्रक ध्रक ध्रकिते उग्ररूपे स्वरूपे । 
हुं हुं हुंकार नादे गगन भुवितथा व्यापिनी व्योमरूपे हं हं हंकारनादे सुरगण नमिते राक्षसान् निहन्त्रि ॥ 

ऐं लोके कीर्तयन्ती मम हरतु भयं चण्डरूपे नमस्ते घ्रां घ्रां घ्रां घोररूपे घघघघवटिते घर्घरे घोररावे । 
निर्मासे काकजंघे घसित नख नखा धूम्रनेत्रे त्रिनेत्रे हस्ताब्जे शूलमुण्डें कुलकुलकुकुले श्री महेशी नमस्ते ॥ 

क्रीं क्रीं क्रीं ऐं कुमारी कुह कुह मखिले कोकिले मानुरागे मुद्रा संज्ञ त्रिरेखो कुरु कुरु सततं श्री महामारि गुह्ये ।
तेजोगे सिद्धिनाथे मन पवन चले नैव आज्ञानिधाने ऐंकारे रात्रिमध्ये शयितपशुजने तत्रकान्ते नमस्ते ॥ 

ॐ व्रां व्रीं वूं कवित्ये दहनपुरगते रुक्मरूपेण चक्रे त्रिः शक्तया युक्तवर्णादिककरनमिते दादिवं पूर्व वर्णे ।
 ह्रीं स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशि तै स्तास्तु पत्रे स्वच्छन्दं कष्टनाशे सुरवरवपुषे गुह्यमुण्डे नमस्ते ॥ 

ॐ घ्रां घ्रीं घूं घोरतुण्डे घ घ घ घ घ घ घे घर्घरान्यांघ्रिघो ह्रीं क्रीं द्रं द्रौं चचक्रे रररर रमिते सर्वबोध प्रधाने । 
द्रीं तीर्थे द्रींत ज्येष्ठे जुगजुगजजुगे म्लेच्छ कालमुण्डे सर्वांगे रक्तघोरा मथन करवरे वज्रदण्डे नमस्ते ॥ 

ॐ क्रीं क्रीं क्रू वामभित्ते गगन गड़गड़े गुह्य योन्याहिमुण्डे वज्रांगे वज्रहस्ते सुरपतिवरदे मत्तमातंग रूढे । 
सूतेजे शुद्धदेहे लललल ललिते छेदिते पाशजाले कुण्डल्याकार रूपे वृष वृषभहरे ऐन्द्रि मातर्नमस्ते ॥

 हुं हुं हुंकार नादे कष कष वसिनी मांसि वेताल हस्ते सुं सिद्धर्षैः सुसिद्धि ढ ढ ढ ढ ढ ढ ढः सर्वभक्षी प्रचण्डी ।
 जूं सः मौ शान्तिकर्मे मृत मृत निगडे निः समेसी समुद्रे देवि त्वं साधकानां भवभयहरणे भद्रकाली नमस्ते ॥ 

ॐ देवि त्वं तूयहस्ते करघृतपरिधे त्वं वराहस्वरूपे त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी त्वमसि च जननि त्वं पुराणी महेन्द्री ।
 ऐं ह्रीं ह्रींकार भूते अतल तलतले भूतले स्वर्ग मार्गे पाताले शैलभृंगे हरिहर भुवने सिद्धिचण्डी नमस्ते ॥

हंसि त्वं शौंडदुःखं शमितभवभये सर्वविघ्नान्तकार्ये गां गीं गूं गैं षडंगे गगन गटितटे सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ।
कूं कूं मुद्रा गजांशो गसपवनगते त्र्यक्षरे वै कराले ॐ हीं हूं गां गणेशी गजमुख जननी त्वं गणेशी नमस्ते ॥

            इस दस श्लोक की लघु दुर्गासप्तशती में परमेश्वरी के वीरभद्रा, व्यापिनी, महेशी, कान्ता, गुह्यमुण्डा, वज्रदण्डा, ऐन्द्री, भद्रकाली, सिद्धचण्डी, गणेशी रूपों का वर्णन और प्रणति निवेदन किया गया है। कान्ता, गुह्यमुण्डा, वज्रदण्डा, ऐन्द्री ये चार रूप अत्यंत उग्र हैं। इनका रहस्य किवा स्वरूपज्ञान वाममार्ग में होता है, ज्ञानमार्ग में व्यापिनी की परिधि (व्यवहार) में इन रूपों का विराट दर्शन होता है। सप्तशती में भी ये रूप हैं परन्तु कथा विस्तार में वे अन्तर्हित से हो गये हैं। यहाँ कथा नहीं है। वस्तुतः यह स्वरूप ही दुर्गति का कारण बनते हैं और परमेश्वरी के शरणागत होने पर ये दुर्गतिनाशिनी दुर्गा के कृपाकटाक्ष हो जाते हैं। जब वह निग्रहकारिणी होती है तो ये स्वरूप व्यक्ति को मोहग्रस्त करके अज्ञान के तामसिक लोकों में ढकेल देते हैं। मोहग्रस्त व्यक्ति त्रिपुरा को भूलकर इनमें रम जाता है जैसे बालक खेल से मुग्ध होकर माँ को भूल जाता है पर क्रीड़ा के टूटने पर अथवा परमा की आकण्ड करुणा से जब उसको मातृस्मरण हो आता है और वह आर्तभाव से उसे पुकारता है तो वही निग्रहिणी करुणार्द्र होकर अनुग्रहकारिणी के रूप में आती है। उसके बन्धन पाश भी बनते हैं तो ग्रंथि भी, मोह के मोहक सम्बन्ध भी बाँधते हैं तो मद के घर्षक दोषरज्जु भी व्यक्ति को निर्मल करने के लिये वह नानाविध कर्दम कालुष्य का विस्तार करती हैं, उसमें व्यक्ति को लपेटती-लतेड़ती है। वह चाहती हैं कि ये कल्मय उसे छू भी न सकें, वह इतना शुभ्र हो जाय कि ये उसे कलुषित कर ही न सकें। उसकी कृपा का आनंद लेने के लिये (उसके) साधक के सम्पूर्ण में उसका श्रद्धारूप ही चमकने लगे। 

      लघु सप्तशती में ज्ञान की तटस्थ वृत्ति भक्ति की अरूणिमा से रंजित हो कर प्रकट हुई है। परमा को उसके चरित्रों के माध्यम से नहीं, शुद्ध मूल रूप में भजा गया है। इसके गान की अवस्था में, ज्ञान के निर्बन्ध अवतरण में भाषा और भाषा का व्याकरण गौण हो गया है। सप्तशती का जो फल है वही इसका है पर इसमें बीजों की प्रधानता है इसलिए जिस साधक में इतनी योग्यता आ गई है उसके लिये यह भी उतनी ही फलप्रद है और जो अभी इतना योग्य नहीं हुआ उसे इसके अधिक पाठ करने पर वह योग्यता प्राप्त होगी। 
              
             इसकी फलश्रुति नहीं दी गई है। न ही कोई विस्तृत अनुष्ठान विधि समझने की बात यह है कि इसमें जिन दस रूपों की स्तुति की गई है, उन रूपों में जो गुण प्रभाव निहित है वही इस पाठ के फलस्वरूप प्राप्त होता है। इन सब का संघनित रूप दुर्गा है अतः इसकी अधिष्ठात्री दुर्गा व चण्डी ही होगी।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं
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        हे मुक्ति दायिनी दुर्गे मनुष्य का शरीर तो लघु ब्रह्माण्ड है। इस लघु ब्रह्माण्ड में उसकी आत्मा, उसका मन, उसका चिंतन इत्यादि न जाने कब किस षट्चक्र में उलझकर रह जायें। हे दुर्गे मनुष्य के शरीर में स्थित 6 चक्र रूपी दुर्गों में उसकी आत्मा कभी-कभी किसी चक्र विशेष में बंदी बनकर कैद हो जाती है, वहीं सिमटकर रह जाती है, वहीं की होकर रह जाती है अर्थात वह उस चक्र के आगे का नहीं सोच पाता है। जिस प्रकार बंदी दुर्ग में कैद होकर दुर्गति को प्राप्त होता है तब वह दुर्गति से मुक्ति प्राप्ति हेतु गुरु की शरण में जाता है और जो गुरु परम शाक्तोपासक होते हैं, भगवती त्रिपुर सुन्दरी के उपासक होते हैं वे अपने शिष्य की दुर्गति को देख उसे दुर्गति नाशक ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे महामंत्र का परम गोपनीय तांत्रोक्त रहस्य समझाते हैं, उसे मूलाधार से सहस्त्रार तक उठने का श्रीदुर्गा विधान प्रदान करते हैं। जिस पर चलकर षट्चक्रों की दुर्गम यात्रा को जातक आसानी से पार कर लेता है और इस दुर्गम यात्रा में उसके साथ चलती हैं भगवती दुर्गा।

         सर्वप्रथम आता है मूलाधार चक्र जो कि रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में स्थित है, इसे कंद प्रदेश भी कहते हैं और यहाँ पर भगवती दुर्गा चतुर्भुजी रूप में विराजमान हैं एवं हाथी पर बैठी हुई हैं। जैसे ही जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं लं लं लं लं चतुर्भुजी चामुण्डायै नमः का जाप करता है उसके मूलाधार के द्वार भगवती दुर्गा खोल देती हैं, उसकी कुण्डलिनी शक्ति को भगवती दुर्गा बंधन मुक्त कर देती हैं। यहाँ पर भगवती दुर्गा ने रक्त वर्ण के वस्त्र धारण कर रखे हैं। कुण्डलिनी शक्ति यहाँ से उठती हुई सीधे स्वाधिष्ठान चक्र में पहुँचती है, स्वाधिष्ठान चक्र के द्वार पर पुनः जातक को श्री दुर्गा के एक विचित्र रूप के दर्शन होते हैं जो कि सिन्दूर वर्ण का है एवं 6 हाथों से युक्त हैं। यहाँ पर भगवती दुर्गा उसे मकर पर बैठी हुई दिखाई पड़ती हैं तब जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं वं वं वं वं वं वं षष्ठभुजी चामुण्डायै नमः मंत्र का जाप करता है। इस जाप से प्रसन्न हो षष्ठ भुजी मकर वाहन पर विराजमान भगवती दुर्गा उसे प्रसन्न हो स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश दे देती हैं। 

        स्वाधिष्ठान चक्र से जब जातक की कुण्डलिनी शक्ति मणिपुर चक्र की तरफ प्रस्थान करती है तब जातक को भगवती दुर्गा नील वर्ण की दिखलाई पड़ती है एवं यहाँ पर उनके दस हाथ होते हैं और वे मेष के ऊपर सवारी कर रही होती है तब जातक स्तुति करते हुए ॐ ऐं ह्रीं क्लीं रं रं रं रं रं रं रं रं रं रं दस भुजी चामुण्डायै नमः मंत्र का जप करता है। इस मंत्र के जप से उसकी कुण्डलिनी शक्ति निर्विघ्न हो मणिपुर चक्र में भ्रमण करती हुई अनाहत की तरफ प्रस्थान करती है। अनाहत चक्र में प्रवेश से पूर्व उसे धूम्र वर्ण की द्वादश भुजी श्री दुर्गा के दर्शन होते हैं जो कि मृग के ऊपर विराजमान दिखाई पड़ती है। यहाँ पर जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं द्वादश भुजी चामुण्डायै नमः का तांत्रिक जप प्रारम्भ कर देता है। भगवती दुर्गा समझ जाती हैं कि जातक के ऊपर किसी परम शाक्तोपासक सद्गुरु की कृपा है और वे मुस्कुराती हुई उसे द्वार प्रदान कर देती है। 

       अनाहत चक्र के दर्शन कर जब जातक की कुण्डलिनी शक्ति विशुद्धि चक्र की तरफ बढ़ती है तो पुनः उसे धूम्र वर्ण वाली 16 भुजाओं से युक्त हस्ती पर विराजमान श्रीदुर्गा के एक अद्भुत स्वरूप के दर्शन होते हैं तब जातक अपने सद्गुरु से प्राप्त ॐ ऐं ह्रीं क्लीं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं षोडशभुजी चामुण्डायै नमः मंत्र से उनकी स्तुति करता है। इस स्तुति से प्रसन्न हो श्रीदुर्गा उसे अपने वाहन हस्ती पर बिठा लेती हैं और उसे विशुद्धि चक्र से ऊपर की तरफ प्रस्थान करा देती हैं। अब जातक आज्ञा चक्र को स्पष्ट देखने लगता है परन्तु आज्ञा चक्र में प्रवेश से पूर्व उसे श्वेत वर्ण की द्विभुजी श्रीदुर्गा दिखाई पड़ती हैं जो कि ओंकार के नाद पर विराजमान होती हैं। यहाँ पर जातक उन्हें देख ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करने लगता है। जातक की योग्यता देख पुनः प्रणव पर विराजमान श्री दुर्गा उसे सहस्त्रार चक्र तक पहुँचा देती हैं एवं यहाँ पर उसे सहस्त्र भुजी दुर्गा के दर्शन होते हैं अर्थात भगवती दुर्गा का विराट स्वरूप उसके सामने होता है तब वह उनकी स्तुति करते हुए ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः मंत्र से स्तुति करता है अर्थात वह समझ जाता है कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी और दुर्गा अभेद हैं एवं उसे अद्वैत ज्ञान प्राप्त होता है, वह भेद करना छोड़ देता है और इस प्रकार उसकी कुण्डलिनी शक्ति सहस्त्रार में परम शिव के दर्शन करती हैं।

         इसके आगे की यात्रा के लिए भगवान शिव के शरभेश्वर स्वरूप की जरुरत पड़ती है। हाँ भगवान शिव का जो शरभ स्वरूप है उसमें उनकी शक्ति के रूप में शूलिनी दुर्गा उनके पंख में विराजमान हैं तब जातक को स्तुति करते हुए कहना पड़ता है ॐ नमो भगवते महाशिवाय पक्षीराजाय ******* शरभेश्वराय नमः इस स्तुति से प्रसन्न हो शूलिनी दुर्गा जातक के सूक्ष्म प्राणों को भगवान शरभ में वेष्ठित कर देती हैं और भगवान शरभ उड़ते हुए सहस्त्रार एवं विशंति सहस्त्र दल के मध्य के परम गोपनीय ऊर्ध्व मंडल को पार करते हुए मणिद्वीप निवासिनी भगवती त्रिपुर सुन्दरी के लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं। जहाँ कोई नहीं उड़ सका, जहाँ सभी गतहीन हो जाते हैं वहाँ शूलिनी दुर्गा युक्त भगवान शरभ उड़कर जा सकते हैं। मैंने पहले कहा यह शरीर लघु ब्रह्माण्ड है जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में हम पृथ्वी से उड़कर अन्य ग्रहों तक तो जा सकते हैं परन्तु ब्रह्माण्ड मण्डल को भेदकर परम शिव तक नहीं पहुँच सकते। उसके लिए तो हमें शूलिनी दुर्गा की शक्ति से युक्त भगवान शरभ की अति गोपनीय गतिविधान को ही प्राप्त करना होगा। 

      अब मैं आपको शरीर रूपी लघु ब्रह्माण्ड के षट्चक्रों में स्थित ग्रह मण्डलों के बारे में बताता हूँ। मूलाधार में चंद्रमा विराजमान हैं, स्वाधिष्ठान चक्र में बुद्ध ग्रह विद्यमान हैं, अनाहत चक्र में सूर्य विराजमान हैं, विशुद्धि चक्र में मंगल विराजमान हैं, आज्ञा चक्र में बृहस्पति विराजमान हैं और सहस्त्रार में शनि विराजमान हैं। अपनी जन्मकुण्डली को ध्यान से देखिए इसमें कौन सा ग्रह वृद्ध हो रहा है चंद्रमा वृद्ध हो गया तो बाल सफेद हो जायेंगे, चेहरा मुरझा जायेगा आँखों के नीचे कालापन आ जायेगा। जिस जातक की जन्म कुण्डली में चंद्रमा वृद्ध हो जाते हैं उसके लिए अमावस की रात बड़ी कठिन होती है। अमावस्या से पूर्णिमा तक जब चंद्रमा तेज विहीन होता है तब जातक भी अपना तेज खो बैठता है। ऐसा जातक १५ दिन स्वस्थ रहता है और १५ दिन बीमार क्योंकि उसका चंद्रमा वृद्ध हो गया है। इस प्रकार के जातक को लं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करना चाहिए। 

         अगर जातक की जन्मकुण्डली में बुध नीच का है या बुध वृद्धावस्था को प्राप्त हो रहा है या उसे बुध की महादशा चल रही है तो उसे अपने बुध को पुष्ट बनाने के लिए अपने बुध को शक्तिशाली बनाने के लिए वं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करना चाहिए। जिस जातक का बुध वृद्ध होता है, नीच का होता है वह उदर रोगों से ग्रसित होता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, उसका पाचन संस्थान हमेशा खराब रहता है एवं इसका उपाय है वं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र अगर शुक्र वृद्ध हैं, हाथ की हथैली में शुक्र के ऊपर काले धब्बे आ गये हैं, आड़ी तिरछी लाइनें आ गईं हैं तो जातक नपुंसक हो जायेगा, काम विहीन हो जायेगा। शुक्र की वृद्धता दूर करने के लिए जातक को रं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे तांत्रिक मंत्र का जाप करना चाहिए तभी जातक का शुक्र तेजोमय होगा। 

       सूर्य अगर नीच का है, ढल रहा है, वृद्धावस्था को प्राप्त हो रहा है तो अपयश मिलेगा, जीवन में हार ही हार, नेतृत्व की क्षमता पर ग्रहण लग जायेगा। नौकर मालिक को आँख दिखायेगा, शिष्य वृद्ध सूर्य से प्रभावित गुरु को ज्ञानोपदेश देगा, बच्चे बाप को शिक्षा देंगे, चपरासी वृद्ध एवं निस्तेज सूर्य से नित्य अफसर को आँख दिखायेगें कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में सफलता हेतु जन्मकुण्डली एवं हाथ में सूर्य ग्रह का प्रभावी, तेजोमय एवं युवा होना अत्यधिक आवश्यक है। शंकराचार्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण, निखिलेश्वरानंद जी इत्यादि सबकी जन्म कुण्डली में सूर्य उच्च का है, तेजोमय है तभी इन्होंने जीवन में उच्चता हासिल की। शाहजहाँ का सूर्य वृद्ध हो गया, संध्याकालीन हो गया तो उसके जीवनकाल में ही औरंगजेब ने जो कि उसका बेटा था उसे कैद कर लिया। सूर्य का सीधा संबंध हृदय से है एवं हृदय के रोग यहाँ तक कि हृदयाघात सूर्य के वृद्ध होने से ही होता है, रक्त संबंधी समस्त समस्याओं की जड़ सूर्य की वृद्धता है। इसका तांत्रिक मंत्र यं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।


         जिस जातक का मंगल कमजोर है या नीच स्थान पर बैठा हुआ है उसे ग्रहण लगा हुआ है तो वह जातक कुमार्गी हो जाता है, अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है, उसका जेल जाना निश्चित है। मंगल की क्षीणता वाक् सिद्धि छीन लेती है, जातक की बात में दम नहीं रह जाता, कोई उसकी बात सुनने को तैयार नहीं रहता। वृद्ध मंगल के जातक की हत्या भी हो जाती है कहने का तात्पर्य है कि मांगलिक कुण्डली अमांगलिक कार्य ही करवाती है। इससे बचने का उपाय है हं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे रूपी तांत्रिक मंत्र। कण्ठ का हमेशा खराब रहना, कंठ की बीमारी से ग्रसित होना, फटी हुई आवाज, खांसी इत्यादि मंगल की वृद्धता का परिणाम जन्मकुण्डली मे बृहस्पति सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है। 

         एक तरफ बृहस्पति अर्थात गुरु एवं दूसरी तरफ अन्य ग्रह जिसका गुरु बलवान हो उसकी नैया पार लग जाती है, वह हमेशा धर्म बुद्धि से युक्त होता है। मैंने अपने जीवन में देखा है कि लोग कुछ समय के लिए आध्यात्मिक हो जाते हैं, कुछ समय के लिए तो ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं अर्थात गुरु से बढ़कर कोई नहीं है और थोड़े दिनों बाद गुरु पर संशय करते हैं, धर्म एवं अध्यात्म पर संशय करते हैं, गुरु की आलोचना करते हैं। यह असुर भाव का द्योतका लक्षण है जैसे ही धर्म बुद्धि का लोप होता है वैसे ही आसुरी बुद्धि का उद्भव होता है एवं इस तरह के लोगों का घोर पतन होता है। 18 साल की उम्र में स्त्री परम रूपवान होती है और 20 वर्ष की उम्र आते-आते रूपता कुरुपता में बदल जाती है। जो स्त्रियाँ मन पसंद वर चाहती हैं उन्हें अपना गुरु सबल करना चाहिए और इसका तांत्रिक मंत्र है ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे 

         अब आते हैं मुख्य बात पर अर्थात शनि महाराज पर शनि मंडल जहाँ प्रारम्भ होता है वहाँ तक ही भगवान सूर्य की किरणों की हद है अर्थात शनि हमारे ब्रह्माण्ड के कोने पर विराजमान हैं। शनि मंडल के पश्चात् दूसरा ब्रह्माण्ड शुरु हो जाता है, शनि मंडल में दुर्गा सबसे प्रचण्ड रूप में विराजमान हैं। शनि की ढैय्या चल रही है, शनि की महादशा चल रही है, शनि की अंतर्दशा चल रही है तब आप समझ लीजिए मार्ग दुर्गम है, दुर्गति होने की पूर्ण सम्भावना है। दुः का प्रवेश आपके जीवन के हर क्षेत्र में हो सकता है। दुः का तात्पर्य है दुर्गति, दुःस्वप्न, दुःख, दारिद्र, दुर्भाग्य, दूरी, दुर्लभता, दुखद घटनाएं इत्यादि इत्यादि। ऐसी स्थिति में आप दुर्भाग्य, दुराचार, दुर्बलता, दुर्दिनता, दुस्वास्थ्य इत्यादि से बचने के लिए एवं शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए ऐं ह्रीं क्लीं श्री त्रिशक्ति चामुण्डायै नमः मंत्र का जाप करें, त्रिशक्ति चामुण्डा दीक्षा अपने गुरु से प्राप्त करें। 

नवरात्री के अवसर पर विशेष साधना 
                 महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र

         दुर्गा सप्तशती में कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान इत्यादि वर्णित हैं। यह सब एक लम्बी प्रक्रिया है। दुर्गा जी की सटीक एवं लघु उपासना हेतु भगवान शिव ने सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का निर्माण किया है। अधिकांशतः सिद्ध कुंजिका स्तोत्र या तो आधे-अधूरे हैं या फिर उनमें जान बूझकर कुछ मंत्रों का विलोप कर दिया गया है। वैसे तो साधारणतः न्यास, अर्चन, ध्यान इत्यादि का सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में अधिक महत्व नहीं दिया गया है। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र जो कि पुस्तकों में छपा हुआ होता है वह आम जनता के लिए है। जब भगवती दुर्गा की कृपा होती है तब वृहद एवं वास्तविक महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र सम्पूर्णता के साथ गुरुमार्ग से प्राप्त होता है। नीचे वर्णित महासिद्ध, सम्पूर्ण सिद्ध कुंजिका स्तोत्र अति गोपनीय है एवं यह केवल उच्च साधक वर्गों में ही प्रचलित है और इसका परिणाम पुस्तकों में वर्णित सिद्ध कुंजिका स्तोत्र से कई गुना ज्यादा है। 

       नवरात्रि के अवसर पर आप सभी को यह विशेष उपहार है। इसका जाप प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में 1008 बार अवश्य करना चाहिए। नवरात्रि के अवसर पर आप किसी भी मनोकामना पूर्ति हेतु संकल्प लेकर सर्वप्रथम जल, अक्षत, लालरंग का पुष्प इत्यादि भगवती दुर्गा के चित्र के समाने समर्पित करें। इसके पश्चात् नवरात्रि में नौ दिनों के अंदर इसका 1008 बार जप/पाठ करें। जप/पाठ के पश्चात् एक पाँच वर्ष से कम उम्र की कन्या को यथाशक्ति भोजन, वस्त्र इत्यादि प्रदान करें एवं क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् स्वाहा की 1008 आहुतियों से जप के पश्चात् हवन करें हवन सामान्य हवन सामग्री से सम्पन्न किया जा सकता है।

महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र

विनियोग
ॐ अस्य श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा ऋषयः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुपभश्छन्दांसि । महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो नन्दजाशाकम्भरी भीमाः देवताः । शक्तय: रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि । ह्रीं कीलकम् अग्निर्वायुस्सूर्यास्तत्त्वानि । कार्यनिर्देशे जपे विनियोगः ।

करन्यास
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् हृदयाय नमः । 
 क्रीं हुं स्त्रीं फट् तर्जनीभ्यां नमः ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् मध्यमाभ्यां नमः।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् अनामिकाभ्यां नमः ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः ।
 इति करन्यासः

हृदयादिन्यास
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् हृदयाय नमः।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् शिरसे स्वाहा ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् शिखायै वषट् ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् कवचाय ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् नेत्रत्रयाय वौषट् ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् अस्त्राय फट् ।
 इति हृदयादिन्यासः ।

ध्यान
 नमो देव्यै महा देव्यै शिवायै सततं नमः ।
 नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥
 ॐ विद्युद् दाम सम प्रभां मृगपति स्कन्ध स्थितां भीषणाम्।
 कन्याभिः करवाल खेट विलसद् हस्ताभिरासेविताम् ॥ हस्तैश्चक्र गदाऽसि खेट विशिखांश्चापं गुणं तर्जनीम् । विभ्राणामनलात्मिकां शशि धरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे ॥

मानसोपचार पूजन

लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख कनिष्ठांगुष्ठ मुद्रा ) 

हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख तर्जनी अंगुष्ठ मुद्रा ) 

यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (ऊर्ध्वमुख तर्जनी अंगुष्ठ मुद्रा )

रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख मध्यमा अंगुष्ठ मुद्रा ) ।

वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख अनामिकाअंगुष्ठ मुद्रा ) ।

शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख सर्वांगुलि मुद्रा ) ।

सिंद्ध कुंजिका स्तोत्र
 शिव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका स्तोत्रमुत्तमम् ।    
येन मंत्र प्रभावेण चण्डी जापः शुभो भवेत् ॥

 न कवचं नार्गला तु, कीलकं न रहस्यकम् । 
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासं न च वार्चनम् ॥
 
कुञ्जिका पाठ मात्रेण दुर्गा पाठ फलं लभेत्। 
अति गुह्यं तरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्व योनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ॥
 पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुजिञ्जका स्तोत्रमुत्तमम् ।

ॐ श्रूं श्रूं श्रूं श्रं फट् ऐं ह्रीं क्लीं ज्वलोज्जवल, प्रज्वल ह्रीं ह्रीं क्लीं स्त्रावय स्त्रावय वशिष्ठ गौतम विश्वामित्र दक्ष प्रजापति ब्रह्मा ऋषयः । सर्वैश्वर्य कारिणी श्रीदुर्गा देवता गायत्र्या शापानुग्रह कुरु कुरु हूं फट् ।

ॐ ह्रीं श्रीं हुं दुर्गायै सर्वैश्वर्य कारिण्यै ब्रह्मशाप विमुक्ता भव। 
ॐ क्लीं ह्रीं ॐ नमः शिवायै आनंद कवच रूपिण्यै ब्रह्म शाप विमुक्ता भव ॥

ॐ काल्यै काली ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेद रूपिण्यै ब्रह्म शाप विमुक्ता भव ।
शापं नाशय नाशय हूं फट् श्रीं श्रीं श्रीं जूं सःआदाय स्वाहा।।

ॐ श्लों हुं क्लीं ग्लौं जूं सः ज्वलोज्जवल मंत्र प्रबल हं सं लं क्षं स्वाहा ।
नमस्ते रुद्र रूपायै नमस्ते मधु मर्दनी नमस्ते कैटमारी च नमस्ते महिषार्दिनी । नमस्ते शुम्भ हन्त्री च निशुम्भासुर घातिनी नमस्ते जाग्रते देवि जप सिद्धिं कुरुष्व मे । ॐ ऐंकारी सृष्टि रूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका क्लींकारी काल रूपिण्यै बीज रूपे नमोऽस्तु ते चामुण्डा चण्डघाती च यैकांरी वर दायिनी विच्चे त्व भयदा नित्यं नमस्ते मंत्र रूपिणी । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हंसः सोऽहं अं आं ब्रह्म ग्रंथि भेदय भेदय इं ईं विष्णु ग्रन्थि भेदय भेदय उं ऊं रुद्र ग्रंथि भेदय भेदय अं क्रीं, आं क्रीं, इं क्रीं, ईं हूं, उं हूं, ऊं ह्रीं, ऋ ह्रीं, ॠ दं, लृं क्षिं, लृं णें, एं कां,ऐं लिं, ओं कें, औं क्रीं, अं क्रीं, अः क्रीं, अं हूं, आं हूं, इं ह्रीं, ईं ह्रीं, उं स्वां, ऊं हां, यं हूं, रं हूं, लं मं, वं हां, शं कां, षं लं, सं प्रं, हं सीं, ळं दं, क्षं प्रं, यं सीं, रं दं, लं ह्रीं, वं ह्रीं, शं स्वां, षं हां, सं हं लं क्षं ॥

महाकाल भैरवी महाकाल रूपिणी क्रीं अनिरुद्ध सरस्वति । हूं हूं, ब्रह्म गृह बन्धिनी,विष्णु ग्रह बन्धिनी, रुद्र ग्रह बन्धिनी, गोचर ग्रह बन्धिनी, आधि व्याधि ग्रह बन्धनी, सर्व दुष्ट ग्रह बन्धिनी, सर्व दानव ग्रह बन्धिनी, सर्व देवता ग्रह बन्धिनी, सर्वगोत्र देवता ग्रह बन्धिनी, सर्व ग्रहोपग्रह बन्धिनी, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ॐ क्रीं हूं ह्रीं मम पुत्रान् रक्ष रक्ष, ममोपरि दुष्ट बुद्धिं दुष्ट प्रयोगान् कुर्वन्ति कारयन्ति करिष्यन्ति, तान् हन । मम मंत्र सिद्धिं कुरु कुरु । मम दुष्टं विदारय विदारय दारिद्रयं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु आत्म तत्त्वं देहि देहि हंसः सोहम् । क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

नव कोटि स्वरूपे आद्ये आदि आद्ये अनिरुद्ध सरस्वति स्वात्म चैतन्यं देहि देहि मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ मम मनोरथं कुरु कुरु स्वाहा । धां धीं धूं धूर्जटे पत्नी वां वीं वागीश्वरि तथा क्रां क्रीं कूं कुञ्जिका देवि शांशीं शृं मे शुभं कुरु ।

हूं हूं हुङ्कार रूपायै जां जीं जूं भाल नादिनीं भ्रा भ्रीं धूं भैरवीं भद्रे भवात्यै ते नमो नमः । ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां, विर्मदय विमर्दय ह्रीं क्षां क्षीं क्षीं जीवय जीवय त्रोटय त्रोटय जम्भय जम्भय दीपय दीपय मोचय मोचय हूं फट् जां वौषट् ऐं ह्रीं क्लीं रञ्जय रञ्जय सञ्जय सञ्जय गुञ्जय गुञ्जय बन्धय बन्धय भ्रां भ्रीं धूं भैरवी भद्रे । संकुच संकुच, सञ्चल सञ्चल त्रोटय त्रोटय, म्लीं स्वाहा । पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा म्लां म्लीं म्लूं मूल विस्तीर्णां कुञ्जिकायै नमो नमः । सां सीं सूं सप्तसती देव्या मंत्र सिद्धिं कुरुष्व मे । 

इदं तु कुञ्जिका स्तोत्रं, मन्त्र जागृति हेतवे। अभक्ते न च दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति विहीना कुञ्जिका देव्या यस्तु सप्तशतीं पठेत्।न तस्य जायते सिद्धिः ह्यरण्ये रुदतिं यथा।।

॥ इति श्रीरुद्र यामले गौरी तन्त्रे काली तंत्रे शिव पार्वती सम्वादे कुञ्जिका स्तोत्रम् ॐ ॐ तत्सत् श्री जगज्जननी चरण कमलार्पणमस्तु ॥

मातृका प्रयोग
    यह ब्रह्माण्ड का श्रेष्ठतम् प्रयोग है, इसके अभाव में गुरु गुड़-गोबर है और शिष्य निकृष्ट जीव। ५० मातृकाएं होती हैं एवं प्रत्येक मातृका एक देवता का बीज है और प्रत्येक देव बीज में से देवता विशेष का कल्प वृक्ष विकसित होता है। एक मातृका में इतनी शक्ति है कि वह अनंत ब्रह्माण्ड बना और मिटा सकती है। तंत्र-मंत्र, अध्यात्म, योग, प्राणायाम मातृका प्रयोग के अभाव में बेकार हैं, समय की बर्बादी हैं। शिवलिंग को सर्वप्रथम किसी भी दिन स्थापित करें फिर इसके पश्चात् एक जलपात्र में कच्चा दूध, इत्र, किसी पवित्र नदी का जल, शहद, गौ मूत्र, अष्टगंध, पुष्प इत्यादि मिला लें एवं विनियोग करें।

विनियोग
अस्य श्री मातृका प्रयोगस्य ब्रह्मा ऋषि गायत्री छंदः श्रीमातृका सरस्वती देवता हलो बीजानि स्वराः शक्तयः अव्यक्तं कीलकं श्री मातृका प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

ध्यान
उद्यद्भानु सहस्रकांतिंरुणक्षौमां शिरोमालिकां । रक्तालिप्त पयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम् ॥ हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद् वक्त्रारविंदश्रियं । देवीं बद्धहिमांशु रत्नमुकुटां वंदे सुमंदस्मिताम् ॥

इसके पश्चात् निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए एक आचमनी जल यंत्र के ऊपर अर्पित करते जायें।

अकारं ब्रह्म दैवत्यं श्वेतं सर्ववशंकरम् । 
सर्वज्ञत्वं मनोज्ञत्वं कामरूपत्वमंबिके ॥ 
अकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

आकारं तु पराशक्ति-श्वेतमाकर्षसिद्धिदम् ।
इच्छासिद्धिर्ज्ञानसिद्धिः स्वातासिद्धिर्वरानने ॥
आकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

इकारं विष्णु - दैवत्यं श्यामं रक्षाकरं भवेत्।
रूप कांतिप्रदं श्रेष्ठं वरेण्यं मोक्ष सिद्धिदम् ।।
इकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

मायादैवतमीकारं श्यामं मोहकरं परम् ।
वीराणां वनितानां च वशीकारं वरानने ॥
ईकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

उकार कोल दैवत्यं श्यामं लोकवशंकरम् ।
मृत्तकोत्थापनं पुण्यं क्रूरं रोगविनाशनम् ॥
उकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

ऊंकारं पृथिवी बीजं श्यामं रक्षाकरं परम् । भूत-प्रेत-पिशाचानां नाशनं रिपु-नाशनम् ॥ 
ऊकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

ऋकारं विधि दैवत्यं पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् । 
चिरायुष्यं तपः सिद्धं पराभोगं वरानने ॥ 
ऋकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

ऋकारं शिव दैवत्यं रक्तं सर्व वशंकरम् ।
 जन्म मृत्यु जरा व्याधि वर्जितं श्रीजयप्रदम् ॥
 ऋकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

अश्विभ्यां लृ लृ रक्तं रोगलोक वशंकरम् ।
 तीव्रसिद्धिं भिषक् सिद्धिं मोक्ष धी सिद्धिदं भवेत् ॥
 लृकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 एकारं वीरभद्रं स्यात्पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् ।
 निग्रहानुग्रहकरं भीषणं जयवर्धनम् ॥ 
एकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

ऐंकारं भारती विद्यात्स्फटिकं ज्ञानसिद्धिदम् ।
चतुःषष्टि कला सिद्धिदायकं परमं शिवे ॥
 ऐंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

ओंकारं शिवदैवत्यं ज्योतिर्मयमनुग्रहम् । 
मनोवेग भवं श्रेष्ठं शांतं सर्वफलप्रदम् ॥
ओंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

औंकारं शांकरीविद्या स्फाटिकं सर्वसिद्धिदम् । 
सारस्वतं विशेषेण शत्रूणां कोप-नाशनम् ॥ 
औंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

अंकारं रुद्रबीजं स्याद्रक्तं देववशंकरम् । 
सर्वलोक जयं कार्यसिद्धिदं चित्तशुद्धिदम् ॥ 
अंकार श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

अःकारं कालरुद्रं स्याद्रक्तं पाशनिकृन्तनम् । स्वप्रपंचोपसंहारं परमात्म-प्रयोजकम् ॥ 
अ:कारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

ककारं ब्रह्मणो बीजं पीतं वृष्टिंकरं परम् । 
संजीवनमशेषाणां लोकानां वृद्धिदायकम् ॥ 
ककारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

खकारं जाह्नवी बीजं स्फटिकं पाप नाशनम् । 
भोग मोक्षप्रदं पुण्यं भुक्ति मुक्ति प्रदायकम् ।।
खकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

गकारं तु गणेशं स्यात्पीताभं विघ्ननाशनम् । 
पूर्वापरस्थितं ज्ञानं भूलोक विजयं शुभम् ॥ 
गकार श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 घकारं भैरवं विद्याद्रक्ताभं शत्रुनाशनम् । 
महाघोर ग्रहहरं सारूप्यं जयवर्धनम् ॥ 
घकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

डकारं कालबीजं स्यात्कृष्णं जीवजयं परम् । 
महाभीमं जगत्क्षोभ्यं मरणापत्तिभंजनम् ॥ 
डकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

चकारं भद्रकालीयं रक्तांगं स्तोभनं भवेत् । 
स्वेच्छाकर्षण सिद्धिस्तत्स्वस्थावेशमयत्नतः ॥
 चकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

छकारं भीमकालीयं रक्ताभं वैरिनाशनम् ।
संक्रामणं त्रिलोकेऽस्मिन्समरे विजय-प्रदम् ॥ 
छकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 जकारं जातवेदाख्यं तुर्यं सौदामिनी प्रभम् ।
 अभिचारं महाघोरमपमृत्यु भयापहम् ॥
 जकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

झकारं मर्धनारीशं श्यामं रक्तसमाकुलम् ।
सर्वसौख्यकरं श्रेष्ठं भोगमोक्ष फल प्रदम् ॥
झकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 ञकारं परमात्मीयमवाङ्मनसगोचरं ।
 सर्वज्ञानप्रदं ब्रह्मज्ञानदं श्रीजयप्रदम् ॥
 ञकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 टकारं पृथिवी बीजं श्वेतं संहार कारणम् ।
 कृत्यादावौषधी वृद्धिः पाताल निधि दर्शनम् ॥
 टकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 ठकारं चंद्रबीजं स्यात्स्फटिकं शत्रुनाशनम् ।
 रोगक्ष्वेडहरं दिव्यं महाज्वर हरं परम् ॥
 ठकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 डकारं शुक्रबीजं स्यात्पीताभं विजयं भवेत् ।
 मृतसंजीवनं तत्स्यान्महामाया वशं शिवे ॥
 डकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 ढकारं वैष्णवं विद्यात्पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् ।
 बलप्रदं जल स्तंभं पातालस्यापि दर्शनम् ॥
 ढकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 णकारं बलभद्रीयं श्वेतं बल विवर्धनम् ।
 नित्यत्वं बुद्धिवीर्यत्वं रिपु दर्प विनाशनम् ॥
 णकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 तकारं धनदं विद्यात्पीतमैश्वर्य वर्धनम् ।
 यक्ष- किन्नर-सिद्धानां वशीकारं जगद्वशम् ।।
 तकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

थकारं तु पराशक्ति रक्तं काल जयं भवेत् ।
शांतिकं पौष्टिकं चैव भोग्यमायुष्य वर्धनम्।।
थकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

दकारं दौर्ग-बीजं स्याच्छ्यामं सर्वार्थ साधनम्।
निग्रहानुग्रह करं भोग मोक्षैकसाधनम्।
दकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

धकारं धर्मबीजं स्याच्छ्वेतं पुण्यविवर्धनम् ।
सदादेवमयं दिव्यं सर्वदर्शनदर्शकम् ॥
धकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

नकारं निर्विकल्पं स्यादप्रमेयाभमक्षरम् ।
वायुवेगमनोवेगमिच्छा-रूपं भवेद् ध्रुवम् ॥
नकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

पकारंमग्निबीजं स्याद्रक्तं सर्पहरं क्षणात् ।
स्त्री-पुं- नपुंसकादीनां भवेदाकर्षणं शिवे ॥
पकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

फकारं भैरवं विद्याद्रक्ताभं विजयं ततः।
महाग्रह-हरं सर्व-ज्वर-रोग-विनाशनम् ॥
फकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

बकारमश्विनी-बीजं पीतं रोगहरं परम् ।
औषधस्य महावीर्यवृद्धिदं जयवर्धनम् ॥
बकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

भकारं भार्गवं ज्ञेयं ज्योतिष्प्रभमनामयम् ।
आयुरारोग्यदं श्रेष्ठंमशेष स्त्री विवर्धनम् ॥
भकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

मकारमीश्वरं विद्याज्ज्योती रक्तं सुखावहम् । 
वश्याकर्षण-संतान- सिद्धिदानैक-तत्परम् ॥
मकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

यकारं वायु बीजं स्यात्कृष्णं बलविवर्धनम् ।
सर्वोच्चाटकरं करं संग्रामे जयवर्धनम् ॥
यकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

रेफं कृशानुबीजं स्याद्रक्ताभं सर्वनाशनम् ।
 जंगमाकर्षणं युद्धे द्विषां सेनाबलं तथा ॥
रेफं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

लंकारं शक्रबीजं स्यात्पीतं सर्वफलप्रदम् ।
अग्निस्तंभं जलस्तंभं स्वेच्छास्तंभं विशेषतः ॥
लकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

वकारं वारुणं विद्याच्छ्वेतं स्वेच्छाभिवृष्टिदम् ।
आकर्षणं जलस्थानामशेष ज्वरनाशनम् ॥
वकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

शकारं शंकरं विद्यात्तेजः सौभाग्य सिद्धिदम् ।
अन्योऽन्यकलहादेव वैरिणां नाशनं भवेत्॥
शकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

षकारं द्वादशादित्यं ज्योतिरारोग्यवर्धनम्।
शमनं सर्वरोगाणामायुर्विद्याभिवर्धितम् ॥
षकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 सकार भारतीबीजं श्वेतं सारस्वतप्रदम् ।
प्रतिविद्वज्जनजयं वराणां योषितावशम् ॥
सकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

सदाशिवं हकारं स्याद्धूम्रं ज्ञानार्थसिद्धिदम् । अणिमाद्यष्टसिद्धिः स्याच्चतुःषष्टिः कला अपि ॥
 हकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 लकारं पृथिवीबीजं श्यामं सिद्धिकरं परम् ।
 स भवेदोषधीवृद्धिः रिपु-भू-द्रव्यदर्शनम् ॥
लंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

क्षकारं श्रीनृसिंहं स्यात्स्फाटिकं मोक्षसिद्धिदम् ।
 रिपुवर्गहरं सर्वलोकक्षोभहरं परम् ॥
क्षकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

इस प्रयोग से कोई भी यंत्र दस मिनिट में पूर्ण रूप से चैतन्य एवं प्राण-प्रतिष्ठित हो जायेगा एवं मंत्र सिद्धि इसी प्रयोग से मिलती है।

क्लीं क्लीं क्लीं

      शाक्तोपासना में दो कुल हैं प्रथम दुर्गा कुल एवं द्वितीय महाविद्या कुल । दुर्गा कुल में अनेकों शक्तियाँ हैं जैसे कि शैवमत नौ दुर्गाओं के नाम नीलकण्ठेश्वरी दुर्गा, क्षयंकरी दुर्गा, हरसिद्धि दुर्गा, रुद्रांश दुर्गा, वन दुर्गा, अग्नि दुर्गा, जप दुर्गा, विन्ध्यवासिनी दुर्गा, रूपमारी दुर्गा । सामान्य दुर्गा पूजन में नौ दुर्गाओं के नाम हैं शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री । अब दिक्कत यह है कि इनके तांत्रिक मंत्र अति गोपनीय हैं।

      शैव तंत्रम् में भगवती दुर्गा के जो 9 स्वरूप हैं उनके तांत्रिक मंत्र इस प्रकार हैं।
ॐ ह्रीं दुं नीलकण्ठेश्वरी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं क्षयंकरी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं हरसिद्धि दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं रुद्रांश दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं वन दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं अग्नि दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं जप दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं विन्ध्यवासिनी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं रूपमारी दुर्गायै नमः ।
         इसके अलावा जब देवी को देवासुर संग्राम में परम क्रोध आया था तब उनके शरीर से जीन शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ था वह है - रुद्र चण्डा, प्रचण्डा, चण्डी (चण्डोगा), चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा, अतिचण्डिका, उग्रचण्डा।
       इस प्रकार भगवती चामुण्डा के तेजोमय पुंज से ग्यारह अति कोपवान, प्रलयंकारी, असुर विमर्दिनी शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन 11 रुद्र शक्तियों ने मिलकर चंड-मुंड नामक दो असुरों का सर्वनाश किया। नवग्रह कभी कभी जन्मकुण्डली में वृद्ध हो जाते हैं, उन्हें छाया भी ग्रसित कर देती है, वे मलीन हो जाते हैं। वास्तव में चंड नामक असुर केतु का प्रतीक है एवं मुंड नामक असुर राहु ग्रह का प्रतीक है। इसके गोपनीय महत्व को समझिए चामुण्डा ही वह शक्ति है जिसके द्वारा दुष्ट, क्रूर, देव द्रोही राहु एवं केतु ग्रहों का विनाश होता है। भगवती दुर्गा की साधना मुख्य रूप से राहु काल में ही की जाती है। प्रतिदिन राहुकाल होता है, आप पंचांग देखिए और जैसे ही राहुकाल प्रारम्भ हो वैसे ही भगवती दुर्गा की उपासना करनीचाहिए। राहुकाल की विशेषता यह है कि इसमें बिना किसी प्रयोजन के मनुष्य के अंदर मौजूद कुण्डलिनी शक्ति का कुछ अंश स्वतः ही सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर सहस्त्रार तक जाता है। राहुकाल में कुण्डलिनी शक्ति स्वतः ही जागृत होती है। प्रतिदिन डेढ़ से दो घण्टे का राहुकाल होता है।

       उपरोक्त काल में भगवती दुर्गा अपने सम्पूर्ण स्वरूपों के साथ बाह्य ब्रह्माण्ड एवं शरीर रूपी आंतरिक लघु ब्रह्माण्ड में स्वतः क्रियाशील हो असुर प्रवत्तियों के नाश में तत्पर रहती हैं अतः ऐसी स्थिति में उनकी उपासना अनन्य पुण्य प्रदान करती है। ग्रहणकाल में तो ग्रहण का सूतक प्रारम्भ होने से ग्रहण काल के अंत तक का सम्पूर्ण काल राहुकाल कहलाता है और इस समय भगवती चण्डी अपनी 9 अति कुपित गणिकाओं के साथ असुर शक्तियों के भक्षण हेतु तत्पर रहती हैं। इन नौ दुर्गाओं की मूल स्वरूपिणी श्री चामुण्डा के तांत्रिक मंत्र ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे की जप करें एवं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा से दशांश आहुति दें। अगर आप प्रतिदिन राहुकाल में मात्र 21-21 बार भी मंत्र को पढ़ते हैं तो जीवन में आप अपराजित रहेंगे। किसी भी काम पर आप जायें आपकी विजय निश्चित है। 

         जो मुझे युद्ध में हरा देगा, जो मेरे जितना या मुझसे ज्यादा शक्तिशाली होगा उसी से मैं विवाह करुंगी। भगवती दुर्गा ने देवासुर संग्राम में स्पष्ट रूप से असुरों के सामने यह प्रस्ताव रखा । इसे कहते हैं अभिमान, हे भगवती दुर्गे आप महाअभिमानी हैं, आपका अभिमान सर्वोपरि है एवं जो जातक आपकी साधना करता है उसके अभिमान की भी आप सर्वदा रक्षा करती हैं। आपको कौन पराजित कर पाया? हे दुर्गे आप ही एकमात्र वह दिव्य शक्ति पुंज हैं जिससे कि सभी भय खाते हैं। जो अपराजित होता है वही भय का उत्पादन कर सकता है, वही वास्तव में कोप करने का अधिकारी होता है। हे दुर्गे कुपित होना कोई आपसे सीखे। जिस पर आप कुपित हो गईं उसका सर्वनाश निश्चित है। कहीं आप कोप न कर दें इसी भय से यह समस्त ब्रह्माण्ड चल रहा है। 

           आपके कोप से डरकर ही सूर्य प्रतिदिन उगता है, चंद्रमा अमृत वर्षा करता है, ग्रह नक्षत्र एक लय में घूमते हैं, वायुदेव प्रतिदिन गमन करते हैं, वरुण देव वर्षा करते हैं, अग्नि प्रज्जवलित होती है, नदियाँ प्रवाहमान होती हैं, समय पर वृक्ष फल देते हैं, खेत अन्न देते हैं, समय अनुसार ही रात्रि एवं दिन होते हैं क्योंकि सब आपके कोप से डरते हैं।

 समस्त देवताओं ने आपके कोप को देखा है, किसी और की क्या कहें स्वयं भगवान शिव आपके दूत बने हैं एवं आपका आदेश ले वे असुरों के पास गये और उनसे स्पष्ट कहा कि युद्ध करो या फिर पाताल की तरफ गमन करो। हे आदेशात्मिका आप युद्ध महोत्सवों की अधिष्ठात्री हैं। परम परमेश्वर भगवान शिव के साथ-साथ समस्त देव गण एवं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इत्यादि आपके युद्ध महोत्सवों में दर्शक बनकर आनंद लेते हैं। हे दुर्गे प्रत्येक युद्ध के पीछे आप ही हैं, आप ही ब्रह्माण्ड के समस्त युद्धों का आदि एवं अंत है। जब तक आप न चाहें तब तक न तो युद्ध का प्रारम्भ होता है और न ही युद्ध का अंत या निर्णय। युद्ध के निर्णय का अधिकार भी आप ही के पास हैं। हे दुर्गे आप समस्त युद्धों का मूल हैं। 

      विष्णु के परम यौद्धावतार, भैरवों के परम यौद्धावतार, समस्त शक्तियों के परम यौद्धावतार आप ही के गर्भ से उदित होते हैं, आप युद्ध प्रिया हैं। कब युद्ध होना है, कैसे युद्ध होना, किन्हें युद्ध में भाग लेना है, कब किसकी बारी है यह सब युद्ध लीला प्रपंच आप ही प्रायोजित करती हैं। आप ही शक्तिदात्री हैं, आप ही वास्तविक अद्वैतिका हैं जब जब आपके द्वारा विसर्जित शक्ति पंचभूत से निर्मित स्थूल शरीर में कहीं फँस जाती है, कहीं उलझ जाती है, कहीं दुर्गति को प्राप्त होने लगती है, कहीं अवरोधित हो जाती है तब वह असुरत्व को धारण कर लेती है, अशुद्ध हो जाती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक बंद कमरे में वायु प्रदूषित हो जाती है, एक गड्ढे में जल सड़ने लगता है, शीत में अग्नि शिथिल पड़ जाती है इत्यादि इत्यादि तब तब आप युद्धोत्सव का प्रायोजन करती हैं और अपने दैवीय शस्त्रों से शक्ति को पुनः मुक्ति प्रदान करती हैं। 

       देखो वो महिषासुर आपको निहारते-निहारते ही प्राण त्याग रहा है। देखो वो चंड-मुंड, धूम्रलोचन, रक्तबीज, शुम्भ-निशुम्भ इत्यादि आपके मुख की तरफ देखते हुए ही युद्ध महोत्सवों में प्राणोत्सर्ग कर रहे हैं और पुनः शुद्ध हो आपके भैरव बन रहे हैं। आप उन्हें कृतार्थ कर रही हैं, आप उन पर दया कर रहीं हैं, आप उन्हें सायुज्य प्रदान कर रही हैं, आप उन्हें निर्विकल्प मोक्ष दे रही हैं। यही है युद्ध महोत्सवों का गूढ़ रहस्य बहुत कम लोग जानते हैं कि हे भगवती तेरे पूजन में कौन से भैरव चलते हैं, यह तो गुरु मुख से प्राप्त ज्ञान का ही विषय है। हे भगवती दुर्गे तेरे साथ चलते हैं श्री पाण्डुनाथ भैरव जिनका ध्यान एवं मंत्र इस प्रकार है ध्यान
भैरवः पाण्डुनश्थ च रक्त गौरश्चतुर्भुजः । 
गदां पद्मं च शङ्खं च चक्रं चापि करेषु च ॥
 मंत्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं पाण्डुनाथ भैरवाय नमः ।
जब तक जातक तेरे पूजन में इन चतुर्भुजी भैरव जिन्होंने कि हाथ में गदा, पद्म, शंख, चक्र धारण कर रखा है और जो कि रक्त मिश्रित गौर वर्ण के हैं का पूजन नहीं करता उसकी दुर्गोपासना सफल ही नहीं हो सकती। हे दुर्गे तेरे शिव कौन है ? तेरे शिव हैं श्री शरभ एवं हे आखेटिका तुझे आखेट अति प्रिय है, तू चाहे तो मात्र हुंकार से ही सभी असुरों का नाश कर सकती है परन्तु तू युद्ध महोत्सवों को बड़ी विहंगमता से रचती है, खेल करती है। वास्तव में तुझे खेल अत्यंत प्रिय है तू अपनी शक्तियों के साथ खेलती है। तेरा यही खेल तेरे साधक दुर्गोत्सव में गरबा नृत्य के साथ खेलते हैं। देवासुर संग्राम कुछ भी नहीं मात्र हे भगवती दुर्गा तेरा ब्रह्माण्डीय गरबा नृत्य है जिसमें तू अपनी समस्त गणिकाओं के साथ, 64 योगिनियों के साथ, 9 शक्तियों के साथ नर्तन करती है, गर्जन करती है, इठलाती है, बिजली के समान कौंधती है और समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाश युक्त कर देती है। 

         देवासुर संग्राम रूपी तेरे गरबा नर्तन को देख, तेरी नृत्य कला को देख शिव समेत समस्त देवगण अभिभूत हो जाते हैं और जब-जब इन देव शक्तियों का हृदय भी तेरे महानृत्य में शामिल होने को लालायित होने लगता है तब-तब तू इन्हें अवतार प्रदान करती है जिससे कि ये भी तेरे इशारों पर नृत्यमय हो उठे। हे भगवती दुर्गे तूने विष्णु को 21 बार अवतरित किया, शिव को भैरव के रूप में 108 बार अवतरित किया परन्तु तेरे स्वयं के अवतार तो अनंत हैं। तू प्रतिक्षण नये-नये अवतारों में ब्रह्माण्ड रूपी सृष्टि में निर्द्वन्दता के साथ नृत्य करती रहती है। जीवन क्या है ? केवल शक्ति का नर्तन, शक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता । हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी तेरी निरंकुशता के सामने तो शिव को ठहरना ही पड़ता है। आओ मेरे साथ नृत्य करो हे शिव तू कह उठी और शिव को तेरे दस महाविद्या रूपी स्वरूपों के साथ नृत्य करना ही पड़ा। तू कहे और शिव नृत्य न करें ऐसा कैसे हो सकता है। महाविद्या के साधक तेरे और शिव के दस स्वरूपों के नर्तन की ही तो उपासना करते हैं। तेरे नर्तन में सबको सम्मिलित होना आवश्यक है, तू नचाना जानती है, नाचने पर मजबूर कर देती है। 

       इस सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण, सूक्ष्य से सूक्ष्म अणु, परमाणु सर्गाणु, प्रकाशाणु, भर्गाणु इत्यादि तेरे इशारे पर नृत्य करने को मजबूर हैं। जो नृत्य नहीं करता उसे नृत्य कैसे करवाना है यह तू अच्छी तरह जानती है। जब देवाधिदेव शिव से तू नृत्य करवा सकती है तब किसी और की क्या बिसात ? यही है श्री श्री गति रहस्यम् । नृत्य में ही गति है, नृत्य में ही लय है, नृत्य में ही ऊर्जा एवं शक्ति का विसर्जन है। नृत्य ही अशुद्धता से शुद्धता, दुर्गति से सुगति को प्राप्त होने का विधान है। जब तक नृत्य चलता रहेगा शक्ति की शुद्धता बनी रहेगी जो इस महाविज्ञान को समझ गया वह गतिमय हो उठा, उसे पंख प्राप्त हो गये, उसकी जड़ता जाती रही । जड़ता से चैतन्यता की तरफ बढ़ने का विधान ही दुर्गोत्सव है, श्री दुर्गा उपासना है। जो जितना ज्यादा चैतन्य उसकी गति उतनी ही प्रचण्ड, उसका वेग उतना ही प्रचण्ड वही श्री शरभम् को समझ सकता है। देखो कितनी विलक्षणता है गति में पृथ्वी अपनी धूरी पर घूम रही है प्रथम गति, 26 वर्षों में वह एक बार उगमगाती भी है द्वितीय गति, पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूम रही है अर्थात तृतीय गति, पृथ्वी सूर्य के साथ अदिति मण्डल की तरफ गतिमान हो रही है चोधी गति और अदिति मण्डल किसी अन्य मण्डल की तरफ सूर्य एवं पृथ्वी को लिए जा रहा है पाँचवी गति। न जाने कितनी अनंत गतियों इस क्रम में चल रही हैं। तू ही सबकी गति है और जो तेरे इस गति के सिद्धांत का पालन करता है वह दुर्गति से बच जाता है। हे दुर्गे सदा गतिमान रखना ही तेरा ध्येय है।

शास्त्रोक्त दुर्गा पूजन
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       वैदिक धर्म में शक्ति उपासना का विशेष महत्व है। पौराणिक ग्रंथों ने भी माँ जगतजननी के शक्ति स्वरूप की उपासना पर बल दिया है। अन्य किसी धर्म में नारी स्वरूप की उपासना का इतिहास नहीं मिलता किन्तु सनातन धर्म नारी को शक्ति का रूप मानकर हमेशा से उनकी पूजा को महत्व देता आ रहा है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि "यत्र नरियेषु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं। माँ शब्द ही अपने आप में इतना विस्तृत है कि सम्पूर्ण सृष्टि इसी में समाहित है। माँ का उच्चारण करते ही हृदय में एक निश्छलता व पवित्रतता का भाव जागृत होता है, वासना नष्ट होती है और मन शिशुवत हो जाता है । माँ ही अपने गर्भ द्वारा जीव को इस धरा पर अवतरित करती है और प्रारम्भिक ज्ञान देती है तथा स्तनपान कराकर उसका पालन पोषण करती है, उसकी सभी प्रकार से रक्षा करने के लिये हर क्षण सचेष्ट रहती है। 

       यदि बालक जरा सा भी रुदन कर दे तो माँ सब कुछ भूलकर उसे अपने आँचल में छिपा लेती है तथा खुद प्रचण्ड रूप धारण कर हर विपत्ति का नाश करने को उद्यत हो उठती है। जरा सोचिये कि एक शिशु की माँ जब अपने बच्चे के लिये इतना कुछ कर सकती है तो फिर सम्पूर्ण जगत की माँ जिसे हम जगतजननी कहते हैं उसके लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। वह तो इतनी करुणामयी है कि अपने पुत्रों (भक्तो) की पुकार अनसुनी कर ही नहीं सकती। बस जरूरत है तो सिर्फ उसे एक बार हृदय से पुकारने की। बस उसे एक बार बाल सुलभ निश्छलता से पुकारने की देर है फिर जीवन में बाधा, परेशानी, समस्या, पीड़ा, कष्ट, दुःख, रोग, शत्रु आदि रह ही नहीं सकते।

        माँ भगवती हमारे रोम-रोम में विद्यमान है वह कवच के रूप में हमारे शरीर की बाहरी शत्रुओं से रक्षा करती है। वह राक्षसों का नाश करने के लिये कभी चण्डी का रूप धारण कर लेती है तो कभी महाकाली का शास्त्र साक्षी है कि जब भी धरा पर अत्याचार व अन्याय बढ़ा है माँ दुर्गा अपने किसी न किसी रूप में प्रकट होकर असुरों के संहार का कारण बनी। माँ भगवती की आराधना तो स्वयं त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ने भी की थी। सरस्वती स्वरूप में उन्होंने ऋषि-मुनियो का उद्धार किया। समस्त पापों का विनाश करने वाली तथा ऋद्धि-सिद्धि, धन-धान्य, पुत्र आदि प्रदान करने वाली तथा सभी प्रकार की विपत्तियों का नाश करने वाली माँ भगवती की श्रद्धा भक्ति पूर्वक आराधना करने से मनुष्य इस लोक में नाना प्रकार के सुख 
भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। 

पूजन कैसे करें ?
        साधक को चाहिये कि वह नवरात्रि के शुभ अवसर पर अथवा किसी भी शुभ तिथि व शुभ मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर आसन पर बैठें। पूजा स्थल को स्वच्छ कर के एक चौकी में लाल वस्त्र बिछाकर उस पर माँ भगवती दुर्गा का चित्र स्थापित करें।

पवित्रीकरण

         सर्वप्रथम बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से पुष्प द्वारा अपने उपर जल छिड़कें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें -
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
 यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभयन्तरः शुचिः॥

आचमन

     अब क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये आचमनी में जल लेकर तीन बार आचमन करें।
ॐ ऐं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ह्रीं विद्यातत्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
 ॐ क्लीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ॐ सर्वतत्वं शोधयामि नमः (बोल कर हाथ धो लें)

दिगबंध

        आचमन के उपरान्त बायें हाथ में चावल लेकर दायें हाथ से उसे ढँककर निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ अपसर्पस्तु ये भूता ये भूता भूमि संस्थिता । 
ये भूता विघ्न कर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।। 
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम् । सर्वोषामविरोधेन पूजा कर्म समारभे ॥ 

उपरोक्त मंत्र का उच्चारण करने के बाद हाथ के चावलों को चारों दिशाओं में उछाल दें

गणपति आह्वान

        अपने समक्ष विघ्नहर्ता भगवान् गणपति का चित्र अथवा सुपारी को गणपति का रूप मानकर स्थापित कर दें तथा हाथ में अक्षत व पुष्प लेकर दोनों हाथ जोड़कर गणपति का ध्यान करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेत श्रृणुयादपिः॥ 

उक्त मंत्रोच्चार के साथ भगवान गणपति को अक्षत व पुष्प अर्पित करें।

कलश स्थापन

          कलश स्थापित करने से पूर्व जहाँ कलश स्थापित करना है उस स्थान को दाहिने हाथ से स्पर्श करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधावा विश्वस्य भुवनस्थ धर्त्री पृथ्वी यक्ष पृथ्वीम् दृग्वहं पृथिवी माहि ग्वं सीः।

 अब उसी स्थान पर अक्षत रखकर उस पर कलश स्थापित करें। अब कलश पर कुंकुंम, अक्षत व पुष्प चढ़ाकर दोनों हाथ जोड़कर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये सभी देवी देवताओं का ध्यान करें 

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्र समाश्रितः । 
मूल तस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृता । 
कुक्षौ तु सागराः सप्त सप्त द्वीपा वसुन्धराः । 
ऋग्वेदोऽय यजुर्वेदः सामवेदो ह्रथर्णवः ।। 
अंगेश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः । 
अत्र गायत्री सावित्री शांतिः पुष्टिकरी तथा ॥ 
आयान्तु देव पूजार्थं दुरितक्षयकारकाः।

ध्यान
      अब निम्न मंत्र का उच्चारण करत हुये माँ भगवती का ध्यान करें

रक्ताम्भोधिस्थं पोतोब्लसदरूण सरोजाधिरूढ़: कराब्ज:
पाशं को दण्डं भिक्षद भवगुण मणिमत्यंकुशं पञ्चवाणान्।। विभ्राणास्त्रक्कपालं त्रिनयनलसिता पीन वक्षोरुहादया । देवी वालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राण शक्तिः परात्रः ।।

अब हाथ में अक्षत व पुष्प लेकर माँ जगदम्बा का आह्वान करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

आवाहन

आगच्छ त्वं महादेवि! स्थाने चात्र स्थिरा भव । 
यावत् पूजां करिष्यामि तावत् त्वं संनिधौ भव ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दुर्गादेवीमावाहयामि । आवाहनार्थे पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।(पुष्पाञ्जलि समर्पण करें।)

आसन

अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम् । 
इदं हेममयं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। (रत्नमय आसन या फूल समर्पित करें।)

पाद्य

 गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्य आतं तोयमुत्तमम् । 
पाद्यार्थं ते प्रदास्यामि गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पादयोः पाद्यं संमर्पयामि। (जल चढ़ायें।)

अर्ध्य

गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमध् र्यं सम्पादितं मया। 
गृहाण त्वं महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा ॥
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
हस्तयोः अर्घ्यं समर्पयामि । ( चन्दन, पुष्प, अक्षत से युक्त अर्घ्य दें।)

आचमन

कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम् । तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
आचमनं समर्पयामि । (कर्पूर से सुवासित शीतल जल चढ़ाये ।)

स्नान

मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् । 
तदिदं कल्पितं देवि! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
स्नानार्थं जलं समर्पयामि । (गङ्ग-जल लिये जल दें।)

दुग्ध स्नान

कामधेनुसमुत्पन्नं सर्वेषां जीवनं परम् । 
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दुग्धस्नानं समर्पयामि। (गोदुग्ध से स्नान करायें।)

दधिस्नान

पयसस्तु समुद्भुतं मधुराम्लं शशिप्रभम् । 
दध्यानीतं मया देवि! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः ।
दधिस्नानं समर्पयामि। (गोदधि से स्नान करायें।)

घृतस्नान
 
नवनीतसमुत्पन्नं . सर्वसंतोषकारकम् । 
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
घृतस्त्रानं समर्पयामि ! (गोघृत से स्नान करायें ।)

मधुस्नान

पुष्परेणुसमुत्पन्नं सुस्वादु मधुरं मधु । 
तेजः पुष्टिसमायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
मधुस्नानं समर्पयामि। (मधु से स्नान करायें।)

शर्करास्नान

इक्षुसारसमुद्भूतां शर्करां पुष्टिदां शुभाम् । 
मलापहारिकां दिव्यां स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् । 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
शर्करास्नानं समर्पयामि। (शक्कर से स्नान करायें।)

पञ्चामृत स्नान 

पयो दधि घृतं चैव मधु च शर्करान्वितम् । 
पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि। ( अन्य पात्र में पृथक् निर्मित पञ्चामृत से स्नान कराये।)

गन्धोदकस्नान 

मलयाचलसम्भूतं चन्दनागरुमिश्रितम् । 
सलिलं देवदेवेशि शुद्धस्त्रानाय गृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै न॑मः । 
गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। (शुद्ध जल से स्नान कराये।)

आचमन

शुद्धोदकस्नानान्ते 'आचमनीयं जलं समर्पयामि।(आचमन के लिये जल दे।) 

वस्त्र

पट्टयुग्मं मया दत्तं कञ्चकेन समन्वितम् । 
परिधेहि कृपां कृत्वा मातर्दुर्गार्तिनाशिनि । 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
वस्त्रोपवस्त्रं कञ्चुकीयं च समर्पयामि। (धौतवस्त्र, उपवस्त्र और कशुकी निवेदित करें।) 
वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।(आचमन के लिये जल दें)

सौभाग्यसूत्र

सौभाग्यसूत्रं वरदे सुवर्णमणिसंयुतम् । 
कण्ठे बहनामि देवेशि सौभाग्यं देहि मे सदा श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
सौभाग्यसूत्रं समर्पयामि। (सौभाग्यसूत्र चढ़ाये ।)

चन्दन

चन्दन श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
चन्दनं समर्पयामि। (मलयचन्दन लगायें।)

हरिद्राचूर्ण

हरिद्रारञ्जिते देवि! सुखसौभाग्यदायिनि । 
तस्मात् त्वां पूजयाम्यत्र सुखं शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
हरिद्रां समर्पयामि। (हल्दी का चूर्ण चढ़ायें।)

कुंकुम

कुङ्कुमं कामदं दिव्यं कामिनीकामसम्भवम् । कुङ्कुमेनार्चिता देवी कुङ्कुमं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
कुङ्कुमं समर्पयामि। (कुंकुम चढ़ायें ।)

सिन्दूर

सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसंनिभम् ।
अर्पितं ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
सिन्दूरं समर्पयामि। (सिन्दूर चढ़ायें।)

कज्जल (काजल)

चक्षुर्भ्यां कज्जलं रम्यं सुधगे शान्तिकारकम् । कर्पूरज्योतिसमुत्पन्नं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः | कज्जलं समर्पयामि। (काजल चढ़ायें।

दुर्वांड्कुर

तृणकान्तमणिप्रख्यहरिताभिः सुजातिभिः । दूर्वाभिराभिर्भवतीं पूजयामि महेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दूर्वाङ्कुरान् समर्पयामि । (दूब चढ़ाये ।)

बिल्वपत्र

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम् । 
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥
श्री जगदम्बांयै दुर्गादेव्यै नमः । 
बिल्वपत्रं समर्पयामि। (बिल्वपत्र चढ़ायें।)

आभूषण

आभूषण हारकङ्कणके यूरमेखलाकुण्डलादिभिः । रत्नाढ्यं हीरकोपेतं भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
आभूषणानि समर्पयामि। (आभूषण चढ़ायें।)

पुष्पमाला

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तितः । मयाऽऽहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पुष्पमालां समर्पयामि। (पुष्प एवं पुष्पमाला चढ़ायें।)

नानापरिमलद्रव्य
 
अबीरं च गुलालं च हरिद्रादिसमन्वितम् नानापरिमलद्रव्यं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि। (अबीर गुलाल, हल्दी का चूर्ण चढ़ायें।)

सौभाग्यपेटिका

हरिद्रां कुङ्कुमं चैव सिन्दूरादिसमन्विताम् ।
सौभाग्यपेटिकामेतां गृहाणं परमेश्वरि ॥
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः।
सौभाग्यपेटिकां समर्पयामि। (सौभाग्यपेटिका समर्पण करें।)

धूप

वनस्पतिरसोद्धृतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः । 
आघ्रेयः सर्वदेवानां प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
धूपमाघ्रापयामि । (धूप दिखायें।)

दीप

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । 
दीपं गृहाण देवेशि त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दीपं दर्शयामि । (घी की बत्ती दिखायें, हाथ धो लें।)

नैवेद्य

शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च। 
आहारर्थं भक्ष्यभोज्यं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नैवेद्यं निवेदयामि । (नैवेद्य निवेदित करे।)

आचमनीय आदि

नैवेद्यान्ते ध्यानमाचमनीयं जलमुत्तरापोऽशनं। हस्तप्रक्षालनार्थं मुखप्रक्षालनार्थं च जलं समर्पयामि ॥ (आचमनी से जल दें।)

ऋतुफल

इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव ।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
ऋतुफलानि समर्पयामि। (ऋतुफल समर्पण करें।)

ताम्बूल

पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । 
एलालवङ्गसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । ताम्बूलं समर्पयामि । (इलायची, लौंग, पूंगीफल के साथ पान निवेदित करें।)

दक्षिणा

दक्षिणां हेमसहितां यथाशक्तिसमर्पिताम् । अनन्तफलदामेनां गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दक्षिणां समर्पयामि। (दक्षिणा चढ़ायें।) 

आरती 

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम् । 
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मां वरदा भव ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
कर्पूरार्तिक्यं समर्पयामि।( कर्पूर की आरती करें।)


श्री अम्बाजी की आरती

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामा गौरी । 
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव जी ॥ जय अम्बे ॥

 माँग सिंदूर विराजत टीको मृगमदको । 
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ जय अम्बे ॥

 कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै । 
रक्त पुष्प गल माला कण्ठन पर साजै ॥ जय अम्बे ॥ 

केहरि वाहन राजत, खड्ग खपर धारी सुर नर मुनि जन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ जय अम्बे ॥ 

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती। 
कोटिक चंद्र दिवाकर सम राजत ज्योती ॥ जय अम्बे ॥

 शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर-घाती । 
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥ जय अम्बे ॥ 

चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे। 
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥ जय अम्बे ॥ 

 ब्रह्माणी, रुद्राणी तुम कमला रानी । 
आगम-निगम वखानी, तुम शिव-पटरानी ॥ जय अम्बे ॥

 चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ । 
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू ॥ जय अम्बे ॥ 

तुम ही जगकी माता, तुम ही हो भरता। 
भक्तन की दुख हरता सुख सम्पति करता ॥ जय अम्बे ॥

 भुजा चार अति शोभित, वर- मुद्रा धारी। । 
मनवाञ्छित फल पावत सेवत नर-नारी ॥ जय अम्बे ॥

 कंचन थाल विराजत अगर कपुर बाती । 
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती ॥ जय अम्बे ॥

 (श्री) अम्बेजी की आरति जो कोई नर गावै । 
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै ॥ जय अम्बे ॥

प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च । 
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे ॥ 
श्रीजिगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । प्रदक्षिणां समर्पयामि। (प्रदक्षिणा करे।)

मंत्र पुष्पाञ्जलिं

श्रद्धया सिक्तया भक्त्या हार्दप्रेम्णा समर्पितः । मंत्रपुष्पाञ्जलिश्चायं कृपया प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
मंत्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। (पुष्पाञ्जलि समर्पित करे।)

नमस्कार

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नमस्कारान् समर्पयामि। (नमस्कार करे, इसके बाद चरणोदक सिर पर चढ़ाये।)

क्षमा याचना

मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
क्षमायाचनां समर्पयामि । (क्षमा याचना करे।) 

अर्पण 
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु । विष्णवे नमः, विष्णवे नमः, विष्णवे नमः ।

गहरी- पैठ ।।

             मैंने अपने आस-पास अपने रिश्तेदार नातेदारों को समस्याओं के लिए हमेशा रुदन करते हुए देखा है। जिन्दगी की अगर हर घटना को हम अपनी आँख खोलकर देखें तो शायद समस्या का समाधान भी हो और जो समाधान होगा वह हमारा अपना होगा लेकिन हम अपनी समस्याओं को उधार के मस्तिष्क से हल करने की कोशिश करते हैं। उधार का मस्तिष्क महामारी है यह सबसे खतरनाक बीमारी है एवं इस बीमारी से हम हजारों वर्षों से पीड़ित हैं इसलिए बंधे-बंधाए सिद्धांतों का कोई अर्थ नहीं होता है अगर अर्थ है तो जीवित मन का। जीवंत मन का फूल की तरह खिला हुआ होना ही ताजा मस्तिष्क (फ्रेश माइंड) कहलाता है। जब तक मन ताजा नहीं होगा तब तक किसी समस्या का समाधान नहीं होगा।

        जो लोग नित्य, आनंदमय, शांत, निर्विकल्प, निरामय हैं, जिन्हें तत्व ज्ञान प्राप्त है, जिन पर माँ भुवनेश्वरी की अपार कृपा है, जिन पर शिव की अनन्य कृपा है, जो चारों संध्या, ध्यान, प्राणायाम करते हैं उनका मन जीवंत मन होता है क्योंकि देवी बल उनके पास होता है फिर लोक और परलोक में कोई अंतर नहीं होता है, कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। जिनका मस्तिष्क मेडिटेटिव माइंड है, द्वंद रहित है उनके लिए शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है, काली और भुवनेश्वरी में कोई अंतर नहीं है। शास्त्रों को पढ़ने से, महाभारत, रामायण, गीता जैसे महाकाव्य पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होगा उससे ज्यादा ध्यानस्थ होने पर, समाधिस्थ होने पर परम सत्य के दर्शन होते हैं। 

      सत्य एक ही है पर विधाता ने सबके लिए अलग-अलग दृश्य, अलग-अलग रूप बनाएं हैं। चैतन्य के अंदर उसके नीचे आंतरिक एवं सूक्ष्म प्रवाह फैले हुए हैं जिनका संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से है। समुद्र को हम समुद्र की लहरों से अलग नहीं कर सकते क्योंकि समुद्र से लहरें जुड़ी हुई हैं। उसी प्रकार दूसरी लहर तीसरी लहर से जुड़ी हुई है। हमारे जीवन की जो भी वृत्तियाँ हैं, वेग हैं, इच्छाएं हैं, वासनाएं, कामनाएं हैं उनको समझना देखना और पहचानना जरुरी है। जितनी गहरी हमारी समझ होगी ये सब परिवर्तित होती जाएगीं। यह बहुत बड़े रहस्यों का भी रहस्य है कि हम अपनी जिस आदत से डरते हैं जागने पर उसी दिशा में परिवर्तन होना शुरु हो जाता है। जीवन सहज है, जीवन को पूरे मन से स्वीकार करें, जीवन को अंगीकार करें भले ही जीवन किसी भी रूप में हमारे सामने आता हो। जीवन की वृत्ति, जीवन की समस्याओं का डटकर सामना करें। जीवन जिस रूप में भी हमारे द्वार पर आता है उसे समझें, उसे जानें, पहचानें और सामना करें। 

        आप देखेंगे कि चैतन्य भाव से, चैतन्य मन से जब हम किसी चीज को देखते हैं तो हमारे अंदर एक अभूतपूर्व परिर्वतन शुरु हो जाता है। मन को मंदिर जैसा बनाओ, उसमें ध्यान का दीप जलाओ, उसमें जागरुकता का पहरा हो तब सामान्य सा जीवन भी अमृतमय जीवन में परिवर्तित जाता है। शरीर के तल पर जागना संसार के तल पर क्या हो रहा है, हमारे मन में क्या हो रहा है तब धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर एक ज्योति जलनी शुरु हो जाती है और वह ज्योति हर चीज को देखती है। तुम्हारे अंदर एक प्रकार का परिवर्तन शुरु हो जाता है। अपने जीवन को कुएं के जल के समान बनाओ और हम हैं कि उसे होज की तरह बना रहे हैं। 

        कुंए और हौज दोनों में पानी होता है, पानी दोनों में हैं पर दोनों के पानी में अंतर हैं। कुएं में पानी मिट्टी, पत्थर खोदकर निकालना पड़ता है और हौज का पानी मिट्टी और पत्थर जोड़कर बनाया जाता है। कुएं में पानी अपने आप आता है और हौज में पानी बाहर से भरकर डालना पड़ता है। हौज का पानी बासा है, उसके पानी में प्राण नहीं हैं जबकि कुएं का पानी ताजा है। वह पृथ्वी के गर्भ में छुपे हुए सागरों से जुड़ा हुआ है, होज का पानी मृत है वह गंदगी फैलाता है। कुए का पानी जीवित जागृत होता है उसका संबंध सीधे सागरों से होता है यही है राज राजेश्वरी यह क्रिया है। भुवनेश्वरी की जब कृपा होती है तब वे मस्तिष्क को स्वस्थ कर उसके अंदर से ककड़ पत्थर निकाल देती हैं और जीवित जागृत सागर से, ब्रह्माण्डीय जल से संबंध स्थापित कर देती हैं। यही है अमृत की खोज इसलिए किताबी ज्ञान से जिन्होंने अपने मस्तिष्क भर लिए हैं ऐसे मस्तिष्क सड़ांध देने लगते हैं। 

         जो मनुष्य जाति को आपस में लड़वाते हैं, उनमें भेद करवाते हैं, पिटवाते हैं, आपस में दीवार खड़ी करवाते हैं, जो दीवार खड़ी करवाने में सहयोगी हो गये हैं ऐसे रटंतु तोतों का ज्ञान किताब से आया है। जो लोग खुद कुआ खोदते हैं वे सारे कचरे, मिट्टी, पत्थर जो कि सदियों से हमारे मस्तिष्क में जमा थे को फेंक देते हैं। वह ऐसे ब्रह्माण्डीय ज्ञान में पहुँच जाते हैं जो अनंत है।

          ह्रीं की इच्छा के बिना इस ब्रह्माण्ड में एक पत्ता भी नहीं हिलता है, तुम सर्व देव स्वरूपा, तुम ही सर्व मंत्र स्वरूपा, तुम अद्वितीय हो, तुम समस्त देवताओं की माता, अंधकार और अज्ञान का विनाश करने वालीं, प्राण स्वरूपा, ज्ञान शक्ति हो। आपकी यह महाशक्ति देवताओं द्वारा अनेक स्तुति किये जाने पर प्रादुर्भूत होती है एवं इनकी कृपा से ही तत्व ज्ञान, आत्म तत्व का बोध प्राप्त किया जाता है।जिससे सूर्य उदय होता है, जिससे सूर्य अस्त होता है, जिसमें सभी तत्व, अग्नि, वायु आदि सभी प्रविष्ट हैं जैसे पहिए के आरे मध्य भाग में संलग्न रहते हैं। ह्रीं ही आत्म तत्व है, ह्रीं ही प्राण तत्व है। जो इन्हें भेद से देखते हैं वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अर्थात इस धरती पर बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होता, वह विभिन्न योनियों में सदा भटकते रहते हैं। 

       मन दो प्रकार का होता है, शुद्ध और अशुद्ध शुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी अंतरात्मा से होता है और अशुद्ध मन का सीधा संबंध हमारी इन्द्रियों से होता है। ह्रीं के हाथ में अमृत कलश है, मनुष्य के हृदय में 101 नाड़ियाँ (नसें) हैं एवं यह शरीर में विभिन्न स्थानों में फैली हुई हैं, इन्हीं में से एक नाड़ी सुषुम्ना है जो मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक फैली हुई है। योगी इसी नाड़ी के द्वारा ही गमन करते हैं एवं अमृत कलश तक पहुँचते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं। यही उन्हें अमृत पान कराती है, इस ब्रह्म विद्या का ज्ञान भी ह्रीं देती हैं, वही दिव्य दृष्टि प्रदान करती हैं, संसार के दिव्य तत्वों से हमारा संबंध जोड़ती हैं, वह ही जीवन को दिव्यता प्रदान करती हैं क्योंकि जब तक आपके अंदर दिव्यता नहीं आयेगी तब तक दिव्य शक्तियाँ आप के ओर नहीं खिचेगीं। 

         हर पदार्थ हर तत्व अपने सजातीय तत्व की ओर ही खिंचता है और उन्हीं को अपनी ओर खींचता है। यही महासरस्वती हैं, ये ही दिव्योद्य गुरुरूपणि हैं, मानबौध गुरुरुपणि हैं अर्थात वह सारे गुरुओं की भी गुरु हैं, वही परमगुरु हैं। वह दिव्यों की गुरु हैं, वह ही सिद्धों की गुरु हैं, गुरु तो सभी के होते हैं जिस दिन मनुष्य पैदा होता है उसमें प्राण तत्व से पहले गुरु तत्व आता है। गुरु भूत-प्रेतों के भी होते हैं, गुरु राक्षसों के भी होते हैं, गुरु देवताओं के भी होते हैं गुरु मनुष्यों के भी होते हैं। बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं तो शुक्रचार्य राक्षसों के गुरु हैं। जिसमें जो तत्व अधिक होता है वह उसी तत्व से युक्त गुरु की ओर खिंचा चला जाता है। गुरु सिर्फ पुरुष ही नहीं होते हैं बल्कि गुरु स्त्रियाँ भी होती हैं। 

         ऋग्वेद की 10 134, 10-39, 10-40, 10-91, 10 95, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 8-91, आदि सूत्रों की मंत्रदृष्टा ऋषिकाएं हैं। बिना ह्रीं केन्द्र को जागृत किये ऋषि बनना बिल्कुल असम्भव है। जब कृष्ण कहते हैं कि मेरे शरण में आ जा तो ऐसा लगेगा कि यह अहंकार का घोष है पर जब आप कृष्ण की आँखों में आँखें डालकर देखोगे तो वहाँ किसी अहंकार को नहीं पाओगे, वहाँ आप किसी को नहीं पाओगे। वहाँ परम सन्नाटा है, वहाँ शून्य है, वहाँ मैं विसर्जित हुआ दिखाई देता है इसलिए वह इतनी सरलता से सब कुछ कह देते हैं क्योंकि कृष्ण ह्रींमय हैं। जिस प्रकार प्रेम का अनुभव है उसी प्रकार पूर्ण चैतन्यमय शक्ति, ज्ञानमय शक्ति, आनंदमय शक्ति, करुणामय शक्ति ह्रीं ही है अगर अनुभव करना है तो पूर्ण समग्रता के साथ करना होगा। कृष्ण ने तो सिर्फ इतना ही कहा है कि मेरी शरण में आ जाओ क्योंकि वह पूर्ण ह्रींमय हो गये थे अगर आप में से किसी पर हीं कृपा हो गई तो वह सबसे पहले आत्म ज्ञान प्रदान करती हैं, आत्म दर्शन देती हैं, आत्म सौन्दर्य देती हैं, आत्म ऐश्वर्य देती हैं वह बाहर तो बाद में आता है। जिस दिन आप अंगुष्ठ बराबर अपने स्वयं के आत्म दर्शन कर लोगे उसी दिन आप स्वयं को नमस्कार करने लगोगे फिर आत्म साक्षी स्वयं कहता है, अहो मेरा स्वभाव, अहो मेरा प्रकाश वह अपना स्वयं का आत्म प्रकाश देखकर स्वयं की शरण में जाकर स्वयं को नमस्कार करता है। वह कहेगा कि जब सब कुछ नष्ट हो जाएगा तब भी मैं बचूंगा। अपने को ही नमस्कार, अपने ही पैर छू लेना देखने वाले कहेंगे कि अहंकार की हद हो गई पर जिसने अध्यात्म की समग्रता को समझा, उसकी गहराईयों को जाना वह सब कुछ समझ जाएगा। 

       जिसने इसका अनुभव किया है पूर्ण समग्रता के साथ वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। ह्रीं कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त करना सम्भव नहीं है। मैं यहाँ पर अनुभव शब्द का उपयोग कर रहा हूँ, विचार तो बहुत छोटी चीज है क्योंकि अब तो कम्प्यूटर भी विचार करने लगा है, कम्प्यूटर मनुष्य से ज्यादा दक्षता और निपुणता से विचार कर लेता है। मनुष्य से तो भूल भी होती है पर कम्प्यूटर से भूल की सम्भावना तक नहीं रहती है। अध्यात्म की गरिमा उसके विचार में नहीं है बल्कि उसकी गरिमा उसके अनुभव में है। आध्यात्मिक अनुभव उसके रोम-रोम में बहता है, विचार नहीं बहता। जब मीरा के हृदय में भी ह्रीं तत्व जागृत हुआ तो वह कहती हैं 
रमैया में तो थारे रंग राती औरों के पियो परदेश बसत है। लिख लिख भेजे पाती मेरे पिया मेरे हृदय बसत है रोल करुं दिन राती ॥ 
सखी मद पी-पी माती मैं बिन पिया ही माती । प्रेम भठी को मैं मद पीयो छकी फिरु दिन राती ॥
मीरा में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह नाच उठीं, मीरा छलक जाती हैं इसलिए जिसकी जैसी प्रकृति उसके वैसे अनुभव होते हैं। बुद्ध में जब ह्रीं जागृत हुआ तो वह एकदम मौन हो गये, इतने मौन हो गये कि देवताओं ने आकर उनसे कहा कि तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, तुम कुछ तो बोलो। कबीर भी कुछ दिनों के लिए बिल्कुल चुप हो गये, शिष्यों ने उनसे कहा आजकल आप कुछ बोलते नहीं हैं तब कबीर ने कहा कि मैं उसके सामने बोलता हूँ तो अज्ञानी सिद्ध होता हूँ और जब बिना बोले ही बात बन गई फिर बोलने की बात ही कहाँ, जब सुई से ही काम चल जाए तो वहाँ तलवार पागल उठाते हैं। देखा नहीं कैसी धारा बहती है, आँसू थमते नहीं, कैसी मस्ती है, जिसने इसका अनुभव किया है वही इसे जान सकता है, इसे समझ सकता है, इसे महसूस कर सकता है। 

       मंसूर को पता था उसने अगर इस तरह की बात कहीं "अनलहक" अर्थात अहं ब्रह्मास्मि, मैं ह्रीं हूँ तो मुझे सूली लगेगी, मुसलमानों की भीड़ मुझे बर्दाश्त न कर सकेगी, अंधों की भीड़ उसे देख न पाएगी, मित्रों ने उसे बहुत समझाया कि तेरी घोषणा बहुत खतरनाक होगी लेकिन घोषणा रुक न सकी। जब फूल खिलेगा तो सुगंध तो बिखरेगी ही, जब दीप जलेगा तो प्रकाश फैलेगा ही। कुछ बात ऐसी होती हैं जिन्हें कितना भी दबाओ वह नहीं दबती है। ह्रीं कैसे छुप सकता है ? आँखों से मस्ती अपने आप झलकने लगती है, आँखें मदहोश हो जाती हैं, वचनों में लोक-परलोक का रंग छा जाता है वचन इन्द्र धनुषी हो जाते हैं। गद्य भी पद्य हो जाते हैं, बातें भी तब गीतों जैसी मालूम होती हैं,चलो तो नृत्य जैसा लगता है 
"नहीं छिपता' 'नहीं छिपता" "नहीं छिपता"।खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीत ।
रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान ॥
यह सभी चीजें छुपाने से नहीं छिपती हैं। 

         स्वामी रामतीर्थ एक बार अमेरिका गए वह बहुत मनमौजी थे। अपनी मस्ती में मस्त थे किसी ने उनके समाधिस्थ होने से पहले ही उनसे पूछ लिया स्वामी जी इस दुनिया को किसने बनाया है, उन्होंने कहा मैंने बनाया है। अमेरिका में इस बात की बड़ी सनसनी फैल गई लोग कहने लगे आप होश में तो हो वह कहने लगे मैं बिल्कुल होश में हूँ, मैंने ही इस दुनिया को बनाया, मैंने ही इसे चलाया है। उस समय रामतीर्थ लहर की तरह नहीं थे बल्कि समाधि की अवस्था में शाश्वत बोल रहे थे। रामतीर्थ भारत लौटने पर गंगोत्री की यात्रा पर जाते हैं अभी वह गंगा में स्नान कर रहे थे और छलांग लगा दी पहाड़ों से, वह एक छोटा सा पत्र लिख गए। अब मैं इस देह में रह न सकूंगा, विराट ने बुलाया है, ह्रीं ने बुलाया है। लोग कहेंगे आत्महत्या कर ली पर वह कहते हैं मैंने सीमा तोड़कर विराट के साथ सम्बन्ध जोड़ लिए हैं, बाधाएं हटा दी हैं, मैं मरा नहीं हूँ पहले मरा-मरा सा था। मैंने सीमा छोड़ी है आत्मा नहीं यह सब बातें वह अपने पत्र में लिख गए थे। 

        एक व्यक्ति ने एक शेर का छोटा सा बच्चा पाल रखा था जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली थी। वह सिंह का छोटा सा बच्चा उसने अभी मांसाहार का सेवन नहीं किया था वह दाल, चॉवल, रोटी, साग-भाजी खाता था। एक दिन उस व्यक्ति को पैर में चोट लग जाती है, चोट के कारण उसके पैर से थोड़ा खून बहने लगता है सिंह का बच्चा पास में ही बैठा था वह बैठे-बैठे जीभ से उस व्यक्ति का खून चाटने लगता है, जैसे ही उसने खून चाटा बस एक क्षण में ही उसका रूपांतरण हो गया वह एकदम गुरनेि लगा। उस गुर्राहट में हिंसा थी पहले वह हिरण था अचानक सिंह बन गया। ह्रीं की कृपा से आत्म स्वरूप की याद आई, आत्म स्मृति हो गई किसी ने क्या खूब कहा है मैं वो गुम-गुस्ता मुसाफिर हूँ आप अपनी मंजिल हूँ मुझे हस्ती से क्या हासिल में खुद हस्ती का हासिल हूँ।

श्री राम ।।


       भगवान श्री नारायण ने जीवों को रामत्व अर्थात ब्रह्माण्डीय मर्यादा के अनुरूप जीवन जीने के लिये सर्वप्रथम चार बार अपने श्री मुख से ऊँ कार रूपी नादब्रह्म महाध्वनि से चार वेदों की रचना की कालान्तर उन्होंने ये चार वेद ब्रह्माजी को सौंप दिये परन्तु असुरों ने इन चार वेदों का ब्रह्मलोक से हरण कर लिया। अपहरण असुरों का सबसे प्रिय कर्म है जो वेद मनुष्यों तक पहुँचने थे, वे असुरों के पास बंधन युक्त हो गये। कालान्तर भगवान शिव को जल प्रलय करना पड़ा और ब्रह्मा जी के पुत्र मनु को जीवों की रक्षा के लिये एक दिव्य नौका का निर्माण करना पड़ा जिससे कि जल प्रलय के दौरान जीवों की सभी प्रजातियाँ सुरक्षित रह पायें परन्तु जल प्रलय की प्रचण्डता इतनी तीव्र थी कि मनु की नौका को बचाने के लिये प्रभु श्री नारायण को मत्स्य अवतार लेना पड़ा। जगत के पालनहार अपने भक्तों की रक्षा के लिए मत्स्य रूप भी धारण कर बैठे। इसे कहते हैं रामत्व, भगवान विष्णु का वह दिव्य कर्म जिससे कि प्राणी आज तक इस धरा पर फलफूल रहा है।

           कालान्तर भगवान विष्णु ने वेद रूपी महाज्ञान जन कल्याण के लिये मनु को प्रदान कर दिया। धीरे-धीरे यही वेद अनेकों दिव्य ऋषि रूपी महा विभूतियों से संस्पर्शित होते हुए अनेकों उपनिषदों, दिव्य पुराणों, ग्रंथों और अद्भुत स्त्रोतों के रूप में प्रकाशवान हुए। जैसे-जैसे आर्यों ने वेदान्त रूपी महाज्ञान को आत्मसात किया उनमें एक से एक दिव्य आभावान विभूतियाँ उत्पन्न होने लगीं परन्तु फिर एक बार अमर्यादित एवं भोगी असुरों ने इस पृथ्वी पर हाहाकार मचाना शुरू कर दिया तब इस सृष्टि में भगवान विष्णु ने त्रेता युग में प्रभु श्री राम के रूप में जन्म लिया। प्रभु श्री राम अपने अंदर समस्त वेदान्त दर्शन समाहित किये हुए हैं, उनके जीवन की प्रत्येक लीला और दिव्य कर्म वेदान्त दर्शन की शाश्वतता और सत्यता का प्रमाणीकरण करते हैं। 

           प्रभु श्री राम की दिव्य प्रेरणा से रचित वाल्मीकि रामायण और तुलसी रामायण का प्रत्येक शब्द महामंत्र है। प्रभु श्री राम के जीवन दर्शन में इस समस्त ब्रह्माण्ड का शाश्वत ज्ञान समाया हुआ है। वे विश्व बीज हैं, वे ब्रह्माण्ड नायक हैं। रामायण यही प्रमाणित करती है कि मनुष्य सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय रचना है इसके पश्चात ही वह राजा, रंक, ऋषि, पुत्र, पत्नी, मित्र, सेवक, गुरु इत्यादि है। इन सब चस्पों से ऊपर उठकर जीव को सर्वप्रथम ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं को समझना चाहिये एवं उसी को मानस में रख कर जीवन के निमित्त कर्म सम्पन्न करने चाहिये। शरीर तो राजा को भी त्यागना है ऋषि को भी त्यागना है, असुर को भी त्यागना है। सभी को श्वास-प्रश्वास लेना है। सभी को सामान्य कर्म सम्पन्न करने हैं। 

          एक बार सृष्टि की मर्यादा में रहना सीख गये तो फिर जीवन में कभी भी इस धरती पर मनुष्यों द्वारा निर्मित मानकों, नियमों, तर्कों और मर्यादाओं में तिल-तिल कर जीना नहीं पड़ेगा। मनुष्य अपने जीवन के प्रारम्भ में समस्याओं के अनेकों पुराण बाँचता है। बहू सास से परेशान हो त्रिया पुराण बाँचती है। गुरु शिष्यों की अनंत समस्याओं का पुराण सुनता है। यही सब कुछ तो आजकल हो रहा है। इन सब सांसारिक पुराणों को बाँचने से आज तक भला किसे मधुरता महसूस हुई है। यह सब सांसारिक पुराण सिर्फ समस्याऐं ही बखानते हैं। इनका हल और महा औषधि दवाई की दुकान पर नहीं मिलेगी। जीवन में मानवीय सम्बन्धों की सभी समस्याओं का हल राम चरित मानस में है। 

          जब मनुष्य सब तरफ से थक जाता है, निराश हो जाता है और अपना सारा मानस कलुषित कर बैठता हैं तो उसे राम चरित मानस की याद आती है। प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन निर्मल, अवरोध विहीन और परम गति को प्राप्त करता है वर्ना जीवन रूपी यात्रा में तो इस कलयुग में सभी सम्बन्ध अवरोध, गड्ढे और खाइयाँ ही खोदते हैं। विष्णु का काम तो जीवन रूपी नौका की रक्षा करना ही है। अतः वे प्रभु श्री राम के रूप में इस कलयुग में हमारी जीवन यात्रा को निष्कलंक ही बनाते रहते हैं। प्रचुरता ही जीवन में समरसता और मधुरता लाती है। समरसता और मधुरता ही आनंदमय कोष में जीव को पहुँचाते हैं। महायोगी अभाव, दरिद्रता और न्यूनता के प्रवर्तक नहीं होते। महायोगी की पहचान ही यह है कि उनके आस-पास प्रचुरता, सम्पन्नता, मधुरता और आनंद की उपस्थिति होती है। 
  
                जिसने भी जीवन में प्रभु श्री राम को आत्मसात किया है उसके समस्त रोग, दरिद्रता अभाव और अज्ञान का स्वतः ही नाश हो गया है। रामत्व को आत्मसात करना ही राम राज्य की स्थापना है। राम राज्य में निवास योगी जन ही कर सकते हैं। भोगियों का अस्तित्व राम राज्य में शून्य होता है। दरिद्रता, उत्पात, अभाव, द्वेष, इत्यादि नकारात्मक प्रवृत्तियाँ वहीं उत्पन्न होती हैं जहाँ पर प्राकृतिक, दैविक और भौतिक संसाधनों का अभाव होता है। निरंतर बहने वाली गंगा के किनारे किसी भी प्राणी को प्यासा नहीं रहना पड़ता सब के सब तृप्त होते हैं, भूमि भी तृप्त होती है, वृक्ष भी तृप्त होते हैं। जो तृप्ति प्रदान करे वही रामत्व है। प्रभु श्री राम की सेवा से मनुष्य स्वयं तो तृप्त होता ही है साथ ही उसके समस्त पितर और आने वाली सात पीढ़ियाँ भी तृप्त हो जाती हैं। यही अद्भुत महिमा है श्री राम भक्ति की प्रभु श्री राम की भक्ति रूपी धारा में ही इस भारत वर्ष में अनंतकाल से अब तक असंख्यों ऋषि, मुनि, तपस्वी, साधक, चिंतक और ज्ञानी ध्यानी उत्पन्न हुये हैं। 
    
      जिस प्रकार एक वायुयान को भूमि पर उतारने के लिये उचित, सर्व सुविधा युक्त, अवरोध विहीन एवं उच्च स्तर की समतल भूमि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को भी ईश तत्व के विभिन्न स्वरूपों से साक्षात्कार करने के लिये अपने मानस को प्रभु श्री राम की दिव्य लीलाओं से सम्पुट राम चरित्र मानस को सर्वप्रथम आत्मसात करना पड़ता है। इसके पश्चात ही अध्यात्म रूपी कल्प वृक्ष अंकुरित होता है। सर्वप्रथम मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका को योगमय होना होगा। ब्रह्माण्डीय मर्यादाओं के अनुकूल क्रियाशील होना पड़ेगा। भोग और लिप्तता की प्रवृत्ति त्यागनी होगी तभी अमृत रूपी अध्यात्म का उदय होगा। प्रभु श्री राम के शरणागत होना ही एकमात्र मार्ग है मुक्ति का यह आदि गुरु शंकराचार्य जी ने स्वयं कहा है अन्यथा विविध प्रपंचों और मायाजाल में उलझकर जन्म-जन्मांतर भटकते ही रहना पड़ेगा।

       रावण से बड़ा भोगी कौन हुआ है। वह भी एक दिन थक गया था भोग कर कर के। अतः प्रभु श्री राम के द्वारा मुक्त होने के लिये उसे भी बड़े यत्र करने पड़े हैं। रावण भी ब्राह्मण से राक्षस बना है। उसका पिता आदि शक्ति भगवती द्वारा शापित है। वह प्रकाण्ड शिव भक्त और ज्ञानी है। उसे भी मालूम था कि उसके पितरों का श्राप ग्रस्त जीवन तभी मुक्त हो पायेगा जब प्रभु श्री राम इस धरा पर आयेंगे। पतित को पावन बनाने वाले प्रभु श्री राम ही हैं। ब्राह्मण से ब्रह्म राक्षस तक की यात्रा रावण और उसके पूर्वजों ने स्वयं की बुद्धि से सम्पन्न की। भोग और विलास की यही नीति है परन्तु प्रभु श्री राम के हाथों मृत्यु प्राप्त कर वह पुनः ब्राह्मण बन गया। ब्राह्मण नहीं बनता तो प्रभु श्री राम अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण को युद्ध के मैदान में पड़े रावण के पास शिक्षा-दीक्षा के लिये नहीं भेजते। प्रभु श्री राम के हाथों राक्षस राज रावण के कुल के सभी पितरों के पाप धुल गये और सब के सब पुनः पावन हो गये।

          यही मर्म है रावण का प्रभु श्री राम अंतरयामी हैं। उनकी मर्मज्ञता अद्वितीय है। वे मर्म समझते हैं, सभी का वास्तव में रावण राम भक्त ही है। मृत्यु से पूर्व उसने भी प्रभु श्री राम को प्रणाम किया है। सत्य तो वह भी जानता था। असंख्य योनियों के उद्धारक प्रभु श्री राम की शरण में ही जीवन है अन्यथा शरीर धारण करना मात्र अभिशतता है रावण के समान ।

श्री राम रक्षा स्तोत्र

           भगवान विष्णु इस चराचर जगत के पालनकर्ता हैं। पालनकर्ता वही हो सकता है जो कि समग्र रूप से रक्षा करने में समर्थ हो। समग्रता के साथ रक्षा की स्थिति उत्पन्न होने पर अध्यात्म का उदय सम्भव है। अध्यात्म का उदय तभी सम्भव है जब सत्य की पहचान करने में जीव सक्षम हो एवं आसुरी शक्तियों के समस्त मायाजालों को भेदते हुए जीवन की सम्पूर्णता प्राप्त हो धर्म की स्थापना भगवान विष्णु का ध्येय है धर्म के मार्ग पर चलकर सत्य से साक्षात्कार सम्भव है। भगवान विष्णु के सभी अवतार कालानुसार जीव मात्र की रक्षा के लिए ही इस धरा पर प्रकट हुए हैं। जीव का जीवन इसीलिए अमूल्य है क्योंकि इसे बचाने के लिए भगवान विष्णु ने बड़े ही यत्न किये हैं अन्यथा आसुरी शक्तियाँ कब की अधर्म की स्थापना कर चुकी होती। जब जब भगवान विष्णु इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं अपने साथ समस्त देव शक्तियों और संमार्ग पर चलने वाली अन्य शक्तियों का भी प्राकट्य करते हैं। इस प्रकार इस धरा पर एक बार पुनः सद्शक्तियाँ एक साथ जन्म लेकर एक अद्भुत विष्णु परिवार की संरचना करते हुए पुनः धर्म की जड़ों को सभी जीवों में गहरे तक उतार देती हैं।

        श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु की अमोघ रक्षा व्यवस्था का ही प्रादुर्भाव है। श्री राम रक्षा स्त्रोत में भगवान विष्णु के सभी अवतारों की शक्ति समाहित है। इस स्त्रोत में माता भगवती की त्रिगुणात्मक शक्ति के रूप में माता सीता उपस्थित हैं तो वहीं भगवान विष्णु की समग्र शक्ति प्रभु श्री राम प्रदर्शित कर रहे हैं। शेषावतार श्री लक्ष्मण जी हैं एवं भरत जी और शत्रुघन के रूप में संतत्व की शक्ति दिखाई पड़ रही है। दशरथ एवं माता कौशल्या के रूप में पितृ शक्ति और मातृ शक्ति का सम्पुट है। रुद्रांश श्री हनुमंत अपने साथ नल नील, अंगद, जामवंत, विभीषण के रूप में रक्षा कवच प्रदान कर रहे हैं। प्रभु श्री राम योगी योगेश्वर का स्वरूप भी दर्शा रहे हैं। योग शक्ति से बढ़कर इस ब्रह्माण्ड में कोई भी सद शक्ति नहीं है। आसुरी शक्तियाँ भोग शक्ति में विश्वास रखती हैं। प्रभु श्री राम स्वयं कह रहे हैं रघुकुल रीत सदा चलि आई। प्राण जाहिं पर वचन न जाई ॥ 

        वे त्यागी हैं, सन्यासी हैं, तपस्वी हैं, ज्ञानी हैं एवं पुरुषों में सर्वोत्तम पुरुषोत्तम हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है शस्त्रधारियों में मैं श्री राम हूँ अर्थात प्रभु श्री राम के द्वारा धारण किये गये शस्त्र मात्र सत्य और धर्म की रक्षा के लिए ही हैं। ऋषि-मुनियों और तपस्वियों का जीवन इस पृथ्वी पर अत्यंत ही विकट एवं संघर्षमय होता है। जीवन के प्रारम्भ में वे अत्यधिक ताड़न प्राप्त करते हैं। ताड़न और भी कष्टमय हो जाता है जब वह स्वयं के रक्त सम्बन्धियों या परिवारजनों द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार का ताड़न मृत्युतुल्य कष्ट ही प्रदान करता है। वाल्मीकि अपने जीवन के प्रारम्भ में दस्यु थे। वे प्रतिदिन मानव वध भी करते थे तो सिर्फ अपने परिवार के पालन के लिए। एक दिन उन्हें वन में नारद जी मिले उन्होंने दस्यु वाल्मीकि से कहा कि इस प्रकार का पापाचार कर जो तुम भौतिक रूप से प्राप्त कर रहे हो क्या उस पाप को तुम्हारे परिवार जन भी बाँटेंगे। नारद जी की बात सुन दस्यु वाल्मीकि परिवार वालों के पास पहुँचे जिनका पालन पोषण करने के लिए वे दस्यु बने थे उनमें से किसी एक ने भी उनके पापों में भागीदारी से साफ इन्कार कर दिया। 

            बस यहीं से वाल्मीकि का हृदय परिवर्तन हुआ। मृत्युतुल्य व्यथा में डूबे वाल्मीकि को अगर किसी ने तारा तो सिर्फ राम नाम ने वाल्मीकि रामायण की रचना ने उन्हें तारा अर्थात तारा प्रभु श्री राम ने और ताड़ना दी परिवार ने तुलसीदास जी भी प्रताड़ित हुए अपनी पत्नी के कटु वचनों से अपने ससुराल पक्ष से परन्तु तरे वह तुलसी रामायण की रचना करके। विश्वामित्र भी ताड़ित हुए हैं मेनका के द्वारा मेनका के मोह पाश में वे अपना ऋषित्व भी खो बैठे थे परन्तु प्रभु श्री राम के सानिध्य में वे भी बैकुण्ठ धाम के अधिकारी हुए और ब्रह्मऋषि कहलाये। अहिल्या भी प्रताड़ित हुई अपने पति ऋषि गौतम द्वारा अकारण ही शाप ग्रस्त हुई शिला में परिवर्तित हो गई थी। उन्हें भी तारा प्रभु श्री राम ने। 

हनुमंत एवं सुग्रीव भी प्रताड़ित हुए हैं। बालि के हाथों। सुग्रीव ने तो पत्नी और पुत्र भी खो दिये थे। उन्हें भी तारा है प्रभु श्री राम ने। विभीषण भी प्रताड़ित हुए अपने भ्राता रावण के द्वारा और अंत में प्रतिष्ठित हुए प्रभु श्री राम के द्वारा असंख्यों उदाहरण रामचरित मानस में ऐसे वर्णित हैं। प्रभु श्री राम ने तो इस समस्त जग को भव सागर से पार लगाने के लिए अवतरण लिया है। जो भी मनुष्य जीवन में सब तरफ से प्रताड़ित, अपमानित और निराश हो जाता है तब वह समग्रता के साथ पुनर्जीवन पुनः प्रभु श्री राम के चरणों में पाता है। वे अपने भक्तों की सभी प्रकार से रक्षा करते हैं। श्री राम रक्षा स्त्रोत भक्तों की रक्षा करता है दैहिक, दैविक और सांसारिक एवं अन्य प्रकार के सभी ताड़न रूपी कष्टों से। 

            चलिए अब बात करते हैं उस जीव तंत्र की जो कि समुद्र की विशाल जल राशि के अंदर स्थित है। इस जीवन तंत्र की महाव्यवस्था में प्रतिक्षण प्रत्येक जीव असुरक्षा की भावना से भयभीत है। उसके जीवन की समस्त ऊर्जा केवल अन्य जीव से स्वयं के भक्षण को बचाने में नष्ट हो जाती है। जीवन पर्यन्त वह विभिन्न क्रियाकलाप, स्वरूप परिवर्तन एवं अन्य आंतरिक व्यवस्थाओं का निर्माण सिर्फ इसलिए करता रहता है कि वह भक्षण से बच जाये पर कदापि ऐसा नहीं होता। इसका मुख्य कारण जीव के अंदर रामत्व की उपस्थिति शून्य होना है। जो जीव अपने अंदर रामत्व आत्मसात नहीं कर पाता है वह स्वयं ही भोगवादी होता है अर्थात स्वयं के जीवन के लिए दूसरे जीव का भक्षण। ऐसी स्थिति में एक न एक दिन खुद को ही किसी का ग्रास बनना पड़ेगा। निम्नगामी पशुओं में भोग का इतना विकृत स्वरूप देखने को मिलता है। कि वे कभी-कभी स्वयं के द्वारा उत्पन्न शिशु का भी भक्षण कर डालते हैं। 

        आसुरी शक्तियाँ इसी प्रकार की प्रवृत्ति से ग्रसित होती हैं। इस प्रकार के निम्म्रगामी जीवों में अध्यात्म शून्य होता है। मनुष्य योनि 84 लाख योनियों में इसलिए सर्वश्रेष्ठ है कि वह कुछ हद तक रामत्व को ग्रहण कर सकी है अर्थात योग रूपी रामत्व की व्यवस्था तो उसने आत्मसात की है। भोगवादी गुरु या राजा या अन्य पदासीन तथाकथित महापुरुष सवार होते हैं शिष्यों के कंधों पर,वे सवारी बनाते हैं स्वयं से जुड़े व्यक्तियों को, उनका काम होता है नकेल डालना अपनी शरण में आये व्यक्ति पर इसके विपरीत प्रभु श्री राम की सदशक्ति के प्रकाश में सभी आलौकित होते हैं, सभी प्राप्त करते हैं परमानंद हृदय एवं मस्तिष्क में उपस्थित सभी आघात सदा सदा के लिए विलीन हो जाते हैं।

        राम रक्षा स्त्रोत इस जगत को बुधकौशिक ऋषि से प्राप्त हुआ है, बुधकौशिक ऋषि को यह स्वप्र में भगवान शंकर से प्राप्त हुआ था। अनुष्टुप् छन्द में विरचित इस वज्रपरञ्जर स्त्रोत के ऋषि बुधकौशिक हैं, भगवती श्री सीता इसकी शक्ति हैं, भगवान श्री राम इसके देवता हैं तथा श्री हनुमान जी इसके कीलक हैं। इस स्त्रोत में विश्वाधार, विश्वसंरक्षक, पतितपावन, सर्वसमर्थ, पूर्णपुरुषोत्तम भगवान श्री सीताराम का ध्यान करने के उपरान्त अंग-प्रत्यंग की रक्षा करने के लिये उनसे प्रार्थना की गयी है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम की वन्दना करने वाले का तथा उनके आश्रित रहने वाले का सर्वत्र और सर्वदा कल्याण ही होता है। लौकिक कष्ट की तो बात ही क्या, रामाश्रयी भक्त को न यमदूत भयभीत कर सकते हैं और न उसे संसार-चक्र में पड़ना पड़ता है। भगवान श्री सीताराम की प्रसन्नता प्राप्ति के लिये इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये।
 
            भगवान श्री सीताराम की शक्ति अनिर्वचनीय तथा अचिन्त्य है। उनकी कृपा से सांसारिक कष्ट, शरीरिक रोग और मानसिक चिन्ताऐं दूर हो सकती हैं। पाठकर्ता की श्रद्धा और भावना के अनुसार न केवल लौकिक, अपितु पारलौकिक और पारमार्थिक लाभ भी श्री रामरक्षा स्त्रोत के पाठ से होता है। इसके सिद्धकर्ता को श्रद्धा विश्वास के साथ भावपूर्वक अर्थ समझते हुए पुन: पुनः पाठ करना चाहिये, जिससे अभीष्ट प्राप्ति शीघ्र हो सके।

 विनियोग
   ॐ अस्य श्री रामरक्षास्त्रोतमंत्रस्य बुधकौशिक ऋषिः श्री सीतारामचन्द्रो देवता अनुष्टुप छन्दः सीता शक्तिः श्रीमान् हनुमान् कीलकं श्री रामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्त्रोतजपे विनियोगः ।

ध्यान
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्।
वामाङ्कारूढसीतामुखकमलमिललोचनं नीरदाभं नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥

अथ श्री रामरक्षा स्तोत्रम्

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । 
एकै कमक्षरं पुंसां महापातक नाशनम् ॥ 

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् । जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥

 सासितूणधनुर्बाणपाणिं, नक्तंचरान्तकम् । 
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ।। 

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् । 
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥ 

कौशल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती । 
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ।। 

जिह्वां विद्यानिधिः पातु कण्ठं भरतवन्दितः । 
स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥ 

करौ सीतापतिः पातु हृदयं जामदग्न्यजित् । 
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥ 

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः । 
ऊरू रघूत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत् ॥ 

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्घे दशमुखान्तकः । 
पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः॥ 

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् । 
स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्॥

 पातालभूतलव्यो मचारिणश्छद्मचारिणः । 
न द्रष्टमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः॥ 

रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् । 
नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति॥ 

जगज्जैत्रैक मन्त्रेण रामनामाभिरक्षितम् । 
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः॥

 वज्रपञ्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् । 
आव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्॥ 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः। 
तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः॥ 

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्। अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभुः॥ 

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ। पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ॥

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। 
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥ 

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ॥

 आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम्॥

 सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा । गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ 

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौशल्येयो रघूत्तमः ॥ 

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः । 
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥ 

इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । 
अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्रात्नोति न संशयः ॥

 रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । 
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ॥ 

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् । 
राजेन्दं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥ 

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे । 
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥ 

श्री राम राम रघुनन्दन राम राम श्री राम राम भरताग्रज राम राम । 
श्री राम राम रणकर्कश राम राम श्री राम राम शरणं भव राम राम ॥ 

श्री रामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि श्री रामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि । 
श्री रामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि श्री रामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥ 

माता रामो मत्पिता रामचन्द्र: स्वामी रामो मत्सखा सर्वस्वं मे रामचन्दो रामचन्द्रः । 
दयालु नन्यं जाने नैव जाने न जाने ।। 

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।
 पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥ 

लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्र रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्री रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।

 मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां   
वरिष्ठम् । 
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ 

 कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । 
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

 आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । 
लोकाभिरामं श्री रामं भूयो भूयो नामाम्यहम् ॥ 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् । 
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥ 

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । 
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। 
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ 

इति श्री बुधकोशिकमुनिविरचितं श्री रामरक्षास्त्रोतं सम्पूर्णम् ।


इस रामरक्षास्तोत्र-मंत्र के बुधकौशिक ऋषि हैं। सीता और रामचन्द्र देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, सीता शक्ति हैं श्रीमान् हनुमान जी कीलक हैं तथा श्री रामचन्द्र जी की प्रसन्नता के लिये रामरक्षास्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता है।

ध्यान-
 जो धनुष-बाण धारण किये हुए हैं, बद्धपद्मासन से विराजमान हैं, पीताम्बर पहने हुए हैं, जिनके प्रसन्न नयन नूतन कमलदल से स्पर्धा करते तथा वामभाग में विराजमान श्री सीता जी के मुखकमल से मिले हुए हैं उन आजानुबाहु, मेघश्याम, नाना प्रकार के अलङ्ककारों से विभूषित तथा विशाल जटाजूटधारी श्री रामचन्द्र जी का ध्यान करें।

श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला है और उसका एक-एक अक्षर भी मनुष्यों के महान पापों को नष्ट करने वाला है।
जो नीलकमल दल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, जटाओं के मुकुट से सुशोभित, हाथों में खड्ग, तूणीर, धनुष और बाण धारण करने वाले, राक्षसों के संहारकारी तथा संसार की रक्षा के लिये अपनी लीला से ही अवतीर्ण हुए हैं, उन अजन्मा और सर्वव्यापक भगवान राम का जानकी और लक्ष्मण जी के सहित स्मरण कर प्रज्ञा पुरुष इस सर्वकामप्रदा और पापविनाशिनी रामरक्षा का पाठ करें। मेरे सिर की राघव और ललाट की दशरथात्मज रक्षा करें। कौसल्यानन्दन नेत्रों की रक्षा करें, विश्वामित्रप्रिय कानों को सुरक्षित रखें तथा यज्ञरक्षक घ्राण की और सौमित्रिवत्सल मुख की रक्षा करें।

मेरी जिह्वा की विद्यानिधि, कण्ठ की भरतवन्दित, कन्धों की दिव्यायुध और भुजाओं की भग्रेशकार्मुक (महादेव जी का धनुष तोड़ने वाले) रक्षा करें।

हाथों की सीतापति, हृदय की जामदग्न्यजित् (परशुराम जी को जीतने वाले), मध्यभाग की खरध्वंसी (खर नाम के राक्षस का नाश करने वाले) और नाभि की जाम्बवदाश्रय (जामवंत के आश्रयस्वरूप) रक्षा करें।

कमर की सुग्रीवेश (सुग्रीव के स्वामी), सक्थियों की हनुमत्प्रभु और ऊरुओं की राक्षस लविनाशक रघुश्रेष्ठ रक्षा करें। 
जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशमुखान्तक (रावण) को मारने वाले), चरणों की विभीषणश्रीद (विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले) और सम्पूर्ण शरीर की श्री राम रक्षा करें।

जो पुण्यवान पुरुष रामबल से सम्पन्न इस रक्षा का पाठ करता है वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयसम्पन्न हो जाता है।

जो जीव पाताल, पृथ्वी अथवा आकाश में विचरते हैं और जो छद्मवेश में घूमते रहते हैं वे राम नामों से सुरक्षित पुरुष को देख भी नहीं सकते।

राम, रामभद्र, रामचन्द्र इन नामों का स्मरण करने से मनुष्य पापों से लिप्त नहीं होता तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जो पुरुष जगत को विजय करने वाले एकमात्र मंत्र राम नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कण्ठ में धारण करता है (अर्थात इसे कण्ठस्थ कर लेता है) सम्पूर्ण सिद्धियाँ उसके हस्तगत हो जाती हैं।

जो मनुष्य वज्रपञ्जर नामक इस रामकवच का स्मरण करता है उसकी आज्ञा का कहीं उल्लंघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती है।

श्री शंकर ने रात्रि के समय स्वप्न में इस रामरक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था उसी प्रकार प्रातःकाल जागने पर, बुधकौशिक ने इसे लिख दिया।

जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अंत करने वाले हैं, जो तीनों लोकों में परम सुन्दर हैं वे श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं।

जो तरुण अवस्थावाले, रूपवान, सुकुमार, महाबली, कमल के समान विशाल नेत्रवाले, चीरवस्त्र और कृष्णमृगचर्मधारी, फल-मूल आहार करने वाले, संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, सम्पूर्ण जीवों को शरण देने वाले समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसकुल का नाश करने वाले हैं वे रघुश्रेष्ठ दशरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें।

जिन्होंने सन्धान किया हुआ धनुष ले रखा है, जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिये हुए हैं वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिये मार्ग में सदा ही मेरे आगे चलें।

सर्वदा उद्यत, कवचधारी, हाथ में खड्ग लिये, धनुष बाण धारण किये तथा युवा अवस्थाकाल ले भगवान राम लक्ष्मण जी के सहित आगे-आगे चलकर हमारे मनोरथों की रक्षा करें।

भगवान का कथन है कि राम, दाशरथि, शूर, लक्ष्मणनुचर, बली, काकुत्स्थ, पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम, वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुरुषोत्तम, जानकीवल्लभ, श्रीमान और अप्रमेयपराक्रम इन नामों का नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने से मेरा भक्त अश्वमेघ यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता है इसमें कोई सन्देह नहीं।

जो लोग दूर्वादल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन, पीताम्बरधारी, भगवान राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं वे संसारचक्र में नहीं पड़ते।

लक्ष्मण जी के पूर्वज, रघुकुल में श्रेष्ठ, सीताजी के स्वामी, अति सुन्दर, ककुत्स्थकुलनन्दन, करुणासागर,


 गुणनिधान, ब्राह्मणभक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथपुत्र, श्याम और शान्तमूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर रघुकुलतिलक, राघव और रावणारि भगवान राम की मैं वन्दना करता हूँ।

राम,रामभद्र,रामचन्द्र,विधातृस्वरूप,रघुनाथ प्रभु सीतापति को नमस्कार है।

हे रघुनन्दन श्री राम! हे भरताग्रज भगवान राम! हे रणधीर प्रभु राम ! आप मेरे आश्रय होइये ।

मैं श्री रामचन्द्र जी के चरणों का मन से स्मरण करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ,श्री रामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्री रामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ

राम मेरी माता हैं,राम मेरे पिता हॅ,राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं। दयामय रामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानता बिलकुल नहीं जानता।

जिनकी दायीं ओर लक्ष्मण जी,बायीं ओर जानकी जी और सामने हनुमान जी विराजमान हैं उन रघुनाथजी की मैं वन्दना करता हूँ।

जो सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर,रणक्रीड़ा में धीर, कमलनयन, रघुवंशनायक, करुणामूर्ति और करुणा के भण्डार हैं उन श्री रामचन्द्र जी की मैं शरण लेता हूँ। जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्री रामदूत की मैं शरण लेता हूँ।

कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरों वाले राम- राम इस मधुर नाम को कूंजते हुए वाल्मीकि रूप कोकिल की मैं वन्दना करता हूँ।

आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को बारंबार नमस्कार करता हूँ।

राम राम ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसार बीजों को भून डालने वाला, समस्त सुख-सम्पत्ति प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करने वाला है।

राजाओं में श्रेष्ठ श्री राम जी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान राम का भजन करता हूँ जिन रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण राक्षससेना का ध्वंस कर दिया था, मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई भी आश्रय नहीं है। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्तसदा राम में ही लीन रहे; हे राम! आप मेरा उद्धार कीजिए।

श्री महादेव जी पार्वती जी से कहते हैं- हे सुमुखि रामनाम विष्णु सहस्त्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा राम, राम,राम इस प्रकार मनोरम राम-नाम में ही रमण करता हूँ।

सिद्ध करने की विधि 

श्री रामरक्षा स्त्रोत का प्रयोग करने से पूर्व इसे सिद्ध कर लेना चाहिये अन्यथा पूर्ण फल की प्राप्ति में शंका रहती है। इस स्त्रोत को सिद्ध करने की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है इसे सिद्ध करने का समय नवरात्रि है। नवरात्रि साल में मुख्य रूप से दो बार आती है किन्तु चैत्र मास में श्री रामनवमी पर पूर्ण होने वाली नवरात्रि अधिक उपयुक्त है। चैत्र मास या अश्विन मास के शुक्ल पक्ष के नवरात्रि में नौ दिनों (अर्थात प्रतिपदा से नवमी तिथि ) तक प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नानादि तथा नित्यकर्म से निवृत्त होकर, शुद्ध वस्त्र धारण कर,कुश के आसन पर सुखासन में पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठे। सामने भगवान राम का दरबार चित्र या भगवान श्री सीताराम जी का चित्र अथवा श्री हनुमान जी का चित्र होना चाहिये। चन्दन पुष्पादि से पूजन करके इस महान फलदायी स्तोत्र को सिद्ध करने के लिये इसका ग्यारह बार पाठ नियमित रूप से प्रतिदिन करना चाहिये। पाठ के समय अखण्ड प्रज्वलित दीपक तथा धूप रखना चाहिए।

       भगवान श्री सीताराम की कृपाशक्ति के प्रति आपकी जितनी अखण्ड निष्ठा श्रृद्धा होगी, उतना ही फल प्राप्त होगा। नवमी के दिन यथा शक्ति ब्राह्मण भोजन भी करवा देना चाहिए। यह स्त्रोत नवरात्रि में सिद्ध किया जाय तो सर्वोत्तम, अन्यथा भारतीय पंचाङ्ग के अनुसार किसी भी मास के शुक्लपक्ष के प्रथम नौ दिनों में अर्थात् प्रतिपदा से नवमी तिथि तक उपर्युक्त प्रकार से नियमित पाठ करके इस स्त्रोत को सिद्ध किया जा सकता है। यह स्त्रोत श्री हनुमान जी के द्वारा कीलित है इस उत्कीलन के सम्बन्ध में मैं तो केवल यह कह सकता हूँ कि इसका उत्कीलन श्री हनुमान जी की कृपा से होता है। अतः सिद्ध करते समय या प्रयोग करते समय श्री हनुमान जी का संरक्षण एवं उनकी कृपा प्राप्त करने के लिये प्रारम्भ में और समापन पर श्री हनुमान जी का ध्यान, कृपाहेतु प्रार्थना प्रणामादि श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक करते रहना चाहिये। इससे हनुमान जी साधक को संरक्षण एवं सिद्धि देते हैं। 

        वास्तव में तो उत्कीलन का रहस्य यह है कि हनुमान जी के संरक्षण में उनके समान ही भक्ति एवं श्रद्धा से पाठ तथा प्रयोग करना चाहिये ।चाहिये । सिद्ध कर लेने के बाद एक पाठ नित्य कर लेना चाहिये । इसे सिद्ध करने से पूर्व इसे कण्ठाग्र कर लेना भी आवश्यक है। 
यथा यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्धयः।
सभी प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने में यह स्त्रोत समर्थ है ।

छलक उठा महाभाव ।

         कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध का अंतिम दिन, गांधारी जोर-जोर से बालकों के समान विलाप कर रो रही थीं। उसके चारों तरफ उसके बच्चों के शव बिखरे पड़े थे। उसके 100 कौरव पुत्र दल बल, सेना सहित अंग-भंग युद्ध क्षेत्र में मृत पड़े थे। अपने बालकों को मृत देख वह बालकों के समान फूट फूट कर रो रही थी तभी उसका एक बालक अर्थात पाण्डव पुत्र युधिष्ठिर आ गया और बोला हे माँ मैं भी आपका बालक हूँ, आप मुझे सजा दीजिए, मुझे दण्ड दीजिए क्योंकि इस युद्ध का नेतृत्व मैंने ही किया है। गांधारी की आँखों पर पट्टी बंधी हुई थी परन्तु उसके बाल्य रूपी रुदन से वह कुछ सरक गई और गांधारी की हल्की सी दृष्टि युधिष्ठिर के हाथों पर पड़ गई। देखते ही देखते युधिष्ठिर के हाथों के नाखून काले पड़ गये। भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव डर के मारे पीछे हट गये। 

         क्रोध युक्त बाल्य दृष्टि अत्यंत ही मारक होती है, गांधारी साक्षात् रुदन बालिका बन गईं थीं तभी कृष्ण सामने आ गये और गांधारी बोल उठीं हे रसेश्वर, हे रासेश्वर यह किस रस का उत्पादन कर दिया, किस प्रकार का रास रच दिया ? तुम तो सर्वेश्वर हो, सर्व समर्थ हो, तुम्हारे पास तो असीमित बल है, सेना है, तुम चाहते तो युद्ध को समझा बुझाकर रोक सकते थे अन्यथा बल प्रयोग के द्वारा भी युद्ध रोका जा सकता था परन्तु तुमने ऐसा नहीं किया अपितु महाभारत रूपी युद्धारास रच दिया। जिस प्रकार तुम रास मण्डल में कभी-कभी रस बालेश्वरी राधा की उपेक्षा कर देते हो ठीक उसी प्रकार तुमने यहाँ पर भी उपेक्षा कर दी, चुपचाप खड़े रहे और युद्ध रूपी महारास रच गया। जाओ मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि यदुवंश भी ठीक इसी प्रकार आपस में युद्ध कर नष्ट हो जायेगा और तुम उपेक्षा के साथ वहाँ खड़े रहोगे। 

          रसेश्वर बोल उठे हे राजपुत्री तू क्या श्राप देगी ? मैं बाला का आराधक हूँ, बाला अर्थात राधा मेरी अर्धांगिनी है अतः मैं श्राप से परे हूँ। जो तू श्राप दे रही है वह मैं पहले ही निश्चित कर चुका । बाला के अलावा, राधा के अलावा मुझे किसी अन्य की अपेक्षा नहीं हैं अत: सब उपेक्षित हैं मेरे लिए, मैं सबकी उपेक्षा ही करता हूँ। यदुवंश को कब तक रहना है? कब नष्ट होना है? किस प्रकार नष्ट होना है? कैसे नष्ट होना है? क्यों नष्ट होना है ? इसका निर्णय किसी का श्राप नहीं करेगा अपितु इसका निर्णय मैं करूंगा और निर्णय कब का चुका है अत: तेरे श्राप को मैं गम्भीरता से नहीं लेता। यही श्रीविद्योपासना है और कृष्ण रूदन करती हुई गांधारी को छोड़ उपेक्षा पूर्वक चल दिए। 

       इस कथानक में श्रीविद्योपासना का महत्व भली-भांति उभरकर आता है। बाला का उपासक श्राप को भी टालना जानता है, बाला के उपासक के जीवन में उसकी स्व इच्छा क्रियाशील होती है। किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप चाहे वह श्राप के रूप में हो, आशीर्वाद के रूप में हो, वरदान के रूप में हो या किसी परतंत्र-परमंत्र - परयंत्र प्रयोग के रूप में हो कदापि क्रियाशील नहीं होता है। यह राज मार्ग की यात्रा है। बाला ने वशिष्ठ से कहा उठो वशिष्ठ जनमार्ग, वाममार्ग, लोकमार्ग, सामान्य मार्ग, प्रचलित मार्ग इत्यादि छोड़कर राजमार्ग पर राजाओं के समान चलो। राजा जब चलता है तो उसके मार्ग में उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं सुव्यवस्थित हो जाती हैं। समस्त कंकड़-पत्थर समस्त अवरोध, समस्त रुकावटें, समस्त बाधाएं समस्त विरोध राजा के साथ चलने वाली राजकीय शक्ति अर्थात बाला स्वतः ही हटा देती है, स्तवः ही दबा देती है। आप देखिए अगर कोई राष्ट्राध्यक्ष वायु मार्ग से, थल मार्ग से कहीं गमन करता है तो उसके आने से पूर्व ही सारी व्यवस्थाएं हो जाती हैं, रास्ते नव निर्मित कर दिए जाते हैं, अवरोध समाप्त कर दिए जाते हैं और राजा की सवारी निर्विघ्न यात्रा करती है।

        पराशक्तियों का पूजन विशेषकर भगवती बाला की उपासना आम जीवन जीने के लिए लोकाचार निभाने के लिए कदापि नहीं बनी है अतः मुट्ठी भर लोग ही बाला की साधना सम्पन्न कर सकते हैं। बाला उनके साथ इस प्रकार गमन करती है जिस प्रकार राधा कृष्ण के साथ सदा गमन करती हैं। राजाओं के लिए, राज करने वालों के लिए, राज प्रवृत्तियों से सुशोभित व्यक्तित्वों के लिए ही बाला साधना बनी है। जीवन की यात्रा राज्यपथ के समान हो इसलिए बाला साधना की जाती है। बाला अपने साधक के जीवन को निष्कण्टक बनाती है। कृष्ण के अवतरित होने से पूर्व ही राधा अवतरित हो गईं थीं, उन्होंने कृष्ण को गोद में खिलाया कृष्ण पर जब भी विपदा आयी बाला रूपी राधा सामने खड़ी हो गईं, कृष्ण का महाभाव हैं राधा कृष्ण के बारे में यह विख्यात था कि वह चम्पा के पुष्पों को देखते ही मूच्छित हो जाते थे, विशेषकर जहाँ उन्होंने चम्पा के पुष्पों से गुथीं माला देखी वे इन्द्रिय शून्य हो जाते थे क्योंकि राधा अपने केशों में चम्पा के पुष्पों की वेणियाँ गुथती थीं। 

कृष्ण की रानियों ने तो पुष्पों से श्रृंगार करना ही छोड़ दिया था। न जाने कौन सा पुष्प कृष्ण के अंतर्मन में राधा के भाव को प्रज्जवलित कर दे और शरीरी कृष्ण पुनः अशरीरी हो जायें। 

        कृष्ण की रानियाँ तो बस उनका शरीर लिए हुए ही रह गईं महाभाव में तो राधा ही कृष्ण के साथ हैं। यही हाल राधा का भी था वे मयूर पंख देखकर इन्द्रिय शून्य हो जाती थीं क्योंकि कृष्ण का प्रतीक है मयूर पंख। महाभाव एक अति परिष्कृत वैज्ञानिक प्रक्रिया है जो कुछ उत्पन्न होता है वह महाभाव में ही उत्पन्न होता है, अदृश्य से दृश्य महाभाव की स्थिति में ही होते हैं। इस पृथ्वी पर श्री उत्पादन महाभाव में ही सम्पन्न हुआ है, तंत्र क्षेत्र में महाभाव का बहुत महत्व है । महाभाव कुण्डली जागरण की स्थिति है एवं इस स्थिति में जल में, पाताल में, वायु में, अग्नि में, अंतरिक्ष में ब्रह्माण्ड में कहाँ क्या है ? सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ऐसा क्यों ? क्योंकि महाविद्या का तात्पर्य है तीन नेत्र वालों की पूजा, त्रिनेत्राओं की पूजा । दसों महाविद्याएं और उनके दसों शिव तीन-तीन नेत्रों से सुशोभित हैं। दो नेत्र धोखा खा सकते हैं, भटक सकते हैं, भ्रम में आ सकते हैं, सही को गलत और गलत को सही देख सकते हैं, पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं, दो नेत्रों की ज्योति धीमी पड़ सकती है, दृष्टि विहीनता आ सकती है, दृष्टि भ्रम हो सकता है परन्तु तीसरा नेत्र सीधे-सीधे सहस्त्रार से जुड़ा हुआ है अतः वह ऊपर वर्णित स्थितियों में नहीं उलझता, उसकी देखने की क्षमता असीमित है, वह ब्रह्माण्ड से भी परे झांककर देख सकता है। 

      हे माँ बाले तू तो बाल्य स्वरूपा है, साक्षात् बालिका बन शिव के साथ खेलती है, कभी अपने दोनों कोमल हाथों से बाल्य वश शिव के नेत्र मूंद लेती है, तेरे अलावा कौन और शिव के नेत्रों को ढँक सकता है तभी तो शिव तीसरा नेत्र लगा बैठे हैं, वे तेरे बाल्यपन को समझते हैं। कभी-कभी तो तू उनके तीसरे नेत्रों को भी ढँक देती है और शिव तेरे ही नेत्रों से सृष्टि का अवलोकन करते हैं। सत्य तो यह है कि हे बालिके तेरी पलकें कभी नहीं झपकती क्योंकि शिव के पास कोई और चारा भी नहीं है सृष्टि को तेरे नेत्रों से देखने के अलावा, उनकी तीनों आँखें तो तू मूंदे हुए बैठी हुई है। तेरी सहजता, तेरा बाल्यपन ही तेरे मंत्र के प्रथम बीज 'ऐं' में छिपा हुआ है। "ऐं" का तात्पर्य है ज्ञान, हे ज्ञान स्वरूपा बाले सृष्टि में समस्त ज्ञानों की उद्गमा तू ही है क्योंकि तू ही प्रश्न कर सकती है शिव से, तू ही बालकों के समान जिज्ञासा वश ब्रह्माण्ड का गोपनीय ज्ञान शिव से पूछ सकती है। तेरे बाल्य वश पूछने पर ही शिव उवाच करते हैं, तेरी समस्त जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए ही शिव ने वेद, पुराण, उपनिषदों, तंत्र ग्रंथों, कवचों,स्तोत्रों इत्यादि की रचना की है। तू बच्चों के समान पूछती रहती है और शिव धीर गम्भीर उवाच करते रहते हैं। 

      क्लीं बीजाक्षर भी तेरा ही है क्योंकि तुझसे ही तो जगत सम्मोहित है। जब तू मधुरता के साथ शिव से कुछ पूछती है तो शिव भी सम्मोहित हो जाते हैं, वशीभूत हो जाते हैं, स्तम्भित हो जाते हैं और तू उन्हें परम एकांत में ले जाकर श्रवण करती है, तू तो शिव का महाभाव है। हे बाला तेरा तीसरा बीजाक्षर है सौंः अर्थात गुरु रूपिणी, गौ रुपिणी, गणेश रुपिणी । बीजाक्षर सौं: में ग धातु ही छिपी हुई है। सृष्टि का समस्त ज्ञान शिव ने तेरे ही कर्णों के लिए निर्मित किया है, जैसे-जैसे शिव ज्ञान तेरे कर्णो के माध्यम से तेरे श्री युक्त शरीर में प्रविष्ट होता जाता है तू साक्षात् कामधेनु बन जाती है। हे शिव ज्ञान प्रिया, हे शिव ज्ञान तृप्ता तेरी तृप्ति के पश्चात् ही हम तेरे द्वारा दुग्ध रूप में शिव ज्ञान का श्री युक्त अमृत पान करते हैं। हे बाला तेरे स्तन मण्डलों की शोभा की क्या व्याख्या करुं? वे ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठतम्, परम सौन्दर्य युक्त, स्थूल अमृत कुम्भ हैं एवं तू अपने बालकों के लिए उनसे निरंतर अमृत स्त्रावित करती रहती है हे अमृतेश्वरी अमृत का स्त्राव ही तेरी प्रकृति है अतः सिद्धजन आल्हादित हो भ्रमरों का रूप धारण कर ह्रींकार मंत्र से सुशोभित हो तेरे सौन्दर्य युक्त, अमृतयुक्त स्तन मण्डलों के आसपास मंडराते रहते हैं। 

        मेरा दावा है कि जब तक कालीदास ने, चण्डीदास ने, तुलसीदास ने, वाल्मीकि ने, वशिष्ठ ने, दत्तात्रेय ने क्रोध-भट्टारक दुर्वासा ने, व्यास ने, आदिशंकराचार्य ने तेरी दिव्य स्तन मण्डल साधना को सम्पन्न नहीं किया तब तक वे कवि नहीं बन सके, पुराण पुरुष नहीं बन सके, ग्रंथकार एवं वेद रचियता नहीं बन सके। जब भी कभी मैं ध्यानस्थ होता हूँ तो अखिल ब्रह्माण्ड में तेरे दिव्य स्तन मण्डलों के ही दर्शन होते हैं, आगे कुछ कहना नहीं चाहता परम सौन्दर्य को गोपनीय रहने दो। हे बाले तुझमें ही वह शक्ति है कि तू शिव को श्रृंगारित कर सकती है। जया विजया के साथ मिलकर हे बाले तूने बालकों के समान खेलते हुए धूनी रमाये दिगम्बर, औघड़, हड्डियाँ धारण किए हुए, जटाजूट युक्त शिव को देखते ही देखते सौन्दर्यवान बना दिया। उनके शरीर से भस्म पोंछकर मिटा दी, उनका दुग्ध से महाभिषेक कर दिया, दीमकों की बाम्बीं उनके चारों तरफ से साफ कर दी, जटाजूटों को पुनः सुलझा दिया, केशों को सलीके से पुष्पों के साथ गूथ दिया, अस्थि माला की जगह रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी, कर्णों में कुण्डल पहना दिए, जटा को दिव्य पुष्पों से सुशोभित कर दिया, बढ़े हुए केशों को सलीके से काट दिया, दिगम्बर शिव के कंधों पर रेशमी वस्त्र डाल दिए, स्वयं के आंचल को फाड़कर उन्हें वस्त्र युक्त बना दिया, गले में पड़े सर्पों को निकाल फेंका। 

      जैसे ही तूने शिव की तपोभूमि को स्पर्श किया वह पुष्पों से लद गई, शिव तो पाषाण पर बैठा सूर्याग्नि भक्षण कर रहे थे पर जैसे ही तूने शिव भूमि को स्पर्श किया शिव के ऊपर कल्प वृक्ष छाया देने लगा। जो शिव भांग धतूरा खाते थे वह अब तेरे हाथों से अन्न भी खाने लगे। तूने जैसा चाहा अपनी सहजता वश, अपनी प्रसन्नतावश अपने खेलवश शिव को वह स्वरूप दे दिया। तू कहीं रूठ न जाये, तू कहीं बालकों के समान रोने न लगे अतः शिव कुछ नहीं बोलते। जैसा तू नचाती है वैसा वे नाचते हैं। शिव तेरे ही ध्यान में लीन रहते हैं, शिव को तेरी ही आदत है । हे माता जब साधक स्तम्भन सिद्ध करना चाहता है तो वह तेरा ध्यान पीले वस्त्रों में करता है, तुझे पीले अलंकारों से युक्त देखता है, तुझे पीले सिंहासन पर विराजमान देखता है। हे माता साधक जब वशीकरण सिद्ध करता है तो तेरा रक्त वर्ण का ध्यान करता है, वह चिंतन करता है कि मां लाल वस्त्रों से सुशोभित हैं, रक्त चंदन का लेप अपने स्तन मण्डल पर किए हुए हैं एवं माँ के शरीर से प्रातः कालीन सूर्य की रक्त वर्णीय किरणें निकल रहीं हैं और वह वशीकरण सिद्ध हो जाता है। 

           जिस रूप में तेरा ध्यान करो हे बाले वह रूप ही सिद्धिदायी है क्योंकि तू ही एकमात्र श्री स्वरूपा है, तेरे अलावा ध्यान करने के लिए इस ब्रह्माण्ड में है ही क्या ? कृष्ण थक गये युद्ध कर-कर के, सौ वर्षों का शरीरी वियोग अंतिम क्षणों में पहुँच चुका था अतः चल पड़े कुरुक्षेत्र की तरफ तर्पण हेतु। तर्पण तो बहाना था क्योंकि स्वयं अतृप्त थे, आज स्वतर्पण की आवश्यकता थी। कितना गूढ़ रहस्य है कि पहले स्वयं तृप्त होओ, स्वयं की प्यास बुझाओ तब जाकर तर्पण सफल होता है। अतृप्तता से ही तृप्तता का उदय होता है। राधा भी अतृप्त हो रही थीं जैसे ही उन्हें मालूम चला कि कृष्ण पुनः आ रहे हैं कुरुक्षेत्र में स्व तर्पण हेतु, स्व तृप्ति हेतु कृष्ण की तृप्ति राधा भी चल पड़ीं ब्रह्म सरोवर की ओर। वट वृक्ष के नीचे ब्रह्म सरोवर के सानिध्य में दो अतृप्तताएं बालकों के समान, बालकों की दृष्टि लिए हुए अपनी-अपनी तृप्तता की तलाश कर रहे थे। दौड़ पड़े कृष्ण और राधा एक दूसरे की तरफ, सारे लोकाचार, सारी मर्यादाएं, सारे शिष्टाचार, जग के असंख्य बंधन धरे के धरे रह गये और सौ वर्षों की अतृप्तता एक क्षण में मिट गई।

         कृष्ण राधा के हो गये और राधा कृष्ण की। रानियाँ देखती रह गईं, जनता देखती रह गई एवं सब बोल उठे हे राधा नहीं सम्हाल पाये हम कृष्ण को, नहीं बहला पाये हम कृष्ण को, नहीं फुसला पाये हम कृष्ण को नहीं भुलवा पाये हम कृष्ण को तेरी याद से अतः हे राधा, हे बाले कृष्ण हमारे वश का नहीं है लो सम्हालों अपने कृष्ण को, लो सम्हालों अपने बाल गोपाल को, लो सम्हालो अपने बालेश्वर को। बाला को ही शोभा देता है बालेश्वर किसी अन्य को नहीं। रुक्मिणी आदर पूर्वक, ससम्मान राधा को द्वारिका ले आयीं, एक दिन देखा कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़े हुए हैं रुक्मिणी घबरा गईं, सहम गईं कि यह क्या हुआ ? कृष्ण से पूछने लगीं। वास्तव में हुआ यह था कि रुक्मिणी ने राधा जी को भूलवश कुछ गर्म दुग्ध पान हेतु दे दिया था और महाभाविका कृष्ण के भाव में डूबी हुई उसे पी गई जिसका परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के पाँव में फफोले पड़ गये, रुक्मिणी समझ गई कि यह सब छलावा है राधा और कृष्ण दिखने में तो दो शरीर हैं परन्तु वास्तव में इनमें सम्पूर्ण एक्यता है, ये एक ही पिण्ड हैं,
क्रमशः

      जो राधा को अर्पित करो वह कृष्ण को अर्पित हो जाता है और जो कृष्ण को अर्पित करो वह राधा को अर्पित हो जाता है। महाभारत का युद्ध चल रहा था, चारों तरफ से घनघोर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा हो रही थी, रासेश्वर कृष्ण तभी अचानक युद्धरास रूपी महाभारत के मध्य में अर्जुन के रथ समेत पहुँच गये। कर्ण, अश्वत्थामा, भीष्म, दुर्योधन, शकुनि इत्यादि के तीरों से अर्जुन को बचाते-बचाते स्वयं कृष्ण का सम्पूर्ण शरीर तीरों से भिद गया, उनकी एक-एक जांघ में पाँच-पाँच तीर घुस गये, भुजाओं एवं हृदय भी तीर से भिद गये। प्रत्येक तीर लगने पर कृष्ण के मुख से निकलता "हा राधा" और दूसरे ही क्षण उनकी पीड़ा समाप्त हो जाती। तीर लगता कृष्ण को और जख्म बनते राधा के शरीर पर, लहु बहता राधा का परन्तु वह तो महाभाविका थीं अत: हँसकर दूसरे ही क्षण स्वस्थ हो जातीं एवं तीर की चुभन भी नहीं होती। महाभाव की अवस्था में मृत्यु कदापि नहीं होती अपितु मृत्यु तुल्य कष्ट भी तिरोहित हो जाते हैं। महाभाव की अवस्था में इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति का चरम तालमेल होता है। महाभाव की अवस्था समझने के लिए इन तीनों को समझना पड़ेगा। 

       कुछ लोगों में इच्छा शक्ति प्रबल होती है परन्तु इच्छा को पूर्ण कैसे किया जाय इसका ज्ञान नहीं होता, ज्ञान शक्ति के अभाव में क्रियाशक्ति पथ विहीन हो जाती है अतः जीवन में सफलता हेतु तीनों में सामंजस्य अत्यंत आवश्यक है। कुछ लोगों में इच्छा शक्ति भी होती है, ज्ञान शक्ति भी होती है परन्तु क्रियात्मक स्तर पर वे शून्य होते हैं अतः उन्हें सफलता नहीं मिलती। माँ भगवती बाला का मंत्र है "ऐं क्लीं सौः " ऐं ज्ञान शक्ति का प्रतीक है, क्लीं इच्छा शक्ति " का प्रतीक है और सौः क्रियाशक्ति का प्रतीक है जब तीनों में सामंजस्य हो जाता है तभी कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है अर्थात बाला क्रियाशील होती हैं। सिर्फ यह सोचते रहने से कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाये कुछ नहीं होगा, किताबों या गुरुजनों के माध्यम से कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञान हो जाने पर भी कुछ नहीं होगा क्रिया तो करनी पड़ेगी, साधना तो करनी पड़ेगी। जगत में मूढ़ता, शोषण, कुपोषण, अराजकता, दरिद्रता, अन्याय, विकृतता, प्रदूषणता, हिंसा, छीना-झपटी इत्यादि इसलिए है कि अधिकांशतः मनुष्यों में इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सामंजस्य नहीं है इसलिए असंतुलनता है, संतुलनता श्रीविद्या की उपासना में ही है। 

          आप रेल से यात्रा कीजिए असंख्य खेत लहलहाते दिखेंगे, असंख्य मकान और भवन दिखाई पड़ेंगे, न जाने कितनी नदियाँ दिखाई पड़ेंगी, अगणित भूमि आपको खाली दिखाई पड़ेगी, न जाने कितने कारखाने, कितनी नौकरियाँ, कितनी स्त्रियाँ, कितने पुरुष इत्यादि इत्यादि दिखाई पड़ेंगे फिर भी स्थिति यह है कि कुछ लोगों के पास खाने को नहीं हैं, कुछ लोगों के पास एक फुट जमीन नहीं है, कुछ लोगों के पास पीने को पानी नहीं है, कुछ लोगों के पास विवाह हेतु स्त्री नहीं है, कुछ लोगों के पास संतान नहीं है इत्यादि इत्यादि है। सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है आँखों से पर आपके पास क्यों नहीं है? क्योंकि कहीं न कहीं इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में असंतुलन है अतः बाला तत्व को ग्रहण कीजिए, भगवती बाला की साधना कीजिए और राज पथ पर चलिए। श्रीविद्योपासक बनिए इसी में कुल का कल्याण है।

                           शिव शासनत: शिव शासनत:

तीर्थ यात्रा विधान ।।

वास्तव में तीर्थ अगर करना है तो अपने शरीर में किया जा सकता है। इस के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। अगर भौहों को उर्ध्व चढ़ाया जा सके तो वहाँ काशि गति प्राप्त हो जाती है।अगर वहाँ अहं बुद्धि- देह अभिमान का त्याग हो जाए तो उसी का नाम काशी-मृत्यु है–यह कोई नई बात नहीं है। यह पद्धति उन के लिये है जिन्हें योग के द्वारा प्रवेश करने का अधिकार है। परंतु साधारण लोगों के लिए जिन्हें प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। वे तीर्थों में जाकर ठीक ढंग से अगर तीर्थ कर सकें, सात्विक भाव से,सदाचार परायण होकर, मन में सद्भाव रखते हुए। तीर्थ के अधिष्ठातृ देवी,देवता का ध्यान करते हुए तीर्थ यात्रा करें तो तीर्थ उन के प्रति प्रसन्न होता है।तब उसे जो देने लायक है, अपनी ओर से देता है अर्थात चित- शुद्धि होती है।
अब सवाल यह है कि तीर्थ- गमन या तीर्थ यात्रा कैसे करनी चाहिए? 
 इसका विवरण सूक्ष्म रूप से बता रहा हुँ। प्राचीन काल मे यह नियम था कि पहले संयम करना चाहिए, उस के बाद संयत भाव से लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहये। कुछ अन्य नियम हैं। झूठ मत बोलना, मिथ्या चिंता ना करें, अन्य कोई चिंता ना करें, घर- गृहस्थी की चिंता न करें। जिस तीर्थ की ओर जा रहे हैं, केवल उसी की चिंता करें। घर द्वार, बाल- बच्चे छोड़कर जा रहा हूँ सब को भूल जाना है। सभी बातों को भूल कर अधिष्ठातृ देवी अथवा देव की चिंता करनी चाहिए। अन्य लोगों से उतनी बातें ही करें जितना आवयश्क है। बाकी समय मन- प्राण इष्ट की ओर लगाये रखें,इष्ट का अर्थ है तीर्थ के देवता ।
जिस तीर्थ की ओर जा रहे हैं उस तीर्थ के अधिष्ठातृ देवी- देवता। 
यहाँ एक घटना का उल्लेख कर दूं । आज से 20 वर्ष पहले की बात है,पारुल नामक एक महिला थी। वे काशी में रहती थी । उनमें कुछ अस्वाभाविक स्थिति थी। अक्सर देव- देवी का दर्शन कर लेती थी।उन्हें देव -वाणी सुनाई देती थी। उन्होंने मुझे एक कहानी सुनाई थी। उन की एक बुआ थी । वे काशि में मरने के लिए व्याकुल हुई थी, पर उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इच्छा रहते हुए भी वह काशी नहीं आ पाई।
एक दिन की घटना की चर्चा करती हुई वे बोलीं की बंगाली खण्ड में एक जगह काशीखण्ड का पाठ चल रहा था। उस जगह पर वे उपस्थित थी। सहसा वहां पर उन की दृष्टि एक ओर गयी, जहां उनकी बुआ मौजूद थी। ये दृश्य देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन की काशी आने की आकांक्षा थी। लगता है, अब कोई सुविधा प्राप्त हो गयी है। पाठ समाप्त होने पर उन्होंने गौर किया कि बुआ जी बैठी हैं, अन्य लोगों के व्यवहार से ऐसा लगा की उन्हें कोई देख नहीं रहा है। उन्होंने बुआ जी से पूछा - 'मैं आप को देख रही हूँ ,कोई भूल तो नहीं है?' उतर मे बुआ ने कहा कि –'नहीं, भूल नहीं देख रही हो। मैं ही तुम्हारी बुआ हुँ। तब उन्होंने पूछा- 'अब काशी में आप आ गयी हैं ?' तब बुआ जी ने कहा कि― में विदेह अवस्था में हूँ। मृत्यु के समय मेरा प्राण भयानक व्याकुल हो गया था– विश्वनाथ दर्शन के लिए। मन ही मन कहती रही- हे विश्वनाथ, तुम्हारा दर्शन नहीं कर पाई। तभी देखा- सामने विश्वनाथ और काशी है। और स्वयं को काशी में उपस्थित पाया, आगे उन्होंने यह भी कहा कि- ' 'विश्वनाथ की कृपा से काशी- मृत्यु हुई है और विश्वनाथ की काशी में स्थान प्राप्त हुआ है।'
यह कैसे संभव हुआ ? शिव पर इतनी तीव्र भक्ति थी कि शिव ने बाह्यता आकांक्षा पूर्ण न करने पर भी भीतर से पूर्ण कर दिया था।
ये सब कहने का उद्देश्य यह है कि सभी चीजें हैं, पर उसे पाने के लिए भावना की ज़रूरत है। उस भाव से ना मांगने पर उन्हें पाया नहीं जा सकता। जो उन्हें उस रूप मे चाहेगा, वो पाएगा। जब तक उस भाव से नहीं पकड़ोगे तब तक नहीं पाओगे।।
तीर्थ यात्रा के लिए एक लक्ष्य रखना चाहिए। मैं कामाख्या जा रहा हूं तो कामाख्या की अधिष्ठात्री देवी की भगवति कामाख्या की ही चिंता करूँ गा। जब काशी जाऊंगा तब विश्वनाथ की ही चिंता करूँ गा, क्यों कि वे काशी के अधिष्ठाता देव हैं।
अर्थात जो लोग शास्त्रीय क्रिया नहीं कर सकते, यज्ञ- अनुष्ठान , यौगिक क्रिया आदी नहीं कर सकते , वे अगर तीर्थो की सेवा सात्विक नियमानुसार कर सकें तो भी उनका अन्तरशुद्ध हो जाता है। यही है तीर्थ यात्रा का विधान।