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हनुमान नाम स्तुति।।

          वैदिक संस्कृति में नामकरण संस्कार अत्यंत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। नामकरण संस्कार में बालक के सम्पूर्ण जीवन की गति, नियति एवं रहस्य छुपा हुआ होता है। नाम का अत्यंत ही महत्व जीवन में है। नामकरण संस्कार पूर्ण रूप से बालक के जन्म के समय ग्रह नक्षत्रों की स्थिति, मुहुर्त, काल और अन्य गणनाओं से निर्धारित होता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता है। नाम का असर दिखाई पड़ने लगता है। एक व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में उसका नाम करोड़ों मुखों से करोड़ों बार उच्चारित होता है और उच्चारण ही ध्वनि स्पंदन की संरचना करता है। जिस प्रकार का स्पंदन होगा व्यक्ति के उपर असर भी उसी प्रकार का पड़ेगा। 
        आज से 50 वर्ष पूर्व हमारे यहाँ नामकरण अत्यधिक सावधानी पूर्वक किया जाता था एवं प्रत्येक सनातनी स्त्री या पुरुष के नामों में ईश्वरीय शक्तियों का समावेश होता था। यही कारण था कि 50 वर्ष पूर्व जन्में व्यक्तियों में स्वस्थ मानसिक स्थिति, ग्रहस्थ जीवन एवं चरित्र की उत्तमता विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में पायी जाती थी। 50 वर्ष पूर्व जन्में व्यक्तियों में अध्यात्म के प्रति जिज्ञासा और ज्ञान भी प्रचुरता में था। राम नाम में इतनी शक्ति है कि इसके बार- बार उच्चारण से ही विष्णु तत्व स्वयं ही जाग्रत हो जाता है। और जिसका ईष्ट विष्णु हो उस पर तो देवी-देवता कृपा करते ही हैं। नाम की ही माया है इस संसार में शरीर तो नश्वर है परंतु नाम अजर-अमर है नाम में ही समस्त क्रिया सूक्ष्म रूप से समाहित हो जाती है। 
         सभी आध्यात्मिक पथ के साधक अपने ईष्ट के नाम का जप निरंतर करते रहते हैं। शिव को सिद्ध करना है तो शिव का मंत्र जपना ही पड़ेगा। अद्वैत से द्वैत स्वरूप में प्रकट होने की क्रिया केवल नाम के द्वारा ही संभव है। प्रभु ने केवल भोजन से ही शक्ति ग्रहण करने की क्षमता मनुष्य को नहीं दी है। करोड़ों ऐसे मार्ग बनाए हैं जिनके द्वारा दिव्यतम शक्ति ग्रहण की जा सकती है और उन्हीं में से एक शक्ति है ईष्ट के नाम की स्तुति के द्वारा शक्ति को ग्रहण करना । सामान्य मनुष्य सम्पूर्ण जीवन एकमुखी होते हैं, उनका सारा जीवन यंत्र के समान है इसीलिये एक नाम से ही जाने जाते हैं। 
        दिव्य पुरुष अपने जीवन काल में अनंत रूपों में जीते हैं इसीलिये उनके सहस्त्र नाम होते हैं । आदि शक्ति माँ भगवती, भगवान शिव, विष्णु, ब्रह्मा इत्यादि-इत्यादि अनेकों नामों से हैं। यही विराट स्वरूप है। मस्तिष्क के अंदर जो कुछ भी जाता है वह बीज रूप में जाता है और प्रत्येक बीज शक्ति का केन्द्र है। अच्छा नाम रखेंगे, पवित्र नाम रखेगे, दिव्य नाम रखेंगे तो बालक के अंदर निश्चित ही उत्कृष्टता उत्पन्न होगी। अगर बालक का नाम अंग्रेजी सभ्यता के अनुसार कुछ भी ऊंटपटांग रखेंगे तो सम्पूर्ण जीवन वह अपनी पहचान बनाने के लिये भटकता रहेगा। नाम बालक को पहचान देता है अतः माता पिता का यह कर्त्तव्य है कि बालक का विधिवत् नामकरण संस्कार करें एवं सम्पूर्ण जीवन बालक को उसी नाम से पुकारें। घटिया और ओछे नामों से बालक को कदापि न बुलायें इससे उसके चरित्र पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है। नाम मस्तिष्क को अनुभूति प्रदान करते हैं। जिस नाम से मस्तिष्क को अच्छी अनुभूति प्राप्त हो तो मस्तिष्क स्वतः ही दिव्य ऊर्जा का उत्पादन करेगा 
       आनंद रामायण में हनुमान जी की बारह नामों से स्तुति की गयी है। हनुमान जी की यह बारह नामों वाला दुर्लभ स्तुति प्रस्तुत की जा रही है

हनुमानञ्जनीसूनुर्वायुपुत्रो महावलः । 
रामेष्ट: फाल्गुनसरव: पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः ॥
उदधिक्रमणश्चैव सीताशोक विनाशनः । 
लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ॥ 
एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः । 
स्वापकाले प्रवोधे च यात्राकाले च यः पठत् ॥ 
तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत् । 
राजद्वारे गहवरे च भयं नास्ति कदाचन ॥

1. हनुमान - बाल्य अवस्था में इन्द्र ने हुनमान जी की ठोड़ी (हनु) पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया था। जिसके कारण वे मूर्छित हो कर गिर पड़े थे और इस घटना पर वायुदेव ने कुपित हो कर इन्द्र से युद्ध की घोषणा की थी। इसीलिये हनुमंत हनुमान कहलाये। 

2. अंजनीसुत - हनुमान जी की माता अंजनी वानरी कुल से थी एवं पूर्व जन्म में वे एक दिव्य अप्सरा थी परंतु किसी कारणवश शाप ग्रस्त हो जाने के कारण उन्हें वानर कुल में जन्म मिला । वैदिक धर्म में पुत्र को माता के नाम से ही जाना जाता है। 

3. वायुपुत्र - एक समय जब माता अजंनी वन में सूर्य देव की आराधना कर रही थी तब उन्हें अपने पास किसी के मौजूद होने का आभास हुआ। इस पर वे क्रोधित हो गयी परंतु उसी क्षण वायु देव प्रकट हो कर बोले हे अंजनी इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु शीघ्र ही अवतरित होने वाले हैं और उनकी सहायता के लिये भगवान शिव की आज्ञानुसार एक दिव्य व्यक्तित्व को भी उत्पन्न करने के लिये मुझे भेजा गया है एवं तुम्हारी ही कोख से मैं उसे उत्पन्न करना चाहता हूँ। अत: आप मेरी इस दिव्य संरचना में सहायता करें।

4. महाबल - अर्थात हनुमान अत्यन्त बलशाली हैं उनके बल का कोई बरावार नहीं पवन पुत्र होने के कारण वे वायु की तरह तेज चलते हैं इन्द्रादि समस्त देवी देवताओं की शक्ति उनमें समाहित है।. 

5. रामेष्ट - हनुमान भगवान श्री राम के सबसे प्रिय सेवक हैं। 
6. फाल्गुन सखा - अर्थात पाण्डव पुत्र श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के मित्र के रूप में भी हनुमंत ने महाभारत के युद्ध में अपनी समस्त शक्ति के साथ उनका साथ दिया है। जब अर्जुन के प्रेम में भगवान श्रीकृष्ण सारथी बन सकते हैं तो फिर हनुमंत भी अर्जुन के रथ की पताका पर आरूढ़ हो गये।

7. पिण्डाक्ष - हनुमंत की आंखों का रंग भूर है। 

8. अमित विक्रम - वे सभी देवी देवताओं की दिव्य शक्तियों से सम्पुट हैं इसीलिये वे अजर और अमर हैं एवं निरंतर सूर्य के समान अपने दिव्य आभामण्डल से रामत्व की सेवा में लीन हैं। 

9. उदधिकमण - हनुमंत ने माता सीता का पता लगाने के लिये रामेश्वर से सौ यौजन दूर समुद्र के बीचों-बीच बसे लंका तक की दूरी इस तरह लांघी मानो चार पैरों वाली गाय किसी जल रेखा को लांघती है। 

10. सीताशोक विनाशक - राम और सीता के पवित्र प्रेम बंधन में हनुमंत ही माध्यम हैं। भगवान श्रीराम के वियोग में व्याकुल सीता जी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाने वाले हनुमंत ही हैं। वे ही राम और सीता के बीच प्रेम के सेतु हैं । 

11. लक्ष्मण प्राणदाता - लंकाकाण्ड में मेघनाथ की शक्ति से मूर्च्छित लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा उन्होंने ही संजीवनी बूटी लाकर की है। राम जिन्हें लक्ष्मण स्वयं के भी प्राणों से ज्यादा प्रिय हैं उनकी रक्षा करने वाले हनुमान के प्रति तो श्रीराम के हृदय में अटूट प्रेम है। श्रीराम के अलावा समस्त अयोध्यावासी भी हनुमंत के प्रति कृतज्ञ हैं। 

12. दसग्रीव दर्पाहार - दस सिर वाले रावण के गर्व को तो हनुमान ने उसी दिन चकनाचूर कर दिया था जिस दिन अक्षय कुमार के वध के साथ-साथ समस्त लंका को अपनी पूंछ से जलाकर राख कर दिया था। 

      उपर वर्णित बारह नाम श्रीहनुमान जी के चमत्कारिक गुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके गुणों का स्मरण करने वाला उपासक उनके सहज आर्शीवाद को प्राप्त कर लेता है। श्री हनुमान जी को संकट मोचन के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। क्योंकि वे उपासक के संकट को निश्चित दूर करते हैं। श्री हनुमान जी के इन 12 नामों की स्तुति जो उपासक प्रातःकाल जागने पर रात में सोने से पहले और यात्रा में जाते समय करता है, वह निर्भय रहता है। उपासक चाहे राजद्वार में हो, चाहे युद्ध क्षेत्र में अथवा किसी भी बड़े संकट में फँसा हो, वह इस साधना से निर्भय रहता है।
                                         
                                     जय श्री राम

जय जय जय हनुमान गोसाँई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।

महावीर स्वामी ।।


महावीर जैन पंथ के चौबीसवें तीर्थंकर (आत्मज्ञानी महापुरुष) है। आज से लगभग ढ़ाई सहस्त्र वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व) में मगध साम्राज्य (वर्तमान बिहार राज्य) के वैशाली गणराज्य के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला की तीसरी संतान के रुप में चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जन्म हुआ। महावीर बाल्यावस्था नाम वर्धमान था। ऐतिहासिक रूप से महावीर ने प्राचीन भारत में जैन पंथ को पुनर्जीवित और प्रचारित किया, वह गौतम बुद्ध के समकालीन थे। 

तीस वर्ष आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर परिवार, राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण किया। महावीर ने गंभीर उपवास, शारीरिक कष्ट सहे, वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया और अपने वस्त्र भी त्याग दिए। महावीर स्वामी ने साढ़े बारह वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात 43 वर्ष आयु में केवल्य ज्ञान (अनंत ज्ञान या सर्वज्ञता) प्राप्त किया। महावीर के प्रसिद्ध पंचशील सिद्धांत में सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा, ब्रह्मचर्य सम्मिलित हैं। कल्प सूत्र के अनुसार, महावीर स्वामी के 14000 साधु (पुरुष संन्यासी), 36000 साध्वी (महिला संन्यासी), 159000 श्रावक (गृहस्थ पुरुष अनुयायी) और 318000 श्राविका (गृहस्थ महिला अनुयायी) थे। लगभग 30 वर्षों तक ज्ञान का प्रचार करने के पश्चात महावीर ने 72 वर्ष आयु में दीपावली दिवस को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के प्रसिद्ध कथन

अहिंसा परम धर्म है। समस्त प्राणियों (मनुष्य, पशु, पक्षी, जलचर आदि) के प्रति सम्मान अहिंसा है।

जिसकी सहायता से हम सत्य को जान सकते हैं, चंचल मन को नियंत्रित कर सकते हैं और आत्मा को शुद्ध कर सकते हैं, उसे ज्ञान कहते हैं।

वाणी के अनुशासन में असत्य बोलने से बचना और मौन का पालन करना सम्मिलित है।

केवल वह विज्ञान महान और सभी विज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ है, जिसका अध्ययन मनुष्य को सभी प्रकार के दुखों से मुक्त करता है।

यदि आपको सुखी रहना है तो सर्वदा स्मरण रखिए भगवान और अपनी मृत्यु।

आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है।

आत्मा अजर है अमर है, वह एक शरीर को छोड़ती है, दूसरे शरीर को धारण करती है, उसका कोई शत्रु, कोई हितेषी नहीं।

आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है। शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, अहंकार, लोभ, आसक्ति और घृणा।

जो अपने भीतर की आत्मा को नहीं पहचानता उससे बड़ा अज्ञानी कोई नहीं।

बाहरी त्याग अर्थहीन है यदि आत्मा आंतरिक बंधनों से जकड़ी रहती है।

स्वयं पर विजय प्राप्त करना, लाखों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने से उत्तम है।

एक जीवित शरीर केवल अंगों और मांस का एकीकरण नहीं है, अपितु यह आत्मा का निवास है जो संभावित रूप से परिपूर्ण धारणा (अनंत दर्शन), परिपूर्ण ज्ञान (अनंत ज्ञान), परिपूर्ण शक्ति (अनंत वीर्य) और परिपूर्ण आनंद (अनंत सुख) है।

एक सत्यवान मनुष्य उतना ही विश्वसनीय है जितनी माँ, उतना ही आदरणीय है जितना गुरु और उतना ही परमप्रिय है जितना ज्ञानी व्यक्ति।

मूल्यवान वस्तुओं की बात दूर है, एक तिनके के लिए भी लालच करना पाप को जन्म देता है। 

जिस प्रकार अग्नि को ईंधन डालकर नहीं बुझाया जा सकता, उसी प्रकार असंतुष्ट व्यक्ति को संसार की समस्त संपत्ति देकर भी संतुष्ट नहीं किया जा सकता।

जितना अधिक आप पाते हैं, उतना अधिक आप चाहते हैं, लाभ के साथ-साथ लालच बढ़ता जाता है। जो अल्प मात्रा स्वर्ण से पूर्ण किया जा सकता है, वह राजकोष से नहीं किया जा सकता।

जन्म का मृत्यु द्वारा, युवावस्था का वृद्धावस्था द्वारा और भाग्य का दुर्भाग्य द्वारा स्वागत किया जाता है। इस प्रकार इस संसार में सब कुछ क्षणिक है।

जिस प्रकार धागे से बंधी (ससुत्र) सुई खो जाने से सुरक्षित है, उसी प्रकार स्व-अध्ययन (ससुत्र) में लगा व्यक्ति खो नहीं सकता है।

जो भय का विचार करता है वह स्वयं को अकेला और असहाय पाता है।

प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है। आनंद बाहर से नहीं आता।

मुझे अनुराग और द्वेष, अभिमान और विनय, जिज्ञासा, भय, दुख, भोग और घृणा के बंधन का त्याग करने दें (समता को प्राप्त करने के लिए)।

अज्ञानी कर्म का प्रभाव समाप्त करने के लिए लाखों जन्म लेता है यद्यपि आध्यात्मिक ज्ञान रखने और अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति एक क्षण में उसे समाप्त कर देता है।

साहसी हो या कायर दोनों की मृत्यु निश्चित है। जब मृत्यु दोनों के लिए अपरिहार्य है, तो मुस्कराते हुए और धैर्य के साथ मृत्यु का स्वागत क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

ब्रह्मरस रहस्यम् ।।

        प्रहलाद का कुल बड़ा ही विचित्र कुल हैं। इसी कुल में अनेकों दैत्य ऋषि हुए हैं वास्तव में प्रहलाद का कुल दैत्य और ऋषियों का मिला जुला एक अद्भुत सम्मिश्रण है। शुम्भ निशुम्भ प्रहलाद के कुल में ही हुए जिसे देवी ने स्वयं अपने हाथों से मारा साक्षात् जगदम्बिका से संस्पर्शित हुए वे, हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दोनों विष्णु के द्वारा संस्पर्शित हुए, अंधक का वध शिव ने किया, वे शिव के द्वारा संस्पर्शित हो शिव गण बन बैठे। प्रहलाद की एक बहिन थी सिंहिका, जिनके पुत्र राहु थे एवं अमृत मंथन के समय राहु ने देवताओं की पंक्ति में बैठकर अमृत पान किया। कालान्तर विष्णु ने सुदर्शन । चक्र से उन्हें विभक्त कर अमृत्व प्रदान किया। राहु और केतु आज भी जीवित हैं। 
               प्रहलाद तो स्वयं श्रीहरि की गोद में बैठे हैं। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजा, शुक्राचार्य के पुत्रों ने प्रहलाद को दैत्य संस्कृति की शिक्षा एवं दीक्षायें प्रदान की। दैत्य संस्कृति का एकमात्र ध्येय था विष्णु द्रोह परन्तु प्रहलाद तो गर्भावस्था में ही नारद मुनि से विष्णु भक्ति ग्रहण कर चुके थे। हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर रहा था, तपस्या करते करते उसका शरीर पिंजर मात्र बन गया, मांस एवं रक्त पूरी तरह से सूख गये केवल ब्रह्म रंध्र में प्राण केन्द्रित होकर रह गये, श्वास-प्रश्वास भी रुक गई। इंन्द्र ने उसे शक्तिहीन समझ लिया और हिरण्यपुर पर आक्रमण कर दिया समस्त दैत्य मारे गये, कुछ भाग निकले। प्रहलाद अपनी माता के गर्भ में थे, इन्द्र ने उनको माता को बलात ले जाना चाहा परन्तु रास्ते में नारद मुनि मिल गये एवं किसी तरह प्रहलाद की माता को छुड़ाकर वे अपने आश्रम ले आये।
              गर्भ में ही प्रहलाद ने नारद मुनि से विष्णु दीक्षा प्राप्त की। कालान्तर ब्रह्मा जी प्रकट हुए हिरण्यकशिपु की तपस्या पूर्ण हुई, उसने ब्रह्मा से कहा मुझे अमर कर दो। ब्रह्मा ने कहा मैं खुद अमर नहीं हूँ, मेरी आयु मात्र सौ ब्रह्म वर्ष है अतः मैं तुझे कैसे अमर कर सकता हूँ। हिरण्यकशिपु ने कहा तो फिर आप के द्वारा सृजित समस्त सृजनों से यह कह दो कि उनके द्वारा मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊं । न देवता, न असुर, न दैत्य, न दानव, न मनुष्य, न पशु, न पक्षी, न वनस्पति, न वायु, न जल, न अग्नि, न पृथ्वी, न तेज इत्यादि किसी के द्वारा भी मेरा वध न होने पाये। न दिन में मरूं, न रात में, न बाहर मरूं, न अंदर, न पृथ्वी में, न आकाश में, न जल में, न वायु में कहीं भी मेरा किसी भी प्रकार के शस्त्र से वध न होने पाये, ब्रह्मा ने कहा तथास्तु । ब्रह्मा से वर प्राप्त हिरण्यकशिपु अब और भी उन्मक्त होकर विष्णु को खोजने लगा। उसका एकमात्र ध्येय था विष्णु की खोज। 
         सोते बैठते, उठते-जागते प्रत्येक क्रिया में वह विष्णु को खोजने लगा, उसका एकमात्र लक्ष्य थे विष्णु। उधर प्रहलाद ने गुरुकुल में विष्णु गान प्रारम्भ किया एवं देखते ही देखते दैत्य बालक विष्णु भक्ति में लीन हो गये। गुरु पुत्रों ने दण्ड दिया, प्रहलाद को बहुत समझाया पर सारे प्रयास निरर्थक हो गये। भरी राज सभा में प्रहलाद ने विष्णु का गुणगान कर दिया हिरण्यकशिपु के सामने, हिरण्यकशिपु आपा खो बैठा अग्नि में फेंक दिया उसने प्रहलाद को, सात मंजिल भवन से नीचे फेंक दिया, पहाड़ों से लुढ़का दिया, विष भी दे दिया पर प्रहलाद हर बार बच गये। क्रुद्ध गुरुपुत्रों ने प्रहलाद पर कृत्या चला दी, विष्णु आवरण के कारण कृत्या ने गुरु पुत्रों को ही मौत की नींद सुला दिया परन्तु प्रहलाद ने उन्हें पुनः जीवित कर दिया। आखिरकार हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को नागपाश से बांध कर समुद्र में डुबा दिया और ऊपर बड़े-बड़े शिला खण्ड रख दिए परन्तु गरुड़ पर सवार हो श्रीहरि आ गये, गरुड़ ने उन्हें पाश मुक्त कर दिया।
        प्रहलाद की अचेत अवस्था जब समाप्त हुई तो सामने श्रीहरि विराजमान थे। जैसे ही श्रीहरि ने प्रहलाद को अपने हाथों से संस्पर्शित किया हिरण्यकशिपु के भी समस्त पाप धुल गये, वह भी विष्णु द्रोह से मुक्त हो गया कुछ क्षण के लिए। जिस कुल को श्रीहरि स्वयं अपने हाथों से संस्पर्शित करते हैं उस कुल की तो पूर्व की सात एवं भविष्य की सात पीढ़ियाँ स्वत: ही विशुद्ध हो जाती हैं। स्वप्न में भी जिनके दर्शन दुर्लभ हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिए योगी, मुनीन्द्र इत्यादि नाना प्रकार की आध्यात्मिक क्रियाएं करते हैं, जिनकी प्राप्ति सबका एकमात्र लक्ष्य है उन्हीं की गोद में आज प्रहलाद बैठे हुए थे क्योंकि श्रृद्धा और विश्वास की आज परीक्षा होनी थी अतः श्रीहरि को आज आना ही पड़ा। एक बार फिर सभा में पुनः हिरण्यकशिपु के सामने प्रहलाद ने विष्णु का गुणगान कर दिया । 

           प्रहलाद बोले श्रीहरि सर्वमय हैं, सर्वव्याप्त हैं, इस सभा में भी हैं। मेरी सभा में श्रीहरि ? हिरण्यकशिपु प्रचण्ड क्रोधावेश में आ गया कहाँ हैं श्रीहरि बता ? प्रहलाद ने कहा सामने स्फटिक के खम्भे में हिरण्यकशिपु ने अपने घूंसे से जोरदार प्रहार किया बिल्लौर के खम्भे पर, घोर भैरव नाद होने लगा, अस्त होते हुए सूर्य की आड़ ले श्रीविष्णु ने नीले प्रभा पुंज के रूप में बैकुण्ठ धाम से शीघ्रगामी यात्रा प्रारम्भ की और सीधे खम्भे में से प्रकट हो गये, समस्त ब्रह्माण्ड स्तब्ध हो गया, नदियों की गति मंद पड़ गईं, वायु एक क्षण के लिए अति सौम्य हो गई, वृक्षों ने हिलना डुलना बंद कर दिया, पशु-पक्षी, मनुष्य जड़ हो गये, नरसिंह रूपी महाभैरव ने प्रचण्ड गर्जन किया और झपटकर हिरण्यकशिपु को जंघा पर पटककर विदीर्ण कर दिया, उसकी अंतड़ियाँ गले में माला के समान लपेट ली, हृदय को हाथ से मसल दिया। न दिन थी न रात, गोधूली की बेला थी । न शस्त्र थे न अस्त्र, नखों से ही फाड़ डाला। न नर थे न पशु, वे तो सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप थे। न महल के अंदर थे न महल के बाहर, चौखट पर मारा। न जल था न वायु, न पृथ्वी वह तो श्रीहरि की जंघा पर लेटा था। 
         नरसिंह अवतार ब्रह्मा का सृजन नहीं थे अपितु स्व सृजित थे, स्वयंभू थे । प्रहलाद की स्तुति ही उन्हें शांत कर सकी। उनके भाव प्रदेश में केवल प्रहलाद था अन्य कोई नहीं। बोले बेटा देर कर दी जल्दी आना था, शीघ्र आना था, क्षमा चाहता हूँ। श्रीहरि के यही उवाच नरसिंह तंत्र के महात्म्य को प्रदर्शित करता है। जब भक्त या साधक के भाव प्रदेश में केवल नरसिंह होते हैं तो ब्रह्माण्ड में मृत्यु, कष्ट, शत्रुता इत्यादि प्रदान करने वाले किसी भी तत्व का अति शीघ्रता के साथ संहार करते हैं नरसिंह | नरसिंह साधना तंत्र क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण साधना है, जितना शीघ्र परिणाम नरसिंह साधना देती है उतना कोई अन्य साधना नहीं। शीघ्रता ही नरसिंह साधना का केन्द्र बिन्दु है। जो करना है शीघ्रता के साथ करना है, जो प्राप्त करना है शीघ्रता के साथ प्राप्त करना है तो फिर नरसिंह साधना करनी ही पड़ेगी। जैसा रूप श्रीहरि धरते हैं उनके आवरण मण्डल में मौजूद समस्त शक्तियाँ एवं गण भी उन्हीं के समान स्वरूप धारण कर साधक और भक्त की रक्षा को तत्पर हो जाते हैं। 
           नरसिंह के साथ नारसिंही के रूप में महालक्ष्मी चलती है सभी वैष्णव गण भी नरसिंह रूप धारण कर लेते हैं। किसी भी प्रकार की नकारात्मक बाधा में नरसिंह साधना सबसे उत्तम है। विष्णु मृत्युंजय स्तोत्र कुछ नहीं सिर्फ नरसिंह साधना का ही एक आयाम है। आवेश तो विष्णु अवतारों का प्रमुख लक्षण है। श्रीकृष्ण चंद्र महाभारत युद्ध में भीष्म पर कुपित हो गये, इतने आवेग में आ गये कि रथ के पहिये को ही सुदर्शन चक्र बना भीष्म वध के लिए दौड़ पड़े साक्षात नरसिंह अवतार लग रहे थे। अर्जुन भी रथ से कूद पड़ा उन्हें कमर से पकड़ लिया परन्तु अर्जुन को भी घसीटते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। क्रोध के आवेग में समस्त प्रतिज्ञा, समस्त नियम-धर्म, समस्त आचार संहिता को वे भुला बैठे थे एवं उनका एकमात्र लक्ष्य था समस्त कौरव कुल का विनाश और पाण्डवों को हस्तिनापुर का सिंहासन दिलाना। 
           क्रोधावेश में श्रीकृष्णचंद्र बोले एक क्षण में ही मैं युद्ध समाप्त कर देता हूँ परन्तु अचानक अर्जुन के हाथ फिसलकर श्रीकृष्ण चंद्र के पाँव पर पड़ गये, उनका अंगुष्ठ अर्जुन से संस्पर्शित हो गया बस फिर क्या था क्रोधावेश जाता रहा, दूसरे ही क्षण कृष्ण पुनः सामान्य हो गये। नरसिंह तंत्र समझना है तो गुरु के अंगूठे को समझना पड़ेगा। गुरु अपनी सारी शक्ति अंगूठे में ही छिपाकर रखता है। अंगुष्ठ ने ही ब्रह्मरस को संस्पर्शित किया है, अंगुष्ठ के माध्यम से ही शक्ति संचालित की जाती है, आवेग नियंत्रित किए जाते हैं इसलिए अंगुष्ठ पूजन होता है । अंगुष्ठ में ही नरसिंह विराजमान हैं। शरीर का अंतिम कोना ही नरसिंह का मूल स्थान है। राम ने अंगुष्ठ से स्पर्श कर पाषाण हुई अहिल्या का पुनः उद्धार किया था। प्रहलाद ने अंगुष्ठ साधना ही सम्पन्न की थी। जब श्रीहरि महाभैरव नाद कर रहे थे नरसिंह अवतार के रूप में तब प्रहलाद ने श्रीहरि के पाद पदमों के दोनों अंगूठे पकड़ लिए थे। 
          जिन्हें देवता, देवियाँ, ऋषि-मुनि इत्यादि भी अपनी स्तुतियों से शांत और प्रसन्न नहीं कर पा रहे थे उन्हें प्रहलाद ने सिर्फ अंगुष्ठ संस्पर्श के माध्यम से ही निश्चल और सौम्य कर दिया था। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के अंगुष्ठों का ही स्पर्श किया और वे सारथी बनने को तैयार हो गये। दुर्योधन तो सिर की तरफ खड़ा था। प्रहलाद के पुत्र हुए विरोचन और विरोचन के पुत्र हुए बलि । देव द्रोह तो दैत्यों के खून में है, प्रहलाद भी उसे नहीं मिटा सके । 

बलि भी देव द्रोह की भावना से ग्रसित थे, अश्वमेघ यज्ञ कर रहे थे, विष्णु वामन रूप धर पहुँच गये। बलि से तीन पग भूमि मांग ली, दूसरे ही पग में विष्णु पुनः आवेशित हो गये एवं उनके अंगूठे के नाखून ने ब्रह्माण्ड | मण्डल में हत्का सा छिद्र कर दिया। नरसिंह क्रिया सम्पन्न हो गई एवं दिव्य ब्रह्म रस शिव लोक से छिद्र के द्वारा झड़ने लगा। ब्रह्मा ने तुरंत अपने कमण्डल' में ब्रह्म रस भर लिया। श्री विष्णु ने आज ब्रह्मा के लिए वास्तव में नरसिंह अवतार धारण किया था । 
       ब्रह्मा की संरचनाएं पुनः अमृतवान हों पुनः नित्य शुद्ध और नवीन बनी रहें इसके लिए उन्हें ब्रह्म रस की आवश्यकता थी और इसी हेतु उन्होंने भी नरसिंह साधना सम्पन्न की थी । ब्रह्म रस की प्राप्ति हेतु, शिवत्व की प्राप्ति हेतु, परम तत्व की प्राप्ति हेतु श्री हरि ने अपने वामन अवतार में अपने अंगुष्ठ के अग्र नख से ब्रह्माण्ड का छेदन किया, उसे विदीर्ण किया। जैसे ही ब्रह्मा का कमण्डल ब्रह्म रस से भरा श्री हरि ने अपना पाँव खींच लिया। लोग तो बलि वध देख रहे थे वामन अवतार में परन्तु ब्रह्मा की निगाह तो ब्रह्म रस पर थी। ब्रह्म रस ही पारद है और इस प्रकार ब्रह्मा ने नरसिंह साधना के माध्यम से अमृत्व प्रदान करने वाला ब्रह्म रस प्राप्त कर लिया। देवताओं समेत ब्रह्मा, विष्णु, यक्ष, गंधर्व, किन्नर एवं ब्रह्माण्ड के सभी जीवों और तत्वों को पशु स्परूप में परिवर्तित होने की क्रिया तो शिव ने त्रिपुर दाह के समय सिखा ही दी थी। शिव ने कहा तुम पशु हो, पशुत्व तुम सबमें विद्यमान है अतः पशुत्व को मत दबाओ, दबाने से पशुत्व मुक्त नहीं होगा अपितु पशु रूप जागृत करने की क्रिया सीखो। अपने अंदर के समस्त पशुत्व को जगाओ और देखो कि पशुत्व जागने के पश्चात् तुम किस प्रकार का रूप ग्रहण करते हो। 
       देवता आनाकानी करने लगे, उन्हें अविश्वास हो रहा था कि उनके अंदर भी पशुत्व है परन्तु शिव ने कहा जब तक सम्पूर्ण पशुत्व की प्राप्ति नहीं होगी सर्वमय रथ पर मैं सवार नहीं होऊंगा। शिव पशुत्व ही प्रदान करते हैं नंदी को वानर मुख प्रदान किया, विष्णु हयग्रीव बने अश्व का मुख लगाया, गणेश को गज का मुख लगाया, दक्ष को बकरे का सिर लगाया। दक्ष ने ही प्रजाओं की रचना की, देवताओं की रचना की जब उसे ही पशु मुख प्राप्त हो गया तब सृष्टि में सभी शिव के पशु हुए। शिव ने सबको पशुत्व दिया अत: आज भी सृष्टि में पशुतुल्य व्यवहार सर्वव्याप्त है। पशुतुल्य व्यवहार एवं पशु प्रवृत्ति से मुक्ति, पशुत्व का त्याग ही शिवत्व हैं, यही ब्रह्म रस रहस्यम् है। पशुत्व के अभाव में विशुद्ध शिवत्व है। अतः विशुद्ध शिवत्व की प्राप्ति हेतु ही पाशुपत, अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। 
           त्रिपुरदाह से पूर्व शिव ने आज्ञा दी कि ब्रह्मा विष्णु सहित सभी देवता और समस्त जीवों को कि वे महापाशुपत अनुष्ठान सम्पन्न करें। विष्णु ने बैकुण्ठ लोक त्याग नर्मदा के जल में खड़े होकर ॐ नमः शिवाय शुभम कुरु-कुरु शिवाय नमः ॐ का समस्त देवताओं और ब्रह्मा के साथ डेढ़ करोड़ मंत्र जप किया। मंत्र जप की समाप्ति होते ही सबके सब पूर्ण पशु रूप को प्राप्त हो गये। विष्णु बाण बन बैठे, अग्नि बाण की नोंक बन बैठे, ओंकार चाबुक बन बैठे, ब्रह्मा सारथी बन बैठे, सूर्य और चंद्रमा अपनी कलाओं के सहित रथ के पहिये बन बैठे, यहाँ तक कि धर्म, वेद, पुराण, ग्रंथ, अप्सरायें, यक्ष, मरुत गण, नक्षत्र सबके सब पूर्ण पशुभाव, अर्ध पशु भाव, अंशांश पशु भाव को प्राप्त हो बैठे। सबकी पशुता जाग उठी और ब्रह्माण्ड के समस्त पशुत्व के ऊपर शिव विराजमान हो गये परन्तु शिव के अंगूठे में गणेश उछलकूद कर रहे थे एवं उनका लक्ष्य पर से ध्यान भंग कर रहे थे। उनमें अभी पशुत्व नहीं जागृत हुआ था तत्काल सभी पशु रूपी देवताओं ने गणेश का पूजन कर उन्हें पूर्ण पशुत्व प्रदान किया। सूंड हिलाते, घोर अट्ठाहास करते, लाल नेत्रों के साथ गणपति ने पूर्ण पशुत्व रूप धारण कर लिया। दूसरे ही क्षण शिव ने पाशुपतास्त्र का घोर अनुसंधान कर त्रिपुर का दाह कर दिया। 

        शिव के रूप में पाशुपतास्त्र से सुसज्जित परम पशु का परम पशुत्व देखने योग्य था। आद्या भी घबरा गईं, पशुपति का रौद्र स्वरूप देख बस झट अपने अंगुष्ठ के अग्र नख से शिव केअंगुष्ठ को स्पर्श कर दिया दूसरे ही क्षण पशुपति शिव सौम्य हो गये। आज भी नरसिंह तंत्र साधना के माध्यम से अनेकों साधक नर्मदांचल में पशु रूप धारण कर लेते हैं, कोई सिंह बन जाता है, कोई सर्प बन जाता है, कोई पक्षी बन जाता है तो कोई भेड़िया या लोमड़ी में परिवर्तित हो जाता है। देखते ही देखते गोपनीय नरसिंह साधना के माध्यम से साधक अपना सम्पूर्ण पशुत्व जागृत कर कुछ देर के लिए सम्पूर्ण पशुरूप प्राप्त कर लेता है और पशु रूप में शत्रु का दमन कर देता है। पशुरूप में जब वह किसी अन्य पशु पर प्रहार करता है तो शत्रु पक्ष की छाती विदीर्ण हो गई होती है, उसके शरीर पर नोंचने के निशान दिखाई पड़ने लगते हैं या फिर वह किसी दुर्घटना में क्षत विक्षत हो गया होता है। 
            रूप परिवर्तन भाव प्रदेश के परम कोश में प्रवेश होकर सम्पन्न किया जाता है और उसके परिणाम सौ प्रतिशत सटीक होते हैं जब नरसिंह साधना के माध्यम से जातक भाव प्रदेश में प्रविष्टि सीख जाता है तो वह किसी के भी भाव प्रदेश में प्रविष्ट हो बलात पशु क्रिया सम्पन्न कर सकता है। कभी-कभी जातक को अचानक लकवा लग जाता है उसका विशेष अंग अक्रियाशील हो जाता है, अचानक वह स्वप्न में चौंक कर उठ बैठता है एवं उसके ऊपर भीषण भय दिखाई पड़ता है। यह सब नरसिंह साधना के माध्यम से ही होता है। जब शिव ने मातृकाओं को नियंत्रित करने हेतु नरसिंह भगवान का आह्वान किया था तब भगवान नरसिंह ने अपनी जीभ में से महाकाली का प्राकट्य कर दिया था जो कि उनके जिह्वा के अग्रभाग से उदित हो मातृकाओं का ही भक्षण करने हेतु दौड़ पड़ी थीं इस प्रकार मातृकाएं नियंत्रित हो गई थीं। धूमावती महाविद्या सबसे तीक्ष्ण महाविद्या हैं एवं इनसे बचाव हेतु नरसिंह साधना ही एकमात्र उपाय है। 
           नरसिंह साधना विष्णु के सर्वव्यापक होने का प्रमाण है, उनकी सर्वव्यापकता को प्रहलाद ने नरसिंह अवतार के माध्यम से ही सिद्ध किया अतः इस सर्व सुलभ साधना को कहीं पर भी, किसी भी समय, किसी भी प्रकार से सम्पन्न कर सकता है। यह साधना मुहूर्त विहीन है, साधन विहीन है, स्थान विहीन है परन्तु लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। लक्ष्य के अभाव में साधना के दुष्परिणाम आ सकते हैं। नरसिंह साधना हेतु किसी भी विशेष प्रयोजन की आवश्यकता नहीं है. मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव है कि नरसिंह भगवान जब प्रसन्न होते हैं साधक पर, जब उनकी विशेष कृपा होती है तो वे उसे किसी भी प्रपंच में उलझने नहीं देते। मनुष्य के रूप में मैंने कई बार देखा है कि हम गलती की ओर अग्रसर होते हैं, पतोन्मुखी मार्ग पर कदम बढ़ जाते हैं, भौतिकवाद की तरफ भागते हैं, मृत्यु के नजदीक अनायास ही पहुँच जाते हैं परन्तु हर बार यह वैष्णवी शक्ति किसी न किसी माध्यम से, किसी न किसी प्रयोजन से पुनः हमें सदमार्ग पर खींच लाती है, हमें भ्रष्ट नहीं होने देती, हर पल अपनी सर्वव्यापकता का रहसास कराती है एवं हम अपने लक्ष्य से नहीं भटक पाते हैं। 
          नरसिंह ध्यान के अभाव में तो हमारे भाव प्रदेश में, हमारे ध्यान केन्द्र में धन आकर बैठ जायेगा, स्त्री आकर बैठ जायेगी, नाना प्रकार के भौतिक प्रलोभन आकर बैठ जायेंगे, इस जगत का कोई भी चित्र हमारे भाव जगत में आकर प्रतिष्ठित हो सकता है और कालान्तर उस चित्र के माध्यम से सिवाय पतन के कुछ नहीं मिलता परन्तु जब स्वत: ही नरसिंह अवतार हमारे भाव प्रदेश के उच्चतम शिखर पर विराजमान होंगे तो फिर प्रत्येक पतोन्मुखी, ईश्वर मार्ग से विचलित करने वाले चित्र को वे अपने नखों से पूरी तरह विदीर्ण कर जातक. को भटकने नहीं देते, मरने नहीं देते। नरसिंह और प्रहलाद बस यही बचता है, गुरु और शिष्य बस यही बचता है और कुछ नहीं।

                    शिव शासनत: शिव शासनत:

दिव्य दर्पणम् ।।

         क्या धर्म को समाप्त हो जाना चाहिए? क्या अध्यात्म रूपी कामधेनु को शिव लोक में पुनः प्रस्थान कर जाना चाहिए? क्या इस पृथ्वी के मनुष्य धर्म एवं अध्यात्म के योग्य हैं ? ब्रह्मा निर्मित जीव को क्या वास्तव में अध्यात्म की जरुरत है ? यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार घुमड़ता है क्योंकि मैंने अपने जीवन में अध्यात्म रूपी कामधेनु का सिवाय शोषण के कुछ भी नहीं देखा है। कभी-कभी मैं भगवती त्रिपुर सुन्दरी से प्रार्थना कर उठता कि अध्यात्म का विलोप कर दीजिए इस संसार से। इतना शोषण, इतना दोहन, इतनी ठगी, इतनी लूटपाट, इतनी कृत्रिमता, इतना पाखंड, इतना व्याभिचार समस्त संसार में अध्यात्म के नाम पर है जितना कि कहीं और नहीं। ऐसा क्यों? बार-बार मेरा मन व्यथित होता है। अन्य क्षेत्रों में हो तो चल जायेगा परन्तु कम से कम हमें भगवान शिव द्वारा प्रदत्त इस दिव्य कामधेनु को तो छोड़ देना चाहिए। मेरा मन दहल उठता है कि क्या करूं? क्या न करूं? जब दूरदर्शन पर सज संवरकर, बन ठनकर, माथे पर नकली चंद्रमा लगाकर बैठे पाखंडियों को देखता हूँ, नकली ज्योतिषियों को देखता हूँ, नकली तांत्रिकों को देखता हूँ, महाव्याभिचारी संतों और प्रवचनकर्ताओं को देखता हूँ। क्या कहूं? तीर्थों के भी यही हाल हैं। नर्क के दर्शन करने हों तो तीर्थ स्थल पर जाओ। मठाधीशों को देखता हूँ, मुझे शर्म आती है । 

           यह सब क्या है ? इन सब मार्गों पर चलकर किसे मोक्ष प्राप्त होगा? कौन स्वयं को समझेगा, कौन आत्म दर्शन करेगा। भीड़ जुटा लेने से प्रचार-प्रसार कर लेने से क्या निर्गुण परब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी ? क्या आपका हृदय आपको माफ करेगा? क्या जरुरत है धर्म की ? हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी या तो अध्यात्म को स्वास्थ्य प्रदान करो या फिर इसका लोप कर दो मेरा मन बार-बार कहता है। मैं देख रहा हूँ अध्यात्म की नृशंस हत्या होते हुए, अध्यात्म को मरते हुए, अध्यात्म को अंतिम श्वासें लेते हुए। ऐसा मत समझिये कि सिर्फ यह भारत वर्ष की कहानी है अपितु यह एक वैश्विक स्थिति है। भारत वर्ष में तो अभी भी अध्यात्म बाकी है एवं प्रत्येक काल में वास्तविक अध्यात्मविद होते ही हैं क्योंकि भारत वर्ष भगवान शंकराचार्य की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि है। पाश्चात्य देशों में, अफ्रीकी महाद्वीप में तो स्थितियाँ बद से भी बदतर हैं। जितनी इजराइल की आबादी है उससे कहीं ज्यादा हमारे देश में तथाकथित साधु-संत, ज्योतिषी, तांत्रिक-मांत्रिक पंडित इत्यादि हैं अब यह आपकी दिव्यता, यह आपके ऊपर भगवती त्रिपुर सुन्दरी की कृपा है कि आपको वास्तविक सद्गुरु प्राप्त हो जाये, सर्वज्ञ प्राप्त हो जाये।

        मैंने आदि शंकराचार्य जी को भगवान कहा है। वे साक्षात् भगवान हैं क्योंकि वे इस पृथ्वी पर नाचने गाने, खाने-पहनने, विवाह करने, संतानोत्पत्ति में लिप्त होने, माया मोह में पड़ने, पढ़ने-लिखने, ज्ञान प्राप्त करने इत्यादि के लिए नहीं आये हैं अपितु वे कुछ वर्षों के लिए इस पृथ्वी पर उदित हुए। कहीं कोई शक नहीं, कहीं कोई संशय नहीं, कहीं कोई समय की बर्बादी नहीं, कहीं कोई व्यर्थता नहीं बस स्पष्ट लक्ष्य एक वर्ष की आयु में पूर्ण विकसित हो गये, तीन वर्ष की आयु में समस्त वेद कंठस्थ कर लिए, आठ वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया, 16 वर्ष की आयु तक ब्रह्मसूत्र रच लिए, 32 वर्ष की आयु तक साक्षात् शरभेश्वर बन गये एवं श्री शरभ तंत्रम् में निपुण हो गये। श्री शरभ का तात्पर्य क्या ? सर्वप्रथम विष्णु ने नरसिंह अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु की अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं उसकी अंतड़ियों को अपने गले में लपेट लिया माला के समान और उसके हृदय को अपने नखों से मसल दिया। दूसरी स्थिति में श्री शरभ ने नरसिंह को अपनी जंघा पर लिटाया और उसकी अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं गले में लपेट लीं। अंतड़ियों का महत्व समझो। हिरण्यकशिपु घोर नास्तिक था, मनुष्य गर्राता क्यों है? मनुष्य गर्राता इसलिए है क्योंकि उसका पेट भरा हुआ होता है। जब अंतड़ियाँ भोजन से भरी हुई होती हैं तो जीव गर्राता है, नरसिंह भी गर्रा रहे थे अतः श्री शरभ ने उनकी अंतड़ियाँ निकाल लीं। अंतड़ियाँ अर्थात उदर अर्थात विष्णु का निवास स्थान। श्रीविष्णु यथा स्थिति बनाये रखते हैं जब तक पेट भरा रहेगा, जब तक जीव में खाने एवं पचाने की क्षमता रहेगी तब तक वह जीवित रहता है। 

          ठीक इसी प्रकार भगवान शंकराचार्य ने 32 वर्ष की उम्र में साक्षात् श्री शरभ बन जैन, बौद्ध, वैष्णव,तथाकथित कौल मार्गियों, भैरव-वादियों, पाशुपत्यों,नास्तिकों, दार्शनिकों, कर्मवादियों द्वैत वादियों इत्यादि के मूर्खता, लम्पटता एवं कलुषितता भरे हुए,शोषण करने वाले, पथ भ्रष्ट करने वाले,भटकाने वाले, उलझाने वाले सिद्धांतों एवं दर्शनों की अंतड़ियाँ निकाल लीं। इस प्रकार सबके सब शक्ति विहीन हो गये और एक बार फिर वेदांत का परम ब्रह्माण्डीय .

सिद्धांत लहरा उठा।इन सब ब्रह्माण्डीय सिद्धांत लहरा उठा। इन सब तथाकथित धर्मों का हृदय तो वास्तव में वेदांत से भरा हुआ था चाहे बुद्ध हों, महावीर, चर्वाक या राधाकृष्ण के उपासक ये सबके सब वास्तव में तो जो कुछ बने वे वेदांत के सिद्धांतों के कारण ही बने। इन्होंने वेदों में से चुराया, कुछ किराये के लेखक,आचार्य, दार्शनिक इत्यादि रखकर वेदों एवं उपनिषदों के ज्ञान को अपनी स्वार्थ सिद्धता के लिए थोड़ा बहुत हेर-फेर करके अपने अनुरूप ढाला और दूसरी तरफ वेदांत की ही आलोचना करने लगे इसलिए इनकी अंतड़ियाँ निकालना जरुरी हो गया। क्या है तुम्हारा सिद्धांत ? क्या है तुम्हारा दर्शन ? कौन है तुम्हारा तीर्थंकर ? क्या कहना चाहते हो? कहाँ पहुँचाओगे तुम अपने अनुयायियों को? आओ बैठो बैठकर तय कर लेते हैं कितनी आध्यात्मिक शक्ति है तुममे आओ देख लेते हैं, कितने तुम सिद्ध हो आओ बैठकर तय कर लेते हैं। भगवान शंकराचार्य ने सभी द्वैत वादियों से कह दिया आओ मैदान में फैसला कर लेते हैं अगर तुम जीत गये तो मैं तुम्हारा धर्म स्वीकार कर लूंगा अन्यथा नाटक बंद कर दो, बहुत हुआ नाटक ।

          गया में बौद्ध बड़ी शान से भगवान शंकराचार्य से वाद विवाद करने पहुँचे परन्तु थोड़ी देर में हार गये और शंकराचार्य के चरणों में लोट गये बोले प्रभु आप सर्वज्ञ हैं परन्तु हम इनका क्या करें? यह रहा भगवान बुद्ध का विग्रह इसे हमने पूजा है, इसकी हमने आती उतारी है, इसे हमने फूल माला पहनाई है अतः इसका सम्मान कीजिए अब ये आप की कृपा पर निर्भर हैं। यही हाल जैनाचार्यों एवं उनके विग्रहों का हुआ, यही हाल कृष्ण के विग्रह का हुआ, यही हाल गणेश के विग्रह का हुआ, यही हाल यम के विग्रह का हुआ, यही हाल विष्णु के विग्रह का हुआ, यही हाल कर्म के सिद्धांत का हुआ। भगवान शंकराचार्य ने कहा पूजो बुद्ध को, पूजो महावीर को, पूजो यम को, पूजो महासरस्वती को, पूजो लक्ष्मी माता को इन्हें पूजने में कोई बुराई नहीं है मैं किसी का विरोधी नहीं, मैं मूर्ति भंजक नहीं, मैं किसी सिद्धांत के अस्तित्व पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ, मैं धार्मिक उन्मादी नहीं हूँ, मैं किसी की आस्था पर ठेस नहीं पहुँचा रहा हूँ अपितु मैं तो सत्य कह रहा ।

            इनकी उपासना से तुम्हें सिद्धि मिल सकती है, इनकी उपासना से तुम्हारे सांसारिक लक्ष्य पूरे हो सकते हैं, इनकी उपासना से तुम्हारे कार्य भी बन सकते हैं परन्तु यह परब्रह्म परमेश्वर नहीं हैं, ये निर्गुण एवं निराकार नहीं हैं, ये मोक्ष नहीं दे सकते हैं, ये जन्म एवं मृत्यु के बंधन से तुम्हें मुक्त नहीं कर सकते। हाँ तुम्हें रास्ता बतला सकते हैं, तुम्हारी सहायता कर सकते हैं परन्तु इन्हें परब्रह्म परमेश्वर मत कहो, ये परम सत्ता नहीं हैं। इन सबका उदय कर्म के अंतर्गत हुआ है, एक निश्चित कार्य को सम्पन्न करने के लिए हुआ है अतः ये सब काल के अधीन हैं और कालान्तर ये सब काल कवलित हो जायेंगे। स्वयं गया में जो कि उस समय बौद्धों का तीर्थ था भगवान शंकराचार्य ने बुद्ध को विष्णु अवतार घोषित किया एवं उनकी वैदिक विधि से पूजा अर्चना प्रारम्भ करवाई। बौद्धों को यह सत्य बताया कि स्वयं बुद्ध ने अपने जीवन में वेदांत का ही सहारा लिया, समय एवं परिस्थितिनुसार वेदांत के मार्ग में आयी अशुद्धियों की तरफ लोगों का ध्यान इंगित किया परन्तु कोई नई बात नहीं कही। आदि शंकराचार्य ने एक ही बात कही कि ब्रह्माण्ड का समस्त ज्ञान वेदों में निहित है, वेदों से परे कुछ नहीं है। बताओ किसने क्या नया खोजा? क्या नया सिद्धांत गढ़ा? क्या नवीन मार्ग बनाया ? दिखाओ अपने मार्ग को। कोई नहीं दिखा सका, आचार्य ने तुरंत अपने शंख पर ओंकारनाद करते हुए समस्त मतावलम्बियों का पुनः शुद्धिकरण कर दिया और उन्हें वैदिक परम्परा में ले आये। 

        भगवान शंकराचार्य अपने साथ एक विलक्षण शंख रखते थे जिसमें से कि ओंकारनाद प्रस्फुटित होता था, जहाँ भी वे जाते सर्वप्रथम ओंकारनाद करके उस जगह का शुद्धिकरण कर देते। सर्वज्ञता इस शब्द को हमें समझना होगा। सर्वज्ञता अत्यंत ही विलक्षण है, सर्वज्ञता के अभाव में ही आधे-अधूरे सिद्धांतों से मस्तिष्क लिप्त होता है। सर्वज्ञता का तात्पर्य है माया के आवरण से सर्वथा मुक्त, जब आँखों में सर्वज्ञता आ जाती है तो चाहे कितने भी घने मेघ क्यों न हों हम उन्हें भेदकर सूर्य के दर्शन कर लेते हैं। चाहे कितनी भी घोर अंधेरी रात क्यों न हो हम दूरस्थ वस्तु को देख लेते हैं। जो सर्वज्ञ होता है वह अपने अंदर ईश्वर के प्रतिबिम्ब को कभी भी, कहीं भी, किसी भी स्थिति में प्रदर्शित करने में सक्षम होता है। वह परब्रह्म परमेश्वर का दर्पण बन जाता है जिसमें उसका प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से आप देख सकते हो। सर्वज्ञता एक ऐसा दिव्य दर्पण है जो कि सामने वाले का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं दिखाता अपितु उसके वास्तविक स्वरूप को प्रदर्शित करता है।.

एक साधारण दर्पण केवल बिम्ब का प्रतिबिम्ब दिखाता है अगर एक वृद्ध बाल काले करके, चेहरे पर सौन्दर्य प्रसाधन लगाकर, कुछ स्वांग करके, कुछ बाजीगरी करके, कुछ ढँककर, किसी विशेष स्थिति में खड़े होकर दर्पण में देखता है तो वह युवा लग सकता है परन्तु जिसने सर्वज्ञता प्राप्त कर ली उसकी आँखों का दर्पण उस वृद्ध के रंगे हुए बालों, उसके सौन्दर्य प्रसाधन इत्यादि को भेदकर उसकी वृद्धता के दर्शन कर लेगा। वह पहचान जायेगा कि तुम वृद्ध हो, तुम जर्जर हो, तुम क्षय को प्राप्त हो चुके हो, तुम मृत्यु धर्मा हो, तुम युवा नहीं हो, तुम जाने वाले हो, तुम्हारी वास्तविकता छिपी नहीं है। यही शंकराचार्य ने किया उन्होंने पृथ्वी पर उगे कृत्रिम धर्मों की वृद्धता पहचान ली, कृष्कायता पहचान ली, शक्तिहीनता पहचान ली। 

         हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी नित्या केवल इस जगत में आप ही हैं बाकी सब स्वांग है। स्वांग एवं वास्तविकता में बहुत फर्क है। अब आज के किसी अभिनेता को अगर शंकराचार्य के जीवन का अभिनय करने के लिए कह दिया जाय तो वह चलचित्र के पर्दे पर भगवान शंकराचार्य का इतना सटीक अभिनय कर देगा कि शिवलोक में बैठे शिव भी शरमा जायेंगे। अभिनय की कला हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी आपने ही जीवों को प्रदान की है। हे भगवती तेरे चरण से 360 कलायें निकलती हैं जिनमें से मात्र 5 ही निवृत्ति कला हैं अर्थात निवृत्त करती हैं, मोक्ष मार्ग की तरफ जातक को अग्रसर करती हैं बाकी बची 355 कलाएं तो भोग मार्ग की हैं और उन्हीं में से एक कला अभिनय की भी है। अभिनय भी भोग का माध्यम है परन्तु अभिनेता, अभिनेता है वह शंकराचार्य नहीं है। वह तो कुछ भोग के लिए शंकराचार्य का स्वांग कर रहा है। हमें यह समझना होगा कि जितने भी कृत्रिम धर्म है वे सबके सब अभिनय कला से युक्त हैं, अभिनय कर रहे हैं मोक्ष प्रदान करने का परन्तु स्वयं मुक्त नहीं हैं वे क्या मोक्ष देंगे? किसे परब्रह्म चाहिए? यह सोचने का विषय है। 

        आवश्यकता अविष्कार की जननी है यह बात शंकराचार्य जी ने भी समझाई। अब धर्म क्षेत्र में द्वैत इतना अधिक क्यों बढ़ गया? क्योंकि लोगों को द्वैत चाहिए। लोगों को द्वैत क्यों चाहिए? यह भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा है। यह समस्त ब्रह्माण्ड भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच है, वे ही माया प्रपंच की संचालिका हैं यह बात हमें समझनी होगी। अब सभी मोक्ष की तरफ अग्रसर हो जायेंगे तो भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच कैसे चलेगा? अतः सृष्टि चलाने के लिए तो माया प्रपंच आवश्यक है जैसी भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा। वे सगुण परब्रह्म हैं, ह्रीं उनका मंत्र है। दूसरी तरफ निर्गुण, निराकार, निष्प्रपंच, निष्कलंक आद्य हैं और यह भी सत्य है कि वे नित्य हैं। आचार्य शंकर एक तरफ तो परम शिवोपासक हैं, संन्यासी हैं, हाथ में चंद्रमौलिश्वर लेकर चलते हैं। तो दूसरी तरफ भगवान शंकराचार्य भगवती त्रिपुर सुन्दरी के परम आराधक हैं। उनके द्वारा स्थापित सभी मठों में आज भी श्रीयंत्र की तांत्रोक्त पूजा अवश्यम्भावी है। एक तरफ वे निर्वाण षट्कम लिखते हैं तो दूसरी तरफ सौन्दर्य लहरी का गान कर रहे हैं। भगवती त्रिपुर सुन्दरी के एक-एक अंग का वर्णन कर रहे हैं, उनके सौन्दर्य में डूबे हुए हैं। स्वयं भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने उन्हें प्रकट होकर स्तन पान कराया है यही द्वंद है। निर्गुण ब्रह्म भी चाहिए एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी भी चाहिए। सगुण एवं निर्गुण के इसी खेल में बस जीव उलझ जाता है। सर्वज्ञता इसी में है कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी की आराधना के द्वारा जीव और शिव के बीच पड़े तीन आवरण रूपी मल अर्थात पर्दों को हटाया जाय और निर्गुण परम ब्रह्म के दर्शन किए जायें। निर्गुण परब्रह्म तक पहुँचने के लिए सगुण परब्रह्म के रास्ते से ही जाना होगा। .
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना में गुरु की आवश्यकता ।।

1:- मंत्र साधना के लिए गुरु धारण करना श्रेष्ट होता है.अगर गुरु न मिले तो भगवान शिव को गुरु मानकर साधना करें । 
2:- साधना से उठने वाली उर्जा को गुरु नियंत्रित और संतुलित करता है, जिससे साधना में जल्दी सफलता मिल जाती है.
3:- गुरु मंत्र का नित्य जप करते रहना चाहिए।अगर बैठकर ना कर पायें तो चलते फिरते भी आप मन्त्र जप कर सकते हैं।
4:- रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला धारण करने से आध्यात्मिक अनुकूलता मिलती है।
5:- रुद्राक्ष की माला आसानी से मिल जाती है आप उसी से जप कर सकते हैं।
6:- गुरु मन्त्र का जप करने के बाद उस माला को सदैव धारण कर सकते हैं।इस प्रकार आप मंत्र जप की उर्जा से जुड़े रहेंगे और यह रुद्राक्ष माला एक रक्षा कवच की तरह काम करेगा।

गुरु के बिना साधना

1:- स्तोत्र तथा सहत्रनाम साधनाएँ बिना गुरु के भी की जा सकती हैं।
2:- जिन मन्त्रों में 108 से ज्यादा अक्षर हों उनकी साधना बिना गुरु के भी की जा सकती हैं।
3:- शाबर मन्त्र तथा स्वप्न में मिले मन्त्र बिना गुरु के जप कर सकते हैं।
4:- गुरु के आभाव में स्तोत्र तथा सहत्रनाम साधनाएँ करने से पहले अपने इष्ट या भगवान शिव के मंत्र का एक पुरश्चरण यानि सवालाख जप कर लेना चाहिए।इसके अलावा हनुमान चालीसा का नित्य पाठ भी लाभदायक होता है।
    
मंत्र साधना करते समय सावधानियां
   
1:-मन्त्र तथा साधना को गुप्त रखें, ढिंढोरा ना पीटें, बेवजह अपनी साधना की चर्चा करते न फिरें।
2:- गुरु तथा इष्ट के प्रति अगाध श्रद्धा रखें। 
3:- आचार विचार व्यवहार शुद्ध रखें।
4:- बकवास और प्रलाप न करें।
5:- किसी पर गुस्सा न करें।
6:- यथासंभव मौन रहें,अगर सम्भव न हो तो जितना जरुरी हो केवल उतनी बात करें।
7:- ब्रह्मचर्य का पालन करें,विवाहित हों तो साधना काल में बहुत जरुरी होने पर अपनी पत्नी से सम्बन्ध रख सकते हैं।
8:- किसी स्त्री का चाहे वह नौकरानी क्यों न हो, अपमान न करें.
9:- जप और साधना का ढोल पीटते न रहें, इसे यथा संभव गोपनीय रखें।
10:-बेवजह किसी को तकलीफ पहुँचाने के लिए और अनैतिक कार्यों के लिए मन्त्रों का प्रयोग न करें।
11:- ऐसा करने पर परदैविक प्रकोप होता है जो सात पीढ़ियों तक अपना गलत प्रभाव दिखाता है।
12:- इसमें मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों का जन्म , लगातार गर्भपात, सन्तान ना होना , अल्पायु में मृत्यु या घोर दरिद्रता जैसी जटिलताएं भावी पीढ़ियों को झेलनी पड़ सकती है।
13:- भूत, प्रेत, जिन्न,पिशाच जैसी साधनाए भूलकर भी न करें, इन साधनाओं से तात्कालिक आर्थिक लाभ जैसी प्राप्तियां तो हो सकती हैं लेकिन साधक की साधनाएं या शरीर कमजोर होते ही उसे असीमित शारीरिक मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।ऐसी साधनाएं करने वाला साधक अंततः उसी योनि में चला जाता है।
14:-गुरु और देवता का कभी अपमान न करें।

मंत्रजप में दिशा,आसन,वस्त्र का महत्व

1:- साधना के लिए नदी तट, शिवमंदिर, देविमंदिर, एकांत कक्ष श्रेष्ट माना गया है।
2:- आसन में काले या लाल कम्बल का आसन सभी साधनाओं के लिए श्रेष्ट माना गया है।
3:- अलग अलग मन्त्र जाप करते समय दिशा, आसन और वस्त्र अलग अलग होते हैं।
4:- इनका अनुपालन करना लाभप्रद होता है।
5:- जप के दौरान भाव सबसे प्रमुख होता है,जितनी भावना के साथ जप करेंगे उतना लाभ ज्यादा होगा।
6:- यदि वस्त्र आसन दिशा नियमानुसार न हों तो भी केवल भावना सही होने पर साधनाएं फल प्रदान करती ही हैं।