Follow us for Latest Update

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं गुरुतत्व व्यापिनी श्रीत्रिपुर सौंदर्ये नमः ।।

             महाविद्याश्रम के मध्य में दिव्य कैलाश मंडल स्थित है एवं इस दिव्य कैलाश मंडल के ऊध्व भाग में महा कैलाश पर्वत विराट ऊंचाई लिए हुए स्थापित है। इसी कैलाश पर्वत की सबसे ऊंची चोटी पर शिव की पवित्र व्यास गुफा है जिसमें शिव एवं आद्य के अलावा सभी का प्रवेश वर्जित है। इस दिव्य आदि व्यास गुफा में शिव कुंडलिनी अनुसंधान करते हैं संपूर्ण तत्वों से स्वयं को काटकर भगवती त्रिपुरसुंदरी रूपी कुंडलिनी शक्ति के साथ एकांत में विहार करते हैं। यह सृष्टि 36 तत्वों से बनी हुई है अर्थात पृथ्वी से शिव पर्यन्त तक 36 तत्व हैं। इसके पश्चात शिव एवं परम तत्व भगवती त्रिपुरसुंदरी का प्रादुर्भाव होता है 36 तत्व कि इस सृष्टि में भगवती विभिन्न रूपों में विहार करती है। परंतु अन्त में उनका मिलन शिव तत्व से ही होता है। भगवती त्रिपुर सुंदरी के 36 तत्वों में विहार से ही प्रपंच रुपी सृष्टि का निर्माण होता है। शिव का सद्गुरु के रूप में प्रादुर्भाव तभी होता है जब वह आदि व्यास गुफा में स्वयं के मूलाधार से कुंडलिनी शक्ति को जागृत कर अपने सहस्त्रार में स्थापित करते हैं। यह आंतरिक क्रिया है, आंतरिक आनंद का विषय है एवं यही क्रिया शिव को परम योगी योगेश्वर के रूप में प्रतिष्ठित करती है।

         उन्हें ध्यान अवस्था प्रदान करती है उन्हें समय काल गति एवं संसार में उपस्थित नाना प्रकार के गुरुत्व बल से मुक्त कर परम गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करती है। जब कुंडलिनी शक्ति रूपा भगवती त्रिपुर सुंदरी एवं शिव का सहस्त्रार मंडल में एक्य हो जाता है तभी महायोगी समस्त ब्रह्मांड में सूक्ष्माती रूप में भ्रमण करने में सक्षम होते हैं। यह शिवा शिवा अनुष्ठान की क्रिया है एवं यही से अध्यात्म के वास्तविक द्वार खुलते हैं भगवती त्रिपुर सुंदरी के लोक का पर्दा इसी क्रिया से हटता है। और शिवम महाकामेश्वर बन भगवती त्रिपुर सुंदरी के मणिद्वीप में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुंडली का अनुसंधान तभी संभव है जब 36 तत्वों से निर्मित इस सृष्टि के सभी 36 तत्वों पर जातक संपूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। भगवती त्रिपुर सुंदरी परम निर्णय है उनकी निर्णयत्मकशक्ति ही वास्तव में विशुद्ध सत्य है। एवं अन्य सब निर्णय मिथ्या,असत्य एवं कृत्रिम है। और वे काल के साथ मृत्यु को प्राप्त होते हैं।सर्वप्रथम हम यह समझ ले कि भगवती त्रिपुर सुंदरी ही वास्तव में गुरु स्वरूपिणी है एवं इसके अनुसंधान के कारण इसके सानिध्य के कारण शिव जगत में जगत गुरु के नाम से शुप्रतिष्ठित होते हैं जो भी गुरु शब्द से संबोधित किया जाता है। उसे शिव के अनुरूप ही कुंडलिनी शक्ति का अनुसंधान करना होता है स्वयं के शरीर से अलग हो अपने प्रकाश में कुंडलिनी युक्त शरीर को विकसित करना होता है तभी वह सद्गुरु कहलाता है। 
         
          तभी वह ब्रह्मांडीय व्यक्तित्व कहलाता है तभी उसे शब्द सिद्धि होती है। अर्थात उसके मुख से निकला प्रत्येक शब्द अनंत काल तक चैतन्य आवृत्ति के रूप में क्रियाशील होता है उसकी प्रत्येक क्रिया अथाह जनमानस को कई युगों तक प्रेरित करने की शक्ति से युक्त होती है। उसका प्रत्येक शब्द ब्रह्म वाक्य होता है और अकाट्य होता है। वह अकाश मंडल पर ब्रह्म सत्य रूपी सूर्य के समान प्रकाशित होता रहता है।ऐसे ही सद्गुरु का स्थूल शरीर ध्यान के योग्य होता है और उसे ही जातक अपने सहस्त्रार में स्थापित करता है प्रतिक्षण ऐसे ही कुंडली जागृत सद्गुरु शिष्य के सहस्त्रार में स्थापित हो सास्वत आदेश प्रदान करते रहते हैं शाश्वत निर्णय प्रदान करते रहते हैं शाश्वत भाव में शिष्य के स्थूल शरीर को संचालित करते हुए क्रियाशील बनाए रखते हैं कुंडलिनी शक्ति तो कई प्रकार की है सूर्य कुंडलिनी है,चंद्र कुंडलिनी भी है ब्रह्म कुंडलिनी भी है इत्यादि इत्यादि देव कुंडलिनी भी है कृष्ण कुंडलिनी भी है। जब जातक की कुंडली जागृत हो जाती है तब उसके जन्मा अनुसार निर्मित उसकी स्थूल जन्म कुंडली निष्क्रिय हो जाती है कुंडलिनी शक्ति से युक्त जातक परम जागृत अवस्था में पहुंच शनी कुंडलिनी सूर्य कुंडलिनी बुध कुंडलिनी चंद्र कुंडलिनी इत्यादि इत्यादि से साक्षात्कार करता है। उसे संप्रेषण करता है वह स्थूल से परे हो जाता है गुरुत्वाकर्षण पर विजय प्राप्त कर लेता है। अतः ब्रह्मांड में ब्रह्मांडीय पुरुष बन सब जगह स्वच्छंद भाव से विचारता रहता है। कुंडलिनी जागृत पुरुष ही दिव्य पुरुष है वही शुद्ध प्रकाशय शरीर का अधिकारी है। 
 क्रमशः

          अतः ब्रह्मांड के समस्त रोग शोक ताप दाब इत्यादि उस पर निष्क्रिय हो जाते हैं। क्या कुंडलिनी मंत्र यंत्र तंत्र शक्ति भोग इत्यादि के माध्यम से जागृत हो सकती है? क्या कुंडलिनी शक्ति बनाने का कोई कारखाना है? कोई विधि है? कोई दुकान है? जहां यह बिकती हो कोई वैज्ञानिक प्रक्रिया है? जहां से यह प्राप्त हो सकती हो नहीं कदापि नहीं योग ध्यान मुद्रा शक्ति ज्ञान विज्ञान मंत्र तंत्र यंत्रसाधना इत्यादि शुद्धत्व प्रदान करेगी, सिखाएगी यह सब अति आवश्यक है परंतु कुंडलिनी शक्ति विशुद्ध रूप से भगवती त्रिपुर सुंदरी का विषय है। एवं उनकी कृपा से ही कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है वही एकमात्र अधिकारी ने है। जातक को कुंडलिनी शक्ति प्रदान करने की अन्य ऊपर वर्णित तरीकों से कुछ एक चक्रों तक ज्यादा से ज्यादा आज्ञा चक्र तक आप कुंडलिनी शक्ति को उठा सकते हैं। परंतु सहस्त्रार में कुंडलिनी शक्ति केवल भगवती त्रिपुर सुंदरी की कृपा से ही स्थापित होती है।
       
            बड़े भाग्य होते हैं तब जातक अध्यात्मिक की तरफ आकर्षित होता है उसके महाभागे होते हैं जब उसे शिव स्वरूप सद्गुरु की प्राप्ति होती है और परम भाग्य होते हैं तब जातक को सद्गुरु भगवती त्रिपुर सुंदरी का बोध कराते हैं।अगर गुरु कृपा करके शिष्य को भगवती त्रिपुर सुंदरी का बोध कराती देते हैं तब भी जातक उन्हें एक समान्य देवी देवता समझ उपासना करता है तब यह समझना कि अभी बहुत सारे कर्म बाकी है बहुत शिवा सुनाएं अतिरिक्त हैं अभी कई जन्मों तक संसार चक्र में फंसे रहना है इसलिए जातक भगवती त्रिपुर सुंदरी के विराट स्वरूप को भी नहीं पहचान पा रहा है अभी उसकी अंग प्रत्यंग दोनों है एवं युवा शक्ति को अपने अंगों के द्वारा छह कर रहा है उसने अभी ऊपर उठने की क्रिया नहीं सीखी है वह तो बस फैलने फैलाने के एवं करने में लगा हुआ है। आप रोज सुबह अखबार पढ़िए क्या है उसमें?केवल 36 अक्षरों वमाते गांव को विभिन्न तरीकों से मिलाकर कुछ शब्द चुनिए गए हैं कुछ कहानी रची गई है कुछ दृश्य उपलब्ध करा दिए गए हैं यह सब उसको जगत में होता है 36 तत्व रूपी 36 अक्षर मातृकाओ सहित उपलब्ध है पर उनका संयोजन सिर्फ गंदगी आलोचना वाद विवाद कलेस विषाद दुख पीड़ा गुप्ता लालच मानअपमान इत्यादि की ही रचना कर रहा है पर दिव्य तक कुछ भी नहीं बचा जा रहा है परंतु जब जातक कुंडली जागृत सद्गुरु की शरण में आ जाता है तब सद्गुरु इन्हीं 36 अक्षरों का मातृकाओं के संयोजन करा दिव्यातम वाणी, दिव्यतम तत्व की रचना करते हैं और जातक पुनः हर तल पर स्वस्थ हो जाता है कृष्ण ने अर्जुन को गीतोपदेश दिया गीता का उपदेश समस्त जीवो को कृष्ण के श्री मुख से प्राप्त हुआ। गीतोपदेश 36 अक्षरों एवं मात्रीकाओ के संयोजन से ही रचा गया है परंतु कई साल बीत गए पर आज भी सदगुरु की वाणी जीव जगत को स्वस्थ कर रही है। कुंडलिनी जागृत केवल कुंडलिनी जागृत सद्गुरु के सानिध्य में ही होता है एवं यही कुंडलिनी के जागृत होने की पहचान है।वहीं जातक भगवती त्रिपुर सुंदरी के लोक में प्रविष्ट हो जा सकता है।जिसकी कुंडलिनी जागृत हो वही तीनों त्रिपुरा में स्वच्छंद भाव से घूम सकता है कुंडलिनी जागरण की प्रक्रियामस्तिष्क की गुरुत्वाकर्षण रूपी भाव से मुक्त कर देती है।मस्तिष्क में तो नाना प्रकार के गुरुत्व तो भाव है। गुरुत्व तो किसमें नहीं है? दिव्य तीर्थ स्थानों में परम तत्व स्थापित है तभी तो असंख्य लोग वहां खींचे चले जाते हैं अभिनेताओं में भी गुरुत्व होता है और लोग उसके दीवाने हो जाते हैं शब्दों में भी गुरुत्व होता है लोग पढ़ते ही रह जाते हैं देश समय पिंड संबंध रूप ज्ञान विज्ञान मान सम्मान इत्यादि सभी में गुरुत्व है इसलिए लोग इनकी तरफ आकर्षित होते हैं खींचे चले आते हैं उनके इर्द-गिर्द घूमते हैं। गुरुत्व की तलाश में तो आदि काल से ही जीव को है। जिसने जितना गुरुत्व बल का अनुसंधान कर लिया उसने अपने अंदर उतना चुंबकत्व विकसित कर लिया। यह जरूरी नहीं है कि सभी की कुंडलिनी शक्ति संपूर्ण रूप से जागृत हो कवियों की लेखकों की कुंडलिनी शक्ति हृदय पक्ष तक जागृत होती है। रूपसी स्त्रियों मैं कुंडलिनी शक्ति नाभि पर आकर रुक जाती है अर्थात जल व तत्व में सक्रिय हो जाती है और इस प्रकार अप्सरा का उदय होता है। अप का तात्पर्य है जल अर्थात अप्सरा का अर्थ हुआ जल कुंडलिनी। वित्त का गुरुत्व विकसित करना है तो केवल नाभि पर ध्यान केंद्रित करो गजब का आकर्षण विकसित हो जाएगा। मूलाधार स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर इन तीनों चक्र में रूपसी स्त्रियों को पारंगता हासिल होती है और इसी के बल पर दुनिया उनके पीछे बोलती फिरती है।जो गायन में निपुण होते हैं उनका विशुद्धि चक्र विकसित होता है एवं उनकी कुंडलिनी शक्ति केवल विशुद्धि चक्र अर्थात कंठ तक ही विहार करती है।
क्रमशः

         कई लोग आज्ञा चक्र तक पहुंच जाते हैं ऐसे लोग बड़े उच्च कोटि के प्रशासक उच्च कोटि के राजनेता जनता के नायक मायावी अपनी बात मनवा लेने वाले अच्छे वक्ता इत्यादि बन जाते हैं कभी-कभी सहस्त्रार में पहुंचने से पहले कुंडली शक्ति बुद्धि पक्ष को पक्ष में जाकर विहार करने लगती है और जातक परम बुद्धिमान बन जाता है जीनियस हो जाता है ज्योतिष में निपुण हो जाता है उसका तर्क पक्षा काटते हो जाता है वह ग्रंथ निर्माणता भी बन सकता है। जिनकी जो प्रवृत्ति होती है वह कुंडलिनी शक्ति के जागृत होने के कारण होती है। पहले कहा 36 तत्वों से निर्मित लोक में भगवती त्रिपुर सुंदरी स्वच्छंद विचरण करती है एवं जहां जहां वह विचरण करती है बस वही विकास हो जाता है। वही क्रिया होने लगती है वहीं से विभिन्न ऊर्जाओं का उत्सर्जन होने लगता है। सद्गुरु का ध्यान कहां करना चाहिए? सद्गुरु का ध्यान सहस्त्रार में करना चाहिए सहस्त्र दल युक्त मंडप के बीच ही सद्गुरु को स्थापित करना चाहिए। प्रातः काल उठकर गुरु मंत्र का जप सहस्त्रार में ही करना चाहिए क्योंकि सहस्त्रार में जब गुरु स्थापित हो जाते हैं तो जीवन अद्भुत हो जाता है समस्या विहीन हो जाता है जीवन तीनों तापों से मुक्त हो जाता है। आदेश कहां से आते हैं? यह सब महत्वपूर्ण सिद्धांत है। निर्णय लेने की क्षमता क्या मनुष्य में है?क्या कोई मनुष्य हृदय पर हाथ रख कर कह सकता है कि उसने जो निर्णय लिए आज से 20 वर्ष 25 वर्ष 30 वर्ष पूर्व वह सहित हैं वह उनसे संतुष्ट है कोई नहीं कह सकता।एक राष्ट्र भी यह नहीं कह सकता एक समूह भी यह नहीं कह सकता संपूर्ण विश्व भी यह नहीं कह सकता कि पूर्व में लिए गए निर्णय सही थे निर्णय कई तरीकों से लिए जाते हैं मन से निर्णय लेना हृदय से निर्णय लेना आत्मा की आवाज पर निर्णय लेना भावनाओं में बहकर निर्णय लेना सोच समझकर निर्णय लेना जांच परख कर निर्णय लेना ज्ञान के माध्यम से निर्णय लेना विज्ञान के माध्यम से निर्णय लेना सामूहिक रूप से निर्णय लेना सबसे सलाह मशवरा करके निर्णय लेना। 

            परिचर्चा संवाद गोष्टी शोध विचार एकांत चिंतन अध्ययन इत्यादि अनंत काल से जीव सिर्फ इसलिए करता आ रहा है कि उसके निर्णय सही हो।जिव सजग है अपने निर्णयों के प्रति यू चैतन्य है अपने निर्णयों के प्रति पर कालांतर सभी निर्णय गलत साबित हुए। आज जर्मनी जापान अमेरिका रूस हाथ धोकर गिड़गिड़ा कर माफी मांगते हैं अपने निर्णय के प्रति जो उन्होंने युद्ध में लिए थे। पृथ्वी को विषाद करने के लिए मानवता के विनाश के लिए। क्यों वे मुआवजा देते हैं? क्यों बे क्षमा मांगते हैं? क्यों वेब पर्यावरण की बात करते हैं क्योंकि सारे निर्णय गलत साबित हुई। महाभारत युद्ध का सामूहिक निर्णय तो भीष्म करण दुर्योधन कृपाचार्य द्रोणाचार्य धृतराष्ट्र इत्यादि ने सोच विचार कर लिया था। सब गुरु थे परंतु सब के निर्णय गलत साबित हुए। आज जहां देखो वहां सामूहिक निर्णय रूपी तथाकथित संविधान ओ सिद्धांतों विचारधाराओं को परिवर्तित किया जा रहा है क्यों?क्योंकि किसी के भी सहस्त्रार में मां भगवती त्रिपुर सुंदरी सद्गुरु के रूप में स्थापित नहीं रही है इसलिए इन सिद्धांतों और विचारधाराओं में परिवर्तन लिए जा रहे हैं। कल तक जो साम्यवादी थे वे स्वयं अपने हाथों से अपने सिद्धांतों की शक्तियां हटा रहे हैं। चीन व्यापार की बात कर रहा है कहां गया उसका माओवाद? रूस तो पहले ही लेलिन को दफना चुका है। खोखला समाजवाद सभी देशों ने कचरे के डिब्बे में फेंक दिया है बेसिर पैर की मानवादीता की कीमत पृथ्वी ने बहुत बड़ी चुकाई है अध्यात्म वाद तो चिथड़े चिथड़े हैं। धर्म के नाम पर शासन व्यवस्था के परखच्चे भगवती त्रिपुर सुंदरी ने स्वयं करके रख दी है। क्या बुद्ध का निर्णय सही था? बुद्ध धर्म की स्थापना से क्या मिला मानव जाति को? कितना आध्यात्मिक विकसित कर पाएं बुध के नाम पर स्थापित पैगंबर के नाम पर स्थापित ईशा के नाम पर स्थापित धर्म। इन धर्मों में कितनो कि कुंडलिनी जागृत हुई? कितने ऊपर उठ पाए? यह सोचने का विषय है। कृत्रिमता कृत्रिमता है, शाश्वता शाश्वता है।

गुरु वाणी ।।

     अनंत काल से हमारे देश में गुरु शिष्य परंपरा रही है चाहे राम हो, चाहे कृष्ण, चाहे कबीर, चाहे मीरा, चाहे शंकराचार्य जी, चाहे गुरुनानक इत्यादि सब की सब महाविभूतियां श्री गुरु चरणों में बैठकर ही पल्लवित हुई है राह से भटके हुए मानव समूह पतन की तरफ जा रहे मानव समूह का पग पग पुनरुद्धार दिव्या गुरुओं के सानिध्य में ही हुआ है। गुरु परंपरा ने धूल को फूल बनाया है। हमारे देश पर जब जब संकट आया, आध्यात्मिक आक्रमण हुए गुरुओं ने अपने गुरुत्व के माध्यम से हमारी देव संस्कृति को जीवित रखा। अध्यात्म के क्षेत्र में गुरु प्रवेश द्वार है इसी द्वार के खुलने पर जातक अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्टि पाता है। आध्यात्मिक ऊर्जा केवल गुरु के माध्यम से ही प्राप्त होती है। भगवती त्रिपुर सुंदरी परम सत्य है एवं गुरु इनका अनुसंधान कर अपने अंदर परम तत्व एवं श्री तत्व के रूप में इन्हें संचित करता है और कालांतर शक्तिपात के माध्यम से वह अपने शिष्यों को परम तत्व प्रदान करता है।

 सद्गुरु के परम आलौकिक वर्णन ना की जाने वाली रहस्यमई चमत्कारी शक्तियां होती है जिसे की ज्ञान विज्ञान के माध्यम से नहीं समझा जा सकता अपितु अनुभव किया जा सकता है सद्गुरुओ की कुंडलिनी जागृत होती है वह शरीरी ही होते हुए भी असरीरी होते हैं उनका गुरुमय शरीर समस्त ब्रह्मांड में निरंतर भ्रमण करता रहता है। वे अपने शिष्य को स्वप्न में भी उपदेश देते हैं दीक्षा देते हैं। शरीर त्यागने के पश्चात भी वे पूर्ण चेतन एवं क्रियाशील होते हैं और समय-समय पर अपने शिष्यों का ध्यानस्थ अवस्था में मार्ग निर्देशन करते रहते हैं उन्हें संकट से भी उबारते रहते हैं। शिष्य के विशेषाधिकार होते हैं शिष्य अपने स्व गुरु से प्रश्न करता है शंका का समाधान कर सकता है समस्या के निवारण हेतु प्रार्थना कर सकता है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, दीक्षा प्राप्त करते ही शिष्य को गुरु के ज्ञान का सर्वभोमिक अधिकार स्वत: ही प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार वह एक तरह से गुरुचेतना का अधिकारी हो जाता है। यही अधिकार जब शिष्य समझ पाता है तब जाकर वह वास्तविक अध्यात्म का जिज्ञासु कहलाता है। 

गुरु शिष्य को स्वावलंबी बनाता है खुद कमाओ खूद खाओ, दूसरों को भी खिलाओ इसलिए गुरु शिष्य को मंत्र विशेष, देवता विशेष की दीक्षा प्रदान करता है उससे जप तप करवाता है, उसे पूजन पद्धति सिखा अनुष्ठान करवाता है ताकि शिष्य को स्वावलंबी बना सके स्वयं विकसित हो सके एवं वक्त आने पर गुरु शिष्य की योग्यता देख उसे अधिकार भी देता है, उसे दिव्य एवं अलौकिक सिद्धियों और शक्तियों का हस्तांतरण भी करता है, उसकी कुंडलिनी भी जागृत करता है सतगुरु स्वयं अपने योग शिष्यों को ढूंढता है एवं जब उसे समझ में आ जाता है कि उसका कार्यकाल समाप्त हुआ तब वह अपने संध्याकाल में केवल अपने योग्य उत्तराधिकारी को तरासता है कालांतर शिष्य विशेष के दायित्व का निर्वाह करता है। 

सभी गुरु है सभी ने अपने जीवन में एक ना एक बार स्वयं गुरु बनकर गुरु के मर्म को जाना है। भगवान शिव, भगवती उमा, गणेश जी, कार्तिकेय जी, नारद जी, वेदव्यास जी, सनक, सुनंदन, इंद्र, कुबेर, सूर्य, चंद्र,शनि इत्यादि इत्यादि सभी किसी ना किसी के गुरु हैं। हनुमान जी के गुरु सूर्य भगवान बने। यमराज जैसे क्रूर देवता भी नचिकेता के गुरु बन गए और नचिकेता के सामने यमराज को पिघलना पड़ा उनका हृदय भी अपने शिष्य के लिए द्रवित हो गया। विष्णु जी भी गुरु है, ब्रह्मा जी भी गुरु है अर्थात इस सृष्टि के सभी प्रमुख देवी देवता अपने संघ, अपने गणों, अपने शिष्यों के साथ गमन करते हैं। सभी अपने शिष्यों के कल्याण के लिए अथक प्रयत्न करते हैं शुक्राचार्य जी ने काबा में तपस्या की और इस प्रकार इस्लाम का उदय काबा से ही हुआ, काबा गुरु शुक्राचार्य की तपोस्थली है। सभी ऊपर वर्णित गुरु तत्व के मुख पर शिष्यों को देख प्रसन्नता के भाव ही उत्पन्न होते हैं। गुरु शिष्य संबंध अंतर्मन के संबंध हैं, अंदर का आयाम है। गुरु और शिष्य के हृदय एक साथ धड़कते हैं, वह हृदय की धड़कनों से आपस में जुड़े हुए हैं। गुरु शिष्य को प्रेम करता है और गुरु शिष्य से ही हारता है। अपना सर्वस्व शिष्य के कल्याण हेतु समर्पित कर देता है।


माँ कामाख्या ।।

सनातन धर्म एक कल्पवृक्ष के समान है इसकी अनेकों शाखाएं-प्रशाखाएं है। सनातन धर्म में विभिन्न मतों के विभिन्न पद्धतियों के ऋषि-मुनियों का अद्भुत समायोजन है सनातन धर्म में अत्यंत ही स्वच्छंदता वैज्ञानिक विश्लेषण और तर्क के साथ-साथ निरपेक्ष ध्यान का एक अलौकिक सामंजस है सनातन धर्म का खुलापन उसे गहनता और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करता है शक्ति उपासना के माध्यम से स्वच्छ एवं स्वस्थ माताओं की उत्पत्ति होती है जो कि सृष्टि में उत्तम संतान प्रदान करने में सक्षम होती है। भ्रूण हत्या गो वध को सनातन धर्म महापाप की दृष्टि से देखता है। वशिष्ठ ने राम को अश्वमेध यज्ञ में बिना सीता के बैठने पर प्रतिबंधित कर दिया अंततः राम को इसका निवारण करना पड़ा। शक्ति उपासक लाल तिलक लगाते हैं और शैव उपासक चंदन का त्रिपुंड बनाते हैं। चंदन पुरुषार्थ का प्रतीक है तो वही लाल तिलक स्त्री रक्त का प्रतीक है। पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से संतानोत्पत्ति भारतवर्ष में शुरू से प्रचलित रही है कुमारी पूजन सर्वतो भद्रमंडल पूजन, श्रीयंत्र पूजन, त्रिपुर सुंदरी आराधना, दसमहाविद्या अनुष्ठान इत्यादि यह सब मात्री पूजन अर्थात कामाख्या मंडल पूजन के अंतर्गत ही आते हैं। मात्री शक्ति आदि उत्पादक है संसार के सभी पदार्थों में स्वयं उत्पादन मात्री शक्ति से ही प्राप्त किया है। पक्षी हजारों मील दूर से उड़कर एक छोर से दूसरे छोर पर जाकर प्रजनन करते हैं। मात्र प्रजनन के लिए लंबी यात्राएं करते हैं संतति उत्पादन अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। हम उत्पाद को देखते हैं उसे महिमामंडित करते हैं हम किसी महापुरुष की प्रशंसा करते हैं परंतु वह विलक्षण किसने निर्मित किया? किस प्रकार निर्मित किया? उनकी निमात्री कौन है? यह मुख्य विज्ञान का विषय है एवं इसे ही कहते हैं महाज्ञान, कुल ज्ञान अतः स्थान आदरणीय हो जाता है। भारतवर्ष एक रहस्यमय देश है, इसके कण कण में रहस्य व्याप्त है। यहां पर कामाख्या साधना के माध्यम से साधक बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। यंत्र तंत्र क्षेत्र में अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। कामाख्या शक्तिपीठ के पवित्र धागे या वस्त्र को धारण करने से साधक की अनेकों प्रकार की अभिचार क्रियाओं से स्वत: ही रक्षा होती है। तंत्र क्षेत्र में अध्यात्म के क्षेत्र में साधक जब तक कामाख्या शक्तिपीठ की यात्रा नहीं करता वहां साधनाएं संपन्न नहीं करता वह अपूर्ण है। कामाख्या शक्तिपीठ की अनेकों उप पीठें भारतवर्ष में जगह जगह मौजूद है और गुरु लोग पारद निर्मित योनि के द्वारा साधकों से कामाख्या साधना करवाते हैं। सिद्धि, विलक्षण गोपनीय शक्तियांँ, तंत्र, ज्योतिष, मंत्र एवं यंत्र शक्ति विग्रह पूजन इत्यादि सनातन धर्म का अभिन्न अंग है। योग, यज्ञानुष्ठान, प्रयोग सनातन धर्म को पोथी पंथी होने से बचाता है यह हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा रचित प्रणाली है अतः इन पर शंका करना उनका मजाक उड़ाना सनातन कुल को नष्ट करने की प्रक्रिया है। कुल में कुल द्रोही ना हो, कुल नाशक ना हो, कुल विरोधी ना हो इसलिए कामाख्या की सकाम उपासना करनी चाहिए।

गुरु, आचार्य, पुरोहित, पंडित और पुजारी में वास्तविक अंतर ।।

    प्राय: लोग जाने अनजाने में पुजारी को पंडित जी या पुरोहित को आचार्य भी कह देते हैं और सुनने वाले भी उन्हें सही ज्ञान नहीं दे पाता है। यह विशेष पदों के नाम हैं जिनका किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं। हम जानते हैं कि उक्त शब्दों का सही अर्थ :

गुरु: गु का अर्थ अंधकार और रु का अर्थ प्रकाश। अर्थात जो व्यक्ति आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु होता है।अंधकार का नाश करने वाला। अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है। गुरु आत्म विकास और परमात्मा की बात करता है। प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है। केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है। गुरु का अर्थ ब्रह्म ज्ञान का मार्गदर्शक।

आचार्य: आचार्य उसे कहते हैं जिसे वेदों और शास्त्रों का ज्ञान हो और जो गुरुकुल में विद्यार्थियों को शिक्षा देने का कार्य करता हो।आचार, नियमों और सिद्धातों आदि का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो।कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो उसे भी आचार्य कहा जाता था। आजकल आचार्य किसी महाविद्यालय के प्रधान अधिकारी और अध्यापक को कहा जाता है।

पुरोहित: पुरोहित दो शब्दों से बना है:- 'पर' तथा 'हित', अर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे। प्राचीन काल में आश्रम प्रमुख को पुरोहित कहते थे जहां शिक्षा दी जाती थी। हालांकि यज्ञ कर्म करने वाले मुख्य व्यक्ति को भी पुरोहित कहा जाता था। यह पुरोहित सभी तरह के संस्कार कराने के लिए भी नियुक्त होता है। प्रचीनकाल में किसी राजघराने से भी पुरोहित संबंधित होते थे। अर्थात राज दरबार में पुरोहित नियुक्त होते थे, जो धर्म-कर्म का कार्य देखने के साथ ही सलाहकार समीति में शामिल रहते थे।

पुजारी: पूजा और पाठ से संबंधित इस शब्द का अर्थ स्वत: ही प्रकाट होता है। अर्थात जो मंदिर या अन्य किसी स्थान पर पूजा पाठ करता हो वह पुजारी। किसी देवी-देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा करने वाले व्यक्ति को पुजारी कहा जाता है। 

पंडित: पंडः का अर्थ होता है विद्वता। किसी विशेष ज्ञान में पारंगत होने को ही पांडित्य कहते हैं। पंडित का अर्थ होता है किसी ज्ञान विशेष में दक्ष या कुशल। इसे विद्वान या निपुण भी कह सकते हैं। किसी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाला ही पंडित होता है। प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि के बहुत बड़े ज्ञाता को पंडित कहा जाता था। इस पंडित को ही पाण्डेय, पाण्डे, पण्ड्या कहते हैं। आजकल यह नाम ब्रह्मणों का उपनाम भी बन गया है। कश्मीर के ब्राह्मणों को तो कश्मीरी पंडितों के नाम से ही जाना जाता है। पंडित की पत्नी को देशी भाषा में पंडिताइन कहने का चलन है।

ब्राह्मण: ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है। जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं। स्मृति पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है जिसका किसी जाति या समाज से कोई संबंध नहीं।

क्यों जरूरी है चरित्र निर्माण ?

   चरित्र ; किसी व्यक्ति के विश्वास , मूल्य , सोच-विचार और व्यक्तित्व का मेल होता है , इसका पता हमारे कार्य और व्यवहार से चलता है ।
चरित्र की रक्षा किसी अन्य धन की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

        जीवन में सच्ची सफलता पाने के लिए व्यक्ति का चरित्रवान होना जरूरी है , सच्ची सफलता से आशय एक ऐसे उद्देश्य की प्राप्ति से है , जो हमारे साथ-साथ समाज के लिए भी कल्याणकारी हो , जो शाश्वत हो और जिसकी प्राप्ति हमें हर प्रकार से संतुष्टि दे सके और जिसे पाने के बाद किसी अन्य चीज को पाने की ईच्छा न रहे , ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति ही सच्ची सफलता कहलाती है ।

फिर भी सफलता और सुख इन दोनों की परिभाषा प्रत्येक इंसान के लिए अलग-अलग होती है । कोई बहुत सारे पैसे कमाने को सफलता मानता है तो कोई किसी विशेष पद पर पहुँचने और प्रसिद्धि पाने को सफलता समझता है , अतः संक्षेप में कह सकते हैं कि किसी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति करना ही सफलता कहलाती है ।

        चरित्र के बिना व्यक्ति का जीवन वैसा ही है जैसे बिना रीढ़ की हड्डी के शरीर होता है किन्तु आज के समय में तो लोग चरित्र से ज्यादा महत्व धन-दौलत को देते हैं , जिसके पास खूब पैसा,नाम व बड़ा घर-व्यापार है वह सामाजिक जीवन में सफल माना जाता है भले ही उसका चरित्र कैसा भी हो ।
फिर भी , किसी भी समय में चरित्र की महत्ता कम नहीं आँकी जा सकती क्योंकि चरित्रवान व्यक्ति की प्रशंसा हर कोई करता है । 

चरित्र , निर्मित कैसे होता है। 

       चरित्र अथवा स्वभाव , अच्छा और बुरा दोनो प्रकार का होता है । सामान्य तौर पर , हम चरित्र या स्वभाव से आशय सद्चरित्र या अच्छे स्वभाव का लेते हैं तथा अच्छे चरित्र कई में कई सदगुण विद्यमान होते है जैसे - धैर्य , साहस , ईमानदारी , सत्य , क्षमा , दया और सहानभूति आदि ।
वास्तव में , हम चरित्र-निर्माण से अधिक ध्यान अपने भविष्य-निर्माण पर देते है क्योंकि माता-पिता भी अपने बच्चों को यही समझाते हैं कि भविष्य बनाना , बहुत ज्ञान का अर्जन करना तथा धनवान बनना है लेकिन सद्चरित्र के अभाव में भौतिक धन होकर भी व्यक्ति निर्धन है तथा उसका ज्ञान भी अनुपयोगी है ।

          इसीलिए , हमें चरित्र-निर्माण पर ध्यान देना होगा , बजाय भविष्य निर्माण के । यदि बच्चे चरित्रवान हों तो उनका भविष्य स्वयमेव सुनहला हो जाएगा ।

        माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को सदैव सही मार्ग पर प्रशस्त करें , वे न सिर्फ अच्छे संस्कार और सद्चरित्र के लिए मार्गदर्शन दें बल्कि अपने कर्मों में भी यह भावना दिखाएँ ।

        प्रारंभिक तौर पर , मनुष्य अपनी चारित्रिक विशेषताएँ माता-पिता और घर-परिवार के माहौल से ही सीखता है , बचपन में यदि कोई विशेष घटना हुई हो तो उसका प्रभाव भी चरित्र के निर्माण पर पड़ता है । 
 
         फिर भी , हर व्यक्ति अपने आप में बिल्कुल अलग है , सभी का स्वभाव अलग-अलग होता है क्योंकि चरित्र बनता है - विचारों से और प्रत्येक व्यक्ति के विचार अलग-अलग होते हैं ।
विचार ही चरित्र का निर्माण करते हैं इसलिए चरित्र को बदलने के लिए विचारों को बदलना जरूरी है । अच्छे चरित्र के लिए हमें उत्तम विचारों की जरूरत होती है 

विचार कैसे चरित्र और चरित्र कैसे भविष्य का निर्माण करते हैं , 
     चरित्र एक वृक्ष की तरह है और व्यक्तित्व उसकी परछाई की तरह । हम जिसके बारे में सोचते हैं वह परछाई है ; लेकिन वास्तविक चीज तो वृक्ष है । "
    किसी का चरित्र जन्म से ही बना-बनाया नहीं माना जा सकता , हो सकता है कि उसकी कुछ प्रवृत्तियाँ पहले से निर्धारित हों तो भी चरित्र परिवर्तनीय है । हम अपनी प्रवृत्तियों को , विचारों को एवं मान्यताओं को बदल सकते हैं , समय के साथ , परिस्थितियों के साथ और किसी के मार्गदर्शन के साथ ।
चरित्र और व्यक्तित्व एक दूसरे से जुड़ी हुई चीजें हैं । चरित्र वह है जो होता है और व्यक्तित्व वह है जो दिखता है और दिखाई जाने वाली चीज का रूप बदला भी जा सकता है । कहने का अर्थ यही है कि किसी के व्यक्तित्व को देखकर आप उसका चरित्र नहीं जान सकते क्योंकि आप व्यक्तित्व देख रहे हैं , जो निश्चित तौर पर चरित्र को छुपा सकता है ।
      चरित्र या स्वभाव हमारे जीवन और कर्मों का मूल है , हम जो भी करते हैं अपने स्वभाव से प्रेरित होकर करते हैं ।
      सद्चरित्र बनने से तात्पर्य , अंततः एक अच्छा मनुष्य होने से है और अच्छा इंसान होने से तात्पर्य?? 
      अच्छा चरित्र और अच्छा व्यक्ति कैसा होना चाहिए ? अच्छे मनुष्य की परिभाषा क्या है ?शायद इस प्रश्न का उत्तर मुझसे ज्यादा अच्छे से कोई और जानता है और वह है -
हम सभी के अंतःस्थल में स्थित हमारी अंतरात्मा ; जो हर समय हमारा मार्गदर्शन करती है , जिसकी आवाज हम अधिकतर अनसुनी करते हैं ।