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जैसे जैसे हम् आधुनिक होते गए वैसे वैसे हम् हमारी जड़ों को काटते गए उन्हीं जड़ों में से एक महत्वपूर्ण जड़ है पितृ ।

सबसे पहले पितृ होते कौन हैं ?

इन्हें आम भाषा में पितर , घर का प्रेत भी बोलते हैं। यह आपके परिवार की वो आत्माएं होती हैं जिनका अभी दूसरा जन्म नहीं हुआ है मुक्ति नहीं हुई है । ये आत्माएं पितृ बनके पितृ लोक नामक सूक्ष्म लोक में वास करते हैं । यह लोक हमारी धरती पर ही स्थित होता है । जिसके कारण पितरों से संपर्क बनाना या इनकी कृपा प्राप्त करना सहज हो जाता है । वहीं दूसरी और यह रूष्ट होने पर शीघ्र विपरीत प्रभाव भी दिखाते हैं।

इनमें अलग अलग श्रेणी होती है पितृ की जिसे आऊत प्रेत , जुझार , सगस , वीर आदि कहकर संबोधित करते हैं । इनपर बाद में बात करेंगे ।

इनका पितृ लोक में फसने का मुख्य कारण होता है अपूर्ण इच्छाएं एवं अविवाहित मृत्यु को प्राप्त होना , निसंतान मृत्यु को प्राप्त होना , अन्य भी कारण कहे गए है इसके जैसे पराई स्त्री का हरण , माता पिता की हत्या करना , गौ हत्या आदि , इनके विषय में गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है ।

पितृ हमारा सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण रक्षा कवच होते हैं, पितृ रूष्ट होने पर अन्य देवता तक आपका पूजन नहीं पहुंचता है न ही कोई अन्य कार्य सिद्ध होता है । यह ठीक उसी प्रकार है अगर नींव कमजोर हो तो ऊपर की मंजिल नहीं डाली जा सकती और अगर नींव मजबूत है तो मंजिल के ऊपर मंजिल डाल सकते हैं ।

हर व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वो अपने कुल के पितरों की मुक्ति एवं सद्गति के लिए प्रयास करें , जिसके विपरीत आज लोग अपने घर के पितृ को अपने स्वार्थ के लिए बैठा कर उनसे काम लेते है । जो कि पितृ और स्वयं दोनों के लिए हितकारी नहीं है ।

पितृ दोष या पितृ के रूष्ट होने के लक्षण क्या है ?

● घर में बरकत न रहना
● किसी बात को लेकर हर छोटी छोटी बात पर झगड़ना
● घर के एक दूसरे सदस्य को बैर भाव से देखना
● संतान नहीं होना
● परिवार में किसी भी प्रकार का संतुलन नहीं होना
● हमेशा बीमारी बने रहना
● अजीब अजीब घटना होना
● घर के सदस्य आपस में किसी की भी नहीं बने
● संतान माता-पिता का आदर नहीं करती हैं
● माता-पिता भी संतान को हमेशा प्रताड़ित करते रहते हैं
● मरे हुए बच्चों के सपने आना
● मरी स्त्रियों दिखना
● हमेशा मन में शंका बनी रहना कि कुछ न कुछ होने वाला है
● आदमी अपने कार्य की सफलता के लिए आश्वस्त रहता है 95 पर्सेट तक पहुंचता है और फिर नीचे गिर जाता है
● हर बनते काम बिगड़ जाना
● सपने में बार बार सर्पो का दिखना
● परिवार के बुजुर्गों का स्वप्न में दिखना
● सपनो में अपने माता पिता दादा दादी को रोते हुए देखना
● घर परिवार में क्लेश होना

जो कुंवारे पितृ होते है उनका दिन चौदस का होता है और जो विवाहित होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हो उनका मुख्य दिन अमावस्या का होता है , जो पूर्ण आयु में जाते है उनके लिए पूर्णिमा ।

पितृ प्रसन्नता हेतु सबसे आसान उपाय तो यह है कि इन 4 दिनों में ( दोनो चतुर्दशी , अमावस्या एवं पूर्णिमा ) पितृ के लिए नियमित धूप दीप करे तो वो हमेशा प्रसन्न रहते है ।

दूसरा एक सरल एवं असरदार उपाय है वो है - पितृ के लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ । 

यह उपाय आप श्राद्ध में करें ।

पूर्णिमा के दिन सुबह पितरों को हल्दी चावल से निमंत्रण दें कि आज से मैं आपके लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ कर रहा हूँ आपको यह पाठ सुनने के लिए रोज आना होगा जो आपको समय उचित लगे उन्हें वो समय भी बता दें कि इतने बजे पाठ करूंगा । ऐसा कहकर हल्दी चावल दहली के बाहर डाल दें ।

अब जो निश्चित समय है उससे थोड़ा पहले से यह तैयारी कर लें ।

अपने कक्ष को झाड़ू पोंछा करके साफ करें । फिर गौमूत्र का छिड़काव करें । गाय के गोबर से भूमि लीपें । फिर उसपर सफेद वस्त्र बिछाएं , 2 गांठ का एक हरा बांस का टुकड़ा लाएं । इसके एक तरफ सफेद कपड़ा कलावे से बांध दें । सुपारी जनेऊ और हल्दी की गांठ लाएं ।

सफेद वस्त्र के ऊपर 1 पीछे और 7 ढेरी आगे लगाएं चावल की एक के ऊपर बांस को खड़ा रखें जसमे वस्त्र बांधा हुआ हिस्सा ऊपर की तरफ होगा और बाकी 7 ढेर पर एक एक सुपारी रखें और सुपारी पर जनेऊ पहनाए , सुपारी की जगह चुना पत्थर मिल जाये तो अति उत्तम होगा । अब आपके दिये गए निश्चित समय पर दहली पर खड़े होकर हल्दी कुमकुम और अक्षत डालकर पितरों का स्वागत करें और उनके अंदर आने का बोलें और सफेद आसन के ऊपर उनका आसान बताये और कहे आप अपने आसन पर विराजमान होजाये । अब आप धूप दीप प्रज्वलित करें । बांस पर और चुना पत्थरों ( सुपारी ) पर हल्दी कुमकुम आदि चढ़ाएं ।

अपने सामने श्रीमद्भागवत गीता रखें , ग्रंथ का कुमकुम अक्षत से पूजन करें ।

पितृ हेतु भोजन एवं पानी रखें भगवान विष्णु के लिए 2 पीली मावे की मिठाई रखें ।

अब पाठ शुरू करें , रोज इसी प्रकार पाठ करना है संभव हो तो रोज सभी अध्यायों का पाठ करें और अगर सामर्थ्य नही हो तो 16 दिन में 18 अध्यायों का पाठ पूरा करलें ।

पाठ पूरा होने के बाद जो पितृ के लिए भोग रखा था वो गाय के उपलों की अगियारी करके उसपर भोजन करवाये फिर जल अर्पित करें।

फिर उन्हें कहे अब अपने स्थान को चले जाइये कल फिर इस समय पर आजायेगा । आगे भी इसी तरह से करना है

जब 16 दिन के पाठ पूरे होजाये तब भगवान विष्णु से अपने पितरों की सद्गति हेतु प्रार्थना करें । उनहे वैकुंठ में स्थान देने के लिए प्रार्थना करें ।

अगर आप चाहे तो पाठ 15 दिन में पूरे करके सोलहवें दिन सर्व पितृ अमावस्या को ब्राह्मण जन से पितृ हेतु तर्पण भी करवा सकते है । 7 ब्राह्मणों को सात सफेद वस्त्र दान करें ।

क्रिया पूरी होने के बाद सभी सामग्रियों को एकत्रित करके किसी बहती नादि में प्रवाहित करदें । क्रिया के बाद निश्चित लाभ होगा ।

अंतिम दिन पितरों को वापिस आने का नही बोलें उन्हें बोलें की अबसे आप श्री हरि के लोक में वास करना ।
आप चाहे तो अंतिम दिन तर्पण एवं त्रिपिंडी भी करवा सकते है । सोने पर सुहागा होगा ।

अब दूसरा प्रयोग बताते है ।

🚩🚩 दूसरा प्रयोग 🚩🚩

यहां एक स्तोत्र दे रहा हूँ । जिसकी पाठ विधि इस प्रकार है ।

पहले इसका एक पाठ पूरा होगा १ श्लोक से लेकर २४ फिर २२ २३ २४ के क्रम में दो बार पाठ करें ।

एक पूरे पाठ का क्रम यह होगा -

१ २ ३ ...... २४ , २२ २३ २४ , २२ २३ २४

फिर इसका हवन भी इसी क्रम से होगा काले तिल और गाय के घी से ।

१ , २२ , २३ , २४ वे श्लोक में आहुति के समय स्वधा बोलके आहुति देनी है और अन्य श्लोकों में स्वाहा बोलकर ।

स्तोत्र --

नमो वः पितरो, यच्छिव तस्मै नमो, वः पितरो यतृस्योन तस्मै।
नमो वः पितरः, स्वधा वः पितरः । ।।१।।

नमोऽस्तु ते निर्ऋर्तु, तिग्म तेजोऽयस्यमयान विचृता बन्ध-पाशान्।
यमो मह्यं पुनरित् त्वां ददाति। तस्मै यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे । ।।२।।

नमोऽस्त्वसिताय, नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय वभ्रवे नमो, नमो देव जनेभ्यः। ।।३।।

नमः शीताय, तक्मने नमो, रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येद्युरूभयद्युरभ्येति, तृतीय कायं नमोऽस्तु तक्मने। ।।४।।

नमस्ते अधिवाकाय, परा वाकाय ते नमः। सुमत्यै मृत्यो ते नमो, दुर्मत्यै त इदं नमः। ।।५।।

नमस्ते यातुधानेभ्यो, नमस्ते भेषजेभ्यः। नमस्ते मृत्यो मूलेभ्यो, ब्राह्मणेभ्य इदं मम। ।।६।।

नमो देव वद्येभ्यो, नमो राज-वद्येभ्यः। अथो ये विश्वानां, वद्यास्तेभ्यो मृत्यो नमोऽस्तु ते। ।।७।।

नमस्तेऽस्तु नारदा नुष्ठ विदुषे वशा। कसमासां भीम तमा याम दत्वा परा भवेत्। ।।८।।

नमस्तेऽस्तु विद्युते, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्तेऽस्तु वश्मने, येना दूड़ाशे अस्यसि। ।।९।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते प्राण तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।१०।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते रूद्र तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।११।।

नमस्ते जायमानायै, जाताय उत ते नमः। वालेभ्यः शफेभ्यो, रूपायाघ्न्ये ते नमः। ।।१२।।

नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते प्राण विद्युते, नमस्ते प्राण वर्षते। ।।१३।।

नमस्ते प्राण प्राणते, नमोऽस्त्वपान ते।
परा चीनाय ते नमः, प्रतीचीनाय ते नमः, सर्वस्मै न इदं नमः। ।।१४।।

नमस्ते राजन् ! वरूणा मन्यवे, विश्व ह्यग्र निचिकेषि दुग्धम्।
सहस्त्रमन्यान् प्रसुवामि, साकं शतं जीवाति शरदस्तवायं। ।।१५।।

नमस्ते रूद्रास्य ते, नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्य मानायै, नमो निपतितायै। ।।१६।।

नमस्ते लांगलेभ्यो, नमः ईषायुगेभ्यः। वीरूत् क्षेत्रिय नाशन्यप् क्षैत्रियमुच्छतु। ।।१७।।

नमो गन्धर्वस्य, नमस्ते नमो भामाय चक्षुषे च कृण्मः।
विश्वावसो ब्रह्मणा ते नमोऽभि जाया अप्सासः परेहि। ।।१८।।

नमो यमाय, नमोऽस्तु, मृत्यवे, नमः पितृभ्य उतये नयन्ति।
उत्पारणस्य यो वेद, तमग्नि पुरो दद्येस्याः अरिष्टतातये। ।।१९।।

नमो रूद्राय, नमोऽस्तु तक्मने, नमो राज्ञ वरूणायं त्विणीमते।
नमो दिवे, नमः पृथिव्ये, नमः औषधीभ्यः। ।।२०।।

नमो रूराय, च्यवनाय, रोदनाय, घृष्णवे। नमः शीताय, पूर्व काम कृत्वने।। ।।२१।।

नमो वः पितर उर्जे, नमः वः पितरो रसाय। ।।२२।।

नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरा मन्धवे। ।।२३।।

नमो वः पितरां पद घोरं, तस्मै नमो वः पितरो, यत क्ररं तस्मै। ।।२४।।

कई बार पितृ तांत्रिक बंधन में बंधे होते है तब कितना ही कर्म कांड करने पर भी उनका शुभ प्रभाव नही मिलता , ऐसी स्थिति में तांत्रिक प्रयोग के द्वारा उनकी मुक्ति का मार्ग खोला जाता है ।
चलिए यह एक अलग विषय है आगे,,,

गणेशजी को दूर्वा और मोदक चढ़ाने का महत्व क्यों..??

भगवान गणेशजी को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा (एक प्रकार की घास) अर्पण करने से शीघ्र प्रसन्न होते और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। इसीलिए उन्हें दूर्वा चढ़ाने का शास्त्रों में महत्त्व बताया गया है। इसके संबंध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है-"एक समय पृथ्वी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था।उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-साथ स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था। यह भगवद्-भक्ति व ईश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगों को जिंदा निगल जाता था। देवराज इंद्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा परास्त होना पड़ा। अनलासुर से पराजित होकर समस्त देवता भगवान शिव के पास गए। उन्होंने बताया कि उसे सिर्फ गणेश ही खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उनका पेट बड़ा है इसलिए वे उसको पूरा निगल लेंगे। इस पर देवताओं ने गणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। गणेशजी ने अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गए। इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी। अनेक उपाय किए गए, लेकिन ज्वाला शांत न हुई। जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई, तो ये तुरंत कैलास गए और । दूर्वा एकत्रित कर एक गांठ तैयार कर गणेश को खिलाई, जिससे उनके पेट की ज्वाला तुरंत शांत हो गई।

गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है। गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में कहा है–

गाइये गणपति जगवंदन । 
संकर सुवन भवानी नंदन। 
सिद्धि-सदन गज बदन विनायक । 
कृपा-सिंधु सुंदर सब लायक ॥
मोदकप्रिय मुद मंगलदाता । 
विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ॥

इसमें भी उनकी मोदकप्रियता प्रदर्शित होती है। महाराष्ट्र के भक्त आमतौर पर गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं। उल्लेखनीय है कि मोदक मैदे के खोल में रवा, चीनी, मावे का मिश्रण कर बनाए जाते हैं। जबकि लड्डू मावे व मोतीचूर के बनाए हुए भी उन्हें पसंद है। जो भक्त पूर्ण श्रद्धाभाव से गणेशजी को मोदक या लड्डुओं का भोग लगाते हैं, उन पर वे शीप प्रसन्न होकर इच्छापूर्ति करते हैं।

मोद यानी आनंद और 'क' का शाब्दिक अर्थ छोटा-सा भाग मानकर ही मोदक शब्द बना है, जिसका तात्पर्य हाथ में रखने मात्र से आनंद की अनुभूति होना है। ऐसे प्रसाद को जब गणेशजी को अर्पण किया जाए तो सुख की अनुभूति होना स्वाभाविक है। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार जैसे ज्ञान का प्रतीक मोदक यानी मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान का प्रसाद भी मीठा होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष में लिखा है

यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति स मेघावान् भवति ॥ 
यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फलमवाप्राप्नोति ॥

अर्थात जो भगवान को दूर्वा चढ़ाता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धान-लाई) चाढाता है, वह यशस्वी हो जाता है, मेधावी हो जाता है और जो एक हजार लड्डुओं का भोग गणेश भगवान् को लगाता है, वह वांछित फल प्राप्त करता है।

गणेशजी को गुड भी प्रिय है। उनकी मोदकप्रियता के संबंध में एक कथा पद्मपुराण में आती है। एक बार गजानन और कार्तिकेय के दर्शन करके देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने माता पार्वती को एक दिव्य लड्डू प्रदान किया। इस लड्डू को दोनों बालक आग्रह कर मांगने लगे। तब माता पार्वती ने लड्डू के गुण बताए-इस मोदक की गंध से ही अमरत्व की प्राप्ति होती है। निस्संदेह इसे सूंघने या खाने वाला संपूर्ण शास्त्रों का *मर्मज्ञ, सब तन्त्रो में प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान, ज्ञान-विज्ञान विशारद और सर्वज्ञ हो जाता है। फिर आगे कहा-"तुम दोनों से जो धर्माचरण के द्वारा अपनी श्रेष्ठता पहले सिद्ध करेगा, *वही इस दिव्य मोदक को पाने का अधिकारी होगा।'

माता पार्वती की आज्ञा पाकर कार्तिक अपने तीव्रगामी वाहन मयूर पर आरूढ होकर त्रिलोक की तीर्थयात्रा पर चल पड़े और मुहर्त भर में ही सभी तीर्थों के दर्शन, स्नान कर लिए। इधर गणेशजी ने अत्यत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक माता-पिता की परिक्रमा की और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़े हो गए और कहा कि तीर्थ स्थान, देव स्थान के दर्शन, अनुष्ठान व सभी प्रकार के व्रत करने से भी माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर पुण्य प्राप्त नहीं होता है, अतः मोदक प्राप्त करने का अधिकारी मैं हूँ। गणेशजी का तर्कपूर्ण जवाब सुनकर माता पार्वती ने प्रसन्न होकर गणेशजी को मोदक प्रदान कर दिया और कहा कि माता-पिता की भक्ति के कारण गणेश ही यज्ञादि सभी शुभ कार्यों में सर्वत्र अग्रपूज्य होंगे।

तज मन हरि विमुखन को संग भावार्थ सहित।।


तज मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति उपजत है, परत भजन में भंग॥ [1]
कहा होत पय पान कराए विष, नहिं तजत भुजंग।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाऐ गंग॥ [2]
स्वर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूपन अंग।
गज को कहा सरित अन्हवाऐ, बहुरि धरै वह ढंग॥ [3]
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करौ निषंग।
'सूरदास' कारी काँमरि पे चढ़त न दूजौ रंग॥ [4]
- श्री सूरदास जी, सूर सागर, वीनय तथा भक्ति (44)


भावार्थ:

हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं, उन प्राणियों का संग न कर। उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं, उनके संग से क्या लाभ? [1]

आप चाहे कितना ही दूध साँप को पिला दो, वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा, कुत्ता (स्वान) कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता। [2]

आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता, मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा। एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है। [3]

भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें, चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है)।" [4]

श्री राधा ।।


परम धन राधा नाम आधार ।
जाकौ श्याम मुरली में टेरत, सुमिरत बारम्बार ॥ [1]
जंत्र, मंत्र और वेद तंत्र में, सभी तार को तार ।
श्री शुक, प्रगट कियू नहीं जाएं, जानी सार को सार ॥ [2]
कोटिन रूप धरे नंदनंदन, तोउ न पायौ पार ।
'व्यासदास' अब प्रगट बखानत डारि भार में भार ॥ [3]
- श्री हरिराम व्यास, व्यास वाणी, पूर्वार्ध (38)

श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि श्री राधा नाम ही हमारा परम धन है।  जिस नाम को श्री कृष्ण मुरली में गाते हैं, और बार बार सुमिरन करते हैं । [1]

जंत्र, मन्त्र और वेद तंत्र में जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती जो नाम रहस्यों का भी परम रहस्य है। श्री शुकदेव परमहंस जी ने वेदों का सार का भी सार मान कर इसको प्रगट नहीं किया । [2] 

श्री कृष्ण कोटि रूप धारण कर के भी श्री राधा नाम का पार नहीं पा सके। श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि अब श्री राधारानी की ही कृपा जान उन्होंने  श्री राधा नाम प्रगट कर दिया, अब उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं (सब भाड़ में जाए) । [3]


कर्म और भाग्य ।।

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं तब फल चाखा।।


कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।

भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।

प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।

अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।

पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -

"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"


अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है -

"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"

अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।

'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?

अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।

भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं-

१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म

१) संचित कर्म :-  जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।

२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।

३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।

इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।

प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।

इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।

संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?

ब्रह्म नहीं माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल। अपनी हू सुधि ना रही रह्यौ एक नंदलाल ॥ - ब्रज के सवैया


न मैं ब्रह्म के विषय में जानना चाहता हूं, न ही माया के विषय में, न मैं जीव के विषय में जानना चाहता हूं न ही मैं काल के विषय में जानना चाहता हूं । मैं अपनी सुधि ही खो जाऊं और मुझे केवल एक श्री राधा कृष्ण का ही ध्यान रहे।

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खगोलशास्त्री सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर // पुण्यतिथि ।।

जन्म : 19 अक्टूबर 1910
मृत्यु : 21 अगस्त 1995

विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार पाने वाले सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर तीसरे भारतीय वैज्ञानिक थे। उनसे पहले विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार चंद्रशेखर वेंकटरमन (भौतिकी विज्ञान) 1930 में तथा दूसरे डॉक्टर हरगोविंद खुराना (शरीर एवं औषधि विज्ञान) 1968 में यह उपलब्धि प्राप्त कर चुके है। हालांकि नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पांचवें भारतीय थे। विज्ञान के क्षेत्र से अलग यह उपलब्धि पाने वाले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर जिन्हें साहित्य के लिए 1913 में तथा दूसरा मदर टेरेसा जिन्हें शांति और सद्भावना के लिए 1979 मे नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने कार्यों और उपलब्धियों द्वारा नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत का झंडा विश्व में ऊंचा किया था। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में सुब्रमण्यम की प्रसिद्धि और उनको नोबेल पुरस्कार दिए जाने का कारण है। तारों के ऊपर किए गए उनके गहन अनुसंधान कार्य और एक महत्वपूर्ण सिद्धांत जिसे चंद्रशेखर लिमिट के नाम से आज भी खगोल विज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की इस महान खोज ने जहां पूर्व में की गई आधी अधूरी खोजो के सिद्धांतो को सुधार कर उन्हें पुनर्स्थापित किया, वहीं भविष्य में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले अनेक अनुसंधानों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी इसी सफलतापूर्वक खोज ने उन्हें नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बनाया।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का जन्म <<

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुब्रमण्यम अपने 7 भाई बहनों के परिवार में सबसे बड़े पुत्र थे। उनके पिता श्री सी.एस. अय्यर ब्रिटिश सरकार के रेल विभाग में अधिकारी पद पर कार्यरत थे। अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति और कुशाग्र बुद्धि के स्वामी सुब्रमण्यम की प्रतिभा के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे थे।

सुब्रमण्यम की बचपन से ही खेलों से कहीं अधिक रूचि किताबों में थी। यदि यह कहा जाए कि भविष्य में महान वैज्ञानिक बनने के गुण उनके खून में ही थे, तो गलत नहीं होगा। शिक्षित माता पिता की संतान के रूप में जन्मे सुब्रमण्यम चंद्रशेखर महान भौतिक विज्ञानी श्री चंद्रशेखर वेंकट रमन के भांजे थे। जिस समय सुब्रमण्यम का जन्म हुआ, उस समय वेंकटरमन भारत में भौतिक विज्ञान की आधारशिला रख रहे थे।

>> सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की शिक्षा <<

सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में ही हुई थी। सन् 1925 में जब उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उसी साल के अंत में उनके पिता लाहौर छोड़कर मद्रास चले आएं। आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति सहित कॉलेज में अध्ययन आरम्भ किया। जैसे जैसे वे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले जा रहे थे, वैसे वैसे पढ़ने के प्रति उनकी रूचि भी तेजी से बढ़ती जा रही थी।

उनके सहपाठी अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ते थे, किंतु सुब्रमण्यम नियमित रूप से पुस्तकालय जाते और भौतिक विज्ञान की जो भी नई पुस्तक मिलती, यहां तक की शोध पत्र भी पढ़ डालते थे। उन्होंने बी.एस.सी की भौतिकी विज्ञान ऑनर्स की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त की।

बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने मामा वेंकटरमन से भौतिक विज्ञान की अनेक बारिकियों को जाना। और सन् 1930 में सुब्रमण्यम इंग्लैंड पहुंचे, और कैंम्बिज विश्विविद्यालय में भौतिक विज्ञान के छात्र के रूप में अपना शोध कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्होंने रॉल्फ हॉवर्ड फाउलर द्वारा प्रतिपादित उन सिद्धांतों का अध्ययन किया जो सुदूर आकाश गंगा में स्थित श्वेत बौने तारों की प्रकृति पर आधारित थे।

निश्चित समय पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके सन् 1933 में उन्होंने विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.(P.H.D) की उपाधि प्राप्त की। इसी साल उन्हें कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज का फैलो चुन लिया गया। ट्रिनिटी कॉलेज (Trinity College Of London) की फैलोशिप पाना अपने आप में एक महत्वपूर्ण सफलता थी। वे सन् 1937 तक यहां फैलो के रूप मे अपने शोध और अनुसंधान कार्यों में तन्मयता से जुटे रहे।

सन् 1933 से 1937 तक 4 वर्षों का समय सुब्रमण्यम और विश्व खगोल विज्ञान के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसी समयावधि में सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर ने अपनी महत्वपूर्ण खोज “चंद्रशेखर लिमिट” को विश्व विज्ञान जगत के सामने रखा। यह अलग बात है कि पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित किए गए पारंपरिक सिद्धांतों को ही सर्वोपरि

मानने वाले वैज्ञानिक समुदाय ने उनकी इस खोज को स्वीकारने में अपेक्षाकृत अधिक समय ले लिया। किंतु अपनी इसी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर उन्होंने सिद्ध कर ही दिया कि वे अपनी जगह कितने सही थे।

>> नोबेल पुरस्कार <<
 
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर के उपलब्धियों भरे वैज्ञानिक जीवन में इसे विडम्बना ही कहा जाएगा, कि जो खोज “चंद्रशेखर लिमिट” उन्होंने सन् 1935-1936 में ही कर ली थी, उसके लिए लगभग 47-48 सालो के बाद सन् 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया, जबकि उन्हीं के दो शिष्य सन् 1957 में ही यह सम्मान प्राप्त कर चुके थे। यह अलग बात है कि बाद के सालो में किए गए उनके अन्य अनुसंधान कार्यों जैसे कि ब्लैक होल (Black hole) की उत्पत्ति और संरचना व आकाश गंगा के अन्य रहस्यों को उजागर करने के परिणामस्वरूप और अधिक समय तक इस सम्मान से वंचित रख पाना संभव नहीं रह गया था। सन् 1983 मे उन्हें नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर विश्व के समस्त वैज्ञानिक समुदाय ने प्रसन्नता प्रकट की।

>> परिवारिक और व्यक्तिगत जीवन <<
 
हालांकि सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर 20 साल की आयु में ही अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश आ गए थे। जहां लगभग 7 साल इंग्लैंड और बाकी का जीवन अमेरिका की पश्चिमी सभ्यता संस्कृति के संपर्क में रहकर बिताया, किंतु वे कभी भी अपने देश भारत और उसकी संस्कृति को नहीं भूले। वे भारतीय रंग ढ़ंग के अनुरूप ही रहते थे। अपने घर में दक्षिण भारतीय पहनावा धोती कुर्ता पहने उन्हें अक्सर देखा जाता था। एक खगोलीय विज्ञानी होते हुए भी उन्हें संगीत में विशेष रूची थी। सन् 1936 मे चंद्रशेखर भारत आए थे। हालांकि वे बहुत थोडे समय के लिए यहां रूके। किंतु इसी समय उन्होंने अपनी जीवन संगिनी का वरण किया और उन्हें भी अपने साथ अमेरिका ले गए। सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की पत्नी श्रीमती ललिता दुरई स्वामी भी एक वैज्ञानिक थी। और भारत में महान वैज्ञानिक वेंकटरमन की विज्ञान अनुसंधान शाला में काम करती थी। विदेश में रहते हुए भी वे अपने पति की अच्छी सहयोगिनी सिद्ध हुई।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की मृत्यु <<

अपना महत्वपूर्ण जीवन विज्ञान को सीखने और सीखाने में अर्पित कर देने वाले महान वैज्ञानिक सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने 85 वर्ष की आयु में 21 अगस्त 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज सुब्रमण्यम चंद्रशेखर हमारे बीच नहीं है। किंतु वे अपने जाने से पूर्व अपने शिष्यों के रूप में भविष्य के वैज्ञानिकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर गए है, जिसके सुपरिणाम हमें निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं

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हनुमान जी की भयंकर गर्जना ।।

ऐसा पढ़ने में आता है की अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमान जी कभी कबार खड़े हो कर कौरवो की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवो की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग निकलती..

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हनुमान जी की दृष्टि का सामना करने
का साहस किसी में नही था..
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उस दिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था..
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कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणो की वर्षा किये जा रहा था उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए..
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अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगो पर लगने लगे..
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रथ की छत पर बैठे पवनपुत्र हनुमान जी  एक टक नीचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
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श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे, उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था..
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हनुमान जी से यह सहन नही हुआ..
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अकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्ण को मार देने के लिए उठ खड़े हुए।
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हनुमान जी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो..
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कौरव-सेना तो पहले ही भाग चुकी थी 
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अब पांडव पक्ष की सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण के हाथ से धनुष छूट कर गिर गया।
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भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमान जी को स्पर्श करके सावधान किया..
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रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।
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श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गए किन्तु उनकी पूछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी..
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उनके दोनों हाथों की मुठियां बंध थीं, वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे और स्वेद धरा चल रही थी दोनों ने दृष्टि निचे कर रखी थी।
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हनुमान जी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा 
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हनुमान ! मेरी और देखो, अगर तुम इस प्रकार कर्ण की और कुछ क्षण देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।
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यह त्रेतायुग नही है। तुम्हारे पराक्रम को तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता।
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तुमको मैंने इस युद्ध मे शांत रहकर बैठने को कहा है।
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फिर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव की और नीचे देखा और शांत हो कर बैठ गए..
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((((जय जय श्री राधे)))))
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धर्म की जय हो अधर्मी का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो 🙏🚩

चांद्रायण साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना ।।

कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं । इन्हें अनिवार्य साधनाओं में गिना गया है। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नादयोग को ‘अनाहत ध्वनि' भी कहते हैं । लययोग को आत्मदेव की साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लययोग सूक्ष्म के साथ बिंदुयोग और कारण शरीर के साथ नादयोग का सीधा संबंध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अन्न, जल, वायु की तरह इन तीन साधनाओं को भी समान उत्कर्ष की दृष्टि से सर्व सुगम किंतु साथ ही असाधारण रूप से प्रभावी भी माना गया है। 

बिंदुयोग-त्राटक साधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र का उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भवों के बीच मस्तक के भृकुटि भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य एक भूकुटि स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट के दर्शन कराए थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालते व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केंद्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह, दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आंखों देखा हाल सुनाते रहे। आज्ञाचक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार और पिट्यूटरी ग्रंथियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का त्रिदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केंद्र, कहा जाता है। टेलीविजन राडार, टेलीस्कोप के समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन सूक्ष्म दर्शनविचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलताकिंतु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूंकि यह केंद्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिंदु माना जाता है इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिंदुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी है।

अब तक.... , कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। 

अभी हम सभी प्रथम योग बिंदुयोग को समझेंगे..... 

बिंदुयोग का एक नाम त्राटक साधना भी है।

यह साधना सरल है। आमतौर से पालथी मारकर, कमर सीधी कर एकांत स्थान में साधना के लिए बैठते हैं। तीन फुट दूरी पर कंधे की सीध में ऊँचाई पर एक घृत दीप जलाकर रखते हैं। दस सैकिन्ड तक उसकी लौ को खुली आँख से देखना, फिर एक मिनट बंद रखना। फिर दस सैकिंड देखने, पचास सैकिंड बंद रखने का अभ्यास अनुमान से ही करना पड़ता है। घड़ी का उपयोग इस बीच बन पड़ना सुविधाजनक नहीं रहेगा। दूसरा कोई चुपके से धागे आदि का संकेत कर दे तो दूसरी बात है।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बंद करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केंद्रों को जागृत कर रहा है। आरंभ में यह ध्यान दस मिनट से आरंभ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। खोलने बंद करने का समय एक सा ही रहेगा। दीपक का सहारा आरंभ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उनकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलंबन के मात्र कल्पना-भावना के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुंज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण ‘सविता' वही है। पालथी मारना हाथ गोदी में और कमर सीधी रखने को ध्यान मुद्रा कहते हैं। दीपक धारणा की तरह प्रभात कालीन अरुणाभ सूर्य को पाँच सैकिंड खुली आँख से देखकर बाद में पचपन सैकिंड के लिए आँखें बंद कर लेते हैं और आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा संवेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुंज बनाती हैं। सूर्य त्राटक की ध्यान धारणा आरंभ में दस मिनट करनी चाहिए और धीरे-धीरे बीस मिनट तक बढ़ा देनी चाहिए। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण, तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। कुछ समय तो लगता ही है। बीज बोने से लेकर वृक्ष फलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय तो चाहिए ही। हथेली पर सरसों तो बाजीगर ही जमा सकते हैं।

संदर्भ : 
📕वांग्मय ७ प्रसुप्ति से जगृति की ओर 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

कल्प साधना का क्रिया पक्ष ।।

चिंतन, आदत और विश्वास अंतराल के यह तीन क्षेत्र हैं। इन्हें क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त कहते हैं। मनः क्षेत्र की यह तीन परतें हैं। इन्हीं को तीन शरीर, स्थूल, सूक्ष्म, कारण भी कहते हैं*। पंच भौतिक काया तो इन तीनों की आज्ञा एवं इच्छा का परिवहन मात्र करती रहती है। आत्म सत्ता इनसे ऊपर है।

उपरोक्त शरीरों की परोक्ष स्थिति को परिष्कृत करने के लिए योगाभ्यास में तीन साधनाएँ हैं। स्थूल को मुद्राओं से, सूक्ष्म को प्राणयाम से और कारण को योगत्रयी से परिमार्जित किया जाता है। मुद्राओं में तीनों प्रधान हैं- (१) शक्तिचालिनी मुद्रा, (२) शिथिलीकरण मुद्रा, (३) खेचरी मुद्रा । प्राणायामों में तीन को प्रमुखता दी गई है- (१) नाड़ी शोधन प्राणायाम, (२) प्राणाकर्षण प्राणायाम, (३) सूर्यवेधन प्राणायाम। योगाभ्यासों में तीन प्रमुख हैं- (१) नादयोग, (२) बिंदुयोग, (३) लययोग कल्प ।साधना में इन नौ का अभ्यास कराया जाता है। दिव्य अनुदान की ध्यान धारणा इन नौ के अतिरिक्त है। क्रियायोग के यह तीन प्रयोग साधक के त्रिविध शरीरों को परिष्कृत करने की उपयोगी भूमिका संपन्न करते हैं। शरीरों के हिसाब से इनका वर्गीकरण करना हो तो स्थूल शरीर के निमित्त शक्तिचालनी मुद्रा, नाड़ी शोधन प्राणायाम और नादयोग की गणना की जाएगी। सूक्ष्म शरीर के निमित्त प्राणाकर्षण प्राणायाम, शिथिलीकरण मुद्रा और बिंदुयोग को महत्त्व दिया जाता है। कारण शरीर में खेचरी मुद्रा, सूर्यवेधन प्राणायाम और लययोग का अभ्यास किया जाता है।

हर साधक को उन नौ को एक साथ करना आवश्यक नहीं। त्रिविध योग साधनाएँ तो सभी को सामान्य परिमार्जन करने की दृष्टि से आवश्यक मानी गई हैं। इनको हर स्थिति के साधक को साथ- साथ चलाने का प्रावधान है। नादयोग, बिंदुयोग और लययोग का अभ्यास सभी कल्प साधकों की दिनचर्या में सम्मिलित है।

मुद्राएँ तथा प्राणायाम तीन-तीन हैं। इनमें से साधक के अंतराल का सूक्ष्म निरीक्षण करके एक-एक का निर्धारण करना पड़ता है। दोनों मुद्राएँ, दोनों प्राणायाम भी तीन योगों की तरह प्रतिदिन साधने पड़ें ऐसी बात नहीं हैं। मुद्राओं में से एक, प्राणायामों में से एक का ही चयन करना होता है। इस प्रकार तीन योग, एक मुद्रा, एक प्राणायाम का पंचविध कार्यक्रम हर एक की दिनचर्या में सम्मिलित रहता है।

संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना 
 ✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन ।।

चिंतन और मनन की प्रक्रिया चांद्रायण कल्प का मेरुदंड है। इसलिए इन दिनों गंभीरतापूर्वक  विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश करना  चाहिए।

आज के स्वाध्याय में हम सभी जानेंगे चिंतन का विषय क्या हैं और मनन का उद्देश्य क्या है।

चिंतन का विषय है-आत्मशोधन मनन का उद्देश्य है- आत्म-परिष्कार। दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरांत पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रंगाई होती है।  आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है। 

आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म- चिंतन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर श्रम का - जितना लाभ हो सकता है उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्धपुरुषों द्वारा बताई गई है।


समझा जाना चाहिए कि चिंतन का विषय अनुशासन है इसी को संयम कहा जाता है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय-संयम और विचार-संयम ये चार प्रकार के संयम है। अपने वर्तमान स्वभाव- अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ-क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना- अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म- समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिन्ह है। पाप कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अगला कदम स्वाध्याय- सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिंतन-मनन है। चिंतन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूंढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाए यह न केवल सोचना होता है वरन उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वंदी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है, असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से जिन कार्यक्रमों से बनती है उनको भी बदलवना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसीलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरंभ कर दिया जाए। कल्पावधि इस अभ्यास के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए।  इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए। साथ ही यह भी निश्चित किया जाए कि इन निर्धारणों को  भविष्य में नियमित रूप से जारी रख जाएगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ़ व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक-दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैं।


निष्कर्ष: 

कल्प साधना में जितना महत्व आहार संयम और जप, ध्यान का है  उतना ही महत्व  आत्म चिंतन का भी समझना चाहिए। आत्म चिंतन का विषय अनुशासन है जिसमें अपने वर्तमान स्वभाव अभ्यास में चार प्रकार के संयम से संबंधित कहां-कहां त्रुटियां है इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जांच पड़ताल की जानी चाहे चाहिए,  साथ ही उन गलत आदतो को किस प्रकार दूर भगाया जाए इसके  लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर चारों संयम का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। 

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन 

मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के  लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है,  दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।

पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।

परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।

संदर्भ : चांद्रायण  कल्प साधना 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।