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श्री कपितत्वम् ।।

नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे ।
नमः श्रीराम-भक्ताय श्यामलाङ्गाय ते नमः ॥ 
नमो वानर - वीराय, सुग्रीव-सख्य-कारणे । सीतां-शोक-विनाशाय, राम- मुद्रा धराय च ॥ 

हे पवन पुत्र, श्री राम भक्त, साँवले हनुमान जी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वानर जाति के वीर सुग्रीव से मित्रता करने वाले सीताजी के शोक का नाश करने वाले श्रीराम की मुद्रिका को धारण करने वाले, हे हनुमानजी मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

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           गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस की जो रचना की उससे वे हनुमान जी के परम कृपापात्र बन गये। अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता हनुमान जी ने उनके लौकिक जीवन में नाना प्रकार के चमत्कार उपस्थित कर दिए। मृत बालक को जिला दिया, स्पर्श करके रोगियों के रोग दूर कर दिए, अनेक भटके हुए पथ भ्रष्ट लोगों को साधु बना दिया। वेश्या उनके संस्पर्श से भक्तिन बन गई। अनेक धर्म पिपासुओं ने प्रभु के दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिए, विराट हिन्दु जनमानस पुनः प्रभु श्रीराम की यशोगाथा से निर्भयता और स्वस्थ मानस लाभ प्राप्त करने लगा। एक बार पुनः हिन्दु धर्म रामायण रूपी महाकल्प वृक्ष की छांव में पल्लवित होने लगा। बादशाह अकबर ने भी उन्हें दिल्ली बुलवा लिया एवं भरे दरबार में कहा कोई चमत्कार दिखाओ तुलसीदास जी सहज भाव से बोले मैं तो सिर्फ ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ, मुझे चमत्कार दिखाना नहीं आता। खीजकर बादशाह ने तुलसीदास को जेल में डाल दिया।
          तुलसीदास ने बजरंग बाण का पाठ शुरु किया और देखते ही देखते विशाल वानरों का झुण्ड आ पहुँचा एवं बादशाह समेत उनके चाकरों को नोंच डाला, भयंकर उत्पाद शुरु हो गया। एक-एक करके वानरों ने वृक्ष उखाड़ फेंके, बादशाह के बगीचे नष्ट भ्रष्ट होने लगे। बादशाह समझ गये तुरंत तुलसीदास को ससम्मान विदा किया। बादशाह अकबर में प्रत्यभिज्ञा शक्ति थी, वह पहचानने में माहिर था परन्तु उसका वंशज औरंगजेब सत्यानाशी प्राणी था। उसने चुन चुनकर हिन्दु धर्म का विनाश किया, चुन चुनकर ग्रंथ जलाये, मूर्ति भंजक था वह, जितना वश चला उतने देव स्थानों को अपवित्र किया साधु संतों को घोर प्रताड़ित किया। हँस हँस कर लोग कर्म करते हैं और रो-रो कर कटते हैं।
          समर्थ रामदास स्वामी जी के रूप में हनुमान भक्त का महाराष्ट्र में उदय हुआ और उन्हें राह चलते शिवाजी मिल गये । शिवाजी ने उछल-उछल कर गुरिल्ला पद्धति में, हनुमद् पद्धति में मुगल साम्राज्य को भारत से उखाड़-उखाड़ कर फेंक दिया। शिवाजी उखाड़ उखाड़ कर फेंकते रहे और औरंगजेब हाथ पर हाथ धरा देखता रहा। उसकी मृत्यु बड़ी ही भीषण हुई, वह एक ऐसे अकल्पनीय रोग से पीड़ित हो गया कि जिसके प्रभाव में उसके अंतकाल में उसके शरीर का एक-एक अंग सूखता जाता और अपने आप टूट जाता, उसकी हड्डियाँ इतनी कमजोर हो गईं कि वह कभी भी कहीं से भी अचानक टूट जातीं। जितने विग्रहों को उसने खण्डित किया था उतनी ही जगह से वह टूट-फूट गया और टूटने फूटने की असहनीय पीड़ा अंत तक झेलता रहा। अंत समय में बहुत पछताया अपने कुकर्मों के लिए यही किया यही भोगा। 
        मैंने अपने जीवन में देखा कि बहुत से बुद्धिजीवियों ने प्रचार-प्रसार माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से, लेखन के माध्यम से कोई कसर नहीं छोड़ी हिन्दु धर्म को विकृत करने में ऐसे लोगों के कंधे अपने कुल की लाशों को ढोते हुए थक गये। बस सारा जीवन अपनी आँखों के सामने अपनी रावण तुल्य करतूतों से लाशों को ही ढोते रहे, दाह संसकार ही करते रहे क्योंकि हनुमान को मालूम है कि इस पृथ्वी पर कुछ अंश में असुरत्व विराजमान है वह न जाने कब किस रूप में, किस वेष में श्रीराम कथा को विकृत करने लगे, कलुषित करने लगे। अतः कई सहस्त्र वर्ष बीत गये, बहुत से आये बहुत से गये, बहुतों ने बहुत कोशिश कर ली कि श्रीरामायण एवं श्रीमद् भागवत गीता, श्री महाभारत को कल्पना ठहरा दें, बेबुनियाद बता दें, मिथ्या प्रचार कर दें, उसे अपवित्र या अप्रासंगिक बता दें परन्तु सबके सब मिट गये और मिटते रहेंगे, घोरतम दण्ड हनुमान की गदा से प्राप्त करते रहेंगे परन्तु कभी भी श्री रामायण, श्री महाभारत, श्रीमद भगवतगीता, वेद, उपनिषद एवं पुराणों को कलुषित नहीं कर पायेंगे क्योंकि रक्षक के रूप में श्री हनुमान विराजित हैं। 
             महाराज पहले गुरु दक्षिणा तो ले लो बाद में गुरु मंत्र देना इतना कहकर श्री हनुमान ने कालनेमि की दोनों टांगे पकड़ी और ढोंगी राम भक्त बने कालनेमि को शिला पर उठाकर दे मारा। वह वहीं मुख से खून उगलता हुआ हे राम हे राम कहता हुआ प्रस्थान कर गया। कालनेमि भी श्रीरामायण को कलुषित कर रहा था, असुर होकर ढोंगी बना बैठा था। यह है श्री हनुमान की गुरु दक्षिणा तो आज के कालनेमियों को मंत्र देने से पूर्व ही मिल जाती है। पहचानने की प्रचण्ड शक्ति है श्री हनुमान में प्रभु आप ने यह कौन से स्वांग रचा है जो कि दासी को अपने वाम अंग में विराजित कर लिया है इतना श्री हनुमान के मुख से सुनते ही सीता का स्वांग करके बैठी हुईं सत्यभामा का गर्व चूर हो गया।

प्रभु श्रीकृष्ण मुस्कुरा दिए स्वर्ग से लाकर उन्होंने पारिजात वृक्ष सत्यभामा के महल में रोपित कर दिया था जिससे कि सत्यभामा को ब्रह्माण्ड सुन्दरी होने का गर्व अभिमान हो गया था। वे अपने आपको माता सीता से भी ज्यादा सौन्दर्यवान समझने लगीं थीं परन्तु एक ही क्षण में पहचानने की शक्ति रखने वाले श्री हनुमान ने उनकी वास्तविकता बता दी । 
              गर्व अभिमान तो सुदर्शन चक्र को भी हो गया था, गर्व अभिमान तो गरुड़ को भी हो गया था, अम्बरीश कथा में सुदर्शन चक्र ने दुर्वासा को पीड़ित कर दिया था। अमृत मंथन के समय अमृत कलश को ले भागने का गर्व गरुड़ को भी हो गया था परन्तु श्रीकृष्ण के इशारे पर उन्होंने गरुड़ देव को पूंछ में बांधकर समुद्र में फेंक दिया था और सुदर्शन चक्र को मुख में रख लिया था । श्री हनुमान बोले इस मुख में मैंने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका रखी थी उसके सामने सुदर्शन चक्र कहाँ । विश्व में श्री रामायण जितना प्राण- प्रतिष्ठित ग्रंथ कहाँ ? सीधे प्राणों को शक्ति देती हैं श्री रामायण युग बीत गया, काल बीत गया, बहुत कुछ बदल गया परन्तु श्री रामायण नहीं बदली, प्रभु का आनंद मुख आज भी परमानंद देता है प्राणियों को। श्री हनुमान यंत्र में सुग्रीव, अंगद, जामवंत, नल-नील से लेकर अनंत वीर स्थापित हैं एवं वीरों के महावीर हैं श्री हनुमान श्री हनुमान ने पंपा सरोवर के पास प्रभु श्री राम से मिलने से पूर्व कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया और प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के मिलन के पश्चात् भी उन्होंने कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया इसी काल के मध्य में उन्होंने अपनी समस्त विलक्षणता संसार के सामने प्रस्तुत की। इसके पश्चात् तो वे एक तरह से संरक्षक बन गये और छोटे मोटे युद्ध संग्राम इत्यादि उनके अंतर्गत आने वाले शिष्य रूपी वीरों ने ही सम्पन्न किए।
         माता सीता के वाल्मीकि आश्रम जाने के पश्चात् एक तरह से रामायण का परम आध्यात्मिक भाग सम्पन्न हो गया। यहीं पर श्री रामावतार की प्रासंगिकता समाप्त हो गई शक्ति जब विष्णु से अलग हो गई तब ऋषियों ने इसके आगे की कथा को विशेष महत्व नहीं दिया। सीता त्याग के पश्चात् राम के एकाकी हो जाने पर श्री हनुमान खिन्न हो गये और वे सब कुछ त्याग कर तप को चल दिए। वहीं पर उन्होंने अपने नखों से स्फटिक शिलाओं के ऊपर श्री हनुमद्कृत परम गोपनीय रामायण लिखी। जो हनुमान ने देखा, जो हनुमान ने अनुभूत किया, जिसके साक्षी स्वयं श्री हनुमान रहे, वे हनुमान जिन्होंने कि श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को अपने कंधे पर ढोया, उनके वाहन बने, उनके संकट का मोचन किया, वे हनुमान जिन्होंने माता सीता की परम शक्ति को देखा। रावण वध के पश्चात् प्रभु श्रीराम अगत्स्य जी से बोले था तो रावण ब्राह्मण हम सबने वध तो किया ब्रह्म राक्षस का अतः ब्रह्म हत्या तो कुछ न कुछ लगी। महर्षि अगत्स्य से बोले आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं, परब्रह्म हैं। परब्रह्म, ब्रह्म के चक्कर में नहीं उलझता परब्रह्म सबसे परे है फिर भी आप ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दीजिए। 
           तत्काल श्रीराम ने हनुमान को कैलाश भेजा दिव्य शिवलिंग विग्रह लाने हेतु। हनुमान जी उपासना करने लगे कैलाश पर शिवजी की। मुहूर्त बीतता जा रहा था तभी महर्षि अगत्स्य जी के सुझाव पर सिद्धाश्रम के स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज के संदेश पर श्रीराम ने जनक नंदनी सीता जी द्वारा खेल-खेल में ही बनाये गये बालू के शिवलिंग में प्राण प्रतिष्ठता कर दी तभी श्री हनुमान दो विग्रह लेकर आ पहुँचे परन्तु देर हो चुकी थी हनुमान जी ने क्रोधवश दोनों पाँव जोर से पटके, श्रीराम बोले हनुमान मैं तुम्हारे शिवलिंग की मैं स्थापना कर देता हूँ अगर तुममें शक्ति हो तो जनक नंदनी सीता द्वारा इस बालू के शिवलिंग को उखाड़कर दिखा दो । हनुमान की पूंछ टूट गई परन्तु वे बालू के शिवलिंग को हिला न सके। वे समझ गये जनक नंदिनी सीता की शक्ति को। उनके दो शिवलिंग विग्रहों में से एक प्रभु श्रीराम ने स्थापित कर दिया और कहा कि आज से इसे हनुमदीश्वर शिवलिंग कहा जायेगा। श्रीरामेश्वरम दर्शन से पहले हनुमान द्वारा स्थापित इस शिवलिंग का दर्शन आवश्यक है।

       जो भी श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वह समस्त पाप बंधनों से, कर्म बंधनों से, शाप बंधनों से उसी क्षण मुक्त हो जाता है और यहीं पर सिद्धाश्रम ने ऋषि मुनियों के सानिध्य में विष्णु अवतार को पुनः माता सीता एवं लक्ष्मण समेत सकुशल बैकुण्ठधाम प्रक्षेपित कर दिया। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग स्थापना के पश्चात् आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समस्त विष्णु गण, देवता, महालक्ष्मी स्वरूपिणी माता सीता इत्यादि वापस चले गये। आगे की कथा तो बस इच्छवाकु वंश के क्षेत्रीयों का ताम-झाम है, कुछ विशेष करने को नहीं रह गया था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ कभी सफल नहीं हुआ। अनेकों जगह भरत, शत्रुघन, हनुमान, सुग्रीव पराजित हुए, समझौते हुए। देखो माँ हमने इन दोनों वानरों को पूंछ समेत बांध लिया है, इनसे हम अपना मनोरंजन करेंगे। हमने अयोध्या के घमण्डी राजा के अश्व के माथे पर बंधा हुआ वह स्वर्ण पत्र भी निकाल लिया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि जो सच्चे क्षत्रीय हों वे ही उनके अश्व को बांधे। उस दम्भी राजा की समस्त सेना हमने पराजित कर दी, उनके भाई बंधु इत्यादि भी घायल एवं मूच्छित युद्ध क्षेत्र में पड़े हैं। 
            जगत जननी सीता का स्मरण कर लव ने हनुमान की पूंछ पर जोरदार प्रहार किया था और हनुमान व्यथित हो गये थे। कुश ने माता सीता का स्मरण कर अयोध्या की चतुरंगिणी सेना को ही नष्ट कर दिया था। हनुमान और सुग्रीव समझ गये थे कि माता सीता ही शक्ति स्वरूपा हैं एवं श्री रामायण में उनके अभाव में श्रीराम समेत हम सब कुछ भी नहीं हैं। महर्षि वाल्मीकि को मालूम चला कि श्री हनुमान ने श्री राम चरित लिखा है उन्हें तीव्रतम इच्छा हुई उसे देखने की। श्रीहनुमान से उन्होंने विनय किया एवं श्री हनुमान रचित रामायण को पढ़ वे लज्जित हो गये। उन्हें अपनी रचना व्यर्थ लगने लगी, श्री हनुमान मर्मज्ञ थे वे ताड़ गये। एक कंधे पर उन शिलाओं को रखा जिन पर हनुमान नाटक वर्णित था और समुद्र के बीचोबीच जाकर देखते ही देखते सभी शिलाओं को डुबो दिया। 
      श्री विष्णु अवतार एक निश्चित अनुसंधान एवं सिद्धाश्रम के दिव्य ऋषि-मुनियों के सानिध्य में सदैव सम्पन्न होता है श्रीविष्णु अवतार के अंतर्गत एक-एक क्षण पूर्व योजनानुसार अनुशासित एवं निर्धारित होता है अतः किस ऋषि, किस महर्षि को क्या कर्म सम्पन्न करना है, क्या नहीं इसका सदैव ध्यान रखा जाता है। ऋषि शब्द समझना पड़ेगा, ऋषि की उपाधि केवल सिद्धाश्रम वासी को मिलती है इसलिए श्रीरामचंद्र ऋषि कहा जाता है, श्री हनुमद् ऋषि कहा जाता है, श्री अगत्स्य ऋषि कहा जाता है, श्री वाल्मीकि ऋषि कहा जाता है, श्री लक्ष्मण ऋषि कहा जाता है इत्यादि-इत्यादि । साधु-संत, भक्त, भजनकर्ता, पुजारी, ब्रह्मचारी, कथावाचक, लेखक, गायक इत्यादि ऋषि नहीं कहलाते। जनमानस में प्रचलित अनेकों गुरु ऋषि नहीं कहलाते, नाना प्रकार के मांत्रिक, तांत्रिक, यांत्रिक इत्यादियों को ऋषि उपाधि नहीं मिलती। सब कुछ मिल सकता है हार, फूल, माला, धन दौलत, नाम, प्रसिद्धि, यश, ढोल मंजीरे परन्तु ऋषित्व नहीं मिलता। ऋषित्व का सिद्धियों से भी लेना देना नहीं है ऋषित्व का योग से भी लेना देना नहीं है। सिद्ध पुरुष होना, योगी होना, वैज्ञानिक होना यहाँ तक कि ईश्वर होना एक अलग बात है परन्तु ऋषित्व कुछ अलग है। ऋषित्व के माध्यम से श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्रीविद्या स्वरूपिणी आद्या इत्यादि लीला प्रसंग करते हैं। हनुमान ऋषि हैं और कुछ नहीं वे श्रीरामचंद्र ऋषि के समतुल्य हैं। श्रीरामचंद्र अवतार के प्रमुख संरक्षक के रूप में श्री हनुमद् ऋषि आज भी सशरीर क्रियाशील हैं।

                  शिव शासनत: शिव शासनत:

Who is Rudra?


What has been, is Rudra; and what is, is He; and what will be, is He, the eternal and the non-eternal, the visible and the invisible, the Brahman and the non-Brahman, the east and west and north and south and above and below, the masculine and feminine and neuter, the Savitri and Gayatri, the appearance and the Reality, the water and the fire, the cow and the buffalo, the lotus flower and the soma filter, the within and the without, the inner essence of everything.
-Atharvashiras Upanishad

Bhagavan Shiva, is Vrishabharudhar, withhis consort Parvati on vahan Nandi at theKokarneswarar, Temple, at, Tirukokarnam in Pudukotai Dstrict Tamilnad the Temple is dedicated to Bhagwan Shiva ।।


अमोघ हनुमंत कवचम् ।।

        भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी इस अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं। जो पालनकर्ता होता है उसे तो बालक की व्यथा सुनकर अवश्य ही आना पड़ता है। चाहे जैसा भी काल हो, जैसी भी स्थितियां हो पालनकर्ता को तो बालक की पुकार सुननी ही पड़ती है । यही कारण है कि भगवान विष्णु बारम्बार इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु और माता महालक्ष्मी केवल मनुष्य रूप में ही अवतरित नहीं होते हैं। कभी वे नरसिंह अवतार के रूप में इस धरा पर आते हैं कभी मकर रूप में अवतरित होते हैं तो कभी किसी अन्य स्वरूप में विष्णु केवल मनुष्यों के देव नहीं है समस्त योनियां, जीव-जंतु, पादप सभी के पालक विष्णु ही हैं। अतः जब यह धरा मनुष्यों की बहुलता में क्रीड़ा स्थली बन जाती है तब भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। 
              इस धरा की सम्पूर्ण व्यवस्था में रुद्र और ब्रह्मा के साथ-साथ महादेवियों का अंश भी समान रूप से आवश्यक होता है। विष्णु के अवतरित होने की स्थिति में उनके साथ रुद्रांश भी अवतरित होते हैं साथ ही महादेवी भी स्त्री रूप में इस धरा पर दिव्य छटा बिखेरती हैं। त्रेता युग में जग को मर्यादित करने के लिये विष्णु जब राम के रूप में अवतरित हुये तभी रुद्रांश हनुमंत का भी प्राकट्य हुआ। हनुमंत अपने अंदर शिव के प्रमुख अंश वरुण और सूर्य की शक्ति समेटे हुये हैं। जिन दिव्य महापुरुषों में रुद्रांश या शिवांश होता है उन्हीं के शरीर और मस्तिष्क पर भवानी आरूढ़ होती हैं। निम्न स्तरीय जीव और मनुष्य क्रोध की आवृत्ति धारण करते हैं। क्रोध और भवानी दो अलग धारायें हैं। 
          क्रोध आसुरी प्रवृत्ति का द्योतक है, क्रोध के साथ दम्भ भी मिश्रित हता है। क्रोध मस्तिष्क का सबसे ज्यादा क्षय करता है। धीर गम्भीर और मर्यादित व्यक्तित्व क्रोध की आवृत्ति मे दूर रहते हैं परन्तु भवानी की तीव्रता वीरता का प्रतीक है । साहसी और मृत्युभय से विरक्त मस्तिष्क ही भवानी की गरिमा को धारण कर सकता है। हनुमंत को भवानी सिद्ध हैं। समस्त स्त्रियां एवं स्वयं माता सीता उन्हें आदर, श्रद्धा और वात्सल्य के भाव से देखती हैं। आखिरकार वे माता सीता और राम के पुनर्मिलन में सेतु ही तो बने हैं। जिस समय सीता जी लंका की अशोक वाटिका में राम वियोग में प्रतिक्षण व्यथित हो रही थीं उस समय हनुमान ने ही उन तक राम मुद्रिका पहुँचाकर उन्हें आनंदित किया था एवं सीताजी की निशानी पुनः राम तक पहुँचाकर उनके व्यथित हृदय को भी परम सुख प्रदान किया था। राम और सीता के बीच वास्तव में हनुमंत ही सेतुबंध हैं। यही सेतुबंध उन्हें राम के साथ अटूट प्रेम बंधन में बांधता है। जिसके मस्तक पर मां भवानी आरूढ़ होती है वही हर हर महादेव का जयघोष कर सकता है। मां भवानी की शक्ति ही महादेव को रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
        हनुमंत कवच की विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव का महामृत्युंजय कवच और मां भगवती का महाकाली कवच एक साथ मिश्रित होकर हनुमंत की पवित्रता, भक्ति और श्रद्धा से समायोजित हो चमत्कारिक रूप से साधकों को फल प्रदान करता है एवं उन्हें सर्व बाधाओं, आसुरी शक्तियों, रोग, शोक और वियोग से संरक्षित करता है। पवित्रता ही परम रोग नाशक औषधि है। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मस्तक पर मां भवानी कदापि आरूढ़ नहीं होती । आसुरी शक्तियां तो सदैव मातृ शक्ति का अनादर ही करती हैं। रावण ने तो इसकी पराकाष्ठा सीता हरण करके दिखा दी थी। ठीक इसी प्रकार दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण करके अपनी मृत्यु सुनिश्चत कर ली थी। हनुमंत कवच आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिए नहीं है। न ही इसका उपयोग कायर, कामी और विलासी व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कर सकते हैं। यह कवच तो वीरों के लिये बना है, धर्म की रक्षा और मर्यादा का पालन करने वाले ही इसे धारण कर सकते हैं।. 
           यह रक्षा करता है अवरोधों की, स्त्रियों की एवं प्रेममयी व्यक्तित्वों की । प्रत्येक व्यक्ति इस कवच को धारण तभी कर सकता है जब उसके मन में साधु संतो के प्रति आदर भाव हो, वेदान्त संस्कृति में पूर्ण विश्वास हो एवं हृदय - कमल पर विष्णु रूपी राम और लक्ष्मी रूपी सीता पूर्ण श्रद्धा के साथ विराजमान हों। हनुमंत कवच को धारण करने का अभिप्राय ही दुष्टों का दमन करना है। पूर्ण वीरता के साथ । न कि कायरों के समान दुष्टों के सामने समर्पण कर हनुमंत शक्ति की अवहेलना करना है। हनुमंत विजय का प्रतीक हैं। वे अजेय हैं। विषम से विषम परिस्थितियों को भी वे अनुकूल बना देते हैं जैसा कि उन्होंने भगवान श्रीराम के साथ किया था। हनुमंत कवच धारण करने वाले व्यक्ति के हृदय में असम्भव जैसे शब्दों का उत्पादन नहीं होना चाहिए। 

हनुमंत कवच पराआध्यात्मिक कवच है एवं इसमें समस्त आर्यावर्त के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों के आशीर्वाद निहित हैं। 
            कवच का तात्पर्य लोहे के वस्त्रों से नहीं है। वे तो एक बार भेदे जा सकते हैं, आप उनके वजन तले बोझिलता महसूस कर सकते हैं, उनमें स्वरूप परिवर्तन होता ही नहीं है। परन्तु हनुमंत कवच तो हर परिस्थिति में परिवर्तनीय हो आपको बिना बताये अदृश्य रूप में प्रतिक्षण आपकी रक्षा करता रहेगा। हनुमंत बुद्धि के देवता हैं। उनकी बुद्धि शीशे के समान पवित्र है।रामायण जैसा महाग्रंथ इस आर्यावर्त के सभी ऋषि मुनियों एवं मंत्र दृष्टा, तंत्र दृष्टा और तत्व दृष्टा महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से वर्णित किया है। एक समय पार्वती जी ने भगवान शंकर से समस्त लोकों के कल्याण के लिये इस कवच के बारे में बताने को कहा जिससे कि सभी देव और मनुष्य परम सुरक्षा प्राप्त कर सकें तब भगवान शंकर बोले- हे देवि भगवान श्रीराम ने ही हनुमंत कवच का निर्माण किया है और वह भी सर्वप्रथम अपने परम भक्त विभीषण के लिये जो कि असुर नगरी में निवास करता हुआ भी राम का अनन्य उपासक था। यह कवच परम गोपनीय है अतः इसे आप विशेष रूप से श्रवण कीजीये 

विनियोग

       दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें अक्षत, पुष्प मिला लें तथा निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अस्य श्री हनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि: अनुष्टुप्छन्दः । श्री महावीरो हनुमान् देवता / मारुतात्मज इति बीजम् । अञ्जिनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं इति कवचम् । ॐ स्वाहा इति कीलकम् । ॐ लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अथ न्यास

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । 
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ हैं अनामिकाभ्या नमः । 
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ हः करतल करपृष्टाभ्यां नमः । 
ॐ अंजनीसूनवे हृदयाय नमः । 
ॐ रुद्रमूर्तये शिरसि स्वाहा । 
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । 
ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । 
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ ह्रीं ब्रह्मास्त्र निवारणाय अस्त्राय फट्

दिग्बन्ध

राम दूताय विद्महे, कपिराजाय धीमहि,तन्नो हनुमन्त प्रचोदयात् ।
 ॐ हुँ फट् इति दिग्बन्धन ।

अथ ध्यानम्

घ्यायेद्वालदिवाक रघुतिनिभं देवारिदर्पापाहं,
देवेन्द्रप्र वरप्र शस्तयशसं दैदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं 
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ॥


उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचियुतं चारु वीरासनस्थं,
मौंजीयज्ञोपवीता भरणरुचिशिरवा शोभितंकुंडलांगम्।
भक्तानामिष्टदंतं प्रणत मुनिजनं वेदाना प्रमोदं,
ध्यायेदेवं विधेयंप्लवंगकुलपतिं गोष्पदी भूतवाधिम् ॥


वज्रांगं पिंग केशादयं स्वर्ण कुण्डल मण्डितम् ।
नियुद्धं कर्म कुशलं पारावार पराक्रमम् ॥ 

वाम हस्ते महावृक्षं दशास्थकर खण्डनम् ।
उद्यदक्षिण कोदण्ड हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥

स्फटिकाभं स्वर्ण कान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिं।
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥

उद्यदादित्य संकाश मुदारभुज विक्रमम् । 
कन्दर्प कोटि लावण्यं सर्व विद्या विशारदम् ॥

श्री राम हृदयानन्दं भक्त कल्प महीरुहम् । 
अभयं वरदं दोभ्यि कलये मारुतात्मजम् ॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते राम पूजित ।
 प्रस्थानंच करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥

यो वारां निधिमल्प पल्वल मिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो, 
वैदेही घन शोक ताप हरणो वैकुण्ठ तत्त्व प्रियः ।

अक्षार्जित राक्षसेश्वर महा दर्पापहारी रणे 
सोऽयं वानर पुंगवोऽस्तु सदा युष्मान् समीरात्मजः ॥

वजांगं पिंग केशं कनकमयलसत्कुण्डला क्रान्त गंड,
नाना विद्याधिनाथं करतल विधूतं पूर्ण कुम्भं दृढं च ।
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं 
त्रैलोक्य त्राणकारं सकल भुवनगं रामदूतं नमामि ॥

उपल्लांगूल केशं, प्रचय जलधरं भीम मूर्ति कपीन्द्र,
वन्दे रामांघ्रि पदम भ्रमर परिवृतं तत्त्व सारं प्रसन्नम् ।
वज्रांगं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डला क्रांत गण्डम् भोहिणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ 

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकंठलग्नं । दधानमासाद्यसुवर्ण वर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डल रामदूतम् ॥

पदम राग मणि कुण्डलत्विषपाटली कृत कपोल मण्डलम् ।
दिव्यदेवकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥
 
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

हनुमंत साधना के कुछ नियम ।।

        जीवन में समर्पण, भक्ति, सेवा, बल, बुद्धि, साहस, कर्मठता, तेजस्विता, सिद्धि, निधि, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता, संकटों पर विजय प्राप्त कर लेने का साहस इत्यादि का मिला जुला रूप यदि कहीं है तो उसे आप हनुमंत कह सकते हैं बजरंग कह सकते हैं। हनुमतत्व से इन्हीं योग्यताओं का निर्माण सम्भव होता है। हनुमंत साधना के द्वारा साधक अपने अंदर उन सभी क्षमताओं और विशेषताओं को विकसित कर सकता है जो कि रामभक्त हनुमान में उपस्थित हैं। साधना का यही रहस्य है । इस पृथ्वी पर जीवन पंगु, निर्बल, कायर, कामचोर और कर्महीनों के लिये नहीं है। ध्यान रहे शास्त्रों के अनुसार जिसकी इस लोक में पूछ-परख है उसी की मृत्यु के पश्चात अन्य लोकों में भी पूछ-परख होती है। घिसट-घिसटकर जीना और घिसटता हुआ जीवन अपने आप में जीवन नहीं कहलाता है। इस प्रकार का जीवन मृतप्राय जीवन कहलाता है।
              जीवन यात्रा की डगर सीधी-साधी नहीं है। मृत्युलोक में शरीर धारण करने का मतलब ही सैकड़ों परेशानी, सैकड़ों संकट, सैकड़ों अड़चने और पग-पग पर घोषित और अघोषित शत्रुओं का सामना, षड्यंत्रों के बीच से निकलना है। आर्यवंश में जब तक हनुमंत साधक बड़ी संख्या में होंगे वैदिक संस्कृति पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगी अन्यथा असुर संस्कृति धीरे-धीरे समस्त विश्व को अपना ग्रास बना लेगी। यदि आपके शरीर में पूर्ण रूप से हनुमान स्थापित हो जाते हैं तो फिर आपको लाचार, असहाय, वृद्ध, रोगी और कामचोर की तरह जीवन बिताने की जरूरत नहीं है फिर आपके सामने संकट नहीं आ सकते, बाधायें नहीं आ सकती और राज्य भय भी नहीं आ सकता। कलयुग में हनुमंत साधना ही सबसे त्वरित फल प्रदान करती है।हनुमंत साधना में साधक को प्राण प्रतिष्ठित और मंत्र सिद्ध हनुमान यंत्र, मूंगे की माला, हनुमान विग्रह एवं लाल हकीक की माला का उपयोग करना चाहिये। इसके अलावा जलपात्र, अबीर, गुलाल, कुंकुम, केसर, लाल चाँवल, सिन्दूर, नारियल, मौली, लाल वस्त्र, घी का दीपक और तेल के दीपक का भी उपयोग किया जाता है।
              हनुमंत साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिये गुरु से पूर्ण हनुमान सिद्धि दीक्षा शक्तिपात के द्वारा प्राप्त करनी चाहिये। यह दीक्षा तीन चरणों में दी जाती है।हनुमान जी भगवान राम के सेवक हैं अत: उनके चरित्रों के श्रवण से वे अति प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिये घर में रामचरित मानस, अखण्ड रामायण, सुन्दरकाण्ड, मूल रामायण और वाल्मिकी रामायण आदि का पाठ करवाना चाहिये। जहाँ राम वहीं हनुमान इस बात को साधक मूल मंत्र समझे। रामलीला के आयोजन से भी वे अति प्रसन्न होते हैं।
                हनुमानजी की साधना करते समय साधक का मुख पूर्व की ओर होना चाहिये और यदि किसी करणवश ऐसा न किया जा सके तो ऐसी भावना करें कि हनुमान पूर्व में ही प्रतिष्ठित हैं। हनुमान जी का पूजन साधक की कामना के अनुसार पंचोपचार, दशोपचार और षोडशोपचार आदि से किया जाता है। षोडशोपचार पूजन में आह्वान, आसन, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, पुनर्वाचमन, ताम्बूल, दक्षिणा प्रदक्षिणा या नीराजन किया जाता है।
                  स्नान में कुँये का शुद्ध जल और गंधादि युक्त पवित्र जल उपयोग में लाना चाहिये। विशेष पर्वों पर दूध, दही, घी, मधु और चीनी के पञ्चामृत से स्नान कराके फिर शुद्धोधक से स्नान कराया जाय। उद्वर्तन के स्थान पर तिल के तेल में मिश्रित सिन्दूर का सर्वांग में लेपन किया जाता है इससे हनुमान जी अति प्रसन्न होते हैं। लंका विजय के बाद रामचन्द्र जी ने सुग्रीव को पारितोषिक दिया उस समय सीताजी ने हनुमान जी को बहुमूल्य मोतियों की माला दी, किन्तु उसमें राम नाम न होने से वे उदासीन रहे तब सीता जी ने अपनी सीमन्त का सिन्दूर देकर कहा कि यह मेरा मुख्य सौभाग्य चिन्ह है और इसको मैं धन धान्य और रत्न आदि से भी अधिक प्रिय मानती हूँ, अत: हे पुत्र तुम इसको सहर्ष स्वीकार करो तब हनुमान जी ने सिन्दूर को अंगीकार कर लिया। 

                   गंध में शुद्ध केसर के साथ घिसा हुआ मलयागिरी चन्दन या लाल चन्दन चढ़ाना चाहिये। पुष्पों में पुरुषवाची नाम के लाल पीले, गम्भीर और दीर्घकाय पुष्प (कमल, केवड़ा, सूर्यमुखी, हजारा) अर्पण करें। देवशयनी (आषाढ़ शुक्लैकादशी) से 'देवप्रबोधिनी' (कार्तिक शुक्लैकादशी) तक 121 दिन में प्रतिदिन 108 तुलसी पत्तों पर कदम्ब की कलम से और अष्टगंध से "राम" नाम लिखकर गन्धादि से पूजित करें, “ॐ हनुमते नमः" से एक-एक पत्र हनुमान जी को शिरोधार्य करावें । 
                  इस प्रयोग से जीवन के घोर से घोर अनिष्ठ दूर हो जाते हैं। प्रातः पूजन में गुड़, नारियल का गोला, मोदक चढ़ाना चाहिये मध्यान्ह में गुड़, घी और गेंहूँ का चूरमा, घी लगी गेंहूँ की रोटी इत्यादि अर्पित करनी चाहिये। मंगलवार को हनुमान जी को चूरमा अवश्य चढ़ाना चाहिये और उसी दिन प्रसाद का भोजन करके एक युक्त भौम व्रत करें। यदि मौन रहकर बायें हाथ से भोजन किया जाय तो यह व्रत रणमोचन में अत्यधिक उपयोगी है। 
              घी में भीगी हुई एक या पाँच शुद्ध रुई की बत्तियों से आरती करनी चाहिये । महापूजा के समय 5, 11, 51 या 108 बत्तियों से पूजन करना चाहिये। इस अवसर पर शंख, रण सिंघा, विजयघण्ट और नगाड़ा आदि की ध्वनि से हनुमान जी अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी को रुद्रावतार माना गया है इसीलिये चरणामृत का प्रचार कम है। हनुमान साधना पुरुष या स्त्री कोई भी कर सकता है। साधक शब्द में पुरुष या स्त्रो जैसा कोई भेद नहीं है। प्रत्येक हनुमान साधना पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के लिये भी उतनी ही उपयोगी है। पूजन के पश्चात् जप किया जाता है। 

जप तीन प्रकार के हैं - 
1. वाचिक इसमें जाप का उच्चारण दूसरों को सुनाई देता है। 2. उपान्शु - जिसमें ओंठ, जीभ हिलते रहें किन्तु उच्चारण सुनाई न दें । 
3. मानसिक इसमें ओंठ बंद रहते हैं, जीभ चिपकी रहती है और जप मन में होता है। मानस जप में आराध्य देव के स्वरूप का ध्यान करना आवश्यक है। 
मानस जप करते समय अपने हृदय में हनुमान जी का इस प्रकार से ध्यान करें 

उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्र्थ मौञ्जोयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिरवाशोभितं कुण्डलाम् । भक्तानाभिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्दीभूतवार्द्धिम् ॥

उदय होते हुये प्रकाशमान सूर्य जैसे तेजस्वी, मनोरम वीरासन से स्थित, मूँज की मेखला तथा यज्ञोपवीत धारण करने वाले, लाल वर्ण की सुन्दर शिखावाले, कुण्डलों से शोभित, भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले, मुनियों से वन्दित, वेदनाद से हर्षित, वानर कुल के स्वामी और समुद्र को गोपद के समान लांघ जाने वाले स्वरूप का ध्यान व्यापक या सर्वानुकूल प्रतीत होता है।
              हनुमान साधना में हनुमत विग्रह को एक टक देखते हुये भी मंत्र जप किया जा सकता है हनुमत साधना के दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नितांत आवश्यक होता है जो साधना की मुख्य धूरी है। हनुमान साधना के लिये रुद्राक्ष या मूंगे की माला का प्रयोग करना चाहिये। हनुमान साधना में लाल आसन पर बैठें, लाल धोती पहने एवं लाल चादर का प्रयोग करें। तेल का दीपक अगरबत्ती या धूप पूरे साधनाकाल में जलती रहनी चाहिये ।.
           श्री हनुमान साधना दास्यभाव से करना चाहिये इससे वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। हनुमत साधना में एक समय ही भोजन करें एवं सूर्यास्त के बाद पूजन आदि करके ही भोजन करें। इस भोजन में नमक का सेवन न करें तो अच्छा ही होगा। हनुमत साधकों को पूज्य (गौ, गुरु, द्विज, देव आदि) के सानिध्य में रहना चाहिये। तामसिक प्रवृत्ति के लोगों से किसी भी प्रकार का सम्पर्क नहीं करना चाहिये। हनुमान साधना मंगलवार और शनिवार को अवश्य करनी चाहिये इससे दुष्ट और नीच ग्रह शांत हो जाते हैं। हनुमान जी को शुद्धता एवं पवित्रता अतिप्रिय है अतः साधक शुद्धता एवं पवित्रता का अधिक ध्यान रखें।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभ देहं दनुजवन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । 
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥

पुराणों से मालुम हो सकता है कि हनुमान जी पवन के पुत्र और रुद्र के अवतार हैं। देव, दानव और मानव सृष्टि में इनका मान और महत्व सर्वोच्च है। जिस समय यह जन्में उस समय ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु, इन्द्रादि ने इनको अजरामर किया था और इन्हें अनेक प्रकार के वर दिये थे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

आत्मसमर्पण ।।

         नारद जी ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। वे एक बार तपस्या करने के लिए उद्धत हुए, गंगोत्री के पास एक विशेष शिव क्षेत्र है यहीं पर भगवान शिव ने घोर तपस्या की थी और कामदेव का दहन कर दिया था जिसके कारण यह सम्पूर्ण क्षेत्र काम विहीन हो चुका है एवं कामदेव यहाँ पर क्रियाशील नहीं होते हैं। कामदेव की एक भी कला यहाँ । पर प्रभावी नहीं होती यही कारण है कि अधिकांशतः मोक्षगामी ऋषि-मुनि एवं अन्य साधक इसी स्थान को तप के लिए चुनते हैं, हमारे पुराणों में इस स्थान का अत्यधिक महत्व है। आज भी कामुक से कामुक व्यक्ति बद्रीनाथ । से लेकर गंगोत्री तट के क्षेत्र में अगर निवास करे तो वह पूर्णत: सात्विक हो जाता है।

         नारद जी ने उग्र तपस्या प्रारम्भ की, इन्द्र को लगा कि कहीं मेरा पद न चला जाय तुरंत ही कामदेव को आदेश दिया जाओ नारद की तपस्या भंग करो। कामदेव ने समस्त प्रपंच अपने पाँच बाणों के द्वारा रचे पर नारद की तपस्या भंग नहीं हुई। कालान्तर नारद गर्व से भर उठे सीधे ब्रह्मा के पास पहुँचे और बोले मैंने काम पर विजय पा ली है। ब्रह्मा अंतर्यामी हैं सब कुछ समझ गये बोले जाओ शिव से आशीर्वाद ले लो। नारद जी शिव लोक पहुँच गये और अपनी तपस्या का बखान करने लगे। परम परमेश्वर आदि देव बोले बेटा इस बात को गोपनीय रखना किसी के सामने अपनी सिद्धि का बख़ान मत करना विशेषकर विष्णु के सामने तो कभी नहीं। इसे गोपनीय रखना परम आवश्यक है। शिव सब कुछ समझ गये थे। खैर नारद के पेट में कहाँ बात पंचती है वे बैकुण्ठ धाम पहुँच गये और विष्णु के सामने भी बखान करने लगे। विष्णु तो लीलाधारी हैं, मायावी हैं तुरंत ही एक नगरी रच दी और वहाँ के राजा के यहाँ महालक्ष्मी को पुत्री के रूप में भेज दिया।

          कमला का कमनीय सौन्दर्य, प्रत्येक अंग कमल के समान आकर्षक एवं आकर्षित, करने वाला। यहाँ पर महालक्ष्मी का नाम पड़ा श्रीमती आजकल हम श्रीमती का मतलब विवाहित स्त्री से लगाते हैं परन्तु महालक्ष्मी श्रीमती के रूप में कुंवारी ही थीं। विष्णु की लीला विष्णु ही जाने। नारद फिसल गये महालक्ष्मी का सौन्दर्य ही ऐसा है। उनके अंदर स्त्री प्राप्ति की इच्छा जाग उठी सीधे विष्णु के पास पहुँचे बोले मुझे अपना रूप दें दो स्वयंवर में जाना हैं। विष्णु मुस्कुरा दिए अपने रूप की जगह वानर का रूप दे दिया। स्त्री मोह में अंधे नारद सीधे स्वयंवर स्थल पर पहुँचे श्रीमती उन्हें देख कुपित हो उठीं। स्वयंवर में उन्होंने किसी को पसंद नहीं किया। महालीलाधारी शिव, विष्णु की इस लीला को देख रहे थे तुरंत अपने दो पार्षद भेजे नारद को समझाने के लिए पर मोहिनी का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। नारद की बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी शिव पार्षदों को भी श्राप दे दिया, विष्णु को भी श्राप दे बैठे, बहुत कुछ भला बुरा कहा। विष्णु शांत भाव से शापित होते रहे पर जब नारद पुनः चेतना में लौटे तो भारी पश्चाताप हुआ।

           वास्तविकता यह थी कि वे कामशून्य नहीं हुए थे बल्कि यह तो कामशून्य दिव्य शिव तीर्थ की ही महिमा थी कि कामदेव निष्फल हो गये थे। नारद ने आत्मसमर्पण कर दिया, फूट-फूटकर श्री हरि के चरणों में गिड़गिड़ाने लगे। ब्रह्मा के पास जाकर भी भारी पश्चाताप करने लगे, शिव सानिध्य में जा प्राणोत्सर्ग करने की ठान बैठे। खैर जब आत्मसमर्पण सम्पूर्ण हुआ तब पुनः त्रिदेवों ने नारद 'को आशीर्वचन प्रदान किए। एक बार नारद की बुद्धि पुनः शुद्ध हुई, वे पवित्र मुनि । पद पर गतिमान हुए।

          आत्म समर्पण तो करना ही पड़ेगा । अध्यात्म के क्षेत्र में मुँह से बोलने से काम नहीं चलेगा। नौटंकी बाजी से कुछ नहीं होगा। 90 प्रतिशत व्यक्ति बोलते हैं हम बीस साल से पूजा कर रहे हैं, घण्टे बजा रहे हैं, मंत्र जप कर रहे हैं, यज्ञानुष्ठान कर रहे हैं फिर भी मजा नहीं आ रहा है, हमारे गुरु महाराज भी हैं पर वे भी बेकार हैं हमें तो लगता है उन्हें कुछ नहीं आता है, वे ढोंगी हैं' इत्यादि इत्यादि । इस तरह के विचार, संशय-असंशय । अधिकांशत: लोगों के मन में घुमड़ते रहते हैं। पूजा, उपासना, मंत्र जप, योग क्रिया के साथ-साथ अध्यात्म के क्षेत्र में सम्पन्न किए गये प्रत्येक कर्म के पीछे व्यक्ति विशेष को आत्मसमर्पण की तरफ गतिमान होने देने का ही लक्ष्य होता है। आत्मसमर्पण में समय लगता है। यह एक प्रकार से एक विशेष परा अवस्था है जो कि परमानंद प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है। जो साधक अपने ईष्ट के प्रति आत्मसमर्पित हो जाता है वही साक्षात् ईष्ट में विलीन हो पाता है अन्यथा दूरियाँ बनी रहती हैं। 

        मतभेद और मनः भेद कहीं न कहीं दिखाई पड़ते हैं। "काली" रामकृष्ण परमहंस के सामने जैसे ही बोला जाता था वे मूच्छित हो जाते थे, एक क्षण में पंचेन्द्रिय नियंत्रण शिथिल हो जाता था, सारे बदन में झटके आने लगते थे, सभी चक्र जागृत हो जाते थे, मुँह से जम्हाइयाँ और फेन निकलने लगता था। इसे कहते हैं आत्मसमर्पण । शिष्य लोग डर के मारे उनके सामने काली शब्द का उच्चारण ही नहीं करते थे। ले काली खाना खा रामकृष्ण परमहंस हाथ में कौर लेकर काली से बोलते थे और दूसरे ही क्षण काली साक्षात् प्रकट होकर भोजन कर रही होती थीं। इसे कहते हैं आत्मसमर्पण नहीं तो ढोंगियों के समान सौ अक्षर के दक्षिण काली का मंत्र जप करते रहो काली बिल्ली भी प्रकट नहीं होगी। यह है क्रिया योग । यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है हमारे गुरु के भी एक से एक शिष्य हैं उनके सामने बस कह दो निखिल दूसरे ही क्षण भाव जगत का अनुभव ले लो। ईश्वर भाव जगत के अधीन है, गुरु भाव जगत के अधीन गमन करता है। ऐसे ही शिष्य उनके दर्शन करते हैं, उनसे बाते करते हैं, उनकी लीला को साक्षात् प्रकट होते देखते हैं।

              समग्रता के साथ देखना है, कुछ प्राप्त करना है, अनुभवातीत मस्तिष्क का मालिक बनना है तो फिर  आत्मसमर्पण की कला सीखनी पड़ेगी। आइसटाइन का नौकर उनसे ज्यादा बना ठन कर रहता था। आइसटाइन तो बस अनंत ब्रह्माण्ड में रमे रहते थे उन्हें कहाँ फुरसत थी नहाने की, दाढ़ी बनाने की या वस्त्र बदलने की। लोग उनके नौकर को आइसटाइन समझ फूलमाला पहना देते थे। वास्तविकता क्या है? सत्य क्या है? यह बिना आत्मसमर्पण किए समझ में नहीं आयेगा नहीं तो ऊपरी तल पर देखते रहोगे। आत्मसमर्पित होने का मतलब है ढलने की प्रक्रिया। आत्मसमर्पण ही व्यक्ति को अहिंसक बनाता है यही कमलात्मिका रहस्य है।

             मैं उस आत्मसमर्पण की बात नहीं कर रहा हूँ जो दुनियादारी में होता है। सौ खून करके अपनी जान बचाने के लिए ढोंग करना आत्म समर्पण नहीं है। स्वार्थ के लिए या फिर दबाववश धर्म परिवर्तन कर लेना आत्मसमर्पण नहीं है। यह आत्मसमर्पण की गलत परिभाषा है। आत्मसमर्पण व्यक्तिगत विषय है, दुसरे का इससे कोई भी लेना देना नहीं है। इसे कहते हैं सोखने की कला। स्वयं के अस्तित्व को मिटाकर लीन होने की प्रक्रिया। जे कृष्णमूर्ति, आदि गुरु शंकराचार्य जी इत्यादि जितने भी ब्रह्मज्ञानी हुए उन्होंने वेदान्त के प्रति अपने आपको आत्मसमर्पित कर दिया, वे ही वेदान्त हो गये और वेदान्त ही इन विभूतियों के मुख से पुन: वाणीमय हुआ। आत्मसमर्पण दुर्लभ स्थिति । आप जीवन में आत्मसमर्पित हो जाये बस यही प्रार्थना है, आपको आत्मसमर्पित मित्र, पत्नी या कोई और मिल जाये तो आपका पृथ्वी पर आना धन्य हो जायेगा । खोज करने के लिए कुछ और नहीं है, कमल नयनों से देखने के लिए कुछ और नहीं हैं, करकमलों से किसी को छूने के लिए कुछ और नहीं बस आत्मसमर्पित पिण्ड चाहिए। चाहे वह शिष्य के रूप में हो या फिर किसी अन्य रूप में। जब तक आत्म समर्पित व्यक्ति नहीं मिलेगा, जब तक आत्म समर्पण की क्रिया सम्पन्न नहीं होगी न बाबा मिलेंगे, न राम और न ही कृष्ण । यही गीता का रहस्य है, यही कृष्ण की वेदना है।

        अपने 63 साल के अवतारी एवं शारीरिक जीवन में कृष्ण ने समस्त पृथ्वी पर स्थित मानवों को संस्पर्शित किया। मात्र द्रोपदी को छोड़ कोई भी कृष्ण के प्रति आत्म समर्पित नहीं था। द्रोपदी के लिए ही कृष्ण ने युद्ध लड़ा, द्रोपदी की एक पुकार पर कृष्ण भागे चले आये, द्रोपदी के लिए ही कौरव कुल का सर्वनाश कर दिया। द्रोपदी ने पुकारा दुर्वासा सामने खड़े थे चॉवल के कुछ दाने में हीं महाअसंतुष्ट दुर्वासा संतुष्ट हो गये। द्रोपदी के लिए ही कृष्ण सारथी बनें, अर्जुन के ताप को झेला। अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाया। घमण्डी क्षत्रिय को भी आत्मसमर्पण का स्वाद चखाया, द्रोपदी के साथ रासलीला नहीं की थी फिर भी वह आत्मसमर्पित थी । हृदय से कृष्ण को भगवान मानती थी। राधा, रुक्मिणी और दस बीस हजार स्त्रियाँ तो कृष्ण सानिध्य का भोग कर रही थी पर द्रोपदी वन में विचर रही थी पाँच क्षत्रियों के साथ । आत्मसमर्पण अत्यंत ही गूढ़तम रहस्य है।

         गुरु की आँखें क्या खोजती हैं? कुछ नहीं बस आत्म समर्पण और कुछ नहीं। कोई ज्ञानी कहेगा, कोई विज्ञानी कहेगा, किसी को सिद्धि चाहिए, किसी को लेन-देन करना है, किसी को कुछ और चाहिए पर आत्मसमर्पणू किसी को नहीं चाहिए। कौन किसके प्रति समर्पित होता है? साधक साध्य के प्रति या साध्य साधक के प्रति। ईश्वर आत्मसमर्पित है, ईश्वर को साधने वाला आत्मसमर्पित है या नहीं यह अलग बात है। ईश्वर सदैव आत्म समर्पित होता है वह एक क्षण के लिए भी किसी से विमुख नहीं होता है पश्चात् भी साथ होता है वह अविभाज्य है यही आपको समझना है इसलिए ईश्वर की मृत्यु नहीं होती वह नित्य है हर रूप में है। रूप उसके अधीन है वह रूपों के अधीन नहीं है। वह कहाँ नहीं है यही तो विराट स्वरूप है यही तो कृष्ण दिखा रहे हैं। मैं ही तो सब कुछ हूँ, मैं ही सारा कर्ता-धर्ता हूँ, अच्छा बुरा, पसंद, नापसंद, उत्थान, पतन, यश-अपयश इन सबके पीछे मैं ही तो छिपा हूँ। एक भी क्षण तुम मुझसे दूर नहीं हो।

         जैसे ही गोताखोर समुद्र की गहराइयों में डुबकी लगाते हैं भारी दबाव के कारण शरीर के अंदर उपस्थित विभिन्न प्रकार की वायु बुलबुलों के रूप में शरीर के एक-एक रोम से विसर्जित होने लगती है और गोताखोर चकरा जाता है एवं उसे लगता है जैसे । वह तो गैस का गोला हो इसीलिए गोताखोर धीरे-धीरे ऊपर आता है अन्यथा मृत्यु हो सकती है। रक्त में बुलबुले पड़ने लगते हैं यही हाल अंतरिक्ष का है वहाँ पर अगर शरीर का एक हिस्सा विशेष कवच से बाहर निकाल दिया जाय तो ऐसा लगता है मानों किसी हवा से भरे गुब्बारे में छेद करें दिया हो इतनी तेजी के साथ शरीरस्थ वायु निष्कासित होने लगती है। क्या मतलब है? इन स्थितियों का। यह स्थितियाँ ठीक वैसी ही हैं जैसे कि शिव क्षेत्र में नारद ने अनुभूत की थीं। वे वहाँ पर कवचित थे ठीक इसी प्रकार आप भी ईश्वर के द्वारा सदैव कवचित रहते हैं अन्यथा दो मिनट लगते हैं अस्तित्व मिटने में ईश्वर आपको कवचित करके रखे हुए है यही उसकी महानता है जिस स्थिति में ईश्वर मौजूद है उस स्थिति के अनुसार जीव को ढलना होता है अर्थात आत्मसमर्पित होना होता है।

        क्यों प्रत्यारोपित अंग ज्यादा दिन तक क्रियाशील नहीं रहते? क्योंकि आत्मसमर्पण नहीं होता, दोनों तरफ से अस्वीकृति होती है इसीलिए गठबंधन टूट जाता है, जितनी ज्यादा अस्वीकृति होगी, उतना ही गठबंधन कमजोर होगा, जितना ज्यादा मस्तिष्क में द्वंद होगा उतना ही शरीर कमजोर होता जायेगा। जैसे-जैसे मस्तिष्क द्वंद्वात्मकता और विरोधाभास से ग्रसित होता जायेगा मृत्यु जल्दी आयेगी। रोग और बुढ़ापा सामने खड़ा होगा। द्वंद धूमावती का क्षेत्र है, सब कुछ धुंआ । आत्मसमर्पण विष्णु और कमलात्मिका का क्षेत्र है। एक युगल स्थिति । युग्मता ही जीवन है। युग्मता से ही सृष्टि की रचना होती है युग्मता ही नवजीवन की सहायिका हैं माता पिता क्या है? कौन किसके माता पिता ? यह सब तो एक सामान्य सोच है इसका ब्रह्मज्ञानियों से क्या लेना देना । वास्तव में जन्म देने वाले तो सहायक और सहायिका हैं। सहायता देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। गुरु भी सहायक हैं रास्ता दिखाने के लिए चरण स्पर्श जीवन की सत्यता बताने के लिए शत्-शत् नमन। यही भाव होने चाहिए तभी अध्यात्म के क्षेत्र में प्रविष्ठि का कोई तात्पर्य है अन्यथा भौतिक दुनिया भी बुरी नहीं है। दोनों रास्ते खुले हुए हैं, हर प्रकार के दृश्य ईश्वर ने बनाये हैं, हर दृश्य के पीछे कमला और विष्णु हैं जो मर्जी चाहे चुन लो। पूर्ण अधिकार जीव को प्रदान किया गया है।

        जया विजया के साथ माता पार्वती शिव से विवाह कर शिव लोक आती हैं अब शिव जी के साथ भूत-प्रेत, नंदी, आड़े तिरछे, एक आँख वाले, उल्टी खोपड़ी वाले जीव बैठे हुए हैं। भैरव भी हैं, चण्डी भी हैं, चामुण्डा भी हैं और भी पता नहीं कितने ऊट-पटांग, निष्कासित, बेसिर पैर के जीव जंतुं । अभी ये सब माता पार्वती के प्रति समर्पित नहीं हैं पर अब शिव ने विवाह कर लिया है तो फिर आधे-अधूरे मन से आज्ञा का पालन तो करते ही हैं, हाँ - शिव के प्रति आत्मसमर्पित हैं। एक दिन दुखी हो जया विजया माता पार्वती से बोली इस लोक में अपना कोई नहीं है, हमें तो एक भी विश्वसनीय नहीं लगते हैं आप कुछ कीजिए। जिसे देखो वह महल में घुसा चला आता है। पार्वती जी ने अपने मैल से एक अत्यंत ही रूपवान युवक का निर्माण कर दिया और नाम रख दिया गुणेश, पूर्ण रूप से माता के प्रति आत्मसमर्पित गणेश । पार्वती जी ने उनके हाथ में एक छड़ी पकड़ा दी और द्वार पर खड़ा कर दिया बोली किसी को अंदर आने मत देना।

शिवकृत जयदुर्गास्तोत्रम् ।।

            शिव के मुख से जगदम्बा की स्तुति। शांत शिव के मुख से से बहुत कम ही कुछ उत्पाद होता है। यह अमृत है एवं इस स्तोत्र का जप कर  परम शांति का अनुभव होता है।

रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि ।
मां भक्तमनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि ॥

विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि।
ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणि ॥

त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके ।
त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात् ॥

मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृतिः स्वयम् ।
तयोः परं ब्रह्म परं त्वं विभर्षि सनातनि ॥

वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा ।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीः सर्वसम्पत्स्वरूपिणी ॥

मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिनः ।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले ॥

नागादिलक्ष्मीः पाताले गृहेषु गृहदेवता ।
सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी ॥

रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती ।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मनः ॥

गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि ।
गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने ॥

श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी ।
शतशृङ्गाधिदेवी त्वं नाम्ना चित्रावलीति च ॥

दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा ।
देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा ॥

त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती ।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषितः ॥

स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम् ।
वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कररूपिणी ॥

वह्नौ च दाहिकाशक्तिर्जले शैत्यस्वरूपिणी ।
सूर्ये तेज: स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम् ॥

गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी ।
शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्गे च निश्चितम् ॥

सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका ।
महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी ॥

क्षुत्त्वं दया तवं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी ।
तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम् ॥

शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्तिः कान्तिस्त्वं कीर्तिरेवच ।
लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्तिस्वरूपिणी ॥

सर्वशक्तिस्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी ।
वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन ॥

सहस्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्तः सुरेश्वरि ।
वेदा न शक्ताः को विद्वान न च शक्ता सरस्वती ॥

स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु सनातनः ।
किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि ॥

॥ कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु ॥

 

                         शिव शासनत: शिव शासनत:


पीपल द्वारा नवग्रह दोष दूर करने के उपाय वैदिक दृष्टिकोण से :-

भारतीय संस्कृति में पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना पुलकित और प्रफुल्लित होती है।स्कन्द पुराणमें वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं।पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत: मूर्तिमान स्वरूप है। 
भगवान कृष्ण कहते हैं- समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।
स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं हो जज पीती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं।

 अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन । 
 इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तुपराभवम् ॥ 

प्रत्येक नक्षत्र वाले दिन भी इसका विशिष्ट गुण भिन्नता लिए हुए होता है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कुल मिला कर 28 नक्षत्रों कि गणना है, तथा प्रचलित केवल 27 नक्षत्र है उसी के आधार पर प्रत्येक मनुष्य के जन्म के समय नामकरण होता है।
अर्थात मनुष्य का नाम का प्रथम अक्षर किसी ना किसी नक्षत्र के अनुसार ही होता है।
तथा इन नक्षत्रों के स्वामी भी अलग अलग ग्रह होते हैं।विभिन्न नक्षत्र एवं उनके स्वामी निम्नानुसार है यहां नक्षत्रों के स्वामियों के नाम कोष्ठक में है जिससे आपको जनलाभार्थ ज्ञान वृद्धि हो-:-

(१)अश्विनी(केतु), (१०)मघा(केतु), (१९)मूल(केतु),
(२)भरणी(शुक्र), (११)पूर्व फाल्गुनी(शुक्र), (२०)पूर्वाषाढा(शुक्र),
(३)कृतिका(सूर्य), (१२)उत्तराफाल्गुनी(सूर्य), (२१)उत्तराषाढा(सूर्य),
(४)रोहिणी(चन्द्र), (१३)हस्त(चन्द्र), (२२)श्रवण(चन्द्र), 
(५)मृगशिर(मंगल), (१४)चित्रा(मंगल), (२३)धनिष्ठा(मंगल),
(६)आर्द्रा(राहू), (१५)स्वाति(राहू), (२४)शतभिषा(राहू), 
(७)पुनर्वसु(वृहस्पति), (१६)विशाखा(वृहस्पति), (२५)पूर्वाभाद्रपद(वृहस्पति),
(८)पुष्य(शनि), (१७)अनुराधा(शनि), (२६)उत्तराभाद्रपद(शनि)
(९)आश्लेषा(बुध), (१८)ज्येष्ठा(बुध), (२७)रेवती(बुध)

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रत्येक ग्रह 3, 3 नक्षत्रों के स्वामी होते हैं।
कोई भी व्यक्ति जिस भी नक्षत्र में जन्मा हो वह उसके स्वामी ग्रह से सम्बंधित दिव्य पीपल के प्रयोगों को करके लाभ प्राप्त कर सकता है।
अपने जन्म नक्षत्र के बारे में अपनी जन्मकुंडली को देखें या अपने विद्वान ज्योतिषी से संपर्क कर जन्म का नक्षत्र ज्ञात कर के यह सर्व सिद्ध प्रयोग करके लाभ उठा सकते है।

    सूर्य :-

जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान सूर्य देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है।
(1) रविवार के दिन प्रातःकाल पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा करें।
(2) व्यक्ति का जन्म जिस नक्षत्र में हुआ हो उस दिन (जो कि प्रत्येक माह में अवश्य 
आता है) भी पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा अनिवार्य करें।
(3) पानी में कच्चा दूध मिला कर पीपल पर अर्पण करें।
(4) रविवार और अपने नक्षत्र वाले दिन 5 पुष्प अवश्य चढ़ाए। साथ ही अपनी कामना की प्रार्थना भी अवश्य करे तो जीवन की समस्त बाधाए दूर होने लगेंगी।

   चन्द्र :-

जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान चन्द्र देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है।
(1) प्रति सोमवार तथा जिस दिन जन्म नक्षत्र हो उस दिन पीपल वृक्ष को सफेद पुष्प अर्पण करें लेकिन पहले 4 परिक्रमा पीपल की अवश्य करें।
(2) पीपल वृक्ष की कुछ सुखी टहनियों को स्नान के जल में कुछ समय तक रख कर फिर उस जल से स्नान करना चाहिए।
(3) पीपल का एक पत्ता सोमवार को और एक पत्ता जन्म नक्षत्र वाले दिन तोड़ कर उसे अपने कार्य स्थल पर रखने से सफलता प्राप्त होती है और धन लाभ के मार्ग प्रशस्त होने लगते है।
(4) पीपल वृक्ष के नीचे प्रति सोमवार कपूर मिलकर घी का दीपक लगाना चाहिए।

   मंगल :-

जिन नक्षत्रो के स्वामी मंगल है. उन नक्षत्रों के व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.... 
(1) जन्म नक्षत्र वाले दिन और प्रति मंगलवार को एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर पीपल वृक्ष को अर्पित करें।
(2) लाल रंग के पुष्प प्रति मंगलवार प्रातःकाल पीपल देव को अर्पण करें।
(3) मंगलवार तथा जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 8 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।
(4) पीपल की लाल कोपल को (नवीन लाल पत्ते को) जन्म नक्षत्र के दिन स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करें।
(5) जन्म नक्षत्र के दिन किसी मार्ग के किनारे १ अथवा 8 पीपल के वृक्ष रोपण करें।
(6) पीपल के वृक्ष के नीचे मंगलवार प्रातः कुछ शक्कर डाले।
(7) प्रति मंगलवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन अलसी के तेल का दीपक पीपल के वृक्ष के नीचे लगाना चाहिए।.

बुध

जिन नक्षत्रों के स्वामी बुध ग्रह है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए।
(1) किसी खेत में जंहा पीपल का वृक्ष हो वहां नक्षत्र वाले दिन जा कर, पीपल के नीचे स्नान करना चाहिए।
(2) पीपल के तीन हरे पत्तों को जन्म नक्षत्र वाले दिन और बुधवार को स्नान के जल में डाल कर उस जल से स्नान करना चाहिए।
(3) पीपल वृक्ष की प्रति बुधवार और नक्षत्र वाले दिन 6 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।
(4) पीपल वृक्ष के नीचे बुधवार और जन्म, नक्षत्र वाले दिन चमेली के तेल का दीपक लगाना चाहिए।
(5) बुधवार को चमेली का थोड़ा सा इत्र पीपल पर अवश्य लगाना चाहिए अत्यंत लाभ होता है।

 वृहस्पति :-

जिन नक्षत्रो के स्वामी वृहस्पति है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें।
(1) पीपल वृक्ष को वृहस्पतिवार के दिन और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीले पुष्प अर्पण करने चाहिए।
(2) पिसी हल्दी जल में मिलाकर वृहस्पतिवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष पर अर्पण करें।
(3) पीपल के वृक्ष के नीचे इसी दिन थोड़ा सा मावा शक्कर मिलाकर डालना या कोई भी मिठाई पीपल पर अर्पित करें।
(4) पीपल के पत्ते को स्नान के जल में डालकर उस जल से स्नान करें।
(5) पीपल के नीचे उपरोक्त दिनों में सरसों के तेल का दीपक जलाएं।

    शुक्र :'

जिन नक्षत्रो के स्वामी शुक्र है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहियें-:-

(1) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्नान करना।
(2) जन्म नक्षत्र वाले दिन और शुक्रवार को पीपल पर दूध चढाना।
(3) प्रत्येक शुक्रवार प्रातः पीपल की 7 परिक्रमा करना।
(4) पीपल के नीचे जन्म नक्षत्र वाले दिन थोड़ासा कपूर जलाना।
(5) पीपल पर जन्म नक्षत्र वाले दिन 7 सफेद पुष्प अर्पित करना।
(6) प्रति शुक्रवार पीपल के नीचे आटे की पंजीरी चढ़ाना।

    शनि :

जिन नक्षत्रों के स्वामी शनि है. उस नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए..
शनिवार के दिन पीपल पर थोड़ा सा सरसों का तेल चढ़ाना।
 शनिवार के दिन पीपल के नीचे तिल के तेल का दीपक जलाना।
 शनिवार के दिन और जन्म नक्षत्र के दिन पीपल को स्पर्श करते हुए उसकी एक परिक्रमा करना।
 जन्म नक्षत्र के दिन पीपल की एक कोपल चबाना।
 पीपल वृक्ष के नीचे कोई भी पुष्प अर्पण करना।
पीपल के वृक्ष पर मौलि बंधन।

     राहू :-

जिन नक्षत्रों के स्वामी राहू है उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए...
(1) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 21 परिक्रमा करना।
(2) शनिवार वाले दिन पीपल पर शहद चढ़ाना।
(3) पीपल पर लाल पुष्प जन्म नक्षत्र वाले दिन चढ़ाना।
(4) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल के नीचे गौमूत्र मिले हुए जल से स्नान करना।
(5) पीपल के नीचे किसी गरीब को मीठा भोजन दान करना।

    केतु :-

जिन नक्षत्रों के स्वामी केतु है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न उपाय कर अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहिए।
(1) पीपल वृक्ष पर प्रत्येक शनिवार मोतीचूर का एक लड्डू या इमरती चढ़ाना।
(2) पीपल पर प्रति शनिवार गंगाजल मिश्रित जल अर्पित करना।
(3) पीपल पर तिल मिश्रित जल जन्म नक्षत्र वाले दिन अर्पित करना।
(4) पीपल पर प्रत्येक शनिवार सरसों का तेल चढ़ाना।
(5) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की एक परिक्रमा करना।
(6) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की थोड़ी सी जटा लाकर उसे धूप दीप दिखा कर अपने पास सुरक्षित रखना।

अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में पीपल :- के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल के वृक्ष के नीचे मंत्र, जप और ध्यान तथा सभी प्रकार के संस्कारों को शुभ माना गया है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले ' उपभृत पात्र' ( दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे।ग्रामीण संस्कृति में आज भी लोग पीपल की नयी कोपलों में निहित जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पडाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं।

 आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं । 
 देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥

आध्यात्मिक देह प्राप्ति ।।

         आप चित्र में या मूर्ति विग्रह के रूप में या फिर स्वप्न में भगवती के स्वरूप को देखते हैं कभी उनकी अष्ट भुजाऐं दिखाई देती हैं, कभी दस भुजाऐं दिखाई देती हैं। कभी वह अनंत चक्षुओं से युक्त होती हैं तो कभी सिंह पर सवार होती हैं। कभी महाकाली के समान रुण्ड मुण्ड की माला पहने हुए होती हैं। सभी देवी शक्तियाँ अनोखे स्वरूप लिए हुए हैं। अत्यंत ही विहंगम, अलौकिक एवं दुर्लभ स्वरूप उनके मुख मण्डल पर जो दिव्य आभा होती है वह सामान्य जीवन में किसी भी जीव में उसका एकांश भी देखने को नहीं मिलता है। उनके अतुलनीय सौन्दर्य को असंख्य मानवों की आँखें निरंतर ढूंढती रहती है फिर भी सम्पूर्ण जीवन बीत जाने के बाद भी एक क्षण के लिए हमें पराम्बरा के दुर्लभ स्वरूप के दर्शन नहीं हो पाते हैं। उनका स्वरूप तो वास्तव में दुर्लभ है। 

          कितने उपवास साधक रखते हैं, कितनी घोर तपस्या साधक करते हैं, कितना जाप, कितने अनुष्ठान, तीर्थ स्थलों इत्यादि पर भी साधक भटकता है। निश्चित ही वह पराम्बरा की शक्ति को तो महसूस कर लेता है। कृपा रूपी अदृश्य शक्ति के द्वारा वे उसे संकटों से भी उबार लेती है। उसके बिगड़ते कार्य भी बना देती हैं, उसे भौतिक सुखों से भी युक्त कर देती है। कुछ एक सिद्धियाँ भी प्राप्त कर लेते हैं फिर भी उनके दर्शन की दुर्लभता तो बनी ही रहती है। दर्शन की दुर्लभता उन्होंने स्वयं ही कर रखी है दर्शन की इसी दुर्लभता के कारण हमारे देश के अधिकांशतः तथाकथित पढ़े लिखे एवं पाश्चात्य शैली से ग्रसित लोग पराम्बरा के अद्भुत विग्रहों को मात्र कल्पना मान बैठते हैं। अब उन्होंने देखा ही नहीं है तो वे क्या जाने उन्हीं की हाँ में हाँ मिलाने वाले कुछ टटपुंजिए लोगों की भी समाज में कमी नहीं है। वे चाहते हैं कि पराम्बरा उन्हें उसी प्रकार अपना स्वरूप दिखा दे जिस प्रकार वे चित्रपट के पर्दे पर फिल्म देखते हैं या फिर सुबह उठकर अखबर में खबर पढ़ते हैं। 

            पाश्चात्य देशों में आज से दस वर्ष पूर्व तक हमारे देव विग्रहों की खूब हँसी उड़ाई जाती थी परन्तु जैसे जैसे उन्होंने ठण्डे दिमाग के साथ सोचना शुरू किया। पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना शोधकार्य प्रारम्भ किए उन्हें आश्चर्य जनक परिणाम मिले। भारत वर्ष से चुराकर ले जाई गई मूर्तियाँ और चित्रों को उन्होंने अपने कक्षों में सजा लिया एवं जाने अनजाने में वे उनकी उपासना करने लगे। इन मूर्तियों के प्रति आकर्षित होने लगे, उन्हें एक टक निहारने लगे तो तुरंत ही उनके अंतर्मन में देव शक्तियों की मौजूदगी का आभास होने लगा। अचानक रात्रि में उन्हें पराम्बरा के हूबहू उसी स्वरूप का दर्शन होने लगा जिसे कि वे मात्र कल्पना समझते थे। जाने अनजाने में वे दिव्य पराम्बरा विग्रहों के सानिध्य में लम्बे समय तक आ गये। उनके लिए एक नया मार्ग खुल गया। अध्यात्म का मार्ग शक्ति का मार्ग। जिससे कि वे सर्वथा अपरिचित थे उन्हें आश्चर्यजनक परिणाम मिलने लगे। यह सब कैसे हुआ? क्या कारण है इसका? यह सब हुआ आध्यात्मिक देह प्राप्ति के कारण एक व्यक्ति अगर निरंतर वेश्यागमन करता है तो उसकी देह वेश्यानुगामी हो जायेगी। नाना प्रकार के रोगों से उसकी देह भर जायेगी। ये रोग धीरे-धीरे तंत्रिका तंत्र के द्वारा उसके मस्तिष्क को भी क्षतिग्रस्त कर देंगे और कुछ समय पश्चात वह एक जीता जागता पथ भ्रष्ट व्यक्ति बनकर रह जायेगा। 

          अगर कोई व्यक्ति अपना ज्यादातर समय नास्तिकों के बीच बितायेगा तो कुछ समय पश्चात वह भी नास्तिक बन जायेगा। इसे कहते हैं पिण्ड निर्माण की प्रक्रिया। धीरे-धीरे एकत्रीकरण के माध्यम से एक विशेष पिण्ड का निर्माण हो जाता है। जिस भूमि में सत्तर प्रतिशत लोह तत्व पाये जाते हैं तो वहाँ पर एक प्रतिशत स्वर्ण तत्व भी होता है और इस प्रकार सभी तत्व कुछ न कुछ प्रतिशत में अवश्य पाये जाते हैं परन्तु लोह तत्व की अधिकता होती है। इसी अयस्क को बाद में शोधित करके अधिकता वाले तत्व का निषेचन कर लिया जाता है और इस प्रकार लोह पिण्ड का निर्माण हो जाता है। आध्यात्मिक देह प्राप्ति भी ठीक इसी प्रकार से होती है।

         महाकालेश्वर के पुजारी कुछ नहीं करते बस सुबह उठते हैं नित्य -कर्म सम्पन्न करने के बाद महाकाल की सेवा में जुट जाते हैं। साफ सफाई करते हैं, विधिवत पूजन करते हैं, प्रांगण में ही निवास करते हैं। उन्हें कभी कोई रोग नहीं होता। उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई फिल्म नहीं देखी होती, कंचन के समान उनकी काया है उनके दिमाग में बेफिजूल की बातें भी नहीं आती। बहुत कुछ तो ऐसी बातें हैं कि जिन्हें व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। एक जीव एवं जैविक व्यवस्था के अंतर्गत होते हुए भी ये कितने शांत, शालीन और अद्भुत हैं देखते ही बनता है। .

इनके पास खड़े होने पर ही आत्मा और मन पूरी तरह से शांत हो जाता है। दूसरी तरफ ठीक वैसे ही दो हाथ और दो पांव वाले शहरी मनुष्य भी मिलते हैं जो दस मिनट के अंदर दिमाग खराब करके रख देते हैं। साक्षात् राक्षसी प्रवृत्ति से युक्त असुर अवतार सनातन धर्म कर्मकाण्ड से युक्त है। इसमें कर्मकाण्ड की अधिकता देखने को मिलती है अन्य धर्मों की अपेक्षा आध्यात्मिक त्यौहार भी बहुत ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। व्रत, उपवासों की भी भरमार है। साधु-संतों की लम्बी फौज यहाँ दिखाई पड़ती है। मुख्य रूप से सनातन धर्म आत्मा का धर्म है। जीवात्मा का अनुसंधान है इसलिए सनातन धर्म में आध्यात्मिक देह अधिकांशतः लोगों में विकसित दिखाई देती है। वे स्वयं ही कुछ समय पश्चात् व्यर्थ की हिंसा, पापाचार, मांस मदिरा इत्यादि से विमुख हो जाते हैं।

        सनातन धर्म में कामुकता कभी नहीं चली है। आप अपने आसपास के लोगों को देख लीजिए। विवाह के दस वर्ष के भीतर लोग कामवासना से निवृत्त हो जाते हैं। यह सब एक समग्र आध्यात्मिक देह के विकास के कारण होता है। सनातन धर्म में पग-पग पर विलासिता के विरोध में अवरोध लगे हुए हैं। कब तक व्यक्ति बच पायेगा। वैसे तो नैतिकता भी यही कहती है कि यह गरीबों का देश है अभी भी अनंत लोगों के पास दो वक्त की रोटी भी उचित तरीके से उपलब्ध नहीं है इसीलिए यहाँ विलासिता नहीं चलेगी। यहाँ लूटपाट नहीं चलेगी। विशेषकर आध्यात्मिक गुरुओं को अपने खोपड़े में यह बात बिठा लेनी चाहिए। यहाँ केवल धर्म चलेगा और चलेगा तो विशुद्ध अध्यात्म जो अध्यात्म के मार्ग को अपनायेगा वही राज राजेश्वरी सिद्ध कर पायेगा। जो गुरु शंकराचार्य के समान कंठोर जीवन जियेगा वही ब्राह्मणी के घर में स्वर्ण मुद्रा की वर्षा करा पायेगा भिक्षा के बदले स्वर्ण मुद्रा की बरसात। जो गुरु भिक्षां वृत्ति अपनायेगा वही वेद व्यास के समान अद्भुत ग्रंथ लिख पायेगा। महलों में बैठकर गुरु बाजी नहीं चलेगी जनता को भी यह समझना होगा।

          द्रोणाचार्य अत्यंत ही ज्ञानी एंव शस्त्र विद्या में निपुण थे। पग-पग पर उनकी निर्धनता का अपमान हुआ। उनके मित्र ध्रुपद ने भी उनका तिरस्कार किया व्यथित होकर वे राजगुरु बन बैठे। अपना सारा तप राज सत्ता के पीछे लगा दिया और बदले में प्रतिबंधित हो गये। उनसे प्रतिज्ञा ले ली गई कि राजपुत्रों के अलावा किसी को भी ज्ञान नहीं देंगे। सौदा हो गया यहाँ पर अध्यात्म और सत्ता का विश्वामित्र एवं वशिष्ठ भी प्रतिबंधित हो गये थे राजाओं के कुल गुरु बन गये। आम जनता लाभान्वित नहीं हो सकी। आम जनता के पास देने को कुछ भी नहीं है यह सबसे बड़ी विडम्बना है। वे अपने गुरु को भोजन और यात्रा का खर्चा भी नहीं दे पाते हैं इसलिए सत्ता से दूर पड़े रहकर तमाशा देखते रहते हैं। बुद्ध भी थकहारकर उस जमाने के राजाओं के हो लिए। अजात शत्रु, बिम्बसार और बाद में सम्राट अशोक ने बौद्ध गुरुओं को एक तरह से बंदी बना लिया था। यह तालमेल है सत्ता और अध्यात्म का। राज राजेश्वरी को जाने से पहले यह जानना जरूरी है जाने से पहले यह जानना जरूरी है।

           आजकल तो सभी आध्यात्मिक मठाधीश नेताओं की तनख्वाह पर जी रहे हैं। उन्हीं के हवाई जहाज में चलते हैं, उन्हीं के दान दिए गये आश्रमों में रहते हैं, उन्हीं के दिए हुए रेशमी वस्त्र पहनते हैं तो फिर किस प्रकार से जनता के अचार्य हुए। आज के राजाओं की खाते हैं आज के राजाओं की बजाते हैं, जनता से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। सदियों से ऐसा होता चला आ रहा है। राजगुरुओं की एक लम्बी श्रृंखला है। आध्यात्मिक देह का विकास अध्यात्म की शक्तियों के सानिध्य में ही सम्भव है। तीर्थ स्थानों की यात्रा, कुम्भ के अवसर पर विशेष स्नान, नैतिकता का पालन, ज्योतिर्लिङ्गों की यात्रा, गुरु का सानिध्य, गुरु के लिए सम्पादित कर्म, वेदमंत्रों का पाठ, रुद्राभिषेक, यज्ञानुष्ठान, हवन इत्यादि यह सब धीरे-धीरे करके एक समयोपरांत भौतिक पिण्ड़ रूपी इस देह को आध्यात्मिक देह में परिवर्तित कर देते हैं। इसी अदृश्य देह का कद कुछ ही क्षण में कई सौ फिट ऊँचा एवं अणु के समान सूक्ष्म भी हो सकता है। यही देह अनेकों भुजाओं से युक्त होगी। इसी देह के अनेकों मस्तक सकते हैं। यही देह कुछ ही क्षण में इस ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में जा सकती है। 

              मेरे गुरु कहा करते थे कि अचेत व्यक्ति के लिए तो किसी भी वस्तु का महत्व नहीं है परन्तु चेत गये तो यह समस्त ब्रह्माण्ड भी तुम्हें छोटा पड़ने लगेगा। बेहोश व्यक्ति के लिए तो पलंग ही सब कुछ है परन्तु चेते हुए व्यक्ति के लिए ब्रह्माण्ड भी छोटा पड़ जाता है। आध्यात्मिक देह में इतनी शक्ति होती है कि योगी आँख बंद करता है और मन की शक्ति के माध्यम से कुछ ही क्षण में सूर्य मण्डल पर पहुँच जाता है। .

शरीर में तपन महसूस होने लगती है क्योंकि आध्यात्मिक देह अभी सूर्य मण्डल में गमन कर रही है। कुछ ही क्षण में शरीर बर्फ के समान ठण्डा हो जाता है कारण आध्यात्मिक देह अभी हिमालय पर विचर रही है। एक कमरे में लेटे-लेटे ही गंगा स्नान हो जाता है। एक क्षण के अंदर आध्यात्मिक देह मान सरोवर में डुबकी लगाकर वापस आ जाती है। एक जगह बैठकर ही दुनिया के कोने में किसी भी व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है। कहीं भी आशानुकूल परिणाम दिये जा सकते हैं क्योंकि चेते हुए व्यक्ति के लिए तो ब्रह्माण्ड भी छोटा पड़ गया है।
         इसी आध्यात्मिक देह में दिव्य आध्यात्मिक चक्षु होंगे जो कि पराम्बरा के दिव्य स्वरूपों का दर्शन कर पायेंगे। तब कहीं जाकर अष्ट भुजीय दुर्गा या कमल पर विराजमान महादेवी के दर्शन सम्पन्न हो पायेंगे। जिस प्रकार माता गर्भ से शरीर रूपी पिण्ड को जन्म देती है उसी प्रकार शरीर रूपी पिण्ड से पराम्बरा अपनी कृपा के द्वारा ही आपकी आध्यात्मिक देह को जीवन प्रदान करती हैं। यही कारण है कि माता के रूप में देवी भक्ति का माता ही सृजन करेगी आध्यात्मिक देह का और उसी देह के माध्यम से आप उनके अनुपम आयामों को देख पायेंगे, सुन पायेंगे, ग्रहण कर पायेंगे। सूंघने के लिए नाक चाहिए कान नहीं खाने के लिए मुँह चाहिए आँख नहीं ठीक इसी प्रकार पराम्बरा के दर्शन हेतु पराम्बरा द्वारा प्रदत्त दिव्य चक्षु चाहिए। ऐसी मुसीबत महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन के सामने भी आयी है। महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन ने कृष्ण से पूछा मैं युद्ध में विजय प्राप्ति हेतु किसका अनुष्ठान करूं। कृष्ण ने कहा हे अर्जुन! तू पराम्बरा का अनुष्ठान कर मातृ शक्ति को पूज। इन्हीं मातृ शक्ति की कृपा से अर्जुन प्रभु श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का दर्शन कर पाया।

          जब तक आध्यात्मिक देह नहीं होगी आध्यात्मिक कर्मों का सम्पादन मुश्किल है। आध्यात्मिक सिद्धियाँ आप कहाँ रखोगे, सुदर्शन चक्र आप कहाँ धारण करोगे, पाशुपतास्त्र या चण्डिकास्त्र क्या आप हाथ में थामोगे? यह सब थामने के लिए आपको आध्यात्मिक देह की जरूरत पड़ेगी। आध्यात्मिक देह के विकास के लिए अनेकों वर्ष तक तपस्या की जाती है, ब्रह्मचर्य रखा जाता है, सात्विकता के साथ जीवन व्यतीत किया जाता है तब कहीं जाकर इस दैव दुर्लभ देह की प्राप्ति होती है। एक भी महान आध्यात्मिक साधक ऐसे ही नहीं बन गया है। सबने कठोर तप किया है। कठोरता का अभिप्राय भौतिक देह को कठोरता के साथ अनुशासित किया है। भौतिक देह के कार्यों को चरम सीमा तक सीमित किया है। भौतिक देह की जरूरतों को न्यूनतम सीमा में रखा है जिससे कि आध्यात्मिक देह भौतिक देह रूपी पिण्ड को फोड़कर प्रकट हो सके। 

          अण्ड का खोल यथा स्थिति रखता है परन्तु अण्ड के अंदर मौजूद जीव का विकास होता रहता है और कालान्तर जीव अण्ड को फोड़कर उदित हो जाता है। किसी भी फल का बीज ही मात्र विकास करता है उसके ऊपर का खोल कभी भी विकसित नहीं होता। बीज को भूमि में गाड़ देने से ऊपर का खोल तो बस नष्ट होता एवं सड़ता गलता है परन्तु अंदर विकास होता है। इसी भाव के साथ आध्यात्मिक साधकों को जीवन यापन करना चाहिए। आध्यात्मिक देह प्राप्त कर लेने के पश्चात साधक को अत्यंत ही सावधानी बरतनी चाहिए। उसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए सिद्धियों के चक्कर में भटकाव आध्यात्मिक देह के नाश का मुख्य कारण है। आध्यात्मिक देह भी क्षय ग्रस्त और रोग ग्रस्त हो जाती हैं। दुष्टों एवं पापाचारियों की संगत में आध्यात्मिक देह की शक्ति क्षीण होती है। आध्यात्मिक देह की प्राप्ति के लिए सभी कुछ नियंत्रित करना पड़ता है। हम जो अन्न खाते हैं उनकी आयु चार महीने होती है। चार महीने में गेंहूँ पक जाता है, दो-तीन माह में चावल पक जाता है परन्तु अनेकों ऐसी औषधियाँ हैं ऐसी अद्भुत जड़ी बूटियाँ हैं जिनके सेवन से आध्यात्मिक देह की प्राप्ति अत्यधिक आसान हो जाती है। ऐसी-ऐसी जड़ियाँ हैं जो 6-6 हजार वर्ष तक जीवित रहती हैं। इनका सूक्ष्म सेवन आध्यात्मिक देह के विकास में अत्यधिक मदद करता है।

हमारे देश में अनेकों प्रकार के कल्प लिए जाते हैं। उनमें से एक प्रमुख कल्प गौ दुग्ध कल्प या गौ हैं कल्प अर्थात हमारे ऋषि-मुनि आध्यात्मिक देह की प्राप्ति के लिए अनेकों वर्षों तक गौ मूत्र, गौ दुग्ध एवं गौ दुग्ध से निर्मित वस्तुओं का ही सेवन करते थे और वे गाय को माता के रूप में पूजते थे। उन्हें इतना सूक्ष्म ज्ञान था कि वे गाय के दूध को भी अमृत बना लेते थे। गौ वंश की विशेष देखभालं, विशेष सेवा, विशेष प्रकार का पूजन एवं उसे उत्तम से उत्तम आहार उपलब्ध कराके वे गौ दुग्ध की गुणवत्ता सीमा से ज्यादा बढ़ा देते थे। ऐसी गायों का दूध, उनका सानिध्य, उनका स्वरूप शीघ्र ही आध्यात्मिक देह का चरम में विकास कर देता था। यह पूरा का पूरा एक विज्ञान है। वास्तविक जीव विज्ञान एक गाय को आप डण्डे से पीटिये, उसे प्रदूषित खाना दीजिए। उसका दुग्ध, उसका मूत्र, उसका स्वभाव, उसका आभामण्डल सब विष युक्त हो जायेगा। उल्टी क्रिया शुरू हो जायेगी। कल तक जो अमृत था आज वह विष में परिवर्तित हो जायेगा। इसी प्रकार यह सिद्धांत सभी जैविक व्यवस्थाओं पर लागू होता है चाहे वे वृक्ष हों पशु हों या फिर अन्य प्राकृतिक संरचनाऐं।

          मातृ स्वरूप में उपासना करने पर अमृत प्राप्त होगा एवं भोग्या स्वरूप में किसी भी जीव का उपभोग करने से केवल विष का ही निर्माण होगा। देवतुल्य देह अमृत का पान करेगी न कि विष का यही कारण है कि आज दुग्ध की मात्रा तो ज्यादा है, घी का उत्पादन तो ज्यादा है, अन्न का उत्पादन तो ज्यादा है पर वैज्ञानिक इन सबको मनुष्य के शरीर के लिए हानिकारक मान रहे हैं। सीधी सी बात है पंचतत्वों से निर्मित इस पृथ्वी पर उपस्थित प्रत्येक जैविक संरचना, पिण्ड, जड़चेतन इत्यादि सबकी सब भावना प्रधान हैं, संवेदन प्रधान हैं। प्रेम से किसी से भी कार्य करवाया जा सकता है। मारपीट कर गुणवत्ता नहीं बढ़ाई जा सकती। कल्प लेने के पीछे यही सिद्धांत छिपा हुआ है। भौतिक पिण्ड रूपी शरीर की खुराक भौतिक भोजन हो सकती है परन्तु आध्यात्मिक ह की खुराक भोजन के अंदर छिपा हुआ मातृत्व अर्थात अमृत ही होगा। कुल मिला-जुलाकर आध्यात्मिक देह ही व्यक्ति को महामानव बनायेगी। आध्यात्मिक देह का निर्माण, उसकी देख-रेख, उसकी जरूरत, उसका भोजन, उसका कर्म यह सब कुछ मातृत्व की भावना में निहित है। 

          श्रीमद् देवी भागवत में वर्णित राज राजेश्वरी अराधना में शाकम्भरी देवी के अभ्युदय के पीछे यही रहस्य छिपा हुआ है। शाकम्भरी देवी नील वर्ण की हैं। उनके हाथों में कमल, नाना प्रकार के सुगंधित एवं रसीले फल, एक से एक दिव्य औषधि युक्त पौधे, जड़ी-बूटियाँ दिखलाई पड़ रही हैं। उनके नील वर्ण शरीर पर अनंत आँखें स्थित हैं और प्रत्येक आँख से अश्रु धारा बह रही है। यह अश्रु धारा ही इस पृथ्वी पर प्रतिक्षण वर्षा के रूप में प्रकट होती है और उन्हीं की स्तुति देवताओं ने उस समय की थी जब असुरों ने इस पृथ्वी पर नियंत्रण कर सभी जीवों को त्रास देना प्रारम्भ कर दिया था। शाकम्भरी ही रसेश्वरी है। वही भगवती शताक्षी है। वही सुषुप्त पड़े प्राणों को पुनः जीवन प्रदान करती हैं। .
 
                       शिव शासनत: शिव शासनत:

श्री दत्त दर्शनम् ।।

             ब्रह्म लोक में विराजित ब्रह्मा, बैकुण्ठ लोक में विराजित श्री विष्णु एवं रुद्र लोक में ध्यानस्थ रुद्र अचानक विचलित हो उठे। वे अपने अपने दिव्यासनों के आस-पास बार बार उद्वेलित हो व्यथित हो इधर-उधर देखने लगे एवं उनकी शक्तियाँ अर्थात ब्राह्मी, लक्ष्मी एवं रुद्राणी उनकी वाचालता देख घबरा उठीं, अनेकों प्रकार के प्रयोजनों से त्रिदेवों की त्रिशक्तियों ने उन्हें पुनः स्थिर करना चाहा, शांत एवं प्रज्ञावान करना चाहा परन्तु त्रिदेवों का वाचाल कम्पन्न बढ़ता ही जा रहा था तीनों लोकों में हाहाकार मच गया, सबके सब वाचाल हो बैठे, सबके हृदय में एक बैचेनी सी महसूस होने लगी परन्तु कारण किसी की समझ में नहीं आ रहा था। आखिरकार त्रिदेव इतने वाचाल हो बैठे कि अपने-अपने सुखासनों से उठ अपने दिव्य वाहनों पर सवार हो "ह्रींकार" मार्ग की तरफ तीव्र गति से अग्रसर होने लगे। त्रिदेवों के कर्णों में "ह्रीं" का नाद गूंजने लगा। हां सब कुछ छोड़कर, सब तरफ से दृष्टि फेरकर, अपनी त्रिशक्तियों को भी छोड़कर सृष्टि के रचयिता, पालक एवं संहारक ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीव्र गति से ऊपर की तरफ गतिमान होने लगे। देखते ही देखते वे तीनों ऊर्ध्वगामी श्रीयंत्र रूपी दिव्य कैलाश के मुख्य द्वार पर पहुँच गये।

            दिव्य कैलाश की संरचना हूबहु ऊर्ध्वमुखी श्रीयंत्र की भांति है जिसके सबसे ऊपरी कक्ष में महाकामेश्वर परम शिव महाकामेश्वरी अर्थात भगवती त्रिपुर सुन्दरी के साथ अमृत सरोवर के दिव्य कुण्ड में अमृत कमल के ऊपर विराजमान हो अमृत सिंचन में लीन रहते हैं। दिव्य कैलाश के द्वार पर पहुँचते ही विष्णु के वाहन गरुड़, ब्रह्म के वाहन हंस एवं रुद्र के वाहन वृषभ ने गतिहीनता प्राप्त की और वे वहीं पर शक्तिहीन हो निस्तेज हो गये। त्रिदेवों ने अपने निस्तेज वाहनों को वहाँ छोड़ दिव्य कैलाश की नौ श्रृंखलाओं पर आरोहण प्रारम्भ किया। तीनों त्रिदेव एक-एक कर नौ दिव्य श्रृंखलाओं का आरोहण करते हुए आखिरकार लक्ष्य तक पहुँच ही गये अपनी माता को ढूंढने । हाँ “ह्रीँ" भगवती ललिताम्बा का बीज मंत्र है जो कि समस्त उत्पत्तियों का मूल बिन्दु हैं एवं त्रिदेवों की भी माता हैं। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने युवा रूप में आद्य एवं आद्या से जन्म प्राप्त किया। वे तीनों पूर्ण यौवनवान, पूर्ण युवा एवं पूर्ण विकसित स्वरूप में ही सर्वप्रथम उदित हुए थे अतः बाल्यावस्था छूट गई थी, माता का स्तनपान छूट गया था, मातेश्वरी के सम्पूर्ण दर्शन उनके चरित्र में रिक्त रह गये थे। यही उनके विकार ग्रस्त होने का मुख्य कारण था। 

        प्रारम्भ में जब ब्रह्मा ने सृष्टि रचना प्रारम्भ की तब उन्होंने समस्त जीव युवावस्था के ही रच डाले, जैसे थे वैसे ही रचने लगे। रुद्र और विष्णु ने भी सृष्टि रचना में हाथ बंटाते हुए अपने ही समान पूर्व युवा गण रच डाले जो कि कालान्तर रुद्र गण एवं विष्णु गण कहलाये। देवता एवं देवियाँ भी युवा ही उत्पन्न होने लगे, देवता एवं देवियों का जन्म ब्रह्म पुष्प के ऊपर 4 घण्टे में हो जाता है अर्थात ब्रह्मा ब्रह्म पुष्प के अंदर 4 घण्टे के भीतर युवावस्था लिए हुए देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व इत्यादि प्रादुर्भावित कर देते हैं। जब बाल्य अवस्था देखी ही नहीं तो बाल्य अवस्था का अनुभव कैसे होगा ? नारद से लेकर समस्त सप्त ऋषि अर्थात ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्र, प्रथम मनु एवं प्रथम प्रजापतियों ने युवा शरीर धारण किए हुए ही प्रादुर्भाव किया था अर्थात मातृत्व का पूर्ण अभाव कामदेव भी युवा शरीर लेकर प्रादुर्भावित हुए हैं। एक तरह से सृष्टि के प्रारम्भिक काल में सबके सब युवा जिनका एकमात्र कर्म यौवन भोग, शक्ति समागम, यौवनोन्माद, प्रतिस्पर्धा, द्वंद, युद्ध, मनमानी इत्यादि तभी तो ब्रह्मा, विष्णु आपस में द्वंद ग्रसित हुए, कामदेव ने यौवन के उन्माद में शिव पर पंच बाण चला दिए । 

        विचित्र सृष्टि की रचना थी प्रारम्भिक काल में माता भी युवा, पुत्र भी युवा, पुत्री भी युवा, पिता भी युवा विचित्र विचित्र तरह के समागम हुए सृष्टि की प्रारम्भिक रचना में ब्रह्मा स्वरचित यौवनवान पुत्री को देख स्खलित हो बैठे एवं उनके स्खलित तेज से ही नौ नारायणों की उत्पत्ति हुई। सूर्य भी युवा, शनि भी युवा । युवा में से युवा उत्पन्न होने लगे अतः कम्पन्न अत्यधिक था वाचालता अधिक थी एवं इसी वाचालता को दूर करने के लिए आद्य और आद्या ने लीला रची और त्रिदेवों के मन में मातृत्व प्राप्ति की खोज प्रारम्भ करवाई। बालकों के समान रोते-चीखते, चिल्लाते व्यथित त्रिदेव आखिरकार श्री श्री यंत्रम् रूपी दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर तक पहुँच ही गये। .

मातेश्वरी त्रिपुराम्बिका वस्त्र विहीना हो अमृत सरोवर में स्नान कर रही थीं एवं उस समय सृष्टि में मौजूद परम तत्व को भी श्री श्री यंत्रम् के सबसे पवित्र एवं गोपनीय अमृत सरोवर तक पहुँचने की निषिद्धता थी परन्तु त्रिदेवोंने तो बाल्य भाव ग्रहण कर लिया था। जैसे-जैसे वे अमृत सरोवर के निकट आते गये उनका बाल्य भाव क्रमशः पूर्णता लेता गया। अपनी माता को देख वे तीनों मात्र स्पर्श हेतु अमृत सरोवर में कूद गये और देखते ही देखते तीनों त्रिदेव छ: माह के शिशुओं के रूप में परिवर्तित हो गये। मातृत्व जाग उठा वस्त्र विहीना त्रिपुर सुन्दरी ने तुरंत ही तीनों त्रिदेवों को गोद में उठा लिया एवं अमृत सरोवर के निकट बैठ उन्हें अपनी गोद में लिटा स्तन पान कराने लगीं। 

           सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का उदय हुआ था एवं समस्त सृष्टि त्रिदेवों के माध्यम से बाल्य भाव को प्राप्त कर रही थी अतः तीनों शिशु सम्हाले नहीं सम्हल रहे थे। वे और अधिक रूदन, विचलन और कंपन करने लगे, हाथ-पाँव पटकने लगे मातेश्वरी को अंग में भर लेने के लिए उनके अतुलित पूर्ण सौन्दर्य को आँखों में भर लेने के लिए वे उन्हें घूर घूर कर देख रहे थे, जितना ज्यादा अमृत पान हो जाये उसकी चेष्टा में लगे हुए थे। सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का अविष्कार हुआ था अतः सबके लिए कौतुक का विषय था। हाँ दत्तात्रेय तंत्रम् कौतुकम् आधारित ही है। अमृत सरोवर के अमृत कमल पर विराजित आद्य मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे एवं देखते ही देखते गणपति भी बाल्यावस्था को प्राप्त हो गये, कार्तिकेय भी बालक बन बैठे, भैरव ने भी बटुक वेश धारण कर लिया। चाण्डलिनी, कपालिनी, चामुण्डा योगिनियाँ, उन्मुक्त भैरवियाँ, भद्रकाली, वीरभद्र, कूष्माण्ड, वेताल, 52 वीर, नवनाथ रूपी शिवांश इत्यादि सबके सब अमृत सरोवर की तरफ दौड़ पड़े परन्तु मातेश्वरी की आँखों से उत्सर्जित होती मातृ दृष्टि के पड़ते ही सबके सब 6 माह के शिशु बन गये एक माह के शिशु बन गये, 3 माह के शिशु बन गये, सब रेंगने लगे, घुटने के बल चलने लगे, सब रूदन करने लगे स्तन पान के लिए मातृ स्पर्श के लिए। सभी में बाल्य भाव आ गया, सभी परम उन्मुक्त हो गये परन्तु भगवती परेशान हो गईं, किसे सम्हाले किसे न सम्हाले, समस्त सृष्टि ही बाल्य भाव में आ गई अतः सभी को माता चाहिए, सभी को मातृ स्पर्श चाहिए, सभी माता के दर्शन करना चाह रहे थे। 

         पहले सृष्टि युवा थी अब बाल्य अवस्था में आ गई। ध्यान रहे यौवन सम्पन्न स्त्री-पुरुष के समागम से ही बाल्य अवस्था प्रादुर्भावित होती है अर्थात शिशु का जन्म होता है अत: यह पूर्ण भ्रम है, यह पूर्ण मिथ्या है कि बाल्य अवस्था प्रथम है अपितु वह तो युवा अवस्था से उत्सर्जित युवता एवं प्रौढ़ता के बीच का एक सेतु है। युवावस्था सृष्टि की सर्वप्रथम अवस्था है एवं बाल्यावस्था तो द्वितीय अवस्था है। युवावस्था का खण्डन है बाल्यावस्था । जब जीवन युवावस्था के थपेड़ों यौवन गर्विता यौवनोन्माद इत्यादि की तपिश से व्यथित, विकारग्रस्त असंतुलित भ्रमित हो जाता है तब युवावस्था की अभिशप्तता को निर्मूल करती है बाल्यावस्था शिशु के जन्म से युवावस्था अनुशासित होती है, द्वंद रहित होती हैं, लक्ष्य को प्राप्त होती है, शीलवान होती है साथ ही आदर्शवान एवं जिम्मेदार बनती है युवावस्था बाल्यावस्था को उत्पन्न करने के पश्चात् । युवावस्था को नियंत्रित करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को लक्ष्य प्रदान करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को जीवन का लक्ष्य समझाती है बाल्यावस्था, जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है बाल्यावस्था अन्यथा युवावस्था तो आत्मघाती है, अंधी है। सबसे ज्यादा आत्महंता, कुण्ठित युद्धप्रिय प्रतिस्पर्धात्मक द्वंदात्मक, संग्राहक, विनाशकारी एवं कामोन्मादी युवा ही होते हैं। ये सब युवावस्था की विकारग्रस्तता के चिन्ह और लक्षण हैं। बाल्यावस्था के अभाव में युवावस्था किसी काम की नहीं है। आखिरकार समस्त बाल्यरूपी सृष्टि से घिरी मातेश्वरी अम्बिका ने त्रिदेवों को एक साथ गोद में उठाकर दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट स्थित बिल्व वृक्ष से संस्पर्शित करा दिया और देखते ही देखते एक अद्भुत शिशु ने प्रादुर्भाव लिया। तीन मुख, 6 हाथ धारण किए हुए दो वर्ष का एक शिशु निर्मित हो गया। अत्यंत ही धीर गंभीर, शालीन, शांत, सहज, पूर्ण बाल्यावस्था से सृजित इस शिशु को देख अम्बिका भाव विभोर हो उठीं। कुछ ही क्षणों में समस्त सृष्टि भी धीर- गम्भीर हो उठी, शालीन एवं शांत हो उठी, सहज हो उठी। आद्य ने कहा हे अंबिका ये कौन है ? अंबिका बोल उठीं ये मेरा पुत्र है, ये मेरा बालक है, मेरे अलावा किसी को नहीं जानता बस मुझे देखता है, मेरी अंगुली पकड़कर चलता है, मेरे पास ही रहता है सिर्फ मुझे समझता है अर्थात सिर्फ मेरा है। आद्य ने कहा "दिखाओ दिखाओ दिखाओ" अंबिका ने अपना पुत्र आद्य को दिखा दिया। .

आद्य की दृष्टि से समस्त सृष्टि ने अंबिका पुत्र के दर्शन किए और सब कह उठे "दत्त दत्त दत्त" अर्थात "हमे भी दीजिए- हमें भी दीजिए" और इस प्रकार दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट बिल्व वृक्ष के नीचे ललिताम्बा पुत्र दत्तात्रेय का जन्म हुआ। सदा बाल्यावस्था में रहने वाले बाल्य भाव को धारण करने वाले, बालकों के समान हृदय वाले, बालकों के समान हँसने वाले, बालक के समान मुस्कुराने और रोने वाले हैं भगवान दत्तात्रेय अर्थात अंबिका के पुत्र, ललिताम्बा के पुत्र शिव स्वरूप, शिव स्वरूप प्रदान करने वाले, शिवलिंग का निर्माण करने वाले हैं दत्तात्रेय कहाँ रखूं? अपने प्राण प्रिय बालक को, कहाँ छिपाऊं? इसे मैं इस भाव में राज राजेश्वरी चिंतन लीन थीं तभी दिव्य कैलाश की कामधेनु आ पहुँची एवं दत्तात्रेय को देखते ही उसके स्तनों से दुग्ध धारा प्रवाहित होने लगी। जो कोई दत्तात्रेय को देखता वह बाल्यभाव में आ जाता, उन्हें अपलक निहारने लगता। माता ने तुरंत ही दत्तात्रेय रूपी शिशु को कामधेनु की पीठ पर विराजमान कर दिया अब तो कामधेनु दत्तात्रेय को लेकर समस्त दिव्य कैलाश पर मंद-मंद मुस्कुराती घूमने लगीं। अद्भुत कौतुकम्, ये कौन आ गया? दिव्य कैलाश में, सबके सब विस्मय की दृष्टि से उन्हें निहारने लगे परन्तु आद्य भी प्रसन्न थे क्योंकि भैरवों के वाहन दत्तात्रेय को देख शांत हो जाते, चुपचाप बैठ जाते। श्वानों ने दिव्य कैलाश पर चीखना चिल्लाना बंद कर दिया, सर्पों ने भी व्यर्थ में फुफकारना बंद कर दिया वे सब दत्तात्रेय के ऊपर फण फैलाकर छाया करने लगे, कार्तिकेय का मयूर और गणेश का वाहन मूषक भी दत्तात्रेय के सानिध्य में आकर शांत और शालीन बन बैठे। 52 वीर, रण्डा-चण्डा, कपालिनियाँ, भैरवियाँ, योगनियाँ, वेताल, कूष्माण्ड इत्यादि सभी शिवगण कौतुक की दृष्टि से दत्तात्रेय को निहारने लगे। 

         अचानक एक दिन बाल्य दत्तात्रेय आद्य के निकट पहुँच गये एवं उन्हें शांत भाव से अपलक निहारने लगे, उनके गले में पड़ी रुद्राक्ष माला को पकड़ने लगे। शिवलोक में शालीनता, शिष्टता, तेजस्विता, निर्द्वन्दता का प्रतीक बने दत्तात्रेय को देख आद्य के अंदर भी पितृ भाव जाग उठा। उन्होंने अपने कण्ठ में पड़ी देवकार्य सिद्धि रुद्राक्ष माला, वर प्रदाता 11 मुखी रुद्राक्ष माला, सर्वकार्य सिद्धि माला और यहाँ तक कि विचित्र विचित्र रुद्राक्षों से निर्मित सिद्ध माला भी स्वयं के गले से उतारकर दत्तात्रेय के गले में धारण करा दी। जैसे ही आद्य ने दत्तात्रेय के मस्तिष्क को स्पर्श किया वे शिव स्वरूप हो गये, उनके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया एवं उनके 6 हाथों में त्रिशूल, चक्र, गदा, रुद्राक्ष माला, शंख, धनुष इत्यादि विराजमान हो गये। आद्य ने कहा हे अंबिका पुत्र, हे शिव स्वरूप, हे शिव शिष्य, हे शिव पुत्र आज से तू ब्रह्माण्ड का सबसे ज्ञानी, जो परम् अवधूत ज्ञान कोई जीवात्मा ग्रहण नहीं कर पायी वह तुझे प्राप्त होगा, वह तुझे देता हूँ मैं और तू समस्त जगत को देगा तेरा कार्य सिर्फ देना है, देते ही रहना और इस प्रकार दत्तात्रेय शिव पुत्र हुए। शिव शिष्य हुए गौ की पीठ पर विराजमान, गौ-रस का सेवन करने वाले, गौ सिद्धांत के प्रवर्तक, गौ के समान सर्वोपयोगी, गौ के समान परम शांत एवं शालीन दत्तात्रय मूल रूप से दिव्य कैलाश के गौ उद्यान में ही निवास करते हैं जहाँ से कि निरंतर "गं" तत्व का गुंजन होता है अतः वे आद्य गुरु कहलाये गकार के प्रवर्तक कहलाये । 

             दिव्य कैलाश के गुरु उद्यान में दत्तात्रेय शांत भाव से विराजित थे तभी सभी एक-एक करके उनके पास आने लगे "हमें भी कुछ दो हमें भी कुछ दो" सब उनसे मांगने लगे क्या दिया जाय ? देने के लिए है ही क्या? क्या देना चाहिए? बस धीर गंभीर एवं परम शांत दत्तात्रेय सबको एक-एक कर उसकी प्रवृत्तिनुसार उसके चिंतन अनुसार शिवलिंग प्रदान करने लगे। गणेश को भी शिवलिंग कार्तिकेय को भी शिवलिंग, गंगा को भी शिवलिंग, नंदी को भी शिवलिंग, समस्त सृष्टि को भी शिवलिंग, समस्त गहों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय समस्त ऋषि मुनियों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय । शिव के अलावा कुछ नहीं, सभी शिव हैं और शिव में ही लीन होते हैं अवधूत दत्तात्रेय कह उठा। तीन आवरणों से ढँका शिव ही जीव है और आवरण मुक्त जीव ही शिव है। दिव्य कैलाश में होड़ मच गई शिवलिंग प्राप्त करने हेतु सब कहने लगे उसके शिवलिंग अद्भुत हैं, कौतुक करते हैं, वह शिवलिंगों में मंत्र फूंककर देता है एवं उसके द्वारा प्राप्त शिवलिंगों से जो मांगो वह मिलता है। दत्तात्रेय ने बृहस्पति को वृहद शिवलिंग प्रदान किया और वे देवताओं के गुरु बन बैठे । 

अवधूत दत्तात्रेय दिव्य कैलाश में विराजित अस्थि कंकालों से भी शिवलिंग बनाने लगा, स्वर्ण के भी शिवलिंग बना डाले मणियों के भी शिवलिंग बना डाले, लताओं के भी शिवलिंग बना डाले, जल से भी शिवलिंग बनाने लगा। देखते ही देखते सृष्टि में कोई ऐसा तत्व नहीं बचा जिससे कि शिवलिंग का निर्माण न होता हो उसने प्रत्येक प्रकार के शिवलिंग में कुछ न कुछ विशेषता डाल दी और इस प्रकार धूल को फूल बना देने की चमत्कारिक शक्ति से युक्त हो गये दत्तात्रेय यही सबसे गूढ़ रहस्य है कि धूल को भी शिव तुल्य बना देना, भस्म को भी शिवत्व प्रदान कर देना, कंकाल को भी शिव स्वरूप दे देना एवं जिसने यह कला सीख ली वह शिव को प्राप्त हुआ। आद्य चकरा गये कि कल तक नाना प्रकार के शरीर धारण किए हुए, आढ़े-तिरछे, बिना मुँह वाले, एक आँख वाले, एक टांग वाले अर्थात क्या कहा जाये ? प्रकृति एवं सृष्टि के सबसे विकृत, सब तरफ से त्याज्य बिना किसी काम के सबके द्वारा प्रताड़ित, निष्कासित उनके शिवगण अचानक शैव मय हो गये, शिव के समान दिखने लगे, सबके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया, सब शिव के समान सौन्दर्यवान हो उठे। चारों तरफ शिव के ही प्रतिरूप, शिवतुल्य, शिव गुणों से आच्छादित शिवगण ही दिव्य कैलाश में रमण कर रहे थे। 

       यह सब कैसे हुआ? किसने किया यह कौतुक, सब बोल उठे गुरु उद्यान में माँ अंबिका ने एक महान आत्मा अर्थात महात्मा उदित किया है एवं हम सब उसके पास जाते हैं और वह अपने हाथों से संस्पर्शित कर हमें शिव स्वरूप प्रदान करता है, हमें शिव के समान बना देता है, शिव श्रृंगार से युक्त कर देता है। वहीं हमें रुद्राक्ष धारण करना सिखाता है, वहीं हम पर भभूत मलता है, वही हमें पुनः रूप प्रदान करता है। यह कौतुक ही है, हाँ सृष्टि का सबसे बड़ा कौतुक अर्थात शिव निर्माण । शिव सब कुछ निर्मित करते हैं और दत्तात्रेय शिव निर्मित करते हैं। शिवोत्पन्न जब कालान्तर विकारग्रस्त हो जाते हैं, अपने कर्म बंधनों के कारण जन्म जन्मांतर तक ब्रह्मा निर्मित 84 लाख योनियों में भटक अपने वास्तविक शिव स्वरूप को खो बैठते हैं, शिव की एकरसता से विस्मृत हो जाते हैं तब दत्तात्रेय उन्हें पुनः शिवलिंग प्रदान कर, शिव स्वरूप प्रदान कर, शिव श्रृंगार प्रदान कर, शिव ज्ञान प्रदान कर शिव तुल्य बना देते हैं। .

                       शिव शासनत: शिव शासनत: