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प्राचीन सनातनी भारत में, शिक्षा और ज्ञान का एक विशाल इतिहास है।


हमारे प्राचीन भारत के 25 प्राचीन विश्वविद्यालय... 

दुनिया भर से हजारों प्रोफेसर और लाखों छात्र यहां रहते थे और कई विज्ञानों और विषयों का अध्ययन और अध्यापन करते थे। यहाँ पर कुछ प्रमुख प्राचीन विश्वविद्यालयों की जानकारी दी जा रही है......

1.#नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 5वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था और इसमें विभिन्न विज्ञान, दर्शन, और धर्म का अध्ययन किया जाता था। यहाँ पर 10,000 छात्र और 2,000 शिक्षक थे।

2.#तक्षशिला विश्वविद्यालय (Taxila University):

स्थान: #पाकिस्तान
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व
विशेषता: यह भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है। यहाँ पर चिकित्सा, कानून, कला, सैन्य विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती थी।

3.#विक्रमशिला विश्वविद्यालय (Vikramshila University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यह भी बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

4.ओदंतपुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri University):

स्थान: बिहार
स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: बौद्ध शिक्षा और साहित्य का प्रमुख केंद्र।

5.मिथिला विश्वविद्यालय (Mithila University):

स्थान: #बिहार
विशेषता: न्यायशास्त्र और तंत्र की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध।

6.वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi University):

स्थान: #गुजरात
स्थापना: 6वीं शताब्दी ईस्वी
विशेषता: यहां पर धर्म, कानून, और चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी।

7.स्रृंगेरी मठ (Sringeri Math):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत का प्रमुख केंद्र।

8.#कांचीपुरम विश्वविद्यालय (Kanchipuram University):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: यहाँ पर तमिल साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया जाता था।

9.पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: यह बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र था।

10.उज्जयिनी विश्वविद्यालय (Ujjayini University):

स्थान: #मध्यप्रदेश
विशेषता: यहाँ पर ज्योतिष, खगोल विज्ञान, और गणित की शिक्षा दी जाती थी।

11.कृष्णापुर विश्वविद्यालय (Krishnapur University):

स्थान: #पश्चिम_बंगाल
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और संस्कृत की शिक्षा का केंद्र।

12.#नेल्लोर विश्वविद्यालय (Nellore University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: यहां पर धर्म और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी।

13.#सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura University):

स्थान: #बांग्लादेश
विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।

14.अमरावती विश्वविद्यालय (Amravati University):

स्थान: आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र।

15.नागरजुनकोंडा विश्वविद्यालय (Nagarjunakonda University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र।

16.रत्नागिरी विश्वविद्यालय (Ratnagiri University):

स्थान: #ओडिशा
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

17.माल्कापुरम विश्वविद्यालय (Malkapuram University):

स्थान: #आंध्र प्रदेश
विशेषता: विभिन्न धर्मों और विज्ञानों की शिक्षा।

18.#त्रिसूर विश्वविद्यालय (Trissur University):

स्थान: केरल
विशेषता: कला, साहित्य और ज्योतिष की शिक्षा।

19.#विजयपुरा विश्वविद्यालय (Vijayapura University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म, तंत्र, और ज्योतिष की शिक्षा।

20.कादयर विश्वविद्यालय (Kadayar University):

स्थान: #तमिलनाडु
विशेषता: तमिल साहित्य और कला का अध्ययन।

21.#मयंकट विश्वविद्यालय (Manyaket University):

स्थान: कर्नाटक
विशेषता: धर्म और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

23.उडीपी मठ (Udipi Math):

स्थान: #कर्नाटक
विशेषता: अद्वैत वेदांत और धर्म की शिक्षा।

23.कण्णूर विश्वविद्यालय (Kannur University):

स्थान: #केरल
विशेषता: साहित्य, कला और ज्योतिष की शिक्षा।

24.अन्नूरधपुर विश्वविद्यालय (Anuradhapura University):

स्थान: श्रीलंका
विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।

25.कंथालूर शाला (Kanthaloor Shala):

स्थान: तमिलनाडु
विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

ये #प्राचीन विश्वविद्यालय शिक्षा के उच्चतम मानकों के प्रतीक थे और यहाँ पर #दुनिया भर से छात्र और शिक्षक ज्ञान प्राप्त करने और साझा करने के लिए आते थे। इन संस्थानों में विभिन्न विज्ञान, धर्म, कला, और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी, जो #भारत की समृद्ध #सांस्कृतिक और बौद्धिक #धरोहर का हिस्सा हैं।

पूरा पढ़ने के लिए साभार...🙏


बाल्य भाव ।।

        विवेकानंद अमेरिका की यात्रा पर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने प्रथम बार विशालकाय गुब्बारों को देखा जिसमें कि मनुष्य बैठ कर आकाश की सैर कर सकता था, अचानक उनके अंदर बाल सुलभ भाव जाग उठा। उनके साथ बहुत सारे चेले चपाटे थे जो कि स्वामियों, गुरुओं या आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को केवल गम्भीर, मुँह बना कर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले प्राणी समझते थे। विवेकानंद बच्चों के समान सबके सामने गुब्बारे में बैठने के लिये लालायित हो उठे तुरंत दौड़कर गुब्बारे में बैठ गये और बाल सुलभ हो बड़े-बड़े नेत्रों से ऊपर उड़ते हुए विस्मयकारी दृश्य देख कर बच्चों के समान खिलखिलाने लगे। उनके आसपास के चेले चपाटे बोले स्वामी जी आप इतना साधारण व्यवहार मत कीजिए अन्यथा आप की छवि धूमिल हो जायेगी, लोग आप को पाखण्डी कहने लगेंगे,आप सामान्य मनुष्य लगने लगेंगे।

         ‌‌ विवेकानंद ने किसी की नहीं सुनी, बाल सुलभ थे बाल सुलभ बने रहे। बाल सुलभ मन और हृदय ही कौतुहल की दृष्टि प्रदान कर सकता है,बाल सुलभ मन ही विस्मयकारी हो सकता है।बाल सुलभता दुर्गोपासना की प्रथम आवश्यकता है,स्त्री और पुरुष बन कर कृपया कर दुर्गोपासना सम्पन्न न करें अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।स्त्री और पुरुष बन कर केवल भोग होता है, स्त्री और पुरुष की योगमार्ग में क्या जरूरत? स्त्री और पुरुष एक विशेष अवस्था है। जिन युवाओं में पुरुषत्व की बहुलता है वे केवल स्त्री से आकर्षित होंगे, हर दूसरा युवक सुंदर स्त्री से विवाह मांगता है, हर दूसरी युवती बस वर को ही खोजती है एवं इन्हें अध्यात्म से क्या लेना देना अगर अध्यात्म के - बल पर कुछ स्वार्थ पूर्ति हो जाये तो ठीक है नहीं तो इन्हें एक से बढ़कर एक मार्ग आते हैं। इस सृष्टि में समस्या की जड़ स्त्री और पुरुष के भाव ही हैं।

          विवेकानंद भला क्यों बाल सुलभ नहीं होते आखिरकार उनके गुरु परमहंस तो अति में बाल सुलभ थे। वे तो मिठाई की दुकान पर खड़े हो जाते थे, सभी शिष्यों के बीच मिठाई खाने लगते थे, एक बार खुले में शौच कर रहे थे तभी एक भैरवी साधिका उनकी परीक्षा लेने के लिये अचानक वहाँ पर आकर खड़ी हो गयी। वे बालकों की भांति हँसने लगे और पास पड़े पत्थरों से उसे मार कर दूर भगाने लगे, भैरवी का हृदय परिवर्तन हो गया। परमहंस के एक शिष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये उन्हें कलकत्ता के वेश्यालय में छोड़ दिया वे क्रिया योग में दक्ष थे दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने बाल्यभाव को समग्रता के साथ जाग्रत कर लिया, वेश्याओं को देख माँ-माँ चिल्लाने लगे। वेश्याओं को बहुत घमण्ड होता है क्योंकि वे पुरुषों को पराजित करती है परन्तु बालक भाव से वेश्याएँ हार गयी, घबरा गयी, उनका तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। स्त्री भाव भी मूल प्रकृत्ति ही प्रदान करती है। प्रकृति परमेश्वरी का ही विग्रह है अतः प्रकृति भी नियंत्रिका का काम करती है इसलिए स्त्रियों में नियंत्रण की जन्मजात प्रवृत्ति कूट-कूट कर -भरी हुई होती है। पुरुष या पिण्ड पर नियंत्रण करने के लिये सदैव लालायित रहने वाली शक्ति को ही स्त्री कहते हैं।

          जीवन में भले ही एक क्षण के लिये या फिर सम्पूर्ण जीवनभर स्त्री अंतत: पुरुष को सम्पूर्ण नियंत्रण में ले ही लेती है। नियंत्रण की इस रस्साकशी में वह गोपनीय तौर पर प्रतिक्षण माया का निर्माण करती ही रहती है एवं उसका एकमात्र ध्येय पुरुष पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है परन्तु स्त्री बाल्यभाव पर नियंत्रण कभी प्राप्त नहीं कर पाती और यहीं पर वह हारती है। बालक जीतता है माता हारती है, यह निश्चित है। अंतत: माता झुकती है। बालभाव स्त्री कला पर अंकुश है। स्त्री भाव का दम्भ बाल भाव के सामने खण्डित हो ही जाता है। भारत के सभी ऋषि मुनियों ने नियंत्रिका रूपी परमेश्वरी की अंततः मातृ भाव में ही उपासना की है। विश्वामित्र जैसा पुरुष प्रधान व्यक्तित्व दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व बचा था तभी मेनका के हाथों पतोन्मुखी हुए, लम्बा समय लगा तब कहीं जाकर बाल्यभाव जाग्रत हुए अंतत: गायत्री कल्प प्राप्त हुआ।

        दत्तात्रेय विष्णुअवतार माने गये हैं, अखण्ड ब्रह्मचारी थे एवं लक्ष्मी उनके पास में खड़ी रहती थी। एक बार असुरों के हाथ इंद्र समेत देवताओं की दुर्गति हुई। दुर्गति इसलिये हुई क्योंकि रासरंग में डूब गये थे रासरंग में तो स्त्रियाँ चलती हैं। नारद ने कहा जाओ दत्तात्रेय ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। लुटे-पिटे देवता दत्तात्रेय के पास पहुँचे। दत्तात्रेय बोले मैं बहुत परेशान हो गया हूँ इस सुंदर स्त्री को साथ मे लेकर घूमते-घूमते देवता बोले नहीं नहीं यह तो साक्षात् लक्ष्मी हैं, मातेश्वरी हैं बस दत्तात्रेय उनके मुख से मातेश्वरी ही सुनना चाह रहे थे, उन्हें पुनः बाल भाव का अनुभव कराना चाह रहे थे। एक शब्द में ही देवताओं ने मातृ भाव की स्तुति कर ली ।दत्तात्रेय बोले किसी तरह असुरों को यहाँ तक ले आओ।देवता पुनः युद्ध करने गये और दैत्य उनके पीछे-पीछे दत्तात्रेय तक आ पहुँचे। एक मुनि के पास अत्यंत परम शोभावान, रत्नों से सुसज्जित दिव्य विभूति को देख दैत्य मोहित हो गये एवं उनके अंदर पुरुषत्व जाग उठा दैत्य सम्राट बोला अरे मुनि यह तो विलक्षण स्त्री रत्न है इसका यहाँ क्या काम तुम इसे हमें सौंप दो तब दत्तात्रेय ने कहा ले जाओ दैत्य खुशी-खुशी लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर ले जाने लगे दत्तात्रेय ने तुरंत देवताओं से कहा कि अब हमला करो यह नियंत्रिका के नियंत्रण में आ गये हैं।देवता शस्त्रों के साथ असुरों पर टूट पड़े और कुछ ही क्षणों में दैत्य पराजित हो गये।

            रामकृष्ण परमहंस आज से 150 वर्ष पूर्व हुए थे अतः समझ गये थे कि स्त्री-पुरुष भाब सत्यानाशी है एवं इनके चक्कर में झंझट ही झंझट है।इसलिए अपनी पत्नी को माता के रूप में स्वीकार कर लिया।परमेश्वरी को उन्हें अपना सानिध्य प्रदान करना था इसीलिये रामकृष्ण की युवा पत्नी में भी मातृत्व के भाव स्वतः प्रकट हो गये एवं रामकृष्ण परमहंस को परिवार की तरफ से कोई कष्ट नहीं हुआ अन्यथा अगर उनकी पत्नी में स्त्री भाव एकांश भी आ जाते तो लेने के देने पड़ जाते।जैसे ही एक युवक में पुरुष ग्रंथि विकसित होती है या फिर एक बालिका में रजोस्त्राव होता है उनकी ऊपर की तरफ बढ़नी वाली लम्बाई स्वत: रूक जाती है।जितने लम्बे हो गये या जितनी कद काठी मिल गयी बस मिल गयी अर्थात अब फैल सकते हैं,मोटे हो सकते हैं, बेडौल हो सकते हैं परन्तु लम्बवत उन्नति नहीं होगी। यही ब्रह्मचर्य का सिद्धांत है।जितना ज्यादा विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होगा उतनी ही आध्यात्मिक अवनति होगी, उतना ही साधक मातृत्व से दूर हटता जायेगा और जैसे-जैसे मातृत्व के हाथ से निकलकर नियंत्रण स्त्री के हाथ में जाता जायेगा व्यक्ति वृद्ध होता जायेगा इसलिए कामुक स्त्री पुरुष शीघ्र ही ढल जाते हैं, रोगग्रस्त हो जाते हैं, समस्याओं में उलझ जाते हैं, बालों में सफेदी आ जाती है और एक दूसरे का शोषण शुरू हो जाता है।

          दो धाराएं है,दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। एक सम्बन्ध में मातृत्व की बहुलता है। एवं यह पुष्टिदायक है यह उन्नति का मार्ग है,यह एक मार्गीय व्यवस्था है,इसमें लेन-देन नहीं है, पुत्र का यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि वह माता से प्रेमपूर्वक,हठपूर्वक प्राप्त करता रहे।पुत्र कैसा भी हो, बालक कैसा भी हो फिर भी माता के लिये वह अत्यंत ही प्रिय है, यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन नहीं है पुत्र से माता की अपेक्षा शून्य है। दूसरा विभाग इसके सर्वथा विपरीत है एवं इस मार्ग में पुरुष अगर उपयोगी नहीं है तो फिर दिक्कत हो जायेगी, पुरुष को हर क्षेत्र में स्त्री के लिये उपयोगिता सिद्ध करनी होती है, इसमें लेन-देन है। सम्बन्ध क्या हैं? इस प्रकार अनंत काल से क्यों होता चला आ रहा है? यह सब किसी ने किसी को नहीं सिखाया। सीधी सी बात है मस्तिष्क का निर्माण जिन शक्तियों ने मिलकर किया है एवं जिन शक्तियों के सानिध्य में मस्तिष्क निर्मित हुआ है उनकी मूल प्रकृति ही ऐसी है। मस्तिष्क के अंदर क्रियाशील होने वाली मूल प्रकृति के ही लक्षण सम्बन्धों के रूप में परिलक्षित होते हैं, यह सब आदि व्यवस्था के अंतर्गत आता है।

              मस्तिष्क का विकास,उसकी सक्रियता, उसकी क्रियाशीलता को जो एकमात्र भाव प्रबलता प्रदान करता है वह बालभाव है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि बालभाव ही सब कुछ हैं परन्तु इतना जरूर कह रहा हूँ कि बाल भाव जीवन पर्यन्त विलोप नहीं होना चाहिये एवं इसे त्यागना नहीं चाहिये।सृष्टि काल अनुसार अन्य भाव भी उत्पन्न करती है, सृष्टि भाव आधारित है अगर बाल्य भाव चलता रहा तो सृष्टि पर अतिरिक्त भार बढ़ जायेगा क्योंकि मृत्यु सम्भव नहीं हो पायेगी। बाल्यभाव में मृत्यु सबसे दारूण और कष्टप्रद होती है साथ ही बालभाव की मृत्यु मातृत्व सहन नहीं कर पाता ।मातृत्व में इस सिद्धांत की इतनी प्रबलता है कि वह सर्वप्रथम खुद को मरते हुए देख सकती हैं पर बाल्यभाव को नहीं। हर माता वही चाहती है कि उसकी आँखों के सामने उसके पुत्र सदैव बने रहे वे आँखे मूंद लें पर पुत्र जीवित हो।

           यह मस्तिष्क की परम इच्छा शक्ति है एवं इस शक्ति की तरफ इशारा ही इस का व्येय है कि एक मूल मातेश्वरी शक्ति है जो कि यह कदापि बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है, किसी भी कीमत पर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उसकी संतान उससे पहले काल कवलित हो जाये। इसी शक्ति की मनु ने उपासना की, इसी शक्ति को प्रत्येक मनवंतर में मनु ने दुर्गा रूपी कुलदेवी को स्थापित किया,यही वह उर्वरक शक्ति है जिसका कि मार्कण्डेय ने पान किया और चिरंजीवी, हो गये, इसी शक्ति को विभिन्न रूपों में ऋषिगण प्रतिक्षण भजते रहते। हैं। यह शक्ति अत्यंत ही कातर, दयालु और प्रेममयी है, यह भोली है,यह सीधी-साधी एवं एक मार्गीय है।

अतः यही परम विशुद्ध मातृशक्ति है जो कि सर्वस्व लुटा कर पुत्रों को जीवित रखे हुए है । यही भाव ब्रह्मचारी बनाते हैं। इस कातर और दयामयी शक्ति के संस्पर्श से ही काम विकार नष्ट होते हैं एवं मातृभाव जाग्रत होते हैं।

        यह है योगमयी शक्ति, इसी को ढूंढते फिरते हैं तत्व ज्ञानी एवं मुमुक्ष जन पर यह तो बिल्कुल पास खड़ी होती है, अपलक आँखों से बस पुत्र का इन्तजार कर रही होती है। पुरुषार्थ, स्त्री- आकर्षक, जग-संसार के प्रपंचों में उलझे अपने पुत्र को पुनः प्राप्त करने की लम्बी प्रतीक्षा कर रही होती है। समस्त शस्त्रों से युक्त होते हुए भी पुत्र के सामने निशस्त्र होती है, पुत्र को भटकता देख कर भी मोह में लिप्त होती है। मोह इस शक्ति की मुख्य पहचान है एवं केवल पुत्र मोह ही इसके मूल में है। यह जागृत भी पुत्र की आवाज पर ही होती है और सुप्त भी पुत्र के आचरण से ही होती है। इसका कीलन, उत्कीलन केवल पुत्र ही दूर कर सकता है। वाल्यभाव के अधीन दुर्गेश्वरी है। यह समस्त ब्रह्माण्ड की नेत्री हैं, समस्त ब्रह्माण्ड की नियंत्रिका है पर इस पर नियंत्रण बालक का है। यह किसी को कुछ नहीं समझती, सबसे परे है, कोई भी इसकी हद तक नहीं पहुँच सकता सिवा बालक के। बालक पुकारेगा तो जाग जायेगी, समस्त कार्यों को छोड़ सामने खड़ी होगी। आप दस महाविद्या सिद्ध करना चाहते हैं, महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, दुर्गा के दर्शन चाहते कुछ बनना चाहते हैं तो उसका एक मात्र विधान है "बाल्यभाव।

           बाल्यभाव व्यक्ति की युवा अवस्था लम्बा करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिन लोगों में बाल्यभाव होता है वे 18 वर्ष की उम्र से लेकर 50 वर्ष की उम्र तक एक जैसे ही दिखते हैं। बुढ़ापा उन्हें - स्पर्श नहीं कर पाता, वृद्धावस्था की अवधि घट जाती है। योग क्या है? रसेश्वरी विद्या क्या है? रसोत्पादन क्या है? इनके मूल में बाल्य भाव का अनुसंधान ही छिपा हुआ है। शरीर को बच्चो के समान हर दिशा में मोड़ना, शरीर के अंदर प्राण शक्ति का प्रबल संचार होना ही बाल्यभाव का प्रमाण है। बच्चों को चोट लगती है तुरंत ठीक हो जाती है, बच्चे भीषण से भीषण दुर्व्यवहार को भी तुरंत भूल जाते हैं, बच्चे ही सीख सकते हैं। सिखायेगी माता और सीखेगे बच्चे।

            सयानों को क्या सिखाना? सवाल उठता है कि सृष्टि ने सबको भौतिक रूप से एक माता प्रदान की है, उसका सानिध्य दिया है तो फिर मातृोपासना या दुर्गापासना की क्या जरूरत? जन्म देने वाली माता एक कड़ी है, जिसने हमें प्रदुर्भावित किया परंतु सर्व समर्थता एवं विभिन्न कलाएँ जरूरी नहीं है कि हमें वर्तमान की माता से प्राप्त हो गयी हो अतः दुर्गोपासना के द्वारा हम अनंत अव्यक्त संस्कारों, कलाओं एवं साधनो इत्यादि में से अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करते रह सकते हैं। दुर्गोपासना का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जितनी बार हम इस साधना को सम्पन्न करेंगे हर बार कुछ नया प्राप्त होगा, हर बार एक नया दृष्टिकोण मिलेगा, हर बार कुछ सीखने को मिलेगा। ये लेख अटपटा, अविकसित और अर्थहीन भी हो सकते हैं क्योंकि दुर्गा पर लिखा गया है। एक बालक के रूप में जो मिल गया उसे प्राप्त कर लेना सहज रूप से आगे फिर कभी देखेंगे।

                         शिव शासनत: शिव शासनत:


प्रकृति से किस प्रकार से जुड़ें, किस प्रकार से सीखें ~

० जहां घोड़े पी रहे हैं वहीं पानी पिएं क्योंकि वे कभी भी दूषित पानी नहीं पीएंगे।


० अपना बिस्तर वहीं लगाएं जहां बिल्ली सोती है,क्योंकि उसे शांति पसंद है।

० जिस भी फल को कीड़े ने छुआ है लेकिन उसमें घुसा नहीं है वह खाएं,कीड़ा हमेशा पके फल की तलाश में रहता है।
और जहाँ छछूँदर खोदे, वहाँ अपना पेड़ लगाओ, क्योंकि वह उपजाऊ भूमि है।

० अपना घर बनाओ वहां जहाँ साँप अपने आप को गर्म करने के लिए बैठता है, क्योंकि वह स्थिर भूमि है जो गिरती नहीं है।

० उस जगह पर पानी को खोजने के लिए खुदाई करें जहां पक्षी गर्मी से छिपते हैं। पक्षी जहां भी खड़े होते हैं, पानी छिप जाता है।

० और सो जाओ पक्षियों के कलरव के साथ और पक्षियों के साथ जागो - यह सफलता की खोज है।

० सब्जियां ज्यादा खाएं-आपके पास मजबूत पैर और जंगल के जानवरों की तरह प्रतिरोधी दिल होगा।

० जब भी आपको समय मिले तैरें तब आपको ऐसा लगेगा जैसे आप पानी में मछली की तरह जमीन पर हैं।

० जितना हो सके आकाश की ओर देखें आपके विचार शुद्ध,उज्ज्वल और नीति और निर्णय स्पष्ट होते जाएंगे।
शांत और मौन रहो तुम्हारे हृदय में शांति छा जाएगी, और तुम्हारी आत्मा को शांति मिलेगी


जय श्री राम 🚩🙏🙏

नवरात्र में व्रत तीन प्रकार से हो सकता है-


• एकभुक्त: आधा दिन व्यतीत हो जाने पर हविष्यान्न भक्षण।
• नक्त: रात्रिकाल में एक समय हविष्यान्न भक्षण।
• उपवास: व्रत के दिन भोजन का पूर्णतः त्याग। 

जो नवरात्र में एकभुक्त अथवा नक्त रूप से व्रक करेंगे वे हविष्यान्न भक्षण करें और आमिष वस्तु का सर्वथा त्याग करें। 
ध्यातव्य- द्विजों के लिए भैंस का दुग्ध आदि निषिद्ध है।

सामान्य दिनों में भी अधिक से अधिक प्रयास रहना चाहिए कि आमिष भक्षण ना हो।

व्रत करने वाले-
• सूर्योदय से पूर्व स्नान इत्यादि समाप्त करें एवं दिन में शयन ना करें।
• भूमि पर ही शयन करें।
• प्यास लगने पर ही जल ग्रहण करें।
• पुरुष और अविवाहित स्त्रियाँ तेल, इत्र, शृंगार इत्यादि का त्याग करें।


● जो नौ दिन का व्रत नहीं कर सकते वे सप्तमी, अष्टमी, नवमी -इन तीन दिनों व्रत करके फल प्राप्त कर सकते हैं।

नवरात्रि विशेष नवार्ण मंत्र साधना ।।

  

   साधना किसी भी शुक्रवार या नवरात्रि से शुरू करे। रोज एक समय पर ही साधना करे। साधना के दिनों मे ब्रम्हचर्य का पालन करे । अगर साधना के दिनों मे स्वप्न हो जाए तब भी साधना शुरू रखे। रोज संकल्प करे की आज मे इतनी माला जाप करूँगा और उसे पुरा करे। अगर स्वप्न मे कोई शक्ति आप को कोई भी मंत्र बताये तो उसका जाप आपको नही करना है वरना आपको जो भी नुकसान होगा उसके जिमेदार आप स्वयं होंगे। अपने साधना के अनुभव गलती से भी किसी को ना बताये। 

माला :- रुद्राक्ष 
दिशा :- उत्तर 
दीपक :- घी या तेल 
आसन , वस्त्र :- लाल 
दिन :- अपने सामर्थ्य अनुसार 9 दिन ,11 दिन , 21 दिन साधना करे। 

॥ विनियोगः ॥
श्रीगणपतिर्जयति। ॐ अस्य श्रीनवार्णमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, श्रीमहाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवताः, ऐं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

विनियोग करके ऋष्यादिन्यास करे :

॥ ऋष्यादिन्यासः ॥
ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः, शिरसि॥ – सिर
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्छन्दोभ्यो नमः, मुखे॥ – मुख
महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताभ्यो नमः, हृदि॥ – हृदय
ऐं बीजाय नमः, गुह्ये॥ – गुहा
ह्रीं शक्तये नमः, पादयोः॥ – दोनों पैर
क्लीं कीलकाय नमः, नाभौ॥ – नाभि
“ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” – इति मूलेन करौ संशोध्य ॥ – दोनों हाथ धो ले

॥ करन्यास ॥
करन्यास में सभी उंगलियों और करतल एवं करपृष्ठ का न्यास किया जाता है। अन्य सभी न्यासों में तो दाहिने हाथ की उंगलियों से निर्दिष्ट अङ्ग का स्पर्श करके न्यास किया जाता है किन्तु करन्यास में विधि अलग हो जाती है, जिसका निर्देश दिया गया है :

ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी को मिलायें।
ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ॥ – पुनः दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी को मिलायें।
क्लीं मध्यमाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और मध्यमा को मिलायें।
चामुण्डायै अनामिकाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और अनामिका को मिलायें।
विच्चे कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ – दोनों हाथों के अंगूठे और कनिष्ठा को मिलायें।
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥ – पहले दोनों करतल को मिलाये फिर दोनों करपृष्ठ को मिलाये।

॥ हृदयादिन्यास ॥
हृदयादिन्यास के लिये दाहिने हाथ की पाँचों उंगुलियों से हृदय आदि अंगों का स्पर्श किया जाता है, कुछ लोग करतल से भी करते हैं :

ऐं हृदयाय नमः ॥ – दाहिने हाथ के पांचों उंगलियों को मिलाकर हृदय स्पर्श करे।
ह्रीं शिरसे स्वाहा ॥ – शिर स्पर्श करे।
क्लीं शिखायै वषट् ॥ – शिखा स्पर्श करे।
चामुण्डायै कवचाय हुम् ॥ – दोनों हाथों परस्पर दाहिने और बायीं बांहों का स्पर्श करे।
विच्चे नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ – दाहिने हाथ की तर्जनी से दाहिना नेत्र, अनामिका से बांया नेत्र और मध्यमा से तृतीय नेत्र कल्पित करके मध्य मस्तक का स्पर्श करे।
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे अस्त्राय फट् ॥ – दाहिने हाथ को शिर के ऊपर से घुमाकर ताली बजाये। कुछ लोग तर्जनी और मध्यमा दो उंगलियों से ही निर्देश करते हैं तो कुछ लोग अप्रदक्षिण क्रम का भी निर्देश करते हैं।

॥ अंगन्यास ॥
अग्रांकित मंत्रों से क्रमशः शिखा आदि का स्पर्श करें :

नमः, शिखायाम् ॥ – शिखा
ह्रीं नमः, दक्षिणनेत्रे ॥ – दाहिना नेत्र
क्लीं नमः, वामनेत्रे ॥ – बायां नेत्र
चां नमः, दक्षिणकर्णे ॥ – दाहिना कान
मुं नमः, वामकर्णे ॥ – बायां कान
डां नमः, दक्षिणनासापुटे ॥ – दाहिना नासिकापुट
यैं नमः, वामनासापुटे ॥ – बायां नासिकापुट
विं नमः, मुखे ॥ – मुख
च्चें नमः, गुह्ये ॥ – गुहा

॥ दिङ्न्यास ॥

दशों दिशाओं में चुटकी बजाये :

ऐं प्राच्यै नमः ॥ – पूर्व
ऐं आग्नेय्यै नमः ॥ – अग्निकोण
ह्रीं दक्षिणायै नमः ॥ – दक्षिण
ह्रीं नैर्ऋत्यै नमः ॥ – नैर्ऋत्यकोण
क्लीं प्रतीच्यै नमः ॥ – पश्चिम
क्लीं वायव्यै नमः ॥ – वायव्यकोण
चामुण्डायै उदीच्यै नमः ॥ – उत्तर
चामुण्डायै ऐशान्यै नमः ॥ – ईशानकोण
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊर्ध्वायै नमः ॥ – ऊपर
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे भूम्यै नमः ॥ – नीचे

॥ ध्यानम् ॥
फिर पुष्पादि लेकर देवी का ध्यान करे :

खड्‌गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्‍तुं मधुं कैटभम्॥१॥

ॐ अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥२॥

ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥३॥

फिर “ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नमः” इस मन्त्र से माला की पूजा करके प्रार्थना करें –

ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥

इस मंत्र से माला को दाहिने हाथ में ग्रहण करे :

ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणेकरे।
जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये ॥

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमन्त्रार्थसाधिनि
साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा ॥

मूल मंत्र :- 

“ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे”
Om Aing Hreeng Kling Chamundaye Vicche .

जाप पुरा होने के बाद इस श्‍लोक को पढ़े और भगवती को प्रणाम करे। 

ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्‍वरि ॥