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शिव के व्रतों का वर्णन व विधान ।।

          भारत को जनता धर्मप्रिय है, और भगवान शंकर भारतवासियों के लिये सर्वोच्च एवं सर्वप्रिय देवता रहे हैं।
इस लेख में भगवान शंकर से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण व्रतों का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।

१- सोमवार व्रत :-
        इस व्रत में साधक किसी भी सोमवार से व्रत प्रारम्भ कर सकता है। उसे कम से कम सोलह सोमवार का व्रत-संकल्प अवश्य लेना चाहिए।

प्रातः काल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर साधक भगवान शंकर की विधि-विधान से पूजन करे और संकल्प लेकर प्रण करे कि मैं अमुक कार्य की सफलता के लिये आपका व्रत कर रहा हूं।

इसके बाद "नमः शिवाय" पंचाक्षरी मन्त्र की एक माला फेरे और उस दिन एक समय एक आसन पर बैठकर उतना ही भोजन करे जितना कि नित्य करता है, इसके अलावा दिन में किसी भी प्रकार का फलाहार या अन्न ग्रहण न करे ।
साधक को चाहिए कि व्रत के दिन असत्य न बोले, स्त्री-गमन न करे और यथा सम्भव शुद्ध सात्विक रूप से दिन व्यतीत करे। 

२- मन्छा महादेव व्रत :
          यह अत्यन्त महत्वपूर्ण व्रत है। किसी भी वर्ष से यह व्रत प्रारम्भ किया जा सकता है। श्रावण शुक्ल पक्ष प्रथम सोमवार से इस व्रत को प्रारम्भ किया जाता है तथा कार्तिक शुक्ला प्रथम सोमवार को इस व्रत का समापन होता है, इस प्रकार चार वर्ष तक इस को करने से पूर्णता मानी जाती है।

श्रावण शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को साधक (पुरुष या स्त्री) स्नान कर शिव का पूजन करे और संकल्प में अपनी इच्छा व्यक्त करे, इसके बाद उस दिन मंछा महादेव कथा का पाठ करे या श्रवण करें । उस दिन साधक को एक बार ही भोजन करना चाहिए, इसके अलावा उस दिन किसी भी प्रकार का अन्न या भक्ष्य स्वीकार नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार प्रत्येक सोमवार को व्रत रखना चाहिए और मंछामहादेव की कथा सुननी चाहिए, यह कथा बाजार में सहज ही प्राप्य है।

कार्तिक शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार को सवा किलो आटा, सवा किलो घी, गुड़ आदि लेकर भगवान शिव के लिये प्रसाद बनाया जाता है और कथा के अनुसार उसके भाग कर वितरण किया जाता है। इस प्रकार एक वर्ष का विधान सम्पन्न होता हैं, कार्य की सफलता के लिये इस प्रकार चार वर्ष तक व्रत करना चाहिए, ऐसा करने पर निश्चय ही मनोवांछित सफलता प्राप्त होती है।

३- शिवरात्रि व्रत :-
           यह व्रत पूरे वर्ष में सर्वश्रेष्ठ और शिव को अत्यन्त प्रिय व्रत है। इस दिन साधक दिन भर भूखा रहता है और सूर्यास्त के बाद प्रथम प्रहर में भगवान शिव की षोडशोपचार पूजा करता है। यदि संभव हो तो साधक को रुद्राष्टाध्यायी का पाठ भी करना चाहि- ए। इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों में चार बार शिव पूजा की जाती है तथा प्रातः काल भगवान शिव का श्रृंगार कर उसकी आरती की जाती है। साधक को रात्रि भर जागरण करना चाहिए, प्रातः काल आर- ती के बाद ही भोजन करने का विधान है।

रात्रि को शिव पूजन करते समय संस्कृत का ज्ञान न हो तो "नमः शिवाय' मन्त्र से भी पूजा की जा सकती है और सारी रात इसी पंचाक्षरी मन्त्र का जप किया जा सकता है।

४- षोडश सोमवार व्रत :-
           शास्त्रों में लिखा है कि शिवजी के प्रिय चन्द्र हैं जिन्हें वे हमेशा अपने ललाट में स्थापित किये रहते हैं। अतः शिव को प्रसन्न करने के लिये सोमवार का व्रत किया जाता है। शिव पूजन उत्तर की ओर मुंह करके किया जाना चाहिए ।

साधक को किसी भी सोमवार को स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर भगवान शंकर की पूजा करके संकल्प के द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करनी चाहिए। उसके बाद "नमः शिवाय" मन्त्र की एक माला फेरी जाती है, साधक को उस दिन एक समय भोजन करना चाहिए और अन्य सभी नियमों का पालन करना चाहिए । इस प्रकार सोलह सोमवारों को व्रत किया जाता है। अन्तिम सोमवार को व्रत की समाप्ति पर पुनः शंकर की पूजा कर साधुओं को भोजन कराया जाता है, और सोमवार व्रत कथा सुनकर व्रत समाप्ति की जाती है।

५- श्रावण व्रत :-
           श्रावण का महीना शंकर को सर्वाधिक प्रिय है। इस महीने में चार या पांच सोमवार आते हैं । साधक को पहले सोमवार को प्रातः उठकर स्नान कर पूर्ण विधि- विधान के साथ भगवान शंकर की पूजा करनी चाहिए । फिर शुद्ध स्थान से मिट्टी लाकर उसके लिंगाकार ११०० शिवलिंग बनाये जाते हैं और लिंग के ऊपर बिना टूटा हुआ चावल का दाना लगाया जाता है। साथ ही साथ मां पार्वती, नन्दी, गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियां मिट्टी से ही बनाई जाती हैं।
फिर इन सब का पूर्ण विधि-विधान के साथ पूजन किया जाता है और पूजन के बाद तालाब में या नदी में उन शिवलिंगों का विसर्जन कर दिया जाता है।

श्रावण महीने में प्रत्येक दिन या प्रत्येक सोमवार इसी प्रकार पूजा करने का विधान है। इससे साधक की निश्चित रूप से इच्छा पूर्ण होती है और वह जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर पाता है।

६- श्रावण शिव व्रत :-
          श्रावण महीने में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तक यह व्रत किया जाता है। सर्व प्रथम साधक चांदी या पत्थर के शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करता है तथा उस पर अनवरत जलधार देता है। शिवलिंग पर ऐसी व्यवस्था की जाती है कि उस पर तिपाई ऊपर रखे हुए कलश या घड़े के नीचे छोटा-सा छेद करके उसमें से जल की एक-एक बूंद शिवलिंग पर पड़ती रहती है। यह जलधार चौबीसो घंटे चलती रहती है तथा नित्य प्रातः काल साधक शिव की पूर्ण विधि- विधान के साथ पूजन करता है।

पूर्णिमा की रात्रि को यह व्रत समाप्त होता है। इस एक महीने में साधक को चाहिए कि वह नित्य एक समय भोजन करे, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, सिगरेट आदि का सेवन न करे, दिन में न सोये, व्यर्थ की बकवास न करे, और अपने शरीर तथा मन को यथासम्भव शुद्ध और पवित्र बनाये रखे ।

७- प्रदोष व्रत :
            सामान्यतः प्रत्येक महीने की त्रयोदशी को प्रदोष व्रत किया जाता है। पर कभी-कभी एक दिन पहले या एक दिन बाद भी यह व्रत आ जाता है अतः योग्य ब्राह्मण से इसके बारे में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

प्रदोष के दिन साधक को प्रातः स्नान आदि से निवृत्त होकर भगवान शंकर की पूर्ण विधि-विधान के साथ पूजा करनी चाहिए और प्रदोष कथा सुनकर ही एक समय भोजन करना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक महीने में दो प्रदोष व्रत किये जाते हैं। एक साल भर तक इस प्रकार व्रत करने से साधक की मनोकामना निश्चय ही पूर्ण होती है।

वस्तुतः ये व्रत शिव भक्तों के लिये आवश्यक हैं और उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस प्रकार के व्रतों को करना चाहिए। ऐसा करने से वे इस जीवन में पूर्ण सुख प्राप्त करते हुये अन्त में मोक्ष पद प्राप्त करते हैं।

सन्ध्या विधि ।।

        शरीर की क्षमता बढ़ाने तथा मानसिक शारीरिक स्वास्थ्य के लिए संध्या वंदन एक उपयोगी प्रयोग है। इसे दैनिक कार्यों के समान ही महत्व दिया जाना चाहिए। संध्या-वंदन न केवल एक धार्मिक कृत्य है वरन् अपने को समाजोपयोगी बनाने के लिए एक आवश्यक आधार भी है।


          संध्या-वंदन धार्मिक क्रिया-कलापों का आवश्यक अंग है, कर्म मय जीवन की नींव है और सामाजिक कर्तव्य है।


          प्रत्येक भारतीय के लिये सन्ध्या एक आवश्यक प्रयोग है जिसे करना उसका कर्तव्य एवं धर्म है। व्यावहारिक रूप से देखा जाय तो सन्ध्या करने से बहुत अधिक लाभ होता है। इससे मन और शरीर स्वस्थ होते हैं, बुद्धि तीव्र होती है। संध्या वन्दन के अन्तर्गत प्राणायाम करने की वजह से दिन भर प्रफुल्लता बनी रहती है।


भारतीय युवकों को मेरी सलाह है कि वे अपने प्रातः कालीन कार्यों में सन्ध्या वन्दन को अवश्य ही स्थान दें वे स्वयं अनुभव करेंगे कि ऐसा करने से वे पहले की अपेक्षा ज्यादा स्वस्थ हो सके हैं। संध्या करने से उनके चेहरे पर एक अपूर्व तेज बनता है तथा वे ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा योग्य तथा ज्यादा सफलता की ओर अग्रसर होने में सक्षम होते हैं।


मै नीचे सन्ध्या विधि स्पष्ट कर रहा हूं :

प्रातः काल पूर्व की ओर मुंह करके साधक शुद्ध आसन पर बैठ अपने सामने जल का लोटा भर कर रख दे और उससे कुछ जल लेकर अपने शरीर पर छिड़के ।

मन्त्र
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा । 
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥


फिर हाथ में जल लेकर यह संकल्प पढ़े। 
ॐ तत्सद्यैतश्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेत- वाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तकदेशा- न्तर्गते पुण्यक्षेत्रे कलियुगे कलि प्रथम चरणे अमुक संवत्सरे अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्नाऽमुक शर्माहं प्रातः सन्ध्योपासनं कर्म करिष्ये ॥


फिर हाथ में जल लेकर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़े ।

पृथ्वी तिमन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः ॥

फिर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर आसन पर जल छिड़कते हुए आसन को पवित्र करे ।

ॐ पृथ्वित्वया धृता लोका देवित्वं विष्णुना धृता । 
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ।।

फिर साधक गायत्री मंत्र पढ़कर चोटी बांध ले और आँख बन्द करके नीचे लिखे मन्त्र से तीन बार प्राणायाम करे ।


पहले दाहिने नथुने को बन्द कर बायें नथुने से श्वांस खींचे और फिर बायें नथुने को बन्द कर दाहिने नथुने से श्वांस छोड़ दे, इसे पूरक कहते हैं।


श्वांस को नाभी में रोकने को कुम्भक कहते हैं तथा धीरे धीरे श्वास को बाहर निकालने को रेचक कहते हैं।


इस प्रकार नीचे लिखे मंत्र का तीनों ही प्राणायाम के समय एक एक बार जप करना चाहिए ।

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॐ आपो ज्योति रसोमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥

फिर नीचे लिखा विनियोग पढ़कर पृथ्वी पर जल छोड़ दे ।

सूर्यश्च मेति ब्रह्मा ऋषिः प्रकृतिश्छन्दः सूर्यो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः ॥

फिर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर आचमन करे ।

ॐ सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृ- तेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्तां यद्वात्र्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भयामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदव लुम्पतु यत्किञ्चदुरितं मयि इदमहं माममृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥

इसके बाद नीचे के मन्त्रों द्वारा अपनी उंगलियों से अपने शरीर पर जल छिड़कता हुआ मार्जन करे ।

ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः ॐ ता न ऊर्जे दधातन ॐ महे रणाय चक्षसे ॐ यो वः शिवतमो रसः ॐ तस्य भाजयतेहू नः ॐ उशतीरिवमातरः ॐ तस्मा अरंगमाम वः ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ ॐ आपो जनयथा च नः ।।


फिर खड़ा होकर एक चरण की एडी उठाये हुए या एक पांव पर खड़ा होकर गायत्री मन्त्र तीन बार जप करके पुष्प मिले हुए जल से सूर्य को तीन अंजलि दे।


फिर खड़े खड़े ही अपनी दोनों बाहें ऊपर उठाकर निम्न मन्त्र वढ़े ।

ॐ उद्वय तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरं देव देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥ 
ॐ उदुत्यं जातवेदस देवं वहन्ति वे तवः दृशे विश्वाय सूर्यम् ।। 
ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुण- स्याग्नेः आप्राद्यावापृथिवी अन्तरिक्ष गूं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ 
ॐ तच्चक्षुदवहितं पुरस्ताच्छु- क्रमुच्चरत् ॥ पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतश्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतम- दीनाः स्याम शरदः शतं भूयंश्च शरदः शतात् ।

फिर खड़े खड़े ही अंगन्यास करे और शरीर के जिस अंग का नाम हो, उसे स्पर्श करे ।

ॐ हृदयाय नमः ॐ भूः शिरसे स्वाहा ॐ भुवः शिखाये वषट् ॐ स्वः कवचाय हुम् ॐ भूर्भुवः नेत्राभ्यां वौषट् ॐ भूर्भुवः स्वः अस्त्राय फट् ॥

फिर हाथ में जल लेकर विनियोग करे-

ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दोऽग्निर्देवता शुक्लो वर्णों जपे विनियोगः ॥

फिर गायत्री देवी का ध्यान करे- 
श्वेतवर्णा समुद्दिष्टा कौशेयवसना तथा । श्वेतैर्विलेंपनै पुष्पेर लंकारेश्च भूषिता ॥ 
आदित्य मण्डलस्था च ब्रह्मलोकगताथवा । अक्षसूत्रधरादेवी पद्मासनगता शुभा ॥ 


फिर हाथ में जल लेकर नीचे लिखा विनियोग पढ़े ।
तेजोऽसीति देवा ऋषयो गायत्रो छदः शुक्र देवत' गायत्र्यावाहने विनियोगः ।।

फिर गायत्री देवी का निम्न मन्त्र से आह्वान करे-
 
ॐ गायत्र्यस्येकपदो द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि नहि पद्मसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय पधेर जसेऽ सावदो मा प्रापत् ।।

फिर नीचे लिखे गायत्री मन्त्र का १०८ बार उच्चारण करे-

गायत्री मन्त्र
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्व धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ॐ ।।

फिर नीचे लिखे मन्त्र को पढ़ते हुए प्रदक्षिणा करे-

यानि कानि च पापानि जन्मान्तर कृतानि च तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणापदे पदे ।।

इस प्रकार गायत्री का जप करने से शरीर की ऊर्जा बढ़ती है, और चेहरे पर एक विशेष प्रकार की चमक पैदा होती है जिसे ब्रह्म चमक कहते हैं।

वास्तव में ही प्रत्येक भारतीय का कत्र्तव्य है कि वह गायत्री एवं सन्ध्या बन्दन करे, इसे किसी भी दिन सेप्रारम्भ किया जा सकता है।

महाकुंभ में देश के सामने होगी हिंदू आचार संहिता,351 साल बाद काशी विद्वत परिषद ने की तैयार ।।

वाराणसी। 351 साल बाद हिंदू आचार संहिता बनकर तैयार है। चार साल के अध्ययन, मंथन के बाद इसे काशी विद्वत परिषद और देशभर के विद्वानों की टीम ने बनाया है।इस पर प्रयागराज में होने वाले महाकुंभ में शंकराचार्य और महामंडलेश्वर अंतिम मुहर लगाएंगे। इसके बाद फिर धर्माचार्य नई हिंदू आचार संहिता को स्वीकार करने का आग्रह देश की जनता से करेंगे। 

2025 में महाकुंभ होगा।देश को एकसूत्र में पिरोने और सनातन धर्म को मजबूत करने के लिए हिंदू आचार संहिता तैयार की गई है। कर्म और कर्तव्य प्रधान हिंदू आचार संहिता के लिए स्मृतियों को आधार बनाया गया है। इसमें श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों का अंश शामिल किया गया है। 

नई आचार संहिता तैयार करने की जिम्मेदारी काशी विद्वत परिषद को सौंपी गई थी। इसके लिए 70 विद्वानों की 11 टीम और तीन उप टीम बनाई गई थी। हर टीम में उत्तर और दक्षिण के पांच-पांच विद्वान सदस्यों को रखा गया था। टीम ने 40 बार से अधिक बैठक की है। मनु स्मृति, पराशर स्मृति और देवल स्मृति को भी आधार बनाया गया है। 

हिंदू आचार संहिता में षोडश संस्कारों को सरल किया गया है। खासकर मृतक भोज के लिए न्यूनतम 16 की संख्या निर्धारित की गई है। अशौच के विधान का पालन करना होगा।काल के अनुसार स्मृतियों का निर्माण हुआ। सबसे पहले मनु स्मृति, फिर पाराशर और इसके बाद देवल स्मृति का निर्माण हुआ। 351 सालों से स्मृतियों का निर्माण नहीं हो सका था।महाकुंभ में वितरण के लिए पहली बार एक लाख प्रतियां हिंदू आचार संहिता की छापी जाएंगी। इसके बाद देश के हर शहर में 11 हजार प्रतियों का वितरण किया जाएगा।

 हिंदू आचार संहिता में हिंदुओं को मंदिरों में बैठने, पूजन-अर्चन के लिए समान नियम बनाए गए हैं। महिलाओं को अशौचावस्था को छोड़कर वेद अध्ययन और यज्ञ करने की अनुमति दी गई है। प्री-वेडिंग जैसी कुरीतियों को हटाने के साथ ही रात्रि के विवाह को समाप्त करके दिन के विवाह को बढ़ावा दिया जाएगा।भारतीय परंपरा के अनुसार जन्मदिन मनाने पर जोर दिया गया है। घर वापसी की प्रकिया को आसान किया गया है। विधवा विवाह की व्यवस्था को भी इसमें शामिल किया गया है।

: शरीर, एक देवालय :

       उपनिषद् का निम्नलिखित कथानक मानव शरीर के देवालय होने की पुष्टि करता है -------

      " हमारा शरीर भगवान का मंदिर है। यही वह मंदिर है, जिसके बाहर के सब दरवाजे बंद हो जाने पर जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तब यहां ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को भगवान के दर्शन होते हैं। "
       मानव शरीर में कौन कौन से देवताओं का वास है और उनके कार्य क्या हैं ---------

      संसार में, जितने देवता हैं, उतने ही देवता मानव शरीर में “ अप्रकट ” रूप से स्थित हैं। किन्तु, दस इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियां) के और चार अंतकरण (भीतरी इन्द्रियां—बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में हैं। इस सभी इन्द्रियों का टोटल किया जाये, तो 14 बनता है।
      इन देवताओं के बारे में संक्षेप में जानकारी ------

1. नेत्रेन्द्रिय (चक्षुरिन्द्रिय) के देवता -----
      भगवान सूर्य नेत्रों में निवास करते हैं और उनके अधिष्ठाता देवता हैं। इसीलिए नेत्रों के द्वारा , किसी के रूप का दर्शन सम्भव हो पाता है । नेत्र विकार में चाक्षुषोपनिषद्, सूर्योपनिषद् की साधना और सूर्य की उपासना से लाभ होता है ।

2. घ्राणेन्द्रिय (नासिका) के देवता—नासिका के अधिष्ठाता देवता अश्विनीकुमार हैं । इनसे गन्ध का ज्ञान होता है ।

3. श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के देवता—श्रोत-कान के अधिष्ठाता देवता दिक् देवता (दिशाएं) हैं । इनसे शब्द सुनाई पड़ता है ।

4. जिह्वा के देवता—जिह्वा में वरुण देवता का निवास है, इससे रस का ज्ञान होता है ।
5. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) के देवता—त्वगिन्द्रिय के अधिष्ठाता वायु देवता हैं । इससे जीव स्पर्श का अनुभव करता है ।


शिव अनन्त शिव कथा अनन्ता ।।

       देवाधिदेव भगवान शंकर आदिदेव हैं, 'श्वेताश्वेतरोपनिषद' के अनुसार "सृष्टि के आदिकाल में जब अन्धकार ही अन्धकार था, न दिन था, न रात थी, न सत था, न असत था, तब केवल एक निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।" महाभारत के अनुशासन पर्व में तो उन्हें ब्रह्मा व विष्णु का रचयिता भी कहा गया है, इसीलिये तो इन्हें देवों के देव महादेव कहा गया है।

             एकाकी शिव प्रायः योगी रूप में ही प्रकट हुए हैं, शिव योगीराज हैं, योगाधीश्वर है। उनका रूप विलक्षण होते हुए भी प्रतीक पूर्ण है। उनकी स्वर्णिम लहराती जटा उनकी सर्वव्यापकता की सूचक है, जटा में स्थित गंगा कलुषता-नाश तथा चन्द्रमा अमृत का द्योतक है, गले में लिपटा सर्प,कालस्वरूप हैं, जिस पर शिवाराधना कर विजय पाई जा सकती है, इस सर्प अर्थात काल को वश में करने से ही ये 'मृत्युञ्जय' कहलाये । त्रिपुण्ड, योग की तीन नाड़ियों - इड़ा, पिंगला, एव सुषुम्ना की द्योतक है, तो ललाट मध्य स्थित तीसरा नेत्र आज्ञा चक्र का द्योतक होने के साथ साथ भविष्यदर्शन का प्रतीक है। उनके हाथों में स्थित त्रिशूल तीन प्रकार के कष्टों दैहिक, दैविक, भौतिक के विनाश का सूचक है, तो त्रिफल युक्त आयुध सात्विक, राजसिक, तामसिक-तीन गुणों पर विजय प्राप्ति को प्रदर्शित करता है, कर स्थित डमरू उस ब्रह्म निनाद का सूचक है जिससे समस्त वाङ्गय निकला है, कमण्डल, समस्त ब्रह्माण्ड के एकीकृत रूप का द्योतक है, तो व्याघ्रचर्म मन की चंचलता का दमन का सूचक है। शिव के वाहन नंदी धर्म के द्योतक है,जिस पर वे आरुढ़ रहने के कारण ही धर्मेश्वर कहलाते हैं, उनके शरीर पर लगी भस्म संसार की नश्वरता की द्योतक है।

                शिव और शक्ति मिल कर ही पूर्ण बनते है, शक्ति 'इकार' का द्योतक तक है, इसीलिये शिव में से 'इकार' अर्थात् शक्ति हटा दी जाय तो पीछे 'शव' ही रहता है, अतः शक्ति की सारूप्यता से ही 'शव' पूर्ण रूप से' शिव कहलाते है, और यही इनका अर्द्धनारीश्वर रूप है। शैव दर्शन के अनुसार यह रूप 'ब्रह्म' और 'आत्मा' का समन्वित रूप है, जो द्वैतवाद का सूचक है। इस अर्द्धनारीश्वर रूप में शिव का आधा दायां भाग पुरुष का एवं आधा बांया भाग पार्वती का है। शिव वाले भाग में सिर पर जटाजूट, सर्पमाल, सर्प-यज्ञोपवीत, सर्प कुण्डल, बाधाम्बर त्रिशूल आदि है, जब कि पार्वती वाले भाग में सिर पर मुकुट, कुण्डल, सुन्दर वस्त्र, रम्य आभूषण केयूर-मेखला, कंकण आदि है, इस प्रकार का रूप ही रम्य तथा शैव शाक्त का समन्वित स्वरूप है।

              शिव का एक रूप हरिहर भी है जिसमें 'हरि' अर्थात् विष्णु और 'हर' अर्थात् शिव का समन्वित स्वरूप है। यह पालन और संहार का सूचक है, मानव जाति के नित्य उज्जवल नवीन रूप का द्योतक है। भगवान् शंकर त्रिगुणात्मक है, ब्रह्मा स्वरूप सृजन कर्ता, विष्णु स्वरूप पालन कर्ता एवं रुद्र स्वरूप संहारकर्ता ये तीनों ही रूपों का समन्वित रूप महादेव है, इसीलिये तो इन्हें "हरिहर पितामह" कहा गया है, अथर्ववेद में भगवान् 'शिव' को "हरिहर हिरण्यगर्भ भी कहा गया है, अतः भगवान् शंकर ब्रह्मा, विष्णु एवं सूर्य का समन्वित रूप जो शिव है, केवल मात्र इनकी पूजा ही समस्त देवताओं की पूजा-अर्चना है, जो कुछ दृश्य है वह शिव है, जो कुछ घटित है, वह शिव है..... यह सारा संसार शिवमय है, शिवस्वरूप है, शिव युक्त है।

              भगवान् शंकर स्वयं निर्विकार रहकर विकार युक्त विश्व की व्यवस्था करने में संलग्न है, कैलाश के युक्त उत्तंग शिखर पर हिमाच्छादित चोटियों के मध्य "शंकर धाम" कैलाश में न तो कोई चिन्ता है, और न कोई सन्ताप ही । स्वयं निर्मुक्त होते हुए भव बन्धन को तोड़ने में सक्षम, शिव के अतिरिक्त और कोई देवता ऐसा नहीं है जो जन्म मरण के कल्मष को धोकर अभय दे सके.... स्वयं स्थिर और निश्चल होते हुए भी चराचर जगत के कण कण में व्याप्त है, इसीलिये तो शंकर चराचरात्मक है, शंकर है, अभयंकर है।

             शिव का अर्थ ही कल्याण है, शुभ है, मंगल युक्त है..... जीवन में पूर्णता देने में शिव अग्रणी है, क्योंकि शिव भोग और मोक्ष दोनों के ही प्रदाता है, शिव ओढरदानी है, जो क्षण में ही पसीज कर भक्तों को अभय कर देते है, भगवान शंकर आशुतोष हैं, जो भक्तों की जैसी इच्छा होती है, उसी के अनुसार उनकी इच्छा तुरन्त पूर्ण करने में अग्रणी हैं, इसीलिये तो शंकर को "भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव" कह कर संबोधित किया है, इसीलिये तो भीष्म पितामह को केवल यही कह कर चुप हो जाना पड़ा कि 'जो सब में रहते हुए कहीं किसी को दिखाई नहीं देते, ऐसे महादेव के गुणों का वर्णन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ - अशक्तोऽहं गुणान् वक्तुं महादेवस्य धीमतः । 
यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते ॥