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चांद्रायण साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना ।।
कल्प साधना का क्रिया पक्ष ।।
आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन ।।
मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है, दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।
पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।
परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।
संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।
गुरु पूर्णिमा ।।
1. गुरु शब्द की उत्पत्ति
संस्कृत मूल गु का अर्थ हैं अंधेरा या अज्ञानता और रू का अर्थ हैं अंधेरा या अज्ञान को हटाने वाला या उसका निरोधक (प्रकाश, तेज)। गुरु वह है जो हमारे अज्ञान के अंधकार को हटाकर हमें ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाए।
2. हिंदू पंचांग के आषाढ़ मास (जून-जुलाई) के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को आषाढ़ी पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा कहते है। इस दिन गुरु पूजन का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती हैं और इस दिन से चार मास तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर ज्ञान की गंगा बहाते है। यह चार मास ऋतु की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते है, न अधिक उष्णता (गर्मी) और न अधिक शीतलता (सर्दी)। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए है।
3. गुरु ईश्वर स्वरुप है
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
हिंदी अर्थ - "गुरु ब्रह्मा है (नव जीवनदाता, सृष्टिकर्ता), गुरु विष्णु हैं (रक्षक) और गुरु देव महेश्वर हैं (शिव, बुराई का संहारक), गुरु साक्षात् परम ब्रह्म (परमेश्वर), ऐसे श्रीगुरु को मेरा नमन है।
4. आदि गुरु शिवजी
भगवान शिव को आदि गुरु या संसार का प्रथम गुरु माना जाता हैं। शिवजी ने गुरु पूर्णिमा के दिन सप्त ऋषियों को पहला शिष्य बनाया और उन्हें यौगिक विज्ञान की शिक्षा दी थी। सप्तऋषि इस ज्ञान को लेकर पूरे संसार में गए। धरती की हर आध्यात्मिक प्रक्रिया के मूल में शिव का ज्ञान हैं।
5. महर्षि वेदव्यास जन्मदिवस
महान ऋषि व्यास का जन्म गुरु पूर्णिमा के दिन हुआ था। उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। व्यास का अर्थ होता है संपादन या विभाजन (vyas = to edit, to divide) उन्होंने वेद को चार भागों में विभाजित किया ऋग, यजुर, साम, अथर्व। इसलिए उन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है। वेद व्यास ने पुराणों, महाभारत सहित अनेक ग्रंथों की रचना भी की थीं।
6. गौतम बुद्ध ने गुरु पूर्णिमा के दिन सारनाथ में पाँच भिक्षुओं को धर्म का पहला उपदेश दिया। इसे प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। बुद्ध ने उपदेश में चार सत्यों के बारे में बताया था - दुख, दुख का कारण, दुख का निदान, निदान का मार्ग निर्वाण हैं।
7. जैन पंथ में गुरु पूर्णिमा को त्रिनोक गुहा पूर्णिमा कहा जाता हैं। 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को त्रिनोक गुहा (प्रथम गुरु) माना गया है। महावीर स्वामी ने गुरु पूर्णिमा के दिन इंद्रभुति गौतम को अपना पहला शिष्य बनाया। उन्होंने पहले उपदेश में 5 यम - अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य, और ब्रह्मचर्य को जीवन का मार्ग बताया।