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प्रज्ञा का जगना :

      ईश्वरकृपा/गुरुकृपा के भरोसे प्रज्ञा नहीं जगती। प्रज्ञा तब अपने आप जग जाती है, जब हम अपनी आध्यात्मिकता में अन्तर्मुख हो जाते हैं, और ज्ञान को जीवन में उतारते हैं, ज्ञान को जीते हैं। और यही हमने आज तक नहीं सीखा। हमने अध्यात्म-ज्ञान इकट्ठा करना सीखा है। हमने ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करना सीखा है। हमने ज्ञान पर चलना नहीं सीखा। हमारे जीवन में 'ज्ञान ही ज्ञान' है, परन्तु ज्ञान का अनुशीलन ना के बराबर ही है। बस, यही कारण है कि गुरू बनाने के बावजूद भी, जीवन भर गुरू का मंत्र जपने के बावजूद भी, ज्ञानी और विद्वान होने के बावजूद भी हम प्रज्ञावान् नहीं हो पाये। 

      बड़ी विबम्बना यह है कि हमें 'सद्गुरू' या 'सतगुरू' मिल जाते हैं, परन्तु प्रज्ञा नहीं मिलती। प्रज्ञा कहीं से, किसी से मिलने की वस्तु है भी नहीं। सद्गुणों को जगाकर और चेतना को सतत-उर्ध्वगामिता में रखकर प्रज्ञा का तो हमें स्वयं ही अर्जन करना पड़ता है। परन्तु इतनी जहमत उठाये कौन! हमारा काम तो 'उधार की चेतना' से ही चल जाता है !

इन 21वस्तुओं को सीधे पृथ्वी पर रखना वर्जित होता है। ये वस्तुयें पृथ्वी की ऊर्जा को अव्यवस्थित करती हैं और उस स्थान को अशुभ बनाती हैं।

ये वस्तुयें हैं -
(1) मोती
(2) शुक्ति (सीपी)
(3) शालग्राम
(4) शिवलिंग
(5) देवी मूर्ति
(6) शंख
(7) दीपक
(8) यन्त्र
(9) माणिक्य
(10) हीरा
(11) यज्ञसूत्र (यज्ञोपवीत)
(12)  पुष्प (फूल)
(13) पुष्पमाला
(14) जपमाला
(15) पुस्तक
(16) तुलसीदल
(17) कर्पूर
(18) स्वर्ण
(19) गोरोचन
(20)  चंदन
(21) शालिग्राम का स्नान कराया अमृत जल ।

इन सभी वस्तुओं को किसी आधार पर रख तभी उस पर इनको स्थापित कर पूजित किया जाता है। पृथ्वी पर अक्षत, आसन, काष्ठ या पात्र रख कर इनको उस पर रखते हैं-

मुक्तां शुक्तिं हरेरर्चां शिवलिंगं शिवां तथा ।
शंखं प्रदीपं यन्त्रं च माणिक्यं हीरकं तथा ।।

यज्ञसूत्रं  च पुष्पं च  पुस्तकं तुलसीदलम्  ।
जपमालां पुष्पमालां कर्पूरं च  सुवर्णकम् ।।

गोरोचनं  च चन्दनं  च  शालग्रामजलं तथा ।
एतान् वोढुमशक्ताहं क्लिष्टा च भगवन् शृणु।।

       अतएव इन इक्कीस वस्तुओं को सजगता पूर्वक किसी न किसी वस्तु के ऊपर रखना चाहिए।

प्रायः दीपक को लोग अक्षतपुंज पर रखते हैं।

पुस्तक को मेज पर रखते हैं। शालिग्राम और देवी की मूर्ति को पीठिका पर रखते हैं।

शंख को त्रिपादी पर रखते हैं। स्वर्ण को डिब्बी में रखते हैं।

फूल, फूलमाला को पुष्पपात्र में तथा यज्ञोपवीत को किसी पत्र पर रखते हैं।
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दिशाशूल (दिशाशूर) ।।

दिशाशूल जानने की ट्रिक ।।

सोम शनीचर पूर्व ना चालू।
मंगल बुध उत्तर दिशिकालू ।।
रवि शुक्र जो पश्चिम जाए ।
हानि होय पथ सुख नहीं पाए।।
गुरुवे दखिन करे पयाना।
फिर नहीं समझो ताको आना ।।

जानें क्या होता है दिशाशूल और क्या इसका भी होता है कोई उपाय ~
यात्रा पर निकलने से पहले जरूर जान लें दिशाशूल नहीं तो झेलने पड़ते हैं दुष्परिणाम। जानें कब और कैसे नहीं पड़ता दिशाशूल का आप पर असर,
इंसान के जीवन में यात्रा का बहुत महत्व होता है। फिर चाहे यात्रा छोटी दूरी की हो अथवा लंबी दूरी की हो। परिणाम उसकी शुभता और अशुभता, सफलता और असफलता पर निर्भर करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दिन विशेष को की जाने यात्रा से संबंधित दोष को विस्तार से बताया गया है। जिसे हम दिशाशूल (Disha Shool) के नाम से जानते हैं। दिशाशूल का अर्थ होता है — एक दिशा विशेष में जाने पर अशुभ परिणाम की प्राप्ति होना या फिर कहें कि जिस दिशा में जाने पर हानि अथवा अशुभ परिणाम मिलने की आशंका हो, वह दिशाशूल (Disha Shool) कहलाती है। यही कारण है कि सनातन परंपरा में कार्य विशेष हेतु निकलने से पहले दिशा का विचार अवश्य किया जाता है। तो आइए जानते हैं कि दिशाओं को लेकर क्या कुछ नियम हैं, जिन्हें यात्रा करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए —

कब ​किधर होता है दिशाशूल

दिशावार
पूर्वसोमवार, शनिवार
दक्षिणगुरुवार
पश्चिमशुक्र, रविवार
उत्तरमंगल, बुधवार
अग्निकोणसोमवार, गुरुवार
नैऋत्य कोणरविवार, शुक्रवार
वायव्य कोणमंगलवार
ईशान कोणबुधवार, शनिवार

चंद्र राशि के अनुसार दिशाशूल

पूर्वमेष, सिंह और धनु
दक्षिणवृष, कन्या, मकर
पश्चिममिथुन, तुला, कुंभ
उत्तरकर्क, वृश्चिक, मीन

इस बात का हमेशा रखें ध्यान

यदि एक दिन के भीतर ही किसी स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है। यात्रा के दौरान चंद्रमा यदि सामने अथवा दाहिने हो तो शुभ फलदायक और बाएं या पीछे हों तो विपरीत फलदायक होते हैं।

दिशाशूल का महाउपाय

जिस दिशा में दिशाशूल (Disha Shool) हो उसकी यात्रा करने पर अक्सर लोगों को तमाम तरह के कष्ट भोगने पड़ते हैं। लेकिन यदि कोई अति आवश्यक कार्य आ जाये तो उसके लिए भी हमारे यहां परिहार बताये गये हैं। जैसे रविवार को पान खाकर, सोमवार को आईने में देखकर, मंगलवार को गुड़ खाकर, बुधवार को धनियां, गुरुवार को जीरा, शुक्रवार को दही और शनिवार को अदरख खाकर निकलने से उस दिशा से संबंधित दोष दूर हो जाता है।

इस उपाय से भी दूर होगा दिशाशूल

यदि किसी दिशा में दिशाशूल हो और उस दिशा में जाना बहुत जरूरी हो तो उस दिशा से संबंधित दोष को निम्नलिखित चीजों को धारण करके दूर किया जा सकता है। रविवार का दिशाशूल दूर करने के लिए
पान, सोमवार को चंदन, मंगलवार को मिट्टी, बुधवार को पुष्प, गुरुवार को दही, शुक्रवार को घी और शनिवार को तिल धारण करके निकलने पर दिशा संबंधी दोष दूर हो जाता है।

(यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)

दिशाशूल याद करने की बुंदेलखंडी ट्रिक ।।, दिशाशूल दोहा, दिशाशूर दोहा, यात्रा मुहूर्त,Disha Shool, Dishashul doha, dishashool doha

फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया ।।


ए फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया

प्राकृतिक रूप से दुनिया के सर्वाधिक सुरक्षित देशों में एक, था। स्थिति ऐसी कि मानो चारो ओर किले के दीवार, और पानी भरी खाई से सुरक्षित हो। 

खैबर और बलूचिस्तान के जरिये एक रास्ता पश्चिम में खुलता है। मगर पूरे इतिहास में उधर से सिकन्दर, और कासिम के अलावे कोई नही आया। विश्व इतिहास के रंगमंच, याने यूरोप और पश्चिम एशिया से उसकी अत्यधिक दूरी भी फायदेमंद थी। 

मध्यकाल के संघर्षों और दोनों विश्वयुद्ध की विभीषिका से भारत दूर रहा। 
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इस किले के भीतर ही पर्याप्त विशाल भूभाग, और वैविध्य था। तो 1000 साल जो भी सँघर्ष हुए, आंतरिक ही रहे। राजा और राजवंश, इस किले के भीतर ही सत्ता कायम करके संतुष्ट थे। 

खास हालात में फंसे राजेन्द्र चोल और जयपाल को छोड़, किसी ने इस किले से बाहर निकलने की जरूरत न महसूस की। पर शांति के इस दौर में हमारी रवायतें कुछ ऐसी रही, कि सत्ता और धर्म नें समाज को विभाजित रखा।

समाज का 90% हिस्सा, शूद्र या निम्न था, कृषक था। राजे आते जाते रहे, लेकिन उनका जीवन सदियों से वैसा ही रहा। ऐसे में में अधिकांश भारतवासियों में जागृत राजनीतिक चेतना, और एका का भाव कभी रहा नही। 

कोउ नृप होय, हमे का हानि.. ??
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इसका फायदा अगले हजार सालों में आये आक्रांताओं को मिला। वे मध्य एशिया से आये, रियासत दर रियासत जीतते गए। फिर यहीं टिक गए। निम्न जातियां उनसे मिल गयी, उनका धर्म अंगीकार किया, बराबरी पाई और सत्ता में हिस्सेदारी भी.. 

जब मुगल दरबार में स्थानीय रजवाड़ो को इज्जत मिली, उनका राज सुरक्षित रहने का आश्वासन मिला, तो वे भी बेखटके अधीनस्थ हो गए। 

लेकिन समाज के भीतर, रजवाड़ों के बीच आपसी रंजिश की आदत बनी रही। तो अगर अंग्रेजो ने भारत मे पैर जमाये, तो कदम कदम पर भारतीयों ने सहायता की। 

इतिहास गवाह है कि टीपू को नेस्तनाबूद करने के लिए मराठे और निजाम साथ थे। सिराज को क्लाइव ने नहीं, मीरजाफर ने हराया था। 
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अंग्रेजी राज विष भी था, अमृत भी। यूरोप के पुनर्जागरण की कुछ सौ बरस की जमापूंजी, भारत पर भी बूंद बूंद टपकी। अंग्रेजो ने इस देश को सिंगल पोलिटिकल यूनिट में ढाला। 2000 साल में मौर्य और औरंगजेब के बाद ऐसा करने वाले, वो महज तीसरी ताकत थे। 

लेकिन उन्होंने भारत को हमेशा के लिए बदल भी दिया।

लिखित विधान की परिपाटी दी। पश्चिमी पद्धति की शिक्षा, न्याय व्यवस्था, पुलिस, कानून, रेल, जेल और मेल याने डाक व्यवस्था दी। भारत मे बांध, सड़क, पुल, नहरें "सरकारी पहल" से बनने लगी। 

हां, यह सब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए किया, भारी कीमत लेकर किया। लेकिन उन्होंने, पहली बार यह किया। लिच्छवी गणतंत्र के बाद इस देश मे पहली बार, विधायी सरकारें आयी। 

मैं 1937 से 11 स्टेट में बनी सरकारो की बात कर रहा हूँ। 
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लेकिन अपनी सत्ता दीर्घ करने के लिए धार्मिक विभाजन की जो चाल, अंग्रेजो ने चली, उसने भारत के इस किले को दरका दिया। धर्म के आधार पर दो राष्ट्र का सिद्धांत उछला, और इस किले के परकोटे के भीतर ही 3 राष्ट्र बन गए। 

ये अप्राकृतिक राष्ट्र थे। खेतों के बीच तार लगाकर बनाई गई ये सीमाएं कृत्रिम थी। ये विभाजन कृत्रिम था, और इस तारबंदी के दोनो ओर का विरोधाभास भी कृत्रिम था।

विरोधाभास दो समुदायों के बीच पूजा पद्धति का था। इसे धर्म नही कहते। कीर्तन और नमाज यहाँ कई सौ सालों तक बिना सँघर्ष, कोएग्जिस्ट करती रहीं। आगे भी 
करती। मगर यह कबीलेबन्दी का बहाना बना।

और फिर भारत ने अपने ही बदन से, अपना ही जानी दुश्मन पैदा कर लिया। अनंत काल तक के लिए बगल मे जगह दी, उससे लड़ने लगा। 

भला कितने देश, कितने समाज ऐसा करते है ? 
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फिर एक और गलती की। हिमालय की ओर, जिन सीमाओं पर कुछ भी ऐतिहासिक क्लेम नही था, वहां बढ़ चढ़कर दावे किए। इसका नतीजा, उस तरफ एक औऱ दुश्मन पैदा होना था। 

तो आज पूरब में निगाह डालो, तो दुश्मन है। पश्चिम में निगाह डालो तो दुश्मन है। दुश्मन पूरब और दुश्मन पश्चिम जहां मिलते हैं, वो कश्मीर भी दुश्मन है। 

अगर इससे जी शांत न हुआ हो, तो उत्तर पूर्व सीमा पर चलें। वहां मणिपुर जल रहा है। बाकी के सीमावर्ती राज्यो में असहज शांति है। केवल दक्षिण बच गया था, शांत था। 

पर अब नई संसद बन गयी है। 
शांति वहां कुछ बरस की ही मेहमान है। 
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ईश्वर आपको जब प्रेम करता है, वह एक सुरक्षित स्वर्गिक किला बनाकर देता है। उसमें धन-धान्य, जल, खनिज, और सुंदर संस्कृति देकर सुखी रहने का वरदान देता है। 

मगर बहकाये जाने पर, स्वर्ग में रहने वाले भी जहरीला फल खाने का लोभ संवरण नही कर पाते। अंततोगत्वा स्वर्ग से निकाले जाते है। अनंत तकलीफों के बीच फेंक दिये जाते हैं। 

हमे बहकाया गया। हम बहक गये। अपने किले के हिस्से लगाए, अंदर ही दुश्मन पैदा किया, उनसे लड़े, अपने बच्चे कुर्बान किये, मगर सबक न सीखा। 

अब फिर नए सिरे से लड़ रहे हैं, घर घर मे, आस पड़ोस में गद्दार खोज रहे हैं। असुरक्षित भी महसूस कर रहे हैं। हथियारों पर धार कर रहे हैं। 
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 शायद इस भग्न ईश्वरीय किले के भाग्य में और भी हिस्से होना लिखा है। इसलिए कहा.. 


सोलह वैदिक संस्कार ।।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि ग्रन्थ में सोलह संस्कारों का विधान किया है। जिनमें तीन गर्भावस्था सम्बन्धित, आठ ब्रह्मचर्यावस्था सम्बन्धित, दो गृहस्थावस्था सम्बन्धित, एक वानप्रस्थ तथा एक संन्यास सम्बन्धित है एवं अन्तिम संस्कार मरणोपरान्त किया जाता है।

वे सोलह संस्कार निम्न हैं-
(1) गर्भाधान संस्कार, (2) पुंसवन संस्कार, 
(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4) जातकर्म संस्कार, 
(5) नामकरण संस्कार, (6) निष्क्रमण संस्कार, 
(7) अन्नप्राषन संस्कार, (8) चूडाकर्म संस्कार, 
(9) कर्णवेध संस्कार, (10) उपनयन संस्कार, 
(11) वेदारम्भ संस्कार, (12) समावर्त्तन संस्कार, 
(13) विवाह संस्कार, (14) वानप्रस्थ संस्कार, 
(15) संन्यास संस्कार, (16) अन्त्येष्टि संस्कार।

1. गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

2. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

4. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

5. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

6. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

7. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

9. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

10. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

12. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

13. केशान्त संस्कार: गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

14. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

15. पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

16. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।