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श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः ।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥१४॥

यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः ।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा ॥१५॥

ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके ।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम् ॥१६॥

तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत् ।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम् ॥१७॥

तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् ।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम् ॥१८॥

नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः ।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥१९॥

॥ इति श्रीमदूर्ध्वाम्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति ।

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति................

नन्दनन्दन, श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी- जिनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान है, सिर पर मयूर-पिच्छ का मुकुट, गले में पीताम्बर, ठुमुक-ठुमुककर चलने वाला, बाँसुरी बजाने वाला जो मनमोहन प्राणप्यारा है,

उसको प्राप्त करने की इच्छा, उत्कंठा, व्याकुलता, तड़प जब अपने ह्रदय को दग्ध करने लगे तब समझो कि प्यास जगी और जब उसकी बात सुनकर, उसकी याद आने से, उसके लिये कोई कार्य करने से अपने ह्रदय में रस का प्राकट्य हो, अनुभव हो तब इसे तृप्ति कहते हैं।

श्रीहरि को ढूँढ़ने के लिये निकले और पानी में उतरे ही नहीं, किनारे पर ही बैठे रहे, इसका नाम प्यास नहीं है और जब प्यास ही नहीं तो तृप्ति कैसी?

कहीं हम स्वयं को ही तो मृग-मरीचिका के भ्रम में नहीं डाल रहे ! छ्ल? स्वयं से ! प्यास और तृप्ति !

आनन्द के लिये प्यास और आनन्द की प्राप्ति पर तृप्ति !

संयोग और वियोग--प्रेम इन दोनों को लेकर चलता है। ईश्वर को मानना अलग बात है और उनसे प्रेम करना अलग !

श्रीहरि को याद करना अलग है और उनके वियोग में, उनकी प्राप्ति के लिये व्याकुल होना अलग बात है।

भक्ति वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से श्रीहरि के स्मरण में, श्रीहरि के भजन में, श्रीहरि की लीला-कथाओं के श्रवण में, श्रीहरि के सेवन में रस का ह्रदय में प्राकट्य होता है,

आनन्द का प्राकट्य होता है। प्रेम की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये संयोग और वियोग दोनों ही आवश्यक हैं।

वियोग न हुआ तो कैसे जानोगे कि क्या पाया था !

तड़प कैसे उठेगी फ़िर उसे पाने के लिये !
मूल्य तो वियोग के बाद ही मालूम हुआ !
अब फ़िर पाना है पहले से अधिक व्याकुलता, तड़प के साथ !
अब जो मिला तो आनन्द और अधिक बढ़ गया !
यही मनमोहन, सांवरे घनश्याम की प्रेम को उत्तरोत्तर बढ़ाने वाली लीला है
जिसमें भगवान और भक्त दोनों ही एक-दूसरे के आनन्द को बढ़ाने के लिये संयोग और वियोग के झूले में झूलते रहते हैं।

अजब लीला है कि दोनों ही दृष्टा हैं और दोनों ही दृश्य !

दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को अधिकाधिक सुख देना चाहते हैं !
दोनों ही दाता और दोनों ही भिक्षुक !
प्रेम ऐसा ही होता है।
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चूँकि प्रेम ईश्वर ही है सो यह अधरामृत है ! अधरामृत ? अ+धरा+अमृत ! जो अमृत धरा का नहीं है; यह जागतिक तुच्छ वासना नहीं है,
जिसे हम सामान्य भाषा में प्रेम कह देते हैं। प्रेमी होना बड़ा दुष्कर है ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः
जय श्री राधे कृष्ण
ॐ श्री हरी शरणम
बोलिये श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय.,
बरसाने वाली श्री राधा रानी की जय,

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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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प्रारब्ध सिद्ध महापुरुष को भी भोगना पड़ता है ।।

प्रारब्ध सिद्ध महापुरुष को भी भोगना पड़ता है। उसको दुःख की फीलिंग न होगी सिद्ध महापुरुष को, ये बात अलग है। बाप उसका भी मरेगा, बेटा उसका भी मरेगा। मृत्युंजय का जाप कराने से किसी का बेटा बच जाय, इम्पॉसिबिल। जिसके बाप अर्जुन महापुरुष और मामा भगवान् श्रीकृष्ण और ब्याह कराने वाले वेदव्यास तीनों महान् पर्सनैलिटी और अभिमन्यु मारा गया और उत्तरा विधवा हो गई सोलह वर्ष की उमर में। ये क्या बचायेंगे, भीख माँगने वाले पण्डित लोग। ये तो बेवकूफ बनाते हैं तुम लोगों को। हमसे जाप करा लो, हमसे यज्ञ करा लो, हमसे ये करवा लो, कष्ट दूर हो जायेगा। अब उन्होंने पच्चीस आदमियों से कहा तो नैचुरल प्रारब्ध खत्म होने पर एक आदमी उसमें अच्छा हो गया, एक आदमी की नौकरी लग गई, एक की कामना पूरी हो गई तो उसने कहा, पण्डित जी ने कहा हमने किया तो हो गया हमारा काम पूरा। वो बेचारा भोला-भाला श्रद्धा कर लेता है। कुछ नहीं है। भगवान् की भक्ति जितनी बढ़ाएगा, उतनी ही दुःखों की फीलिंग कम होगी। इस प्वॉइन्ट को नोट करो सब लोग। प्रारब्ध काटा नहीं जा सकता। बेटे को मरना है, बाप को मरना है, पति को मरना है वो मरेगा अपने टाइम पर। तुम भगवान् की भक्ति बढ़ाओ तो उसके मरने के दुःख की फीलिंग उतनी ही लिमिट में कम होगी। बस, ये तुम्हारी ड्यूटी है तुम इतना कर सकते हो। तुम उसको बचा नहीं सकते हो। जो मरेगा, मरेगा। धन समाप्त होना है, दिवालिया बनना है, बनेगा। बड़ा काबिल हो, उससे कुछ काम नहीं बनेगा । इसमे कुछ काबिलियत काम नही देगी। प्रारब्ध का फल तो सबको भोगना ही पड़ेगा।


'ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय।'

बस ये फरक है। जितनी पॉवर होगी आपकी सहन करने की शक्ति होगी, उतनी फीलिंग न होगी। और जितना ही संसार से अटैचमेंट होगा, उतनी ही अधिक फीलिंग होगी।

देखो! एक स्त्री का पति मरता है। सबसे अधिक फिलिंग स्त्री को होती है। उससे कम फीलिंग बाल-बच्चों को होती है, उससे कम फीलिंग दोस्तों को होती है, उससे कम नौकर को होती है। ये अंतर क्यों है? इसलिए है कि जिसका जितना अधिक स्वार्थ जिससे हम होता है, वो स्वार्थ हानि में उतना ही दुखी होता है। तो जितना भगवान् की ओर वो चलेगा उतनी ही पॉवर होगी उसके पास और उस पॉवर से मुकाबला करेगा दुःख का। बाकी दुःख प्रारब्ध का आयेगा लेकिन वो हमेशा नहीं रहता। आया, भोगा, गया। हमेशा कोई चीज़ नहीं रहती। कुछ दिन के लिये आता है। जैसे- आप साइकिल चलाते हैं तो कहीं पुलिया आ गई, थोड़ी ऊँचाई आ गई और थोड़ा मेहनत कर लिया फिर ढाल आ गया, फिर प्लेन आ गया। ऐसे ही प्रारब्ध का चक्कर है। आता है, जाता है, हमेशा रहता नहीं।
तो जब आ जाय और हमारी भावनाएँ गड़बड़ होने लगें, तो और सत्संग करें, और गुरु के पास जायें, और भगवद् विषय सुनें तो वो दब जाता है। जैसे संसारी बीमारी होती है तो हम दवा खाते हैं तो वह बीमारी दब जाती है, वो कष्ट कम हो जाता है, ऐसे है। बाकी भोगना सबको पड़ता है।

-जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

सूर्यास्तोत्रम् ।।


रोगों से मुक्ति तथा समस्त सिद्धियां प्रदान करने वाला दुर्लभ स्तोत्र 

       भगवान आदित्य का यह दुर्लभ आर्या स्तोत्र समस्त व्याधियों का शमन करने वाला है तथा जो निर्धन व दरिद्र है इस स्तोत्र का पाठ करने से अपार सम्पदा के स्वामी बन सकते हैं। जो सप्तमी तिथि को इस स्तोत्र का सात बार पाठ कर लेता है उसके घर में लक्ष्मी का चिरस्थाई निवास हो जाता है तथा उसके चेहरे की कांति बढ़ जाती है।

सूर्यास्तोत्रम्

शुकतुण्डच्छविसवितुश्चण्डरुचे: पुण्डरीकवनबन्धोः । मण्डलमुदितं वन्दे कुण्डलमाखण्डलाशायाः ॥

 यस्योदयास्तसमये सुरमुकुटनिघृष्टचरणकमलो ऽपि । कुरुतेऽञ्जलिं त्रिनेत्रः स जयति धाम्नां निधिः सूर्यः ॥

 उदयाचलतिलकाय प्रणतोऽस्मि विवस्वते ग्रहेशाय । 
अम्बर चूडामणये दिग्वनिताकर्णपूराय ॥ 

जयति जनानन्दकर: करनिकरनिरस्ततिमिरसङ्घातः । लोकालोकालोकः कमलारुणमण्डल: सूर्यः ॥

 प्रतिबोधितकमलवनः कृतघटनश्चक्रवाकमिथुनानाम् । दर्शितसमस्तभुवनः परहितनिरतो रविः सदा जयति ॥

 अपनयतु सकलकलिकृतमलपटलं सुप्रतप्तकनकाभः ।
 अरविन्दवृन्दविघटनपटुतरकिरणोत्करः सविता ॥

 उदयाद्रिचारु चामर हयखुर परिहितरे णुराग ।
 हरितहय हरितपरिकर गगनाङ्गदीपक नमस्ते ऽस्तु ॥

 उादतवति त्वयि विकसति मुकुलीयति समस्तमस्तमितबिम्बे ।
नान्यस्मिन् दिनकरसकलं कमलायते भुवनम् ।।

जयति रविरुदयसमये बालातपः कनकसंनिभो यस्य । कुसुमाञ्जलिरिव जलधौ तरन्ति रथसप्तयः सप्त ॥ 

आर्या साम्बपुरे सप्त आकाशात् पतिता भुवि ।
यस्य कण्ठे गृहे वापि न स लक्ष्म्या वियुज्यते ॥ 

आर्या सप्त सदा यस्तु सप्तम्यां सप्तधा जपेत् । 
तस्य गेहं च देहं च पद्मा सत्यं न मुञ्चति ॥ 

निधिरेष दरिद्राणां रोगिणां परमौषधम् । 
सिद्धिः सकलकार्याणां गाथेयं संस्मृता रवेः ॥

कमल वन के पोषक भगवान सूर्य का तेज परम प्रचण्ड है। सुग्गे के छोर की भाँति लाल, सम्पूर्ण दिशाओं को कुण्डल की छवि प्रदान करने वाले, उनके उदयकालीन मण्डल को मैं प्रणाम करता हूँ।

जिनके उदय और अस्त होते समय देवताओं के मुकुट घिसे हुए चरण कमल वाले शंकर भी अंजलि जोड़कर प्रणाम करते हैं, तेजों के पुंज उन भगवान सूर्य की जय हो ।

उदयाचल पर्वत को सुशोभित करने वाले, ग्रहों के शासक, आकाश को चमकाने के लिये चूड़ामणि तथा पूर्व दिशारूपिणी नारी के कर्णफूल भगवान सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ।

सम्पूर्ण जनसमुदाय को आनन्दित करना जिनका स्वभाव है, जिनकी किरणों से राशि राशि अन्धकार नष्ट हो जाते हैं और अखिल भूमण्डल प्रकाशित हो उठता है, उन लोकालोक पर्वत को आलोकित करने वाले लाल कमल के समान सुन्दर मण्डलवाले भगवान सूर्य की जय हो।

जो कमलों को खिलाने वाले, चकवा चकवी पक्षी के अलग हुए जोड़े को मिलाकर प्रसन्न करने वाले हैं, सारे संसार को आलोकित करने में तथा दूसरों के हित में सदा उद्यत रहते हैं, उन भगवान् सूर्य की जय हो।

कमलों को खिलाने के लिये जिनकी किरणें परम निपुण हैं तथा जिनका दिव्य कलेवर तपाये हुए सुवर्ण के समान हैं, वे भगवान सूर्य से कलियुग से सम्बद्ध समस्त पापों को दूर कर दें।

भगवन्! आप उदयाचल पर्वत के लिये सुन्दर चँवर का काम करते हैं। आपके हरे रंगवाले घोड़ों के पैर की धूलि से दूसरों का सदा हित होता है। आपके वाहन अश्व एवं परिजन सभी का रंग हरा है तथा आकाश को प्रकाशित करने के लिए आप दीपक हैं। भगवान सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ।

भगवन! आपके उदय होने पर सारा संसार जागता और अस्त हो जाने पर निद्रा में विलीन हो जाता है। आपके आश्रित सम्पूर्ण संसार ही कमलवत व्यवहार कर रहा है। प्रभो! आपके अतिरिक्त अन्य किसी में ऐसी शक्ति नहीं है।

जिनका प्रकाश उदयकाल में स्वल्प तथा पीत सुवर्ण के समान रहता है, आकाश में जिनके सात घोड़ों वाला रथ समुद्र में पुष्पांजलि की भाँति तैरता है एवं प्रकाश भी उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है, उन भगवान सूर्य की जय हो ।

श्राद्ध व तर्पण: रहस्य तथा महत्व ।।

 

     वैदिक धर्म जीवन पर्यन्त तो अपने बड़ों की सेवा करने की सीख देता ही है मृत्यु के पश्चात् भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध व तर्पण पर जोर देता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि श्रद्धा से किया जाने वाला वह कार्य जो पितरों के निमित्त किया जाता है श्राद्ध कहलाता है। श्राद्धकर्म एक आवश्यक संस्कार है और शास्त्र सम्मत भी है। मनुष्य माता पिता के ऋण से कभी मुक्त नहीं होता इसलिए जीवनपर्यन्त उनकी सेवा करने के उपरान्त भी उनके लिए कुछ न कुछ करना आवश्यक है। शास्त्रानुसार देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण श्राद्ध द्वारा ही उतारा जा सकता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओं की पूर्ति कर देते हैं साथ ही श्राद्ध करने वाले पुरुष से विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन सभी संतुष्ट रहते हैं। खासकर आश्विन मास के कृष्ण पक्ष (पितृपक्ष) में श्राद्ध करने पर पितृगण स्वयं आकर श्राद्ध ग्रहण करते हैं तथा प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध न मिलने पर निराश होकर शाप देकर वापस चले जाते हैं।

          श्राद्ध पितरों को किस तरह प्राप्त होता है इसका जवाब भी सीधा सा है जिस तरह हम किसी भी जगह रहने वाले व्यक्ति का नाम पता लिखकर पत्र लेटर बाक्स में डाल देते हैं और वह उसे मिल जाता है उसी प्रकार जिन नामों का वैदिक विधि से उच्चारण कर हम पिण्ड दान करते हैं वह उन्हें प्राप्त हो जाता है। श्राद्ध कर्म में हमारे द्वारा अर्पित पदार्थ का सूक्ष्म अंश सूर्य रश्मियों द्वारा सूर्य लोक में पहुँचता है और वहां से अभीष्ट पितरों को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों का तो यहां तक मानना है कि पितृपक्ष में विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा आवाहन किए जाने पर पितृगण स्वयं उनके शरीर में सूक्ष्म रूप से स्थित हो जाते हैं। अन्न का स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंश पितरों को प्राप्त होता है।

          वर्तमान समय में खुद को तथाकथित आधुनिक कहलाने वाले श्राद्ध आदि को ढोंग बताते हैं यह उनकी संकीर्ण में ही माता-पिता को सुख नहीं पहुँचाते तो मृत्यु के उपरान्त उनके सम्मुख श्राद्ध की बात करना अंधे को दीपक दिखाने के समान ही है। वे श्राद्ध तर्पण आदि के खर्च को अनावश्यक अपव्यय समझते हैं किन्तु यदि गणित ही लगाना है तो वह भी लगाकर देख लो आपके द्वारा किया गया श्राद्धकर्म कभी बेकार नहीं जाएगा बल्कि उससे कई गुना होकर आपको मिलेगा। जरा सोचिए कि यदि आपने अमेरिका में रहने वाले किसी व्यक्ति के लिए रुपये भेजे और रुपये पहुँचने पर पता चला कि वह व्यक्ति मर गया है तो रुपये कहाँ जाएँगे? जाहिर है वापस आपके पास आ जाएँगे ठीक इसी प्रकार परमधाम वासी पितरों के निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्यं रूप में आपको मिल जाएगा अर्थात् किसी भी दृष्टि से देखें फायदे में आप ही रहेंगे।

       हमारा सनातन धर्म पूर्ण सहिष्णु तथा विश्वहितकर है। इतना उदार कोई भी अन्य धर्म विश्व भर में कहीं नहीं है। यह इसकी महान् विशेषता है। यहाँ तक कि वर्ष भर में एक सम्पूर्ण पक्ष पूज्य पितरों आदि के प्रति शास्त्रीय कर्मादि द्वारा अपनी श्रद्धा निष्ठादि को प्रकट करने के लिये नियत है। कितना सुन्दर एवं सामयिक विधान है? 'श्राद्ध' शब्द का श्रद्धा से पूर्ण सम्बन्ध है और इसी विशिष्टता को वह चरितार्थ करता है। प्रसिद्ध मुगल बादशाह शाहजहाँ ने भी धर्म के इस आचरण की महत्ता स्वीकार कर उसकी सराहना की थी। बंदी बनाये जाने के पश्चात् जब औरंगजेब ने उसके जमुना जल पीने पर पाबंदी लगा दी तो उसने एक फारसी शेर लिखकर औरंगजेब की भर्त्सना इस प्रकार की कि 'हिन्दू लोग प्रशंसा के योग्य हैं जो अपने दिवंगत पितरों को भी पानी पिलाते हैं और एक तू ऐसा मुसलमान है, जो कि अपने बूढ़े जिन्दे बाप को पानी के लिये इस प्रकार तरसाता है। शहजहाँ की इस वाणी में कितनी मार्मिकता थी, जो औरंगजेब के हृदय में तीर की तरह चुभी बात ही कुछ ऐसी थी।

         यह पक्ष एवं इसके कर्म- सभी वेदोक्त एवं शस्त्रोक्त हैं दानवीर राजा कर्ण के साथ भी इसका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। श्रद्धा के साथ मन्त्र का उच्चारण करके इस लोक से मृतक हुए नित्य पितृ, नैमित्तिक पितृ प्रेत आदि की योनि को प्राप्त पिता, पितामह आदि कुटुम्बियों की तृप्त्यर्थ शास्त्र विधि के अनुसार जो क्रिया की जाती है, उसका नाम 'श्राद्धपक्ष' है। हिंदूजाति इस लोक के साथ ही साथ परलोक पर भी दृष्टि रखती है इसलिए इसमें पिता, पितामह और प्रपितामह की सद्गति तथा तृत्ति के लिये श्राद्धक्रिया नियत की हुई है। जीवित पितरों की तो सेवा हुआ ही करती है, उनमें हमारी श्रद्धा भी होता है, पर 'श्राद्ध' शब्द तो पारिभाषिक होता है। इसमें श्रद्धा का मधुर भाव निहित रहता है। अपने जिन पिता आदि से हमें शरीर प्राप्त हुआ, हमारा लालन-पालन हुआ, 

यदि उनके नाम से हम एक विशेष पात्र का सत्कार न करें, तो यह हमारी कृतघ्रता होगी। उनके नाम से दान करने पर परलोकगत उनकी आत्मा तृप्त हो जाती है, शान्ति को प्राप्त होती है और उन्नति पाती है। श्राद्धानुष्ठान के यथावत् होने पर प्रेतयोनि प्राप्त का प्रेतत्व हट जाया करता है। पिण्डदान से कष्ट मुक्ति हो जाया करती है। जैसे हजारों कोस का शब्द रेडियो द्वारा तत्क्षण सर्वत्र प्राप्त हो जाता है, वैसे ही मनः संकल्प द्वारा विधि एवं श्रद्धापूर्वक की हुई श्राद्ध आदि क्रियाएँ भी चन्द्रलोक स्थित पितरों को प्राप्त होकर उन्हें प्रसन्न कर दिया करती हैं। चन्द्रमा मन का अधिष्ठाता है। वह हमारे मन में संकल्प से की हुई क्रिया को नित्य पितरों के द्वारा सूक्ष्मता से अपने लोक में खींचकर हमारे पितरों को तृप्त कर दिया करता है। मन द्वारा दिये हुए अन्न और जल को वह सूक्ष्मरूप से आकृष्ट करता है। श्राद्ध पिता, पितामह, प्रपितामह इन तीन पुरुषों का होता है। श्राद्ध में सदाचारी, तपस्वी, विद्वान, स्वाध्यायशील सद्ब्राह्मण को ही भोजन कराने का मनुस्मृति आदि में आदेश है क्योंकि ऐसे ब्राह्मण की प्रसन्नता से प्रेतयोनि प्राप्त जीव की सद्गति होती है।

         श्राद्ध बिल्कुल रहस्यपूर्ण एवं विज्ञानपूर्ण है। इसी विज्ञानतत्व पर यहाँ कुछ विचार किया जाता है। अश्विन मास के कृष्णपक्ष की मृतक की तिथि में सभी मृतक पितरों के श्राद्ध किये जाते हैं। उसमें विज्ञान यह है कि इन दिनों चन्द्रमा अन्य मासों की अपेक्षा पृथ्वी के निकटतर हो जाता है। इस कारण उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा उसमें अधिष्ठित प्राणियों पर विशेष रूप से पड़ता है। तब जितने सूक्ष्म शरीरयुक्त जीव चन्द्रलोक के ऊपरी भाग में स्थित पितृलोक में जाने लिये बहुत समय से चल रहे होते हैं, या चल पड़े होते हैं, उनका उद्देश्य करके उनके सम्बन्धियों के द्वारा प्रदत्त पिण्ड अपने अन्तर्गत सोम के अंश से उन जीवों को आप्यायित करके, उनमें विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करके उन्हें शीघ्र और अनायास ही, अर्थात् बिना अपनी सहायता के ही पितृलोक में प्राप्त करा दिया करते हैं। तब वे पितर भी उनकी ऐसी सहायता पाकर उन्हें हृदय से समृद्धि तथा वंशवृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। 

     जो जीव पितृलोक को प्राप्त हो जाते हैं, उनके लिये प्रदान किये हुए पिण्डों या ब्राह्मण भोजन के सूक्ष्मांश उनके पास पहुँचकर उनको आप्यायित करते हैं, जिनसे वे सुख प्राप्त कर पिण्डदाता तथा श्राद्धकर्ता पुत्रों आदि को आशीर्वाद देते हैं। प्रतिवर्ष क्षयाह के मास एवं तिथि में जो श्राद्ध किया जाता है, उसमें कारण यह है कि तिथि होती है चन्द्रमास के तथा चन्द्रगति के अनुसार उसमें चन्द्रलोक में वे पितर उसी मार्ग या स्थान में स्थित होते हैं, जब वे मरकर उसी तिथि में उस मार्ग या स्थान को प्राप्त हुए थे। तब वे सूक्ष्मानि से प्राप्त कराये हुए उस श्राद्ध के सूक्ष्मांश को अनायास प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिये याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा है    
                    मृतेऽहनि प्रकर्तव्यं प्रतिमासं तु वत्सरम् ।   
                    प्रतिसंवत्सरं चैवमाद्यमेकादशे ऽहनि ॥
                     वर्षे वर्षे मृततिथौ श्राद्धं कुर्यात् ।

अब इसमे किये जाने वाले कर्तव्य की विज्ञानपूर्णता देखिये श्रद्ध के समय पृथ्वी पर कुश रक्खे जाते हैं। पिण्डों में जौ, तिल, दूध, मधु और तुलसी पत्र आदि डाले जाते हैं। तब श्राद्धकर्ता नित्य पितरों का, यम और परमेश्वर का ध्यान करता है एवं आचार्य वेदमान्त्रों का गम्भीर स्वर से उच्चारण करता है। इस पर यह जानना चाहिये कि चावलों में ठंडी बिजली और जवों में भी ठंडी बिजली होती है। तिलों में गरम बिजली और दूध में भी गरम बिजली होती है। तुलसीपत्र में दोनों प्रकार की विद्युत् होती है। साधारण मनुष्य जब साधारण वचन बोलता है, तो उसके शरीर से न्यून विद्युत उत्पन्न होती है; पर जब कोई वेदवित् कर्मकाण्डी तथा ज्ञानी विद्वान नियत पद प्रयोगपरिपाटी वाले तथा नियत आनुपूर्वीवाले पितृगणों से सम्बद्ध वेदमन्त्रों को पढ़ता है,तब नाभिचक्र से समुत्थित वायु पुरुष के शरीर में उष्ण- विद्युत् उत्पन्न करके उसे शरीर से बाहर निकालता है। इधर वेद के शब्दों के द्वारा विद्वान् ब्राह्मण के शरीर से अलौकिक वैदिक क्रियासिद्ध विद्युत् भी पिण्डों में प्रवेश करती है।इस प्रकार बिजलियों के समूह हो जाने पर मधु की विद्युत उनका मिश्रण करने वाली बनती है। मधु की विद्युत् चावल, जौ, दूध, तिल, तुलसीपत्र तथा वेदमन्त्रों की विद्युतों को मिलाकर एक साथ कर देती है। नीचे कुश इस कारण रखे जाते हैं कि पिण्डों से उत्पन्न विद्युत् पृथ्वी में संक्रान्त न हो जाय। कुशाएँ पिण्डों की विद्युतों को पृथ्वी में नहीं जाने देतीं। 

इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने ध्यान के समय ध्यानकर्ता की विद्युत् की रक्षा के लिये 'चैलाजिनकुशोत्तरम्'- कुशा का आसन ऊपर रखने का आदेश दिया है। मधु ने मिलकर जो अलौकिक विद्युत पैदा की थी, वह श्राद्धकर्ता की मानसिक शक्ति द्वारा उधर ही जीती है, जिधर उसका मन जाता है और मन नित्य-पितरों या अपने पितरों तथा यम एवं परमेश्वर के ध्यान में लगा होता है। तब वह बिजली भी इन के पास चमकती है और यम या नित्य-पितर सर्वज्ञ होने से श्राद्धकर्ता के पुत्र आदि के किये हुए श्राद्ध के ब्राह्मण की वैश्वानर-अग्नि से सूक्ष्मकृत अन्न को मृत पितरों के पास तदनुकूल करके भेज देते हैं, चाहे वे पितृलोक में हों या अन्य लोक में अथवा किसी अन्य योनि में हों।
              
         कोई यह शङ्का करे कि मृतक प्राणी श्राद्ध को कैसे पावेगा, जब कि जीवित भी दूसरे से खाये हुए को नहीं पा सकता?' तो इस पर सभी को यह जानना चाहिये कि तर्पण के जल या श्राद्ध के अन्न को जीवित पुरुष स्थूल शरीर मूलक अशक्ति के कारण नहीं खींच सकता, पर मृतक तो सूक्ष्म पितृशरीर को प्राप्त करके आकाश में सूक्ष्मता से ठहरे हुए उसको खींच सकता है। इसके उदाहरण में रेडियो को ले लीजिये। जिसके पास यह यन्त्र होता है, वह इंग्लैण्ड, जर्मनी, रूस, अमेरिका आदि देशों में उसी समय हो रहे हुए शब्दों को खींच सकता है; परन्तु जिसके पास वह यन्त्र नहीं है, वह लंदन आदि में तो क्या भारत में भी हो रहे हुए कुछ दूर के भी शब्दों को खींच नहीं सकता। इसी प्रकार जीवितों के पास दूसरे से दिये हुए श्राद्ध-तर्पण के आकाशस्थ र को खींचने की शक्ति नहीं होती, परंतु मृतकों के पितृलोक में जाने से उनके पास वह शक्ति सूक्ष्मतावश अनायास उपस्थित हो जाती है। स्थूल शरीर में तो वह शक्ति नहीं रहती, परंतु सूक्ष्म शरीर में वह रहती है, इसीलिये युधिष्ठिर स्थूल शरीर के साथ स्वर्ग लोक में विलम्ब से प्राप्त हुए। परंतु भीम अर्जुन आदि मर जाने के कारण स्थूल शरीर के त्याग के कारण युधिष्ठिर से पूर्व ही प्राप्त हो गये यह महाभारत में स्पष्ट है। स्थूल बीज में वृक्षोत्पादन शक्ति नहीं होती, जब वह पृथ्वी में बोया जाकर मर जाता है, तब उसमें सूक्ष्मता आ जाने से वह शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह स्थूल तथा सूक्ष्म शक्ति का अन्तर है।

        इस प्रकार स्थूल शरीर के नाश होने पर प्राप्त हुए देव पितृ आदि के शरीर में तो वह शक्ति हुआ करती है। जैसे हम होम करें, तो उसके अग्नि द्वारा आकाश में पहुँचाये हुए सूक्ष्म अंश को सूर्य आदि देव खींच सकते हैं, वैसे ही हमसे किये श्राद्धादि के ब्राह्मण की अग्नि और महाग्नि द्वारा आकाश में प्राप्त हुए सूक्ष्म अंश को चन्द्रलोक स्थित पितर यन्त्र स्थानीय अपनी शक्ति अपनी शक्ति के आश्रय से खींच सकते हैं।

          आधुनिक विज्ञान भी आधार एवं माध्यम को पूर्णतया मानता हैं। टेलीपैथी में यह विज्ञान नहीं तो और क्या है? इस शास्त्रीय विज्ञान का प्रत्यक्ष चमत्कार हमें उस समय देखने का अवसर मिला, जब कई वर्ष पहले विन्ध्याचल में एक सिद्ध महात्मा पधारे थे उनमें यह चमत्कार या देवी सिद्धि थी कि वे साँप के काटे हुए व्यक्ति को ठीक कर देते थे। चाहे वह कितनी ही दूर पर क्यों न हो। जो व्यक्ति उनके पास इस आशय की खबर लाता, मंत्र पढ़कर वे उसके कान पर जोर से थप्पड़ मारते, उधर वह व्यक्ति ठीक हो जाता। समाचार देने वाले व्यक्ति को ही वे माध्यम बनाकर उसे ठीक कर देते। यदि ऐसा सर्पदंशित व्यक्ति उनके पास किसी कारण न लाया जा सकता तो महात्मा जी का कहना था कि माध्यम के आधार पर एवं वायु-तरंग के आधार पर उसका सूक्ष्म सम्पर्क बना रहता है। समस्त वायुमण्डलों में अर्थावा ( इथर) तत्व है ही साधन सिद्ध योगी महात्मा इसी वायुमण्डल में अपना सम्पर्क बराबर बनाये रखते हैं। यह श्राद्धीय शक्ति ऋषियों ने हजारों वर्ष साधे हुए तपस्या, योग आदि के बल के द्वारा प्राप्त की है। इसका कोई भी शास्त्रज्ञ विद्वान खण्डन नहीं कर सकता। जो पितर पितृलोक में न होने से वैसी शक्ति नहीं रखते कि वे सूक्ष्म रूप बनकर श्राद्धान्न भोजन करते हुए ब्राह्मणों के शरीर में प्रवेश कर सकें, किन्तु वे किसी मनुष्यादि के स्थूल शरीर की योनि को प्राप्त कर चुके हों; तब हमारे द्वारा दिये हुए श्राद्ध के अन को वसु, रुद्र, आदित्य ही आकृष्ट करके उन स्थूल योनि वाले पितरों को सौंप दिया करते हैं। इस प्रकार मृतक श्राद्ध रहस्यपूर्ण, सोपपत्तिक और विज्ञानपूर्ण सिद्ध है। वीर मित्रोदय तथा ब्रह्मपुराण में आता है कि विधिपूर्वक श्राद्ध करने वाला आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण विश्व को तृप्त कर देता है।

यो वा विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् । आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥
 आब हा स्तम्बपर्यन्तं देवर्षि पितृ मानवः । 
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहोदयः ॥ 

श्राद्ध की वस्तुएँ पितरों को कैसे प्राप्त होती है ? शास्त्रों में बतलाया गया है कि संकल्पप्रोक्त नाम गोत्रों के आधार पर विश्वदेवता तथा अग्निष्वात्तादि दिव्य पितृगण हव्यकव्य को पितरों तक पहुँचा देते हैं। यदि पिता-माता या पितृगण देवयोनि में भी पहुँच गये हों तो यहाँ दिये .गये हव्य-कव्य उन्हें देवभोज्य अमृतादि बनकर संयोग से प्राप्त हो जाते हैं। पशुयोनि में भी वह अभीष्ट तृणादि के रूप में निर्दिष्ट जीव के पास पहुँच जाता है। नागादि योनियों में वह हव्यकव्य वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, पितृलोक में स्वधारूप तथा योनियों में भी वह अभीष्ट तृप्तिकर खाद्य बनकर पहुँच जाता है। नाम गोत्र हृदय की भक्ति श्रद्धा एवं शुद्ध उच्चारित मंत्र हव्य-कव्यों को संदेशसहित विश्ववदेवता एवं अग्रिष्वात्तादि पितरों द्वारा निर्दिष्ट गन्तव्यस्थल तक ढूँढकर वैसे ही पहुँचा दिये जाते हैं- जैसे गोशाला में बछड़ा अपनी माता के पास।


यथा गोष्ठे प्रनष्टां वै वत्सो विन्दति मातरम् । 
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्येत्रावतिष्ठ ते ॥ 
नामगोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् । 
अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ॥ पितृलोकगतश्रान्नं श्राद्धे भुङ्क्ते स्वधामयम् । 
प्रेतस्य श्राद्धकर्तुश्च पुष्टिः श्राद्धे कृते ध्रुवम् ॥ 
तस्माच्छ्राद्धं सदा कार्य शोकं त्यक्तवा निरर्थकम् ।

पितृगण देवताओं से भी अधिक कृपालु होते हैं। वे अधिक सहयोग भी करते हैं। 'जहाँ श्राद्ध नहीं होता, वहाँ दुःख-क्लेश, रोग होता है, आयु का नाश होता है कोई श्रेय नहीं होता

        न तत्र वीरा जायन्ते आरोग्यं न शतायुषः । 
        न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम् ॥
अतः शाकादि से भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिये

तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथाविधि ।
कुर्वीत श्रद्धया तस्य कुले कश्चिन्न सीदति ॥
श्रद्धालु हिंदू श्राद्धकर्ता तर्पण एवं श्राद्ध में भावपूर्ण आर्द्रहृदय से कहता है।

ये मे कुले लुप्तपिण्डा: पुत्रदारविवर्जिताः।
तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम् ॥ 
ये बान्धवाऽ बान्धवाश्च येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः । 
ते तृप्तिमखिला यान्तु मद्दत्तेनाम्बुना सदा ॥
                                                 ( मत्स्य पुराण)
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद् दीयते सलिलं मया ॥ आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तं देवर्षि पितृमानवाः । 
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ॥
 अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आब्रह्मभुवनालेकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

अर्थात् जो भी असहाय जीव मेरे कुल के हों, जो मेरे इस जन्म के बन्धु बान्धव हों या उस जन्म के या जो कोई भी बन्धु बान्धवों से रहित हों या जो कोई किसी भी लोक में या नरकादि में यातनाग्रस्त हों, वे मेरे इस श्राद्ध के पिष्ट या तिलजल के तर्पण से पूर्ण दुःखमुक्त एवं पूर्ण तृप्त हो जायँ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त सभी देवता, पितर, मनुष्य, कीट पतंग, सात द्वीप के निवासी ज्ञातज्ञात ब्रह्मलोक से लेकर भूलोक तक के सभी प्राणी मेरे इस सद्भावपूर्ण श्राद्ध तर्पण से पूर्ण तृप्त आप्यायित एवं सुखी हो जायँ। - पद्मपुराण, उत्तरखण्ड 213-14 अध्यायों में कथा आती है कि एक ऋषिपुत्र ने अपने कई जन्मपूर्व की गोधा-योनि प्राप्त माता का श्राद्ध द्वारा उद्धार किया 'पूर्वजन्मनि या माता पिता यश्च... तयोश्च पितरौ यौ हि... पितामहौ वस्तुतः ऐसी भावना विश्व के अन्य किसी भी धर्म में अत्यन्त दुर्लभ या अप्राप्य ही है। अत्यन्त सद्भाव तथा श्रद्धा से किये जाने के कारण ही इस कर्म का नाम ' श्राद्ध' है प्रज्ञा श्रद्धार्चाभ्योणः । श्रद्धया क्रियते यस्माच्छ्राद्धं तेन प्रकीर्तितम् । श्राद्धकर्ता को आयु, प्रजा, धन, राज्य, ज्ञान, स्वर्ग, मोठ, जातिस्मरता आदि सब प्राप्त होते हैं।
आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च । 
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितामहाः ॥