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ज्योतिष शास्त्र में सिद्धि योग के महत्व ।।

ज्योतिष शास्त्र में पंचांग से तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण के आधार पर मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन मुहूर्तों में शुभ कार्य किए जाते हैं उन्हें शुभ मुहूर्त कहते हैं। इनमें सिद्धि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग, पुष्कर योग, अमृत सिद्धि योग, राज योग, द्विपुष्कर एवं त्रिपुष्कर यह कुछ शुभ योगों के नाम हैं।

 
अमृत सिद्धि योग :- अमृत सिद्धि योग अपने नामानुसार बहुत ही शुभ योग है। इस योग में सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। यह योग वार और नक्षत्र के तालमेल से बनता है। इस योग के बीच अगर तिथियों का अशुभ मेल हो जाता है तो अमृत योग नष्ट होकर विष योग में परिवर्तित हो जाता है। सोमवार के दिन हस्त नक्षत्र होने पर जहां शुभ योग से शुभ मुहूर्त बनता है लेकिन इस दिन षष्ठी तिथि भी हो तो विष योग बनता है।
 
सिद्धि योग :- वार, नक्षत्र और तिथि के बीच आपसी तालमेल होने पर सिद्धि योग का निर्माण होता है। उदाहरण स्वरूप सोमवार के दिन अगर नवमी अथवा दशमी तिथि हो एवं रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, श्रवण और शतभिषा में से कोई नक्षत्र हो तो सिद्धि योग बनता है।
 
सर्वार्थ सिद्धि योग :- यह अत्यंत शुभ योग है। यह वार और नक्षत्र के मेल से बनने वाला योग है। गुरुवार और शुक्रवार के दिन अगर यह योग बनता है तो तिथि कोई भी यह योग नष्ट नहीं होता है अन्यथा कुछ विशेष तिथियों में यह योग निर्मित होने पर यह योग नष्ट भी हो जाता है। सोमवार के दिन रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, अथवा श्रवण नक्षत्र होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग बनता है जबकि द्वितीया और एकादशी तिथि होने पर यह शुभ योग अशुभ मुहूर्त में बदल जाता है।
 
पुष्कर योग :- इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चन्द्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चन्द्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के लिए उत्तम मुहूर्त होता है।
 
गुरु पुष्य योग :- गुरुवार और पुष्य नक्षत्र के संयोग से निर्मित होने के कारण इस योग को गुरु पुष्य योग के नाम से सम्बोधित किया गया है। यह योग गृह प्रवेश, ग्रह शांति, शिक्षा सम्बन्धी मामलों के लिए अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। यह योग अन्य शुभ कार्यों के लिए भी शुभ मुहूर्त के रूप में जाना जाता है।
 
रवि पुष्य योग :- इस योग का निर्माण तब होता है जब रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र होता है। यह योग शुभ मुहूर्त का निर्माण करता है जिसमें सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। इस योग को मुहूर्त में गुरु पुष्य योग के समान ही महत्व दिया गया है।
                                      साभार बी.डी वशिष्ठ

गर्भगृह ( Garba Gruha ) ।।



“Garba Gruha Sirahapoktam antaraalam Galamthatha Ardha Mandapam Hridayasthanam Kuchisthanam Mandapomahan Medhrasthaneshu Dwajasthambam Praakaram Janjuangeecha Gopuram Paadayosketha Paadasya Angula Pokthaha Gopuram Sthupasthatha Yevam Devaalayam angamuchyathe”

VISWAKARAMYAM VAASTHU SASTRA 

MEANING: Garba-griham (main sanctum) is equated with human head; antarala (vestibule) is equated with human neck; ardha – mandapam (half-hall) is compared with human chest; maha – mandapam (main hall) is equated with the stomach; flag-post is viewed along with human male organ;and gopuram or temple gateway tower is viewed along with human feet.


श्री कमला ।।

        दस महाविद्या के अंतर्गत भगवती कमला सबसे छोटी हैं और इसके साथ ही ये सबसे ज्यादा परिष्कृत, सौम्य, शीघ्र प्रसन्न होने वालीं, क्रोध-वर्जिता, हिंसा-विहीना एवं दण्ड विहीना हैं। विश्व की समस्त भौतिक सम्पत्ति, ऐश्वर्य, सुख संतान इत्यादि की ये दात्री मानी गई हैं। इनके शिव महामृत्युंजय हैं एवं शिव का महामृत्युंजय स्वरूप ही पूर्ण रूप से अभय कारी है एवं पुनः जीवनदान प्रदान करने वाला। सृष्टि की पुनर्स्थापना, देवताओं को अमृतकलश प्रदान करना, पृथ्वी पर अमृत बूंदों का छलकना, महाकुम्भ जैसे पर्वों का सृजन इत्यादि के मूल बिन्दु में महामृत्युंजय शिव एवं उनकी भार्या कमलेश्वरी ही है क्योंकि ये दोनों इसी स्वरूप में अमृत कलशों से अभिषिक्त हो रहे हैं।

            कमला महाविद्या के भैरव हैं विष्णु एवं अपने भैरव विष्णु को कमलेश्वरी अपनी अंश स्वरूपा सत्वगुण प्रधाना महालक्ष्मी प्रदान कर रही हैं। शिव और कमला दोनों आद्र भाव में स्थित हैं इसलिए महालक्ष्मी को आद्रा कहा गया है। आद्रा का तात्पर्य है स्त्रावित होते रहना, उत्सर्जित होते रहना, प्रवाहित होते रहना,सौम्यता बिखेरते रहना। जहाँ महालक्ष्मी स्थापित होती हैं वहाँ शुष्कता, कठोरता इत्यादि का नामोनिशान नहीं रहता। आद्र भूमि ही अन्न उत्पन्न करती है, आद्र वातावरण में ही दिव्य रसों से युक्त फलों का उत्पादन होता है, आद्र मस्तिष्क ही दयामय, प्रेममय, दानमय और कल्याणकारी होते हैं। मस्तिष्क में अगर शुष्कता है तो निश्चित ही क्रूरता, कठोरता और युद्धोन्माद का ही सृजन होगा। शुष्क बीज से वृक्ष उत्पन्न नहीं होता, जब बीज आद्र होता है तभी वह विशाल रूप धारण कर पाता है। सूखे कठोर एवं प्रस्तर खण्डों को भी लतायें अपने पाश में बांध उन्हें हरितिमा प्रदान करती हैं, उन पर जीवन पल्लवित करती है, उन्हें भी आद्र करके रखती हैं। 

            प्रस्तर खण्डों में से भी झरने फूट उठते हैं, हिमालय भी आद्र होता है एवं तभी गंगा उत्सर्जित होती है और जीवन दायिनी बनती है, लक्ष्मी स्वरूपा होती है। चंद्रमा जब आद्र होता है तभी अमृत किरणें बिखेरता है। लक्ष्मी कुल शक्ति है, कुल प्रिया हैं, कुटुम्ब का निर्माण करती है, एकता स्थापित करती हैं। पाँच हजार विभिन्न सोच वाले मनुष्यों को विभिन्न प्रकृति वाले मनुष्यों को एक जगह लम्बे समय तक एकत्रित करना किस माध्यम से सम्भव हो पाता है ? केवल धन के माध्यम से। पाँच हजार मस्तिष्क एक कारखाने में, एक साथ, एक लक्ष्य लेकर कार्य केवल लक्ष्मी प्राप्ति हेतु ही करते हैं। यही लक्ष्मी की महिमा है। लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु तो देव, असुर, दैत्य, दानव, त्रिदेव, अप्सरायें, गंधर्व ऋषि-मुनि इत्यादि सबने मिलकर एक साथ समुद्र मंथन किया अन्यथा ये सब सृष्टि में कभी भी किसी भी क्षण एक जुट नहीं हो सके परन्तु लक्ष्मी हेतु एक जुट हो प्रयत्न किया। 

           जीवन को सुलभ, सरल और आनंददायी लक्ष्मी के अभाव में कदापि नहीं बनाया जा सकता। लक्ष्मी सभी की प्रथम आवश्यकता है। शिव, विष्णु और लक्ष्मी यह विशेष आध्यात्मिक त्रिकोण है। विष्णु कर्म, शिव अध्यात्म और लक्ष्मी भाग्य का प्रतीक हैं एवं इन तीनों के समायोजन से ही व्यक्ति सम्पूर्णता प्राप्त करता है। अकेले कर्म के माध्यम से लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अगर व्यक्ति के पास प्रचण्ड शिव ज्ञान और विज्ञान है परन्तु लक्ष्मी नहीं है तो इस जगत में वह प्रत्येक जगह तिरस्कार को ही प्राप्त होगा सदैव भिक्षुक रहेगा इसलिए भाग्य भी चाहिए। लक्ष्मी भाग्य हैं, लक्ष्मी सौभाग्य हैं एवं उन्हें सदैव सौभाग्यवती कहा गया है क्योंकि विष्णु उनका सौभाग्य हैं। धूमावती विधवा हैं इसके विपरीत कमला सर्वदा सौभाग्यवती हैं। यही कमला महात्म्य है। कमला पूजन का तात्पर्य है जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सौभाग्य।

अध्यात्म की भाषा ।।

        सबसे पहले बात करते हैं प्रवचन, पुस्तक, पुराण इत्यादि की यह सब मनुष्य की भाषा के अंतर्गत आते हैं। इनका निर्माण मनुष्य अपने मस्तिष्क से ब्रह्माण्डीय सत्य को अनुभूत करके करता है। अतः ब्रह्माण्डीय सत्य और भाषा के मध्य मनुष्य का मस्तिष्क निश्चित तौर पर आ जाता है। मनुष्य का मस्तिष्क पाइप लाइन तो है नहीं जो कि कम से कम काफी कुछ मात्रा में ज्यों का त्यों स्वच्छ पानी हमारे घर भी पहुँचा देती है। पाइप लाइन में भी कचरा आ सकता है टूट-फूट हो सकती है, जंग लग सकता है एवं बहुत कुछ घट बढ़ सकता है। दबाव के कारण पानी का प्रवाह बढ़ भी सकता है और घट भी सकता है। कभी पाइप लाइन फट भी सकती है। पाइप लाइन की भी अपनी एक उम्र है फिर मानव मस्तिष्क की क्या बात करना? वह तो आज कल अल्प समय में ही प्रदूषित एवं बूढ़ा हो जाता है। नाना प्रकार से विभिन्न हिस्सों में बंट जाता है।

            आत्मानुशासन लिए हुए मानव मस्तिष्क तो अब दुर्लभ हो गये हैं। चारों तरफ चालाक, कामी, संकुचित एवं लिप्त मस्तिष्कों की भरमार दिखाई दे रही है। ऐसी स्थिति में ब्रह्माण्ड से ग्रहण की गई अनुभूति जब पुस्तकों, प्रवचनों इत्यादि के रूप में प्रकट होती है तो वह अपवित्रतता एवं संकुचितता से युक्त होती है। यह हुई एक स्थिति। इसके बाद जैसे-जैसे कालानुसार यह अनुभूति अन्य मस्तिष्कों से गुजरती हुई आप तक पहुँचती है तो इसका स्वरूप इतना बिगड़ जाता है कि ग्रहण करने योग्य ही नहीं रहती। शब्द पूर्ण नहीं होते। अतः अध्यात्म को शब्दों के माध्यम से ग्रहण तो करना चाहिए परन्तु पूर्णता से आत्मसात करने के लिए और भी कुछ करना होता है अन्यथा अध्यात्म सिर्फ विचारों और बुद्धि तक सीमित होकर रह जायेगा। ज्ञान जरूरी है परन्तु ज्ञान प्राप्ति के लिए शब्द ही काफी नहीं है, पुस्तकें ही काफी नहीं है। अध्यात्म के आगे की स्थिति में शब्दों को खामोश होना पड़ेगा। पुस्तकों को हटाकर एक बार आँखों में आँखें डालकर आँखों की भाषा से पढ़ना पड़ेगा। भाव जगत में प्रविष्ट होना पड़ेगा। स्वयं ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने की क्रिया भी सीखनी होगी। हो सकता है कि लेख, पुस्तक लिखने वाला या प्रवचन देने वाला किसी भाव विशेष या आवृत्ति विशेष में गतिमान हो। वह किसी सत्य का अनुसंधान कर रहा हो परन्तु आप उससे सर्वथा अपरिचित हो या उससे भी ऊपर उठ गये हों।
 
           कृष्ण के मुख से गीता उच्चारित हुई। अर्जुन ने उसे 5000 वर्ष पूर्व सुना। इन पाँच हजार वर्षों में आप तक गीता पहुँचते पहुँचते लगभग सौ पीढ़ियों के मस्तिष्कों से सम्प्रेषित हो चुकी हैं। इन सौ पीढ़ियों ने न जाने कितने शब्दों को जोड़ दिया होगा, न जाने कितने महावाक्यों को तोड़ मरोड़ दिया होगा इसकी पूरी-पूरी सम्भावना है। अतः आप तक पहुँची गीता को अगर आप शब्दों के माध्यम से समझते तो मैं समझता हूँ कि आप आधा-अधूरा ही प्राप्त करेंगे। अब सवाल उठता है कि क्या करें? इसके लिए मस्तिष्क को अर्क ग्रहण करने के योग्य बनाना होगा। मस्तिष्क के दरवाजों को पूरी तरह खोलकर रखना होगा। खुले दरवाजों का अपना महत्व है। उनमें से हवा आती जाती रहती है। फिर भी कमरे के अंदर हवा उतनी ही मौजूद रहती है। जितनी कि रहनी चाहिए और वह भी पूर्ण रूप से स्वच्छ एवं निर्मल। यह स्वस्थ एवं श्रेष्ठ मस्तिष्क की पहचान है। अतः ग्रंथों, पुराणों और प्रवचन इत्यादि को ग्रहण करते मस्तिष्क स्वयं ही अर्क को ग्रहण कर लेगा। आप गुलाब के फूल को देखते हैं उसमें खुशबू है, पंखुड़ियों, रंग, आकृति एवं स्पर्श के साथ परन्तु जैसे ही गुलाब के पुष्प का तेल निकाला जाता है पंखुड़ियाँ गायब हो जाती हैं। पुष्प की आकृति और मौजूदगी भी गायब हो जाती है। बचता है तो सिर्फ खुशबूदार अर्क। 

            आध्यात्मिक असभ्यता साधकों की सबसे बड़ी कमी है। इसके लिए गुरु ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। एक बालक जन्म लेता है उसे बोलना भी नहीं आता। शब्द उसके लिए मूल्यहीन होते हैं। भाषा अर्थहीन होती है। उसका मस्तिष्क मात्र भाव के द्वारा ही अपने को व्यक्त करता है एवं दूसरों को भी भावानुसार ही समझता है। जो साधक आध्यात्मिक रूप से असभ्य होते हैं वे सड़ी-गली पुस्तकों के नियमों में उलझकर रह जाते हैं। उनका अध्यात्म केवल शुल्क, न्यौछावर, माला और महिमा मण्डन तक ही सीमित रह जाता है। मैं विगत 12 वर्षों से ऐसे ही असभ्य और मूर्ख साधकों को भटकते देख रहा हूँ। इनके मस्तिष्क इतने कमजोर हो चुके हैं कि यह आँखों के सामने घटित होता हुआ सत्य भी पहचानने से इंकार करते हैं। इनके सामने इनकी जेबें कट जाती हैं और यह देखते रहते हैं। यह सब दुष्परिणाम अध्यात्म को चिकित्सा बना देने के कारण हुआ है। 

तुरंत एक गोली खाओ और सर दर्द गायब इस सिद्धांत पर अध्यात्म नहीं चलेगा। ऐसे सिद्धांत वाले गण्डे ताबीज बांधकर घूमते हैं। मुझे एक महिला मिली उसने कहा कि मैं हनुमान जी के मंदिर में गई और मूर्ति के सामने खड़े होकर उन्हें धौंस देकर बोली तुम मेरे बेटे को ठीक कर दो तभी मैं तुम्हें मानूगीं। खैर बेटा ठीक हो गया किसी प्रकार से परन्तु यह निश्चित है कि हनुमंत कृपा उस पर कभी नहीं बनेगी। कोई भी देव शक्ति किसी भी निम्नगामी मनुष्य की धौंस से नहीं डरती उसे प्रमाणीकरण की भी जरूरत नहीं है। जिस दिन हनुमंत जैसी शक्ति मनुष्यों के अधीन हो जायेगी, मनुष्य की दासी बन जायेगी, उसके इशारे पर नाचेगी उस दिन हनुमान को कोई नहीं पूजेगा लोग आध्यात्मिक रूप से इतने असभ्य और गंवार हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। 

             एक बात स्पष्ट रूप से समझ ली जाय कि प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ प्रेमवश खींचा हैं और रथ खींचने से पहले अर्जुन ने उनके चरण पकड़कर अश्रु बहाये हैं। प्रभु की परम सत्ता को स्वीकार किया है। श्रीकृष्ण सारथी भी बने हैं तो भी अर्जुन ने उनकी शिष्यता स्वीकार की। वह आज्ञाकारी बना है श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध में उसने एक आज्ञाकारी शिष्य की भांति, एक सभ्य और एक सुसंस्कृत अध्यात्म पथ के जिज्ञासु की भांति निर्विकार रूप से श्रीकृष्ण की प्रत्येक आज्ञा मानी। रथ पर सवार होने से पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन से अनेकों अनुष्ठान करवाये हैं। खाण्डव वन का दहन करवाया है, घोर तपस्या करवाई है, अर्जुन के दम्भ और अहंकार का मान मर्दन करवाया है। उसे यह भी दिखा दिया है कि वह स्वयं की पत्नी का चीर हरण रोकने में भी सक्षम नहीं है। वहाँ पर भी श्रीकृष्ण ने हाथ लगाया है। श्रीकृष्ण न होते तो लाक्षागृह में अर्जुन जल मरा होता कर्ण के तक्षक अस्त्र द्वारा सिर कट गया होता। 

              भाषा क्या है? भाषा का तात्पर्य केवल मनुष्यों के मुख से निकला स्पंदन ही नहीं है अगर आप भाषा की समग्रता में जायेंगे तो फिर इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक संरचना चाहे वह जड़ हो, चेतन हो या फिर पिण्ड स्वरूप हो प्रत्येक के अंदर भाषा का पूर्ण परिष्कृत स्वरूप विकसित पायेंगे। प्रत्येक तत्व में गुरुत्व है, स्पंदन है, प्रजनन है एवं सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है। यह एक सार्वभौमिक एवं ब्रह्माण्डीय व्यवस्था के अंतर्गत आता है। तारे भी बात करते हैं उनकी अपनी एक भाषा है। वे भी सम्प्रेषण करते हैं प्रकाश के माध्यम से, तरंगों के माध्यम से एवं सूक्ष्म परा ध्वनि के माध्यम से यही तो ज्योतिष का आधार है। प्रत्येक सम्प्रेषण का मनुष्य, पृथ्वी एवं वातावरण पर प्रभाव निश्चित पड़ता है। ज्योतिष गणना एवं लक्षण विज्ञान में नक्षत्रों की भाषा ही ज्योतिषाचार्य एवं अन्य साधक सूक्ष्मता के साथ ग्रहण करते हैं। सारा ब्रह्माण्ड मंत्रमय है। केवल मनुष्य मंत्रों के अंतर्गत नहीं आता यही वेदान्त पठन मंत्रोचारण एवं अनुष्ठानों, हवन यज्ञ इत्यादि सम्पन्न करने का मूलभूत कारण है। 19 वीं सदी के दशक में कुछ अधकचरे एवं तथाकथित पढ़े लिखे लोगों ने मनुष्य की एक दो पीढ़ी को पशु रूप में ढालने की भरसक कोशिश की है। अपने निकृष्ट विचारों से उन्होंने विशेषकर भारतवर्ष की एक दो पीढ़ियों को मात्र पशु रूपी मनुष्य बनाकर रख दिया है परन्तु इसके विपरीत पाश्चात्य मुल्कों में 24 घण्टे ऋषितुल्य वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्ड की एक-एक नक्षत्रिकाओं को निहारा है। अनेकों अत्याधुनिक राडारों, दूरध्वनि संयंत्रों एवं अन्य सूक्ष्म परा तरंगों और प्रकाश ग्रहण करने वाले विशेष उपकरणों की सहायता से ब्रह्माण्डीय भाषा को जानने की कोशिश की है। ब्रह्माण्ड के एक से एक गूढ़ रहस्यों को पकड़ने में वे सफल हो जाते हैं।

            ऋषि क्या है? ज्ञानी कौन है? परम बुद्धि शाली कौन है? प्रज्ञा पुरुष किसे कहते हैं? इस संसार में अधिकांशतः ऐसे मूढ़ मस्तिष्क है जिनकी दृष्टि केवल रोटी, पानी और स्त्री तक ही सीमित होती है परन्तु इसी समाज में ऐसे भी विलक्षण मनुष्य होते हैं जो कि ब्रह्माण्ड के गूढ़ रहस्यों को सूक्ष्मता के साथ ग्रहण करने में सक्षम होते हैं। जो व्यक्ति जितना ज्यादा प्रकृति एवं ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझता जायेगा वह ऋषि तुल्य बनता जायेगा। लोग कहते हैं हम आपके गुरु के साथ पढ़े हैं, आपके गुरु के शहर में रहते हैं। उन्हें जोधपुर में देखते रहे हैं, हम उनको बचपन से जानते हैं, उनसे सम्मेलन में मिले हैं। इन सब हास्यास्पद बातों से वे अपने मन को संतुष्ट करते रहते हैं। अपने तथाकथित अहम को बरकरार रखते हुए नकली दम्भ में जीने की कोशिश करते हैं परन्तु वे इस सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं कि कृष्ण भी माता के गर्भ से ही उत्पन्न हुए थे। उन्होंने भी ग्वाल बालों के साथ पशु चराये हैं, गुरुकुल में लकड़ी भी काटी है। इन सब सामान्य कर्मों को सम्पन्न करते हुए भी महापुरुष एवं अवतारी शक्तियाँ प्रतिक्षण ब्रह्माण्डीय सम्पर्क में बनी रहती है।

                ब्रह्माण्डीय भाषा में पारंगतता कृष्ण की चौंसठ कलाओं में से एक महत्वपूर्ण अंग है। वे त्रिकालदर्शी तो क्या अनंतदर्शी हैं। वे समझ गये कि अब ब्रज में रहने का समय समाप्त हुआ तुरंत ब्रज को छोड़ा एवं मथुरा की तरफ प्रस्थान किया। मथुरा में उन्होंने समय और काल की भाषा समझते हुए कंस का वध किया। एक समय के पश्चात् पुनः समय की भाषा समझते हुए द्वारका का निर्माण किया। यही है काल ज्ञान काल की भाषा को समझना। काल से सम्बन्ध स्थापित करना काल के अनुसार कर्मों को सम्पन्न करना। सफल एवं ऋषितुल्य व्यक्तियों को यही पहचान है। प्रज्ञापुरुष तो ब्रह्माण्डीय भाषा में इतने दक्ष होते हैं कि उन्हें अपनी मृत्यु के सही समय और क्षण का भी पता होता है। मेरे गुरु ने भी 3 जुलाई को जब सूर्य उत्तरायण में स्थित था एवं ब्रह्म मुहूर्त में ठीक उसी समय शरीर को त्यागा जिस क्षण शरीर त्यागने से आत्मा सीधे सिद्धाश्रम को ही गमन करती है। इसे कहते हैं मुहूर्त ज्ञान मुहूर्त विद्या। यही प्रज्ञा है।.                    
         यह भी सत्य है कि हमें भोजन की इच्छा हो रही हैं और यह भी सत्य है कि ज्यादा भोजन हम नहीं कर सकते। मूर्ख व्यक्ति या तो ज्यादा भोजन कर लेगा या फिर भोजन नहीं करेगा। वह असंतुलित होता है। वह एक धारा से ज्यादा में अपने मस्तिष्क को क्रियाशील नहीं कर सकता परन्तु प्रज्ञा इन्द्रियों से ऊपर का विषय है। प्रज्ञावान भोजन भी करेगा तो पेट के सामर्थ्य अनुसार ही करेगा। इससे ऊपर उठकर उसमें इतनी शक्ति होती है कि वह जरूरत पड़ने पर पेट को भी आज्ञानुसार क्रियाशील कर देगा। दोनों धाराओं को संतुष्ट करना एवं धाराओं से ऊपर उठकर धारा की भी परवाह न करना व्यक्ति को मनुष्य से ऋषि बनाती है। यही गायत्री रहस्य है। 

              गायत्री मंत्र में 24 तत्वों की एक दिव्य संतुलनात्मक संरचना है। 24 दैव शक्तियाँ गायत्री मंत्र में गुथी हुई हैं। गायत्री शक्ति इन 24 देव शक्तियों को संतुलित भी करती है एवं इनसे ऊपर उठकर इन्हें नियंत्रित भी करती है। वह आदि मातृ स्वरूपा है। जीवन में सफल होने के लिए 80 प्रतिशत कर्म का क्षेत्र है। यह व्यक्ति विशेष के हाथ में होता है। 15 प्रतिशत भाग्य का क्षेत्र है। यह उसे पूर्व जन्मकृत कर्मों के अनुसार प्राप्त होता है। इसमें गुरु का दखल अवश्यम्भावी है। वह हाथों की लकीरों चित्रकारी करने में सक्षम है। इसके अलावा 5 प्रतिशत कुछ और भी है। यह रहस्यात्मक दैव शक्तियों का खेल है। इसके लिए दीक्षायें, अनुष्ठान, गुरुकृपा, गुरु सानिध्य इत्यादि अत्यधिक आवश्यक है। यह साधना पक्ष है। 

           जीवन बस इसी त्रिगुणात्मक व्यवस्था का संतुलन है। जिसमें यह व्यवस्था श्रेष्ठ होगी, सक्रिय होगी, चैतन्य होगी वही महापुरुष बनेगा, वही श्रेष्ठ योगीजन बनेगा, वही सफलता प्राप्त करेगा। पूर्णता उसे ही प्राप्त होगी। यही गायत्री का संदेश है। मैंने अपने जीवन में कर्मवादियों के सिद्धांत भी देखे हैं। अगर कर्म से ही सब कुछ हो जाये तो फिर मजदूर सबसे वैभवशाली होना चाहिए इसके अलावा घोर भाग्यवादी भी देखे हैं जो कि लाटरी न लगने पर आत्महत्या कर लेते हैं। तीसरे साधनात्मक लोगों को भी देखा है। साधनात्मक लोगों में अधिकांशत: सबसे ज्यादा असंतुष्ट, भ्रमित एवं निकम्मे होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ऊपर वर्णित त्रिगुणात्मक संतुलन के बिना जीवन कुछ भी नहीं है अगर आधा अधूरा जीवन जीना है तो फिर एकांगी मार्ग अपना लो। पाश्चात्य देशों को सशरीर अंतरिक्ष में भ्रमण करना था, अन्य ग्रहों पर यान भेजने थे, अन्य ग्रहों पर स्थापित

 होने की उनमें तीव्र लालसा है इसीलिए उन्होंने दूरदृष्टि विकसित की प्रतिक्षण ब्रह्माण्ड की नब्ज परखी। उसी अनुसार अपने यंत्रों का निर्माण किया आप देखिए हर दूसरे दिन उनकी ब्रह्माण्ड के बारे में विचारधारा बदल जाती है। सीधा सा कारण है वे प्रतिक्षण ब्रह्माण्ड में झांकते रहते हैं। हर क्षण अपने यंत्रों की मदद से सुदूर ग्रहों पर जीवन के लक्षण खोजते रहते हैं और खोज भी लिया है। बहुत ही चालाक और बुद्धिमान लोग हैं। आपको कुछ भी नहीं बतायेंगे। उनके सम्पर्क तो आप से 20 साल पहले ही ब्रह्माण्ड में रहने वाले अनेक जीवों से हो चुके हैं। पूरा का पूरा एक विभाग अमेरिका में क्रियाशील है जो है कि अन्य ब्रह्माण्डीय जीवों के निरंतर सम्पर्क में रहता है। दूरदृष्टि एवं परा दृष्टि धक आवश्यक है। 

            हमारे ऋषि मुनियों की यही देन है। वे लक्षण शास्त्र में अत्यंत निपुण थे । व्यक्ति को देखकर उसके सात जन्म बता देते हैं। प्रकृति में हस्तक्षेप एवं अनुकूलता गुरु अध्यात्म अर्थात गायत्री की भाषा के द्वारा ही करते हैं। स्थान परिवर्तन, नाम परिवर्तन सम्बन्ध परिवर्तन इत्यादि इसी ज्ञान के अंतर्गत आता है। जैसे ही अध्यात्म की उच्च श्रेणी में व्यक्ति पहुँचता है गुरु उसका नाम तुरंत परिवर्तित कर देता है। इस प्रकार नवीन जीवन की शुरुआत हो जाती है, कभी-कभी तो जीवित व्यक्ति के अनेकों गूढ़ क्रिया कर्म सम्पन्न करने पड़ते हैं। जिससे कि पितृ दोषों का निवारण हो सके। नकारात्मक शक्तियों का केन्द्र बिन्दु बने व्यक्ति को स्थान परिवर्तन करा के पुनः स्थापित किया जाता है। जगह, भवन इत्यादि अनेकों बार विपरीत प्रतिफल स्थिति लिए होते हैं। प्रत्येक जगह पर विशेष चुम्बकीय बल, नक्षत्र बल इत्यादि क्रियाशील होते हैं। प्रकाश की भी स्थिति भिन्न होती है जिसके कारण व्यक्ति की सर्वोन्नति में नाना प्रकार की वाधाऐं पड़ती हैं। व्यक्ति रोग ग्रसित हो जाता है, जीवन कष्टप्रद एवं दुष्कर हो जाता है। ऐसी स्थिति में स्थान परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अतः अपने मस्तिष्क को केवल - मनुष्य की भाषाओं तक सीमित नहीं रखिए। कुण्डलिनी जागरण की यही पहचान है। 

               व्यक्ति झूठ बोलता है एवं इतना ज्यादा नकाब और बनावट लिए हुए होता है कि आसानी से उसका वास्तविक स्वरूप एवं वास्तविक लक्ष्य स्थूल दृष्टि से समझ पाना अत्यंत ही दुष्कर होता है। कुछ व्यक्ति तो इतने धूर्त और मक्कार होते हैं कि पुलिस भी उनसे सच नहीं उगलवा सकती। यही तो सबसे बड़ी समस्या है अंदर कुछ और बाहर कुछ ऐसे लाखों शिष्य मैंने देखे हैं जो कि सामने गुरु चरणों पर लोटेंगे और बाहर निकलते ही गुरु को अपशब्द बोलने में भी नहीं चूकेंगे। कुख्यात व्यक्तियों को समझने के लिए उनके आभामण्डल को देखना पड़ेगा। आभामण्डल कभी भी झूठ नहीं बोलता। उनके पास से आने वाली गंध को सूंघना पड़ेगा, उसकी संरचना समझनी पड़ेगी कि व्यक्ति कितना विषैला है। आँखें बंद करके एकाग्रता से, चुपके से, निर्विकार होकर उसके शब्दों को सुनना पड़ेगा जिससे कि समझ में आ सके कि व्यक्ति कहाँ से बोल रहा है। उसकी वाणी हृदय से आ रही है या फिर उसके मस्तिष्क में स्थित किसी षडयंत्रकारी केन्द्र से स्त्रावित हो रही हैं। यही भाषा विज्ञान है। यही गायत्री विज्ञान है। 

           सत्य को समझना ही ब्रहा विद्या है। जो गायत्री का साधक होगा वह दो मिनिट में सारे नकाब, सारे पर्दे और सारी बनावट भेदते हुए सामने वाले की नग्न एवं वास्तविक तस्वीर देख लेगा नहीं तो फिर निश्चित ही षडयंत्रों का शिकार होगा। जिसमें यह ताकत होगी वह शिकारी का भी शिकार करेगा। खुद शिकार करेगा, खुद शिकार नहीं बनेगा। शिकारी को स्वयं के जाल में ही उलझा देगा। सीधी सी बात है इस पृथ्वी पर यह दिक्कत नहीं है कि आपका मस्तिष्क शक्तिशाली है या नहीं। आपको आपके समय में क्रियाशील मस्तिष्कों को समझना पड़ेगा। उलट गायत्री भी होती है। तंत्र शास्त्र में उलट गायत्री भी होती है। यह कला मारण, मोहन, उच्चाटन एवं कीलन में काम आती है। इसका विस्तृत वर्णन कभी में करूंगा। यह अत्यधिक ही गूढ़ विद्या है। सवाल यह है कि दुष्ट व्यक्ति भी अत्यधिक साधनात्मक होते हैं। रावण से लेकर दुर्योधन तक सबके सब तीक्ष्ण साधक थे। इनकी साधनाऐं दुर्लभ एवं विकट थीं। ये सब अनुसंधानकर्ता, वैज्ञानिक, तत्वज्ञ, काल ज्ञानी इत्यादि थे। हिटलर अपने साथ तांत्रिकों एवं ज्योतिषियों की फौज फटाका लेकर चलता था। उसके सबसे विश्वसनीय तांत्रिक साथी का नाम था हिमलर। यह तथ्य द्वितीय विश्व युद्ध के इतिहास का एक प्रामाणिक अंश है। प्रत्येक जर्मन आक्रमण से पहले समय, काल, मुहूर्त इत्यादि का विशेष ध्यान रखा जाता था। जैसे ही व्यक्ति के पास मानसिक, वैचारिक एवं मस्तिष्कीय क्षमता का विकास होता है वह दूसरे मनुष्यों पर अधिकार जमाने की चेष्टा करता है बस यहीं पर कर्म के सिद्धांत पर चलने वाले मार खा जाते हैं।

जो ज्यादा ध्यान करेगा, अनुष्ठान करेगा, पूजन करेगा,तांत्रोक्त क्रियाएँ सम्पन्न करेगा वह उतना ही ज्यादा शक्ति अपने अंदर समेट लेगा। इस प्रकार अनेकों मनुष्य चलते फिरते शक्ति केन्द्र बन जाते हैं। बस इसी कारणवश ये अपने चुम्बकत्व के द्वारा घर परिवार, पड़ोसी, नाते, रिश्तेदार एवं अन्य सम्बन्धित मनुष्यों को परेशानी, अस्थिरता एवं विपरीत परिस्थितियों में डाल देते हैं। मस्तिष्क के खेल निराले हैं। अधिकांशतः व्यक्ति तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के कारण पतन की और अग्रसर हो जाते हैं, न तो इनका कोई गुरु होता है, न ही ये कवचित होते हैं बस परेशान होकर इधर-उधर भागते रहते हैं और अंत में जब पास आते हैं तो बुरी तरह से टूटे-फूटे एवं विक्षिप्त होते हैं। यही है कहानी इस समाज की। अतः आपको भी अपने मस्तिष्क को शक्तिशाली करना होगा। मस्तिष्क में आयी टूटनों को पुनः व्यवस्थित करने के लिए अनुष्ठान कराने होंगे, खुद भी एक व्यवस्थित साधनात्मक जीवन जीना होगा। 

           केवल पचास हजार का शौचालय बना लेने से काम नहीं चलेगा। बीस लाख का मकान बना लेने से काम नहीं चलेगा। जरूरी नहीं है कि बीस हजार के बिस्तर पर सुख की नींद आ जाये। सुन्दर पत्नी के होते हुए भी आप सुखी गृहस्थ हों आपको अपना पूजन कक्ष भी व्यवस्थित करना होगा, उसे शक्ति केन्द्र में परिवर्तित करना होगा, अपनी सात्विक शक्ति को बढ़ाना होगा। सब पक्षों पर पैसा खर्च आप लोग करते हैं परन्तु सारी कन्जूसी पूजन कक्ष के प्रति करते हैं। वहाँ पर गंगा जल भी उपलब्ध नहीं होता है। 99 प्रतिशत लोग तो पूजा कक्ष बनवाते ही नहीं है। सारे कक्ष घर के बढ़ाते जाते हैं परन्तु पूजा कक्ष को सिकोड़ते जाते हैं। ठीक है फिर भगवान को क्यों दोष देते हो। आजकल प्रथा चली है हाजिरी लगाने की। भारत सरकार के कार्यालयों में सुबह हाजिरी लगाने के बाद कर्मचारी से लेकर अफसरों ने इति श्री करने की परम्परा अपना ली। देखते ही देखते सरकारी उपक्रम बंद होने लगे, नई नियुक्तियाँ बंद हो गयीं और अब सरकार ने खीजकर सब कुछ प्राइवेट हाथों में देने का निर्णय कर लिया। इसे कहते हैं कर्तव्य के प्रति अन्याय। इतनी बड़ी सरकार खीज गई, घबरा गई, तनख्वाह देने के लिए पैसे भी नहीं बचे। जिस डाल पर बैठे हैं उसे ही काटना शुरू कर दिया लोगों ने। यह काहिलता का प्रतीक है। न्याय तो करना ही चाहिए। 

            गायत्री न्याय की भाषा बोलती हैं। न्याय अपने कर्म के प्रति अपने देश के प्रति, स्वयं के प्रति आप स्वयं के शरीर से अन्याय कीजिए उसकी भाषा समझना बंद कर दीजिए बस थोड़े ही दिनों में रोग ग्रस्त हो जायेंगे। शरीर भी बार-बार मूक भाषा में संदेश देगा। आप उसे अनसुना कर दें तो रोग ग्रस्त तो होंगे। मेरे गुरु ने कहा था कि मृत्यु भी अचानक नहीं आती है। अचानक कुछ भी नहीं होता है। अचानक शब्द जड़ता का प्रतीक है। सोये हुए व्यक्ति का प्रतीक है। गुरु एक नजर में समझ जाता है कि अनिष्ठ होने वाला है तुरंत ही महामृत्युंजय अनुष्ठान शुरू कर देता है। भाषा को समझना, गूढ़ संकेतों का विवेचन करना गुरु का प्रमुख कार्य है। हाजिरी की इस प्रथा से ईश्वर भी हाजिरी लगाने लगता है। मंदिर के सामने से निकल जाओ। बाहर से ही हाजिरी लगा लो तो ईश्वर भी हाजिरी लगा देगा उसे क्या पड़ी है, तुम्हारे जैसे बहुत घूमते हैं, गुरु भी हाजिरी लगा देगा। जैसा शिष्य होगा वैसा ही गुरु उसके साथ व्यवहार करेगा। एक जैन मुनि से मैं मिला। जैन मुनि अत्यंत ही साधनात्मक होते हैं। कठोर तप उनकी जीवन शैली होती है, उन्हें प्रकृति की भाषा का इतना ज्ञान था कि एक जगह उन्होंने लकड़ी मारी तुरंत ही उस गाँव में वहाँ से पानी का स्त्रोत फूट पड़ा। उनके साथ चल रहे सभी अनुयायियों ने उस स्थान से पानी ग्रहण किया। जिस स्त्रोत को वर्षों से गाँव वाले नहीं खोज पाये थे उसे मुनि महाराज ने एक क्षण में खोज लिया। आप भी भाषा विद् बने। 

                  जंगलों एवं वनों में विचरने वाले साधु संत जंगलों से बात करते हैं। दुर्लभ एवं दिव्य वन औषधियों से सम्प्रेषण करते हैं। कुछ ही क्षण में अमृतकारी औषधियों एवं जड़ी बूटियों के द्वारा कायाकल्प कर लेते हैं। यह उनका ज्ञान है। यह उनकी दृष्टि है। अब गधे के सामने घास डालों या गेंहूँ के पौधे उसे क्या फर्क पड़ता है। वह तो खेत भी घास समझकर चर जायेगा। यही तो विडम्बना है। सारी समस्या की जड़ है। गायत्री शक्ति को कम से कम अपने अंदर गायत्री मंत्र के द्वारा, गायत्री यंत्र के द्वारा, गायत्री यज्ञ के द्वारा गायत्री दीक्षा के द्वारा आत्मसात करने की कोशिश करें। जीवन का प्रत्येक आयाम सर्वोन्मुखी उन्नति की ओर अग्रसर होगा और पूर्णता प्राप्ति का मार्ग आपके लिए खुलेगा। यही इस लेख में मेरा मर्म है। सबका मंगल हो यही आकांक्षा है और कुछ नहीं।
                         शिव शासनत: शिव शासनत:

प्रेम प्रतीतिहि कपि भजे, सदा धरै उर ध्यान तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करें हनुमान ।।

          भक्ति से शक्ति, शक्ति के बाद भी भक्ति और भक्ति और शक्ति के समिश्रण से मुक्ति बस इन्हीं तीनों महायोगों से समस्त हनुमंत चरित्र की व्याख्या हो जाती है। हनुमंत मुक्तिदाता हैं असुरों के लिये। वे उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं उन्हें उनके तुच्छ कर्मों से मुक्त करते हैं वे भक्तों को रोग, शोक और वियोग से वे संरक्षक हैं ऋषियों, तपस्वियों और मुनियों के उन्हें वे भयमुक्त करते हैं असुरों के उत्पात से। उन्होंने ही मुक्त किया है लक्ष्मण और प्रभु श्री राम को नागपाश से। उन्होंने ही मुक्ति दिलाई है लक्ष्मण को मृत्यु से मुक्त कराने वाले हनुमंत ही हैं।माता सीता को घोर कष्टों से मुक्ति भी उन्होंने ही दिलाई है। विरह की अग्नि में व्यथित हो रहे प्रभु श्री राम के मुख पर भी पुनः मुस्कान स्थापित करने वाले श्री हनुमंत ही हैं। सुग्रीव के दुःखों की मुक्ति भी उन्होंने ही करवाई है।

            मुक्तिदाता वही है जो स्वयं मुक्त हो। मुक्त हो वह शरीर से मुक्त हो वह कार्य से मुक्त हो वह पद या सत्ता की लालसा से मुक्त हो वह रोग, शोक और वियोग से ऐसी विभूति तो केवल शिव ही हैं। शिव ही तो हनुमान हैं, तभी तो वह रुद्रांश कहलाते हैं। शिव का एक स्वरूप अर्धनारीश्वर रूप में भी हैं। हनुमान के हृदय में माता सीता और प्रभु श्री राम एक साथ युगल रूप में स्थापित हैं। माता सीता के अत्यंत दुलारे हैं वह उन्हें देखते ही माता सीता सब कुछ प्रदान करने को तत्पर हो जाती हैं जैसे कि माँ अपने बच्चे को सर्वस्व प्रदान करती है। रघुकुल की मर्यादा जब संकट में पड़ी तो श्री हनुमंत ने अपने बल पराक्रम, शक्ति के द्वारा प्रभु श्री राम की मर्यादा की रक्षा की। मर्यादा की रक्षा वही कर सकता है जो स्वयं मर्यादित हो। वे सदैव प्रभु श्री राम और माता सीता के चरणों के पास विराजमान रहते हैं। राम रूपी व्यवस्था उनके सानिध्य में पूर्ण रूप से सुरक्षित है। रक्षा ही उनका मुख्य ध्येय है।

              प्रभु श्री राम को प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम हनुमंत को ही पुकारना होगा उन्हीं के बताए मार्ग पर चलना होगा।वे प्रतीक हैं उस दिव्य मार्ग के जिस पर चल कर ही विष्णु लोक में पहुँचा जा सकता है।बैकुण्ठधाम के दर्शन उनकी कृपा के बिना सम्भव ही नहीं है। लक्ष्मण तो मन ही मन अपने सखा हनुमंत को देख मुस्काते रहते हैं। राम-रावण युद्ध के हर क्षण में वे लक्ष्मण के साथ कन्धे से कन्धा मिला संघर्षरत हैं। प्रभु श्री राम ने हनुमंत को गले भी लगाया है, आशीर्वाद भी प्रदान किया है, सखा के रूप में भी लिया है, उन्हें आज्ञा भी दी है, उनकी सभी सलाहें भी मानी है, कठोर से कठोर और दुर्गम से दुर्गम कार्य भी सम्पन्न करवाए हैं। माता सीता ने अपना महाकाली स्वरूप केवल हनुमंत को ही प्रदान किया है वे ही इस योग्य हैं जिनके मस्तिष्क पर माँ भवानी आरूढ़ हो सकती है। रावण जैसा दुष्ट प्राणी जो सबको कष्ट और ताड़ना ही देता था । उसे ताड़ना दी हनुमान ने एक पिता के लिये सबसे बड़ी ताड़ना यही है कि उसका पुत्र उसके सामने ही मृत्यु को प्राप्त करे। लंका में जा कर अक्षय कुमार का वध हनुमान ने ही किया है। उसके पश्चात तो समस्त ब्रह्माण्ड में हाहाकार मचा देने वाले रावण ने प्रतिक्षण ताड़ना ही सही है।

                 भगवान शिव का अघोरेश्वर स्वरूप हनुमंत में ही प्रतिबिम्बित होता है। असुर सेना के एक एक असुरों को उन्होंने उतनी ही निर्ममता से मारा है जितनी निर्ममता से दुष्ट असुरों ने इस जगत के अनेकों जीवों को मृत्यु प्रदान की है। अघोरेश्वर शिव में ही इतनी शक्ति है। कि वह दण्ड दे सकें कठोर से कठोर। हनुमंत ने सिर्फ दुष्टों का वध ही नहीं किया है बल्कि इनकी पाप आत्माओं को पचास हजार साल के लिये कैद में भी डाल दिया है। यह अत्यंत ही गूढ़ विषय है। पाप आत्माऐं अगर काराग्रह में नहीं डाली गयी तो वे दूसरे ही क्षण पुनः शरीर धारण कर ताण्डव मचाना शुरू कर देती हैं। श्री हनुमंत वायु पुत्र हैं, वे सूर्य को भी निगल जाने की क्षमता से युक्त हैं अतः वे ही अपने प्रचण्ड बल के द्वारा इन पाप आत्माओं को अंतरिक्ष में कहीं सुदूर ग्रह रूपी व्यवस्था पर ले जाकर बाँध सकते हैं। इसके पश्चात यह पाप आत्माऐं पृथ्वी तक पहुँच ही नहीं सकती हैं। शरीर के रूप में हनुमंत असुरों का वध करते हैं और अपने परम दिव्य बल के द्वारा दूसरे ही क्षण पाप आत्माओं को अनंत वर्षों के लिये काराग्रह भी प्रदान करते हैं।

           शिव के दण्ड उतने ही भीषण और प्रचण्ड हैं जितने कि उनके आशीर्वाद और वरदान। दिव्य रामत्व रूपी व्यवस्था तभी कायम रह सकती है जब असुर शक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था भी अत्यंत परिष्कृत हो। केवल गर्दन काट देने से काम नहीं चलता यह तो नितांत मूर्खतापूर्ण मानवीय सोच है। शरीर तो बस क्षण भंगुर है।

मुख्य कार्य  तो प्राण शक्ति का है। गाजर घास काट देने से वह नष्ट नहीं हो जाती है। कुछ समय पश्चात वह पुनः उग आती है। महाकाली ने जब रक्तबीज का वध किया तो वह उसके सम्पूर्ण लहु को भी पी गयी जिससे कि कोई दूसरा रक्तबीज उत्पन्न हाने न पाये। हनुमंत ने भी अनेकों बार असुरों के लहू का पान किया फिर भी वे जीवित रहे। उन्हें अमृत कला प्राप्त है। जैसे-जैसे वानर सेना घायल होती जाती वे पुनः संजीवनी विद्या के द्वारा उनके कटे हुए अंगो को पुनः उंगा देते। उनकी बुद्धि और चातुर्य की तो मिसाल ही नहीं है।

            दिव्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिये व्यवस्था अनुरूप ही बदलना पड़ता है और दुष्टों के संहार के लिये, दुष्ट व्यवस्थाओं को ध्वंस करने के लिये भी स्वरूप परिवर्तन करना पड़ता है। भगवान शिव पशुपति के रूप में भी वर्णित हैं। हनुमंत वानर रूप धारण किये हुए हैं फिर भी देवों से ज्यादा मर्यादित है। आखिरकार प्रभु श्री राम को वानर जाति में भी तो मर्यादा स्थापित करना है। वानरों को भी तो भोग कर्मों से मुक्त कर भक्ति मार्ग के पथ पर अग्रसर करना है। समस्त वानर सेना को मर्यादित, समर्पित और एकाग्रचित्त करने का कार्य प्रभु श्री राम ने हनुमंत के द्वारा ही सम्पन्न कराया है। असुरों से मनुष्य नहीं जीत सकते । हिरण्यकश्यप के वध के लिये तो विष्णु ने स्वयं नरसिंह स्वरूप धारण किया है।आधे पशु और आधे नर ।

        एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि प्रभु कलयुग में आप कौन सा तारक मंत्र मनुष्यों को प्रदान करेंगे जिसके सुनने पर वे समस्त पापों से मुक्त वैकुण्ठ धाम की ओर प्रशस्त होंगे। तब भूतभावन भगवान शिव बोले हे पार्वती कलयुग मैं तो बस " श्री राम जय राम जय जय राम " ही एक मात्र ऐसा तारक मंत्र होगा। इस महामंत्र का प्रभाव दिखाने के लिये उन्होंने तुरंत ही नारद जी को बुलाकर कुछ आज्ञा प्रदान की। भगवान शिव की आज्ञानुसार नारद जी तुरंत अयोध्या की ओर प्रस्थान कर गये उन्होंने हनुमान को बुलाकर कहा कि आज तुम राज दरबार में सबको प्रणाम करना परंतु ऋषि विश्वामित्र को प्रणाम मत करना हनुमंत ने उनकी बात मानते हुए ऐसा ही किया। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्रह्मऋषि बने हैं और प्रभु श्री राम के गुरु भी हैं। उन्हें हनुमंत के इस व्यवहार पर अत्यंत ही मलाल हुआ। नारद जी ने दूसरे ही क्षण हनुमंत के इस कार्य को विश्वामित्र के सामने अपमान के रूप में परिभाषित कर दिया फिर क्या था सुदूर कोने में दबी हुई क्रोधाग्नि पुनः प्रज्जवलित हो गयी। विश्वामित्र क्रोधावेश में सीधे श्री राम के पास पहुँचे और श्री हनुमंत को उनके अपमान जनक व्यवहार के कारण मृत्युदण्ड प्रदान करने की गुरु आज्ञा दी। प्रभु श्री राम समेत माता सीता और सभी प्रजाजन सकते में आ गये।

          एक ओर गुरु आज्ञा तो दूसरी और प्राणों से प्रिय भक्त, मित्र, पुत्र इत्यादि के रूप में श्री हनुमंत । प्रभु श्री राम के सामने उनके जीवन की यह सबसे बड़ी विकट स्थिति थी। हनुमंत को जब मालूम चला कि प्रात:काल प्रभु श्री राम उनका वध कर देंगे तो वे अत्यंत ही दुखी होकर नारद जी के पास पहुँचे। नारद जी ने कहा तुम व्यथित न हो। प्रातःकाल सरयु में स्नान कर तट पर सिर्फ " श्री राम जय राम जय जय राम " का पूरे मनोयोग से जोर-जोर से जप करते रहना । भोले श्री हनुमंत ने ऐसा ही करना प्रारम्भ कर दिया। श्री राम के साथ-साथ सभी सरयु के तट पर आये और फिर विश्वामित्र ने उन्हें बाण चलाने की आज्ञा दी। व्यथित मन से एक के बाद एक श्री राम ने बाण चलाने शुरू किये परन्तु हनुमंत का बाल बाँका भी नहीं हुआ। अंत में श्री राम ने गुरु आज्ञा से अग्निबाण के साथ-साथ अनेकों दिव्य अस्त्रों का भी प्रयोग किया इन पर हनुमंत जोर-जोर से जय श्री राम, जय श्री राम जपने लगे। वे सब दिव्य अस्त्र जिनसे कि समस्त ब्रह्माण्ड काँपता था निष्फल हो गये। अंत में उन्होंने गुरु का मान रखने के लिये ब्रह्मास्त्र उठाया इस पर नारद जी तुरंत विश्वामित्र के पास पहुँचे और शिव के द्वारा दी गयी आज्ञा से उन्हें अवगत कराया। सत्य जानने के पश्चात वे भी व्यथित हुए और उन्होंने स्वयं श्री राम को शस्त्र का उपयोग न करने की आज्ञा दी। प्रभु श्री राम उनकी आज्ञा सुन अत्यंत ही द्वंदमय स्थिति से उबर गये और इस प्रकार श्री राम जय राम जय जय राम जैसे दिव्य तारक मंत्र की महिमा पृथ्वी पर प्रकट हुई।

              हमारे देश में प्रात:काल, सुख दुःख की घड़ी में हम राम ही बोलते हैं और अंत में शरीर त्यागने के पश्चात अग्निदाह संस्कार के समय भी श्री राम का नाम ही भजा जाता है। मृत्यु के समय जिसके मुख पर प्रभु श्री राम का नाम होता है वही बैकुण्ठ धाम की यात्रा सम्पन्न करता है । घटनाओं का कभी भी अंत नहीं होता है। जो श्री राम के जमाने से हैं

वे आज भी प्रत्येक मनुष्य के जीवन में किसी न किसी स्वरूप में उपस्थित होती है। जिस प्रकार त्रेता युग में साक्षात् हनुमंत ने श्री राम के कष्टों का निवारण किया उसी प्रकार आज भी हनुमंत की शक्ति को आत्मसात कर हम अपने जीवन की विसंगतियों को समग्रता के साथ दूर कर सकते हैं। हनुमंत ने राम रूपी व्यवस्था में जो परम पद प्राप्त किया है वह उन्हें पारितोषिक में नहीं मिला है। प्रभु श्री राम का सानिध्य उन्होंने अपने बल पराक्रम, आज्ञापालन एवं समर्पण और भक्ति से प्राप्त किया है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे प्रभु श्री राम के साथ रहे हैं। हनुमंत अयोध्या वासी नहीं हैं। शिष्य कैसा होना चाहये यह सीखने के लिए हनुमंत के चरित्र को आत्मसात करना होगा। शिष्य को अपना धर्म निभाना चाहिये गुरु के धर्म की गुरु ही जाने जो श्रेष्ठ शिष्य है वही श्रेष्ठ गुरु है।

              राम ने कहा हनुमंत ने दूसरे ही क्षण उसका पालन किया किसी भी प्रकार का संशय असंशय उनके सम्बन्धों के बीच नहीं । परिवार, समाज, राष्ट्र और अंत में विश्व रूपी व्यवस्था तभी सफल है जब उसमें हनुमंत चरित्रम् का स्थायित्व भाव हो । अध्यात्म में भक्ति मार्ग के प्रणेता श्री हनुमंत ही हैं। उन्होंने ही राम के नाम की सत्यता स्थापित की है। लंका पर चढ़ाई करते समय मात्र राम लिख देने से पाषाण समुद्र के ऊपर तैरने लगे और सेतु का निर्माण हो गया। पाषाण क्यों तैरे क्योंकि उनके ऊपर हनुमंत द्वारा लिखे गये राम शब्द में भक्ति, श्रद्धा और समर्पण की शक्ति निहित थी । आप राम लिख दीजिए पाषाण कभी नहीं तैरेंगे। मंत्रों में छिपी शक्ति आपको चैतन्य करनी होगी उसके लिए आपका चरित्र भी हनुमंत की बराबरी का होना चाहिये।

               प्रभु श्री राम का पूजन सर्वप्रथम श्री हनुमान ने ही किया एवं यह पूजन अत्यंत ही तीव्र और शीघ्र परिणाम देने वाला है। हनुमंत प्रभु श्री राम का पूजन प्रतिक्षण मानसिक रूप से करते ही रहे। उनके द्वारा पूजन में लाया गया दुर्लभ स्त्रोत नीचे वर्णित कर रहा हूँ। इस स्त्रोत का पठन करने के लिए साधक के अंदर पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और भक्ति का होना अति आवश्यक है तभी यह स्त्रोत शक्ति युक्त हो उसे परमानंद प्राप्त करायेगा। इस स्त्रोत का पठन साधक प्रात:काल एवं संध्या के समय प्रतिदिन कर सकते हैं। स्त्रोत पाठ के लिए किसी विशेष मुहूर्त, काल इत्यादि की आवश्यकता नहीं है। स्त्रोत पाठ करने से पहले साधक को स्नान एवं अन्य शारीरिक शुद्धियाँ सम्पन्न कर लेनी चाहिये फिर अपने पूजाघर या किसी मंदिर में जहाँ श्री राम माता सीता समेत विराजमान हैं वहाँ पर पूर्ण एकाग्रचित्त मन से इस स्त्रोत का पाठ करना चाहिये। इस स्त्रोत का पाठ करते समय साधक को अपने मन में प्रभु श्री राम के दिव्य स्वरूप की इस प्रकार से कल्पना करनी चाहिए।

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ॥

कोसल पुरी के स्वामी श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर और कोमल दोनों चरण कमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं, श्री जानकी जी के करकमलों से दुलराये हुए हैं और चिन्तन करने वाले के मनरूपी भौरे के नित्य संगी हैं, अर्थात् चिंतन करने वालें का मन रूपी भ्रमर सदा उन चरण कमलों में बसा रहता है।

           साधकों को चाहिये कि वह सावधानी के साथ अपने चित्त को श्री अवध में ले चले। बड़ा सुन्दर रमणीय श्री अवधधाम है। अखिलभुवन मण्डल के एकछत्र सम्राट चक्रवर्ती महाराज भगवान श्री राघवेन्द्रजी की पुरी बड़ी रमणीय है । राम राज्य की सारी शोभा, राम राज्य की आदर्श समाजव्यवस्था श्री अवध में विद्यमान है। सभी ओर सब कुछ सुशोभित है। कलुषनाशिनी श्री सरयूजी मन्द मन्द वेग से बह रही हैं। श्री सरयूजी के तट पर श्री राघवेन्द का विहारोद्यान है। फलों और पुष्पों से सुसज्जित बड़ा सुन्दर बगीचा है। बगीचे में चारों ओर बड़े सुन्दर और मनोहर पुष्पों से सुशोभित वृक्ष हैं। उनमें भाँति-भाँति के पुष्प खिले हुए हैं। उनके विविध प्रकार के सौरभ से सारा उद्यान सुरभित हो रहा है। पुष्पों पर भौरे मँडरा रहे हैं। पुष्पों की रंग-बिरंगी शोभा से सभी ओर सुषमा छा रही है। फलों के वृक्ष विविध फलों के भार से लदे हैं। बीच में एक बड़ा मनोहर सरोवर है। सरोवर में कमल खिले हुए हैं। सरोवर के भीतर जलपक्षी केलि कर रहे हैं। चारों ओर सुन्दर सुन्दर घाट हैं।

सरोवर के उत्तर की ओर एक बड़ा सुन्दर कल्पवृक्ष है। वह सघन और फैला हुआ है। कल्पवृक्ष के नीचे बहुत सुन्दर स्फटिकमणि का सिंहासन बना हुआ है। चारों ओर विविध पुष्पों की लताऐं बिखरी हुई हैं। संध्या का समय है। बड़ी सुन्दर और सुगन्धित मन्द मन्द समीर बह रहा है। इस मनोहर पुष्पोद्यान में श्री राघवेन्द्र भगवान श्री रामचन्द्र जी और अखिल जगत जननी श्री जानकी जी नित्य संध्या समय पधारते हैं। उस समय उनके साथ कोई सेवक नहीं रहता, केवल हनुमान जी रहते हैं।

        आज भी भगवान श्री रामचन्द्र जी अपनी सारी सुषमा के साथ समस्त शोभाओं से युक्त विश्वजननी श्री जनक नन्दिनी के साथ पधारे हैं। भगवान बड़ी मन्दगति से धीरे धीरे सरोवर के निकट चले आते हैं। उनके पीछे-पीछे हनुमानजी हैं। श्री भगवान उत्तरतट की ओर पधारे हैं। शाखा प्रशाखाओं के सुन्दर वितानवाले कल्पवृक्ष के नीचे स्फटिकमणि की एक मनोहर पीठिका है। उस स्फटिक मणि के सुन्दर सिंहासन पर बहुत ही बढ़िया और सुकोमल दूर्वा के रंग का एक गलीचा बिछा हुआ है। उसके पीछे दो तकिये लगे हुए हैं। दोनों ओर दो सुन्दर मसनद हैं। चौकी के सामने नीचे की ओर चरण रखने के लिए दो पीठ (पीढ़े) सुसज्जित हैं। उन पर दो सुन्दर कोमल गद्दियाँ बिछी हुई हैं। सामने बायीं ओर थोड़ी दूर पर मरकतमणिकी नीची चौकी पर श्री हनुमान जी के लिए आसन हैं। भगवान श्री रामचन्द्र जी श्री जनकनन्दिनी जी के साथ गलीचे वाले स्फटिकमणि के सिंहासन पर विराजमान हो गये हैं।

         श्री हनुमान जी सामने बैठ गये हैं और भगवान श्री राम के नेत्रों की ओर किसी आज्ञा की प्रतीक्षा में टकटकी लगाकर देख रहे हैं। भगवान श्री राम का बड़ा सुन्दर स्वरूप है। भगवान के श्री अंग का वर्ण नील हरिताभ उज्जवल है। नीला, नीले में कुछ हरी आभा उस पर उज्जवल प्रकाश । केकीकण्ठाभनीलम् जैसे मयूर के कण्ठ की नीलिमा में हरित आभा होती है, चमकता रंग होता है, उसी प्रकार श्री भगवान के अंग का रंग नीलहरिताभ उज्जवल है। बड़ी ही सुन्दर आभा है। दिव्य चमकता प्रकाश । इसके पश्चात श्री हनुमान जी द्वारा रचित स्त्रोत पाठ करना चाहिये। स्त्रोत नीचे वर्णित है और साधकों की सुविधा के लिए उसका हिन्दी भावार्थ लिखा जा रहा है। अक्सर साधक आजकल धर्म के नाम पर फैलाई जा रही ऊट-पटांग विधियों के कारण संशय में आ जाते हैं। इनकी मुख्य जिम्मेदार आज के युग की आधी-अधूरी आध्यात्मिक पुस्तकें एवं उनके रचयिताओं का आधा-अधूरा ज्ञान है। स्त्रोत पाठ में मुख्य रूप से हृदय पक्ष ही सक्रिय रहता है। स्त्रोत पाठ के लिए किसी भी प्रकार की माला, यंत्र या अन्य सामग्री की कदापि जरूरत नहीं होती है साधक का एकमात्र कार्य सच्चे हृदय से ईष्ट का आह्वान स्त्रोत के रूप में करना होता है। पूजन तकनीकी नहीं होता है। कृपया तकनीक को पूजन से न जोड़ें। पूजन गणित का विषय नहीं है यह तो हृदय की विशुद्धता की प्रक्रिया है।

          यहाँ उन्हीं स्त्रोतों का वर्णन किया जाता है जो कि पूर्ण रूप से प्रामाणिक एवं वैदिक हों । कुछ धंधेबाजों ने वैदिक मंत्रों और स्त्रोतों के बारे में यह दुष्प्रचार मचा रखा है कि ये कीलित हैं। वास्तव में एक भी वैदिक स्त्रोत और वैदिक मंत्र कीलित नहीं है। कीलित तो सिर्फ आध्यात्मिक ठेकेदारों की बुद्धि है। सनातन धर्म को नष्ट करने का यह सबसे भयानक तरीका है। वेदों और वेद वर्णित स्त्रोतों को कीलित कहना मात्र सनातन धर्म को नष्ट करने की एक सोची समझी चाल है। असली माल के बारे में दुष्प्रचार कर ही दुष्ट नकली माल बेचते हैं। जिस दिन वेद मंत्र और वेदशास्त्र कीलित हो जायेंगे उस दिन प्रभु श्री राम, हनुमंत, विष्णु, ब्रह्मा, महाकाली, महालक्ष्मी, शिव इत्यादि सभी आदि शक्तियाँ कीलित हो जायेंगी। वेदों में ही समस्त शक्तियाँ निहित हैं। हिन्दू धर्म को जितना नुकसान बाहरी आक्रांताओं ने नहीं पहुँचाया है उससे ज्यादा नुकसान तथाकथित गुरुओं ने पहुँचाया है। अब तो कुछ गुरु रामायण, महाभारत और गीता जैसे पवित्र ग्रंथों को भी कीलित कहने लगे हैं। यह सब नर्कगामी व्यक्ति है। वेदान्त दर्शन ब्रह्माण्डीय दर्शन हैं। जिस दिन वेदिक मंत्र कीलित हो जायेंगे उस दिन समस्त ब्रह्माण्ड की क्रियायें भी कीलित हो जायेंगी। सभी सनातन धर्मियों से निवेदन है कि कृपया भ्रमित न हों एवं अपने। धर्म की रक्षा स्वयं करें।

हनुमान जी द्वारा रचित श्री राम स्तोत्र

ॐ नमो भगवते उत्तमश्लोकाय नम: आर्यलक्षणशीलव्रताय नम: उपशिक्षितात्मन उपासित लोकाय नमः साधुवादनिकषणाय नमो ब्रह्मण्यदेवाय महापुरुषाय महाराजाय नम: इति ।

यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् । प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं ह्यानामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥

मर्त्यावतारस्तिवह मर्त्यशिक्षणं रक्षोवधायैव न केवलं विभोः ।
कुतोऽन्यथा स्याद्रमतः स्व आत्मनः सीताकृतानि व्यसनानीश्वरस्य ॥

न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान् वासुदेवः ।
न स्त्रीकृतं कश्मलमश्नुवीत न लक्ष्मणं चापि विहातुमर्हति।।

न जन्म नूनं महतो न सौभगं न वाङ् न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः।
तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकसश्चकार संख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः।।

सुरोऽसुरो वाप्यथ वानरो नरः सर्वात्मना यः सुकृतज्ञमुत्तमम् ।
भजेत रामं मनुजाकृतिं हरिं य उत्तराननयत् कोसलान् दिवमिति।।


हम ॐ कार स्वरूप, पवित्र कीर्ति भगवान श्री राम को नमस्कार करते हैं, आप में सत्पुरुषों के लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयमित, लोकाराधनतत्पर, साधुता की परीक्षा के लिये कसौटी के समान और अत्यंत ब्राह्मण भक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज राम को हमारा पुनः पुनः प्रणाम। हे भगवान! आप विशुद्ध बोध स्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूप के प्रकाश से गुणों के कार्य रूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं का निरास करने वाले, सर्वान्तरात्मा, परम शांत, शुद्ध बुद्धि से ग्रहण किये जाने योग्य नाम रूप से रहित और अहंकार शून्य हैं; मैं आपकी शरण में हूँ। प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वध के लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना है। अन्यथा अपने स्वरूप में ही रमण करने वाले साक्षात जगदात्मा जगदीश्वर को सीताजी के वियोग में इतना दुःख कैसे हो सकता था। आप धीर पुरुषों के आत्मा और प्रियतम भगवान वासुदेव हैं, त्रिलोकी की किसी भी वस्तु में आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजी के लिये मोह को ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजी का त्याग ही कर सकते हैं। आपके ये व्यापार केवल लोकशिक्षा के लिये ही हैं। लक्ष्मणग्रज ! उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता, वाक्चातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि- इनमें से कोई भी गुण आपकी प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखाने के लिये ही आपने इन सब गुणों से रहित हम वनवासी वानरों से मित्रता की है। देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य कोई भी हो उसे सब प्रकार से श्री राम रूप आपका ही भजन करना चाहिये, क्योंकि आप नररूप में साक्षात श्री हरि ही हैं और थोड़े किये को भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रित वत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तर कोसलवासियों को भी अपने साथ ही ले गये थे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत: