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दिव्य दर्पणम् ।।

         क्या धर्म को समाप्त हो जाना चाहिए? क्या अध्यात्म रूपी कामधेनु को शिव लोक में पुनः प्रस्थान कर जाना चाहिए? क्या इस पृथ्वी के मनुष्य धर्म एवं अध्यात्म के योग्य हैं ? ब्रह्मा निर्मित जीव को क्या वास्तव में अध्यात्म की जरुरत है ? यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार घुमड़ता है क्योंकि मैंने अपने जीवन में अध्यात्म रूपी कामधेनु का सिवाय शोषण के कुछ भी नहीं देखा है। कभी-कभी मैं भगवती त्रिपुर सुन्दरी से प्रार्थना कर उठता कि अध्यात्म का विलोप कर दीजिए इस संसार से। इतना शोषण, इतना दोहन, इतनी ठगी, इतनी लूटपाट, इतनी कृत्रिमता, इतना पाखंड, इतना व्याभिचार समस्त संसार में अध्यात्म के नाम पर है जितना कि कहीं और नहीं। ऐसा क्यों? बार-बार मेरा मन व्यथित होता है। अन्य क्षेत्रों में हो तो चल जायेगा परन्तु कम से कम हमें भगवान शिव द्वारा प्रदत्त इस दिव्य कामधेनु को तो छोड़ देना चाहिए। मेरा मन दहल उठता है कि क्या करूं? क्या न करूं? जब दूरदर्शन पर सज संवरकर, बन ठनकर, माथे पर नकली चंद्रमा लगाकर बैठे पाखंडियों को देखता हूँ, नकली ज्योतिषियों को देखता हूँ, नकली तांत्रिकों को देखता हूँ, महाव्याभिचारी संतों और प्रवचनकर्ताओं को देखता हूँ। क्या कहूं? तीर्थों के भी यही हाल हैं। नर्क के दर्शन करने हों तो तीर्थ स्थल पर जाओ। मठाधीशों को देखता हूँ, मुझे शर्म आती है । 

           यह सब क्या है ? इन सब मार्गों पर चलकर किसे मोक्ष प्राप्त होगा? कौन स्वयं को समझेगा, कौन आत्म दर्शन करेगा। भीड़ जुटा लेने से प्रचार-प्रसार कर लेने से क्या निर्गुण परब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी ? क्या आपका हृदय आपको माफ करेगा? क्या जरुरत है धर्म की ? हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी या तो अध्यात्म को स्वास्थ्य प्रदान करो या फिर इसका लोप कर दो मेरा मन बार-बार कहता है। मैं देख रहा हूँ अध्यात्म की नृशंस हत्या होते हुए, अध्यात्म को मरते हुए, अध्यात्म को अंतिम श्वासें लेते हुए। ऐसा मत समझिये कि सिर्फ यह भारत वर्ष की कहानी है अपितु यह एक वैश्विक स्थिति है। भारत वर्ष में तो अभी भी अध्यात्म बाकी है एवं प्रत्येक काल में वास्तविक अध्यात्मविद होते ही हैं क्योंकि भारत वर्ष भगवान शंकराचार्य की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि है। पाश्चात्य देशों में, अफ्रीकी महाद्वीप में तो स्थितियाँ बद से भी बदतर हैं। जितनी इजराइल की आबादी है उससे कहीं ज्यादा हमारे देश में तथाकथित साधु-संत, ज्योतिषी, तांत्रिक-मांत्रिक पंडित इत्यादि हैं अब यह आपकी दिव्यता, यह आपके ऊपर भगवती त्रिपुर सुन्दरी की कृपा है कि आपको वास्तविक सद्गुरु प्राप्त हो जाये, सर्वज्ञ प्राप्त हो जाये।

        मैंने आदि शंकराचार्य जी को भगवान कहा है। वे साक्षात् भगवान हैं क्योंकि वे इस पृथ्वी पर नाचने गाने, खाने-पहनने, विवाह करने, संतानोत्पत्ति में लिप्त होने, माया मोह में पड़ने, पढ़ने-लिखने, ज्ञान प्राप्त करने इत्यादि के लिए नहीं आये हैं अपितु वे कुछ वर्षों के लिए इस पृथ्वी पर उदित हुए। कहीं कोई शक नहीं, कहीं कोई संशय नहीं, कहीं कोई समय की बर्बादी नहीं, कहीं कोई व्यर्थता नहीं बस स्पष्ट लक्ष्य एक वर्ष की आयु में पूर्ण विकसित हो गये, तीन वर्ष की आयु में समस्त वेद कंठस्थ कर लिए, आठ वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया, 16 वर्ष की आयु तक ब्रह्मसूत्र रच लिए, 32 वर्ष की आयु तक साक्षात् शरभेश्वर बन गये एवं श्री शरभ तंत्रम् में निपुण हो गये। श्री शरभ का तात्पर्य क्या ? सर्वप्रथम विष्णु ने नरसिंह अवतार के रूप में हिरण्यकशिपु की अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं उसकी अंतड़ियों को अपने गले में लपेट लिया माला के समान और उसके हृदय को अपने नखों से मसल दिया। दूसरी स्थिति में श्री शरभ ने नरसिंह को अपनी जंघा पर लिटाया और उसकी अंतड़ियाँ निकाल लीं एवं गले में लपेट लीं। अंतड़ियों का महत्व समझो। हिरण्यकशिपु घोर नास्तिक था, मनुष्य गर्राता क्यों है? मनुष्य गर्राता इसलिए है क्योंकि उसका पेट भरा हुआ होता है। जब अंतड़ियाँ भोजन से भरी हुई होती हैं तो जीव गर्राता है, नरसिंह भी गर्रा रहे थे अतः श्री शरभ ने उनकी अंतड़ियाँ निकाल लीं। अंतड़ियाँ अर्थात उदर अर्थात विष्णु का निवास स्थान। श्रीविष्णु यथा स्थिति बनाये रखते हैं जब तक पेट भरा रहेगा, जब तक जीव में खाने एवं पचाने की क्षमता रहेगी तब तक वह जीवित रहता है। 

          ठीक इसी प्रकार भगवान शंकराचार्य ने 32 वर्ष की उम्र में साक्षात् श्री शरभ बन जैन, बौद्ध, वैष्णव,तथाकथित कौल मार्गियों, भैरव-वादियों, पाशुपत्यों,नास्तिकों, दार्शनिकों, कर्मवादियों द्वैत वादियों इत्यादि के मूर्खता, लम्पटता एवं कलुषितता भरे हुए,शोषण करने वाले, पथ भ्रष्ट करने वाले,भटकाने वाले, उलझाने वाले सिद्धांतों एवं दर्शनों की अंतड़ियाँ निकाल लीं। इस प्रकार सबके सब शक्ति विहीन हो गये और एक बार फिर वेदांत का परम ब्रह्माण्डीय .

सिद्धांत लहरा उठा।इन सब ब्रह्माण्डीय सिद्धांत लहरा उठा। इन सब तथाकथित धर्मों का हृदय तो वास्तव में वेदांत से भरा हुआ था चाहे बुद्ध हों, महावीर, चर्वाक या राधाकृष्ण के उपासक ये सबके सब वास्तव में तो जो कुछ बने वे वेदांत के सिद्धांतों के कारण ही बने। इन्होंने वेदों में से चुराया, कुछ किराये के लेखक,आचार्य, दार्शनिक इत्यादि रखकर वेदों एवं उपनिषदों के ज्ञान को अपनी स्वार्थ सिद्धता के लिए थोड़ा बहुत हेर-फेर करके अपने अनुरूप ढाला और दूसरी तरफ वेदांत की ही आलोचना करने लगे इसलिए इनकी अंतड़ियाँ निकालना जरुरी हो गया। क्या है तुम्हारा सिद्धांत ? क्या है तुम्हारा दर्शन ? कौन है तुम्हारा तीर्थंकर ? क्या कहना चाहते हो? कहाँ पहुँचाओगे तुम अपने अनुयायियों को? आओ बैठो बैठकर तय कर लेते हैं कितनी आध्यात्मिक शक्ति है तुममे आओ देख लेते हैं, कितने तुम सिद्ध हो आओ बैठकर तय कर लेते हैं। भगवान शंकराचार्य ने सभी द्वैत वादियों से कह दिया आओ मैदान में फैसला कर लेते हैं अगर तुम जीत गये तो मैं तुम्हारा धर्म स्वीकार कर लूंगा अन्यथा नाटक बंद कर दो, बहुत हुआ नाटक ।

          गया में बौद्ध बड़ी शान से भगवान शंकराचार्य से वाद विवाद करने पहुँचे परन्तु थोड़ी देर में हार गये और शंकराचार्य के चरणों में लोट गये बोले प्रभु आप सर्वज्ञ हैं परन्तु हम इनका क्या करें? यह रहा भगवान बुद्ध का विग्रह इसे हमने पूजा है, इसकी हमने आती उतारी है, इसे हमने फूल माला पहनाई है अतः इसका सम्मान कीजिए अब ये आप की कृपा पर निर्भर हैं। यही हाल जैनाचार्यों एवं उनके विग्रहों का हुआ, यही हाल कृष्ण के विग्रह का हुआ, यही हाल गणेश के विग्रह का हुआ, यही हाल यम के विग्रह का हुआ, यही हाल विष्णु के विग्रह का हुआ, यही हाल कर्म के सिद्धांत का हुआ। भगवान शंकराचार्य ने कहा पूजो बुद्ध को, पूजो महावीर को, पूजो यम को, पूजो महासरस्वती को, पूजो लक्ष्मी माता को इन्हें पूजने में कोई बुराई नहीं है मैं किसी का विरोधी नहीं, मैं मूर्ति भंजक नहीं, मैं किसी सिद्धांत के अस्तित्व पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ, मैं धार्मिक उन्मादी नहीं हूँ, मैं किसी की आस्था पर ठेस नहीं पहुँचा रहा हूँ अपितु मैं तो सत्य कह रहा ।

            इनकी उपासना से तुम्हें सिद्धि मिल सकती है, इनकी उपासना से तुम्हारे सांसारिक लक्ष्य पूरे हो सकते हैं, इनकी उपासना से तुम्हारे कार्य भी बन सकते हैं परन्तु यह परब्रह्म परमेश्वर नहीं हैं, ये निर्गुण एवं निराकार नहीं हैं, ये मोक्ष नहीं दे सकते हैं, ये जन्म एवं मृत्यु के बंधन से तुम्हें मुक्त नहीं कर सकते। हाँ तुम्हें रास्ता बतला सकते हैं, तुम्हारी सहायता कर सकते हैं परन्तु इन्हें परब्रह्म परमेश्वर मत कहो, ये परम सत्ता नहीं हैं। इन सबका उदय कर्म के अंतर्गत हुआ है, एक निश्चित कार्य को सम्पन्न करने के लिए हुआ है अतः ये सब काल के अधीन हैं और कालान्तर ये सब काल कवलित हो जायेंगे। स्वयं गया में जो कि उस समय बौद्धों का तीर्थ था भगवान शंकराचार्य ने बुद्ध को विष्णु अवतार घोषित किया एवं उनकी वैदिक विधि से पूजा अर्चना प्रारम्भ करवाई। बौद्धों को यह सत्य बताया कि स्वयं बुद्ध ने अपने जीवन में वेदांत का ही सहारा लिया, समय एवं परिस्थितिनुसार वेदांत के मार्ग में आयी अशुद्धियों की तरफ लोगों का ध्यान इंगित किया परन्तु कोई नई बात नहीं कही। आदि शंकराचार्य ने एक ही बात कही कि ब्रह्माण्ड का समस्त ज्ञान वेदों में निहित है, वेदों से परे कुछ नहीं है। बताओ किसने क्या नया खोजा? क्या नया सिद्धांत गढ़ा? क्या नवीन मार्ग बनाया ? दिखाओ अपने मार्ग को। कोई नहीं दिखा सका, आचार्य ने तुरंत अपने शंख पर ओंकारनाद करते हुए समस्त मतावलम्बियों का पुनः शुद्धिकरण कर दिया और उन्हें वैदिक परम्परा में ले आये। 

        भगवान शंकराचार्य अपने साथ एक विलक्षण शंख रखते थे जिसमें से कि ओंकारनाद प्रस्फुटित होता था, जहाँ भी वे जाते सर्वप्रथम ओंकारनाद करके उस जगह का शुद्धिकरण कर देते। सर्वज्ञता इस शब्द को हमें समझना होगा। सर्वज्ञता अत्यंत ही विलक्षण है, सर्वज्ञता के अभाव में ही आधे-अधूरे सिद्धांतों से मस्तिष्क लिप्त होता है। सर्वज्ञता का तात्पर्य है माया के आवरण से सर्वथा मुक्त, जब आँखों में सर्वज्ञता आ जाती है तो चाहे कितने भी घने मेघ क्यों न हों हम उन्हें भेदकर सूर्य के दर्शन कर लेते हैं। चाहे कितनी भी घोर अंधेरी रात क्यों न हो हम दूरस्थ वस्तु को देख लेते हैं। जो सर्वज्ञ होता है वह अपने अंदर ईश्वर के प्रतिबिम्ब को कभी भी, कहीं भी, किसी भी स्थिति में प्रदर्शित करने में सक्षम होता है। वह परब्रह्म परमेश्वर का दर्पण बन जाता है जिसमें उसका प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से आप देख सकते हो। सर्वज्ञता एक ऐसा दिव्य दर्पण है जो कि सामने वाले का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं दिखाता अपितु उसके वास्तविक स्वरूप को प्रदर्शित करता है।.

एक साधारण दर्पण केवल बिम्ब का प्रतिबिम्ब दिखाता है अगर एक वृद्ध बाल काले करके, चेहरे पर सौन्दर्य प्रसाधन लगाकर, कुछ स्वांग करके, कुछ बाजीगरी करके, कुछ ढँककर, किसी विशेष स्थिति में खड़े होकर दर्पण में देखता है तो वह युवा लग सकता है परन्तु जिसने सर्वज्ञता प्राप्त कर ली उसकी आँखों का दर्पण उस वृद्ध के रंगे हुए बालों, उसके सौन्दर्य प्रसाधन इत्यादि को भेदकर उसकी वृद्धता के दर्शन कर लेगा। वह पहचान जायेगा कि तुम वृद्ध हो, तुम जर्जर हो, तुम क्षय को प्राप्त हो चुके हो, तुम मृत्यु धर्मा हो, तुम युवा नहीं हो, तुम जाने वाले हो, तुम्हारी वास्तविकता छिपी नहीं है। यही शंकराचार्य ने किया उन्होंने पृथ्वी पर उगे कृत्रिम धर्मों की वृद्धता पहचान ली, कृष्कायता पहचान ली, शक्तिहीनता पहचान ली। 

         हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी नित्या केवल इस जगत में आप ही हैं बाकी सब स्वांग है। स्वांग एवं वास्तविकता में बहुत फर्क है। अब आज के किसी अभिनेता को अगर शंकराचार्य के जीवन का अभिनय करने के लिए कह दिया जाय तो वह चलचित्र के पर्दे पर भगवान शंकराचार्य का इतना सटीक अभिनय कर देगा कि शिवलोक में बैठे शिव भी शरमा जायेंगे। अभिनय की कला हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी आपने ही जीवों को प्रदान की है। हे भगवती तेरे चरण से 360 कलायें निकलती हैं जिनमें से मात्र 5 ही निवृत्ति कला हैं अर्थात निवृत्त करती हैं, मोक्ष मार्ग की तरफ जातक को अग्रसर करती हैं बाकी बची 355 कलाएं तो भोग मार्ग की हैं और उन्हीं में से एक कला अभिनय की भी है। अभिनय भी भोग का माध्यम है परन्तु अभिनेता, अभिनेता है वह शंकराचार्य नहीं है। वह तो कुछ भोग के लिए शंकराचार्य का स्वांग कर रहा है। हमें यह समझना होगा कि जितने भी कृत्रिम धर्म है वे सबके सब अभिनय कला से युक्त हैं, अभिनय कर रहे हैं मोक्ष प्रदान करने का परन्तु स्वयं मुक्त नहीं हैं वे क्या मोक्ष देंगे? किसे परब्रह्म चाहिए? यह सोचने का विषय है। 

        आवश्यकता अविष्कार की जननी है यह बात शंकराचार्य जी ने भी समझाई। अब धर्म क्षेत्र में द्वैत इतना अधिक क्यों बढ़ गया? क्योंकि लोगों को द्वैत चाहिए। लोगों को द्वैत क्यों चाहिए? यह भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा है। यह समस्त ब्रह्माण्ड भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच है, वे ही माया प्रपंच की संचालिका हैं यह बात हमें समझनी होगी। अब सभी मोक्ष की तरफ अग्रसर हो जायेंगे तो भगवती त्रिपुर सुन्दरी का माया प्रपंच कैसे चलेगा? अतः सृष्टि चलाने के लिए तो माया प्रपंच आवश्यक है जैसी भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इच्छा। वे सगुण परब्रह्म हैं, ह्रीं उनका मंत्र है। दूसरी तरफ निर्गुण, निराकार, निष्प्रपंच, निष्कलंक आद्य हैं और यह भी सत्य है कि वे नित्य हैं। आचार्य शंकर एक तरफ तो परम शिवोपासक हैं, संन्यासी हैं, हाथ में चंद्रमौलिश्वर लेकर चलते हैं। तो दूसरी तरफ भगवान शंकराचार्य भगवती त्रिपुर सुन्दरी के परम आराधक हैं। उनके द्वारा स्थापित सभी मठों में आज भी श्रीयंत्र की तांत्रोक्त पूजा अवश्यम्भावी है। एक तरफ वे निर्वाण षट्कम लिखते हैं तो दूसरी तरफ सौन्दर्य लहरी का गान कर रहे हैं। भगवती त्रिपुर सुन्दरी के एक-एक अंग का वर्णन कर रहे हैं, उनके सौन्दर्य में डूबे हुए हैं। स्वयं भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने उन्हें प्रकट होकर स्तन पान कराया है यही द्वंद है। निर्गुण ब्रह्म भी चाहिए एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी भी चाहिए। सगुण एवं निर्गुण के इसी खेल में बस जीव उलझ जाता है। सर्वज्ञता इसी में है कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी की आराधना के द्वारा जीव और शिव के बीच पड़े तीन आवरण रूपी मल अर्थात पर्दों को हटाया जाय और निर्गुण परम ब्रह्म के दर्शन किए जायें। निर्गुण परब्रह्म तक पहुँचने के लिए सगुण परब्रह्म के रास्ते से ही जाना होगा। .
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना में गुरु की आवश्यकता ।।

1:- मंत्र साधना के लिए गुरु धारण करना श्रेष्ट होता है.अगर गुरु न मिले तो भगवान शिव को गुरु मानकर साधना करें । 
2:- साधना से उठने वाली उर्जा को गुरु नियंत्रित और संतुलित करता है, जिससे साधना में जल्दी सफलता मिल जाती है.
3:- गुरु मंत्र का नित्य जप करते रहना चाहिए।अगर बैठकर ना कर पायें तो चलते फिरते भी आप मन्त्र जप कर सकते हैं।
4:- रुद्राक्ष या रुद्राक्ष माला धारण करने से आध्यात्मिक अनुकूलता मिलती है।
5:- रुद्राक्ष की माला आसानी से मिल जाती है आप उसी से जप कर सकते हैं।
6:- गुरु मन्त्र का जप करने के बाद उस माला को सदैव धारण कर सकते हैं।इस प्रकार आप मंत्र जप की उर्जा से जुड़े रहेंगे और यह रुद्राक्ष माला एक रक्षा कवच की तरह काम करेगा।

गुरु के बिना साधना

1:- स्तोत्र तथा सहत्रनाम साधनाएँ बिना गुरु के भी की जा सकती हैं।
2:- जिन मन्त्रों में 108 से ज्यादा अक्षर हों उनकी साधना बिना गुरु के भी की जा सकती हैं।
3:- शाबर मन्त्र तथा स्वप्न में मिले मन्त्र बिना गुरु के जप कर सकते हैं।
4:- गुरु के आभाव में स्तोत्र तथा सहत्रनाम साधनाएँ करने से पहले अपने इष्ट या भगवान शिव के मंत्र का एक पुरश्चरण यानि सवालाख जप कर लेना चाहिए।इसके अलावा हनुमान चालीसा का नित्य पाठ भी लाभदायक होता है।
    
मंत्र साधना करते समय सावधानियां
   
1:-मन्त्र तथा साधना को गुप्त रखें, ढिंढोरा ना पीटें, बेवजह अपनी साधना की चर्चा करते न फिरें।
2:- गुरु तथा इष्ट के प्रति अगाध श्रद्धा रखें। 
3:- आचार विचार व्यवहार शुद्ध रखें।
4:- बकवास और प्रलाप न करें।
5:- किसी पर गुस्सा न करें।
6:- यथासंभव मौन रहें,अगर सम्भव न हो तो जितना जरुरी हो केवल उतनी बात करें।
7:- ब्रह्मचर्य का पालन करें,विवाहित हों तो साधना काल में बहुत जरुरी होने पर अपनी पत्नी से सम्बन्ध रख सकते हैं।
8:- किसी स्त्री का चाहे वह नौकरानी क्यों न हो, अपमान न करें.
9:- जप और साधना का ढोल पीटते न रहें, इसे यथा संभव गोपनीय रखें।
10:-बेवजह किसी को तकलीफ पहुँचाने के लिए और अनैतिक कार्यों के लिए मन्त्रों का प्रयोग न करें।
11:- ऐसा करने पर परदैविक प्रकोप होता है जो सात पीढ़ियों तक अपना गलत प्रभाव दिखाता है।
12:- इसमें मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों का जन्म , लगातार गर्भपात, सन्तान ना होना , अल्पायु में मृत्यु या घोर दरिद्रता जैसी जटिलताएं भावी पीढ़ियों को झेलनी पड़ सकती है।
13:- भूत, प्रेत, जिन्न,पिशाच जैसी साधनाए भूलकर भी न करें, इन साधनाओं से तात्कालिक आर्थिक लाभ जैसी प्राप्तियां तो हो सकती हैं लेकिन साधक की साधनाएं या शरीर कमजोर होते ही उसे असीमित शारीरिक मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है।ऐसी साधनाएं करने वाला साधक अंततः उसी योनि में चला जाता है।
14:-गुरु और देवता का कभी अपमान न करें।

मंत्रजप में दिशा,आसन,वस्त्र का महत्व

1:- साधना के लिए नदी तट, शिवमंदिर, देविमंदिर, एकांत कक्ष श्रेष्ट माना गया है।
2:- आसन में काले या लाल कम्बल का आसन सभी साधनाओं के लिए श्रेष्ट माना गया है।
3:- अलग अलग मन्त्र जाप करते समय दिशा, आसन और वस्त्र अलग अलग होते हैं।
4:- इनका अनुपालन करना लाभप्रद होता है।
5:- जप के दौरान भाव सबसे प्रमुख होता है,जितनी भावना के साथ जप करेंगे उतना लाभ ज्यादा होगा।
6:- यदि वस्त्र आसन दिशा नियमानुसार न हों तो भी केवल भावना सही होने पर साधनाएं फल प्रदान करती ही हैं।

साधना के विघ्न और उपाय .....

जीवन में उन्नति के तीन मार्ग ....
ज्ञान, कर्म और भक्ति.....

1: ज्ञान में होश है॥
2: कर्म में उपलब्धि॥
3: और भक्ति में समर्पण है॥

अतः तीनों ही जीवन को पूर्णता की ओर ले जाते हैं॥
पर मानव को तो कर्म करने का ही अधिकार मिला है॥

और वास्तव में यह बहुत बड़ा अधिकार है॥
इसके चार भाग भाव, इच्छा, कर्म और फल
इन सभी का शोधन योग का विषय है। 

साधना काल में हम बहिमुर्खता से अंतमुर्खता में 
जब आते हैं और आत्म स्वरूप अवस्था ग्रहण करते हैं।

साधना में सफलता प्राप्ति सहज नहीं होती अनेक विघ्न आते....

साधना के विघ्न और उपाय .....

विघ्नों को दूर करने के उपाय

1.तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाSभ्यास:

योग के उपरोक्त विघ्नों के नाश के लिए 
एक तत्त्व ईश्वर का ही अभ्यास करना चाहिए
ॐ का जप करने से ये विघ्न शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

2. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुख दुःख 
पुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम् 

सुखी जनों से मित्रता, दु:खी लोगों पर दया, पुण्यात्माओं में हर्ष और पापियों की उपेक्षा की भावना से चित्त स्वच्छ हो जाता है और विघ्न शांत होते हैं।

3. प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य:

श्वास को बार-बार बाहर निकाल कर रोकने से उपरोक्त विघ्न शांत होते हैं इसी प्रकार श्वास भीतर रोकने से भी विघ्न शांत होते हैं।

4. विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी

दिव्य विषयों के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न नष्ट होते हैं।

5. विशोका वा ज्योतिष्मती

हृदय कमल में ध्यान करने से या आत्मा के प्रकाश का ध्यान करने से भी उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।

6. वीतरागविषयं वा चित्तम्

रागद्वेष रहित संतों, योगियों, महात्माओं के शुभ चरित्र का ध्यान करने से भी मन शांत होता है और विघ्न नष्ट होते हैं।

7. स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा

स्वप्न और निद्रा के ज्ञान का अवलंबन करने से, अर्थात योगनिद्रा के अभ्यास से उपरोक्त विघ्न शांत हो जाते हैं।

8.यथाभिमतध्यानाद्वा
उपरोक्त में से किसी भी एक साधन का या शास्त्र सम्मत अपनी पसंद के विषयों में ध्यान करने से भी विघ्न नष्ट होते हैं।

योग-साधना में 14 प्रकार के विघ्न ....

व्याधिस्त्यान-संशय-प्रमाद-आलस्य-अविरति-भ्रान्तिदर्शन।
अलब्धभूमिकत्व अनवस्थितत्वानि चित्त विक्षेपस्ते अंतराया:।
दु:ख-दौर्मनस्य अङ्गमेजयत्व‌-श्वास-प्रश्वासा विक्षेप सह्भुवः॥

1. व्याधि 
शरीर एवं इन्द्रियों में किसी प्रकार का रोग उत्पन्न हो जाना।

2. स्त्यान 
सत्कर्म साधना के प्रति होने वाली लापरवाही, अप्रीति, जी चुराना।

3. संशय 
अपनी शक्ति या योग प्राप्ति में संदेह उत्पन्न होना।

4. प्रमाद 
योग साधना में लापरवाही बरतना।

5. आलस्य 
शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना नहीं कर पाना।

6. अविरति 
वैराग्य की भावना को छोड़कर सांसारिक विषयों की और पुनः भागना।

7. भ्रान्ति दर्शन 
योग साधना को ठीक से नहीं समझना विपरीत अर्थ समझना सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझना।

8. अलब्धभूमिकत्व 
योग के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होना। 
योगाभ्यास के बावजूद भी साधना में विकास नहीं दिखता है इससे उत्साह कम हो जाता है।

9. अनवस्थितत्व 
चित्त की विशेष स्थिति बन जाने पर भी उसमें स्थिर नहीं होना।

10. दु:ख 
तीन प्रकार के दु:ख 
आध्यात्मिक,आधिभौतिक और आधिदैविक।

11. दौर्मनस्य 
इच्छा पूरी नहीं होने पर मन का उदास हो जाना या मन में क्षोभ उत्पन्न होना।

12. अङ्गमेजयत्व‌ 
शरीर के अंगों का कांपना।

13. श्वास 
श्वास लेने में कठिनाई या तीव्रता होना।

14. प्रश्वास 
श्वास छोड़ने में कठिनाई या तीव्रता होना॥ .

आनंद केंद्र :--

      आनंद केंद्र फुफ्फुस के नीचे, ह्रदय का पार्श्ववर्ती स्थान है । यह थाइमस ग्रंथि का प्रभाव क्षेत्र है । हठयोग में , इसे अनाहत चक्र कहा जाता है । योग विद्या के अनुसार, इसके 12 दल है । उनमें से प्रत्येक में , एक - एक वृत्ति का वास माना गया है । जैसे --- आशा, चिंता, चेष्टा, ममता, दंभ, चंचलता, , विवेक, अहंकार, लोलुपता, कपट, वितर्क और अनुपात ।

      एक जैन ग्रंथ में , ह्रदय कमल आठ पंखुडि़यों वाला बतलाया गया है । प्रत्येक पंखुडी़ में , एक-एक वृत्ति रहती है । जैसे ----- कुमति, जुगुप्सा, भक्षिणी, माया, शुभमति, साता, कामिनी और असाता। पंखुडि़यों पर, मनुष्य के भावों का परिवर्तन होता रहता है । उसके आधार पर, नाना प्रकार की , वृत्तियां प्रकट होती रहती है । .

प्रेमोपासना ।।

     प्रेम की डगर सबसे सरल भी है और सबसे कठिन भी है। प्रेम को समझते समझते जीवन का अंत हो जाता है। एक-एक श्वास लेने के लिए प्रेम की आवश्यकता है। प्रेम हर तरह की प्रक्रिया सम्पन्न कराता है। कहाँ नहीं है प्रेम हर क्रिया में छुपा हुआ है। बस सभी प्रपंचों और माया, मोह के पीछे प्रेम ही तो है। सभी को प्रेम की जरूरत है और सभी प्रेम करते हैं। पैसे से भी प्रेम होता है, स्त्री से भी प्रेम होता है और क्यों न हो स्त्री इस ब्रह्माण्ड की सबसे खूबसूरत एवं विलक्षण अनुकृति है। प्रेम बच्चों से भी होता है, टुकड़ों टुकड़ों में ही प्रेम सर्वप्रथम प्रकट होता है, होना भी चाहिए परन्तु ईश्वर से भी प्रेम होना चाहिए। ईश्वर शरीर में ही विद्यमान है इसीलिए शरीर भी प्रेम होना चाहिए। प्रतिक्षण प्रेमकला सीखनी चाहिए। प्रेमकला को परिष्कृत करते रहना चाहिए। प्रेम कदापि पाप नहीं है। जैसे-जैसे प्रेमभाव परिष्कृत होता जायेगा, गतिमान होता जायेगा उच्चता प्राप्त होती जायेगी। भौतिक जगत में या फिर आध्यात्मिक जगत दोनों में ही प्रपंचों की कमी नहीं है। सृष्टि ही अपने आप में प्रपंच है। सभी क्रियाऐं, सभी सम्बन्ध, सभी कार्य मात्र प्रपंच है। बस इन सब प्रपंचों को सम्पन्न करते हुए प्रेमभाव बना रहे यही मोक्ष है।

          श्री कृष्ण की शरण में रहना है तो प्रेम करना सीखना ही पड़ेगा प्रेम में वह ताकत है जो कि बुद्धि, तर्क, ज्ञान और कर्म की शक्ति के ऊपर या इनके क्षेत्र के ऊपर चेतना को ले जाने में समर्थ हो। मैंने भी बस प्रेम ही प्रेम किया है। स्वयं से, पत्नी से, गुरु से प्रेम करना ही मेरी नियति है। सर्वप्रथम प्रेम करना सोखो जो व्यक्ति सीधे ईश्वर से प्रेम की बात करते हैं वे पाखण्डी हैं। जब किसी से प्रेम नहीं होगा, किसी जीव या मनुष्य के लिए प्यार की भावना नहीं होगी, पत्नी को प्रेममयो कोश प्रदान करने का सामर्थ्य नहीं होगा तो फिर ईश्वर से क्या प्रेम करोगे। ईश्वर के बाद ही परमेश्वर आता हैं अर्थात श्रीकृष्ण । श्रीकृष्ण सभी से प्रेम कर रहे हैं। उनकी सभी पत्नियाँ उनके प्रेम में लीन हैं, गोपियों के वह प्रेम स्त्रोत्र हैं। अनंत सात्विक मुनिजन और योगीजन कृष्ण को प्रेम सुधा का पान कर रहे हैं। अर्जुन भी उन्हें प्रिय हैं और दुर्योधन को भी देख वे मुस्कुरा रहे हैं।

           प्रेम में धोखा नहीं होता है। प्रेम कभी धोखा नहीं खाता जो धोखे की बात करते हैं वे स्वांग करते हैं। उनके पास प्रेम की कमी है। प्रेम की शक्ति ऐसे लोगों के पास कम विकसित होती है और अपेक्षाकृत बुद्धि और तर्क की शक्ति ज्यादा विकसित होती है तभी तो गणित लगाते हैं। गणित लगाने वाले नफा नुकसान, धोखा और छल की बात करते हैं। प्रेम की विशेषता यह है कि वह विशुद्ध कृष्णत्व अर्थात उसमें जो मिलाओगे वैसा ही स्वरूप दिखाई पड़ने लगेगा। जैसे ही प्रेम आप के पास प्रकट होगा आप उसमें प्राप्ति मिला लो तो फिर प्रेम प्राप्ति की लालसा को इतना प्रबल कर देगा कि आप प्राप्ति के लिए पागल हो जाओगे। आसक्ति आपका चरित्र बन जायेगा। इसी प्रेम को अगर मान अपमान की भावना के प्रति लगा दोगे तो फिर आपका सारांश भी मान अपमान में उलझकर रह जायेगा। प्रेम विशुद्ध है। इसमें विवेक और ज्ञान के अंश नहीं होते। वास्तव में प्रेम को उतारने के लिए माध्यम की ही संरचना देखी जाती है। कामी व्यक्ति में अगर प्रेम उमड़ता है तो फिर वह स्त्री लोलुप होगा ही।

             सभी कृष्ण के अधीन हैं। इसीलिए मैं कह रहा हूँ मैं कृष्ण की शरण में हूँ अर्थात प्रेम की शरण में अर्थात हे कृष्ण! तुम ही अर्जुन के समान मेरे भी विकारो को नष्ट करो और मुझे मोह विहीन करते हुए, प्रपंच विहीन करते हुए मात्र मेरी तुच्छ प्रेम शक्ति को स्वयं के श्री चरणों की तरफ केन्द्रीयकृत करो। मैं भी प्रेम की परम्परा को प्राप्त करूंगा। प्रेम न हो तो भोजन पचाना भी मुश्किल है। कृष्ण सर्वज्ञ है। सभी कोषों में वे विराजमान हैं। पंचेन्द्रिय प्रेम के अभाव में अंतेन्द्रिय प्रेम क्या होगा? हे कृष्ण ! मुझे प्रेममयी व्यक्तियों का सानिध्य प्रदान करो जो मुझे भी प्रेम करे। प्रत्येक तल पर मेरे मर्म को समझे। केवल शरीर को ही प्रेम न करे बल्कि मेरे अन्य स्वरूपों को भी प्रेम करे। जिस-जिस तल पर प्रेम पहुँचता जाता है वह तल तृप्त होता जाता है। वर्षा का जल जैसे ही भूमि पर गिरता है ऊपरी सतह सर्वप्रथम तृप्त होती है इसके पश्चात् धीरे- धीरे गहराई तक सभी तल तृप्त होते जाते हैं और अंत में इस तृप्ति के पश्चात् ही जल भूमि में संचित हो पाता है और वह भी इसलिए कि अतृप्ति की स्थिति आने पर पुनः तृप्ति प्रदान की जा सके फिर भी वर्षा की आवश्यकता निरंतरता के साथ चाहिए। ठीक इसी प्रकार अगर वासना के तल पर या शरीर के तल पर प्रेम प्राप्त नहीं होता तो फिर अध्यात्म के तल पर ईश्वर के प्रति प्रेमोपासना असम्भव है।

अधिकांशतः आध्यात्मिक व्यक्ति इसलिए भ्रष्ट हो जाते हैं। गृहस्थ जीवन से भागते हैं पर धन, ऐश्वर्य, स्त्री इत्यादि के प्रति मन में अतृप्तता होने के कारण वे पुनः ईश्वर द्वारा वापस प्रपंचों में फेंक दिये जाते हैं परमेश्वर सर्वप्रथम मनुष्य या जीव से यह चाहता है कि वह जीवन के अन्य आयामों में प्रेम करना सीखे। उन्हें प्राप्त करे, उनसे पूर्ण रूप से तृप्त होने के पश्चात ही । परमेश्वर से प्रेमोपासना सम्पन्न करे।

           प्रेम के विशुद्ध स्वरूप में भागीदारी की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए अगर आपके मन में या प्रेम में कहीं भी थोड़ी सी भी लिप्तता परमेश्वर महसूस करते है तो वह आपकी प्रेमोपासना स्वीकार नहीं करते। अर्जुन के साथ भी ऐसा ही हुआ है उसे भी प्रपंचों से मुक्त होना पड़ा, घिसी पिटी सम्बन्धों की व्याख्या एवं रक्त मोह के साथ-साथ शरीर मोह से भी मुक्त होना पड़ा। बार-बार अनेक दार्शनिकों ने कहा है कि मस्तिष्क के परे भी कुछ है। मस्तिष्क उसी परे द्वारा निर्मित, नियंत्रित एवं विकसित है। मस्तिष्क से परे मस्तिष्क नहीं है यह बात सत्य है। मस्तिष्क से मस्तिष्क के परे की व्याख्या हो भी नहीं सकती। मस्तिष्क जीवन के लिए आवश्यक हो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है। मस्तिष्क के अभाव में भी जीवन है। हमारी पृथ्वी पर मस्तिष्क विहीन वृक्ष हैं, मस्तिष्क विहीन अनेकों जीव हैं। मस्तिष्क कोई बहुत जरूरी चीज नहीं है। उत्कृष्टता का भी मस्तिष्क से कोई लेना देना नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए कम्प्यूटर जरूरी नहीं है। कम्प्यूटर भी मस्तिष्क तुल्य हो रहे हैं। तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपने मस्तिष्क के साथ कम्प्यूटर बांध लें। मस्तिष्क से उत्पन्न प्रोद्यौगिकी, मस्तिष्क से नियंत्रित प्रोद्यौगिकी, मस्तिष्क के साथ-साथ आती जाती रहेगी। मस्तिष्क स्वयं में भी पूर्ण जीवी नहीं है। मस्तिष्क काल के अनुसार, परिस्थिति के अनुसार छोटा बड़ा, कम ज्यादा या गोल और चपटा होता रहता है। अभी एक मस्तिष्क है दो मस्तिष्क भी हो सकते हैं और दस भी। एक मस्तिष्क का जितना आयतन है उसका आधा आयतन भी हो सकता है। मस्तिष्क को पहले समझो बाद में प्रेम की बात करेंगे।

        मस्तिष्क से परे क्या है कुछ भी नहीं बस प्रभु श्री कृष्ण ! कृष्ण हैं तो प्रेम है अन्यथा मस्तिष्क । कृष्ण कला अर्थात प्रेम ही मस्तिष्क की खुराक है। उसे पाकर ही मस्तिष्क का रोम-रोम तृप्त होता है और झूम उठता है। मस्तिष्क को बस कृष्ण चाहिए। कृष्ण की लीला चाहिए। कृष्ण का उत्पादन चाहिए। कृष्ण का उत्पादन ही प्रेम है। प्रेम को ग्रहण करने के लिए ही पाँच किलो का मस्तिष्क धड़ के ऊपर लगा है। मस्तिष्क का प्रत्येक तंतु कृष्ण के प्रेम को ग्रहण करने का कार्य ही सम्पन्न करता हे पंचेन्द्रियाँ कृष्ण के द्वारा प्रदर्शित दृश्य, ध्वनि, संयोग, आवेग, प्राप्ति इत्यादि-इत्यादि को ही संस्पर्शित करने के लिए निर्मित होती हैं। सभी बाह्य अंग कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही क्रियाशील हैं। कृष्ण सभी जगह हैं। भौतिक और अभौतिक दृश्यों संयोगों एवं अल्पकालीन स्थूलताओं का निर्माण और नियंत्रण कृष्ण के हाथ में ही है। भोजन भी संतुष्टि प्रदान करता है। भोजन के रूप में भी तृप्ति पाना आवश्यक है। अतः उन अंगों का भी विकास हो गया जो कि भोजन से जीवात्मा को तृप्त करते हैं। इस प्रक्रिया में अंत में क्या बचता है। मात्र तृप्ति और सब कुछ बाहर निकल जाता है। जीवात्मा एक भी क्षण तृप्ति के बिना नहीं रह सकती। तृप्ति ही श्री कृष्ण हैं । पूर्णता ही श्री कृष्ण है।

            प्रपंची शरीर जीवात्मा ने इसलिए धारण किया है कि प्रपंच में भी श्रीकृष्ण विराजमान हैं। छलो, प्रपंचों द्वारा ही श्री कृष्ण को प्राप्त करें। ऐसा करना पड़ता है तभी तो भोजन, पानी, वायु, विवाह इत्यादि-इत्यादि सभी कुछ अनंतकाल से चली आ रही व्यवस्थाऐं जीव को सम्पन्न करनी ही पड़ती हैं। मस्तिष्क में क्या रुकता है? मात्र संतुष्टि और उससे ऊपर तृप्ति । कई लाख लीटर पानी पी लो जीवन भर परन्तु मस्तिष्क में सिर्फ तृप्ति ही रुकेगी। पानी सबका सब निकल जायेगा। तृप्ति क्यों? क्योंकि तृप्ति ही प्रेम का फल है अर्थात श्रीकृष्ण का प्रसाद । श्री कृष्ण जब प्रसन्न होंगे तो प्रसाद में प्रेम ही प्राप्त होगा। प्रेम के उत्पादक, प्रेम के प्रसारकर्ता और प्रेम के नियंत्रक प्रभु श्री कृष्ण ही हैं इसीलिए प्रेम की शरण में जाना कृष्ण धाम जाने का मार्ग पकड़ना है। मैं आपसे कहूँ कि आप मुझे प्यार करें आप कभी नहीं करेंगे। ज्यादा से ज्यादा स्वांग कर लेंगे। किसी के कहने से कोई प्रेम नहीं कर सकता। किसी से जोर जबरदस्ती के द्वारा प्रेम नहीं करवाया जा सकता हाँ बस स्वांग अवश्य किया जा सकता है। प्रेम की प्राप्ति, प्रेम का उत्पादन एवं प्रेम को ग्रहण करना जीव के वश में नहीं है और न कभी होगा। प्रेम बिकाऊ नहीं है। श्री कृष्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। उनकी प्राप्ति प्रेम की प्राप्ति है। मस्तिष्क को संवेदनशीलता इतनी ज्यादा क्यों है क्योंकि श्रीकृष्ण दुर्लभ हैं। जब प्रभु श्री कृष्ण ही दुर्लभ हैं तो फिर उनका प्रसाद प्रेम दिव्यतम है इसलिए तो मनुष्य और जीव येन केन प्रकारेण प्रतिक्षण इस सृष्टि के प्रत्येक प्रपंच में से कृष्णत्व ग्रहण करते रहते हैं। सोने का एक कण भी स्वर्ण आभा युक्त होता है तो वहीं समुद्र के पानी की एक बूंद भी खारी होती है। कृष्ण की खोज, कृष्णत्व की प्राप्ति ही मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका का ध्येय है। श्वास-प्रश्वास से लेकर अध्यात्म साधना तक सभी कुछ कृष्ण की चौंसठ कलाओं के दर्शन और प्राप्ति के लिए ही सम्पन्न किए जाते हैं। यही विराट स्वरूप का रहस्य है। यह रहस्य इतना गूढ़ है कि इसे समझते ही आप मस्तिष्क से परे हो जाऐंगे। दुर्योधन, शिशुपाल, शकुनि, धृतराष्ट्र से लेकर भीष्म पितामह तक सबके सब इसीलिए क्रियाशील हुए कि उन्हें कृष्णत्व की प्राप्ति चाहिए थी और यह सब कृष्ण को प्राप्त करने के लिए इस हद तक गिर गये कि मानवता के हिसाब से नीच से नीच कर्म सम्पन्न कर डाले।

          कृष्ण को अपशब्द कहना, कृष्ण को नकारना, कृष्ण से ऊपर उठने की बात करना, कृष्ण का तथाकथित अपमान करना, कृष्ण से युद्ध की लालसा रखना इत्यादि इत्यादि यह सब भी तरीके हैं, विधियाँ हैं कृष्ण को प्राप्त करने की, कृष्ण के द्वारा मृत्यु प्राप्त करने की। एक भी मस्तिष्क कृष्ण को नहीं नकार सकता क्योंकि वह सर्व नियंता है। व्यर्थ की उछलकूद, व्यर्थ की क्रियाऐं सब कुछ संकेत करती हैं मस्तिष्क के अंदर कहीं दूर गहरे में कृष्ण के प्रति छटपटाहट की। यही छटपटाहट कौरवों को कुरुक्षेत्र में खींच लाई। चलो अब युद्ध क्षेत्र में ही कृष्ण को प्राप्त करें। युद्ध के द्वारा ही कृष्ण की दृष्टि हम पर पड़े। युद्ध के द्वारा ही कृष्ण का सानिध्य पायें। कृष्ण से संस्पर्शित होना ही सबको नियति है इसीलिए तो बाणों से जख्मी भीष्म पितामह बिना किसी शिकायत के कृष्ण को देखकर हाथ जोड़कर नमन कर रहे हैं और गौरवान्वित हो रहे हैं अपनी तथा कथित शारीरिक मृत्यु पर क्योंकि वह साक्षात् ही कृष्णावतार के द्वारा प्राप्त हुई। ऐसी मृत्यु अत्यंत दुर्लभ है। कृष्ण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना अत्यंत ही दुर्लभ है।

          86 हजार वर्षों में कुछ हजार साक्षात् कृष्णावतार का साक्षात्कार कर पाते हैं और उनमें से कुछ कृष्ण की उपस्थिति में मृत्यु को प्राप्त करते हैं। आध्यात्म अत्यंत ही विचित्र है। मृत्यु कृष्ण प्रदान करें यह परम पद दिव्य योगियों को ही प्राप्त होता है। दुर्योधन विकट योगी था। कई दिनों तक वह जल के अंदर समाधिस्थ होने की प्रक्रिया जानता था। साधारण मानव नहीं था वह। कृष्ण भगवान हैं जब-जब मनुष्य गीता को भगवान के द्वारा उद्धृत दिव्य वचनामृत के रूप में लेगा उसे कुरुक्षेत्र में साधकों की प्रचण्डता दिखाई पड़ेगी। एक के बाद एक अनंत वर्षों से साधना में लीन दिव्य विभूतियाँ कृष्ण के समीप प्राणोत्कर्ष करती हुई दिखाई पड़ेगी। यही मुक्ति है। जैसे-जैसे महाभारत में वर्णित विभूतियाँ प्राणों को तजती जायेंगी वे हाथ जोड़ते हुए कृष्ण के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करती हुई कृष्ण धाम की ओर प्रस्थान करती हुई दिखाई पड़ेंगी। उन सबके अंदर यही भाव होगा कि बस अब बहुत हुआ पंचेन्द्रियों और अंतेन्द्रियों के द्वारा टुकड़े-टुकड़े में कृष्णत्व की प्राप्ति। अब जाकर पूर्ण रूपेण कृष्ण प्राप्त हुए जान बची प्रपंचों से स्वयं कृष्ण ने मुक्त कर दिया जीवात्मा को शरीर रूपी बंधनों से इसी दिन और इसी क्षण की तो अनंत वर्षों से हमें प्रतीक्षा थी। यही विशुद्ध प्रेम है। न जाने कब इसकी प्राप्ति होगी। इसी में तो मैं लगा हूँ। यही भाव है एक आध्यात्मिक साधक के रूप में प्रेम की डगर ही मेरी डगर है। कृष्ण ही मेरी मंजिल हैं। उन्हें प्राप्त करना ही मेरा ध्येय है। चाहे विधि कोई भी हो, विधान कुछ भी हो, कुरुक्षेत्र कहीं भी हो मुझे यह भी परवाह नहीं है कि मैं कौरवों की तरफ खड़ा हूँ या पाण्डवों की तरफ क्या फर्क पड़ता है? कहीं भी खड़े रहो। कुरुक्षेत्र में तो कृष्ण की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। कृष्ण का सानिध्य तो कुरुक्षेत्र में मिलेगा ही। यहीं मेरी खोज समाप्त होती है।

          प्रेम के लिए अब स्त्री के पीछे भागने की जरूरत नहीं है। मनुष्यों से प्रेम की अपेक्षा नहीं है ये सब मुझे प्रेम नहीं दे सकते। प्रेम इनके पास है ही नहीं तो ये क्या देंगे। वे स्वयं भीड़ में खड़े प्रेम की भिक्षा मांग रहे हैं। भिक्षुक भिक्षुक को क्या देगा ? आपने देखा है सभी बुद्ध से लेकर महावीर, शिव और अन्य तपस्वी भिक्षापात्र लेकर चलते हैं।

भिक्षापात्र इसलिए कि उसमें भगवान श्रीकृष्ण प्रेमरस टपकाते हैं। भिक्षापात्र में भौतिक वस्तुऐं नहीं मांगी जाती। कोई भी तपस्वी या साधक हाथ फैलाए इसलिए नहीं खड़ा है कि उसे रोटी खिला दो। कम से कम वे सब इतने तो प्रकाशवान हो गये हैं कि रोटी के लिए हाथ नहीं फैलाते। गुरु की दृष्टि तो बस उन शिष्यों को खोजती है जो कि रोटी के साथ-साथ प्रेम भिक्षा पात्र में डाल देते हैं। मनुष्य भी कृष्ण का अंश है। न जाने कब किसमें कृष्णभाव विकसित हो जाये और रोटी भी कृष्ण का प्रसाद अर्थात प्रेम बनकर प्राप्त हो जाए। प्रेम ही वास्तविक भूख है एक गुरु की। वह तब तक भूखा है जब तक उसे प्रेम प्राप्त नहीं हो जाता। यही जीवन का रहस्य है। 84 लाख योनियों में अनंत काल तक भटकने की व्यथा है। कहीं न कहीं किसी न किसी योनि में तो कृष्ण मिल जायें। पूर्णता प्रदान कर दें। कहीं न कहीं कृष्ण भाव से जागृत गुरु प्राप्त हो जाय।

      कृष्ण जगद् गुरु हैं। जगद् गुरु प्रेम का केन्द्र है और गुरु या सद्गुरु रूपी जीवात्माऐं उनकी प्रतिनिधि । इन्द्रियां थक जाती हैं, शरीर शिथिल हो जाता है, मन व्याकुल हो जाता, है आत्मा त्रस्त हो जाती है, कृष्ण की प्राप्ति के लिए। इन्तजार सबसे कठिन क्षण होता है। साधक या मनुष्य के पास प्रतीक्षा में के अलावा क्या है इंतजार इंतजार बस इंतजार और कुछ भी नहीं मालुम है कभी-कभी मन को बहलाने के लिए दिल को तसल्ली देने के लिए हम प्रेम ढूंढने लगते हैं मनुष्यों में, जीवों में, वनस्पतियों में परन्तु ये सब हमारी ही तरह कतार में लगे हुए हैं। बस सबने अपनी-अपनी विधियाँ, अपने-अपने विधान, अपने-अपने आयाम और ज्ञान के कोष विकसित कर रखे हैं। कृष्णत्व की प्राप्ति के लिए सभी प्रतिक्षण क्रियाऐं करते रहते हैं कृष्ण को आकर्षित करने के लिए क्योंकि आकर्षण मात्र श्री कृष्ण में है।

          कर्म क्या है? किसने इसे बनाया है, कौन इन्हें सम्पादित करवा रहा है? क्यों हम सम्पादित कर रहे हैं, इसकी बात करते हैं ऐसा कर्म हमें क्यों मिला। क्यों हम प्रपंचों में, समस्याओं में उलझे हुए हैं। यह सारी बातें ही तो अर्जुन के दिमाग में घुमड़ रही हैं। क्यों मुझे यह युद्ध करना पड़ रहा है। वो यही सोच रहा है। सीधी सी बात है प्रेम जिसने जितना प्रेम अर्जित कर लिया उसी हिसाब से कर्म मिलते हैं। प्रेम की प्राप्ति ही कष्टों का कारण है कष्ट बार-बार याद दिलाते हैं कि और कर्म सम्पादित करो। जीवात्मा शरीर को शांत नहीं बैठने देती है। जीवात्मा का एकमात्र उद्देश्य है परमात्मा की प्राप्ति चूंकि वह इस पृथ्वी पर शरीर में विद्यमान है अत: शरीर को तब तक गतिशील बनाऐ रखती है जब तक कि वह परमात्मा से मिलन का माध्यम नहीं बन जाता है। ध्यान रहे शरीर जीवात्मा के नियंत्रण में है। और जीवात्मा परमात्मा के नियंत्रण में अर्थात प्रभु श्रीकृष्ण के नियंत्रण में जीवात्मा की भूख विशुद्ध प्रेम है। वह प्रेमसागर की मछली है। शरीर और योनियों का विकास जीवात्मा मात्र प्रेम की प्राप्ति के अनुसार ही करती है।

              जैसे ही शरीर माध्यम के रूप में अनुपयोगी होता है जीवात्मा उसे त्यागकर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। अतः कर्म जीवात्मा के द्वारा शरीर से सम्पन्न कराये जाते हैं। जीवात्मा को मालुम होता है एक न एक दिन कृष्णावतार होगा। जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है शरीर की। शरीर उसका क्षेत्र हैं ठीक इसी प्रकार परमात्मा सर्वज्ञ के क्षेत्रज्ञ हैं। अंत में सभी जीवात्माऐं श्रीकृष्ण को ही प्राप्त करती हैं। ऊपर वर्णित इस आलेख से आपको आपके मस्तिष्क, आपके कर्म और आपके शरीर की औकात समझ में आ रही है। कृपया अपने आप को अति बुद्धिमान, अति चतुर एवं तथाकथित महान और गुरुघंटाल समझने की कोशिश न करें। द्रोपदी अत्यंत ही प्रिय थी श्रीकृष्ण को उसमें इतना प्रकाश था कि वह कृष्ण को समझती थी। जिसमें प्रेम होगा वही कृष्ण के करीब होता है। एक बार वन में दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ द्रोपदी के पास पधारे दुर्वासा क्रोध में आकर कब क्या कर बैठें यह सर्वविदित है। क्रोधी व्यक्ति में प्रेम की चाह अत्यंत ही तीव्र होती है। क्रोध इसलिए आता है क्योंकि प्रेम वर्षा के अभाव में मानस मरुस्थल हो गया होता है।

जो जीवात्मा जितनी ही प्रेम के लिए व्याकुल होती है वह अपनी व्याकुलता शरीर के माध्यम से क्रोध, द्वेष, हिंसा, अत्याचार इत्यादि नकारात्मक रूप में प्रकट करती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक नवजात शिशु माँ के सानिध्य के लिए अत्यंत ही दिल हिला देने वाला, नसें फाड़ देने वाला व्याकुल प्रलाप करता है।

          दुर्वासा को देखकर द्रोपदी कांप उठी क्योंकि रसोई की थाली में मात्र कुछ चॉवल के दाने पड़े थे। प्रेममयी द्रोपदी ने तुरंत ही कृष्ण का आहवान किया। ध्यान रहे प्रेम के अभाव में दो कौड़ी की पाखण्डी पूजा पद्धतियाँ मात्र बकवास हैं। समय व्यर्थ करने के साधन एवं अंत में कुण्ठित और निराश होने के कारण बनते हैं। अधिकांशतः साधक इसलिए पूजा विधानों को कोसते हैं और भगवान को गालियाँ देते हैं। पैट्रोल के अभाव में कितनी भी आधुनिक और परिष्कृत वाहन क्यों न हों वह कभी गतिमान नहीं हो सकती। चाबी उमेठते रहो बैटरी डाउन हो जायेगी पर वाहन गतिमान नहीं होगा। द्रोपदी का प्रेममय आह्वान सुन अगले ही क्षण कृष्ण ने पाँच-छ: चॉवल के दानों को इतना प्रेममय बना दिया कि दुर्वासा और उनके शिष्य तृप्त हो गये। वास्तव में दुर्वासा की भूख का कारण भोजन न होकर श्री कृष्ण प्राप्ति है और द्रोपदी के पास श्री कृष्ण की विशेष कृपा है। उस कृपा के अंशात्मक प्रभाव से ही महाक्रोधी दुर्वासा के अंदर उपस्थित जीवात्मा तृप्त हो गई। तृप्त हो गये तभी तो आशीर्वाद देने लगे। तृप्त व्यक्ति ही आशीर्वाद दे सकता है। प्रेममयी व्यक्ति ही दीक्षा दे सकता है। दीक्षा, आशीर्वाद, ज्ञान, कृपा इत्यादि-इत्यादि का उत्पादन प्रेम के द्वारा ही सम्भव है।

         प्रेम ही आदान प्रदान का मार्ग है। जैसे ही जीवात्मा प्रेम की प्राप्ति करती हैं वैसे ही वह उत्पादक हो जाती है। जिस जीवात्मा को जितना ज्यादा कृष्ण का सानिध्य प्राप्त होता है वह उतना ही श्रेष्ठ उत्पादन या फल उत्पन्न करती है। यही योनियों की विशेषता है। वही योनि सर्वश्रेष्ठ है जो कि गुरु फल का उत्पादन करती है। मनुष्य श्रेष्ठ इसलिए है क्योंकि उसमें गुरुओं का उत्पादन होता है। आम्र वृक्ष में भी गुरुफल लगते हैं। गौ इसलिए पूजनीय है कि वह अमृतधारा का उत्पादन करती है। उस अमृतधारा का जिसे श्रीकृष्ण भी द्वापर में पान कर रहे हैं देखिए गौ वंश कितना भाग्यशाली है। साक्षात् भगवान श्री कृष्ण उन्हें वंशी की धुन सुना रहे हैं उनके साथ वन में विचर रहे हैं, उनके साक्षात् रखवाले हैं एवं उनके थन से अपने श्री मुख के द्वारा सीधे दुग्धपान कर रहे हैं। गौओं के दूध से निकला माखन उन्हें इतना प्रिय है कि उसे भी वह निकाल- निकाल कर खा रहे हैं इसीलिए गौऐ अत्यंत तृप्त लगती हैं। सभी चौपायों में वे अत्यंत ही शांत, मधुर और अहिंसक हैं इसलिए वे पूजनीय हैं। गौ योनि अत्यंत ही दुर्लभ योनि है। जिस भी जीव ने गौ योनि को प्राप्त किया वह सीधे परमधाम को ही पधारता है। यह योनि श्री कृष्ण द्वारा संस्पर्शित अर्थात पूर्ण रूपेण दीक्षित है, संस्कारित है इसीलिए गौ वंश की सेवा से बड़ा कोई पुण्य ही नहीं है।

        सोचिए उन निशाचरों के बारे में जो कि गौ वंश की हत्या करते हैं। ऐसे मनुष्य और जीव अनंत अनंत काल तक प्रेम के लिए छटपटाते हुए नर्क तुल्य कष्ट झेलते हैं। पापों से मुक्ति के उपाय अत्यंत ही सरल हैं। उन्हें ही प्रेम कीजिए जिन्हें श्री कृष्ण ने स्वयं विशुद्ध प्रेम किया है। श्री कृष्ण ने प्रेम किया है गौओं से, गोपियों से, सुदामा से, अर्जुन से, द्रोपदी से और पाण्डवों से इत्यादि-इत्यादि । प्रेम पर अनुसंधान करना है, प्रेम की चाहत है तो फिर श्रीकृष्ण के जीवन पर अनुसंधान करो, उनकी लीलाओं को समझो, गीता का ज्ञान ग्रहण करो, जो-जो प्रभु श्रीकृष्ण को प्रिय है उन्हीं का सानिध्य प्राप्त करो। बस प्रेममयी बन जाओ। यही गुरु बनने की कला है। यही दीक्षा प्रदान करने की तकनीक है। यही सभी तरफ प्रिय बनने का रहस्य है। मनुष्यों के हृदय में प्रियता के साथ वास करना चाहते हों तो कृष्ण की शरण में जाओ।