Follow us for Latest Update

ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि । तन्नो कालिका प्रचोदयात ॥

           ॐ कृष्णकायाम्बिकाय विद्महे पार्वती रूपाय धीमहि । तन्नो कालिका प्रचोदयात ॥ यही वह मंत्र है जिसके द्वारा भगवती कालिका को अर्घ्य प्रदान कर जगद् गुरु श्रीकृष्ण एवं श्रीविद्योधारक भगवान दत्तात्रेय मंदिरापान के दोष से मुक्त हुए, इसी मंत्र के द्वारा परशुराम जिन्होंने कि अपनी माता का वध किया था मातृ वध के महापाप से मुक्त हुए। राम एवं हनुमान ने जब इस मंत्र से महाकालिका का तर्पण किया तब जाकर वे ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए, काशी में कालभैरव भी ब्रह्मा के शिरोच्छेदन के कारण ब्रह्म-हत्या के पाप से इसी मंत्र के द्वारा मुक्त हुए, उनके पीछे भी कृत्या लग गई थी। यही वह महामंत्र है जिसे जब बुद्ध ने सिद्ध किया तब उग्रतारा के रूप में भगवती प्रत्यंगिरा का प्राकट्य हुआ और वेद-निंदा के पाप से बुद्ध का बुद्धत्व मुक्त हुआ। इसी महामंत्र को पढ़कर जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कलकत्ता की वेश्याओं की आँखों में शक्तिपात किया तो क्षण भर में ही वेश्यावृत्ति में लीन वेश्याओं के समस्त पाप धुल गये, वे निर्मल हो गईं, उनका हृदय परिवर्तन हो गया एवं रामकृष्ण मिशन के निर्माण की प्रारम्भिक अवस्था में इन पवित्र स्त्रियों ने तन- मन-धन से असीम योगदान दिया। 

           प्रवचनकर्ता कहते हैं माया मल है, मल से ढँका शिव जीव है। कहने से क्या होता है ? कहते रहो। लाओ वह साबुन, वह डिटर्जेंट, वह परम औषधि जो कि मन पर लगे तन पर लगे, आत्मा से चिपटे,मस्तिष्क में घुसे, हृदय पर आरूढ़ मल को धो सके, धब्बों को मिटा सके तब तो कोई बात हैं। हम बदरंग हो रहे हैं, हम धूमिल हो रहे हैं, हम बदबू मार रहे हैं क्योंकि मल में से बदबू आती है खुशबू नहीं, मल सड़ान्ध उत्पन्न करता है अतः हम सड़ रहे हैं, मल गलाता है अत: हम गल रहे हैं। मल हमें अछूत बनाता है, मल हमें तिरस्कृत बनाता है अतः कहने से कुछ नहीं होगा अपितु इस मल का निवारण चाहिए। हे भगवती कालिका तु ही मल का निवारण कर सकती हैं, तू ही मल का भक्षण कर सकती है, तू ही हमें मल-चक्र से बचा सकती है। किसी ने मुझस कहा हमारे लड़के का पूजा में मन नहीं लगता भगवान में उसे विश्वास नहीं है, उसका भगवान पर से विश्वास उठ गया है। मैने कहा तुम कहती हो परन्तु वास्तव में सत्य यह है कि भगवान का तुम्हारे बेटे में मन नहीं लगता, भगवान को तुम्हारे बेटे में विश्वास नहीं रहा, भगवान तुम्हारे बेटे से दूर हो गया है इसलिए वह भोग रहा है, भटक रहा है, दर-दर की ठोकरें खा रहा है। मैंने कहा जब मेरी तुम्हारे बेटे में रुचि नहीं है, मैं उस पर विश्वास नहीं करता, मेरा विश्वास उस पर से उठ गया है तो फिर भगवान तो बहुत दूर की बात है। 

            भगवान तो मनुष्य को बनाया और उसे कृपा करके इच्छा-स्वातंत्र दिया अतः भगवान मनुष्य के इच्छा स्वातंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है। इच्छा भगवान ने ही दी है अतः मनुष्य अपनी इच्छानुसार जीवन जी सकता है जैसी उसकी मर्जी इच्छा-स्वातंत्र को समझना जरूरी है आप चाहो तो चार मंजिला इमारत पर खड़े होकर छलांग लगा सकते हो आपकी इच्छा एवं आपका परिणाम आप चाहो तो चार मंजिला इमारत पर खड़े होकर छलांग लगाने वाले को रोक सकते हो, आप चाहो तो चार मंजिला इमारत भी बना सकते हो जैसी आपकी इच्छा एवं यह श्री प्रत्यंगिरा के लेख का रहस्य बिन्दु है। आप चाहो तो प्रत्यंगिरा की शरण में रह सकते हो और अपनी इच्छा को श्री कालिका इच्छा, श्री त्रिपुरा इच्छा में विलीन कर स्व-इच्छा का त्याग कर परा-इच्छा के अंतर्गत आनंदमय कोष में भी रह सकते हो। तब जीवन द्वंद-विहीन होगा, तब जीवन शत्रु विहीन होगा, तब जीवन भय विहीन होगा तब जीवन असुरक्षा- विहीन होगा क्योंकि आपके साथ महाप्रत्यंगिरा चलेगीं। 

        शिव की कोई इच्छा नहीं है, शिव इच्छा विहीन है इसलिए प्रत्यंगिरा उनके साथ खड़ी रहती हैं। विष्णु भी इच्छा विहीन है इसलिए महामाया के रूप में प्रत्यंगिरा उनके साथ रहती हैं। महाजल प्रलय के समय वट वृक्ष के पत्ते के ऊपर अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए श्री बाल मुकुन्दम मुस्कुरा रहे थे और मार्कण्डेय ने देखा कि पीछे साक्षात् महामाया स्वरूपिणी महा प्रत्यंगिरा खड़ी हुई हैं एवं बाल मुकुन्दम को निर्भयता प्रदान कर रही हैं। चिंता मत कर मैं हूँ न, मैं ही कर्ता मैं ही धर्ता मैं ही मर्ता, मैं ही प्रलय, मैं ही सृष्टि, मैं ही आत्मा, मैं ही परमात्मा, मैं ही दिव्यात्मा, मैं ही पुण्यात्मा, मैं ही सर्वात्मा, मैं ही ब्रह्मात्मा अर्थात जो कुछ हूँ मैं ही हूँ। जो कुछ करूंगी मैं ही करूंगी, मैं ही करवाऊंगी। मैं ही कारण, मैं ही कार्य, मैं ही क्रिया अतः "नमोऽस्तुते नमोऽस्तुति, आदि-बिन्दु नमोऽस्तुते। 

       महाप्रत्यंगिरा सिद्धि के क्या लक्षण हैं? क्यों मैं तुम्हें ज्ञान दे दूं? क्यों मैं तुम्हें माता-पिता, बंधु-बांधव, मित्र, सहयोगी, पुत्र-पुत्री, पत्नी, रिश्तेदार इत्यादि-इत्यादि कह दूं? क्यों मैं तुम्हें पूजूं ? क्यों पुजवाऊं? क्योंकि इन सबमें कृत्य है। कृत्य का तात्पर्य है। कि कर्म कर्म करोगे तो कृत्य होगा, कृत्य करोगे तो कृत्या चलेगी, कृत्या चलेगी तो प्रतिक्रिया होगी, प्रतिक्रिया लौटकर आयेगी एवं लौटकर आयेगी तो अपने साथ बहुत कुछ लेकर आयेगी अतः हमें हिसाब किताब रखना पड़ेगा और इस प्रकार महा संसार चक्र प्रारम्भ हो जायेगा, एक नई सृष्टि की रचना के आप केन्द्र बिन्दु बन जायेंगे।

           जो अच्छा काम करता है उसके सबसे ज्यादा शत्रु होते हैं। जितने लोग बुरा काम करते हैं वे अच्छे काम करने वालों के घोर शत्रु हो जाते हैं। जो सेवा करते हैं उनके भी बहुत शत्रु हो जाते हैं, जितने शोषण करने वाले होंगे वे आपके कट्टर शत्रु हो जायेंगे। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। आप चोर को पकड़ोगे तो समस्त चोर समुदाय आपका शत्रु हो जायेगा, आप उपद्रवियों को मारोगे तो उपद्रवी पूरी ताकत से आपके खिलाफ शत्रुता भजाने लगेंगे, आप पाखण्ड का विरोध करोगे तो जितने पाखण्डी हैं सब आपके शत्रु हो जायेंगे। आप सत्य बोलोगे तो जितने असत्य के साधक हैं वे सब उठ खड़े होंगे। कृष्ण पाण्डवों के साथ खड़े हो गये तो समस्त विश्व दुर्योधन के साथ खड़ा हो गया कृष्ण का शत्रु बनकर, सबने एक स्वर में कहा कि कृष्ण को मार डालो अर्जुन को तो हम मसल देंगे। दूसरा पक्ष भी अस्त्र-शस्त्रों से लैस होता है, तप होता है उनके पास, ज्ञान होता है उनके पास, विज्ञान होता है, उनके पास उनके कुल देवता, उनके शुभ चिंतक, उनकी माताएं, उनके बंधु बांधव, उनके शिष्य, उनकी प्रजा, उनके देवी-देवता इत्यादि पूरी ताकत के साथ, पूरे समर्थन के साथ उनके साथ होते हैं और ऐसी स्थिति में महाप्रत्यंगिरा अनुष्ठानम् करना पड़ता है, महा-कालिका को जगाना पड़ता है। 

          हे महाप्रत्यंगिरा रूपिणी महाकालिका जब आप जागृत होती हैं तो घोर अट्ठाहस करते हुए, नृत्य करते हुए, महामद में चूर होकर युद्ध क्षेत्र को तत्पर होती हैं और आपके अंदर से असंख्य तरह के मुख धारण किए हुए अनेकों प्रत्यंगिराएं निकल पड़ती हैं। किसी का मुख उलूक के समान होता है, किसी का मुख सिंह के समान होता है, किसी का मुख व्याघ्र के समान होता है, किसी का मुख पक्षी के समान होता है, किसी का मुख वाराही के समान होता है, किसी का मुख ऊष्ट हथिनी के समान होता है, किसी का मुख चूहे के समान होता है इत्यादि-इत्यादि ये सबकी सब प्रत्यंगिराएं शत्रुओं के ऊपर टूट पड़ती हैं, उन्हें नोंचती है, उन्हें काटती हैं, उन्हें तोड़ती हैं, उन्हें मरोड़ती हैं, उनका रक्त पी लेती हैं, उनका मांस खा जाती हैं, उन्हें जला देती हैं, उन्हें अपने अट्ठाहस से डरा देती हैं, उन्हें जल में डुबो देती हैं, उन्हें पीटती हैं, उनका अंग-भंग करती हैं, उन्हें चीरती हैं, उन्हें दौड़ाती हैं, उनके टुकड़े-टुकड़े कर देती हैं, उन्हें निगल जाती हैं, उन्हें घेर लेती हैं, उन पर विष वमन करती हैं, उन्हें डस लेती हैं, उन्हें मूर्च्छित कर देती हैं, उन्हें विक्षप्त कर देती हैं, उन्हें हवा में उड़ा देती हैं, उन्हें पंजों में दबा लेती हैं, उनके शरीर में प्रविष्ट हो उन्हें भ्रमित करती हैं, उन्हें मोहित-स्तंभित जृम्भित करती हैं अर्थात जैसे हो सके वैसे उनका सर्वनाश कर देती हैं। उन्हें आंदोलित करती हैं, उन्हें प्रेरित करती हैं, उन्हें बाध्य करती हैं, उन्हें मरने के लिए मजबूर करती हैं, उन्हें क्रोध दिलाती हैं अर्थात उन्हें छोड़ती नहीं हैं अपितु उनका समूल नाश करती हैं। 

             भगवती की आँखें चढ़ गईं, दोनों नेत्र रक्त के समान लाल हो गये और वे शिव से बोली कि अब दो ही चीजें होगी, अब दो ही बातें होंगी या तो दक्ष के यज्ञ का ध्वंस होगा या वह आपके चरण पकड़कर क्षमा मांगेगा, आपके शरणागत होगा तीसरा कुछ नहीं होगा और इस प्रकार ब्रह्माण्ड में प्रथम बार शिव ने महा प्रत्यंगिरा का अविष्कार देखा, महाप्रत्यंगिरा का घोष देखा, महाप्रत्यंगिरा का महानाद सुना। शिव घबरा गये महा प्रत्यंगिरा के इस महाविकराल रूप को देखकर। मैं नहीं लौटूगी-मैं नहीं लौटूंगी-मैं नहीं लौटूगी बार-बार आदि महा - प्रत्यंगिरा उच्च स्वर में घोष कर रही थीं । 

महाप्रत्यंगिरा महासंकल्प,महा-क्रिया-शक्ति, महाइच्छा शक्ति और महा-ज्ञान-शक्ति का अद्भुत सम्मिश्रण है कोई समझा नहीं सकता, कोई मना नहीं सकता, कोई रोक नहीं सकता, कोई कुछ नहीं कर सकता जो होना है सो होगा अतः इस प्रकार स्थिति शिव के काबू में भी नहीं रहती। बेकाबू, बेआबरु, बेपरवाह, बेधड़क यही हैं श्री महाप्रत्यंगिरा के लक्षण। 

            हे महाप्रत्यंगिरे तू बैखौफ है और अपने जातक को भी बेखौफ करती हैं। बेखौफ, बेकाबू, बेपरवाह के असीम सौन्दर्य को देख शिव बेलगाम हो इधर-उधर भागने लगे। बेलगाम शिव को भागते देख दसों दिशाओं में महाप्रत्यंगिरा ने लगाम लगा दी दस महाविद्याओं के रूप में । शिव को बेलगाम नहीं होने देतीं महाप्रत्यंगिरा, जो बेलगाम शिव पर लगाम लगा दे पशुओं की तरह वही हैं शिव-पशुधारिणी, शिव-पशु- पाशिनी अर्थात शिव जिसका पशु है, जिसके पाश में शिव-रूपी पशु पाश-युक्त है। पहले शिव को पाश-युक्त किया फिर चल पड़ी महाप्रत्यंगिरा दक्ष और उसके अनुयायियों को लगाम लगाने हेतु । जैसे ही भगवती योगाग्नि में आहूत हुई तीन मुखों वाली पूरी तरह नग्न श्री शत्रुध्वंसकारिणीं का प्राकट्य हो गया और बैठ गईं वे दक्ष के राज्य में दक्ष के कुल देवताओं, दक्ष के देवी-देवता, दक्ष के ऋषि-मुनि, दक्ष के मित्र, दक्ष के पिता ब्रह्मा, दक्ष की पत्नियाँ, बंधु-बांधव इत्यादि सब कुछ ध्वंस हो गये। भृगु ने कृत्या चलाई, हवन- कुण्ड से कृत्या-पुरुष उत्पन्न किए। क्या हुआ? हे कालिके, हे भद्रकालिके, हे महाप्रत्यंगिरे कृत्या का उत्पत्ति केन्द्र यज्ञ कुण्ड ही ध्वस्त हो गया। कृत्या उत्पन्न करने वाला भृगु दांत तुड़वा बैठा, कृत्या-पुरुषों का भक्षण प्रत्यंगिराएं कर गई।

           शिव ने कहा था अपनी पीछे की जटा को तोड़कर कि जाओ, प्रत्यंगिराओं सबको खा जाना, जो मिले उसे खा जाना अत: प्रत्यंगिरायें हवन सामग्री खा गईं, हवन की अग्नि पी गईं, पूजा पाठ में बैठे ऋषियों को खा गईं, उनके अस्त्र-शस्त्रों को खा गई, उनकी पुस्तकों और किताबों को खा गईं, विष्णु का सुदर्शन चक्र कुन्द हो गया । हे प्रत्यंगिराओं आप ब्रह्माण्ड की परम प्रतिरोधक क्षमता हो एण्टी-बॉडीज हो अर्थात विरोध का प्रतिरोध। जिसमें जतनी प्रतिरोधक क्षमता होगी वही महामानव कहलायेगा, महापुरुष कहलायेगा। प्रत्यंगिरा अनुष्ठानम्, प्रत्यंगिरा साधना अति दिव्यतम प्रतिरोधक क्षमता देती है। सीधा लेट जा साधक, कहाँ पड़ा है किताबी ज्ञान के चक्कर में? एक ऊन का कंबल बिछा, सारे कपड़े उतारकर फेंक दे अपने शरीर से, दरवाजा बंद कर ले एवं मुर्दे की भांति दक्षिण की तरफ सिर करके लेट जा और शुरु कर महाषोढान्यास। सर्वप्रथम अपने पांव के नाखून से लेकर शिखा तक क्रीं क्रीं मंत्र का जाप करते हुए उस मंत्र को अपनी प्राण शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण शरीर पर स्थापित करता जा। गुदा में भी क्रीं स्थापित कर, गोपनीय भाग पर भी क्रीं स्थापित कर। आँख, नाक, मुख, कान पर भी क्रीं स्थापित कर, सभी चक्रों पर क्रीं स्थापित कर, हृदय में भी क्रीं स्थापित कर, कण्ठ में भी क्रीं इत्यादि-इत्यादि बीस मिनट तक शरीर के सूक्ष्मातीत, आंतरिक, बाह्य अंगों में क्रीं स्थापित कर ले। रोम-रोम में क्रीं स्थापित कर, अणु-अणु में क्रीं स्थापित कर, रक्त की प्रत्येक बूंद में क्रीं स्थापित कर । 

        यह गुरु मुख से प्राप्त ज्ञान है अतः ऐसा कर के 6 महीने हो जा सम्पूर्ण कालिकामय, सम्पूर्ण प्रत्यंगिरा मय। क्रीं को खा, क्रीं को सुन, क्रीं को पी, क्रीं को स्पर्श कर, क्रीं को देख, क्रीं क्रीं चिल्ला तब देख कैसे खड़ी नहीं होती प्रत्यंगिरा तेरे साथ। इस महाषोढान्यास के फलस्वरूप अगर हाथ कटेगा तो बिना औषधि के जुड़ जायेगा, रोग कहाँ बचेंगे तेरे शरीर में क्रीं रूपी परम औषधि, परम प्रतिरोधक क्षमता सबको लात मारकर बाहर फेंक देगी। मस्तिष्क में जितना कचरा है क्रीं खा जायेगी और तेरे व्यक्तित्व में वो चमक, वो नशा, वो सौन्दर्य, वो यौवन, वो सम्मोहन विकसित हो जायेगा कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। तू परम मदिरामय हो जायेगा, सिर से पांव तक मदिरा रस की जीवित जागृत मूर्ति बन जायेगा। कोई तेरी आँखों में देखेगा तो कह उठेगा कितना नशा है इन आँखों में मैं मदहोश हुआ जा रहा हूँ, कोई तेरी तस्वीर देखेगा तो उसका मस्तिष्क तेरे मद में मदान्ध हो जायेगा और वो तेरा हो जायेगा, तू जिसे छू देगा वह तेरे मद में मतवाला हो जायेगा। तू जहाँ बैठ जायेगा वह स्थान मदयुक्त हो जायेगा।
                                       
सबको मद चाहिए, सबको महामदिरा चाहिए अतः पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, देवगण, ऋषि-गण इत्यादि सभी तेरे महाकालिका रूपी मद को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठेंगे और बदले में जो चाहो खो देने को तैयार होंगे एवं यहीं हैं सोम रहस्यम् । आज वैज्ञानिक सोम की खोज कर रहे हैं, उस दिव्य औषधि को खोज रहे हैं जिससे कि सोम रस बनाया जा सके। प्राचीन काल में सोमलता के अभाव में यज्ञाहुति पूर्ण नहीं मानी जाती थी क्योंकि देवताओं को चाहे अन्न की आहुति दो, घी की आहुति दो, गुड़ की आहुति दो या मांस- रुधिर इत्यादि की आहुति दो उन्हें सबसे ज्यादा प्रसन्न सोमाहुति ही करती है। इन्द्र तो सोमरस का दीवाना है, सोमपान करने के लिए तो इन्द्र यज्ञ में अवश्य आता है। सोम की तलाश मनुष्यों को ही नहीं है अपितु सूर्य-चंद्र इत्यादि नौ ग्रहों से लेकर ऋषि-मुनि, देवता, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सरा सभी सोम रस के दीवाने हैं और सोम की मल्लिका हैं श्री श्री महाकालिका, श्री श्री महाप्रत्यंगिरा। वे नित्य सोम रस का पान करती रहती हैं, उन्हें ही सोम हस्तगत है, काली का खप्पर सदैव सोमरस से भरा रहता है। जब हे कालिका आप अपने भक्त पर कृपावान होती हो तो उसे सोम रस प्रदान करती हो जिसे वह छककर वही महामानव कहलायेगा, महापुरुष कहलायेगा। 

     हे दीर्घ-स्तना तेरे अति सुगठित विशाल स्तनों से सोमरस ही उत्सर्जित होता है तुम प्रत्यंगिरा बन सभी दिशाओं से शिव को कवचित किए रहती हो इस प्रकार शिव जन्म-मृत्यु, काल-अकाल, लोक-लोकादि, कर्म, कृत्य-अकृत्य, धर्म अधर्म इत्यादि सभी स्थितियों के चक्रों से सर्वथा अनभिज्ञ रहते हैं तब जाकर वह हे महाबिन्दु-निवासिनी तेरे परम सोम-बिन्दु में परम विलास को प्राप्त होते हैं। सोमानंदाय नमो नमः, सोम-रूपिण्यै नमो नमः, सोम प्रियायै नमो नमः, सोम दात्री नमो नमः । शिव+सोम= शिवोऽहम् । बेखौफ, बेलगाम, बेनाम, बेकाम, बेचिंता, बेध्यान, बेज्ञान, बेयोग, बेरोग, बेभोग प्रदान करता है सोम । मस्तिष्क को नशा मुक्त करता है, मस्तिष्क को स्वतंत्र करता है, मस्तिष्क को प्रवृत्ति-विहीन करता है, मस्तिष्क को लिंग विहीन करता है, मस्तिष्क को अस्तित्व विहीन करता है सोम। क्या कहूं? इसके बारे में। देखो विष्णु को लोग कहते हैं कि वह महामाया के आगोश में है परन्तु मैं कहता हूँ कि कालिका ने उसे सोम रस में डुबो दिया है, वह सोम पान करके लेटे हुए है। हे कालिका तू सर्व रक्षिणी है, हे निद्रा की देवी जब हम प्रगाढ़ निद्रा में होते हैं तब हम सब कुछ भूल जाते हैं प्रतिदिन करोड़ों मनुष्य, असंख्य देवी देवता, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सभी सोते हैं परन्तु इस अद्भुत निद्रावस्था में कौन हमारी रक्षा करता है ? वह सिर्फ आप ही हैं प्रत्यंगिरा जो निद्रा में भी हमारी रक्षा करती है अन्यथा चारों तरफ गोचर, अगोचर, छदम शत्रुओं की भरमार है फिर भी आप हमारी निद्रा को सफल बनाती हैं, हमारी रक्षा करती हैं। 99 प्रतिशत मृत्यु जागृत अवस्था में होती है, जागृत हिरण को सिंह खाता है न कि सोते हुए हिरण को । शिकार और शिकारी दोनों जागृत अवस्था में होते हैं। मृत्यु से पूर्व जिसकी मृत्यु होने वाली होती है वह जग जाता है, उसकी समस्त इन्द्रियाँ एक बार पुनः भले ही कुछ क्षणों के लिए जागृत हो जायें पर जागृत हो जाती हैं। प्रत्यंगिरा सभी के साथ चलती हैं, सभी में प्रतिरोध करने की कुछ न कुछ मात्रा में नै:सर्गिक शक्ति होती है।
 
                         शिव शासनत: शिव शासनत:

श्री कपितत्वम् ।।

नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे ।
नमः श्रीराम-भक्ताय श्यामलाङ्गाय ते नमः ॥ 
नमो वानर - वीराय, सुग्रीव-सख्य-कारणे । सीतां-शोक-विनाशाय, राम- मुद्रा धराय च ॥ 

हे पवन पुत्र, श्री राम भक्त, साँवले हनुमान जी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वानर जाति के वीर सुग्रीव से मित्रता करने वाले सीताजी के शोक का नाश करने वाले श्रीराम की मुद्रिका को धारण करने वाले, हे हनुमानजी मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

------------

           गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस की जो रचना की उससे वे हनुमान जी के परम कृपापात्र बन गये। अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता हनुमान जी ने उनके लौकिक जीवन में नाना प्रकार के चमत्कार उपस्थित कर दिए। मृत बालक को जिला दिया, स्पर्श करके रोगियों के रोग दूर कर दिए, अनेक भटके हुए पथ भ्रष्ट लोगों को साधु बना दिया। वेश्या उनके संस्पर्श से भक्तिन बन गई। अनेक धर्म पिपासुओं ने प्रभु के दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिए, विराट हिन्दु जनमानस पुनः प्रभु श्रीराम की यशोगाथा से निर्भयता और स्वस्थ मानस लाभ प्राप्त करने लगा। एक बार पुनः हिन्दु धर्म रामायण रूपी महाकल्प वृक्ष की छांव में पल्लवित होने लगा। बादशाह अकबर ने भी उन्हें दिल्ली बुलवा लिया एवं भरे दरबार में कहा कोई चमत्कार दिखाओ तुलसीदास जी सहज भाव से बोले मैं तो सिर्फ ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ, मुझे चमत्कार दिखाना नहीं आता। खीजकर बादशाह ने तुलसीदास को जेल में डाल दिया।
          तुलसीदास ने बजरंग बाण का पाठ शुरु किया और देखते ही देखते विशाल वानरों का झुण्ड आ पहुँचा एवं बादशाह समेत उनके चाकरों को नोंच डाला, भयंकर उत्पाद शुरु हो गया। एक-एक करके वानरों ने वृक्ष उखाड़ फेंके, बादशाह के बगीचे नष्ट भ्रष्ट होने लगे। बादशाह समझ गये तुरंत तुलसीदास को ससम्मान विदा किया। बादशाह अकबर में प्रत्यभिज्ञा शक्ति थी, वह पहचानने में माहिर था परन्तु उसका वंशज औरंगजेब सत्यानाशी प्राणी था। उसने चुन चुनकर हिन्दु धर्म का विनाश किया, चुन चुनकर ग्रंथ जलाये, मूर्ति भंजक था वह, जितना वश चला उतने देव स्थानों को अपवित्र किया साधु संतों को घोर प्रताड़ित किया। हँस हँस कर लोग कर्म करते हैं और रो-रो कर कटते हैं।
          समर्थ रामदास स्वामी जी के रूप में हनुमान भक्त का महाराष्ट्र में उदय हुआ और उन्हें राह चलते शिवाजी मिल गये । शिवाजी ने उछल-उछल कर गुरिल्ला पद्धति में, हनुमद् पद्धति में मुगल साम्राज्य को भारत से उखाड़-उखाड़ कर फेंक दिया। शिवाजी उखाड़ उखाड़ कर फेंकते रहे और औरंगजेब हाथ पर हाथ धरा देखता रहा। उसकी मृत्यु बड़ी ही भीषण हुई, वह एक ऐसे अकल्पनीय रोग से पीड़ित हो गया कि जिसके प्रभाव में उसके अंतकाल में उसके शरीर का एक-एक अंग सूखता जाता और अपने आप टूट जाता, उसकी हड्डियाँ इतनी कमजोर हो गईं कि वह कभी भी कहीं से भी अचानक टूट जातीं। जितने विग्रहों को उसने खण्डित किया था उतनी ही जगह से वह टूट-फूट गया और टूटने फूटने की असहनीय पीड़ा अंत तक झेलता रहा। अंत समय में बहुत पछताया अपने कुकर्मों के लिए यही किया यही भोगा। 
        मैंने अपने जीवन में देखा कि बहुत से बुद्धिजीवियों ने प्रचार-प्रसार माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से, लेखन के माध्यम से कोई कसर नहीं छोड़ी हिन्दु धर्म को विकृत करने में ऐसे लोगों के कंधे अपने कुल की लाशों को ढोते हुए थक गये। बस सारा जीवन अपनी आँखों के सामने अपनी रावण तुल्य करतूतों से लाशों को ही ढोते रहे, दाह संसकार ही करते रहे क्योंकि हनुमान को मालूम है कि इस पृथ्वी पर कुछ अंश में असुरत्व विराजमान है वह न जाने कब किस रूप में, किस वेष में श्रीराम कथा को विकृत करने लगे, कलुषित करने लगे। अतः कई सहस्त्र वर्ष बीत गये, बहुत से आये बहुत से गये, बहुतों ने बहुत कोशिश कर ली कि श्रीरामायण एवं श्रीमद् भागवत गीता, श्री महाभारत को कल्पना ठहरा दें, बेबुनियाद बता दें, मिथ्या प्रचार कर दें, उसे अपवित्र या अप्रासंगिक बता दें परन्तु सबके सब मिट गये और मिटते रहेंगे, घोरतम दण्ड हनुमान की गदा से प्राप्त करते रहेंगे परन्तु कभी भी श्री रामायण, श्री महाभारत, श्रीमद भगवतगीता, वेद, उपनिषद एवं पुराणों को कलुषित नहीं कर पायेंगे क्योंकि रक्षक के रूप में श्री हनुमान विराजित हैं। 
             महाराज पहले गुरु दक्षिणा तो ले लो बाद में गुरु मंत्र देना इतना कहकर श्री हनुमान ने कालनेमि की दोनों टांगे पकड़ी और ढोंगी राम भक्त बने कालनेमि को शिला पर उठाकर दे मारा। वह वहीं मुख से खून उगलता हुआ हे राम हे राम कहता हुआ प्रस्थान कर गया। कालनेमि भी श्रीरामायण को कलुषित कर रहा था, असुर होकर ढोंगी बना बैठा था। यह है श्री हनुमान की गुरु दक्षिणा तो आज के कालनेमियों को मंत्र देने से पूर्व ही मिल जाती है। पहचानने की प्रचण्ड शक्ति है श्री हनुमान में प्रभु आप ने यह कौन से स्वांग रचा है जो कि दासी को अपने वाम अंग में विराजित कर लिया है इतना श्री हनुमान के मुख से सुनते ही सीता का स्वांग करके बैठी हुईं सत्यभामा का गर्व चूर हो गया।

प्रभु श्रीकृष्ण मुस्कुरा दिए स्वर्ग से लाकर उन्होंने पारिजात वृक्ष सत्यभामा के महल में रोपित कर दिया था जिससे कि सत्यभामा को ब्रह्माण्ड सुन्दरी होने का गर्व अभिमान हो गया था। वे अपने आपको माता सीता से भी ज्यादा सौन्दर्यवान समझने लगीं थीं परन्तु एक ही क्षण में पहचानने की शक्ति रखने वाले श्री हनुमान ने उनकी वास्तविकता बता दी । 
              गर्व अभिमान तो सुदर्शन चक्र को भी हो गया था, गर्व अभिमान तो गरुड़ को भी हो गया था, अम्बरीश कथा में सुदर्शन चक्र ने दुर्वासा को पीड़ित कर दिया था। अमृत मंथन के समय अमृत कलश को ले भागने का गर्व गरुड़ को भी हो गया था परन्तु श्रीकृष्ण के इशारे पर उन्होंने गरुड़ देव को पूंछ में बांधकर समुद्र में फेंक दिया था और सुदर्शन चक्र को मुख में रख लिया था । श्री हनुमान बोले इस मुख में मैंने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका रखी थी उसके सामने सुदर्शन चक्र कहाँ । विश्व में श्री रामायण जितना प्राण- प्रतिष्ठित ग्रंथ कहाँ ? सीधे प्राणों को शक्ति देती हैं श्री रामायण युग बीत गया, काल बीत गया, बहुत कुछ बदल गया परन्तु श्री रामायण नहीं बदली, प्रभु का आनंद मुख आज भी परमानंद देता है प्राणियों को। श्री हनुमान यंत्र में सुग्रीव, अंगद, जामवंत, नल-नील से लेकर अनंत वीर स्थापित हैं एवं वीरों के महावीर हैं श्री हनुमान श्री हनुमान ने पंपा सरोवर के पास प्रभु श्री राम से मिलने से पूर्व कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया और प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के मिलन के पश्चात् भी उन्होंने कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया इसी काल के मध्य में उन्होंने अपनी समस्त विलक्षणता संसार के सामने प्रस्तुत की। इसके पश्चात् तो वे एक तरह से संरक्षक बन गये और छोटे मोटे युद्ध संग्राम इत्यादि उनके अंतर्गत आने वाले शिष्य रूपी वीरों ने ही सम्पन्न किए।
         माता सीता के वाल्मीकि आश्रम जाने के पश्चात् एक तरह से रामायण का परम आध्यात्मिक भाग सम्पन्न हो गया। यहीं पर श्री रामावतार की प्रासंगिकता समाप्त हो गई शक्ति जब विष्णु से अलग हो गई तब ऋषियों ने इसके आगे की कथा को विशेष महत्व नहीं दिया। सीता त्याग के पश्चात् राम के एकाकी हो जाने पर श्री हनुमान खिन्न हो गये और वे सब कुछ त्याग कर तप को चल दिए। वहीं पर उन्होंने अपने नखों से स्फटिक शिलाओं के ऊपर श्री हनुमद्कृत परम गोपनीय रामायण लिखी। जो हनुमान ने देखा, जो हनुमान ने अनुभूत किया, जिसके साक्षी स्वयं श्री हनुमान रहे, वे हनुमान जिन्होंने कि श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को अपने कंधे पर ढोया, उनके वाहन बने, उनके संकट का मोचन किया, वे हनुमान जिन्होंने माता सीता की परम शक्ति को देखा। रावण वध के पश्चात् प्रभु श्रीराम अगत्स्य जी से बोले था तो रावण ब्राह्मण हम सबने वध तो किया ब्रह्म राक्षस का अतः ब्रह्म हत्या तो कुछ न कुछ लगी। महर्षि अगत्स्य से बोले आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं, परब्रह्म हैं। परब्रह्म, ब्रह्म के चक्कर में नहीं उलझता परब्रह्म सबसे परे है फिर भी आप ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दीजिए। 
           तत्काल श्रीराम ने हनुमान को कैलाश भेजा दिव्य शिवलिंग विग्रह लाने हेतु। हनुमान जी उपासना करने लगे कैलाश पर शिवजी की। मुहूर्त बीतता जा रहा था तभी महर्षि अगत्स्य जी के सुझाव पर सिद्धाश्रम के स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज के संदेश पर श्रीराम ने जनक नंदनी सीता जी द्वारा खेल-खेल में ही बनाये गये बालू के शिवलिंग में प्राण प्रतिष्ठता कर दी तभी श्री हनुमान दो विग्रह लेकर आ पहुँचे परन्तु देर हो चुकी थी हनुमान जी ने क्रोधवश दोनों पाँव जोर से पटके, श्रीराम बोले हनुमान मैं तुम्हारे शिवलिंग की मैं स्थापना कर देता हूँ अगर तुममें शक्ति हो तो जनक नंदनी सीता द्वारा इस बालू के शिवलिंग को उखाड़कर दिखा दो । हनुमान की पूंछ टूट गई परन्तु वे बालू के शिवलिंग को हिला न सके। वे समझ गये जनक नंदिनी सीता की शक्ति को। उनके दो शिवलिंग विग्रहों में से एक प्रभु श्रीराम ने स्थापित कर दिया और कहा कि आज से इसे हनुमदीश्वर शिवलिंग कहा जायेगा। श्रीरामेश्वरम दर्शन से पहले हनुमान द्वारा स्थापित इस शिवलिंग का दर्शन आवश्यक है।

       जो भी श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वह समस्त पाप बंधनों से, कर्म बंधनों से, शाप बंधनों से उसी क्षण मुक्त हो जाता है और यहीं पर सिद्धाश्रम ने ऋषि मुनियों के सानिध्य में विष्णु अवतार को पुनः माता सीता एवं लक्ष्मण समेत सकुशल बैकुण्ठधाम प्रक्षेपित कर दिया। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग स्थापना के पश्चात् आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समस्त विष्णु गण, देवता, महालक्ष्मी स्वरूपिणी माता सीता इत्यादि वापस चले गये। आगे की कथा तो बस इच्छवाकु वंश के क्षेत्रीयों का ताम-झाम है, कुछ विशेष करने को नहीं रह गया था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ कभी सफल नहीं हुआ। अनेकों जगह भरत, शत्रुघन, हनुमान, सुग्रीव पराजित हुए, समझौते हुए। देखो माँ हमने इन दोनों वानरों को पूंछ समेत बांध लिया है, इनसे हम अपना मनोरंजन करेंगे। हमने अयोध्या के घमण्डी राजा के अश्व के माथे पर बंधा हुआ वह स्वर्ण पत्र भी निकाल लिया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि जो सच्चे क्षत्रीय हों वे ही उनके अश्व को बांधे। उस दम्भी राजा की समस्त सेना हमने पराजित कर दी, उनके भाई बंधु इत्यादि भी घायल एवं मूच्छित युद्ध क्षेत्र में पड़े हैं। 
            जगत जननी सीता का स्मरण कर लव ने हनुमान की पूंछ पर जोरदार प्रहार किया था और हनुमान व्यथित हो गये थे। कुश ने माता सीता का स्मरण कर अयोध्या की चतुरंगिणी सेना को ही नष्ट कर दिया था। हनुमान और सुग्रीव समझ गये थे कि माता सीता ही शक्ति स्वरूपा हैं एवं श्री रामायण में उनके अभाव में श्रीराम समेत हम सब कुछ भी नहीं हैं। महर्षि वाल्मीकि को मालूम चला कि श्री हनुमान ने श्री राम चरित लिखा है उन्हें तीव्रतम इच्छा हुई उसे देखने की। श्रीहनुमान से उन्होंने विनय किया एवं श्री हनुमान रचित रामायण को पढ़ वे लज्जित हो गये। उन्हें अपनी रचना व्यर्थ लगने लगी, श्री हनुमान मर्मज्ञ थे वे ताड़ गये। एक कंधे पर उन शिलाओं को रखा जिन पर हनुमान नाटक वर्णित था और समुद्र के बीचोबीच जाकर देखते ही देखते सभी शिलाओं को डुबो दिया। 
      श्री विष्णु अवतार एक निश्चित अनुसंधान एवं सिद्धाश्रम के दिव्य ऋषि-मुनियों के सानिध्य में सदैव सम्पन्न होता है श्रीविष्णु अवतार के अंतर्गत एक-एक क्षण पूर्व योजनानुसार अनुशासित एवं निर्धारित होता है अतः किस ऋषि, किस महर्षि को क्या कर्म सम्पन्न करना है, क्या नहीं इसका सदैव ध्यान रखा जाता है। ऋषि शब्द समझना पड़ेगा, ऋषि की उपाधि केवल सिद्धाश्रम वासी को मिलती है इसलिए श्रीरामचंद्र ऋषि कहा जाता है, श्री हनुमद् ऋषि कहा जाता है, श्री अगत्स्य ऋषि कहा जाता है, श्री वाल्मीकि ऋषि कहा जाता है, श्री लक्ष्मण ऋषि कहा जाता है इत्यादि-इत्यादि । साधु-संत, भक्त, भजनकर्ता, पुजारी, ब्रह्मचारी, कथावाचक, लेखक, गायक इत्यादि ऋषि नहीं कहलाते। जनमानस में प्रचलित अनेकों गुरु ऋषि नहीं कहलाते, नाना प्रकार के मांत्रिक, तांत्रिक, यांत्रिक इत्यादियों को ऋषि उपाधि नहीं मिलती। सब कुछ मिल सकता है हार, फूल, माला, धन दौलत, नाम, प्रसिद्धि, यश, ढोल मंजीरे परन्तु ऋषित्व नहीं मिलता। ऋषित्व का सिद्धियों से भी लेना देना नहीं है ऋषित्व का योग से भी लेना देना नहीं है। सिद्ध पुरुष होना, योगी होना, वैज्ञानिक होना यहाँ तक कि ईश्वर होना एक अलग बात है परन्तु ऋषित्व कुछ अलग है। ऋषित्व के माध्यम से श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्रीविद्या स्वरूपिणी आद्या इत्यादि लीला प्रसंग करते हैं। हनुमान ऋषि हैं और कुछ नहीं वे श्रीरामचंद्र ऋषि के समतुल्य हैं। श्रीरामचंद्र अवतार के प्रमुख संरक्षक के रूप में श्री हनुमद् ऋषि आज भी सशरीर क्रियाशील हैं।

                  शिव शासनत: शिव शासनत:

Who is Rudra?


What has been, is Rudra; and what is, is He; and what will be, is He, the eternal and the non-eternal, the visible and the invisible, the Brahman and the non-Brahman, the east and west and north and south and above and below, the masculine and feminine and neuter, the Savitri and Gayatri, the appearance and the Reality, the water and the fire, the cow and the buffalo, the lotus flower and the soma filter, the within and the without, the inner essence of everything.
-Atharvashiras Upanishad

Bhagavan Shiva, is Vrishabharudhar, withhis consort Parvati on vahan Nandi at theKokarneswarar, Temple, at, Tirukokarnam in Pudukotai Dstrict Tamilnad the Temple is dedicated to Bhagwan Shiva ।।


अमोघ हनुमंत कवचम् ।।

        भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी इस अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं। जो पालनकर्ता होता है उसे तो बालक की व्यथा सुनकर अवश्य ही आना पड़ता है। चाहे जैसा भी काल हो, जैसी भी स्थितियां हो पालनकर्ता को तो बालक की पुकार सुननी ही पड़ती है । यही कारण है कि भगवान विष्णु बारम्बार इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु और माता महालक्ष्मी केवल मनुष्य रूप में ही अवतरित नहीं होते हैं। कभी वे नरसिंह अवतार के रूप में इस धरा पर आते हैं कभी मकर रूप में अवतरित होते हैं तो कभी किसी अन्य स्वरूप में विष्णु केवल मनुष्यों के देव नहीं है समस्त योनियां, जीव-जंतु, पादप सभी के पालक विष्णु ही हैं। अतः जब यह धरा मनुष्यों की बहुलता में क्रीड़ा स्थली बन जाती है तब भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। 
              इस धरा की सम्पूर्ण व्यवस्था में रुद्र और ब्रह्मा के साथ-साथ महादेवियों का अंश भी समान रूप से आवश्यक होता है। विष्णु के अवतरित होने की स्थिति में उनके साथ रुद्रांश भी अवतरित होते हैं साथ ही महादेवी भी स्त्री रूप में इस धरा पर दिव्य छटा बिखेरती हैं। त्रेता युग में जग को मर्यादित करने के लिये विष्णु जब राम के रूप में अवतरित हुये तभी रुद्रांश हनुमंत का भी प्राकट्य हुआ। हनुमंत अपने अंदर शिव के प्रमुख अंश वरुण और सूर्य की शक्ति समेटे हुये हैं। जिन दिव्य महापुरुषों में रुद्रांश या शिवांश होता है उन्हीं के शरीर और मस्तिष्क पर भवानी आरूढ़ होती हैं। निम्न स्तरीय जीव और मनुष्य क्रोध की आवृत्ति धारण करते हैं। क्रोध और भवानी दो अलग धारायें हैं। 
          क्रोध आसुरी प्रवृत्ति का द्योतक है, क्रोध के साथ दम्भ भी मिश्रित हता है। क्रोध मस्तिष्क का सबसे ज्यादा क्षय करता है। धीर गम्भीर और मर्यादित व्यक्तित्व क्रोध की आवृत्ति मे दूर रहते हैं परन्तु भवानी की तीव्रता वीरता का प्रतीक है । साहसी और मृत्युभय से विरक्त मस्तिष्क ही भवानी की गरिमा को धारण कर सकता है। हनुमंत को भवानी सिद्ध हैं। समस्त स्त्रियां एवं स्वयं माता सीता उन्हें आदर, श्रद्धा और वात्सल्य के भाव से देखती हैं। आखिरकार वे माता सीता और राम के पुनर्मिलन में सेतु ही तो बने हैं। जिस समय सीता जी लंका की अशोक वाटिका में राम वियोग में प्रतिक्षण व्यथित हो रही थीं उस समय हनुमान ने ही उन तक राम मुद्रिका पहुँचाकर उन्हें आनंदित किया था एवं सीताजी की निशानी पुनः राम तक पहुँचाकर उनके व्यथित हृदय को भी परम सुख प्रदान किया था। राम और सीता के बीच वास्तव में हनुमंत ही सेतुबंध हैं। यही सेतुबंध उन्हें राम के साथ अटूट प्रेम बंधन में बांधता है। जिसके मस्तक पर मां भवानी आरूढ़ होती है वही हर हर महादेव का जयघोष कर सकता है। मां भवानी की शक्ति ही महादेव को रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
        हनुमंत कवच की विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव का महामृत्युंजय कवच और मां भगवती का महाकाली कवच एक साथ मिश्रित होकर हनुमंत की पवित्रता, भक्ति और श्रद्धा से समायोजित हो चमत्कारिक रूप से साधकों को फल प्रदान करता है एवं उन्हें सर्व बाधाओं, आसुरी शक्तियों, रोग, शोक और वियोग से संरक्षित करता है। पवित्रता ही परम रोग नाशक औषधि है। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मस्तक पर मां भवानी कदापि आरूढ़ नहीं होती । आसुरी शक्तियां तो सदैव मातृ शक्ति का अनादर ही करती हैं। रावण ने तो इसकी पराकाष्ठा सीता हरण करके दिखा दी थी। ठीक इसी प्रकार दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण करके अपनी मृत्यु सुनिश्चत कर ली थी। हनुमंत कवच आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिए नहीं है। न ही इसका उपयोग कायर, कामी और विलासी व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कर सकते हैं। यह कवच तो वीरों के लिये बना है, धर्म की रक्षा और मर्यादा का पालन करने वाले ही इसे धारण कर सकते हैं।. 
           यह रक्षा करता है अवरोधों की, स्त्रियों की एवं प्रेममयी व्यक्तित्वों की । प्रत्येक व्यक्ति इस कवच को धारण तभी कर सकता है जब उसके मन में साधु संतो के प्रति आदर भाव हो, वेदान्त संस्कृति में पूर्ण विश्वास हो एवं हृदय - कमल पर विष्णु रूपी राम और लक्ष्मी रूपी सीता पूर्ण श्रद्धा के साथ विराजमान हों। हनुमंत कवच को धारण करने का अभिप्राय ही दुष्टों का दमन करना है। पूर्ण वीरता के साथ । न कि कायरों के समान दुष्टों के सामने समर्पण कर हनुमंत शक्ति की अवहेलना करना है। हनुमंत विजय का प्रतीक हैं। वे अजेय हैं। विषम से विषम परिस्थितियों को भी वे अनुकूल बना देते हैं जैसा कि उन्होंने भगवान श्रीराम के साथ किया था। हनुमंत कवच धारण करने वाले व्यक्ति के हृदय में असम्भव जैसे शब्दों का उत्पादन नहीं होना चाहिए। 

हनुमंत कवच पराआध्यात्मिक कवच है एवं इसमें समस्त आर्यावर्त के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों के आशीर्वाद निहित हैं। 
            कवच का तात्पर्य लोहे के वस्त्रों से नहीं है। वे तो एक बार भेदे जा सकते हैं, आप उनके वजन तले बोझिलता महसूस कर सकते हैं, उनमें स्वरूप परिवर्तन होता ही नहीं है। परन्तु हनुमंत कवच तो हर परिस्थिति में परिवर्तनीय हो आपको बिना बताये अदृश्य रूप में प्रतिक्षण आपकी रक्षा करता रहेगा। हनुमंत बुद्धि के देवता हैं। उनकी बुद्धि शीशे के समान पवित्र है।रामायण जैसा महाग्रंथ इस आर्यावर्त के सभी ऋषि मुनियों एवं मंत्र दृष्टा, तंत्र दृष्टा और तत्व दृष्टा महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से वर्णित किया है। एक समय पार्वती जी ने भगवान शंकर से समस्त लोकों के कल्याण के लिये इस कवच के बारे में बताने को कहा जिससे कि सभी देव और मनुष्य परम सुरक्षा प्राप्त कर सकें तब भगवान शंकर बोले- हे देवि भगवान श्रीराम ने ही हनुमंत कवच का निर्माण किया है और वह भी सर्वप्रथम अपने परम भक्त विभीषण के लिये जो कि असुर नगरी में निवास करता हुआ भी राम का अनन्य उपासक था। यह कवच परम गोपनीय है अतः इसे आप विशेष रूप से श्रवण कीजीये 

विनियोग

       दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें अक्षत, पुष्प मिला लें तथा निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अस्य श्री हनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि: अनुष्टुप्छन्दः । श्री महावीरो हनुमान् देवता / मारुतात्मज इति बीजम् । अञ्जिनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं इति कवचम् । ॐ स्वाहा इति कीलकम् । ॐ लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अथ न्यास

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । 
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ हैं अनामिकाभ्या नमः । 
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ हः करतल करपृष्टाभ्यां नमः । 
ॐ अंजनीसूनवे हृदयाय नमः । 
ॐ रुद्रमूर्तये शिरसि स्वाहा । 
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । 
ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । 
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ ह्रीं ब्रह्मास्त्र निवारणाय अस्त्राय फट्

दिग्बन्ध

राम दूताय विद्महे, कपिराजाय धीमहि,तन्नो हनुमन्त प्रचोदयात् ।
 ॐ हुँ फट् इति दिग्बन्धन ।

अथ ध्यानम्

घ्यायेद्वालदिवाक रघुतिनिभं देवारिदर्पापाहं,
देवेन्द्रप्र वरप्र शस्तयशसं दैदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं 
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ॥


उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचियुतं चारु वीरासनस्थं,
मौंजीयज्ञोपवीता भरणरुचिशिरवा शोभितंकुंडलांगम्।
भक्तानामिष्टदंतं प्रणत मुनिजनं वेदाना प्रमोदं,
ध्यायेदेवं विधेयंप्लवंगकुलपतिं गोष्पदी भूतवाधिम् ॥


वज्रांगं पिंग केशादयं स्वर्ण कुण्डल मण्डितम् ।
नियुद्धं कर्म कुशलं पारावार पराक्रमम् ॥ 

वाम हस्ते महावृक्षं दशास्थकर खण्डनम् ।
उद्यदक्षिण कोदण्ड हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥

स्फटिकाभं स्वर्ण कान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिं।
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥

उद्यदादित्य संकाश मुदारभुज विक्रमम् । 
कन्दर्प कोटि लावण्यं सर्व विद्या विशारदम् ॥

श्री राम हृदयानन्दं भक्त कल्प महीरुहम् । 
अभयं वरदं दोभ्यि कलये मारुतात्मजम् ॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते राम पूजित ।
 प्रस्थानंच करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥

यो वारां निधिमल्प पल्वल मिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो, 
वैदेही घन शोक ताप हरणो वैकुण्ठ तत्त्व प्रियः ।

अक्षार्जित राक्षसेश्वर महा दर्पापहारी रणे 
सोऽयं वानर पुंगवोऽस्तु सदा युष्मान् समीरात्मजः ॥

वजांगं पिंग केशं कनकमयलसत्कुण्डला क्रान्त गंड,
नाना विद्याधिनाथं करतल विधूतं पूर्ण कुम्भं दृढं च ।
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं 
त्रैलोक्य त्राणकारं सकल भुवनगं रामदूतं नमामि ॥

उपल्लांगूल केशं, प्रचय जलधरं भीम मूर्ति कपीन्द्र,
वन्दे रामांघ्रि पदम भ्रमर परिवृतं तत्त्व सारं प्रसन्नम् ।
वज्रांगं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डला क्रांत गण्डम् भोहिणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ 

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकंठलग्नं । दधानमासाद्यसुवर्ण वर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डल रामदूतम् ॥

पदम राग मणि कुण्डलत्विषपाटली कृत कपोल मण्डलम् ।
दिव्यदेवकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥
 
                          शिव शासनत: शिव शासनत: