ब्रह्म लोक में विराजित ब्रह्मा, बैकुण्ठ लोक में विराजित श्री विष्णु एवं रुद्र लोक में ध्यानस्थ रुद्र अचानक विचलित हो उठे। वे अपने अपने दिव्यासनों के आस-पास बार बार उद्वेलित हो व्यथित हो इधर-उधर देखने लगे एवं उनकी शक्तियाँ अर्थात ब्राह्मी, लक्ष्मी एवं रुद्राणी उनकी वाचालता देख घबरा उठीं, अनेकों प्रकार के प्रयोजनों से त्रिदेवों की त्रिशक्तियों ने उन्हें पुनः स्थिर करना चाहा, शांत एवं प्रज्ञावान करना चाहा परन्तु त्रिदेवों का वाचाल कम्पन्न बढ़ता ही जा रहा था तीनों लोकों में हाहाकार मच गया, सबके सब वाचाल हो बैठे, सबके हृदय में एक बैचेनी सी महसूस होने लगी परन्तु कारण किसी की समझ में नहीं आ रहा था। आखिरकार त्रिदेव इतने वाचाल हो बैठे कि अपने-अपने सुखासनों से उठ अपने दिव्य वाहनों पर सवार हो "ह्रींकार" मार्ग की तरफ तीव्र गति से अग्रसर होने लगे। त्रिदेवों के कर्णों में "ह्रीं" का नाद गूंजने लगा। हां सब कुछ छोड़कर, सब तरफ से दृष्टि फेरकर, अपनी त्रिशक्तियों को भी छोड़कर सृष्टि के रचयिता, पालक एवं संहारक ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीव्र गति से ऊपर की तरफ गतिमान होने लगे। देखते ही देखते वे तीनों ऊर्ध्वगामी श्रीयंत्र रूपी दिव्य कैलाश के मुख्य द्वार पर पहुँच गये।
दिव्य कैलाश की संरचना हूबहु ऊर्ध्वमुखी श्रीयंत्र की भांति है जिसके सबसे ऊपरी कक्ष में महाकामेश्वर परम शिव महाकामेश्वरी अर्थात भगवती त्रिपुर सुन्दरी के साथ अमृत सरोवर के दिव्य कुण्ड में अमृत कमल के ऊपर विराजमान हो अमृत सिंचन में लीन रहते हैं। दिव्य कैलाश के द्वार पर पहुँचते ही विष्णु के वाहन गरुड़, ब्रह्म के वाहन हंस एवं रुद्र के वाहन वृषभ ने गतिहीनता प्राप्त की और वे वहीं पर शक्तिहीन हो निस्तेज हो गये। त्रिदेवों ने अपने निस्तेज वाहनों को वहाँ छोड़ दिव्य कैलाश की नौ श्रृंखलाओं पर आरोहण प्रारम्भ किया। तीनों त्रिदेव एक-एक कर नौ दिव्य श्रृंखलाओं का आरोहण करते हुए आखिरकार लक्ष्य तक पहुँच ही गये अपनी माता को ढूंढने । हाँ “ह्रीँ" भगवती ललिताम्बा का बीज मंत्र है जो कि समस्त उत्पत्तियों का मूल बिन्दु हैं एवं त्रिदेवों की भी माता हैं। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने युवा रूप में आद्य एवं आद्या से जन्म प्राप्त किया। वे तीनों पूर्ण यौवनवान, पूर्ण युवा एवं पूर्ण विकसित स्वरूप में ही सर्वप्रथम उदित हुए थे अतः बाल्यावस्था छूट गई थी, माता का स्तनपान छूट गया था, मातेश्वरी के सम्पूर्ण दर्शन उनके चरित्र में रिक्त रह गये थे। यही उनके विकार ग्रस्त होने का मुख्य कारण था।
प्रारम्भ में जब ब्रह्मा ने सृष्टि रचना प्रारम्भ की तब उन्होंने समस्त जीव युवावस्था के ही रच डाले, जैसे थे वैसे ही रचने लगे। रुद्र और विष्णु ने भी सृष्टि रचना में हाथ बंटाते हुए अपने ही समान पूर्व युवा गण रच डाले जो कि कालान्तर रुद्र गण एवं विष्णु गण कहलाये। देवता एवं देवियाँ भी युवा ही उत्पन्न होने लगे, देवता एवं देवियों का जन्म ब्रह्म पुष्प के ऊपर 4 घण्टे में हो जाता है अर्थात ब्रह्मा ब्रह्म पुष्प के अंदर 4 घण्टे के भीतर युवावस्था लिए हुए देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व इत्यादि प्रादुर्भावित कर देते हैं। जब बाल्य अवस्था देखी ही नहीं तो बाल्य अवस्था का अनुभव कैसे होगा ? नारद से लेकर समस्त सप्त ऋषि अर्थात ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्र, प्रथम मनु एवं प्रथम प्रजापतियों ने युवा शरीर धारण किए हुए ही प्रादुर्भाव किया था अर्थात मातृत्व का पूर्ण अभाव कामदेव भी युवा शरीर लेकर प्रादुर्भावित हुए हैं। एक तरह से सृष्टि के प्रारम्भिक काल में सबके सब युवा जिनका एकमात्र कर्म यौवन भोग, शक्ति समागम, यौवनोन्माद, प्रतिस्पर्धा, द्वंद, युद्ध, मनमानी इत्यादि तभी तो ब्रह्मा, विष्णु आपस में द्वंद ग्रसित हुए, कामदेव ने यौवन के उन्माद में शिव पर पंच बाण चला दिए ।
विचित्र सृष्टि की रचना थी प्रारम्भिक काल में माता भी युवा, पुत्र भी युवा, पुत्री भी युवा, पिता भी युवा विचित्र विचित्र तरह के समागम हुए सृष्टि की प्रारम्भिक रचना में ब्रह्मा स्वरचित यौवनवान पुत्री को देख स्खलित हो बैठे एवं उनके स्खलित तेज से ही नौ नारायणों की उत्पत्ति हुई। सूर्य भी युवा, शनि भी युवा । युवा में से युवा उत्पन्न होने लगे अतः कम्पन्न अत्यधिक था वाचालता अधिक थी एवं इसी वाचालता को दूर करने के लिए आद्य और आद्या ने लीला रची और त्रिदेवों के मन में मातृत्व प्राप्ति की खोज प्रारम्भ करवाई। बालकों के समान रोते-चीखते, चिल्लाते व्यथित त्रिदेव आखिरकार श्री श्री यंत्रम् रूपी दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर तक पहुँच ही गये। .
मातेश्वरी त्रिपुराम्बिका वस्त्र विहीना हो अमृत सरोवर में स्नान कर रही थीं एवं उस समय सृष्टि में मौजूद परम तत्व को भी श्री श्री यंत्रम् के सबसे पवित्र एवं गोपनीय अमृत सरोवर तक पहुँचने की निषिद्धता थी परन्तु त्रिदेवोंने तो बाल्य भाव ग्रहण कर लिया था। जैसे-जैसे वे अमृत सरोवर के निकट आते गये उनका बाल्य भाव क्रमशः पूर्णता लेता गया। अपनी माता को देख वे तीनों मात्र स्पर्श हेतु अमृत सरोवर में कूद गये और देखते ही देखते तीनों त्रिदेव छ: माह के शिशुओं के रूप में परिवर्तित हो गये। मातृत्व जाग उठा वस्त्र विहीना त्रिपुर सुन्दरी ने तुरंत ही तीनों त्रिदेवों को गोद में उठा लिया एवं अमृत सरोवर के निकट बैठ उन्हें अपनी गोद में लिटा स्तन पान कराने लगीं।
सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का उदय हुआ था एवं समस्त सृष्टि त्रिदेवों के माध्यम से बाल्य भाव को प्राप्त कर रही थी अतः तीनों शिशु सम्हाले नहीं सम्हल रहे थे। वे और अधिक रूदन, विचलन और कंपन करने लगे, हाथ-पाँव पटकने लगे मातेश्वरी को अंग में भर लेने के लिए उनके अतुलित पूर्ण सौन्दर्य को आँखों में भर लेने के लिए वे उन्हें घूर घूर कर देख रहे थे, जितना ज्यादा अमृत पान हो जाये उसकी चेष्टा में लगे हुए थे। सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का अविष्कार हुआ था अतः सबके लिए कौतुक का विषय था। हाँ दत्तात्रेय तंत्रम् कौतुकम् आधारित ही है। अमृत सरोवर के अमृत कमल पर विराजित आद्य मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे एवं देखते ही देखते गणपति भी बाल्यावस्था को प्राप्त हो गये, कार्तिकेय भी बालक बन बैठे, भैरव ने भी बटुक वेश धारण कर लिया। चाण्डलिनी, कपालिनी, चामुण्डा योगिनियाँ, उन्मुक्त भैरवियाँ, भद्रकाली, वीरभद्र, कूष्माण्ड, वेताल, 52 वीर, नवनाथ रूपी शिवांश इत्यादि सबके सब अमृत सरोवर की तरफ दौड़ पड़े परन्तु मातेश्वरी की आँखों से उत्सर्जित होती मातृ दृष्टि के पड़ते ही सबके सब 6 माह के शिशु बन गये एक माह के शिशु बन गये, 3 माह के शिशु बन गये, सब रेंगने लगे, घुटने के बल चलने लगे, सब रूदन करने लगे स्तन पान के लिए मातृ स्पर्श के लिए। सभी में बाल्य भाव आ गया, सभी परम उन्मुक्त हो गये परन्तु भगवती परेशान हो गईं, किसे सम्हाले किसे न सम्हाले, समस्त सृष्टि ही बाल्य भाव में आ गई अतः सभी को माता चाहिए, सभी को मातृ स्पर्श चाहिए, सभी माता के दर्शन करना चाह रहे थे।
पहले सृष्टि युवा थी अब बाल्य अवस्था में आ गई। ध्यान रहे यौवन सम्पन्न स्त्री-पुरुष के समागम से ही बाल्य अवस्था प्रादुर्भावित होती है अर्थात शिशु का जन्म होता है अत: यह पूर्ण भ्रम है, यह पूर्ण मिथ्या है कि बाल्य अवस्था प्रथम है अपितु वह तो युवा अवस्था से उत्सर्जित युवता एवं प्रौढ़ता के बीच का एक सेतु है। युवावस्था सृष्टि की सर्वप्रथम अवस्था है एवं बाल्यावस्था तो द्वितीय अवस्था है। युवावस्था का खण्डन है बाल्यावस्था । जब जीवन युवावस्था के थपेड़ों यौवन गर्विता यौवनोन्माद इत्यादि की तपिश से व्यथित, विकारग्रस्त असंतुलित भ्रमित हो जाता है तब युवावस्था की अभिशप्तता को निर्मूल करती है बाल्यावस्था शिशु के जन्म से युवावस्था अनुशासित होती है, द्वंद रहित होती हैं, लक्ष्य को प्राप्त होती है, शीलवान होती है साथ ही आदर्शवान एवं जिम्मेदार बनती है युवावस्था बाल्यावस्था को उत्पन्न करने के पश्चात् । युवावस्था को नियंत्रित करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को लक्ष्य प्रदान करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को जीवन का लक्ष्य समझाती है बाल्यावस्था, जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है बाल्यावस्था अन्यथा युवावस्था तो आत्मघाती है, अंधी है। सबसे ज्यादा आत्महंता, कुण्ठित युद्धप्रिय प्रतिस्पर्धात्मक द्वंदात्मक, संग्राहक, विनाशकारी एवं कामोन्मादी युवा ही होते हैं। ये सब युवावस्था की विकारग्रस्तता के चिन्ह और लक्षण हैं। बाल्यावस्था के अभाव में युवावस्था किसी काम की नहीं है। आखिरकार समस्त बाल्यरूपी सृष्टि से घिरी मातेश्वरी अम्बिका ने त्रिदेवों को एक साथ गोद में उठाकर दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट स्थित बिल्व वृक्ष से संस्पर्शित करा दिया और देखते ही देखते एक अद्भुत शिशु ने प्रादुर्भाव लिया। तीन मुख, 6 हाथ धारण किए हुए दो वर्ष का एक शिशु निर्मित हो गया। अत्यंत ही धीर गंभीर, शालीन, शांत, सहज, पूर्ण बाल्यावस्था से सृजित इस शिशु को देख अम्बिका भाव विभोर हो उठीं। कुछ ही क्षणों में समस्त सृष्टि भी धीर- गम्भीर हो उठी, शालीन एवं शांत हो उठी, सहज हो उठी। आद्य ने कहा हे अंबिका ये कौन है ? अंबिका बोल उठीं ये मेरा पुत्र है, ये मेरा बालक है, मेरे अलावा किसी को नहीं जानता बस मुझे देखता है, मेरी अंगुली पकड़कर चलता है, मेरे पास ही रहता है सिर्फ मुझे समझता है अर्थात सिर्फ मेरा है। आद्य ने कहा "दिखाओ दिखाओ दिखाओ" अंबिका ने अपना पुत्र आद्य को दिखा दिया। .
आद्य की दृष्टि से समस्त सृष्टि ने अंबिका पुत्र के दर्शन किए और सब कह उठे "दत्त दत्त दत्त" अर्थात "हमे भी दीजिए- हमें भी दीजिए" और इस प्रकार दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट बिल्व वृक्ष के नीचे ललिताम्बा पुत्र दत्तात्रेय का जन्म हुआ। सदा बाल्यावस्था में रहने वाले बाल्य भाव को धारण करने वाले, बालकों के समान हृदय वाले, बालकों के समान हँसने वाले, बालक के समान मुस्कुराने और रोने वाले हैं भगवान दत्तात्रेय अर्थात अंबिका के पुत्र, ललिताम्बा के पुत्र शिव स्वरूप, शिव स्वरूप प्रदान करने वाले, शिवलिंग का निर्माण करने वाले हैं दत्तात्रेय कहाँ रखूं? अपने प्राण प्रिय बालक को, कहाँ छिपाऊं? इसे मैं इस भाव में राज राजेश्वरी चिंतन लीन थीं तभी दिव्य कैलाश की कामधेनु आ पहुँची एवं दत्तात्रेय को देखते ही उसके स्तनों से दुग्ध धारा प्रवाहित होने लगी। जो कोई दत्तात्रेय को देखता वह बाल्यभाव में आ जाता, उन्हें अपलक निहारने लगता। माता ने तुरंत ही दत्तात्रेय रूपी शिशु को कामधेनु की पीठ पर विराजमान कर दिया अब तो कामधेनु दत्तात्रेय को लेकर समस्त दिव्य कैलाश पर मंद-मंद मुस्कुराती घूमने लगीं। अद्भुत कौतुकम्, ये कौन आ गया? दिव्य कैलाश में, सबके सब विस्मय की दृष्टि से उन्हें निहारने लगे परन्तु आद्य भी प्रसन्न थे क्योंकि भैरवों के वाहन दत्तात्रेय को देख शांत हो जाते, चुपचाप बैठ जाते। श्वानों ने दिव्य कैलाश पर चीखना चिल्लाना बंद कर दिया, सर्पों ने भी व्यर्थ में फुफकारना बंद कर दिया वे सब दत्तात्रेय के ऊपर फण फैलाकर छाया करने लगे, कार्तिकेय का मयूर और गणेश का वाहन मूषक भी दत्तात्रेय के सानिध्य में आकर शांत और शालीन बन बैठे। 52 वीर, रण्डा-चण्डा, कपालिनियाँ, भैरवियाँ, योगनियाँ, वेताल, कूष्माण्ड इत्यादि सभी शिवगण कौतुक की दृष्टि से दत्तात्रेय को निहारने लगे।
अचानक एक दिन बाल्य दत्तात्रेय आद्य के निकट पहुँच गये एवं उन्हें शांत भाव से अपलक निहारने लगे, उनके गले में पड़ी रुद्राक्ष माला को पकड़ने लगे। शिवलोक में शालीनता, शिष्टता, तेजस्विता, निर्द्वन्दता का प्रतीक बने दत्तात्रेय को देख आद्य के अंदर भी पितृ भाव जाग उठा। उन्होंने अपने कण्ठ में पड़ी देवकार्य सिद्धि रुद्राक्ष माला, वर प्रदाता 11 मुखी रुद्राक्ष माला, सर्वकार्य सिद्धि माला और यहाँ तक कि विचित्र विचित्र रुद्राक्षों से निर्मित सिद्ध माला भी स्वयं के गले से उतारकर दत्तात्रेय के गले में धारण करा दी। जैसे ही आद्य ने दत्तात्रेय के मस्तिष्क को स्पर्श किया वे शिव स्वरूप हो गये, उनके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया एवं उनके 6 हाथों में त्रिशूल, चक्र, गदा, रुद्राक्ष माला, शंख, धनुष इत्यादि विराजमान हो गये। आद्य ने कहा हे अंबिका पुत्र, हे शिव स्वरूप, हे शिव शिष्य, हे शिव पुत्र आज से तू ब्रह्माण्ड का सबसे ज्ञानी, जो परम् अवधूत ज्ञान कोई जीवात्मा ग्रहण नहीं कर पायी वह तुझे प्राप्त होगा, वह तुझे देता हूँ मैं और तू समस्त जगत को देगा तेरा कार्य सिर्फ देना है, देते ही रहना और इस प्रकार दत्तात्रेय शिव पुत्र हुए। शिव शिष्य हुए गौ की पीठ पर विराजमान, गौ-रस का सेवन करने वाले, गौ सिद्धांत के प्रवर्तक, गौ के समान सर्वोपयोगी, गौ के समान परम शांत एवं शालीन दत्तात्रय मूल रूप से दिव्य कैलाश के गौ उद्यान में ही निवास करते हैं जहाँ से कि निरंतर "गं" तत्व का गुंजन होता है अतः वे आद्य गुरु कहलाये गकार के प्रवर्तक कहलाये ।
दिव्य कैलाश के गुरु उद्यान में दत्तात्रेय शांत भाव से विराजित थे तभी सभी एक-एक करके उनके पास आने लगे "हमें भी कुछ दो हमें भी कुछ दो" सब उनसे मांगने लगे क्या दिया जाय ? देने के लिए है ही क्या? क्या देना चाहिए? बस धीर गंभीर एवं परम शांत दत्तात्रेय सबको एक-एक कर उसकी प्रवृत्तिनुसार उसके चिंतन अनुसार शिवलिंग प्रदान करने लगे। गणेश को भी शिवलिंग कार्तिकेय को भी शिवलिंग, गंगा को भी शिवलिंग, नंदी को भी शिवलिंग, समस्त सृष्टि को भी शिवलिंग, समस्त गहों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय समस्त ऋषि मुनियों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय । शिव के अलावा कुछ नहीं, सभी शिव हैं और शिव में ही लीन होते हैं अवधूत दत्तात्रेय कह उठा। तीन आवरणों से ढँका शिव ही जीव है और आवरण मुक्त जीव ही शिव है। दिव्य कैलाश में होड़ मच गई शिवलिंग प्राप्त करने हेतु सब कहने लगे उसके शिवलिंग अद्भुत हैं, कौतुक करते हैं, वह शिवलिंगों में मंत्र फूंककर देता है एवं उसके द्वारा प्राप्त शिवलिंगों से जो मांगो वह मिलता है। दत्तात्रेय ने बृहस्पति को वृहद शिवलिंग प्रदान किया और वे देवताओं के गुरु बन बैठे ।
अवधूत दत्तात्रेय दिव्य कैलाश में विराजित अस्थि कंकालों से भी शिवलिंग बनाने लगा, स्वर्ण के भी शिवलिंग बना डाले मणियों के भी शिवलिंग बना डाले, लताओं के भी शिवलिंग बना डाले, जल से भी शिवलिंग बनाने लगा। देखते ही देखते सृष्टि में कोई ऐसा तत्व नहीं बचा जिससे कि शिवलिंग का निर्माण न होता हो उसने प्रत्येक प्रकार के शिवलिंग में कुछ न कुछ विशेषता डाल दी और इस प्रकार धूल को फूल बना देने की चमत्कारिक शक्ति से युक्त हो गये दत्तात्रेय यही सबसे गूढ़ रहस्य है कि धूल को भी शिव तुल्य बना देना, भस्म को भी शिवत्व प्रदान कर देना, कंकाल को भी शिव स्वरूप दे देना एवं जिसने यह कला सीख ली वह शिव को प्राप्त हुआ। आद्य चकरा गये कि कल तक नाना प्रकार के शरीर धारण किए हुए, आढ़े-तिरछे, बिना मुँह वाले, एक आँख वाले, एक टांग वाले अर्थात क्या कहा जाये ? प्रकृति एवं सृष्टि के सबसे विकृत, सब तरफ से त्याज्य बिना किसी काम के सबके द्वारा प्रताड़ित, निष्कासित उनके शिवगण अचानक शैव मय हो गये, शिव के समान दिखने लगे, सबके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया, सब शिव के समान सौन्दर्यवान हो उठे। चारों तरफ शिव के ही प्रतिरूप, शिवतुल्य, शिव गुणों से आच्छादित शिवगण ही दिव्य कैलाश में रमण कर रहे थे।
यह सब कैसे हुआ? किसने किया यह कौतुक, सब बोल उठे गुरु उद्यान में माँ अंबिका ने एक महान आत्मा अर्थात महात्मा उदित किया है एवं हम सब उसके पास जाते हैं और वह अपने हाथों से संस्पर्शित कर हमें शिव स्वरूप प्रदान करता है, हमें शिव के समान बना देता है, शिव श्रृंगार से युक्त कर देता है। वहीं हमें रुद्राक्ष धारण करना सिखाता है, वहीं हम पर भभूत मलता है, वही हमें पुनः रूप प्रदान करता है। यह कौतुक ही है, हाँ सृष्टि का सबसे बड़ा कौतुक अर्थात शिव निर्माण । शिव सब कुछ निर्मित करते हैं और दत्तात्रेय शिव निर्मित करते हैं। शिवोत्पन्न जब कालान्तर विकारग्रस्त हो जाते हैं, अपने कर्म बंधनों के कारण जन्म जन्मांतर तक ब्रह्मा निर्मित 84 लाख योनियों में भटक अपने वास्तविक शिव स्वरूप को खो बैठते हैं, शिव की एकरसता से विस्मृत हो जाते हैं तब दत्तात्रेय उन्हें पुनः शिवलिंग प्रदान कर, शिव स्वरूप प्रदान कर, शिव श्रृंगार प्रदान कर, शिव ज्ञान प्रदान कर शिव तुल्य बना देते हैं। .
शिव शासनत: शिव शासनत: