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श्री दत्त दर्शनम् ।।

             ब्रह्म लोक में विराजित ब्रह्मा, बैकुण्ठ लोक में विराजित श्री विष्णु एवं रुद्र लोक में ध्यानस्थ रुद्र अचानक विचलित हो उठे। वे अपने अपने दिव्यासनों के आस-पास बार बार उद्वेलित हो व्यथित हो इधर-उधर देखने लगे एवं उनकी शक्तियाँ अर्थात ब्राह्मी, लक्ष्मी एवं रुद्राणी उनकी वाचालता देख घबरा उठीं, अनेकों प्रकार के प्रयोजनों से त्रिदेवों की त्रिशक्तियों ने उन्हें पुनः स्थिर करना चाहा, शांत एवं प्रज्ञावान करना चाहा परन्तु त्रिदेवों का वाचाल कम्पन्न बढ़ता ही जा रहा था तीनों लोकों में हाहाकार मच गया, सबके सब वाचाल हो बैठे, सबके हृदय में एक बैचेनी सी महसूस होने लगी परन्तु कारण किसी की समझ में नहीं आ रहा था। आखिरकार त्रिदेव इतने वाचाल हो बैठे कि अपने-अपने सुखासनों से उठ अपने दिव्य वाहनों पर सवार हो "ह्रींकार" मार्ग की तरफ तीव्र गति से अग्रसर होने लगे। त्रिदेवों के कर्णों में "ह्रीं" का नाद गूंजने लगा। हां सब कुछ छोड़कर, सब तरफ से दृष्टि फेरकर, अपनी त्रिशक्तियों को भी छोड़कर सृष्टि के रचयिता, पालक एवं संहारक ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीव्र गति से ऊपर की तरफ गतिमान होने लगे। देखते ही देखते वे तीनों ऊर्ध्वगामी श्रीयंत्र रूपी दिव्य कैलाश के मुख्य द्वार पर पहुँच गये।

            दिव्य कैलाश की संरचना हूबहु ऊर्ध्वमुखी श्रीयंत्र की भांति है जिसके सबसे ऊपरी कक्ष में महाकामेश्वर परम शिव महाकामेश्वरी अर्थात भगवती त्रिपुर सुन्दरी के साथ अमृत सरोवर के दिव्य कुण्ड में अमृत कमल के ऊपर विराजमान हो अमृत सिंचन में लीन रहते हैं। दिव्य कैलाश के द्वार पर पहुँचते ही विष्णु के वाहन गरुड़, ब्रह्म के वाहन हंस एवं रुद्र के वाहन वृषभ ने गतिहीनता प्राप्त की और वे वहीं पर शक्तिहीन हो निस्तेज हो गये। त्रिदेवों ने अपने निस्तेज वाहनों को वहाँ छोड़ दिव्य कैलाश की नौ श्रृंखलाओं पर आरोहण प्रारम्भ किया। तीनों त्रिदेव एक-एक कर नौ दिव्य श्रृंखलाओं का आरोहण करते हुए आखिरकार लक्ष्य तक पहुँच ही गये अपनी माता को ढूंढने । हाँ “ह्रीँ" भगवती ललिताम्बा का बीज मंत्र है जो कि समस्त उत्पत्तियों का मूल बिन्दु हैं एवं त्रिदेवों की भी माता हैं। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने युवा रूप में आद्य एवं आद्या से जन्म प्राप्त किया। वे तीनों पूर्ण यौवनवान, पूर्ण युवा एवं पूर्ण विकसित स्वरूप में ही सर्वप्रथम उदित हुए थे अतः बाल्यावस्था छूट गई थी, माता का स्तनपान छूट गया था, मातेश्वरी के सम्पूर्ण दर्शन उनके चरित्र में रिक्त रह गये थे। यही उनके विकार ग्रस्त होने का मुख्य कारण था। 

        प्रारम्भ में जब ब्रह्मा ने सृष्टि रचना प्रारम्भ की तब उन्होंने समस्त जीव युवावस्था के ही रच डाले, जैसे थे वैसे ही रचने लगे। रुद्र और विष्णु ने भी सृष्टि रचना में हाथ बंटाते हुए अपने ही समान पूर्व युवा गण रच डाले जो कि कालान्तर रुद्र गण एवं विष्णु गण कहलाये। देवता एवं देवियाँ भी युवा ही उत्पन्न होने लगे, देवता एवं देवियों का जन्म ब्रह्म पुष्प के ऊपर 4 घण्टे में हो जाता है अर्थात ब्रह्मा ब्रह्म पुष्प के अंदर 4 घण्टे के भीतर युवावस्था लिए हुए देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व इत्यादि प्रादुर्भावित कर देते हैं। जब बाल्य अवस्था देखी ही नहीं तो बाल्य अवस्था का अनुभव कैसे होगा ? नारद से लेकर समस्त सप्त ऋषि अर्थात ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्र, प्रथम मनु एवं प्रथम प्रजापतियों ने युवा शरीर धारण किए हुए ही प्रादुर्भाव किया था अर्थात मातृत्व का पूर्ण अभाव कामदेव भी युवा शरीर लेकर प्रादुर्भावित हुए हैं। एक तरह से सृष्टि के प्रारम्भिक काल में सबके सब युवा जिनका एकमात्र कर्म यौवन भोग, शक्ति समागम, यौवनोन्माद, प्रतिस्पर्धा, द्वंद, युद्ध, मनमानी इत्यादि तभी तो ब्रह्मा, विष्णु आपस में द्वंद ग्रसित हुए, कामदेव ने यौवन के उन्माद में शिव पर पंच बाण चला दिए । 

        विचित्र सृष्टि की रचना थी प्रारम्भिक काल में माता भी युवा, पुत्र भी युवा, पुत्री भी युवा, पिता भी युवा विचित्र विचित्र तरह के समागम हुए सृष्टि की प्रारम्भिक रचना में ब्रह्मा स्वरचित यौवनवान पुत्री को देख स्खलित हो बैठे एवं उनके स्खलित तेज से ही नौ नारायणों की उत्पत्ति हुई। सूर्य भी युवा, शनि भी युवा । युवा में से युवा उत्पन्न होने लगे अतः कम्पन्न अत्यधिक था वाचालता अधिक थी एवं इसी वाचालता को दूर करने के लिए आद्य और आद्या ने लीला रची और त्रिदेवों के मन में मातृत्व प्राप्ति की खोज प्रारम्भ करवाई। बालकों के समान रोते-चीखते, चिल्लाते व्यथित त्रिदेव आखिरकार श्री श्री यंत्रम् रूपी दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर तक पहुँच ही गये। .

मातेश्वरी त्रिपुराम्बिका वस्त्र विहीना हो अमृत सरोवर में स्नान कर रही थीं एवं उस समय सृष्टि में मौजूद परम तत्व को भी श्री श्री यंत्रम् के सबसे पवित्र एवं गोपनीय अमृत सरोवर तक पहुँचने की निषिद्धता थी परन्तु त्रिदेवोंने तो बाल्य भाव ग्रहण कर लिया था। जैसे-जैसे वे अमृत सरोवर के निकट आते गये उनका बाल्य भाव क्रमशः पूर्णता लेता गया। अपनी माता को देख वे तीनों मात्र स्पर्श हेतु अमृत सरोवर में कूद गये और देखते ही देखते तीनों त्रिदेव छ: माह के शिशुओं के रूप में परिवर्तित हो गये। मातृत्व जाग उठा वस्त्र विहीना त्रिपुर सुन्दरी ने तुरंत ही तीनों त्रिदेवों को गोद में उठा लिया एवं अमृत सरोवर के निकट बैठ उन्हें अपनी गोद में लिटा स्तन पान कराने लगीं। 

           सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का उदय हुआ था एवं समस्त सृष्टि त्रिदेवों के माध्यम से बाल्य भाव को प्राप्त कर रही थी अतः तीनों शिशु सम्हाले नहीं सम्हल रहे थे। वे और अधिक रूदन, विचलन और कंपन करने लगे, हाथ-पाँव पटकने लगे मातेश्वरी को अंग में भर लेने के लिए उनके अतुलित पूर्ण सौन्दर्य को आँखों में भर लेने के लिए वे उन्हें घूर घूर कर देख रहे थे, जितना ज्यादा अमृत पान हो जाये उसकी चेष्टा में लगे हुए थे। सृष्टि में प्रथम बार बाल्य भाव का अविष्कार हुआ था अतः सबके लिए कौतुक का विषय था। हाँ दत्तात्रेय तंत्रम् कौतुकम् आधारित ही है। अमृत सरोवर के अमृत कमल पर विराजित आद्य मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे एवं देखते ही देखते गणपति भी बाल्यावस्था को प्राप्त हो गये, कार्तिकेय भी बालक बन बैठे, भैरव ने भी बटुक वेश धारण कर लिया। चाण्डलिनी, कपालिनी, चामुण्डा योगिनियाँ, उन्मुक्त भैरवियाँ, भद्रकाली, वीरभद्र, कूष्माण्ड, वेताल, 52 वीर, नवनाथ रूपी शिवांश इत्यादि सबके सब अमृत सरोवर की तरफ दौड़ पड़े परन्तु मातेश्वरी की आँखों से उत्सर्जित होती मातृ दृष्टि के पड़ते ही सबके सब 6 माह के शिशु बन गये एक माह के शिशु बन गये, 3 माह के शिशु बन गये, सब रेंगने लगे, घुटने के बल चलने लगे, सब रूदन करने लगे स्तन पान के लिए मातृ स्पर्श के लिए। सभी में बाल्य भाव आ गया, सभी परम उन्मुक्त हो गये परन्तु भगवती परेशान हो गईं, किसे सम्हाले किसे न सम्हाले, समस्त सृष्टि ही बाल्य भाव में आ गई अतः सभी को माता चाहिए, सभी को मातृ स्पर्श चाहिए, सभी माता के दर्शन करना चाह रहे थे। 

         पहले सृष्टि युवा थी अब बाल्य अवस्था में आ गई। ध्यान रहे यौवन सम्पन्न स्त्री-पुरुष के समागम से ही बाल्य अवस्था प्रादुर्भावित होती है अर्थात शिशु का जन्म होता है अत: यह पूर्ण भ्रम है, यह पूर्ण मिथ्या है कि बाल्य अवस्था प्रथम है अपितु वह तो युवा अवस्था से उत्सर्जित युवता एवं प्रौढ़ता के बीच का एक सेतु है। युवावस्था सृष्टि की सर्वप्रथम अवस्था है एवं बाल्यावस्था तो द्वितीय अवस्था है। युवावस्था का खण्डन है बाल्यावस्था । जब जीवन युवावस्था के थपेड़ों यौवन गर्विता यौवनोन्माद इत्यादि की तपिश से व्यथित, विकारग्रस्त असंतुलित भ्रमित हो जाता है तब युवावस्था की अभिशप्तता को निर्मूल करती है बाल्यावस्था शिशु के जन्म से युवावस्था अनुशासित होती है, द्वंद रहित होती हैं, लक्ष्य को प्राप्त होती है, शीलवान होती है साथ ही आदर्शवान एवं जिम्मेदार बनती है युवावस्था बाल्यावस्था को उत्पन्न करने के पश्चात् । युवावस्था को नियंत्रित करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को लक्ष्य प्रदान करती है बाल्यावस्था, युवावस्था को जीवन का लक्ष्य समझाती है बाल्यावस्था, जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है बाल्यावस्था अन्यथा युवावस्था तो आत्मघाती है, अंधी है। सबसे ज्यादा आत्महंता, कुण्ठित युद्धप्रिय प्रतिस्पर्धात्मक द्वंदात्मक, संग्राहक, विनाशकारी एवं कामोन्मादी युवा ही होते हैं। ये सब युवावस्था की विकारग्रस्तता के चिन्ह और लक्षण हैं। बाल्यावस्था के अभाव में युवावस्था किसी काम की नहीं है। आखिरकार समस्त बाल्यरूपी सृष्टि से घिरी मातेश्वरी अम्बिका ने त्रिदेवों को एक साथ गोद में उठाकर दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट स्थित बिल्व वृक्ष से संस्पर्शित करा दिया और देखते ही देखते एक अद्भुत शिशु ने प्रादुर्भाव लिया। तीन मुख, 6 हाथ धारण किए हुए दो वर्ष का एक शिशु निर्मित हो गया। अत्यंत ही धीर गंभीर, शालीन, शांत, सहज, पूर्ण बाल्यावस्था से सृजित इस शिशु को देख अम्बिका भाव विभोर हो उठीं। कुछ ही क्षणों में समस्त सृष्टि भी धीर- गम्भीर हो उठी, शालीन एवं शांत हो उठी, सहज हो उठी। आद्य ने कहा हे अंबिका ये कौन है ? अंबिका बोल उठीं ये मेरा पुत्र है, ये मेरा बालक है, मेरे अलावा किसी को नहीं जानता बस मुझे देखता है, मेरी अंगुली पकड़कर चलता है, मेरे पास ही रहता है सिर्फ मुझे समझता है अर्थात सिर्फ मेरा है। आद्य ने कहा "दिखाओ दिखाओ दिखाओ" अंबिका ने अपना पुत्र आद्य को दिखा दिया। .

आद्य की दृष्टि से समस्त सृष्टि ने अंबिका पुत्र के दर्शन किए और सब कह उठे "दत्त दत्त दत्त" अर्थात "हमे भी दीजिए- हमें भी दीजिए" और इस प्रकार दिव्य कैलाश के अमृत सरोवर के निकट बिल्व वृक्ष के नीचे ललिताम्बा पुत्र दत्तात्रेय का जन्म हुआ। सदा बाल्यावस्था में रहने वाले बाल्य भाव को धारण करने वाले, बालकों के समान हृदय वाले, बालकों के समान हँसने वाले, बालक के समान मुस्कुराने और रोने वाले हैं भगवान दत्तात्रेय अर्थात अंबिका के पुत्र, ललिताम्बा के पुत्र शिव स्वरूप, शिव स्वरूप प्रदान करने वाले, शिवलिंग का निर्माण करने वाले हैं दत्तात्रेय कहाँ रखूं? अपने प्राण प्रिय बालक को, कहाँ छिपाऊं? इसे मैं इस भाव में राज राजेश्वरी चिंतन लीन थीं तभी दिव्य कैलाश की कामधेनु आ पहुँची एवं दत्तात्रेय को देखते ही उसके स्तनों से दुग्ध धारा प्रवाहित होने लगी। जो कोई दत्तात्रेय को देखता वह बाल्यभाव में आ जाता, उन्हें अपलक निहारने लगता। माता ने तुरंत ही दत्तात्रेय रूपी शिशु को कामधेनु की पीठ पर विराजमान कर दिया अब तो कामधेनु दत्तात्रेय को लेकर समस्त दिव्य कैलाश पर मंद-मंद मुस्कुराती घूमने लगीं। अद्भुत कौतुकम्, ये कौन आ गया? दिव्य कैलाश में, सबके सब विस्मय की दृष्टि से उन्हें निहारने लगे परन्तु आद्य भी प्रसन्न थे क्योंकि भैरवों के वाहन दत्तात्रेय को देख शांत हो जाते, चुपचाप बैठ जाते। श्वानों ने दिव्य कैलाश पर चीखना चिल्लाना बंद कर दिया, सर्पों ने भी व्यर्थ में फुफकारना बंद कर दिया वे सब दत्तात्रेय के ऊपर फण फैलाकर छाया करने लगे, कार्तिकेय का मयूर और गणेश का वाहन मूषक भी दत्तात्रेय के सानिध्य में आकर शांत और शालीन बन बैठे। 52 वीर, रण्डा-चण्डा, कपालिनियाँ, भैरवियाँ, योगनियाँ, वेताल, कूष्माण्ड इत्यादि सभी शिवगण कौतुक की दृष्टि से दत्तात्रेय को निहारने लगे। 

         अचानक एक दिन बाल्य दत्तात्रेय आद्य के निकट पहुँच गये एवं उन्हें शांत भाव से अपलक निहारने लगे, उनके गले में पड़ी रुद्राक्ष माला को पकड़ने लगे। शिवलोक में शालीनता, शिष्टता, तेजस्विता, निर्द्वन्दता का प्रतीक बने दत्तात्रेय को देख आद्य के अंदर भी पितृ भाव जाग उठा। उन्होंने अपने कण्ठ में पड़ी देवकार्य सिद्धि रुद्राक्ष माला, वर प्रदाता 11 मुखी रुद्राक्ष माला, सर्वकार्य सिद्धि माला और यहाँ तक कि विचित्र विचित्र रुद्राक्षों से निर्मित सिद्ध माला भी स्वयं के गले से उतारकर दत्तात्रेय के गले में धारण करा दी। जैसे ही आद्य ने दत्तात्रेय के मस्तिष्क को स्पर्श किया वे शिव स्वरूप हो गये, उनके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया एवं उनके 6 हाथों में त्रिशूल, चक्र, गदा, रुद्राक्ष माला, शंख, धनुष इत्यादि विराजमान हो गये। आद्य ने कहा हे अंबिका पुत्र, हे शिव स्वरूप, हे शिव शिष्य, हे शिव पुत्र आज से तू ब्रह्माण्ड का सबसे ज्ञानी, जो परम् अवधूत ज्ञान कोई जीवात्मा ग्रहण नहीं कर पायी वह तुझे प्राप्त होगा, वह तुझे देता हूँ मैं और तू समस्त जगत को देगा तेरा कार्य सिर्फ देना है, देते ही रहना और इस प्रकार दत्तात्रेय शिव पुत्र हुए। शिव शिष्य हुए गौ की पीठ पर विराजमान, गौ-रस का सेवन करने वाले, गौ सिद्धांत के प्रवर्तक, गौ के समान सर्वोपयोगी, गौ के समान परम शांत एवं शालीन दत्तात्रय मूल रूप से दिव्य कैलाश के गौ उद्यान में ही निवास करते हैं जहाँ से कि निरंतर "गं" तत्व का गुंजन होता है अतः वे आद्य गुरु कहलाये गकार के प्रवर्तक कहलाये । 

             दिव्य कैलाश के गुरु उद्यान में दत्तात्रेय शांत भाव से विराजित थे तभी सभी एक-एक करके उनके पास आने लगे "हमें भी कुछ दो हमें भी कुछ दो" सब उनसे मांगने लगे क्या दिया जाय ? देने के लिए है ही क्या? क्या देना चाहिए? बस धीर गंभीर एवं परम शांत दत्तात्रेय सबको एक-एक कर उसकी प्रवृत्तिनुसार उसके चिंतन अनुसार शिवलिंग प्रदान करने लगे। गणेश को भी शिवलिंग कार्तिकेय को भी शिवलिंग, गंगा को भी शिवलिंग, नंदी को भी शिवलिंग, समस्त सृष्टि को भी शिवलिंग, समस्त गहों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय समस्त ऋषि मुनियों को भी शिवलिंग प्रदान करते हैं दत्तात्रेय । शिव के अलावा कुछ नहीं, सभी शिव हैं और शिव में ही लीन होते हैं अवधूत दत्तात्रेय कह उठा। तीन आवरणों से ढँका शिव ही जीव है और आवरण मुक्त जीव ही शिव है। दिव्य कैलाश में होड़ मच गई शिवलिंग प्राप्त करने हेतु सब कहने लगे उसके शिवलिंग अद्भुत हैं, कौतुक करते हैं, वह शिवलिंगों में मंत्र फूंककर देता है एवं उसके द्वारा प्राप्त शिवलिंगों से जो मांगो वह मिलता है। दत्तात्रेय ने बृहस्पति को वृहद शिवलिंग प्रदान किया और वे देवताओं के गुरु बन बैठे । 

अवधूत दत्तात्रेय दिव्य कैलाश में विराजित अस्थि कंकालों से भी शिवलिंग बनाने लगा, स्वर्ण के भी शिवलिंग बना डाले मणियों के भी शिवलिंग बना डाले, लताओं के भी शिवलिंग बना डाले, जल से भी शिवलिंग बनाने लगा। देखते ही देखते सृष्टि में कोई ऐसा तत्व नहीं बचा जिससे कि शिवलिंग का निर्माण न होता हो उसने प्रत्येक प्रकार के शिवलिंग में कुछ न कुछ विशेषता डाल दी और इस प्रकार धूल को फूल बना देने की चमत्कारिक शक्ति से युक्त हो गये दत्तात्रेय यही सबसे गूढ़ रहस्य है कि धूल को भी शिव तुल्य बना देना, भस्म को भी शिवत्व प्रदान कर देना, कंकाल को भी शिव स्वरूप दे देना एवं जिसने यह कला सीख ली वह शिव को प्राप्त हुआ। आद्य चकरा गये कि कल तक नाना प्रकार के शरीर धारण किए हुए, आढ़े-तिरछे, बिना मुँह वाले, एक आँख वाले, एक टांग वाले अर्थात क्या कहा जाये ? प्रकृति एवं सृष्टि के सबसे विकृत, सब तरफ से त्याज्य बिना किसी काम के सबके द्वारा प्रताड़ित, निष्कासित उनके शिवगण अचानक शैव मय हो गये, शिव के समान दिखने लगे, सबके मस्तक पर त्रिपुण्ड उभर आया, सब शिव के समान सौन्दर्यवान हो उठे। चारों तरफ शिव के ही प्रतिरूप, शिवतुल्य, शिव गुणों से आच्छादित शिवगण ही दिव्य कैलाश में रमण कर रहे थे। 

       यह सब कैसे हुआ? किसने किया यह कौतुक, सब बोल उठे गुरु उद्यान में माँ अंबिका ने एक महान आत्मा अर्थात महात्मा उदित किया है एवं हम सब उसके पास जाते हैं और वह अपने हाथों से संस्पर्शित कर हमें शिव स्वरूप प्रदान करता है, हमें शिव के समान बना देता है, शिव श्रृंगार से युक्त कर देता है। वहीं हमें रुद्राक्ष धारण करना सिखाता है, वहीं हम पर भभूत मलता है, वही हमें पुनः रूप प्रदान करता है। यह कौतुक ही है, हाँ सृष्टि का सबसे बड़ा कौतुक अर्थात शिव निर्माण । शिव सब कुछ निर्मित करते हैं और दत्तात्रेय शिव निर्मित करते हैं। शिवोत्पन्न जब कालान्तर विकारग्रस्त हो जाते हैं, अपने कर्म बंधनों के कारण जन्म जन्मांतर तक ब्रह्मा निर्मित 84 लाख योनियों में भटक अपने वास्तविक शिव स्वरूप को खो बैठते हैं, शिव की एकरसता से विस्मृत हो जाते हैं तब दत्तात्रेय उन्हें पुनः शिवलिंग प्रदान कर, शिव स्वरूप प्रदान कर, शिव श्रृंगार प्रदान कर, शिव ज्ञान प्रदान कर शिव तुल्य बना देते हैं। .

                       शिव शासनत: शिव शासनत:

आसन को सिद्ध करने की विधि ।।

      इसके लिए, आप एक नया रंगबिरंगा ऊनी कम्बल ले सकते हैं और इसे सिद्ध करने के पश्चात, इसके ऊपर आप, अपने वांछित रंग का रेशमी या ऊनी वस्त्र भी , बिछा सकते हैं |
मैथुन चक्र
      मंगलवार की प्रातः, पूर्ण स्नान कर, लाल वस्त्र धारण कर, लाल आसन पर बैठकर, भूमि पर तीन मैथुन चक्र का निर्माण क्रम से , कुमकुम के द्वारा कर ले । 1 और 3 चक्र छोटे होंगे और मध्य वाला आकार में , थोडा बड़ा होगा । मध्य वाले चक्र के मध्य में , बिंदु का अंकन किया जायेगा। बाकी के , दोनों चक्र में , ये अंकन नहीं होगा । मध्य वाले चक्र में , आप उस कम्बल को मोड़कर रख दे । अपने बाएं तरफ वाले , चक्र के मध्य में , तिल के तेल का दीपक, प्रज्वलित कर ले। और, दाहिने तरफ वाले चक्र में, गौघृत का दीपक प्रज्वलित कर ले। हां, दोनों दीपक, चार चार बत्तियों वाले होने चाहिए । अब, गुरु पूजन और गणपति पूजन के पश्चात, पंचोपचार विधि से , उन दोनों दीपकों का भी पूजन करे। नैवेद्य की जगह कोई भी , मौसमी फल अर्पित करें ।

      इसके बाद, उस कम्बल का पंचोपचार पूजन करें | तत्पश्चात कुमकुम मिले 108-108 अक्षत को, निम्न मंत्र क्रम से बोलते हुए, उस कम्बल पर डालें –

" ऐं ज्ञान शक्ति स्थापयामि नमः। 

ह्रीं इच्छाशक्ति स्थापयामि नमः।

क्लीं क्रियाशक्ति स्थापयामि नमः।। "

तत्पश्चात, निम्न ध्यान मंत्र का 7 बार उच्चारण करे। और ध्यान के बाद, जल के छींटे , उस वस्त्र पर छिडके ।

" ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय माम देवी: पवित्रं कुरु च आसनं ।।

ॐ सिद्धासनाय नमः ॐ कमलासनाय नमः ॐ सिद्ध सिद्धासनाय नमः।। "

      इसके बाद, निम्न मंत्र का, उच्चारण करते हुए, पुष्प मिश्रित अक्षत को, उस कम्बल या वस्त्र पर 324 बार अर्पित करें ।

" ॐ ह्रीं क्लीं ऐं श्रीं सप्तलोकं धात्रि अमुकं आसने सिद्धिं भू: देव्यै नमः ।। "

      ये क्रम गुरूवार तक, नित्य संपन्न करें । मात्र 3 दिन में ही , आप इस सामान्य (किंतु दुर्लभ) प्रक्रिया के माध्यम से , अपने आसन को सिद्ध कर सकते हैं । ये 3 दिन की मेहनत, आपके जीवन भर काम आयेगी ।

      जहां पर अमुक लिखा हुआ है , वहां अपना नाम उच्चारित करना है ।अंतिम दिवस, क्रिया पूर्ण होने के बाद, किसी भी देवी के मंदिर में , कुछ दक्षिणा और भोजन सामग्री अर्पित कर दें तथा कुछ धन राशि, जो आपके सामर्थ्यानुसार हो , अपने गुरु के चरणों में, अर्पित कर दें या गुरु धाम में, भेज दें तथा सदगुरुदेव से , इस क्रिया में पूर्ण सफलता का आशीर्वाद लें । अद्भुत बात ये है कि , आप इस कम्बल को जब भी बिछाकर, इस पर बैठेंगे , तो ना सिर्फ सहजता का अनुभव करेंगे ।अपितु , समय कैसे बीत जाएगा, आपको ज्ञात भी नहीं होगा।

      दीर्घ कालीन साधना , कहीं ज्यादा सरलता से, ऐसे सिद्ध आसन पर, संपन्न की जा सकती है। आप इसके तेज की जांच करवा कर देख सकते हैं कि, कितना अंतर है , सामान्य आसन में और इस पद्धति से सिद्ध आसन में । आप ऐसे दो आसन, सिद्ध कर लीजिए; एक आसन आप अपने , गुरु के बैठने के निमित्त, प्रयोग कर सकते हैं । आपको दो बातों का , ध्यान रखना होगा ।

1. इन आसनों को , धोया नहीं जाता है ।

2. इन पर, हमारे अतिरिक्त कोई और नहीं बैठ सकता है। अन्यथा, उसकी मानसिक स्थिति व्यथित हो सकती है ।

      अतः , यदि किसी और के निमित्त आसन तैयार करना हो तो , अमुक की जगह, उसका नाम उच्चारित कर आसन सिद्ध करना होगा । स्वयं के अतिरिक्त, जो हम गुरु सत्ता या सिद्धों के , आवाहन हेतु , जो आसन प्रयोग करेंगे। उसे सिद्ध करने के लिए, अमुक की स्थान पर, ज्ञानशक्तिं का उच्चारण होगा। .

“पूर्णम पूर्णै सपरिपूर्ण: आसन: दिव्यताम सिद्धि:”

       अर्थात, आसन मात्र आसन न हो । अपितु , उसमे पूर्ण दिव्यता का संचार हो और वो दिव्यता से , युक्त हो ।तभी, उसके प्रयोग से, साधक की देह, दिव्य भाव युक्त होती है । यदि, उसका भाव या साधना पक्ष, उसे पूर्णत्व के मार्ग पर, सहजता से, गतिशील करा देता है और, साधक को पूर्णता प्राप्त होती ही है । यहां पूर्णम का अर्थ भी यही है कि , माध्यम पूर्णत्व गुण युक्त हो , तभी तो पूर्णत्व प्राप्त होगा ।

       ये ज्ञात नहीं है कि , आसन। यदि , पूर्ण प्रतिष्ठा से युक्त ना हो तो, हम चाहे कितने भी गुदगुदे आसन पर या गद्दे पर बैठ जाएं, हम हिलते-डुलते रहेंगे और हमारे चित्त में बैचेनी की तीव्रता बनी रहेगी । इसका कारण, हमारे शरीर का मजबूत होना नहीं है । अपितु , भूमि के भीतर रहने वाली नकारात्मक शक्तियां , सुरक्षा आवरण विहीन हमारी , इस भौतिक देह से , सरलता से संपर्क कर लेती हैं । तब, उनके दुष्प्रभाव से , हमारा चित्त भी बैचेन हो जाता है और शरीर भी टूटने लगता है। वे सतत हमें , साधना से, विमुख होने के भाव से, प्रभावित करते रहते हैं । जब ऐसी स्थिति होगी, आप व्याकुल मन और अस्थिर शरीर से, कैसे साधना करोगे और कैसे आपको सफलता मिलेगी । यदि, आप आसन से अलग हो जाते हो तो, पुनःना सिर्फ, आपका शरीर स्वस्थ हो जाता है ।बल्कि, आपका चित्त भी प्रसन्न हो जाता है । .

संसार रोग हरणम् ।।

              संसार रोग से ग्रसित हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का विवाह विष्णु से तय करने की ठानी। हिमालय की नजर में शिव रोगी थे, यही तो विडम्बना है, इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि रोगी रोग नहीं पहचान पाता। रोग को पहचान ले तो फिर शिव नहीं हो जायेगा। स्व उपचार,स्व आरोग्यता,स्व रोगविहीनता ही अध्यात्म है। कहीं तुम्हें आत्म प्रशंसा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें सुरक्षा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें पंथ या किसी महापुरुष के आकर्षण का रोग तो नहीं लग गया,लग गया हो तो बता देना । चिकित्सकों की जरूरत हर स्तर पर जीव को इस संसार में पड़ती है। आध्यात्मिक रोगों के लिए आध्यात्मिक चिकित्सक,समझने समझाने के रोग से मुक्ति के लिए समझने और समझाने वाले प्रवचनबाज चिकित्सकों की जरूरत । आध्यात्मिक धरातल पर विपन्न हुए लोगों को तथाकथित गुरुओं और वंश से चिकित्सा की जरूरत महसूस होती है। चिकित्सकों की जरूरत स्वयं अपने आपमें महारोग है इसलिए आजकल जिधर देखो उधर आध्यात्मिक चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक,पिरामिड चिकित्सक,हस्तरेखा चिकित्सक चलो बंद करता हूँ ज्यादा समय खराब न हों। 

               परन्तु मजेदार बात यह है, गूढ़ तत्व यह है कि चिकित्सक स्वयं रोगी हैं और उनके चिकित्सक हैं उनके रोगी। अर्थात रोगी चिकित्सक हैं और चिकित्सक रोगी। समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वह ना समझ है। हाथ जोड़कर विनती है "शिव शरणम गच्छामि " शिवाय नमः शिवंलिंगाय नमः, भवाय नमः, भव लिंगाय नमः, शर्वाय नमः, शर्वलिंगाय नमः, भीमाय नमः भीमलिंगाय नमः, बलाय नमः, बलनाथाय नमः, यही मूलभूत औषधि है इसके ऊपर की परम औषधि है हराय नमः, हर नाथाय नमः और इससे भी ऊपर के सूक्ष्मातीत औषधि है ॐ नमः शम्भवाय च मयोभयाव च नमः शंकराय च मयस्कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च । अंत मे आरोग्यता का महामंत्र है शिवोऽहम् शिवोऽहम्।

        परम प्रतापी अंगिरा ऋषि के महातेजस्वी पुत्र थे अंगीरस । शिव के प्रेम में ओत- प्रोत बस पहुँच गये काशी,निर्मित किया शिवलिङ्ग और घुस गये गुफा के अंदर वृहद तपस्या हेतु पता नहीं कितने वर्ष बीत गये,आ गये शिव जी बोले अंगीरस तेरी तपस्या तो अत्यंत वृहद है अतः मैं तुझे वृहद् बना देता हूँ आज से तू वृहस्पति और तेरे शिवलिङ्ग का नाम वृहदेश्वर। आज से तू देवताओं का गुरु और जो भी तेरे शिवलिङ्ग का पूजन करेगा वह इस संसार में जगद्गुरु के नाम से विख्यात् होगा। शिव का आदेश आदि शंकर ने भी जगत्गुरु की पदवी प्राप्त करने के लिए वृहदेश्वर का अर्चन किया,कृष्ण ने भी यही किया। शिव, शिवलिङ्गों को गोपनीय कर देते है, शिव शिवलिङ्गों को दुर्गम कर देते है, शिव शिवलिङ्गों तक साधकों को पहुँचने नहीं देते क्योंकि अगर पहुँच गया तो वह प्राप्त हो जायेगा जो शायद विधाता ने उसकी किस्मत में न लिखा हो शिव विष्णु का मान रखते हैं,महामाया का सम्मान रखते हैं क्योंकि शिव व्यवस्था में पाप और पुण्यों का लेखा जोखा नहीं है। 

              चित्रगुप्त की किताब का महत्व शून्य है, ब्रह्मा की लेखनी की शिव को कभी परवाह नहीं रही। जीव कह उठता है। देवी लोक में देवी ने डाँट कर भगा दिया कहा जा मुझे फुर्सत नहीं है अभी मैं असुरों के विनाश में लगी हुई हूँ,नियम बड़े कड़े हैं, पृथ्वी तो सामाजिक और बेतुके नियम से शासित है मनुष्य तो मनुष्य को भगाता ही है,मनुष्य,मनुष्य को क्या शरण देगा ? पशु तो हिंसक हैं भक्षण कर जायेंगे,देवता कदापि जीव का सानिध्य पसंद नहीं करते एवं उसे हेय दृष्टि से देखते हैं,बैकुण्ठ में तो सात्विकता है विष्णु आसानी से प्रविष्ठी नहीं देते,कर्मों की बात करते हैं। कर्म आधारित गीता सुनाते हैं,यमराज तो पाप और पुण्यों का सांख्य योग लगाते हैं अतः अंत में थक हारकर सब तरफ से निष्कासित,अल्प बुद्धि,निरीह जीव को केवल शिव ही शरण देते हैं। शिव लोक का नियम ही यही है कि सब लोकों से निष्कासित,सब लोकों से तिरस्कृत,सब लोकों के अयोग्य जीव को केवल एकमात्र शिव ही शरण देते हैं, वे ही गले लगाते हैं, वे ही सानिध्य देते हैं क्योंकि शिव को ही जीव से प्रेम है। यह है शिव लोक की विहंगमता,इसी कारणवश दुर्लभ शिवलिङ्ग गोपनीय हो गये हैं।

                 शिव नित्य प्रतिनित्य कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करते, लोकान्तर की व्यवस्था नहीं बिगाड़ते। ब्रह्मा की लेखनी को सामान्यतः मिथ्या साबित नहीं करते परन्तु शिव शिव हैं। स्वयं कालकूट विष पिया,विष को कण्ठ से नीचे उतरने नहीं दिया क्योंकि उदरस्थ प्राणियों से प्रेम था और नील कण्ठेश्वर हो गये। जिन देवताओं को अमृत दिया उनके पद बदलते हैं, इन्द्र का पद बदलता है, ब्रह्मा का पद बदलता है, विष्णु के भी अवतार होते रहते हैं अतः शिव अमृत से ऊपर की स्थिति हैं,शिवत्व के

आगे अमृत्व हीन है। शक्ति तो शिथिल होती है, रोगग्रस्त होती है अतः पुनः ऊर्जावान होने के लिए, पुनः स्वस्थ होने के लिए शिव सानिध्य में विराजती है। यही भैरवी रहस्यम् है । काली के चरणों में शिव लेट जाते हैं जिससे कि काली पवित्र बनी रहे । राजराजेश्वरी लेटे हुए सदाशिव के ऊपर विराजती हैं, राज राजेश्वरी राजाओं की अधिष्ठात्री हैं एवं शिव नीचे से देखते रहते हैं, त्रिशूल लिए हुए सतर्क रहते हैं ।

         सभी देवियों के साथ धीरें से शिव जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे शक्ति को अकेला नहीं छोड़ते। सिंह के ऊपर सदाशिव लेट गये और उनके नाभिकमल पर कामाख्या विराजमान हो गईं, आधार शिव ही देते हैं। जगत जननी पार्वती रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठी हुई हैं अभी शिव से विवाह होने वाला था बस छः वर्ष के बालक का रूप धर शिव आ गये और पार्वती के सामने नृत्य करने लगे। पार्वती की दृष्टि शिव पर अटक गई। नाचते-नाचते पार्वती की गोद में चढ़कर बैठ गये शिव। सब देवताओं ने जोर लगा लिया पर शिव को पार्वती की गोद से नहीं उतार पाये, भैरव आ गये, यह है भैरव रहस्यम् । शक्ति के पीछे-पीछे चलते है भैरव, शक्ति की गोद में खेलते है भैरव मातृत्व की सृष्टि हो गई, माँ की गोद से बच्चे को अलग करके दिखाओ। सर्वप्रथम यह सृष्टी जीवन विहीन थी बस चारों तरफ जड़ पिण्ड घूम रहे थे अचानक विराट पुरुष ने असंख्य जीवों का निर्माण कर सब के अंदर अपने आपको स्थित कर लिया और इस प्रकार सृष्टि जीवमय हो उठी। 

          शिव का एक कार्य है सब जगह जाकर बैठ जाऊं चाहे किसी भी रूप में क्यों न बैठना पड़े। विष्णु के हृदय में बैठ गये, योगमाया की गोद में बैठ गये, राम के पास हनुमान के रूप में बैठ गये, कृष्ण के पास राधा के रूप में बैठ गये, अर्जुन के पास भील के रूप में जाखड़े हुए, उमा तपस्या कर रही थीं वृद्ध ब्राह्मण के रूप में पहुँच गये। संसार रोग का वर्णन करने लगे, कहने लगे शिव के पास कुछ नहीं है नग्न हैं, दरिद्र हैं, महल भी नहीं है, सिंहासन भी नहीं है, मुकुट भी नहीं है इत्यादि इत्यादि कहाँ पड़ी है चक्कर में, विष्णु से विवाह कर ले। परख रहे थे पार्वती की आरोग्यता, कहीं रोगिणी को गले न लगा लूं परन्तु पार्वती आरोग्यता का कुण्ड निकलीं। शिव भी उन्हें संसार रोग से ग्रसित नहीं कर पाये। शिव परम वैभव स्वरूपाय हैं। शिव की बारात जा रही थी लोगों ने विष्णु के वैभव को देखा सोचने बैठे यही शिव हैं विष्णु बोले नहीं भाई हम तो शिव के उपासक हैं फिर इन्द्र के वैभव को देखा तो लोग उन्हें शिव समझकर उनकी तरफ दौड़ पड़े, इन्द्र ने विनम्रता से कहा हम तो शिव के उपासकों के भी उपासक हैं। प्रजापति का वैभव देखा तो लोगों ने सोचा शायद यही शिव हैं परन्तु प्रजापति बोल उठे नहीं हम तो पृथ्वी पर शिव के सकाम लिंग के पूजक हैं, हम कैसे शिव हो सकते हैं? 

           राजा हिमालय की प्रजा सोचने लगी जब इतने सारे वैभवशाली शिव के उपासक हैं तो फिर शिव का वैभव तो अद्भुत ही होगा परन्तु क्या देखते हैं बूढ़े नंदी पर सवार नंग-धड़ंग शिव, भूत-प्रेतो, आढ़े तिरछे, आधे अधूरे, चित्र-विचित्र, महाविकराल सेवकों और गणों के साथ चले आ रहे हैं। ये शिव हैं, ये शिव का वैभव, ये कैसा वैभव ? किसी की कुछ समझ में नहीं आया और न कभी आयेगा । वैभव देखा हो तो वैभव को पहचाने बस इतनी सी बात है। आगे कुछ नहीं कहना है। विवाह प्रारम्भ हुआ आचार्य ने पूछा शिव के पिता कौन ? ब्रह्मा बोले मैं हूँ इनका पिता, आचार्य पुनः बोला पितामह कौन ? विष्णु बोले मैं इनका पितामह, आचार्य ने पुनः पूछा शिव के पर पितामह कौन ? बस शिव बोल उठे मैं ही सबका बाप हूँ, यही मेरा परिचय है। सभा में सन्नाटा छा गया आचार्य ने जल्दी-जल्दी फेरे लगवा दिए, यही शिव का परिचय है। स्वयं के मुख से स्वयं का परिचय, अतः जो शिव ने कहा वही शाश्वत्।

               शिव ही सबके पिता हैं। 19 वीं सदी खत्म हो गई है एवं बीसवी सदी प्रारम्भ हो गई हैं। 19 वीं सदी की सबसे भयंकरतम भूल मानव समाज ने यह की कि अध्यात्म को गौण समझा, वेद एवं शैव साहित्य को एक तरह से नष्ट करने की कुचेष्ठा की। 15 वीं सदी से हम देखें या फिर हमें 1500 वर्ष का इतिहास देखना पड़ेगा तो मानव समाज पतोन्मुखी क्यों हुआ ? पहली बात पिछले 1500 वर्षों में मानव समाज में कृत्रिम आध्यात्मिक महापुरुषों का अभ्युदय हुआ, कृत्रिम धर्मों का निर्माण हुआ, शरीर धारियों की पूजा प्रारम्भ हुई जो कि मानव समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध हुई। वैसे इसकी शुरुआत कृष्ण के जमाने से हो गई थी। गीता के कुछ श्लोकों को कृष्ण प्रेमियों ने अति में तोड़-मरोड़कर कृष्ण की गलत ढंग से उपासना प्रारम्भ की फिर देखा देखी विश्व के अनेक हिस्सों में इस तरह का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। नई-नई, आधी-अधूरी पुस्तकों का निर्माण हुआ। जीवन दर्शन पुरंजक आधारित एवं व्यक्ति विशेष आधारित हो गया बस इसी कारणवश आपसी टकराव एवं धर्म के नाम पर भयंकर रक्तं पात हुआ, अभी भी यह चल रहा है। इन मार्गों से किसी ने भी पूर्णत्व प्राप्त नहीं किया। 

         अगर आप एक पंथ या धारा विशेष में क्रियाशील होते हैं तो इसका तात्पर्य है आप असुरक्षा के रोग से ग्रसित हैं। आप अप्राकृतिक शरण के जिज्ञासु हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के पूजा स्थलों पर निवास करना, एक सम्प्रदाय विशेष के हाथों भोजन करना, उन्हीं में अपनी ऊर्जा नष्ट कर देना अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म के मार्ग पर चले सरलीकरण का विधान नहीं ढूंढते। एक धारा विशेष के सिद्धातों को प्रतिपादित करना, आज से 1500 या 2000 वर्ष पूर्व किसी हाड़-मांस के व्यक्ति के कथनों को दोहराना कहाँ का अध्यात्म है ? मदर टेरेसा ने अपनी निजी डायरी में लिखा ईश्वर हैं भी कि नहीं मुझे विश्वास नहीं। दलाई लामा नें कहा मुझे भी शंका है ईश्वर के अस्तित्व पर इत्यादि ऐसे ही उद्गार एक धारा विशेष में काम करने वाले लोगों को सबसे बड़ा दण्ड है। सारा जीवन धर्म का उपदेश दिया सारा जीवन धर्म की चादर ओढ़कर बिता दी, धर्म की रोटी खाई, धर्म के नाम पर माला पहनी परन्तु मरते वक्त तक भी हृदय पर हाथ रखकर ये न कह सके कि हमें ईश्वर ने दर्शन दिया। अब क्या बचा ? इससे बड़ा दण्ड क्या हो सकता है ?

            शून्य से ऊपर उठने की कला आपने कभी सीखी ही नहीं है। पाशुपतास्त्र आपने कभी अंगीकार किया ही नहीं, अण्ड को फोड़कर निकलने की ताकत आपमें है ही नहीं आपने तो बस एक धारा में बहने का संकल्प जो ले लिया था, शिवत्व आपमें है ही नहीं। आत्म अवलोकन जरूरी है। आज आप सभी से यही बोल रहा हूं कि सनातन धर्म की धारा को मत छोड़ना । कभी पंथ, वंशवाद, व्यक्ति पूजन इत्यादि में मत पड़ना । शिव शाश्वत् है। शाश्वतता से ही प्राकृतिक का जन्म होता है, शाश्वतता का चिन्ह हैं प्राकृतिक । प्राकृतिक अर्थात मानव हाथों से सर्वथा अनिर्मित । वेद के रचयिता कौन हैं ? कोई मनुष्य नहीं हैं, वेदों के ऊपर किसी लेखक का नाम नहीं लिखा है अतः वेद शाश्वत् हुए। आप वृक्ष से फल प्राप्त कर अगर सेवन करते हैं तो उसकी गुणवता मानव निर्मित कारखाने में उपलब्ध अप्राकृतिक पेय से कई गुना ज्यादा होगी एवं वह शरीर को शिवत्व भी प्रदान करेगी। ठीक इसी प्रकार शाश्वत् ज्ञान संस्थागत मनुष्य बुद्धि निर्मित ज्ञान की अपेक्षा ज्यादा हितकर है। इसका एकमात्र उपाय है योगात्मक, साधनात्मक एवं तंत्रात्मक जीवन तंत्र साधनाओं के माध्यम से प्राप्त शक्ति अमृतमयी होगी।

             पिछले सौ वर्षों में जन मानस नास्तिक क्यों बना ? कम्युनिष्ट क्यों बने ? धर्म से विरक्त लोग क्यों हुए? क्योंकि अप्राकृतिक, शिवत्व विहीन धर्मत्व का निर्माण हुआ। लोगों ने एक झटके से धर्म को नकार दिया, अच्छा किया। विषाक्त भोजन करने से अच्छा तो उपवास करना है। अप्राकृतिक धर्म के (साइड इफेक्ट्स) भी ऐलोपैथी दवाओं के समान हैं। मानव जगत ने इसे महसूस किया इसलिए सेवन बंद कर दिया, आप सबको सोचना पड़ेगा। शिव के सामने नंदीश्वर विराजमान हैं, नंदी धर्म का प्रतीक हैं, नंदी ब्रह्मचर्य का प्रतीक है अतः नंदी खतरनाक हुआ क्योंकि धर्म में प्रचण्ड बल है, ब्रह्मचर्य से अघोर बल की उत्पत्ति होती है इसलिए शिव नंदी के ऊपर विराजमान हैं। धर्म के ऊपर आरूढ़ हैं शिव, ब्रह्मचारियों की पीठ पर बैठे हैं शिव। धर्म को नियंत्रित करना ब्रह्मचर्य को नियंत्रित

करना, शिव के ही बस में है। सर्पों की दो जीभ होती है। अतः धर्म की बातें करने वाले एक जीभ से कुछ स्पंदन करते हैं तो दूसरी जीभ से कुछ और इसलिए शिव इन्हें अपने पास रखते हैं। ब्रहचारी बहुत खतरनाक होते हैं उल्टी सीधी व्यवस्था कर सकते हैं, अध्यात्म को तोड़-मरोड़कर पेश कर सकते हैं, धारा को परिवर्तित कर सकते हैं, गंगा को उल्टी दिशा में बहा सकते हैं अतः इन पर नियंत्रण अत्यधिक आवश्यक हैं, इन्हें शिव को ढोना ही पड़ता है। शिव के सामने नंदी रखा ही जाता है नहीं तो शिव के तेज को जनमानस नहीं झेल सकता। 

           तीन बिल्व पत्र चबा लो, भीषण से भीषण नशा उतर जायेगा। शरीर कितना भी विषाक्त हो गया हो बिल्व पत्र खाना शुरु कर दो, कठिन से कठिन गुप्त रोगों का विष भी मर जायेगा। मस्तिष्क रोग से ग्रसित होने पर, बुद्धि मंद पड़ जाने पर, यौवन नष्ट होने की स्थिति में बिल्व का शर्बत पीना शुरु कर दो। 21 दिन में चमत्कार हो जायेगा और ताप नियंत्रित हो जायेंगे। रुद्राक्ष गले में धारण कर लो रक्त चाप, दुःस्वप्न, कुविचार, हिंसा इत्यादि स्वतः ही नियंत्रित हो जायेगी। दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देंगे रुद्राक्ष ! अकाल मृत्यु, अपमृत्यु, ग्रहबाधा निवारणार्थ, उन्नति हेतु रुद्राक्ष तो धारण करना ही पड़ेगा। मुधमेह के रोगियों के लिए तो बिल्व पत्र अमृत तुल्य है, जो कुछ शिव को चढ़ता है वह सब अमृत मय होता है।

                     शिव शासनत: शिव शासनत:

वराह पुराण से पितृदोष ( पितृऋण ) और कालसर्प दोष उतारने का सबसे सुलभ मार्ग ।।

हमारे जीवन की लगभग समस्याओं का कारण पितृदोष ही बनता है ।। चाहे वह पारिवारिक सुख की कमी हो, या आर्थिक सुख की, अथवा अन्य किसी सुखकी ....

इस समय लगभग 90% से अधिक भारतीयों की कुंडली में पितृदोष है ही । और जब तक पितृदोष है, सफलता पाई ही नहीं जा सकती , चाहे आप कितने भी योग्य क्यों न् हो ।। पितृदोष कालसर्प दोष को लगभग एक ही जानो ......वराह पुराण में पितरो ने , स्वयं को प्रसन्न करने के कई मार्ग बताए हैं .... मैं वह लिख रहा हूँ उन्हें पढ़कर तुमको आदरपूर्वक वैसा ही आचरण करना चाहिये । 

●पितृगण कहते हैं- कुल में क्या कोई ऐसा बुद्धिमान् धन्य मनुष्य जन्म लेगा जो वित्तलोलुपता को छोड़कर हमारे निमित्त पिण्डदान करेगा ??

●सम्पत्ति होने पर जो हमारे उद्देश्य से ब्राह्मणों को रत्न , वस्त्र , यान एवं सम्पूर्ण भोग - सामग्रियों का दान करेगा??

●अथवा केवल अन्न - वस्त्रमात्र वैभव होने पर श्राद्धकाल में भक्तिविनम्र - चित्त से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन ही करायेगा या अन्न देने में भी असमर्थ होने पर ब्राह्मण श्रेष्ठों को वन्य फल - मूल , जंगली शाक और थोड़ी - सी दक्षिणा ही देगा???

●यदि इसमें भी असमर्थ रहा तो किसी भी द्विजश्रेष्ठ को प्रणाम करके एक मुट्ठी काला तिल ही देगा ??

●अथवा हमारे उद्देश्य से पृथ्वी पर भक्ति एवं नम्रतापूर्वक सात - आठ तिलों से युक्त जलाञ्जलि ही देगा??

●यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं न - कहीं से एक दिन का चारा लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्य से गौ (नंदी) को खिलायेगा ??

●इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर वन ( खुले स्थान का एकांत ) में जाकर अपने कक्षमूल ( बगल ) को दिखाता हुआ सूर्य आदि दिक्पालों से उच्चस्वर से यह कहेगा 

न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्य 
च्छ्राद्धस्य योग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि । 
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ 
भुजौ ततौ वर्त्मनि मारुतस्य ॥

मेरे पास श्राद्धकर्म के योग्य न धन - सम्पत्ति है और न कोई अन्य सामग्री अतः मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ । वे मेरी भक्ति से ही तृप्ति लाभ करें । मैंने अपनी दोनों बाहें आकाश में उठा रखी हैं । 

मात्र इतने से कर्म से बड़े से बड़ा पितृदोष समाप्त हो जाता है ।। आप भी कुछ महीने श्रद्धा से यही करके देखे । कुछ और नही, यह जो सड़क पर आश्रयहीन नन्दी महाराज घूमते हैं, इन्ही की सेवा करें ।। पितृदोष उसी में उतर जाएगा ।। .

                                          साभार......

ब्रह्म विद्या ।।

          आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलंबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-चार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।

        मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रियण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा आगे ब्रह्म विद्या के अंतर्गत इसकी व्याख्या परकाया प्रवेश के लेख में करूंगा।

              प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने यंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा ? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।

    आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की। .

इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 

        16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती । रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करता रहती है। स्वत: ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।

         जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता है जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक "नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी। बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये।

        देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के एक मार्ग हैं तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ट साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह हैं जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो । लंकेश भी तपोनिष्ठ थे। बहुत कुछ प्राप्त लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है। 

           अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। .

हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई। लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिब होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। बन्धन में गुरु किसी को भी गद्दी पर बिठा सकता है। स्थितियाँ कभी-कभी याध्य कर देती हैं। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ट तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है। समार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है।

           18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी - बाबा के सामने लोटने लगे। जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया है। मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया सांधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी? 

       हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते। वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे। आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। .

अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोडूं। इसे कहते हैं कृपा । 

        आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र, कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात।

         यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं । ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। मैंने अपनी आँखों से देखा है उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी । सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है। .

                         शिव शासनत: शिव शासनत: