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संस्कृत शिक्षा ।।

यही महेश्वर सूत्र है, या इसे पाणीनि के सूत्र के नाम से भी जानते हैं यही संस्कृत व्याकरण का मूल भी है ।
व्याकरण के सभी सूत्र महादेव की डमरू से फूटे हैं. वेद पहले से थे लेकिन उनको समझने के लिए तपस्या की दृष्टि चाहिए थी. घोर तप करके वेद देवता को प्रसन्न करना होता था तब वह अपना ज्ञान साधक के मन में प्रविष्ट कराते थे.

साधना और तपस्या का यह कार्य सरल नहीं था. इसीलिए वेदपाठी ब्राह्मण ऋषिगण या साधु-महात्मा ही होते थे. वेदों के ज्ञान के सार को सरल रूप में आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता थी.

महादेव के डमरू से फूटे चार ध्वनि अक्षरों की साधना करके पाणिनी जिन्हें वेद का अंशावतार माना जाता है, ने संस्कृत के सभी सूत्रों की रचना की और संस्कृत के सबसे बड़े ज्ञानी की उपाधि पाई. महादेव की कृपा से कैसे हुआ यह सब इसकी कथा सुनते हैं.

एक बार ऋषियों ने सूतजी से पूछा- भगवन! तीर्थों का दर्शन, दान, पूजा और व्रत-उपवास आदि में सबसे उत्तम धर्म साधन क्या है जिसका पालन करके मनुष्य इस भवसागर को सरलता से पार कर ले?

सूतजी बोले– ऋषियों आपने उत्तम प्रश्न किया है. इस संदर्भ में एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो और समझो.

साम ऋषि के सबसे बड़े पुत्र का नाम पाणिनि था. पाणिनी मन लगाकर विद्या अभ्यास करते थे. ज्ञान प्राप्ति के हर संभव प्रयास में लगे रहते. उनमें सबसे बड़ा ज्ञानी बनने की धुन सवार हो गई पर उस समय पृथ्वी अद्वितीय विद्वानों से भरी थी.

ईश्वर की लीला देखिए. एक दिन अचानक पाणिनि को दैवयोग से यह आभास हुआ कि उनमें कुछ शक्ति ऐसी आ गई है कि वह कुछ असाधारण कर सकते हैं.

पाणिनि के पास ज्ञान साधारण ही था परंतु परमात्मा को जब कोई खेल रचना होता है तो वह कुछ न कुछ ऐसा कराते ही हैं जो अप्रत्याशित हो.

भगवान भोलेनाथ की माया ऐसी हुई कि पाणिनी ने अपनी बुद्धि जांचने के लिए सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी. जिसे अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ था उसने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी

बात इतनी ही नहीं थी. अज्ञानता में पाणिनी ने सबसे पहले चुनौती दी भी तो किसे?
पणिनि ने कणाद ऋषि को ही शास्त्रार्थ की पहली चुनौती दे दी. कणाद उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों में थे. उनके ज्ञान का सम्मान स्वयं वेद करते थे.

कणाद दिव्यदृष्टा थे. वह सब समझ गए. वह जानते थे कि पणिनी विलक्षण हैं किंतु उन्हें मिथ्या अभिमान हो गया है. कणाद ने पाणिनी की आंखें खोलने का निश्चय किया.

पाणिनी उनके पास शास्त्रार्थ के लिए आए तो कणाद ने बड़े आदर से स्वागत किया.

उन्होंने पाणिनी से कहा- पाणिनी पहले मेरे शिष्यों से ही शास्त्रार्थ कर लो. यदि तुम उन्हें पराजित कर सको तो फिर मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने को सहर्ष तैयार हूं.

पाणनि का कणाद के शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही कणाद के शास्त्रज्ञ शिष्यों से वह पराजित हो गए. उन्हें अपनी क्षमता का बोध हो चुका था. वह लज्जित होकर उस क्षेत्र से निकले.

लज्जावश वह अपने घर भी नहीं लौट सकते थे. इसलिए तीर्थयात्रा के लिए चले गए.

सभी तीर्थों में स्नान तथा देवता-पितरों का तर्पण कर चुकने के बाद भी मन शांत न हुआ. पाणिनी के समक्ष जीवन आशाहीन लग रहा था.

उन्हें जगत के गुरू महादेव को प्रसन्नकर ज्ञान प्राप्त करने की सूझी तो केदारक्षेत्र में रहकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे.

पाणिनी का तप धीरे-धीरे कठोर होता जा रहा था. पहले तो वह पूरी तरह से वृक्ष के पत्तों के आहार पर निर्भर रहे. सात दिनों बाद एकबार जल ग्रहण करते थे.

इसके बाद दसवें दिन केवल जल ग्रहण करने. बाद में उन्होंने जल भी त्याग दिया और दस दिनों तक केवल वायु के ही आहार पर निर्भर रहकर भगवान शिव का ध्यान करते रहे.

इस प्रकार अठ्ठाइस दिन बीत गये. पाणिनी की कठोर तपस्या निरंतर चल रही थी. पाणिनि की प्रतिज्ञा उनकी तपश्चर्या में दीख रही थी. अंतत: शीघ्र प्रसन्न होने वाले औघड़ दानी महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा.

भगवान् शिव की स्तुति करने लगे- महान रुद को नमस्कार है. सर्वेश्वर सर्वहितकारी भगवान् को नमस्कार है. विजय एवं विद्या प्रदान करनेवाले भगवान महादेव को नमस्कार है. देवेश! मुझे मूल विद्या एवं परम शास्त्रज्ञान प्रदान करने की कृपा करें.

सूत जी बोले– हे ऋषिगणों, महादेवजी ने प्रसन्न होकर अपने डमरू से ध्वनि निकाली और उससे निकले ‘अ इ उ ण’ जैसे मंगलकारी वर्ण और व्याकरण सूत्र प्रदान किया.

शिवजी बोले- पाणिनी! मैंने जो प्रदान किया उसे सर्वोत्तम तीर्थ समझना. आत्मज्ञान से बड़ा कोई तीर्थ नहीं. बिना ज्ञान प्राप्त किए तीर्थ दर्शन का पूर्ण लाभ नहीं होता. यह महान-ज्ञानतीर्थ ब्रह्म के साक्षात्कार कराने तक में समर्थ है. सभी धर्म साधनों का एक साथ लाभ देने वाला है.

इस के बाद भगवान रूद्र अंतर्धान हो गए और पाणिनि पूरे आत्मविश्वास से अपने घर लौटे.
शिवजी की संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि उन्हें याद थी. पाणिनी उस ध्वनि का ध्यान करने लगे. उन ध्वनियों के ध्यान से संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की प्रेरणा हुई और उन्होंने रचा भी.

पाणिनी को भगवान का आदेश था कि समस्त तीर्थों का लाभ ज्ञानतीर्थ से प्राप्त करना है. उन्होंने एक स्थान पर आसन जमाया और डमरू की ध्वनियों के और रहस्य तलाशने लगे.

उनकी दृष्टि जितनी विस्तृत होती जाती उन्हें उतनी ही प्रेरणा मिलती गई. इस तरह पाणिनि ने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और लिंगसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर दिया.

पाणिनी की इस रचना से जब संसार परिचित हुआ तो वह उनकी पूजा करने लगा. इस तरह पाणिनी ने परम निर्वाण प्राप्त किया.

कथा सुनाकर सूतजी बोले- ज्ञान एक सरोवर है. उस सरोवर का सत्य रूपी जल राग-द्वेष रूपी मल का नाश करने वाला है.

तीर्थों के दर्शन, दान, पूजा और व्रतोपवास से भी उत्तम धर्म साधन है मानस तीर्थ का दर्शन करता अर्थात ज्ञान प्राप्त करना. उससे समस्त पुण्य लाभ प्राप्त हो जाते हैं.

(भविष्य पुरांण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड के पन्द्रहवें अध्याय की कथा)

महामुत्युंजय साधना ।।

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

         शास्त्रों के अनुसार 64 करोड़ प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग हैं। यह तो हुई शरीर एवं मानस के प्रति विपरीत स्थिति इसके अलावा जन्म लेते ही जीव को प्रकृति की विपरीत परिस्थितियाँ, देश, समाज और परिवार की भी विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं। एक जीव को इन सब विषम परिस्थितियों के अलावा दूसरे जीव या मनुष्य से भी प्रतिक्षण जीवन का खतरा बना रहता है। इस पर से दैवीय आपदायें भी मुँह बाये खड़ी रहती हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य जीवन निर्वाह करना एक शरीर धारी मनुष्य के लिए अत्यंत ही विकट है। इतना विकट कि जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकतायें ही पूरी करने में सारी ऊर्जा चली जाती है। साधना तो बहुत दूर की बात है। अनंत काल से परिस्थितियाँ प्रतिकूल बनी हुई हैं। मनुष्य को इन विपरीत परिस्थितियों में ही जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है। जीवन के प्रत्येक पक्ष को जीना है तो फिर ऐसी कौन सी साधना है, ऐसा कौन सा महाबल है, ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति है जिसकी स्तुति से निर्धारित जीवन के क्षण हम पूरे कर सकते हैं। जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाली एक ही महाशक्ति है और वह है शिव । अतः प्रत्येक साधक और व्यक्ति को भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय आराधना अवश्य करनी चाहिए। आराधना के अंतर्गत महामृत्युञ्जय अनुष्ठान एवं महामृत्युञ्जय रूपी विस्तृत और समग्र चिंतन का होना नितांत आवश्यक है। प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्यों को सर्वप्रथम महामृत्युञ्जय साधना ही सम्पन्न करवाता है।

           साधरण जन महामृत्युञ्जय साधना का तात्पर्य यह समझते हैं कि अगर व्यक्ति अस्पताल में किसी कारणवश या दुर्घटनावश मृत्यु से संघर्ष कर रहा है तभी इसे सम्पन्न करनी चाहिए। यह आधा-अधूरा चिंतन है। यह स्थिति आग लगने पर कुँआ खोदने की प्रक्रिया के समान है। विवेक, बुद्धिमत्ता और ज्ञान का इस प्रकार के चिंतन में सर्वथा अभाव है। मैंने ऊपर कहा 64 करोड़ प्रकार के रोग होते हैं। सर्वप्रथम रोग क्या है? यह समझना चाहिए। रोगों का सीधा सम्बन्ध कर्म की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। मानव शरीर का सम्पूर्ण विकास एक परम चेतना के अंतर्गत पूरी तरह से नियंत्रित है। इस परम चेतना ने शरीर को इस प्रकार से निर्मित किया है कि कर्मों के अनुसार उसमें अतिशीघ्र परिवर्तन हो जाता है। सारी कोशिकायें कर्मों के अनुसार ही प्रारूप बदलती है। शक्ति संचालन की आंतरिक प्रक्रिया कर्मों के अनुसार ही निर्धारित होती है। यह परम व्यवस्था इतनी सूक्ष्म और दिव्य है कि इसी के कारण यह संसार चल रहा है। अगर एक क्षण के लिए भी परम चेतना के नियंत्रण से कर्म श्रृंखला हट जाये तो फिर जीव-जगत हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगा। एक क्षण का असंतुलन अनंत वर्षों के जीव संतुलन को समाप्त करके रख देगा। कर्मों के अंतर्गत अनेकों जीवन के कर्म, सामूहिक कर्म, पैतृक कर्म, जीव की जाति विशेष के कर्म इत्यादि सभी कुछ आते हैं। रोग और निरोग इसीलिए सम्पूर्ण रूप से कर्म श्रृंखला पर आधारित है। 

             अब बात करते हैं खण्डित और अखण्डता की। आप कार्य शुरू करते हैं परन्तु लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही कार्य खण्डित हो जाता है, अचानक अवरोध आ जाते हैं। आपके लक्ष्य में सहयोगी कम होते हैं एवं अवरोध डालने वालों की संख्या ज्यादा होती है। आप साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं तो सारा परिवार, पत्नी इत्यादि उसमें विघ्न डालने लगते हैं। कभी कभी आप पूरे जोर शोर से अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होते हैं परन्तु कुछ ही महीनों बाद आप निस्तेज हो पुनः पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इसे कहते हैं आध्यात्मिक यात्रा की अकाल मृत्यु । अर्थात यात्रा का खण्डित हो जाना। यात्रा सम्पूर्ण नहीं हो सकी तो फिर जीवन में अपूर्णता तो निश्चित है, मृत्यु भी पूर्ण नहीं होगी। अंतिम समय मे कुछ न कुछ मलाल रह जायेगा। अधिकांशतः व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक दबाव के चलते मन- मसोसकर निराश हो जाते हैं। जीवन अत्यधिक उदासीन हो जाता है। जीवन जीने की शक्ति खत्म हो जाती है। इसे कहते हैं मृत्यु के मुख में जाने की तैयारी । मृत्यु के पाश से व्यक्ति का जकड़ जाना। इस पाश को तोड़ने के लिए पुन: आपको जरूरत पड़ेगी दिव्य महामृत्युञ्जय बल की। महामृत्युञ्जय बल ही वह दिव्य शक्ति है जिसके कारण जीव कहता है अभी कुछ बाकी है। अंधेरे में भी उजाले की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। दिव्य महामृत्युञ्जय बल के कारण मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हुआ है। इसी बल ने उसे हिम्मत न हारने की इच्छा शक्ति प्रदान की असफलताओं को पीछे छोड़ते हुए सफलताओं तक पहुँचाया है। .

जिस मानव जाति ने महामृत्युञ्जय बल को आत्मसात किया वे सर्वश्रेष्ठ कहलाये हैं। जब मनुष्य ने सर्वप्रथम सुदूर अंतरिक्ष में यात्रा सम्पन्न करने ने की ठानी तो उसे सैकड़ों वर्ष अनुसंधान करने पड़े। पता नहीं कितने अंतरिक्ष यान या राकेट उड़ने से पूर्व ही फट गये। कितने मनुष्य और पशु यात्रा पथ में ही मारे गये, कई पीढ़ियों ने सामूहिक रूप से अनुसंधान किया तब कहीं जाकर मानव जगत ने चन्द्रमा पर साक्षात रूप से पैर रखने का सौभाग्य प्राप्त किया। महामृत्युञ्जय साधना को समझने के लिए आपको यात्रा को समझना होगा। चन्द्रमा पर पहुँचना यात्रा का प्रथम चरण है और पुनः अंतरिक्ष यात्री का पृथ्वी पर वापस लौटना दूसरा चरण है। इन दोनों चरणों के बीच अनेकों उपचरण हैं, अनेकों विषम परिस्थितियाँ में हैं, समस्याऐं है, अवरोध है इत्यादि इत्यादि कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण यात्रा के खण्डित होने का भय है। यात्रा एक चुनौती है। जीवन भी एक चुनौती है इसीलिए महामृत्युञ्जय बल यात्रा को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए अति आवश्यक है। 

         साधक का तात्पर्य मात्र आध्यात्मिक साधक से ही नहीं लेना चाहिए। प्रत्येक अनुसंधान, प्रत्येक खोज, सभी कुछ साधकों की ही देन है। इनके पीछे भी निश्चित ही आध्यात्मिक बल है। साधक का सीधा तात्पर्य कर्मशील व्यक्ति से है। साधक भगवान श्री कृष्ण के अनुसार कर्मयोगी ही होते हैं। निखट्टु, कर्महीन एवं शेखचिल्ली के समान सोच वाले व्यक्ति साधक कदापि नहीं हो सकते चाहे वह आध्यात्मिक अनुसंधान हो या भौतिक अनुसंधान, साधना का पथ कर्मशीलता मांगता है। एकाग्रता मांगता है। असफलताओ अवरोधों एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना हो महामृत्युञ्जय साधना है। निरंतरता के लिए अथक कर्म करने पड़ते हैं। इस संसार में जीवन को सुलभ बनाने के लिए की गई प्रत्येक खोज, शरीर को रोग मुक्त करने के लिए किया गया प्रत्येक अनुसंधान, चिकित्सा जगत का चर्मोत्कर्ष पर पहुँचना इत्यादि महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आता है। जिस भी क्रिया या कर्म से जीवन का बचाव होता है, जीवन की अवधि बढ़ती है वह महामृत्युञ्जय साधना का ही प्रतीक है। 

         महामृत्युञ्जय भगवान शिव का वह दिव्य बल है जो कि जीव को मृत्यु के मुख से प्रतिक्षण खींचता है। यह बल समय, काल एवं व्यक्ति अनुसार विभिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। आपके जीवन में ऐसे मनुष्य भी आ सकते हैं जो कि तोड़- तोड़कर आपको खा जायेंगे। आपकी ऊर्जा नष्ट कर देंगे। आपको धोखा देंगे, आपके साथ छल करेंगे, आपको भारी नुकसान पहुँचायेंगे। आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसे कहते हैं आस्तीन में सांप पालना। भगवान शिव के मूर्ति रूपी विग्रह में इसीलिए सर्प भी शांत अवस्था में बैठे दिखाई पड़ते हैं। वे अधिष्ठाता हैं भूत-प्रेत, बेताल एवं अन्य जीवन को क्षति पहुँचाने वाली योनियों के। शिव ही इन सब नकारात्मक शक्तियों को नियंत्रित कर सकते हैं। अतः उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप कीजिए। 

           प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित ऊर्जा का स्वामी है। उसके पास ऊर्जा का एक निश्चित भण्डार है। ऐसी स्थिति में ऊर्जा का क्षय रोकना नितांत आवश्यक है। मनुष्य मनुष्य की ऊर्जा खा जाता है। जब तक ऊर्जा होती है चाहे वह किसी भी स्वरूप में हो ऊर्जा का शोषण करने वाले आपके पास मंडराते ही रहेंगे। जैसे ही ऊर्जा क्षीण होगी आप सब तरफ से त्याग दिये जायेंगे। अतः आपको ऊर्जा का अनुसंधान करना होगा। प्रतिक्षण आपको अपने शरीर में मौजूद दिव्य ऊर्जा केन्द्रों को खोजना होगा। संजीवनी विद्या समझनी होगी। पुनः मस्तिष्क को चैतन्य करने के विधान ढूंढने होंगे। ब्रह्माण्ड से अक्षय ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। यह सब कलायें महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आती हैं। जिस प्रकार बहती हुई एक नदी अनेकों गुप्त स्त्रोतों से जल प्राप्त करती रहती है, वर्षा से भी जल प्राप्त करती रहती है, स्थान अनुसार स्वरूप परिवर्तन करती रहती है, कहीं पर भूमिगत हो जाती है, कहीं पर तीव्र हो जाती है तो कहीं गुप्त रूप से बहती है इत्यादि इत्यादि परन्तु यात्रा अविरल जारी रहती है। यही संजीवनी विद्या है। प्रतिक्षण पुनः जीवन प्राप्त करने की कला । मृत्यु को प्रतिक्षण भगाने की कला । ऐसा भी सम्भव है जब आपमें सक्रियता, चेतना का स्तर अत्यंत ही उच्च हो । 

          आपका शरीर पंचभूतों से निर्मित हो । इन पंचभूतों की आयु और संतुलन आपके जीवन का निर्धारण करेंगी। पंचभूत अगर विकार ग्रस्त होते हैं तो जीवन भी विकार ग्रस्त हो जायेगा । वायु प्रदूषित होगी तो श्वास भी प्रदूषित हो जायेगी । श्वास प्रदूषित होगी तो रक्त प्रदूषित हो जायेगा। इसी प्रकार प्रदूषित जल का सेवन शरीर को प्रदूषित कर देता है। संजीवनी विद्या के अंतर्गत विष का निष्कासन, मल का निष्कासन जीवन के प्रत्येक तल पर आवश्यक है। .

महामृत्युञ्जय का साधक अमरता प्राप्त करता है । अमरता भी है भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं, प्यास लगती है तो हम जल पीते हैं, जब मस्तिष्क में प्यास होगी तभी तो जल पीयेंगे। इसी प्रकार अमरता के ख्याल आते हैं तो हम अमृतमय कोषों की तलाश करते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है कि 

सकल पदारथ है जग माहीं । 
करम हीन नर पावत नाहीं ॥

         जो कुछ मस्तिष्क सोचता है वह इस जगत में निश्चित ही मौजूद है। जरूरत है तो सिर्फ उचित कर्मों को सम्पन्न करने की मृत्युञ्जयी साधक वही है जो कि अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। वैसे तो सभी को यह अधिकार प्राप्त है। कुछ मूर्ख आत्महत्या भी करते हैं उन पर मैं यह विचार नहीं कह रहा हूँ। मेरा कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु के अंतिम क्षण हमारी चेतना अनुसार हों। शरीर का त्याग हम उसी प्रकार करें जिस प्रकार महायोगी करते है। यह अमरता का प्रतीक है। चेतना से चेतना को मिलाने का अनुसंधान कठिन है पर असम्भव नहीं है। आप देखिए अनेकों जीवों में अंग कट जाने के पश्चात फिर से उग आने की प्रवृत्ति होती है। वृक्ष की एक डगाल टूट जाने पर पुन: नई शाखायें उग जाती है, प्रतिक्षण फल टूटते रहते हैं फिर भी वृक्षों का वंश तो समाप्त नहीं होता है। कुछ फल निश्चित ही बीज को उचित जगह पर रोपित कर देते हैं। प्रतिवर्ष आम के असंख्य फल मनुष्य भक्षण करता है, पशु-पक्षी भी खाते हैं परन्तु आम के वृक्ष भी प्रतिवर्ष सभी जगह ऊगते हैं। उनमें न्यूनता नहीं आती है। यही महामृत्युञ्जय बल है। 

         इस देश में पचास वर्ष पहले बीस करोड़ लोग थे तब भी श्वास लेते थे आज एक अरब से भी ज्यादा है फिर भी किसी को निःशुल्क श्वास लेने में कहीं कोई कठिनाई नहीं है। वायु तो कम नहीं हुई यही ईश्वर की लीला है। बीस करोड़ लोग पचास वर्ष पहले अकाल और भुखमरी से ग्रसित थे परन्तु एक अरब हो जाने पर भी अब अन्न कम नहीं पड़ रहा है। सभी को कम से कम एक वक्त का भोजन मिल ही जाता है। शिव की प्रौद्योगिकी अत्यंत ही परिष्कृत है। कहीं न कहीं वृक्ष में पत्तों के बीच एक न एक फल मनुष्य और पशुओं की आँखों से बचते हुए समस्त मौसमों की मार सहते हुए पूर्ण आयु अर्थात पकने के पश्चात ही स्वतः वृक्ष से विस्थापित हो नवजीवन सम्पन्न करता है जो फल वृक्ष से स्वतः ही सम्पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात भूमि पर गिरता है उसी का बीज सर्वश्रेष्ठ होता है। वही एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करने वाले वृक्ष को जन्म देने में सक्षम है। बाकी सब आधे अधूरे कर्मों को सम्पन्न करेंगे क्योंकि उसी फल ने सभी बाधाओं, अवरोधों और अकस्मात मृत्यु प्रदान करने वाले तत्वों को हराया है। उसने अपनी यात्रा निर्विघ्न समाप्त की है। वह स्वेच्छाचारी हैं। स्वेच्छा से वृक्ष का त्याग किया है। शिव स्वेच्छाचारी हैं। महामृत्युञ्जय बल स्वेच्छा का प्रतीक है। स्वेच्छा ही पूर्णता है किसी और की इच्छा या बल का प्रभाव यहाँ पर शून्य है। यही संजीवनी साधना का रहस्य है। 

         कितना भी मारने की कोशिश करो, मृत्यु प्रदान करने की कोशिश करो परन्तु हम मृत्यु को प्राप्त होने का कारण तुम्हें नहीं बनने देंगे। ऐसी सोच वाले ही शिव सानिध्य को प्राप्त करते हैं। शिव की रुद्रता यही है। यही श्रीकृष्ण का संदेश है। मृत्यु क्या है? मृत्यु टुकड़ों टुकड़ों में भी प्राप्त होती है। जीवन की अवधि बढ़ायी भी जा सकता है। आप 36 वर्ष की आयु को 50 वर्ष भी कर सकते हैं। इसके लिए निद्रा को कम करना होगा। बारह घण्टे सोने की अपेक्षा चार घण्टे में भी काम चला सकते हैं। ऐसा भी होता है। साधक के लिए यह नितांत आवश्यक है। प्रतिदिन व्यर्थ के मनुष्यों में बैठने की अपेक्षा अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं। सफल व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो, आध्यात्मिक साधक हो इत्यादि इत्यादि ऐसा ही करते हैं। अनेकों अनुपयोगी और निम्र कर्मों को सम्पन्न करने की अपेक्षा आप कुछ इच्छानुसार कर सकते हैं। साधक को ऐसा ही होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति टी.वी देखते हैं, समय व्यर्थ करते हैं, उनका भोजन घटिया मनोरंजन है इसके विपरीत ग्रह-नक्षत्रों पर अनुसंधान करने वाले रात्रि में ब्रह्माण्ड को निहारते हैं। वे जगत को कुछ नया प्रदान करते हैं। भीड़ तंत्र के पीछे भागने वाले भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। जो स्वेच्छा पूर्वक जीवन बिताते हैं वह अनुसंधानकर्ता हैं। वही सच्चे साधक हैं। पुनः प्राप्ति की क्रिया सीखनी होगी। 

            आज से 60 - 70 वर्ष पूर्व चेचक का अत्यधिक प्रकोप था इसके कारण अनंत लोगों का असमय जीवन चला गया एवं जो बचे उनका रूप और सौन्दर्य चला गया। सारा शरीर बदनुमा दागों से ढँक गया। अगर जा सकता है तो प्राप्त भी किया जा सकता है। पुनः प्राप्ति होनी ही चाहिए। .

अब देखिए किसी का रूप और सौन्दर्य चेचक के कारण नहीं जाता। रोकने की कला तो हमने सीख ही ली प्राप्ति की कला भी सीखनी होगी। पहले समझो फिर साधना सम्पन्न करो। साधना बुद्धिजीवी को भी करनी चाहिए। कहीं बुद्धि मृत्यु का कारण न बन जाये। शिव से आपको अलग न कर दे इसलिए इतना सब कुछ कहना पड़ा। 

        सामान्य मनुष्यों और ईश्वर पुत्र के रूप में जीवन जीने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों की नियति में जमीन आसमान का फर्क होता है। सामान्य मनुष्य स्वयं के लिए जीता है तो वहीं उसके कर्म ही उसकी नियति निर्धारित करते हैं इसके विपरीत इस धरा पर ईश तत्व का प्रसार करने वाले ईश पुत्रों की नियति स्वयं भगवान शिव निर्धारित करते हैं।इनका जीवन मात्र प्राणी जगत को शिव सानिध्य में पुनः लाने के लिए ही होता है। ऐसे महापुरुष और ऋषिगणों की रक्षा के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। उनके जीवन पर किसी भी प्रकार की आँच न आये, वे इस पृथ्वी के मायाजाल में भटककर समय व्यर्थ न गवा दें और कहीं अकाल मृत्यु को प्राप्त न कर लें इसके लिये शंकर प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने से भी नहीं चूकते हैं क्योंकि इसी में प्राणियों का कल्याण छिपा हुआ है। इन्हीं महापुरुषों के जीवन से अनंत वर्षों तक हम प्रेरणा प्राप्त करते है। जो जीवन देता है वही जीवन को बढ़ाने की क्षमता भी रखता है।

        भगवान शिव नीलकण्ठ हैं वे समस्त जगत का विष-पान कर इस जगत को जीवन प्रदान करते हैं, वे ही भूत भावन हैं उनके अंदर विष भी अमृत में बदल जाता है। महामृत्युञ्जय मंत्र भगवान शिव की उस विलक्षण शक्ति को मनुष्यों की चेतना में स्थापित करता है जिसके द्वारा वे अपना जीवनकाल सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। इसी विद्या को संजीवनी विद्या कहा गया है। महामृत्युञ्जय मंत्र के प्रचारक मार्कण्डेयजी नामक ऋषि रहे हैं उन्होंने ही इस मंत्र को आत्मसात कर जन-जन में प्रसारित किया है। वे भगवान शिव के परम भक्त रहे हैं और शंकर जी ने उनकी निष्काम भक्ति से प्रसन्न हो उन्हें सभी लोकों के दर्शन कराये हैं एवं वरदान में कलपान्त तक अमर रहने और पुराणाचार्य होने का वरदान दिया है। मार्कण्डेय पुराण के उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं। 

          पदम पुराण उत्तर खण्ड के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि के पिता मुनि मृकण्डु ने अपनी पत्नी के साथ घोर तपस्या कर के भगवान शिव को प्रसन्न किया था। उन्हीं के वरदान स्वरूप मार्कण्डेय जी को पुत्र रूप में प्राप्त किया था परन्तु भगवान शंकर ने उनकी आयु 16 वर्ष निर्धारित कर दी थी। अतः जैसे ही मार्कण्डेय जी ने 16 वें वर्ष में प्रवेश किया उनके पिता व्यथित हो उठे। पुत्र के द्वारा पूछे जाने पर पिता ने मार्कण्डेय जी के सामने वास्तविकता प्रकट कर दी। इस पर मार्कण्डेय जी ने अपने पिता को समझाते हुये कहा कि आप चिंता न करें मैं भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या करूँगा जिससे कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं और इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा लेकर मार्कण्डेय जी दक्षिण समुद्र के तट पर चले गये ओर वहाँ विधि पूर्वक शिवलिङ्ग की स्थापना कर के महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप करने लगे। उनके द्वारा जप किया जा रहा मंत्र इस प्रकार है 

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

    यह सम्पुट युक्त मंत्र है। यही मंत्र आगे चलकर जन मानस में महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात हुआ। समय पर काल आ पहुँचा मार्कण्डेयजी ने काल से कहा मैं शिवजी का मृत्युंजय स्तोत्र से स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ, तब तक तुम ठहर जाओं काल ने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तब मार्कण्डेय जी ने भगवान शंकर के बल पर काल को फटकारा। काल ने क्रोध में भरकर ज्यों ही मार्कण्डेय को हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्ग से प्रकट हो गये। हुँकार भरकर मेघ के समान गर्जना करते हुए उन्होंने काल की छाती में लात मारी। मृत्यु देवता उनके चरण-प्रहार से पीड़ित होकर दूर जा पड़े। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत:

ब्रह्म विद्या ।।


            विश्वामित्र एक अति तेजस्वी एवं प्रतापी राजा थे आर्यों के इस महान शासक ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर एकाधिकार करने के लिए अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया परन्तु जैसे ही यह ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सम्मुख पहुँचे इनका सारा तेज जाता रहा। इनके सारे यत्न असफल हो गये, सारे शस्त्र निष्फल हो गये। कल तक जो विश्वामित्र राज्य, सत्ता, शक्ति, सेना के दम्भ पर अपने आपको दिग्विजयी समझ रहा था उसने ब्रह्मत्व धारण किए हुए निःशस्त्र ब्रह्मऋषि वशिष्ठ के सामने पराजित, लज्जित एवं अपमानित स्थिति में अपने आपको खड़ा हुआ पाया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है भारत भूमि पर सिकन्दर ने भी अपने आपको इसी भाव में लाचार खड़े पाया है। उसकी बुद्धि के द्वार भी भारत वर्ष में ही खुले हैं। मुगल सम्राट अकबर भी ब्रह्मज्ञानियों के चरणों में झुका है। तुलसीदास जी और मीरा दोनों के चरणों में ही अकबर का सर झुका है। उसने भी थक हारकर एक ईश्वर वाद के इस्लामी सिद्धांत को छोड़ ब्रह्म ज्ञानियों की महत्ता स्वीकार की है एवं दीन-ए-इलाही जैसे नये पंथ का भी उसे अनुसरण करना पड़ा है। निराकार को पूजने से कुछ नहीं होता है। निराकार भी कोई पूजने की वस्तु है दिल को बहलाने वाला यह तथाकथित सिद्धांत तो कृष्ण ने गीता में स्वयं ही खण्डित कर दिया है। इस सिद्धांत पर चलकर दस पीढ़ियों में से एकाध को ही साक्षात्कार सम्भव हो पायेगा। इस प्रकार की आध्यात्मिक धारा सामान्य जन को क्या लाभ पहुँचायेगी? क्यों सामान्य जन इसे अपनायेगा? यही कारण है कि सद्गुरुओं, ब्रह्मऋषियों के सानिध्य में अध्यात्म फलता-फूलता है।

            परमेष्ठि गुरु अपनी जगह है और वर्तमान का गुरु अत्यधिक महत्व लिए हुए है। जिन देश में उपासकों को प्रतिबंधित कर दिया जाता है, जिस घरों में अभिभावक पूजा पद्धति या गुरु की अवमानना करते हैं वहाँ पर राक्षसी एवं ताण्डवी शक्ति का वास होता है। अगर घर में बिजली के तार खींचे ही नहीं जायेंगे तो फिर मोमबत्ती या चिमनी की आवश्यकता होगी फिर भी अंधेरा पूरी तरह नहीं मिट पायेगा। ब्रह्मऋषि का तात्पर्य ही वह व्यक्तित्व है जो कि स्वच्छ, निर्मल, निर्विकार एवं निखिल प्रकाश का ऊर्जा केन्द्र है। जिसके अमृतमयी प्रकाश में मनुष्य के सभी तलों पर से अंधेरा गायब हो सके, हृदय भी प्रकाश युक्त हो सके मन भी निर्मल प्रकाशमय हो जगमगा उठे, विचारों एवं बुद्धिपक्ष में भी इतना प्रकाश भर जायें कि अंधेरे में बिलबिलाने वाले कीड़े-मकोड़े और निशाचर शक्तियाँ स्वयं ही भाग खड़े हों। निशाचरों को शक्तिहीन बनाता है प्रकाश। आप सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन जगहों पर ही नकारात्मक पैशाचिक एवं प्रेत शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं जहाँ पर कि अंधेरा घोरतम होता है। प्रकाश युक्त सद्गुणी वातावरण में पैशाचिक शक्तियाँ भाग जाती हैं।

           आदि गुरु शंकराचार्य जी एक बार वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ पर दो प्रेत निवास करते थे शंकराचार्य जी को देख प्रेत ताण्डव करने लगे उन्होंने दूसरे ही क्षण अपने कमण्डल से अभिमंत्रित जल निकालकर वृक्ष पर छिड़क दिया देखते ही देखते वे प्रेत योनि से मुक्त हो वहाँ से सदा के लिए चले गये। इस प्रकार वो अभिशप्त जगह पुनः पवित्र हो पूजन स्थल में परिवर्तित हो एवं बाद में वहाँ पर देवालय का भी निर्माण हुआ। बुद्ध जब बोधि वृक्ष के नीचे बैठे निर्वाण प्राप्ति की अंतिम अवस्था में थे तब उस वन में उपस्थित सभी नकारात्मक शक्तियों ने भीषण ताण्डव उत्पन्न कर दिया उनके इर्द-गिर्द । वे सब भयभीत हो गये थे ब्रह्मत्व के प्रकाश से ब्रह्मत्व क्या है ? ब्रह्मत्व वह शक्ति है जिसे धारण कर व्यक्ति ब्रह्मण बनाता है एवं उसके मन, वचन, कर्म इत्यादि सभी कुछ सत्य, निष्ठा से ही क्रियाशील होते हैं ब्रह्मण का तात्पर्य है सत्य को पहचानना । अभेदात्मक सोच शालीनता, निर्लिप्तता एवं कर्तव्य परायणता । जीवन की क्षण भंगुरता से सत्य का कोई भी लेना देना नहीं है।

            ब्राह्मण का तात्पर्य है विराटता। विश्वामित्र ने अपने आपको वशिष्ठ के सामने बौना पाया। ब्रह्मऋषि इतने पारदर्शी होते हैं कि उनके सामने खड़े होते ही व्यक्ति चाहे कितने नकाब ओढ़े हो, कितना भी बनने की कोशिश करे अपने आपको नग्न पाता है, स्वयं वह क्या है उसे समझ में आ जाता है। हम स्वयं क्या हैं? बस इतनी सी बात समझ में आ जाये तो फिर ब्रह्मऋषि बनने में देर नहीं लगेगी। इस दुनिया की विडम्बना यह है कि यहाँ पर शासन करने वाले शक्ति से सम्पुट होते हैं। युवा होते हैं। वे जीवन की कोमलता, बाल्यावस्था को पूरी तरह दर किनार कर देते हैं अपने मस्तिष्क के उन्माद से व्यवस्था रचते हैं। उन्हें इस बात की फिक्र नहीं होती है कि इस दुनिया में बालक, शिशु, शांतिप्रिय सात्विकता लिए हुए उपासक, मनोहारी स्त्रियाँ इत्यादि भी समान रूप से वास करते हैं। 

उनके द्वारा रचे गये ताण्डवी युद्ध, ताण्डवी वातावरण, ऊट पटांग योजनाओं इत्यादि से असंख्य प्राणियों के हृदय हाहाकार कर उठते हैं, चीत्कार कर उठते हैं। वे स्वयं जीना चाहते हैं और दूसरों की परवाह नहीं करते। अनंतकाल से ऐसा ही होता आ रहा है इसलिए इन सबका पतन हो जाता है। समय तो लगता ही है।

         एक बात ध्यान से समझ लें हृदय पक्ष मस्तिष्क से अनंत गुना ज्यादा शक्तिशाली है। आज तक मस्तिष्क ही परास्त होता आया है और होता रहेगा। मस्तिष्क ब्रह्म ज्ञानियों का शासक नहीं है वह तो मात्र विनम्र दास या सेवक की भांति उनकी सेवा में सदैव तत्पर रहता है। मस्तिष्क से निर्मित समाजवाद कम्युनिष्ट व्यवस्था तानाशाही व्यवस्था, राजशाही व्यवस्था नौकरशाही इत्यादि पिछले पचास वर्षों में आपके समक्ष पूरी तरह ध्वस्थ हो गई है। बचा है तो सिर्फ लोकतंत्र, जनतंत्र इसमें भी सुधार की आवश्यकता है क्योंकि मस्तिष्क कहीं-कहीं इसमें भी विकृति डालने से नहीं चूकता है। ब्रह्मऋषि बनना है या फिर ब्रह्मत्व से आत्म साक्षात्कार करना है तो फिर हृदय पक्ष को जागृत करना होगा अन्यथा कुछ भी नहीं होगा जोर जबरदस्ती से तो विश्वामित्र भी कामधेनु को वशिष्ठ के आश्रम से नहीं ले जा सके। कामधेनु वहीं पर निवास करेगी जहाँ पर ब्रह्मत्व का स्थापत्य होगा। कामधेनु का तात्पर्य गौ वंश की उस दिव्य शक्ति से है जो कि साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा है एवं जिसका प्रत्येक कर्म लक्ष्मी का आनंदमयी स्वरूप ही प्रदान करता है। जितना चाहो, जब चाहो, जैसा चाहो वैसा दुग्ध वह आपको अमृतमय स्वरूप में प्रदान कर देगी। उसे देखते ही मन के सारे विकार धुल जाते हैं उसके सानिध्य में अलौकिक शांति या अनुभव होता है।

           ईश्वर भी है और ईश्वर के अलौकिक चमत्कार भी हैं। ईश्वर की अलौकिक सिद्धियाँ भी हैं। आप इस योग्य तो बनो कि वे आपके समक्ष प्रस्तुत हों। कामधेनु का दुग्ध तो क्या उसके शरीर से अष्ट गंध की सुगन्ध निरंतर फूटते रहती है। कामधेनु वहीं निवास करेगी जहाँ पर उसके कानों में प्रात:काल गायत्री जैसे ब्रह्म मंत्र का उच्चारण सुनाई देगा। उसे स्पर्श करने वाला भी पूर्ण रूप से पापरहित ब्रह्म ऋषि ही होगा। उसे चारा खिलाने वाला अपनी आँखों में असीम निर्मलता एवं ममता से युक्त होगा। हिमालय पर सभी जगह शीतलता होगी। इसे कहते हैं स्वेच्छाचारिता। कामधेनु राजऋषि के आश्रम में निवास नहीं करेगी। कृष्ण में इतना ब्रह्मत्व था कि उन्हें देखते ही वृक्ष हरे-भरे हो जाते थे। जहाँ वे खड़े होते थे वहीं पर वातावरण अमृतमय हो जाता था। उनकी एक झलक अनंत वर्षों की थकान और तपन को शांत करने के लिए काफी थी। गायत्री मंत्र भी इस पृथ्वी पर कामधेनु के समान ही कार्य करती है साधकों के लिए।

           ब्रह्मत्व का प्रतिस्फुरण होते ही बुद्ध को विरक्ति आने लगी राज-पाट, जीवन मृत्यु, वृद्धावस्था एवं दुनियादारी के अन्य तामझामों से जैसे-जैसे वे ब्रह्मत्व के करीब पहुँचते गये उनके विरक्ति भाव अत्यंत ही तीव्र हो उठे। तीव्रता के साथ-साथ वे अस्तित्व के सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी पहुँचते हुए उन्हें सत्य से परिचित कराते हुए निष्पाप करने लगे और अंत में जब पूर्ण सत्य अर्थात केवल्य ज्ञान अनुभूत हुआ तब वे परमोत्पादक बन सके। परमोत्पादन का मतलब है उन दिव्य धाराओं को प्रवाहित करना जो कि उनके द्वारा ग्रहण किए गये परम तत्व से सम्पुट हों। इन दिव्य उत्पादों को हो आप वेदों, छन्दों, ज्ञान, उपासना पद्धति, योग, नियमों अमृतकारी प्रवचनों, दीक्षा, आशीर्वाद एवं वरदान स्वरूप में अपने समक्ष मौजूद पाते हैं। यही विधान है कायाकल्प का कायाकल्प तो कर पड़ता है। सभी ने कायाकल्प किया है। विश्वामित्र भी कायाकल्पित थे। बुद्ध भी कायाकल्पित हुए हैं।

           ऐसा क्या डाल दिया था परमहंस जी ने नरेन्द्र में जिससे कि वह एक सामान्य पुरुष से विवेकानंद बन बैठा ऐसी कोई दवा तो दुकान पर बिकती दिखाई नहीं देती। मेरे गुरु ने भी पता नहीं क्या डाल दिया अन्यथा मैं भी दुनियादारी में उलझकर ही प्राणांत कर बैठा होता। ब्रह्मऋषि क्या डालते हैं मालुम नहीं। उनका कोई ओर छोर नहीं होता। उनके आगे किसी का वश नहीं चलता। मीरा के आगे किसका वश चला? ब्रह्मऋषि बनने का तात्पर्य है ब्रह्माण्डीय पुरुष बनना। ब्रह्माण्डीय नायक बनना। विष्णु जब युद्ध करते-करते थक जाते हैं तब योगमाया उन्हें शांत अवस्था में सुला देती है। ऐसा ही विश्वामित्र के साथ हुआ जब वे थक गये मैं और अहम की ताकत जबाब दे गयी तब गायत्री माता के रूप में प्रकट हुई। मेरे गुरु ने सही कहा है जब तक दो हाथ वाले से मांगते रहोगे चार हाथ वाला कभी नहीं देगा। 

स्वयंभू प्रतिष्ठित नहीं हो पाओगे। अध्यात्म के क्षेत्र में लोगों से प्रतिष्ठा मत मांगों। लोग यहाँ पर प्रतिष्ठित नहीं करते हैं। लोगों के पीछे दौड़ोगे तो फिर दौड़ते ही रहना। अगर वृक्ष अपने आपको न समेटे तो फिर उचित ऋतु आने पर आप फल कदापि नहीं खा पायेंगे। ब्रह्मऋषि बनना है तो सर्वप्रथम कायाकल्प की तीव्र लालसा होनी चाहिए।

         आज हम जो कुछ हैं उसे निवृत्त करना ही होगा। जहाँ जहाँ कमजोरी, पापाचार एवं कुप्रवृत्ति हमारे अंतर्गत छिपी हुई है उसे त्यागना ही होगा। अहम और मैं को एक कोने में रख दो। ऐसे सानिध्यों को ढूंढना पड़ेगा जहाँ से आपको अमृतमयी तत्व प्राप्त हो सकें। ऐसे स्थानों पर वास करना होगा जहाँ का वातावरण अमृतमयी हो व्यर्थ में ऊर्जा नष्ट करने से या फिर टकराव की स्थिति निर्मित करने से तो घर्षण ही उत्पन्न होगा। घर्षण से अग्रि और तपन ही निकलती है। आपने सड़क के किनारे लगे वृक्षों को देखा है मैं पिछले बीस वर्षों से अपने घर के पास लगे एक आम के वृक्ष को देख रहा हूँ बेचारा नपुंसक हो गया है, दुनिया भर का प्रदूषण, शोर एवं स्पंदन इत्यादि झेल रहा है। न तो उसमें कभी आम लगते हैं और न ही वह घटता बढ़ता है। ऐसा ही होता है सड़े-गले वातावरण में रहने से ब्रह्म शक्ति वह शक्ति है जिससे कि समस्त ब्रह्माण्ड का संचालन होता है जिससे कि यथा स्थिति बनी रहती है एवं प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म आवृत्ति तत्व और जीव की क्रियाशीलता बनी रहती है। ब्रह्मशक्ति अनैतिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखती इसीलिए ब्रह्मत्ता को निर्विकार निर्गुण कहा गया है।

           यह निर्लिप्त शक्ति है। अत्यंत ही सूक्ष्म एवं परिष्कृत नियंत्रणात्मक एवं अत्यंत ही सूक्ष्म क्रियाशीलता का नाम ही ब्रह्म शक्ति है। अद्वैत ही ब्रह्मा है। देखिए जीवन कितना सार्वभौमिक है। नियम बद्धता कितनी कठोर एवं सुस्पष्ट है। सभी मनुष्यों को एक हृदय से काम चलाना पड़ता है। सभी मनुष्यों को ऊंचाई का एक निश्चित माप मिला हुआ है। आपने कभी ऐसा नहीं देखा है कि बीस फुट से लेकर आधे इंच तक के मनुष्य होते हैं। 99 प्रतिशत मनुष्य पांच फुट से लेकर छः फुट तक के मिलेंगे। कितनी निश्चितता है। अधिकांशत: स्त्रियाँ एक बार में और वह भी नौ महीने के अंतराल में ही एक बार बालक को जन्म देगी। 45 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते स्त्रियों में जन्म देने की क्षमता स्वयं ही समाप्त हो जाती है। 55 वर्ष की आयु में पुरुष में संतानोत्पत्ति की क्षमता खत्म हो जायेगी। शेर दस फिट का ही होगा सौ फिट का नहीं। सीमाऐं पूरी तरह निर्धारित हैं। अधिकतम सीमा तो कठोरता के साथ निर्धारित हैं। अब इसमें घट बढ़ का क्षेत्र मनुष्य के कर्मों के आधार पर छोड़ दिया ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सम्पूर्ण भारत वर्ष में आप बिना किसी रोक-टोक के आ जा सकते हो, कहीं पर भी नौकरी कर सकते हो परन्तु बाहर जाने के लिए कुछ अन्य आवश्यकताऐं पड़ती हैं। योग्य होंगे तो जा पाओगे। आपकी मर्जी नहीं चलेगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने पूरे परिवार का बोरिया बिस्तर बाँधे और हवाई जहाज का टिकिट लेकर अमेरिका में जा बसें।

       जब मानव निर्मित नियम इतने कठोर हैं तो फिर ब्रह्म शक्ति द्वारा निर्मित नियम कैसे होंगे खुद ही अंदाजा लगा सकते हो। बस यहीं से शुरू होता है ब्रह्म वर्चस्व का प्रादुर्भाव । जिसने अति सूक्ष्मता और गूढ़ता के साथ ब्रह्म या ब्रह्माण्डीय या परा ब्रह्माण्डीय नियमों को समझ लिया, आत्मसात कर लिया वही ब्राह्मण कहलायेगा । ब्रह्म को धारण करने का यही विधान है। ब्रह्म नियम ही सत्य है। इसको आत्मसात किया हुआ व्यक्ति ही परम ब्रह्मास्त्रों से सुसज्जित होता है। यही धर्म धारण करने की विधि है। शंकराचार्य जी ने इसीलिए हाथ में ब्रह्म दण्ड धारण किया हुआ है। ब्रह्म- दण्ड प्रतीक है समस्त देव आयुधों का एवं जिसके अंतर्गत माँ भगवती द्वारा धारण किए गये सभी आयुध भी आते हैं। ब्रह्म दण्ड के अंतर्गत ही शाप भी आता है। ब्रह्म दण्ड किनके लिए है? ब्रह्म दण्ड उन कुमार्गियों के लिए है जो कि ब्रह्म शक्ति में अविश्वास रखते हैं एवं राक्षसी प्रवृत्तियों से युक्त होते हैं। जब बह्म नियम कह रहें हैं कि साठ वर्ष की अवस्था काम लिप्तता के लिए नहीं है फिर भी राक्षसी गुणों के कारण भोगी इस ओर अग्रसर हो रहे हैं तो फिर निश्चित ही ये दण्ड के अधिकारी हैं अन्यथा ब्रह्म वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। 

साठ वर्ष के भोगी सोलह वर्ष की कन्याओं से विवाह करने लगेंगे तो इस प्रकार समाज में कुकर्म फैल जायेगा। यही कारण है कि भोगी और कामी व्यक्ति मधुमेह, हृदय रोग एवं अन्य प्रकार के विकारों से ग्रसित हो जाते हैं। अत्यधिक कामातुर स्त्रियों के गर्भाशय जीवन के मध्य अवस्था में ही नष्ट हो जाते हैं। यह सब मनुष्य नहीं करता है कोई न कोई दिव्य शक्ति ही इस प्रकार के दण्ड निर्धारित कर देती हैं जिससे कि अंकुश लग सके कुप्रवृत्तियों पर यही है। देव और असुर शक्तियों के बीच चलने वाला निरंतर संग्राम सूर्य की किरणें अत्यंत ही घातक हैं परन्तु ब्रह्म शक्ति के चलते उनकी भी हिम्मत नहीं है कि वे पृथ्वी पर घातक रूप में पैर रख सकें। उन्हें भी माता गायत्री के अनुसार ही कोमल रूप में पृथ्वी पर उतरना पड़ता है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक शक्ति को अमृतमयी रूप में उतरने की इजाजत है अर्थात शक्ति का वह स्वरूप जो कि जीवन के लिए उत्पादक एवं लाभप्रद हो। बस इसी मातृमयी शक्ति के कारण ही तो बालक नौ महीने स्त्री के गर्भ में रह पाता है।

          ब्रह्मऋषि सदैव मातृ शक्ति के उपासक होते हैं। प्रत्येक तत्व में, प्रत्येक जीव में माता के भाव देखते हैं इसलिए वे चारों ओर से पूर्ण सुरक्षित, कवचित और सुसज्जित होते हैं। जिस प्रकार माता अपने शिशु की हर तरफ से पूरी देखभाल करती है उसी प्रकार ब्रह्मऋषियों की प्रत्येक आवश्यकता माता बिना बताए ही स्वतः पूर्ण कर देती है। बालक के एक रूदन पर माता के स्तनों से दुग्ध की धारा फूट पड़ती है, वह स्वयं भूखी रह सकती है परन्तु बालक के लिए येन-केन-प्रकारेण भोजन उपलब्ध करा देती है। ब्रह्मत्व धारण करने का एकमात्र उपाय, अनुष्ठान एवं संकल्प है मातृ शक्ति की पूर्ण तन्मयता के साथ उपासना, आराधना एवं कृपा की प्राप्ति यही रहस्य जब विश्वामित्र ने समझा तब जाकर वह ब्रह्मऋषि बन पाये। गायत्री मंत्र क्या है? सीधी सी बात है वह परम ब्रह्माण्डीय, परम आदि माता का स्तुतिगान ही है। ब्रह्मविद्या के अंतर्गत क्या नहीं आता है? ब्रह्मज्ञानी चाहें तो बैठे-बैठे हजारों मील दूर की घटना को देख सकते हैं कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकते हैं, किसी भी रोगी को दो मिनिट में स्वस्थ कर सकते हैं, मनचाहा पदार्थ अपनी इच्छानुरूप एक क्षण में प्राप्त कर सकते हैं, ब्रह्माण्ड के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को एक साथ देख सकते हैं, आत्मसात कर सकते हैं, किसी भी विषय पर घण्टों बोल सकते हैं, लीला भी कर सकते हैं, माया भी फैला सकते हैं, आशीर्वाद भी प्रदान कर सकते हैं, वरदान भी दे सकते हैं, दीक्षा संस्कार भी सम्पन्न कर सकते हैं। जिसने खुद कायाकल्प किया होगा वही तो कायाकल्प करायेगा। जिसके अंदर स्वयं के दुग्ध का उत्पादन होगा वही तो दुग्धपान करायेगा। वृक्ष ही आपको प्राणवान प्रदान करते हैं। जब प्राणवायु बनेगी तभी तो आपको प्राणवायु प्रदान करेंगे। प्रदान करने का खेल मातृ शक्ति का परिचायक है। मातृत्व के रस से परिपूर्ण मस्तिष्क ही मातृ शक्ति का प्रसार करेगी। जो स्वयं प्रेम विहीन होगा मातृत्व विहीन होगा, वह तो सिर्फ हिंसा, ताण्डव एवं दूसरों की आँखों में आँसू ही लायेगा। माता की गोद में बालक हँसने लगता है, मुस्कान बिखेरता है। ठीक इसी प्रकार आदि शक्ति माँ भगवती की गोद में खेल रहा बालक किस प्रकार की अमृतमयी मुस्कान बिखेरेगा इसे आप स्वयं ही समझ सकते हैं। ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के जतन करने की जरूरत नहीं है बस सिर्फ मातृत्व की शरण में रहिए, मातृत्व तुल्य व्यक्तित्व बनिए, बालक के समान अपने आपको समेटिए और मुस्कान बिखेरिए यही है गायत्री शक्ति का रहस्य । 

                      शिव शासनत: शिव शासनत:

कालिका रहस्यम् ।।

          त्रिनेत्रधारी की पत्नी भी त्रिनेत्री ही होंगी। रुद्ध की पत्नी भी रौद्री ही होंगी। महाकाल की पत्नी भी महाकाली ही होंगी। और काल की अर्धांगिनी भी काली ही होंगी। रुद्र जब शांत भाव में लीन होते हैं तब उनकी अर्धागिनी आदि शक्ति मां भगवती पार्वती कहलाती हैं एवं पार्वती का स्वरूप भी उतना ही शांत, निर्मल और सरल होता है परंतु जब शिव रौद्र रूप धारण करते हैं तो पार्वती भी समयानुसार काली स्वरूप में प्रकट होती हैं । अर्धनारीश्वर स्वरूप का चिंतन भी यही है । अर्धनारीश्वर स्वरूप वह विलक्षण स्वरूप है, वह अभेदात्मक स्थिति है जहां पर शिव शक्ति, शिव पार्वती और महाकाली महाकाल एक ही हैं। मां भगवती जब काली स्वरूप में दुष्टों का संहार करती हैं और फिर एक बार शंकर के समान प्रलयकारी हो जाती हैं तब शिव ही उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं अन्यथा समस्त योनियां ही सदा के लिये समाप्त हो जायें। ठीक इसी प्रकार जब भगवान शिव पार्वती के सती हो जाने की स्थिति में प्रलयकारी हो जाते हैं तो फिर माँ भगवती पुनः अवतरित हो उन्हें शांत करती हैं। काली पूजन, शिव पूजन साधक की दृष्टि में अभेदात्मक है। जिसे शिव से प्रेम होगा वह स्वत: ही शिवत्व अर्थात कालशक्ति के प्रेमपाश में बंधा हुआ होगा ।

                    शिव भी परिवर्तनकारी हैं और महाकाली भी । महाकाली भी चर्मोत्कर्ष की द्योतक हैं तो शिव भी चर्मोत्कर्ष तक संहारक है। चाहे साधक हो, ऋषि हो या फिर गृहस्थ जीवन में आदि शक्तियों से साक्षात्कार तो निश्चित है। आदि शक्तियां शाश्वत है, निरंतर सर्वसुलभ एवं गतिमान हैं। यह बात अलग है कि शक्ति का स्वरूप क्या होगा । दृष्टि में दोष तो नहीं है, या फिर अर्न्तवच विकसित ही नहीं है परंतु सर्वभौमिकता से किसी भी जीव की मुक्ति नहीं है। साधक का तात्पर्य ही मस्तिष्क, ज्ञान, बुद्धि और चेतना को उस आयाम में स्थापित करना जहां वह आकृति से परे हट शक्ति के वास्तविक स्वरूप को समग्रता के साथ ग्रहण कर सके, उससे तारतम्य स्थापित कर सकें और सत्य से परिचित हो सकें। पंचभूतों का यह शरीर परमचेतना के द्वारा नियंत्रित हैं। मनुष्य के अंदर बैठी यह चेतना सार्वभौमिक चेतना का मात्र अंश ही है। सार्वभौमिक चेतना, सार्वभौमिक परमसत्ता का ही प्रतीक है एवं इससे सम्पर्क, साक्षात्कार चेतना के माध्यम से ही सम्भव है। दृष्टि, बुद्धि और ज्ञान इसके स्वरूपों, आकृति और वर्णन को ही प्रकट कर सकते हैं। स्वरूप, ज्ञान, आकृति भूतकाल को इंगित करते हैं। वर्तमान तो चेतना क्षेत्र की ही बात है।

            महाशक्ति के वर्तमान स्वरूप से साक्षात्कार प्रज्ञापुरुष या प्रकृति पुरुष के ही बस की बात है। वे निरंतर प्रतिक्षण शक्ति के स्वरूप से संस्पर्शित होते रहते हैं। शक्ति केवल एक तत्व विशेष तक ही सीमित नहीं है। महाकाली स्वरूपी शक्ति से तो समुद्र, आकाश, वायु, जल, कण एवं समस्त ब्रह्माण्ड संस्पर्शित होता रहता है। प्रचण्डता प्राप्त करता रहता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जयिनी स्थित महाकाल के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति आधे पाप से मुक्त हो जाता है तो वहीं काशी में विश्वनाथधाम में मृत्यु पाकर व्यक्ति प्राप्त- पुण्यों के चक्रव्यूह से निकलकर मुक्ति प्राप्त करता है और जन्मों की अनंत श्रृंखला से मुक्त हो सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त करता है वहीं महाकाली समस्त असुरों को शरीर से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करती हैं। काली का स्वरूप ही मोक्ष प्रदायी है। असुर क्या है ? हम जो आकृति चित्रों में देखते हैं वह तो बस असुरों के शरीर की छाया है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म योनियों एवं आवृत्तियों में भी पायी जाती से हैं। समस्त ब्रह्माण्ड आसुरी शक्तियों से भरा हुआ है। ये नकारात्मक शक्तियाँ तो बस केवल शरीर रूपी माध्यम ढूंढती हैं। शरीर के अलावा अन्य माध्यमों पर भी नियंत्रण कर हाहाकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी तो जिस माध्यम या शरीर को वे धारण करती हैं वह शरीर स्वयं भी मुक्ति के लिये छटपटाता रहता है। 

          माध्यम को यह भी मालुम रहता कि आसुरी शक्तियों के नियंत्रण में वह अनर्थकारी कर्म सम्पादित कर रहा है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ इतनी ज्यादा नियंत्रण शील होती हैं कि माध्यम बेबस होता है। रावण की आसुरी सेना में रावण के साथ-साथ सभी असुरों को यह मालुम था कि वे जो कुछ कर रहे हैं ठीक नहीं है। युद्ध में उनकी पराजय निश्चित है परन्तु फिर भी जिस शरीर के माध्यम से उन्होने आसुरी कर्मों को सम्पूर्ण जीवन सम्पादित किया था वह इतनी जल्दी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। आसुरी शक्तियाँ स्वयं के मायाजाल में जीती हैं और मायावी भी हो हैं। सत्य से उनका कोई लेना देना नहीं होता। आसुरी शक्तियों की मुक्ति तभी सम्भव है जब वे माध्यम से विमुख कर दी जायें . 

परन्तु माध्यम और आसुरी शक्तियों का समायोजन इतना प्रचण्ड होता है कि उन्हें एक-दूसरे से विमुख करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आसुरी शक्तियों का एकमात्र लक्ष्य येन केन प्रकरेण शीघ्र अतिशीघ्र समग्रता के साथ सभी व्यवस्थाओं को अपने नियंत्रण में ले लेना होता है । आसुरी शक्तियाँ अत्यधिक चतुर और उच्च कोटि की बुद्धिमानी से युक्त होती है। इनमें स्वरूप बदलने की और माध्यम और व्यवस्था के हिसाब से परिवर्तित होने की अति विलक्षण प्रणाली या सिद्धि होती है।आसुरी शक्तियाँ भोगवादी संस्कृति में ही फलती फूलती हैं। आसुरी शक्तियों का एकमात्र उद्देश्य भक्षण, भोग और शोषण होता है। जिस माध्यम में वे एक बार स्थापित हो गई उसे तब तक नहीं छोड़ती हैं जब तक वह पूरी तरह निस्तेज न हो जाये। ऐसी शक्तियों का नाश महाकाली ही करती हैं। 

         जिस प्रकार आसुरी शक्तियाँ माध्यम के प्रति निष्ठुर होती हैं उसी प्रकार महाकाली के विभिन्न स्वरूप आसुरी शक्ति के प्रति निष्ठुर होती हैं तभी आसुरी शक्तियों का सम्पूर्ण विनाश सम्भव हो सकता है। महाकाली भी असुरों के शीष को उतनी ही निष्ठुरता से धड़ से अलग कर देती हैं और तो और उन अपवित्र रक्त को स्वयं पान कर सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिये सब कुछ अपने उपर ले लेती हैं तभी तो उनकी परमेश्वरी मातृ शक्ति के रूप में उपासना की जाती है। भगवान शिव सृष्टि की रक्षा के लिये समस्त विषों का पान कर नील कण्ठेश्वर बने हुये हैं। इन दोनों आदि शक्तियों की दिव्य युति ही इस सृष्टि को विराजमान रखे हुये है। आसुरी शक्तियाँ सर्वप्रथम ब्रह्मा द्वारा निर्मित समस्त योनियों को त्रस्त करती हैं फिर प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन करने लगती हैं। उनके हस्तक्षेप से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। तत्पश्चात् देव पुरुषों एवं ऋषि-मुनियों की बारी आती है फिर वे देवलोक को भी नहीं छोड़ती । देवलोक के बाद फिर बचती है आदि शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जब असुर इन दिव्य लोकों पर भी विध्वंश मचाने की कोशिश करते हैं तब महाकाली के स्वरूप का प्राकट्य होता है और प्रचण्डता, विकरालता और अद्भुत तेज के साथ समस्त असुरगण महाकाली के हाथ मृत्यु प्राप्त कर दुष्कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। यही सृष्टि का परा नियम है। 

        असुरों का निर्माण होता कैसे है ? सीधी सी बात है असुर भी इतने शक्तिशाली शिव के सानिध्य में ही होते हैं। सभी आसुरी शक्तियाँ शिव अर्थात परमतत्व की कम से कम प्रारम्भिक स्थिति में तो अति मे भक्ति करती हैं। वे अपनी घोर तपस्या के कारण भगवान शिव को प्रसन्न कर लेती हैं और फिर वरदान स्वरूप उन्हीं के तेज से महिमा मण्डित हो प्रपंचकारी युग की शुरुआत करती हैं। ब्रह्मा जिन जीवों की रचना करते हैं वे आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण नहीं होते हैं परन्तु कालान्तर में भोग प्रवृत्तियों के चलते जीव अपना वास्तविक स्वरूप खोकर नकारात्मक शक्तियों के लिये आकर्षण केन्द्र बन जाते हैं। भोग प्रवृत्तियाँ सभी व्यवस्थाओं और चक्रों में देव कवचों को क्षीण कर देती हैं । इन कवचों की क्षीणता के पश्चात् ही आसुरी शक्तियाँ माध्यम के सूक्ष्म धरातल तक पहुँचने में सफल हो जाती हैं।

           प्रत्येक वैदिक पूजन, रुद्र पूजन, योग प्रणाली इन सभी का मूल उद्देश्य काली साधना ही है। उस परम सुरक्षा चक्र की साधना जो कि मातृ स्वरूप में साधक को रोग, शोक और वियोग से सदैव रक्षित करता है। साधक जीवन पर्यन्त एक प्रकार से महाकाली साधना ही करता है ये बात और है कि अज्ञानवश वह इसके विभिन्न स्वरूपों को नहीं समझ पाता । बुद्धि में स्थित कुतर्क की दुष्ट आवृत्तियाँ, शरीर के विभिन्न अंगों में विद्यमान रोग, मस्तिष्क के अंदर सुप्त अवस्था में बैठी व्यभिचारी ग्रंथियाँ यह सभी कुछ आसुरी शक्ति का ही प्रतीक है। जब तक साधक निर्मूलता के साथ इन आसुरी केन्द्रों को नष्ट नहीं करेगा वह मोक्ष या सत्य की प्राप्ति कदापि नहीं कर सकता। सत्य और साधक के बीच मायावी आवरण ही असुर शक्ति है और इस आवरण का विनाश महाकाली साधना के विभिन्न स्वरूपों के द्वारा ही सम्भव है। उन गृहस्थों या साधकों की बुद्धि या सोच तरस योग्य है जो कि महाकाली को हमेशा भय प्रकट करने वाले स्वरूप में देखते हैं। 

          इस ब्रह्माण्ड में विशुद्ध प्रेम का प्रतीक अगर कोई दिव्य मातृ शक्ति है तो वह है महाकाली । हाँ निश्चित ही नकारात्मक तत्वों और दुष्टों के लिये वह भय का प्रतीक है। उनकी संहारक है वह, परन्तु मनुष्य, देव और आदि शक्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लिये तो वे अत्यन्त ही प्रेम मयी हैं। उनका प्रेम तो इतना निश्छल है कि वे इनकी रक्षा के लिये असुरों के अपवित्र रक्त का पान भी कर लेती हैं जिससे कि वे पुनः प्रकट न हो सकें। इस तरह का महाकर्म तो केवल महाकाली के ही बस की बात है। 

वे परा हैं, बुद्धि से और ज्ञान से परे वे उस उन्मुक्त व्यवस्था का प्रतीक है जो कि एक बार अगर क्रियाशील हो जाये तो फिर कार्य सिद्धि के पश्चात् भी शांत होने के लिये शिव को ही चरणों में लेटना पड़ता है। असुर अगर मायावी शक्ति पर घमण्ड करते हैं तो फिर महाकाली अपने अनावृत्त स्वरूप के द्वारा यह दिखला देती हैं कि असत्य का महाभ्रम अनावृत्त शाश्वत् सत्य के सामने क्षण भर भी नहीं टिक सकता है। उनके गले में असुर मुण्डों की माला एवं कटि पर बंधी हाथों की माला यही दर्शाती है कि अनावृत्त सत्य द्वारा असत्य रूपी मायाजाल को खण्ड-खण्ड किस प्रकार से किया जाता है।

            गीता के समस्त उपदेश भगवान कृष्ण द्वारा की गई महाकाली साधना का ही प्रतीक हैं। अर्जुन की बुद्धि और भावनाओं में बैठी कायरता ने उसे युद्ध के मैदान में अवसाद से ग्रसित कर दिया था एक क्षत्रिय जिसका कर्म ही युद्ध करना हो वही अगर युद्ध के मैदान में कुण्ठित हो जाये तो फिर उसकी गति निश्चित ही अधोगामी होगी यही बात समझाने के लिये कृष्ण ने उसकी समस्त जिज्ञासाओं और आशंकाओं को महाकाली रूपी शक्ति से सदा के लिये शांत किया तब कहीं जाकर वह समग्रता के साथ युद्ध में रत हुआ। कृष्ण के समस्त गीता उपदेशों का सार ही मनुष्यों को मोह, लोभ, माया, विषाद, तर्क, ज्ञान और बुद्धि से मुक्त करा परम गति को प्राप्त कराना है। वे काल पुरुष हैं, काल के अनुसार ही काली साधना करा मनुष्यों के कर्मों को सम्पन्न करवाते हैं और जिस प्रकार महाकाली ने असुरों का विनाश कर सृष्टि को पुनस्थापित किया उसी प्रकार उनके उपदेश भी मनुष्यों को धर्म की संस्थापना के लिए पुन: प्रेरित करते हैं। जब साधक गुरु स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है तब वह भी महाकाली की परम शक्ति से अनुयायियों के वंश वृक्ष में बैठे पाप को, दोषों को, दरिद्रता को नष्ट करते हुये उन्हें अवरोध विहीन माध्यम बनाकर उनमें देवी शक्तियों की स्थापना करता है।

        महाकाली के सभी शस्त्र तेज व धारयुक्त हैं। धार ही शस्त्र हैं अन्यथा तो फिर वह धातु विशेष या फिर तत्व विशेष का कुंद टुकड़ा है। जीवन में दिव्य फल तत्व प्राप्ति महाकाली के बिना सम्भव ही नहीं हैं। बुद्धि के द्वारा सम्पादित किये गये कर्म अधिकांशतः क्षयकारी फल ही प्रदान करते हैं परन्तु निष्काम भाव से सम्पादित किये गये कर्म इतना फल प्रदान करते हैं कि जिसकी आपने कल्पना ही नहीं की है। महाकाली की शक्ति बुद्धि के द्वारा नहीं नापी जा सकती । न ही उनकी उपासना बुद्धि के द्वारा सम्भव है। वे ही अक्षय फलों को प्रदान करने वाली हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस महाकाली के अनन्य उपासक हुये हैं। उनका प्रत्येक दिन काली उपासना एवं उनके मूर्ति स्वरूप के श्रृंगार और देखभाल में ही बीत जाता था। उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे ग्रंथ लिख सकें, प्रवचन दे सकें या फिर अन्य किसी सामाजिक कार्य को सम्पन्न कर सकें। वे तो बस काली आराधना में ही लीन रहते थे। उनके परमहंसी स्वरूप से यह समस्त जग जो कि पंचेन्द्रिय व्यवस्थाओं में डूबा रहता है अपरिचित ही रह जाता अगर विवेकानंद जैसा धारदार व्यक्तित्व उन्हें नहीं मिलता। यही महाकाली का अक्षय फल है जिसने कि समस्त विश्व में परमहंस को विवेकानंद के द्वारा स्थापित करा दिया। बुद्धि से आप देखेगे तो विवेकानंद और रामकृष्ण ही नजर आयेंगे परन्तु हृदय से देखेंगे तो महाकाली ही नजर आयेंगी। कहीं भी अभेदात्मक स्थिति निर्मित नहीं होगी। 

            जितने भी अवतारी महापुरुष, ऋषि-मुनि हुये हैं उनके मूल में महाकाली साधना ही विराजमान हैं। उसी की शक्ति ने इन्हें अर्ध्वगामी बनाया, समस्त अवरोधों को जिन्हें कि हटानें में अनेको जन्म लग जाते हैं मात्र कुछ ही वर्षों में समाप्त कर ईष्ट से साक्षात्कार करवाया। मृत्यु तो आपको प्रदान करनी ही पड़ेगी और वह भी निर्ममता के साथ अपनी कमजोरियों को, अपने दोषों को, अपनी नकारात्मक सोच को तभी आप ऊर्ध्वगामी हो सकेंगे, तभी आप व्यर्थ के बोझों को उतारकर फेंक सकेंगे और वह मृत्यु प्रदान करेगी महाकाली साधना । वे श्मशान वासिनी हैं श्मशान अर्थात वह दिव्य स्थान जहाँ शाश्वत् सत्य मात्र का ही वाश है। माया, मनुष्यों द्वारा निर्मित बेतुके नियम, व्यर्थ की उपाधियाँ, तथाकथित ज्ञान सब कुछ शून्य है। 

कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है। अहंकार और बोझ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन पर आप अहंकार करते हैं वे ही बोझवत आपको आसुरी गति प्रदान करते हैं। अहंकार असुरों का श्रृंगार है वे इसी से सुशोभित होते हैं। इसी अहंकार से मुक्त होने के लिये असुर स्वयं भी लालायित रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि आंतरिक दृष्टि से आसुरी शक्तियाँ इतनी कमजोर होती हैं कि वे जानते हुये भी बोझों से मुक्त नहीं हो पाती और अंत में थक हारकर वे नाना प्रकार के प्रयत्नों से महाकाली के चरणों तक पहुँच उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त करती हैं। अनंतकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है और ऐसा ही होता रहेगा। आसुरी शक्तियों का अंतिम लक्ष्य महाकाली के द्वारा मुक्ति पाना ही है। समस्त चिकित्सा जगत का एकमात्र लक्ष्य महाकाली रूपी शक्ति को समग्रता से प्राप्त करना है। औषधियाँ काली का ही अंश हैं वे उन्हीं की पराशक्ति से शक्तिकृत होती हैं तभी वे शरीर रूपी व्यवस्था में प्रवेश कर रोग रूपी आसुरी शक्तियों का विनाश करने में सक्षम हो पाती हैं। रोगों का क्या है ? वे रक्त में भी पहुँच जाते हैं, मस्तिष्क की एक-एक कोशिका तक पहुँच नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। सारे मानस को प्रदूषित कर देते हैं परन्तु इन सबसे भी विकट स्थिति होती है आध्यात्मिक रोगों की। अनेकों तथाकथित अध्यात्मिक साधु-संत, मठाधीश इन्हीं रोगों से ग्रसित हो सिद्धियाँ खो बैठते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं, भोग एवं लोलुपता उनमें इतनी बढ़ जाती है कि वे साधारण गृहस्थ से भी ज्यादा कामान्ध हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि काली साधना उनके बस की बात नहीं रह जाती है। काली साधना प्रतिक्षण की क्रिया है। प्रतिक्षण त्याग की क्रिया । प्रतिक्षण मृत्यु प्रदान करने की क्रिया, प्रतिक्षण मोह से मुक्त होने की क्रिया, समस्त प्रकार के मोह से मुक्त होने की क्रिया । 

         यही क्रियाऐं साधक को विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व में परिवर्तित करती हैं। विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व का तात्पर्य उस प्रकृति पुरुष से है जो कि योनि बंधनों, तत्व बंधनों, ज्ञान बंधनों एवं समस्त गृह बंधनों से मुक्त हो। उसे प्रेम करने के लिए मुख से बोलने या गाने की जरूरत नहीं होती है उसका प्रेम पंचेन्द्रियों द्वारा प्रकट होने की परिधि में नहीं आता है। ठीक उसी प्रकार जिस -प्रकार महाकाली स्वरूप में माँ पार्वती अपना समस्त सौन्दर्य, श्रृंगार, आभूषण और सम्मोहन त्याग कर अपने भक्तों के लिए वह रूप भी धारण कर लेती हैं जिसे देखकर असुर भी कांप उठते हैं। ब्रह्माण्डीय प्रेम रूप, रंग, श्रृंगार इत्यादि जैसी क्षण भंगुर स्थितियों का दास नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने विशुद्धतम प्रेम किया। उनके विशुद्धतम् प्रेम का प्रतीक थी राधा। उम्र में उनसे बड़ी, रंग रूप में भी अत्यंत साधारण, पारिवारिक दृष्टि से भी सामान्य परन्तु प्रेम की दृष्टि से दिव्यतम, सब कुछ कृष्ण पर न्यौछावर कर देनी वाली। कृष्ण की राह देखते-देखते अंतिम श्वास ली । कृष्ण उनसे कभी दूर थे ही नहीं। शरीर दूर हो सकता है परन्तु प्रेम मे दूरी जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं । शरीर भोग का प्रतीक है परन्तु प्रेम भोग का प्रतीक नहीं है। राधा और कृष्ण एक ही आवृत्ति हैं दिव्यतम प्रेम आवृत्ति । जिस प्रकार शिव शक्ति । शरीर तो आते जाते रहते हैं। शरीर कालजयी नहीं है। आप महाकाली की गीता के रूप में उपासना करें, रोगों के नाश के लिए औषधि स्वरूप में अनुसंधान करें, साधक के रूप में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें, मोक्ष के लिए कर्म श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करें, ले देकर करनी आपको महाकाली साधना ही पड़ेगी।
                                 
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

देवरहा बाबा (19 जून पुण्यतिथि) ।।

देवरहा बाबा भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे...

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय- समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। 

पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

देवरहा बाबा का जन्म अज्ञात है। यहाँ तक कि उनकी सही उम्र का आकलन भी नहीं है। वह यूपी के नाथ नदौली ग्राम, लार रोड, देवरिया जिले के रहने वाले थे।

मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। कहा जाता है कि वह करीब 900 साल तक जिन्दा थे। बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं। कुंभ कैंपस में संगम तट पर धूनी रमाए बाबा की करीब 10 सालों तक सेवा करने वाले मार्कण्डेय महराज के मुताबिक, पूरे जीवन निर्वस्त्र रहने वाले बाबा धरती से 12 फुट उंचे लकड़ी से बने बॉक्स में रहते थे। वह नीचे केवल सुबह के समय स्नान करने के लिए आते थे। इनके भक्त पूरी दुनिया में फैले हैं। राजनेता, फिल्मी सितारे और बड़े-बड़े अधिकारी उनके शरण में रहते थे।

हिमालय में अनेक वर्षों तक अज्ञात रूप में रहकर उन्होंने साधना की। वहां से वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया नामक स्थान पर पहुंचे। वहां वर्षों निवास करने के कारण उनका नाम देवरहा बाबा पड़ा। देवरहा बाबा ने देवरिया जनपद के सलेमपुर तहसील में मइल (एक छोटा शहर) से लगभग एक कोस की दूरी पर सरयू नदी के किनारे एक मचान पर अपना डेरा डाल दिया और धर्म-कर्म करने लगे।

देवरहा बाबा परंम् रामभक्त थे, देवरहा बाबा के मुख में सदा राम नाम का वास था, वो भक्तो को राम मंत्र की दीक्षा दिया करते थे। वो सदा सरयू के किनारे रहा करते थे।

उनका कहना था "एक लकड़ी ह्रदय को
मानो दूसर राम नाम पहिचानो
राम नाम नित उर पे मारो
ब्रह्म दिखे संशय न जानो"

देवरहा बाबा जनसेवा तथा गोसेवा को सर्वोपरि-धर्म मानते थे तथा प्रत्येक दर्शनार्थी को लोगों की सेवा, गोमाता की रक्षा करने तथा भगवान की भक्ति में रत रहने की प्रेरणा देते थे। देवरहा बाबा श्री राम और श्री कृष्ण को एक मानते थे और भक्तो को कष्ट से मुक्ति के लिए कृष्ण मंत्र भी देते थे।

"ऊं कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने
प्रणत: क्लेश नाशाय, गोविन्दाय नमो-नम:"

बाबा कहते थे जीवन को पवित्र बनाए बिना, ईमानदारी, सात्विकता-सरसता के बिना भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती। अत: सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध-पवित्र बनाने का संकल्प लो वे प्राय: गंगा या यमुना तट पर बनी घास-फूस की मचान पर रहकर साधना किया करते थे। दर्शनार्थ आने वाले भक्तजनों को वे सद्मार्ग पर चलते हुए अपना मानव जीवन सफल करने का आशीर्वाद देते थे। 

वे कहते इस भारत भूमि की दिव्यता का यह प्रमाण है कि इसमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है। यह देवभूमि है, इसकी सेवा, रक्षा तथा संवर्धन करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है

प्रयागराज में सन् 1989 में महाकुंभ के पावन पर्व पर विश्व हिन्दू परिषद् के मंच से बाबा ने अपना पावन संदेश देते हुए कहा था दिव्यभूमि भारत की समृद्धि गोरक्षा, गोसेवा के बिना संभव नहीं होगी। गोहत्या का कलंक मिटाना अत्यावश्यक है।

पूज्य बाबा ने योग विद्या के जिज्ञासुओं को हठयोग की दसों मुद्राओं का प्रशिक्षण दिया। वे ध्यान योग, नाद योग, लय योग, प्राणायाम, त्राटक, ध्यान, धारणा, समाधि आदि की साधन पद्धतियों का जब विवेचन करते तो बड़े-बड़े धर्माचार्य उनके योग सम्बंधी ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हो जाते थे।

बाबा ने भगवान श्रीकृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन में यमुना तट पर स्थित मचान पर चार वर्ष तक साधना की बहुत ही कम समय में देवरहा बाबा अपने कर्म एवं व्यक्तित्व से एक सिद्ध महापुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो गए। बाबा के दर्शन के लिए प्रतिदिन विशाल जन समूह उमड़ने लगा तथा बाबा के सानिध्य में शांति और आनन्द पाने लगा। बाबा श्रद्धालुओं को योग और साधना के साथ-साथ ज्ञान की बातें बताने लगे। बाबा का जीवन सादा और एकदम संन्यासी था। बाबा भोर में ही स्नान आदि से निवृत्त होकर ईश्वर ध्यान में लीन हो जाते थे और मचान पर आसीन होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते और ज्ञान लाभ कराते थे। कुंभ मेले के दौरान बाबा अलग-अलग जगहों पर प्रवास किया करते थे। गंगा-यमुना के तट पर उनका मंच लगता था। वह 1-1 महीने दोनों के किनारे रहते थे। जमीन से कई फीट ऊंचे स्थान पर बैठकर वह लोगों को आशीर्वाद दिया करते थे। बाबा सभी के मन की बातें जान लेते थे। उन्होंने पूरे जीवन कुछ नहीं खाया। सिर्फ दूध और शहद पीकर जीते थे। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवराहा बाबा के भक्तों में कई बड़े लोगों का नाम शुमार है। राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और कमलापति त्रिपाठी जैसे राजनेता हर समस्या के समाधान के लिए बाबा की शरण में आते थे। देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गाँधी हार गईं तो वह भी देवराहा बाबा से आशीर्वाद लेने गयीं।

सन् 1990 की योगिनी एकादशी (19 जून) के पावन दिन उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
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