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अंतस हूक उठी गुरु आये -

प्रायः पाठको के मानस में यह प्रश्न उठता हैं -"गुरु तत्व " क्या हैं ?
ऐसी कौन सी शक्ति निहित हैं ,इन "गुरु-तत्व " में जिसके लिए कहां गया हैं कि "प्रथमे गुरु की वंदना ?

प्रश्न गूढ़ हैं - गूढ़ इसलिए हैं कि सामान्य मानव के धरातल पर गुरु को परिभाषित करना अत्यंत दुष्कर हैं ,कठिन हैं ,पर अगर सीधे-साधे शब्दों में कहें तो ज्ञान ही गुरु हैं I

ज्ञान भी कौन सा ,जो तन्द्रा अवस्था को तोड़ दे ,नींद से जगा दे हमें ,यह बोध करा सके कि अभी तक जो जीवन समझा था ,वह वास्तविक जीवन हैं ही नहीं ,बस एक गहरी नींद थी वह ,जिसमें आकंठ डूबे हैं सभी I

-सद्गुरु की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ,अगर एक शब्द में कहें तो वह हैं अप्रमाद (अवेरनेस ) अर्थात जाग कर जीना ,जब व्यक्ति को अपने अस्तित्व का भान हो जाय I

-अभी तक की यात्रा में स्वयं से ही अनभिज्ञ हैं आदमी ,स्वयं से ही परिचित नहीं हैं ,निकटतम ही नहीं पहुंच पाया हैं वह ,और निकटतम तक पहुंचना ही सदगुरुदेव का ध्येय हैं ,तभी दूरतम तक मंजिल तय हो सकती हैं ,क्योकि दूर भी निकट का ही प्रसारण हैं I

-पर मानव अपनी तन्द्रा को सहेज कर रखे हुए हैं ,प्रमाद जाल में जकड़ा हुआ हैं ....... और प्रतिपल उसे मृत्यु की ओर अग्रसर कर रहा हैं ....... और सदगुरु ले चलता हैं उसे मुक्ति के पथ पर ,अमृत की राह पर ,क्योकि जागते ही शिष्य को ज्ञान हो जाता हैं उस अमृत कुंड का जो भीतर ही प्रसुप्त हैं ,जो मिट नहीं सकता ,एक ऐसी सम्पदा ,जो छीनी नहीं जा सकती ,जो शाश्वत हैं ,समयातीत हैं I

-अतः यह स्पष्ट हैं कि गुरु कोई शरीर या नाम नहीं ,किसी व्यक्तित्व या चमक-दमक युक्त आश्रम के अधिष्ठाता को भी गुरु नहीं कहते ,प्रवचन करने वाले ,या शिष्यों की फौज चलने वाले सन्यासी को भी गुरु नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता I

- जो कुछ वास्तविक ज्ञान हैं वह गुरु हैं ,इसलिए गुरु को तत्व कहा गया हैं ,जो समस्त ब्रम्हांड में फैला हुआ हैं I यह अलग तथ्य हैं कि यह ज्ञान किसी शरीर में भी विध्यमान रह सकता हैं ,और इसलिए वह शरीर भी पवित्र और पूज्य बन जाता हैं ,फिर ऐसे उच्च कोटि के ज्ञान को धारण करने वाले व्यक्तित्व को गुरु कह सकते हैं I

-और यह भी सत्य हैं ,जहाँ परम सत्य को पाने के लिए ,पीड़ा और अभीप्सा हैं ,अस्तित्व किसी न किसी के माध्यम से उपस्थित हो ही जाता हैं ,यही अस्तित्व "सदगुरु " होता हैं ,जिसके पास बैठते -बैठते ,जिसके रस में निमग्न होते-होते सत्य एक दिन उपज उठता हैं I

गुरु ही मृत्यु हैं 
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शास्त्रों में गुरु को मृत्यु भी कहा गया हैं ,क्योकि वह शिष्य की त्वरित मृत्यु का कारण बनता हैं ,नष्ट करता हैं उसके अब तक के संचित कर्मो (प्रारब्ध) की झूठी सम्पदा को ,संस्कारों को I शिष्य के पाखंड ,उसकी सन्देहशीलता ,उसकी न्यूनता ,उसका ओछापन ,और उसकी निर्लज्जता को मृत्यु देता हैं I

-वह मृत्यु देता हैं जिससे शिष्य के चित्त पर ,ह्रदय पर जो स्याह हैं कालापन हैं ,वह समाप्त हो जाय , जो कुछ व्यर्थ हैं ,निस्सार हैं ,वह मर जाय ..... तब वह नए सिरे से निर्माण कर सके ,देवदूत की तरह अद्वितीय मानव की तरह I शिष्य की आस्था को ही बदल देना चाहता हैं वह ,ताकि शिष्य पूरी तरह मिट जाय I

-और मृत्यु ही महाजीवन का प्रारम्भ होती हैं ,शिष्य मिटा नहीं की उसके भीतर का परमात्मा दृष्टव्य हो जाता हैं I 

-बड़ा विचित्र खेल हैं ,यह ठीक वैसा ही हैं ,जैसा बीज का माटी में खो कर अंकुरित होना ...खोना जरुरी हैं ,मिटना अनिवार्य हैं I और जब तक शिष्य बीज के आवरण को ही अपना प्राण समझता हैं ,उसे खोने से डरता हैं ,तभी तक वह अंधकार में डूबा हैं

- गुरु उसे स्पष्ट करता हैं कि यह तो मात्र आवरण हैं ,प्राण तो इसके भीतर हैं ,आवरण हटेगा तभी प्राणों का अंकुरण होगा ,तभी वृक्ष का जन्म होगा ,तभी करोड़ो वृक्ष का अस्तित्व होगा I

-पर स्वप्न से निकलना इतना सुगम नहीं हैं ,बड़ी मीठी नींद हैं यह -कोई सम्राट बना बैठा हैं ,कोई स्वर्ग की सैर कर रहा हैं ,तो कोई स्वर्ण महल में विश्राम कर रहा हैं ....और अगर कोई इस नींद से जगाता हैं ,तो बड़ी व्याकुलता होती हैं उसे ,जब कोई इस नकली घेरे से बाहर निकालने की क्रिया करता हैं तो बड़ी पीड़ा होती हैं ,क्योकि वह उसी मृग मरीचिका में प्रसन्न हैं I

-पर सदगुरु से नजरे मिलते ही ,एक-एक कर सब लूटने लगता हैं ,वे अपने शिष्य की सभी मिथ्या आशाये ,संतोष ,सांत्वना ,आस्था और मान्यताएं सब छीन लेता हैं ,और जैसे-जैसे खोखली सम्पदा छिनेगी शिष्य घबराएगा ,अंधकार उसे घना प्रतीत होगा ,और सारी बैसाखिया हटते ही वह एक दम से गिर जायेगा I 

 -पर यह गिरना ही उसके अपने पैरो पर खड़े होने की प्रथम शुरुवात होगी I 
प्रत्येक पूर्णिमा के पहले अमावस्या तो आएगी ही ,गहन रात्रि के बाद ही प्रभात का सूर्य उदय होगा I

जप माला का संस्कार ।।

 कोई भी जप , साधना या अनुष्ठान में
माला की जरुरत होती है ! प्रायः जनसाधारण बाजार से
माला खरीदकर उसी से जप आरम्भ कर देते है ! ऐसी माला से जप करना निरर्थक व निषिद्ध है क्योंकि उससे कोई लाभ या सिद्धि सम्भव नहीं है ! सर्वप्रथम माला क्रय करने के बाद विधवत उसके संस्कार करना चाहिए अन्यथा जप निष्फल है !
अधिकतम माला संस्कार की विधि जो प्राप्त होती है उसमें कुछ न कुछ कमी अवश्य रहती है जैसे संस्कार दिया है तो प्राणप्रतिष्ठा नहीं होती , आज आप सब के लाभार्थ मैं माला संस्कार की संपूर्ण विधि पर प्रकाश डाल रहा हु आशा करता हु की साधक भाई - बहनो के कुछ काम आ जाये !

व्यावहारिक विधि--- साधक सर्वप्रथम स्नान आदि से शुद्ध हो कर अपने पूजा गृह में पूर्व या उत्तर की ओर मुह कर आसन पर बैठ जाए अब सर्व प्रथम आचमन - पवित्रीकरण करने के बाद गणेश -गुरु तथा अपने इष्ट देव/ देवी का पूजन सम्पन्न कर ले तत्पश्चात पीपल के 09 पत्तो को भूमि पर अष्टदल कमल की भाती बिछा ले ! एक पत्ता मध्य में तथा शेष आठ पत्ते आठ दिशाओ में रखने से अष्टदल कमल बनेगा ! इन पत्तो के ऊपर आप माला को रख दे ! अब अपने समक्ष पंचगव्य तैयार कर के रख ले किसी पात्र में और उससे माला को प्रक्षालित ( धोये )
करे ! आप सोचे-गे कि पंचगव्य क्या है ? तो जान ले गाय
का दूध , दही , घी , गोमूत्र , गोबर यह पांच चीज
गौ का ही हो उसको पंचगव्य कहते है ! पंचगव्य से
माला को स्नान करना है - स्नान करते हुए अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन का उच्चारण करे ! फिर
समस्य़ा हो गयी यहाँ कि यह अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन क्या है ?

 तो नोट कर ले - ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं
ऋृं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं !! 

यह उच्चारण करते हुए माला को पंचगव्य से धोले ध्यान रखे इन समस्त स्वर का अनुनासिक उच्चारण होगा !
माला को पंचगव्य से स्नान कराने के बाद निम्न मंत्र बोलते हुए माला को जल से धो ले -

ॐ सद्यो जातं प्रद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः
भवे भवे नाति भवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः !!

अब माला को साफ़ वस्त्र से पोछे और निम्न मंत्र बोलते हुए माला के प्रत्येक मनके पर चन्दन- कुमकुम आदि का तिलक करे
-
ॐ वामदेवाय नमः जयेष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कल विकरणाय नमो बलविकरणाय नमः !
बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूत दमनाय नमो मनोनमनाय नमः !!

अब धूप जला कर माला को धूपित करे और मंत्र बोले -

ॐ अघोरेभ्योथघोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्व
शर्वेभया नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य:

अब माला को अपने हाथ में लेकर दाए हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र का १०८ बार जप कर उसको अभिमंत्रित करे -

ॐ ईशानः सर्व विद्यानमीश्वर सर्वभूतानाम
ब्रह्माधिपति ब्रह्मणो अधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु
सदा शिवोम !!

अब साधक माला की प्राण - प्रतिष्ठा हेतु अपने दाय हाथ में जल लेकर विनियोग करे -

ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु रुद्रा ऋषय: ऋग्यजु:सामानि छन्दांसि प्राणशक्तिदेवता आं बीजं
ह्रीं शक्ति क्रों कीलकम अस्मिन माले प्राणप्रतिष्ठापने
विनियोगः !!

अब माला को बाय हाथ में लेकर दाय हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र बोलते हुए ऐसी भावना करे कि यह माला पूर्ण चैतन्य व शक्ति संपन्न हो रही है !

ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं सः ह्रीं ॐ आं
ह्रीं क्रों अस्य मालाम प्राणा इह प्राणाः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं
लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य
मालाम जीव इह स्थितः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम
सर्वेन्द्रयाणी वाङ् मनसत्वक चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण
प्राणा इहागत्य इहैव सुखं तिष्ठन्तु स्वाहा ! 

ॐ मनो जूतिजुर्षतामाज्यस्य बृहस्पतिरयज्ञमिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु विश्वे देवास इह मादयन्ताम् ॐ प्रतिष्ठ !!

अब माला को अपने मस्तक से लगा कर पूरे सम्मान सहित स्थान दे ! इतने संस्कार करने के बाद माला जप करने योग्य शुद्ध तथा सिद्धिदायक होती है !

नित्य जप करने से पूर्व माला का संक्षिप्त पूजन निम्न मंत्र से करने के उपरान्त जप प्रारम्भ करे -

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ
साधिनी साधय-साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय मे स्वाहा ! ऐं
ह्रीं अक्षमालिकायै नमः !

जप करते समय माला पर किसी कि दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए ! गोमुख रूपी थैली ( गोमुखी ) में माला रखकर इसी थैले में हाथ डालकर जप किया जाना चाहिए अथवा वस्त्र आदि से माला आच्छादित कर ले अन्यथा जप निष्फल होता है !
आशा करता हु अब आप जब भी माला बाजार से ख़रीदेगे तो उपरोक्त विधान अनुसार संस्कार अवश्य करेगे !

हमारा युग निर्माण सत्संकल्प ।।

 —हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

 —शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म- संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

 —मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।

 —इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

 — अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे। 

 —मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

—समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे। 

—चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे। 

 — अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे। 

 —मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे। 

 —दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं। 

 —नर- नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे। 

 —संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे। 

—परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे। 

 —सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव- सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे। 

 —राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे। 

 —मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा। 

 —‘‘हम बदलेंगे- युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।

अपराध है 'नारी' को 'औरत' कहना ।।

औरत अरबी शब्द है, जो ‘औराह’ (awrah) धातु से बना है। इसका अर्थ है नग्नता, योनि, दुर्बलता आदि। अरबी मजहब में औरत की यही परिभाषा और सोच है। अतः महिलाओं के लिए शब्द चयन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जैसे-

1) स्त्री (प्रकृति) - यह स्वभाव वाचक शब्द है।

2) नारी (देवत्व) - यह गुणवाचक शब्द है।

3) महिला (सामाजिक स्थिति) - यह अधिकार वाचक शब्द है।

4) औरत (मजहबी) - यह उपभोग बोधक शब्द है।

5) मादा (जैविक) - यह प्रजनन बोधक शब्द है। अंग्रेजी का female भी इसी संदर्भ में आएगा।

6) Woman (पराधीनता) - यह wifmann से बना है, जिसका अर्थ है wife of man. यह पराधीनता बोधक शब्द है।

मेरा इतना ही आशय है कि स्त्रियों के लिए आप जिस भी शब्द का प्रयोग करें, अर्थ जानकर करें। अनभिज्ञता में लिखने, बोलने, कहने में स्त्रियों के अपमान की संभावना बनी रहती है।

भारतीय स्त्रियां भी अपने लिए सही शब्द का चयन करें/करवाएं। आपकी सोच और उसकी अभिव्यक्ति ही आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। इसे सदैव ध्यान में रखें।

समाधि के सात द्वार ।।

         समाधि के उन सात बिन्दुओ /द्वारों को आपके सामने स्पष्ट कर रहा हूँ ,जिसके माध्यम से हम विचार शून्य मस्तिष्क या ब्रम्हांड दर्शन प्रक्रिया को स्पष्ट कर सकेंगे …
पहला द्वार पूरक प्रक्रिया हैं ,"पूरक " का मतलब हैं कि अंदर पहुंचने के लिए हमारे पास श्वास के अलावा कोई रास्ता नहीं हैं ,श्वास के माध्यम से ही हम अंदर पहुंच सकते हैं । बिना वायु के,बिना श्वास के हम जीवित नहीं रह सकते पूरक का तात्पर्य हैं कि हम अपने अंदर वायु के साथ प्रवेश करे ,क्योकि वायु या प्राण वायु सीधे ह्रदय स्थल पर,और ह्रदय स्थल से होती हुई सीधे नाभि स्थल तक पहुंचे ,उसको हस्तक्षेप करती हुई उस पर प्रहार करती हैं ।
पूरक का तात्पर्य हैं पूर्णरूप से श्वास लेने की क्रिया ।
एक सामान्य मनुष्य को श्वास लेने की क्रिया का ज्ञान नहीं हैं,वह उथली साँस लेता हैं,वह जो सांस लेता हैं वह केवल गले तक ही जा पाती हैं । श्वास लेने की प्रक्रिया का तात्पर्य हैं ,कि हम जो श्वास ले वह नाभि स्थल तक पहुंचे ,जिससे की नाभि स्पंदित हो । यदि आपने दो महीने के बच्चे को नींद में सोते हुए देखा हैं ,तो आपको लगेगा की वह जो श्वास ले रहा हैं ,उससे नाभि बराबर धड़कती रहती हैं ,परन्तु मनुष्य जो नींद लेता हैं तो नाभि पर कोई स्पंदन नहीं होता । इसका मतलब हुआ की वह श्वास लेने की प्रक्रिया का ज्ञान भूल गया हैं । वह जो श्वास लेता हैं ,वह उथला है,कम हैं ।
अतः पूरक करे ,पूरक का तात्पर्य हैं कि हम जोर से सांस ले और गहराई के साथ सांस ले ,हमारे कंठ से लगाकर नाभि तक सैकड़ो प्रकार के मल और जाले जमे हुए हैं ,इसलिए वह श्वास अंदर तक नहीं जा पाती ,मगर वहां जो कफ और जाले जमे हुए हैं ,उनको वायु के माध्यम से प्रहार कर दूर कर सकेंगे I इसलिए पूरक का तात्पर्य हैं की जोरों से श्वास और गहरी श्वास ले ,पहले बाएं नथुने से श्वास ले ,फिर दाएं नथुने से श्वास ले ,इसलिए की इन दोनों श्वास लेने की प्रक्रियाओं का देह के अंदर अलग-अलग रूप में प्रयोग हैं ।
जब बाएं नथुने से सांस लेते हैं,तो हमारी पूरी भाव तंत्री जाग्रत होती हैं और जब दाएं नथुने से सांस लेते हैं तो हमारे अंदर जितने द्वार हैं,वह खुलने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती हैं । इसलिए दोनों नथुनों से बारी-बारी सांस लेने से भाव संचारित होते हैं,यह जीवन की एक श्रेष्ठ प्रक्रिया हैं ।
हम पहले दाएं नथुने को अपनी ऊँगली से दबा ले,और बाएं नथुने से जोरो से सांस ले ,फिर बाएं नथुने को बंद कर दे और दाएं नथुने से उसे बाहर निकाले ।
यहाँ पर पांच प्रक्रिया हुई -
-1 एक प्रक्रिया में, हमने दाएं नथुने को बंद किया और बाएं नथुने से सांस लिया फिर बाएं से ही सांस निकल दिया ।
- 2 दूसरी प्रक्रिया में बाएं नथुने को बंद करेंगे और दाहिने नथुने से सांस लेंगे व दाहिने नथुने से ही सांस को बाहर निकालेंगे,सांस बहुत गहराई के साथ ले ।
- 3 तीसरी प्रक्रिया में बाएं नथुने से सांस लेंगे और दाहिने नथुने से सांस बाहर निकालेंगे ।
- 4 चौथी प्रक्रिया में ,हम दाएं नथुने से सांस लेंगे और बाएं नथुने से बहार निकालेंगे ।
- 5 पांचवी प्रक्रिया में हम दोनों नथुनों से एक साथ सांस लेंगे और दोनों नथुनों से एक साथ सांस निकालेंगे ।
- ये पांचों प्रक्रियाएं पूरक कहलाती हैं ।
इस पूरक में "रेचक" क्रिया का भी समावेश हैं 
रेचक क्रिया का तात्पर्य हैं जो सांस हमने अंदर लिया उसे बाहर निकलने की क्रिया ,इसलिए पूरक और रेचक का अपने आप अन्याश्रय सम्बन्ध हैं ,एक दुसरे से पूर्ण सम्बन्ध हैं ,इसलिए पूरक और रेचक क्रिया एक साथ संपन्न करे ,हम सांस को तेजी के साथ और गहराई के साथ ले और बाहर निकाले ! सांस लेने की क्रिया को पूरक कहा गया हैं और बाहर निकलने को रेचक कहा गया हैं ।
इसका दूसरा द्वार हैं "कुम्भक प्रक्रिया
6 " कुम्भक का तात्पर्य हैं -हम जोरों से सांस ले और उसको अंदर ही रोक ले,और ज्यादा समय तक उसे रोके रखने की क्रिया को ही कुम्भक कहते हैं । कुम्भक में न सांस को वापिस लिया जाता हैं ,न निकाला जाता हैं । हम सांस को देने नथुनों से ले और फिर "जालंधर बंध" लगा कर रोक दे ।
जालंधर बंध का तात्पर्य हैं - सांस ले कर हिचकी को गले की ठुड्डी पर रोक दे, जब गले की ठुड्डी पर रोकेंगे तो सांस बाहर निकलने की क्रिया नहीं कर सकेंगे ,और अंदर लिया हुआ सांस अंदर ही बना रहेगा ,जब अंदर का सांस अंदर ही बना रहता हैं तो वह अंदर बहुत तेजी से परिभ्रमण करता हैं ,बहुत तेजी से घूमता रहता हैं ,और जब वह घूमता हैं तो अंदर जितनी भी गंदगी हैं ,जाले हैं ,जितने भी द्वार बंद हैं उन द्वारों पर जोर से प्रहार करता हैं ।

जैसा की मैंने कहाँ -सातवे द्वार पर पहुंचना हैं तो दुसरे द्वार पर प्रहार करने की क्रिया इस कुम्भक के माध्यम से ही संभव हैं, और कुम्भक प्रक्रिया जितने ज्यादा समय तक की जाय उतना ही अच्छा हैं इसलिए सांस को जल्दी निकलने की क्रिया नहीं करे ।
जब हम कुम्भक करेंगे तो दो घटनाएं घटेंगी -
- एक तो हमारा चेहरा पूर्णरूप से लाल सुर्ख हो जायेगा ....इसलिए की हम सांस बाहर नहीं निकल रहे हैं और अंदर एक वेग ,एक आग ,एक चिंगारी पैदा हो रही हैं ।
-दूसरी क्रिया यह होगी कि,हमारा पेट धीरे-धीरे फूलने लगेगा ,और पेट फूलने का तात्पर्य हैं कि हमारी नाडियां तेजी से कार्य करने लगेगी उसमे स्पंदन होने लगेगा ,और नाड़ियों में गतिशीलता आनी चाहिए ,वह आएगी । नाड़ियों में गतिशीलता आने का तात्पर्य हम दुसरे द्वारों को खोल सकेंगे ,अंदर जो रुका हुआ श्वास होता हैं ,वह अपने आप में फैलता हैं ,क्योकि अंदर जठराग्नि हैं । जठराग्नि का उस वायु से जब सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं ,तो वह वायु गर्म हो कर फैलती हैं ,और पेट को फुला देती हैं ,पेट को फुलाने का तात्पर्य हैं ,की अंदर जितने भी रोग हैं ,उसको समाप्त करने की प्रक्रिया ,पेट फूलने का तात्पर्य हैं ,अंदर जो गतिशीलता नहीं हैं ,वह गतिशील होने की प्रक्रिया।
समधी का तीसरा चरण या "दूसरा द्वार" हैं भस्त्रिका
अभी तक तो हमने पूरक,रेचक और कुम्भक किया ,इस प्रक्रिया से सांस को अंदर लिए और बाहर निकाला, यह पूरक और रेचक हुआ फिर सांस को अंदर रोकने की क्रिया की ,यह कुम्भक हुआ ! 
यह ध्यान रखे की धीरे-धीरे सांस लेने से अंदर के जितने मैल हैं,जितने द्वार हैं ,वे सब नहीं खुल पाएंगे ,इसके लिए पूरा फोर्स जरुरी हैं ,इस तेजी से सांस लेने की क्रिया को "भस्त्रिका " कहा गया हैं ।
7 भस्त्रिका का तात्पर्य हैं -पूरी तेजी के साथ सांस लेना और छोड़ना ,इसके लिए एक मिनट में कम से कम साठ बार भस्त्रिका होनी जरुरी हैं ।
यद्द्पि यह जरुरी नहीं हैं की प्रारम्भ में आप इतने तेजी के साथ भस्त्रिका कर सके ,या तेजी के साथ सांस ले सके ,परन्तु हम धीरे-धीरे प्रयत्न करे तो ,इतनी तेजी के साथ सांस ले सकेंगे ,यह तेजी के साथ सांस लेने की प्रक्रिया अपने आप में तीसरा द्वार जाग्रत होने की प्रक्रिया हैं ,और जब तीसरा द्वार खुलेगा ,तो चेतना बनेगी ,अपने आप में मस्तिष्क में विचार काम आने लगेंगे ,जो मैंने कहा कि एक सेकण्ड में तीन लाख विचार आते हैं वे कम हो कर एक लाख विचार तक रह जायेंगे । जब मस्तिष्क पर बोझ काम पड़ेगा तो विचार शून्य मस्तिष्क बनने की प्रक्रिया बनने की क्रिया प्रारम्भ होगी । जब मस्तिष्क पर बोझ तो हम ज्यादा विश्राम कर सकेंगे ,इसलिए भस्त्रिका का प्रयोग हमारे जीवन में अत्यंत अनिवार्य हैं ।
प्रत्येक साधक जहाँ प्रातःकाल उठकर पूरक,रेचक और कुम्भक करे वह भस्त्रिका का प्रयोग भी करे , कम से कम पांच-सात मिनट तक करे ही । भस्त्रिका के लिए आप सुख आसन में बैठ सकते है ,और फिर सीना फुला कर तेजी के साथ सांस ले और तेजी के साथ सांस छोड़े ।
तेजी के साथ सांस बाहर निकलने का तात्पर्य हैं -पूरी ताकत के साथ धीरे-धीरे नहीं । अगर जितने तेजी के साथ साँस निकालने में नाक से कुछ खून के कतरे निकल जाते हैं तो घबराने की जरुरत नहीं हैं ,यह तो नाक के छिद्र से लगा कर कंठ तक जो जाला जमा हैं ,जो कुछ गन्दा खून जमा हुआ हैं ,जो कुछ लार और थूक जमा हुआ हैं ,उसके निकलने की प्रक्रिया हैं ,और जब वह सब निकलेगा तो ,यह रास्ता पूरी तरह खुल जायेगा ,और जब यह रास्ता खुलेगा तब अपने आप में अगला मार्ग स्पष्ट होगा ।
आप तेजी के साथ भस्त्रिका संपन्न करे ! इसमें निरंतर आवाज होने की प्रक्रिया होनी चाहिए ,आवाज का तात्पर्य हैं की प्राणों के साथ में सांस को बाहर निकालना, तेजी के साथ,गहराई के साथ सांस को अंदर लेना हैं ,....और जितनी तेजी से साथ सांस अंदर के उसी प्रकार बाहर छोड़े, इसमें पूरी ताकत के साथ सांस अंदर लेने और और सांस लेने की क्रिया पर लगाना हैं ,इसके लिए धीरे-धीरे सांस लेने की जरुरत नहीं हैं ,प्रारम्भ में धीरे-धीरे अभ्यास करना होगा ,फिर आपके उतनी तेजी के साथ करना हैं जिसमे एक मिनट में साठ बार भस्त्रिका हो सके ! इस प्रकार करने से आपका तीसरा द्वार अपने आप पूर्ण रूप से खुल जाग्रत सकेगा
इसके बाद तीसरा द्वार जाग्रत हो जाय तो या हम तीसरे द्वार तक पहुंच जाये तब हमें "चौथे द्वार " में प्रवेश करने की क्रिया संपन्न करनी चाहिए
8 चौथे द्वार में प्रवेश करने की क्रिया केवल प्राणायाम और भस्त्रिका के बाद ही संभव हैं ! इस चौथे प्रकार की प्रक्रिया के लिए जरुरी हैं,हम भस्त्रिका के तुरंत बाद शांत बैठ जाए,इसमें किसी प्रकार का विलम्ब न हो ।

जब हम भस्त्रिका संपन्न कर ले,चाहे वह १ मिनट करे ,चाहे २ मिनट करे या तीन मिनट करे ,एक स्वस्थ व्यक्ति पांच मिनट से ज्यादा भस्त्रिका नहीं कर सकता । जब योगी अभ्यास करते हैं तो सात,आठ दस मिनट भी कर सकते हैं,मगर इस प्रक्रिया में पूरा शरीर लावे की तरह,अंगारे की तरह हो जाता हैं । शरीर की सारी नाड़ियां अपने आप में गतिशील हो जाती हैं,मस्तिष्क में खून का प्रवाह तेजी के साथ होने लग जाता हैं । सारा शरीर अपने आप में हल्का होने लग जाता हैं,और ज्योही भस्त्रिका समाप्त की उसके बाद सुख आसन में बैठ कर पूर्ण रूप से शांत हो जाय ,शरीर में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो किसी प्रकार का उद्वेग नहीं हो । भस्त्रिका समाप्त होते ही कम से कम पांच मिनट तक निश्चल ,निर्विकार, निष्कम्प भाव से बैठे रहने की क्रिया को चौथे द्वार की जागरण अवस्था कहा जाता हैं ,जिसको "ध्यान "कहा गया हैं ।
भस्त्रिका समाप्त करते ही ,आँखे बंद हो जाती हैं ,मस्तिष्क स्थित हो जाता हैं ,और किसी प्रकार का हलचल ,आंदोलन,या गति शरीर में नहीं हो पाती ।
इस चौथे द्वार के जागरण के लिए,ध्यान की अत्यंत अनिवार्यता हैं ,और यह ध्यान प्रक्रिया कम से कम पांच मिनट तक तो होनी ही चाहिए ज्यादा से ज्यादा पंद्रह मिनट का अभ्यास बढ़ाना चाहिए ,! एक स्वस्थ व्यक्ति इस ध्यान प्रक्रिया को बत्तीस मिनट तक ले जा सकता हैं,बत्तीस मिनट तक ले जाने की क्रिया को जीवन की पूर्णता कहाँ गया हैं ।
अभ्यास हो जाने के बाद दस घंटे का ध्यान भी हो सकता हैं,क्योकि ध्यान में हमारी सांस का प्रवाह अत्यंत धीमा हो जाता हैं ! हम जो सांस लेने की क्रिया करते हैं ,वह बहुत धीमे-धीमे हो जाती हैं ,इसलिए इस ध्यान में जरुरी हैं की हम निष्कम्प भाव से बैठे रहे ,और यह कोशिश करे की बाहरी समाज से कटे हुए हो ! बाहरी आवाज तो आएँगी,कोई बच्चा चिल्लायेगा ,तो उसकी सारी चिल्लाहट हमारे कानों में आएंगी ही "मगर जब आप दस मिनट के ध्यान की प्रक्रिया में आ जाते हैं ,तो धीरे-धीरे बाहरी आवाज आनी बंद हो जाएगी ! बाहरी आवाज यदि आएगी भी तो आपके शरीर को किसी प्रकार की गति नहीं देगी -यह अपने आप में ध्यान की प्रक्रिया हैं ।"
ध्यान की प्रक्रिया का मतलब ,जब धीरे-धीरे अंदर उतरने की प्रक्रिया करते हैं ,तो बाहरी शरीर से आपका संपर्क कट जाता हैं ,और बाहरी शरीर अपने आप में व्यर्थ सा हो जाता हैं I बाहर जो आवाज हैं,शोरगुल हैं ,वह तुम्हारे शरीर को स्पंदित नहीं कर पाता.....और नहीं कर पाता तो इसका मतलब की आप दुसरे,तीसरे,चौथे द्वार तक पहुंच गए हैं,और यह चौथे द्वार तक पहुंचने की क्रिया ध्यान के माध्यम से ही संभव हैं ।
ध्यान प्रक्रिया से कई लाभ हैं ,एक तो यह विचार शून्य मस्तिष्क को तेजी के साथ अग्रसर करता हैं ! सामान्य अवस्था में जो एक सेकण्ड में तीन लाख विचार आते हैं ,ध्यान प्रक्रिया में तीन हजार रह जाते हैं इसका मतलब की हमने अपने मस्तिष्क को ज्यादा विश्राम दिया 
जब ध्यान के माध्यम से अपने अंदर जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करते हैं ,तो हमें विचित्र और अलौकिक दृश्य दिखाई देने लगते हैं I ध्यान के माध्यम से हमें लगेगा की हिमालय की कन्दराये ,गुफाये हैं,हम उसमे बैठे हैं और समाधि में रत हैं । आपको ऐसा भी लग सकता हैं की आप किसी तालाब पर नहा रहे हैं ,ध्यान में ऐसा भी देख सकते हैं की आप किसी को चाकू मार रहे हैं,लूटमार कर रहे हैं ,झूठ बोल रहे हैं ,या व्यापर कर रहे हैं 
-जो कुछ भी दृश्य देख रहे हैं वे आपके गत जीवन के दृश्य हैं ,! इसका मतलब हैं की आप पूर्व जीवन में कहाँ थे ?किस प्रकार के थे ?वे सब अनुभूतियाँ चौथे द्वार में प्रवेश करने के बाद होती हैं ! और हम और गहराई में जाते हैं तो यह भी मालूम पड़ जाता हैं की -
-हम पूर्व जीवन में कहा थे ?
हमारी मृत्यु किस प्रकार से हुई?
-क्यों हुई ?
कहाँ हुई ?
कब हुई ?
यह पूर्व जीवन देखने की क्रिया चौथे द्वार को खोलने से अपने आप स्पष्ट हो जाती हैं ।
जब ध्यान प्रक्रिया के बत्तीस मिनट हो जाये .....जब हम अकंप और अविचलित भाव से बत्तीस मिनट तक तक बैठे रहने की क्रिया संपन्न कर सके तो समझना चाहिए की ध्यान का एक चरण पूरा हुआ !
फिर हम "पाचवे द्वार " तक,पाचवे बिंदु तक पहुंचते हैं ,और पाचवे बिंदु तक पहुंचने के लिए यह जरुरी हैं ,...हम ध्यान में जिस अवस्था में हैं वह चेतना अवस्था हैं,वहां हम निष्क्रिय नहीं हैं ,बल्कि हमारा मस्तिष्क बिलकुल हमारे साथ हैं .....और जब साथ में हैं ,तब जो दृश्य आपके सामने आ रहे हैं ,हम सिर्फ वही देख पा रहे हैं । हमें इसका कोई ज्ञान नहीं हैं ...की हमने कौन कौन से दृश्य देखे ,और कौन कौन से दृश्य नहीं देखे ,,...अगर हिमालय की कंदरा दिखाई दे रही हैं ,और हिमालय की कंदरा से पहले दिखाई दे रहा हैं की हम किसी स्थान पर खड़े हुए हैं ,

उससे पहले दिखाई दे रहा हैं की हम किसी शहर में व्यापार कर रहे हैं ...इसका मतलब हम प्रारम्भ में व्यापारी थे
में आकर साधना में रत हुए और हिमालय में जा कर साधना संपन्न की...मगर ये कुछ विषय हैं जो आपने देखा ।
9 परन्तु पांचवें द्वार का तात्पर्य है -हम जो भी दृश्य देखना चाहें,वह देख सकें ,यह देखने चाहें की हम किस शहर में थे,तो यह स्पष्टता से जान सकते हैं ! हम देखना चाहे की हम प्रारम्भ में जन्म कहाँ लिया ,माँ कैसी थी ,पिता कैसे थे ,प्रारम्भ में हमारा जीवन कैसा व्यतीत हुआ ?यानि हम जो दृश्य देखना चाहे ,वह देख सकें ,इसके लिए धारणा शक्ति की आवश्यकता होती हैं ।
धारणा शक्ति का तात्पर्य हैं -हम और गहराई के साथ ध्यान प्रक्रिया को संपन्न करें, इस पाचवे द्वार पर पहुंचने के बाद हम उस स्थिति तक पहुंच जाते हैं ,जहाँ बाहरी वातावरण से हम कट जाते हैं ,परन्तु पाचवे द्वार पर पहुंचने के बाद स्थिति ऐसी बन जाती हैं की यदि कोई व्यक्ति हमें झिंझोड़ता भी हैं,हिलाता भी हैं ,तब भी हमारा ध्यान टूटता नहीं हैं यदि कोई पिन चुभा दे तो भी हमें दर्द का अनुभव नहीं होता हैं ,किसी प्रकार की हलचल हमारे शरीर में नहीं होती ,इसका मतलब हैं हम धारणा शक्ति में चले गए ।
धारणा शक्ति का तात्पर्य - हम बहुत गहराई के साथ पाचवे द्वार तक पहुंचे,और यह पाचवे द्वार तक पहुंचने की क्रिया ध्यान के माध्यम से ही संभव हैं I हम ज्यों-ज्यों ध्यान करते रहेंगे ,त्यों-त्यों अंदर उतारते जायेंगे ....और जो हो ध्यान बत्तीस मिनट का हुआ ,त्यों ही धारण क्रिया प्रारम्भव हो जाती हैं , जब यह क्रिया प्रारम्भ ,तब हम ब्रम्हांड में जो कुछ देखना चाहे वह देख सकेंगे।
और इसके बाद 
10 छठा द्वार हैं -पूर्णता से अपने गुरु के प्रति समर्पण भाव
इस द्वार पर पहुंच कर हम इस लोक से अन्य लोकों में प्रवेश करने की क्रिया संपन्न कर सकेंगे ,-भू लोक ,चंद्र लोक ,से अन्य लोकों तक किसी भी ग्रह पर ।
इसी द्वार पर पहुंचने पर पूर्णरूप से गुरु की सामीप्यता प्राप्त होती हैं यहीं पर गुरु आपको स्पष्ट रूप से ....जो गुरु पूर्ण "चैतन्य" हैं ....जो गुरु अपने आप में पूर्णरूप से "निविर्कल्प" हैं ....जिसको हमने ज्ञान का अथाह समुद्र कहा हैं ,वह आपको मिलेंगे । वह गुरु नहीं जो सांसारिक हैं ,बल्कि वह गुरु जो -ज्ञानश्चेतना हैं,जो दीप हैं ,जो ज्ञान का एक अखंड प्रवाह हैं ।
ज्ञान के उस अखंड प्रवाह की जब हम सामीप्यता अनुभव करते हैं ,तब उसी गहराई में जाते हुए हमें समस्त शास्त्र ,पुराण ,वेद, अपने आप ही कंठस्थ हो जाते हैं ,वे अपने आपमें हमारे सामने साकार हो जाते हैं ,हमें किसी भी प्रकार का ज्ञान और चिंतन लेने की क्रिया नहीं करनी पड़ती ।
यह अपने आप में अद्वितीय स्थिति हैं ,की सारे वेद,पुराण,उपनिषद अपने आप ही हमारे सामने साकार हो जाते हैं ,छठे द्वार पर दस्तक देने से ही हम सिद्धाश्रम में प्रवेश कर सकते हैं ,उसे अपनी आँखों से देख सकते हैं ,इस शरीर से सिद्धाश्रम तक पहुंच सकते हैं ।
और
11 सातवें द्वार को समाधि कहा गया हैं !
समाधि का तात्पर्य हैं -"अखंड निर्विकल्प लीनता "
-अपने स्व को पूर्ण रूप से प्रभु में विसर्जित कर देना ।
- अपने आप को पूर्ण ब्रम्ह बना देना ।
-अपने आप को पूर्ण ब्रम्ह में लीन कर देना ।
-और जहाँ कहा गया हैं "अहम् ब्रम्हास्मि ",...इस क्रिया को सत्व द्वार कहा गया हैं ।
इस सातों द्वारा को प्राप्त करने से ही हम अपने जीवन में हम उस पूर्णता को,उस अखंड आनंद को प्राप्त कर सकते हैं ,और हम सिद्धाश्रम में प्रवेश कर सकते हैं ,पूर्णरूप से इस जीवन को "अहम ब्रम्हास्मि " के रूप में विकसित करके स्वयं सही शब्दों में पूर्ण ब्रम्ह बन जाते हैं ।