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अपराध है 'नारी' को 'औरत' कहना ।।

औरत अरबी शब्द है, जो ‘औराह’ (awrah) धातु से बना है। इसका अर्थ है नग्नता, योनि, दुर्बलता आदि। अरबी मजहब में औरत की यही परिभाषा और सोच है। अतः महिलाओं के लिए शब्द चयन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जैसे-

1) स्त्री (प्रकृति) - यह स्वभाव वाचक शब्द है।

2) नारी (देवत्व) - यह गुणवाचक शब्द है।

3) महिला (सामाजिक स्थिति) - यह अधिकार वाचक शब्द है।

4) औरत (मजहबी) - यह उपभोग बोधक शब्द है।

5) मादा (जैविक) - यह प्रजनन बोधक शब्द है। अंग्रेजी का female भी इसी संदर्भ में आएगा।

6) Woman (पराधीनता) - यह wifmann से बना है, जिसका अर्थ है wife of man. यह पराधीनता बोधक शब्द है।

मेरा इतना ही आशय है कि स्त्रियों के लिए आप जिस भी शब्द का प्रयोग करें, अर्थ जानकर करें। अनभिज्ञता में लिखने, बोलने, कहने में स्त्रियों के अपमान की संभावना बनी रहती है।

भारतीय स्त्रियां भी अपने लिए सही शब्द का चयन करें/करवाएं। आपकी सोच और उसकी अभिव्यक्ति ही आपके व्यक्तित्व का दर्पण है। इसे सदैव ध्यान में रखें।

समाधि के सात द्वार ।।

         समाधि के उन सात बिन्दुओ /द्वारों को आपके सामने स्पष्ट कर रहा हूँ ,जिसके माध्यम से हम विचार शून्य मस्तिष्क या ब्रम्हांड दर्शन प्रक्रिया को स्पष्ट कर सकेंगे …
पहला द्वार पूरक प्रक्रिया हैं ,"पूरक " का मतलब हैं कि अंदर पहुंचने के लिए हमारे पास श्वास के अलावा कोई रास्ता नहीं हैं ,श्वास के माध्यम से ही हम अंदर पहुंच सकते हैं । बिना वायु के,बिना श्वास के हम जीवित नहीं रह सकते पूरक का तात्पर्य हैं कि हम अपने अंदर वायु के साथ प्रवेश करे ,क्योकि वायु या प्राण वायु सीधे ह्रदय स्थल पर,और ह्रदय स्थल से होती हुई सीधे नाभि स्थल तक पहुंचे ,उसको हस्तक्षेप करती हुई उस पर प्रहार करती हैं ।
पूरक का तात्पर्य हैं पूर्णरूप से श्वास लेने की क्रिया ।
एक सामान्य मनुष्य को श्वास लेने की क्रिया का ज्ञान नहीं हैं,वह उथली साँस लेता हैं,वह जो सांस लेता हैं वह केवल गले तक ही जा पाती हैं । श्वास लेने की प्रक्रिया का तात्पर्य हैं ,कि हम जो श्वास ले वह नाभि स्थल तक पहुंचे ,जिससे की नाभि स्पंदित हो । यदि आपने दो महीने के बच्चे को नींद में सोते हुए देखा हैं ,तो आपको लगेगा की वह जो श्वास ले रहा हैं ,उससे नाभि बराबर धड़कती रहती हैं ,परन्तु मनुष्य जो नींद लेता हैं तो नाभि पर कोई स्पंदन नहीं होता । इसका मतलब हुआ की वह श्वास लेने की प्रक्रिया का ज्ञान भूल गया हैं । वह जो श्वास लेता हैं ,वह उथला है,कम हैं ।
अतः पूरक करे ,पूरक का तात्पर्य हैं कि हम जोर से सांस ले और गहराई के साथ सांस ले ,हमारे कंठ से लगाकर नाभि तक सैकड़ो प्रकार के मल और जाले जमे हुए हैं ,इसलिए वह श्वास अंदर तक नहीं जा पाती ,मगर वहां जो कफ और जाले जमे हुए हैं ,उनको वायु के माध्यम से प्रहार कर दूर कर सकेंगे I इसलिए पूरक का तात्पर्य हैं की जोरों से श्वास और गहरी श्वास ले ,पहले बाएं नथुने से श्वास ले ,फिर दाएं नथुने से श्वास ले ,इसलिए की इन दोनों श्वास लेने की प्रक्रियाओं का देह के अंदर अलग-अलग रूप में प्रयोग हैं ।
जब बाएं नथुने से सांस लेते हैं,तो हमारी पूरी भाव तंत्री जाग्रत होती हैं और जब दाएं नथुने से सांस लेते हैं तो हमारे अंदर जितने द्वार हैं,वह खुलने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती हैं । इसलिए दोनों नथुनों से बारी-बारी सांस लेने से भाव संचारित होते हैं,यह जीवन की एक श्रेष्ठ प्रक्रिया हैं ।
हम पहले दाएं नथुने को अपनी ऊँगली से दबा ले,और बाएं नथुने से जोरो से सांस ले ,फिर बाएं नथुने को बंद कर दे और दाएं नथुने से उसे बाहर निकाले ।
यहाँ पर पांच प्रक्रिया हुई -
-1 एक प्रक्रिया में, हमने दाएं नथुने को बंद किया और बाएं नथुने से सांस लिया फिर बाएं से ही सांस निकल दिया ।
- 2 दूसरी प्रक्रिया में बाएं नथुने को बंद करेंगे और दाहिने नथुने से सांस लेंगे व दाहिने नथुने से ही सांस को बाहर निकालेंगे,सांस बहुत गहराई के साथ ले ।
- 3 तीसरी प्रक्रिया में बाएं नथुने से सांस लेंगे और दाहिने नथुने से सांस बाहर निकालेंगे ।
- 4 चौथी प्रक्रिया में ,हम दाएं नथुने से सांस लेंगे और बाएं नथुने से बहार निकालेंगे ।
- 5 पांचवी प्रक्रिया में हम दोनों नथुनों से एक साथ सांस लेंगे और दोनों नथुनों से एक साथ सांस निकालेंगे ।
- ये पांचों प्रक्रियाएं पूरक कहलाती हैं ।
इस पूरक में "रेचक" क्रिया का भी समावेश हैं 
रेचक क्रिया का तात्पर्य हैं जो सांस हमने अंदर लिया उसे बाहर निकलने की क्रिया ,इसलिए पूरक और रेचक का अपने आप अन्याश्रय सम्बन्ध हैं ,एक दुसरे से पूर्ण सम्बन्ध हैं ,इसलिए पूरक और रेचक क्रिया एक साथ संपन्न करे ,हम सांस को तेजी के साथ और गहराई के साथ ले और बाहर निकाले ! सांस लेने की क्रिया को पूरक कहा गया हैं और बाहर निकलने को रेचक कहा गया हैं ।
इसका दूसरा द्वार हैं "कुम्भक प्रक्रिया
6 " कुम्भक का तात्पर्य हैं -हम जोरों से सांस ले और उसको अंदर ही रोक ले,और ज्यादा समय तक उसे रोके रखने की क्रिया को ही कुम्भक कहते हैं । कुम्भक में न सांस को वापिस लिया जाता हैं ,न निकाला जाता हैं । हम सांस को देने नथुनों से ले और फिर "जालंधर बंध" लगा कर रोक दे ।
जालंधर बंध का तात्पर्य हैं - सांस ले कर हिचकी को गले की ठुड्डी पर रोक दे, जब गले की ठुड्डी पर रोकेंगे तो सांस बाहर निकलने की क्रिया नहीं कर सकेंगे ,और अंदर लिया हुआ सांस अंदर ही बना रहेगा ,जब अंदर का सांस अंदर ही बना रहता हैं तो वह अंदर बहुत तेजी से परिभ्रमण करता हैं ,बहुत तेजी से घूमता रहता हैं ,और जब वह घूमता हैं तो अंदर जितनी भी गंदगी हैं ,जाले हैं ,जितने भी द्वार बंद हैं उन द्वारों पर जोर से प्रहार करता हैं ।

जैसा की मैंने कहाँ -सातवे द्वार पर पहुंचना हैं तो दुसरे द्वार पर प्रहार करने की क्रिया इस कुम्भक के माध्यम से ही संभव हैं, और कुम्भक प्रक्रिया जितने ज्यादा समय तक की जाय उतना ही अच्छा हैं इसलिए सांस को जल्दी निकलने की क्रिया नहीं करे ।
जब हम कुम्भक करेंगे तो दो घटनाएं घटेंगी -
- एक तो हमारा चेहरा पूर्णरूप से लाल सुर्ख हो जायेगा ....इसलिए की हम सांस बाहर नहीं निकल रहे हैं और अंदर एक वेग ,एक आग ,एक चिंगारी पैदा हो रही हैं ।
-दूसरी क्रिया यह होगी कि,हमारा पेट धीरे-धीरे फूलने लगेगा ,और पेट फूलने का तात्पर्य हैं कि हमारी नाडियां तेजी से कार्य करने लगेगी उसमे स्पंदन होने लगेगा ,और नाड़ियों में गतिशीलता आनी चाहिए ,वह आएगी । नाड़ियों में गतिशीलता आने का तात्पर्य हम दुसरे द्वारों को खोल सकेंगे ,अंदर जो रुका हुआ श्वास होता हैं ,वह अपने आप में फैलता हैं ,क्योकि अंदर जठराग्नि हैं । जठराग्नि का उस वायु से जब सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं ,तो वह वायु गर्म हो कर फैलती हैं ,और पेट को फुला देती हैं ,पेट को फुलाने का तात्पर्य हैं ,की अंदर जितने भी रोग हैं ,उसको समाप्त करने की प्रक्रिया ,पेट फूलने का तात्पर्य हैं ,अंदर जो गतिशीलता नहीं हैं ,वह गतिशील होने की प्रक्रिया।
समधी का तीसरा चरण या "दूसरा द्वार" हैं भस्त्रिका
अभी तक तो हमने पूरक,रेचक और कुम्भक किया ,इस प्रक्रिया से सांस को अंदर लिए और बाहर निकाला, यह पूरक और रेचक हुआ फिर सांस को अंदर रोकने की क्रिया की ,यह कुम्भक हुआ ! 
यह ध्यान रखे की धीरे-धीरे सांस लेने से अंदर के जितने मैल हैं,जितने द्वार हैं ,वे सब नहीं खुल पाएंगे ,इसके लिए पूरा फोर्स जरुरी हैं ,इस तेजी से सांस लेने की क्रिया को "भस्त्रिका " कहा गया हैं ।
7 भस्त्रिका का तात्पर्य हैं -पूरी तेजी के साथ सांस लेना और छोड़ना ,इसके लिए एक मिनट में कम से कम साठ बार भस्त्रिका होनी जरुरी हैं ।
यद्द्पि यह जरुरी नहीं हैं की प्रारम्भ में आप इतने तेजी के साथ भस्त्रिका कर सके ,या तेजी के साथ सांस ले सके ,परन्तु हम धीरे-धीरे प्रयत्न करे तो ,इतनी तेजी के साथ सांस ले सकेंगे ,यह तेजी के साथ सांस लेने की प्रक्रिया अपने आप में तीसरा द्वार जाग्रत होने की प्रक्रिया हैं ,और जब तीसरा द्वार खुलेगा ,तो चेतना बनेगी ,अपने आप में मस्तिष्क में विचार काम आने लगेंगे ,जो मैंने कहा कि एक सेकण्ड में तीन लाख विचार आते हैं वे कम हो कर एक लाख विचार तक रह जायेंगे । जब मस्तिष्क पर बोझ काम पड़ेगा तो विचार शून्य मस्तिष्क बनने की प्रक्रिया बनने की क्रिया प्रारम्भ होगी । जब मस्तिष्क पर बोझ तो हम ज्यादा विश्राम कर सकेंगे ,इसलिए भस्त्रिका का प्रयोग हमारे जीवन में अत्यंत अनिवार्य हैं ।
प्रत्येक साधक जहाँ प्रातःकाल उठकर पूरक,रेचक और कुम्भक करे वह भस्त्रिका का प्रयोग भी करे , कम से कम पांच-सात मिनट तक करे ही । भस्त्रिका के लिए आप सुख आसन में बैठ सकते है ,और फिर सीना फुला कर तेजी के साथ सांस ले और तेजी के साथ सांस छोड़े ।
तेजी के साथ सांस बाहर निकलने का तात्पर्य हैं -पूरी ताकत के साथ धीरे-धीरे नहीं । अगर जितने तेजी के साथ साँस निकालने में नाक से कुछ खून के कतरे निकल जाते हैं तो घबराने की जरुरत नहीं हैं ,यह तो नाक के छिद्र से लगा कर कंठ तक जो जाला जमा हैं ,जो कुछ गन्दा खून जमा हुआ हैं ,जो कुछ लार और थूक जमा हुआ हैं ,उसके निकलने की प्रक्रिया हैं ,और जब वह सब निकलेगा तो ,यह रास्ता पूरी तरह खुल जायेगा ,और जब यह रास्ता खुलेगा तब अपने आप में अगला मार्ग स्पष्ट होगा ।
आप तेजी के साथ भस्त्रिका संपन्न करे ! इसमें निरंतर आवाज होने की प्रक्रिया होनी चाहिए ,आवाज का तात्पर्य हैं की प्राणों के साथ में सांस को बाहर निकालना, तेजी के साथ,गहराई के साथ सांस को अंदर लेना हैं ,....और जितनी तेजी से साथ सांस अंदर के उसी प्रकार बाहर छोड़े, इसमें पूरी ताकत के साथ सांस अंदर लेने और और सांस लेने की क्रिया पर लगाना हैं ,इसके लिए धीरे-धीरे सांस लेने की जरुरत नहीं हैं ,प्रारम्भ में धीरे-धीरे अभ्यास करना होगा ,फिर आपके उतनी तेजी के साथ करना हैं जिसमे एक मिनट में साठ बार भस्त्रिका हो सके ! इस प्रकार करने से आपका तीसरा द्वार अपने आप पूर्ण रूप से खुल जाग्रत सकेगा
इसके बाद तीसरा द्वार जाग्रत हो जाय तो या हम तीसरे द्वार तक पहुंच जाये तब हमें "चौथे द्वार " में प्रवेश करने की क्रिया संपन्न करनी चाहिए
8 चौथे द्वार में प्रवेश करने की क्रिया केवल प्राणायाम और भस्त्रिका के बाद ही संभव हैं ! इस चौथे प्रकार की प्रक्रिया के लिए जरुरी हैं,हम भस्त्रिका के तुरंत बाद शांत बैठ जाए,इसमें किसी प्रकार का विलम्ब न हो ।

जब हम भस्त्रिका संपन्न कर ले,चाहे वह १ मिनट करे ,चाहे २ मिनट करे या तीन मिनट करे ,एक स्वस्थ व्यक्ति पांच मिनट से ज्यादा भस्त्रिका नहीं कर सकता । जब योगी अभ्यास करते हैं तो सात,आठ दस मिनट भी कर सकते हैं,मगर इस प्रक्रिया में पूरा शरीर लावे की तरह,अंगारे की तरह हो जाता हैं । शरीर की सारी नाड़ियां अपने आप में गतिशील हो जाती हैं,मस्तिष्क में खून का प्रवाह तेजी के साथ होने लग जाता हैं । सारा शरीर अपने आप में हल्का होने लग जाता हैं,और ज्योही भस्त्रिका समाप्त की उसके बाद सुख आसन में बैठ कर पूर्ण रूप से शांत हो जाय ,शरीर में किसी भी प्रकार की हलचल नहीं हो किसी प्रकार का उद्वेग नहीं हो । भस्त्रिका समाप्त होते ही कम से कम पांच मिनट तक निश्चल ,निर्विकार, निष्कम्प भाव से बैठे रहने की क्रिया को चौथे द्वार की जागरण अवस्था कहा जाता हैं ,जिसको "ध्यान "कहा गया हैं ।
भस्त्रिका समाप्त करते ही ,आँखे बंद हो जाती हैं ,मस्तिष्क स्थित हो जाता हैं ,और किसी प्रकार का हलचल ,आंदोलन,या गति शरीर में नहीं हो पाती ।
इस चौथे द्वार के जागरण के लिए,ध्यान की अत्यंत अनिवार्यता हैं ,और यह ध्यान प्रक्रिया कम से कम पांच मिनट तक तो होनी ही चाहिए ज्यादा से ज्यादा पंद्रह मिनट का अभ्यास बढ़ाना चाहिए ,! एक स्वस्थ व्यक्ति इस ध्यान प्रक्रिया को बत्तीस मिनट तक ले जा सकता हैं,बत्तीस मिनट तक ले जाने की क्रिया को जीवन की पूर्णता कहाँ गया हैं ।
अभ्यास हो जाने के बाद दस घंटे का ध्यान भी हो सकता हैं,क्योकि ध्यान में हमारी सांस का प्रवाह अत्यंत धीमा हो जाता हैं ! हम जो सांस लेने की क्रिया करते हैं ,वह बहुत धीमे-धीमे हो जाती हैं ,इसलिए इस ध्यान में जरुरी हैं की हम निष्कम्प भाव से बैठे रहे ,और यह कोशिश करे की बाहरी समाज से कटे हुए हो ! बाहरी आवाज तो आएँगी,कोई बच्चा चिल्लायेगा ,तो उसकी सारी चिल्लाहट हमारे कानों में आएंगी ही "मगर जब आप दस मिनट के ध्यान की प्रक्रिया में आ जाते हैं ,तो धीरे-धीरे बाहरी आवाज आनी बंद हो जाएगी ! बाहरी आवाज यदि आएगी भी तो आपके शरीर को किसी प्रकार की गति नहीं देगी -यह अपने आप में ध्यान की प्रक्रिया हैं ।"
ध्यान की प्रक्रिया का मतलब ,जब धीरे-धीरे अंदर उतरने की प्रक्रिया करते हैं ,तो बाहरी शरीर से आपका संपर्क कट जाता हैं ,और बाहरी शरीर अपने आप में व्यर्थ सा हो जाता हैं I बाहर जो आवाज हैं,शोरगुल हैं ,वह तुम्हारे शरीर को स्पंदित नहीं कर पाता.....और नहीं कर पाता तो इसका मतलब की आप दुसरे,तीसरे,चौथे द्वार तक पहुंच गए हैं,और यह चौथे द्वार तक पहुंचने की क्रिया ध्यान के माध्यम से ही संभव हैं ।
ध्यान प्रक्रिया से कई लाभ हैं ,एक तो यह विचार शून्य मस्तिष्क को तेजी के साथ अग्रसर करता हैं ! सामान्य अवस्था में जो एक सेकण्ड में तीन लाख विचार आते हैं ,ध्यान प्रक्रिया में तीन हजार रह जाते हैं इसका मतलब की हमने अपने मस्तिष्क को ज्यादा विश्राम दिया 
जब ध्यान के माध्यम से अपने अंदर जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ करते हैं ,तो हमें विचित्र और अलौकिक दृश्य दिखाई देने लगते हैं I ध्यान के माध्यम से हमें लगेगा की हिमालय की कन्दराये ,गुफाये हैं,हम उसमे बैठे हैं और समाधि में रत हैं । आपको ऐसा भी लग सकता हैं की आप किसी तालाब पर नहा रहे हैं ,ध्यान में ऐसा भी देख सकते हैं की आप किसी को चाकू मार रहे हैं,लूटमार कर रहे हैं ,झूठ बोल रहे हैं ,या व्यापर कर रहे हैं 
-जो कुछ भी दृश्य देख रहे हैं वे आपके गत जीवन के दृश्य हैं ,! इसका मतलब हैं की आप पूर्व जीवन में कहाँ थे ?किस प्रकार के थे ?वे सब अनुभूतियाँ चौथे द्वार में प्रवेश करने के बाद होती हैं ! और हम और गहराई में जाते हैं तो यह भी मालूम पड़ जाता हैं की -
-हम पूर्व जीवन में कहा थे ?
हमारी मृत्यु किस प्रकार से हुई?
-क्यों हुई ?
कहाँ हुई ?
कब हुई ?
यह पूर्व जीवन देखने की क्रिया चौथे द्वार को खोलने से अपने आप स्पष्ट हो जाती हैं ।
जब ध्यान प्रक्रिया के बत्तीस मिनट हो जाये .....जब हम अकंप और अविचलित भाव से बत्तीस मिनट तक तक बैठे रहने की क्रिया संपन्न कर सके तो समझना चाहिए की ध्यान का एक चरण पूरा हुआ !
फिर हम "पाचवे द्वार " तक,पाचवे बिंदु तक पहुंचते हैं ,और पाचवे बिंदु तक पहुंचने के लिए यह जरुरी हैं ,...हम ध्यान में जिस अवस्था में हैं वह चेतना अवस्था हैं,वहां हम निष्क्रिय नहीं हैं ,बल्कि हमारा मस्तिष्क बिलकुल हमारे साथ हैं .....और जब साथ में हैं ,तब जो दृश्य आपके सामने आ रहे हैं ,हम सिर्फ वही देख पा रहे हैं । हमें इसका कोई ज्ञान नहीं हैं ...की हमने कौन कौन से दृश्य देखे ,और कौन कौन से दृश्य नहीं देखे ,,...अगर हिमालय की कंदरा दिखाई दे रही हैं ,और हिमालय की कंदरा से पहले दिखाई दे रहा हैं की हम किसी स्थान पर खड़े हुए हैं ,

उससे पहले दिखाई दे रहा हैं की हम किसी शहर में व्यापार कर रहे हैं ...इसका मतलब हम प्रारम्भ में व्यापारी थे
में आकर साधना में रत हुए और हिमालय में जा कर साधना संपन्न की...मगर ये कुछ विषय हैं जो आपने देखा ।
9 परन्तु पांचवें द्वार का तात्पर्य है -हम जो भी दृश्य देखना चाहें,वह देख सकें ,यह देखने चाहें की हम किस शहर में थे,तो यह स्पष्टता से जान सकते हैं ! हम देखना चाहे की हम प्रारम्भ में जन्म कहाँ लिया ,माँ कैसी थी ,पिता कैसे थे ,प्रारम्भ में हमारा जीवन कैसा व्यतीत हुआ ?यानि हम जो दृश्य देखना चाहे ,वह देख सकें ,इसके लिए धारणा शक्ति की आवश्यकता होती हैं ।
धारणा शक्ति का तात्पर्य हैं -हम और गहराई के साथ ध्यान प्रक्रिया को संपन्न करें, इस पाचवे द्वार पर पहुंचने के बाद हम उस स्थिति तक पहुंच जाते हैं ,जहाँ बाहरी वातावरण से हम कट जाते हैं ,परन्तु पाचवे द्वार पर पहुंचने के बाद स्थिति ऐसी बन जाती हैं की यदि कोई व्यक्ति हमें झिंझोड़ता भी हैं,हिलाता भी हैं ,तब भी हमारा ध्यान टूटता नहीं हैं यदि कोई पिन चुभा दे तो भी हमें दर्द का अनुभव नहीं होता हैं ,किसी प्रकार की हलचल हमारे शरीर में नहीं होती ,इसका मतलब हैं हम धारणा शक्ति में चले गए ।
धारणा शक्ति का तात्पर्य - हम बहुत गहराई के साथ पाचवे द्वार तक पहुंचे,और यह पाचवे द्वार तक पहुंचने की क्रिया ध्यान के माध्यम से ही संभव हैं I हम ज्यों-ज्यों ध्यान करते रहेंगे ,त्यों-त्यों अंदर उतारते जायेंगे ....और जो हो ध्यान बत्तीस मिनट का हुआ ,त्यों ही धारण क्रिया प्रारम्भव हो जाती हैं , जब यह क्रिया प्रारम्भ ,तब हम ब्रम्हांड में जो कुछ देखना चाहे वह देख सकेंगे।
और इसके बाद 
10 छठा द्वार हैं -पूर्णता से अपने गुरु के प्रति समर्पण भाव
इस द्वार पर पहुंच कर हम इस लोक से अन्य लोकों में प्रवेश करने की क्रिया संपन्न कर सकेंगे ,-भू लोक ,चंद्र लोक ,से अन्य लोकों तक किसी भी ग्रह पर ।
इसी द्वार पर पहुंचने पर पूर्णरूप से गुरु की सामीप्यता प्राप्त होती हैं यहीं पर गुरु आपको स्पष्ट रूप से ....जो गुरु पूर्ण "चैतन्य" हैं ....जो गुरु अपने आप में पूर्णरूप से "निविर्कल्प" हैं ....जिसको हमने ज्ञान का अथाह समुद्र कहा हैं ,वह आपको मिलेंगे । वह गुरु नहीं जो सांसारिक हैं ,बल्कि वह गुरु जो -ज्ञानश्चेतना हैं,जो दीप हैं ,जो ज्ञान का एक अखंड प्रवाह हैं ।
ज्ञान के उस अखंड प्रवाह की जब हम सामीप्यता अनुभव करते हैं ,तब उसी गहराई में जाते हुए हमें समस्त शास्त्र ,पुराण ,वेद, अपने आप ही कंठस्थ हो जाते हैं ,वे अपने आपमें हमारे सामने साकार हो जाते हैं ,हमें किसी भी प्रकार का ज्ञान और चिंतन लेने की क्रिया नहीं करनी पड़ती ।
यह अपने आप में अद्वितीय स्थिति हैं ,की सारे वेद,पुराण,उपनिषद अपने आप ही हमारे सामने साकार हो जाते हैं ,छठे द्वार पर दस्तक देने से ही हम सिद्धाश्रम में प्रवेश कर सकते हैं ,उसे अपनी आँखों से देख सकते हैं ,इस शरीर से सिद्धाश्रम तक पहुंच सकते हैं ।
और
11 सातवें द्वार को समाधि कहा गया हैं !
समाधि का तात्पर्य हैं -"अखंड निर्विकल्प लीनता "
-अपने स्व को पूर्ण रूप से प्रभु में विसर्जित कर देना ।
- अपने आप को पूर्ण ब्रम्ह बना देना ।
-अपने आप को पूर्ण ब्रम्ह में लीन कर देना ।
-और जहाँ कहा गया हैं "अहम् ब्रम्हास्मि ",...इस क्रिया को सत्व द्वार कहा गया हैं ।
इस सातों द्वारा को प्राप्त करने से ही हम अपने जीवन में हम उस पूर्णता को,उस अखंड आनंद को प्राप्त कर सकते हैं ,और हम सिद्धाश्रम में प्रवेश कर सकते हैं ,पूर्णरूप से इस जीवन को "अहम ब्रम्हास्मि " के रूप में विकसित करके स्वयं सही शब्दों में पूर्ण ब्रम्ह बन जाते हैं ।

चार युग और उनकी विशेषताएं ।।

युग शब्द का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। जैसे सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग आदि। आज में हम चारों युगों का वर्णन करेंगें। युग वर्णन से तात्पर्य है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई, एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय देना। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है –

सत्ययुग- यह प्रथम युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

सत्ययुग का तीर्थ – पुष्कर है।
इस युग में कोई भी पाप नहीं होता है, अर्थात पाप की मात्र 0% है।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 20 विश्वा अर्थात् (100%) होती है।

इस युग के अवतार – मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह (सभी अमानवीय अवतार हुए) है ! अवतार होने का कारण – शंखासुर का वध एंव वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए।

इस युग की मुद्रा – रत्नमय है ।
इस युग के पात्र – स्वर्ण के है ।
काल - 17,28000 वर्ष 
मनुष्य की लंबाई - 32 फ़ीट
आयु - 1 लाख वर्ष

2) त्रेतायुग – यह द्वितीय युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

त्रेतायुग का तीर्थ – नैमिषारण्य है ।
इस युग में पाप की मात्रा – 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है ।
इस युग के अवतार – वामन, परशुराम, राम (राजा दशरथ के घर)

अवतार होने के कारण – बलि का उद्धार कर पाताल भेजा, मदान्ध क्षत्रियों का संहार, रावण-वध एवं देवों को बन्धनमुक्त करने के लिए ।

इस युग की मुद्रा – स्वर्ण है ।
इस युग के पात्र – चाँदी के है ।
काल - 12,96,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 21 फ़ीट
आयु - 10,000 वर्ष

3) द्वापरयुग – यह तृतीय युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

द्वापरयुग का तीर्थ – कुरुक्षेत्र है ।

इस युग में पाप की मात्रा – 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है ।
इस युग के अवतार – कृष्ण, (देवकी के गर्भ से एंव नंद के घर पालन-पोषण)।

अवतार होने के कारण – कंसादि दुष्टो का संहार एंव गोपों की भलाई, दैत्यो को मोहित करने के लिए ।

इस युग की मुद्रा – चाँदी है ।
इस युग के पात्र – ताम्र के हैं ।
काल - 8,64,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 11 फ़ीट
आयु - 1,000 वर्ष

4) कलियुग – यह चतुर्थ युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

कलियुग का तीर्थ – गंगा है ।
इस युग में पाप की मात्रा – 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है ।
इस युग के अवतार – कल्कि (ब्राह्मण विष्णु यश के घर) ।

अवतार होने के कारण – मनुष्य जाति के उद्धार अधर्मियों का विनाश एंव धर्म कि रक्षा के लिए।

इस युग की मुद्रा – लोहा है।
इस युग के पात्र – मिट्टी के है।
काल - 4,32,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 5.5 फ़ीट
आयु - 60-100 वर्ष.

क्रमसूत्र में पंच-अंग पूजा का विधान

पंच अंग जिन्हें पंचांग भी कहा जाता है, पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम एवं स्तोत्र हैं। ये पंचांग अभीष्ट देवता के शरीर के प्रमुख अंग माने गए हैं। कहा भी गया है :-

 पटलं देवता-गात्रं पद्धतिर्देवताशिरः। 

 कवचं देवता-नेत्रे सहस्रनामं मुखं स्मृतम। 

 स्तोत्र देवीरसा प्रोक्ता पंचांगमिदमीरितम।। 

अर्थात पटल देवता की देह, पद्धति सिर , कवच दोनों चक्षु, सहस्रनाम मुख और स्तोत्र जिह्वा हैं। पटल में पूजा विधान, मंत्र और बीजाक्षर के समस्त समूहों का भेद समाहित रहता है। तंत्र साधना से संबद्ध विधि-विधानों को समझने के लिए पटल का ज्ञान अत्यावश्यक है, इसलिए इसे देवता का शरीर माना गया है। पटल के बाद नंबर आता है पद्धति का। ""पद्धति को देवता का सिर माना गया है। वैसे इसका अर्थ है मार्ग । यह शब्द अपने आपमें बहुत से विषयों को समाए हुए है। इसमें तंत्र साधना के लिए शास्त्रीय विधि का मार्गदर्शन होता है जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मंत्र तथा उनके विनियोगादि का वर्णन होता है। जिस प्रकार प्राचीन समय में योद्धा अपने अंग-प्रत्यंगों की सुरक्षा के लिए युद्ध में जाने से पहले कवच धारण करते थे, उसी प्रकार यह कवच साधक के शरीर की रक्षा करता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक देवता की साधना में उनके नामों द्वारा उनके अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते हुए जो न्यासादि किए जाते हैं, वही कवच के रूप में वर्णित होते हैं।

गुरू गीता ।।

                  गुरू मंत्र कामधेनु के समान है, क्योकिं यह समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह कल्पवृक्ष के समान है, जो भी मन की इच्छा की जाए, वह गुरू मंत्र के प्रभाव से अपने आप पूर्ण हो ही जाती हैं। यह चिंतामणि के समान है, जिससे समस्त प्रकार की चिंताएं समाप्त होती ही हैं। इस प्रकार यह गुरु मन्त्र सर्व मंगलदायक हैं। जिसके जप मात्र से ही समस्त ताप, दुःख,भय, दैन्य, रोग, आदि अपने आप समाप्त हो जाते हैं। "59"

           यदि साधक मोक्ष की इच्छा करता है, तो उसकी मोक्ष की इच्छा पूर्ति होती हैं। यदि वह भोग की इच्छा करता है ,तो भोग प्राप्ति संभव होती है। यदि वह काम की इच्छा करता है, तो काम प्राप्ति होती है। साधक के जीवन की जो भी इच्छाएं होती हैं, उन समस्त इच्छाओं की पूर्ति केवल गुरू मंत्र जप करने से ही संभव होती हैं। इस तरह सुविज्ञ, साधक मन को भ्रम में डालने वाली अन्य साधनाओं को दृष्टि विगत करके गुरु मन्त्र का ही जप करता है। "60"।।गुरू गीता।। 
                  गुरू मंत्र कामधेनु के समान है, क्योकिं यह समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह कल्पवृक्ष के समान है, जो भी मन की इच्छा की जाए, वह गुरू मंत्र के प्रभाव से अपने आप पूर्ण हो ही जाती हैं। यह चिंतामणि के समान है, जिससे समस्त प्रकार की चिंताएं समाप्त होती ही हैं। इस प्रकार यह गुरु मन्त्र सर्व मंगलदायक हैं। जिसके जप मात्र से ही समस्त ताप, दुःख,भय, दैन्य, रोग, आदि अपने आप समाप्त हो जाते हैं। "59"

           यदि साधक मोक्ष की इच्छा करता है, तो उसकी मोक्ष की इच्छा पूर्ति होती हैं। यदि वह भोग की इच्छा करता है ,तो भोग प्राप्ति संभव होती है। यदि वह काम की इच्छा करता है, तो काम प्राप्ति होती है। साधक के जीवन की जो भी इच्छाएं होती हैं, उन समस्त इच्छाओं की पूर्ति केवल गुरू मंत्र जप करने से ही संभव होती हैं। इस तरह सुविज्ञ, साधक मन को भ्रम में डालने वाली अन्य साधनाओं को दृष्टि विगत करके गुरु मन्त्र का ही जप करता है। "60"