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ध्यान साधना के दौरान प्रकाश का दिखाई देना ।

ध्यान के दौरान आपको विभिन्न प्रकार के प्रकाश दिखाई दे सकते है । सफेद, पीला, लाल, मटमैला, नीला, हरा, मिश्रित, बिजली की चौंध की तरह, चमकते सुर्य की तरह, भभकती अग्नि की तरह, भड़कती चिंगारियों की तरह अथवा चमकते चाँद तारों जैसा प्रकाश आपको दिखाई दे सकता है ये सभी प्रकाश हमे भीतर के चिदाकाश मे अपने मानसिक पटल पर दिखाई देते है । यह सभी तरह के प्रकाश हमारे शरीर मे स्थित पंच तत्वों के प्रकाश होते है । 

हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है और हर तत्व का अपना एक रंग है । पृथ्वी तत्व का रंग पीला, जल तत्व का रंग सफेद, अग्नि तत्व का रंग लाल, वायु तत्व का रंग मटमैला और आकाश तत्व का रंग नीला होता है । अतः आपके शरीर मे जिस तत्व की भी प्रधानता होगी आपको अधिकतर उसी तत्व के रंग का प्रकाश ध्यान के दौरान नज़र आयेगा । पीला और सफेद प्रकाश मुख्यतः सभी साधक अनुभव करते है किन्तु लाल ओर नीला प्रकाश कम ही लोगो को दिखता है । 

ध्यान की आंरभिक अवस्था मे आपको अपनी भृकुटी पर, तृतीय नेत्र पर, सूई की नोक की आकार का सफेद प्रकाश दिखाई पड़ सकता है अथवा आपको अपने मानसिक पटल पर सफेद प्रकाश के छोटे छोटे पुंज अथवा गोले दिखाई दे सकते है । 

धीरे धीरे जब आप ध्यान मे आगे बढेगे तो प्रकाश का ये दर्शन छोटे से बडे रूप मे परिवर्तित होता जायेगा । आपको विशाल रूप मे सफेद प्रकाश दिखाई दे सकता है । आरंभ मे यह प्रकाश दिखाई देना स्थाई नही होगा अपितु जैसे ही प्रकाश दिखाई देगा वैसे ही तुरंत वह गायब भी हो जायेगा । किन्तु फिर धीरे धीरे यह प्रकाश अधिक समय के लिये स्थाई रूप से दिखाई देने लगेगा । 

जैसे ही आपको इस प्रकाश के दर्शन होगे आपका अंग अंग रहस्य व रोमांच से भर जायेगा, आपको असिमित आनंद की अनुभुति होगी और आपका दिल होगा की आप इस प्रकाश के दर्शन मे खोये रहे । 

जब आपका ध्यान साधना मे उच्च विकास होने लगेगा तो उसी अनुपात मे आपको प्रकाश दर्शन भी होने लगेगा । अतः जब भी आपको अपनी ध्यान की अवस्था मे प्रकाश दिखाई दे तो समझ जाये की आपकी साधना सही चल रही है और इसको तरक्की का एक चिन्ह माने । 

प्रकाश का दिखाई देना ये चिन्हित करता है की आप भौतिक चेतना से आगे बढ़ कर सूक्ष्म चेतना मे प्रवेश कर रहे है । यह अति शुभ लक्षण है ।

आर्शग्रंथों मे गायत्री मन्त्र ।।

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।।

यह महामन्त्र वेदों में कई- कई बार आया है ।।
ऋग्वेद में ६ ।६२ ।१०,
‍सामवेद में २ ।८ ।१२,
यर्जुवेद वा० सं० में ३ ।३५- २२ ।९ -३० ।। २- ३६ ।३,
अथर्व वेद में १९ ।। ७१ ।१
में गायत्री की महिमा विस्तार पूर्वक गाई गई है ।।

ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख अनेक स्थानोंपर है ।। यथा-
ऐतरेय ब्राह्मण ४ ।३२ ।२- ५ ।५ ।६- १३ ।८, १९ ।८,
‍कौशीतकी ब्राह्मण २२ ।३- २६ ।१०,
गोपथ ब्राह्मण १ ।१ ।३४,
दैवत ब्राह्मण ३ ।२५,
शतपथ ब्राह्मण २ ।३ ।४ ।३९- २३ ।६ ।२ ।९- १४ ।९ ।३ ।११,
तैतरीय सं० १ ।५ ।६ ।४- ४ ।१ ।१,
मैत्रायणी सं० ४ ।१० ।३- १४९ ।१४

आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है-
तैत्तरीय आरण्यक १ ।१ ।२१० ।२७ ।१,
वृहदारण्यक ६ ।३ ।११ ।४ ।८,

उपनिषदों में इस महामन्त्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में है-

नारायण उपनिषद् १५- २,
मैत्रेय उपनिषद् ६ ।७ ।३४,
जैमिनी उपनिषद् ४ ।। २८ ।१,
श्वेताश्वतर उपनिषद् ४ ।१८ ।।

सूत्र ग्रंथों में गायत्री का विवेचन निम्न प्रसंगों में आया है-

आश्वालायन श्रोत सूत्र ७ ।। ६ ।। ६- ८ ।। १ ।। १८,
शांखायन श्रौत सूत्र २ ।। १० ।२- १२ ।७- ५ ।५ ।२- १० ।६ ।१०- ९ ।१६,
आपस्तम्भ श्रौत सूत्र ६ ।। १८ ।। १,
शांखायन गृह्य सूत्र २ ।। ५ ।१२,७ ।। १९,६ ।। ४ ।। ८,
कौशीतकी सूत्र ९१ ।। ६,
खगटा गृह्य सूत्र २ ।। ४ ।। २१,
आपस्तम्भ गृह्य सूत्र २ ।। ४ ।। २१,
बोधायन ध० शा० २ ।। १० ।। १७ ।। १४,
ऋग्विधान १ ।। १२ ।। ५
मान० गृ० सू० १ ।। २ ।। ३- ४ ।। ४ ।८- ५ ।२ ।।

गायत्री का शीर्ष भाग :: ॐ भूर्भुवः स्वः
गायत्री, वैदिक संस्कृत का एक छन्द है जिसमें आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण- कुल २४ अक्षर होते हैं ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण- रक्षक ।। गय कहते हैं प्राण को, त्री कहते हैं त्राण- संरक्षण करने वाली को ।। जिस शक्ति का आश्रय लेने पर प्राण का, प्रतिभा का, जीवन का संरक्षण होता है उसे गायत्री कहा जाता है ।। और भी कितने अर्थ शास्त्रकारों ने किये हैं ।। इन सब अर्थों पर विचार करने पर यह कहा जा सकता है कि यह छोटा- सा मन्त्र भारतीय संस्कृति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान का बीज है ।। इसी के थोड़े से अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने ।। 

'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह गायत्री का शीर्ष कहलाता है ।। शेष आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण हैं जिनके कारण उसे त्रिपदा कहा गया है ।। एक शीर्ष ,, तीन चरण, इस प्रकार उसके चार भाग हो गये, इन चारों का रहस्य एवं अर्थ चारों वेदों में है ।। कहा जाता है कि ब्रह्माजी ने अपने चार मुखों से गायत्री के इन चारों भागों का व्याख्यान चार वेदों के रूप में दिया ।। इस प्रकार उनका नाम वेदमाता पड़ा ।। 'गायत्री तत्त्वबोध'- श्लोक ४- ७ में कहा गया है-

ॐकारस्तु परंब्रह्म व्याप्तो ब्रह्माण्डमण्डले ।।
यः स एवोच्यते शब्द ब्रह्माथो नादब्रह्म च ॥
र्सवेषां वेदमन्त्राणां पूर्वं चोच्चारणादयम् ।।
ॐकारः कथ्यते सर्वैः पाठान्तेऽपि च सर्वदा॥

अर्थात्- ॐकार परब्रह्म है ।। वह निखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, उसे शब्द ब्रह्म और नाद ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है ।। प्रत्येक वेदमन्त्र के उच्चारण के पूर्व तथा पाठ- समाप्ति के बाद इसे लगाया जाता है ।।

ॐकारस्यैव वर्णेभ्यस्त्रिभ्यस्तु व्याहृतित्रयम् ।।
भूर्भुवः स्वरयं शीर्षो भागो मन्त्रस्य विद्यते ।।
पृथक्त्वैऽप्यस्य मन्त्रस्य प्रारम्भेऽस्ति नियोजनम्॥
अर्थात्- ॐकार के तीन अक्षरों (अ, उ ,म्) से तीन व्याहृतियाँ उत्पन्न हुई ।।

उन्हें भी गायत्री महामंत्र के साथ ॐ के उपरान्त जोड़ा जाता है ।। 'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह गायत्री- मंत्र का शीर्ष भाग है ।। पृथक होते हुए भी इसका मंत्र के आदि में नियोजन होता है ।।

शब्दों की दृष्टि से गायत्री महामन्त्र का भावार्थ सरल है-

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें) ।।

उस सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, प्राण स्वरूप ब्रह्म को हम धारण करते हैं, जो हमारी बुद्धि को (सन्मार्ग की ओर) प्रेरणा देता है ।।

ॐ प्रणव

ॐकार को ब्रह्म कहा गया है ।। वह परमात्मा का स्वयं सिद्ध नाम है ।। योग विद्या के आचार्य समाधि अवस्था में पहुँच कर जब ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, तो उन्हें प्रकृति के उच्च अन्तराल में ध्वनि होती हुई परिलक्षित होती है ।। जैसे घड़ियाल पर चोट मार देने से वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है, इसी प्रकार बार- बार एक ही कम्पन उन्हें सुनाई देते हैं ।। यह नाद 'ॐ' ध्वनि से मिलता- जुलता होता है ।। उसे ही ऋषियों ने ईश्वर का स्वयंसिद्ध नाम बताया है और उसे 'शब्द' कहा है ।।

इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है ।। इस शब्द के कम्पन सीधे चलकर दाहिनी ओर मुड़ जाते हैं ।। शब्द अपने केन्द्र की धुरी पर भी घूमता है, इस प्रकार वह चारों तरफ घूमता रहता है ।। इस भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर स्वस्तिक बनता है, यह स्वस्तिक ॐकार का रूप है ।।

ॐकार को प्रणव भी कहते हैं ।। यह सब मंत्रों का सेतु है, क्योंकि इसी से समस्त शब्द और मंत्र बनते हैं ।। प्रणव से व्याहृतियाँ उत्पन्न हुई और व्याहृतियों में से वेदों का आविर्भाव हुआ ।।

प्रणव की श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने समस्त श्रेष्ठ कर्मों में ओंकार को प्राथमिकता देने का विचार किया है ।। यह मंत्रों का सेतु है, इस पुल पर चढ़कर मंत्र मार्ग को पार किया जा सकता है ।। बिना आधार के, नाव पुल आदि अवलम्बन के किसी बड़े जलाशय को पार करना जिस प्रकार संभव नहीं, उसी प्रकार मंत्रों की सफलता के लिए ,बिना प्रणव के सफलता मिलना दुस्तर है ।। इसलिए आमतौर से सब मंत्रों में और विशेष रूप से गायत्री मंत्र में सर्वप्रथम प्रणव का उच्चारण आवश्यक बताया गया है ।। 

क्षारन्ति सर्वा चैव यो जुहोति यजति क्रियाः ।।

अर्थात् बिना ॐ के समस्त कर्म, यज्ञ, जप आदि निष्फल होते हैं ।। ॐ को अविनाशी, प्रजापति ब्रह्म जानना चाहिये ।।

प्रणवं मंत्राणां सेतुः ।। -व्यास

प्रणव मंत्रों का पुल है अर्थात् मंत्र पार करने के लिए प्रणव की आवश्यकता अपरित्याज्य है ।।

यदोंकारमकृत्वा किंचिदारभ्यते तद्वज्रो भवति ।।
तस्माद्वज्रभयाद्भीतओंकारं पूर्वमारंभेदिति॥

अर्थात्- बिना ओंकार का उच्चारण किये, सभी कार्य वज्रवत् अर्थात् निष्फल हो जाते हैं ।। अतः वज्र- भय से डर कर प्रथम ॐ का उच्चारण करें ।।

गायत्री मंत्र में सबसे प्रथम ॐ को इसलिए नियोजित किया है कि इस शक्ति की धारा को इस पुल पर चढ़कर पार किया जा सके ।। ॐ जिन अर्थों का बोधक है उन अर्थों की, गुणों की, आदर्शों की स्फुरणा साधक की अन्र्तभूमि में होती है, फलस्वरूप आध्यात्मिक साधना का मार्ग सुगम हो जाता है ।। ॐ की शिक्षायें यदि साधक के मन पर जम जावें तो उसका कल्याण होने में देर नहीं लगती है ।।

ॐ शब्द ब्रह्म है ।। गायत्री ब्रह्म की ही महाशक्ति ब्रह्म है ।। नाद, बिन्दु और कला की त्रिपुटी प्रणव में सन्निहित है ।। त्रिपदा गायत्री के तीन चरणों में उस त्रिपुटी का जब सम्मिलन होता है तो अपार आनन्द की अनुभूति होती है ।। दक्षिणमार्गी और वाममार्गी अपने- अपने ढंग से इन आनन्दों का आस्वादन करते हैं।

तीन व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः)

गायत्री में ॐकार के पश्चात् 'भूः भुवः स्वः' यह तीन व्याहृतियाँ आती हैं ।। इन तीनों व्याहृतियों का त्रिक् अनेकार्थ बोधक हैं, वे अनेकों भावनाओं का, अनेकों दिशाओं का संकेत करती हैं, अनेकों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं ।।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन तीन उत्पादक, पोषक, संहारक शक्तियों का नाम भूः भुवः स्वः है ।। सत्, रज, तम, इन तीनों गुणों को भी त्रिविध गायत्री कहा गया है ।। भूः को ब्रह्म, भुवः को प्रकृति और स्वः को जीव भी कहा जाता है ।। अग्नि, वायु और सूर्य, इन प्रधान देवताओं का प्रतिनिधित्व तीन व्याहृतियाँ करती हैं ।। तीनों लोकों का भी इनमें संकेत है ।। इस प्रकार के अनेकों संकेत व्याहृतियों के त्रिक् में भरे हुए हैं ।।

यह तीन व्याहृतियाँ जिन तीन क्षेत्रों पर प्रकाश डालती हैं वे तीनों ही अत्यन्त विचारणीय एवं ग्रहणीय हैं ।। ईश्वर, जीव, प्रकृति के गुँथन की गुत्थी को व्याहृतियाँ ही सुलझाती हैं ।। भूः लोक, भुवः लोक और स्वः लोक यद्यपि लोक विशेष भी हैं, पर अध्यात्म प्रयोजनों में 'भूः' स्थूल शरीर के लिए, 'भुवः' सूक्ष्म शरीर के लिए और 'स्वः' कारण शरीर के लिए प्रयुक्त होता है ।' बाह्य जगत् और अन्तर्जगत् के तीनों लोकों में ॐकार अर्थात् परमेश्वर सर्वव्याप्त है ।। व्याहृतियों में इसी तथ्य का प्रतिपादन है ।। इसमें विशाल विश्व को विराट् ब्रह्म के रूप में देखने की वही मान्यता है, जिसे भगवान् ने अर्जुन को अपना विराट् रूप दिखाते हुए हृदयंगम कराया था ।। ॐ व्याहृतियों का समन्वित शीर्ष भाग इसी अर्थ और इसी प्रकाश को प्रकट करता है ।।

एक ॐ की तीन संतान हैं- (१) भूः (२) भुवः (३) स्वः ।। इन व्याहृतियों से त्रिपदा गायत्री का एक- एक चरण बना है ।। उसके एक- एक चरण में तीन पद हैं ।। इस प्रकार यह त्रिगुणित सूक्ष्म परम्पराएँ चलती हैं ।। इनके रहस्यों को जानकार तत्त्वज्ञानी लोग निर्वाण के अधिकारी बनते हैं ।। ॐ भूर्भुवः स्वः- इस शीर्ष भाग के पश्चात् गायत्री मंत्र प्रारंभ होता है ।। गायत्री तत्त्वबोध में स्पष्ट उल्लेख है ।।

अस्यानन्तरमेषोऽस्ति प्रारब्धो मंत्र उत्तमः ।।
विद्यन्ते यत्र वर्णास्तु चतुवशतिसंख्यकाः॥

अर्थात्- इसके उपरान्त उत्तम गायत्री मंत्र प्रारंभ होता है ।।

गायत्री के चौबीस अक्षर हैं ।। गायत्री महामंत्र में अक्षरों की गणना इस प्रकार की जाती है-

तदादिवर्णगानर्धान् वर्णानगण्यस्तु तान् ।।
'ण्यं' वर्णस्य च द्वौ भागौ 'णि' 'यं' कर्तु च छान्दसे॥
इयादिपूरणे सूत्रे ध्वनिभेदतया पुनः ।।
चतुर्विशतिरेवं च वर्णा मंत्रे भवन्त्यतः॥

अर्थात्- गणना में 'तत्' आदि वर्णों में अर्धाक्षरों को नगण्य मानकर, उन्हें एक ही अक्षर गिना जाता है ।। ऐसी स्थिति में ध्वनि भेद के आधार पर छन्दः प्रयोग में 'इयादिपूरणे' सूत्रानुसार 'ण्यं' वर्ण को 'णि' और 'यं' इन दो भागों में बाँट लिया जाता है ।। इस प्रकार चौबीस की संख्या पूरी हो जाती हैं-

१- तत्, २- स, ३- वि, ४- तु, ५- र्व, ६- रे, ७- णि, ८- यं, ९- भ, १०- र्गो, ११- दे, १२- व, १३- स्य, १४- धी, १५- म, १६- हि, १७- धि, १८- यो, १९- यो, २०- नः, २१- प्र, २२- चो, २३- द, २४- यात् ।।

गायत्री मंत्र लेखन संकटमोचन... रक्षाकवच है ।।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

-- आद्यशक्ति माँ गायत्री बुद्धि की है। गायत्री मंत्र के जप से ज्यादा लाभ साधक को गायत्री मंत्र लेखन से होता हैं।

-- जो भी व्यक्ति प्रतिदिन एक पेज यानी की सिर्फ 33 बार गायत्री मंत्र लिखता है, उसके विचारों में, उसके कार्यों में, गजब की ताकत आती है।

-- अगर कोई गर्भिणी स्त्री नियमित एक पेज गायत्री मंत्र का लेखन करती हैं तो.. उनकी आने वाली संतान आज्ञाकारी, श्रेठ, संस्कारित, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रखर बुद्धिवान होगा।

-- व्यवसायी, नौकरी पेशा, बीमार को उत्तम स्वास्थ्य, परिवारिक संकट हो चाहे अन्य कोई भी जटिल से जटिल समस्या क्यों न हो मुक्ति मिलती ही है।

-- जब हम गायत्री मंत्र लिखने बैठते हैं... तब लिखते-लिखते बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हमें स्वतः ही मिलने लगते हैं, लगता हैं जैसे... मानो स्वयं माँ गायत्री से ही बात हो रही हो..

-- यदि कोई बच्चा पढ़ाई में कमजोर है, ध्यान नहीं लगता, तो उससे नित्य 15 लाइने गायत्री मंत्र लेखन के लिखवाएं, आदत में लाने के लिए चाहे 5 लाइनों से शुरुआत करे, फिर ऐसी कोई पुस्तक नहीं, जो वह फिर नहीं पढ़ सके, ऐसा कोई उत्तर नहीं जो उसे याद न हो सके और आत्मबल तो गजब का आता है।

-- पूज्य गुरुदेव युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा जी कहते थे ....तुम लोग गायत्री मंत्र लिखकर देखों और विश्वास रखोगें तो.. तुम्हारी सभी समस्या का हल अवश्य ही होगी।

गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है—ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःखनाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करे) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।

अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

इस अर्थ का विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं।(1) ईश्वर का दिव्य चिंतन (2) ईश्वर को अपने अंदर धारण करना (3) सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। ये तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।

(1) ईश्वर के प्राणवान, दुःख रहित आनंदस्वरूप तेजस्वी श्रेष्ठ पाप रहित, देवगुण संपन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य-पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती हैं।

(2) गायत्री मंत्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अंदर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण संपन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर-दर्शन का आनंद प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में रहता हुआ अनुभव करता है।

(3) मंत्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिए, क्योंकि यह एक ऐसी महान भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-संपदाएं अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है—अपनी बुद्धि को सात्त्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण-संपन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जाएगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनंद की अभिवृद्धि होती जायेगी।

गायत्री मंत्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिंतन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्त्विकता एवं अनासक्ति का कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म, उपासना ये तीनों विषय हैं। गायत्री में बीज रूप से ये तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं।

इन भावनाओं का एकांत में बैठकर नित्य अर्थ-चिंतन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिए अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिए जाते हैं। इन संकल्पों को शांत चित्त से स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बंद रखकर मन ही मन ठुकराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान मनःक्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए।

(1) परमात्मा का ही पवित्र अंश-अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूं। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान आत्मशक्ति संपन्न बनाऊंगा। प्रभु दुःख रहित है—मैं दुखदायी मार्ग पर न चलूंगा। ईश्वर आनंद स्वरूप है। अपने जीवन को आनंद स्वरूप बनाना तथा दूसरों के आनंद में वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान तेजस्वी है, मैं भी निर्भीक, साहसी, वीर, पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूंगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता, आदर्शवादिता एवं सिद्धांतमय जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ ही बनूंगा। जगदीश्वर निष्पाप है—मैं भी पापों से कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूंगा। ईश्वर दिव्य हैं—मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूंगा, संसार को कुछ देते रहने की देव-नीति अपनाऊंगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

(2) उपयुक्त गुण वाले परमात्मा को मैं अपने अंदर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में प्रभु समाए हैं। वे मेरे चारों ओर भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं स्मरण करूंगा। उन्हीं के साथ हँसूगा और खेलूंगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली दुर्बुद्धि से, माया से बचकर अपने को अंतर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूं। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूं, अब वे मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूं। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्वमानव-परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।

(3) सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य संपत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूंगा। आत्मचिंतन करके अपने अंतःकरण चतुष्टय में (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में) छिपकर बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूंढूंगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई कसर न रहने दूंगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं और विचारधाराओं में जहां भी कुबुद्धि पाऊंगा, वहीं से हटाऊंगा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्ती भर भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपनी भूलें मानने और विवेक-संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपने स्वभाव, विचार और कर्मों की सफाई करना, सड़े-गले, कूड़े-कचरे को हटाकर सत्यं, शिवं, सुंदर की भावना से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा पद्धति होगी। इसी पूजा पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान मेरे अंतःकरण में निवास करेंगे, तब मैं उनकी कृपा-से-जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊंगा।

इन संकल्पों में अपनी रुचि के अनुसार शब्दों का हेर-फेर किया जा सकता है, पर भाव यही होना चाहिए। नित्य शांत चित्त से भावनापूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मंत्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन-दिन अध्यात्म मार्ग में ऊंचा उठ सकता है।



पारद रहस्य- औषधि एवं शिवलिंग के परिप्रेक्ष्य में ।।

(पौराणिक एवं वैज्ञानिक कथाओं समेत)

प्रकृति को विविध क्षोभो से त्राण एवं सज्जनों की विविध बाधा शान्ति हेतु औषधिपति पति चन्द्रमा को अपने शीश पर धारण कर गंगा के निर्मल जलधारा के माध्यम से चन्द्रमा के औषधीय गुणों को प्रार्थना से प्रसन्न भुजगपतिहारी पशुपति भगवान शिव ने पृथ्वी को जब प्रदान किया तो पृथ्वी ने भी उन्ही औषधीय तत्वों से सर्वप्रथम जगदम्बा पार्वती का श्रृंगार किया। अपनी निर्धारित तपश्चर्या में भगवती पार्वती के श्रृंगारित अपूर्व सौन्दर्य से भगवान शिव ने व्यवधान पाया। किन्तु ध्यान से देखने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह देवी पार्वती का किलोल है। भगवान शिव ने भी किलोल का उत्तर किलोल में ही देते हुए आसन से अपना अमोघ वीर्य स्खलित कर दिया। किन्तु वह वीर्य इतना चमकीला और उग्र विद्युत् ज्योति वाला था कि माता जी को यह आभास तक नहीं हो सका कि भगवान शिव का वीर्य स्खलित हुआ है। उनकी आँखें बंद हो गयी। और उत्तेजना शान्ति के उपरांत जाह्नवी ने अपने दैवीय सुगन्धादि से युक्त नीर से शिव का अभिषेक कर उन्हें पुनः तपश्चर्या के योग्य बना दिया। माता जगदम्बा को इससे बहुत क्षोभ हुआ। वह सोच में बहुत काल तक विचार-चिंता मग्न हो बैठी ही रह गयी। (**रसौदुम्बर्यम का पारद खंड** ) इस बीच उस वीर्य के शीघ्रगामी होने के कारण तथा उसकी उग्रता के कारण उस पर्वत में धँसता हुआ वह वीर्य पत्थरो-शिलाओं को विदीर्ण करता हुआ सौ योजन लम्बे पांच कूप के रूप में परिवर्तित हो गया। रसरत्नसमुच्चय में लिखा है-
" शैले अस्मिन शिवयो: प्रीत्या परस्परजिगीषया ।
 सम्प्रवृत्ते च सम्भोगे त्रिलोकक्षोभकारिणी ।
 विनिवारयितुम वह्निः सम्भोगम प्रेषितः सुरै: 
 कपोतरुपिणं प्राप्त हिमवतः कन्दरे अनलज्म ।
 अपक्षिभावसंक्षुब्धम स्मरलीला विलोकिनम ।
 तम दृष्ट्वा लज्जितः शम्भुर्विरतः सुरतात्तदा ।
 प्रच्युतश्चरमो धातु: गृहितः शूल पाणिना ।
 प्रक्षिप्तो वदने वह्नेगंगायामपि सो अपतत ।
 बहिः क्षिप्तस्तया सो अपि परिदन्दह्यमानया ।
 संजातास्तन्मलाधानाद्धावतः सिद्धि दायकाः ।
 यावदग्निमुखोद्रेतो न्यापद्भुवि सर्वतः ।
 शत योजन निम्नास्ते जाताः कूपास्तु पञ्च च ।
 तदाप्रभृति कूपस्थं तद्रेतः पञ्चधा अभवत ।"
माता पार्वती ने देखा कि इस वीर्य कूप में स्नान कर के तो सब नाग एवं देवता मृत्यु एवं बुढापे से मुक्त होते जा रहे हैं। किन्तु यह वीर्य मेरे किसी प्रयोजन का नहीं रह गया है। अतः नारि सुलभ ईर्ष्या के कारण उन्होंने उस वीर्य को शाप दिया कि -
 हे पर्य दमनक (पर्वत का दमन या उसे विदीर्ण करने वाले)! तुम आज से अष्टांग वक्री हो जाओ। तुम्हारा न तो कोई रूप होगा न आकार। तुम रहते हुए भी इधर उधर भागते रहोगे। हे आशुतोष भगवान शिव के अमोघ वीर्य! जिस तरह तुमने मुझे आलोकित कर ससंभ्रमित कर दिया तुम भी वैसे ही आभाषी (वायु रूप) रूप में रहोगे। तुम्हारे आठो अंग अपँग हो जाएँ । तबसे यह स्थिर न रहने वाला हो गया। इसके अलावा " पर्य दमनक " बाद में पर्यद एवं आज पारद बन गया है। ये आठो दोष निम्न प्रकार है-
" नागो बंगो मलो वह्निश्चापल्यम च विषम गिरिः ।
 असह्याग्निर्महादोषा निसर्गात पारद स्थिताः ।
भगवान शिव ने देखा कि आज देवी औरत सुलभ विकार से युक्त हो गई है। तथा उपयोगी आठो अंगो को विकार रूप में देख रही हैं। और ज्योंही ऐसा विचार भगवान शिव के मन में जन्म लिया तभी से औरतें स्थाई आठ विकारों से युक्त हो गई। तुलसी दास ने अपने रामचरित मानस में इसे बताया है-
"अवगुण आठ सदा उर रहई। नाथ पुराण निगम अस कहई।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक अशौच अदाया।
इसके अलावा पारद जैसे जैसे सातो द्वीपों में फैलता गया उसमें वहाँ के विकार समाहित होते गये। और सातो द्वीपों के विकार निम्न प्रकार है-
" औपाधिकाः पुनश्चान्ये कीर्तिताः सप्त कंचुका:
 पर्पटी पाठिनी भेदी द्रावी मलकरी तथा ।
 अंधकारी तथा ध्वांक्षी विज्ञेया: *सप्तकंचुका:" 
हमारे प्राचीन आचार्यो ने जिस किसी भी विषय के ऊपर मनन चिंतन कर जो भी लिख दिया या बता दिया वह अक्षरशः सत्य है। उनके ज्ञान को आज कल के नवयुग के यथार्थवादी वैज्ञानिक अथक परिश्रम कर के भी नहीं प्राप्त कर सके है।बहुत से सत्यप्रिय वैज्ञानिकों ने हमारे आचार्यो के सूत्राशयो को प्रत्यक्ष प्रमाणों से स्वयं प्रत्यक्ष कर के सिद्ध कर लेने पर मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा की है।
हमारे ऋषि महर्षि आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक इन तीनो प्रकार के ज्ञान के यथार्थ महाविज्ञानीथे । इस विषय में इस समय के प्रायः सब देशो के उच्च एवं निस्पृह विचार रखने वाले विद्वानों का एकमत है। आज कल के पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे ही ऋषि महर्षि निर्मित विविध सूत्रों के गूढ़ रहस्यों को भली भाँती समझ कर उसी के आधार पर प्रत्येक

पदार्थ का अन्वेषण प्रारम्भ कर दिया। जिसका फल यह हुआ कि उनको इस काम में पर्याप्त सफलता मिली और उन्होंने विश्व भर में अपने मस्तक को ऊँचा कर लिया। किन्तु विज्ञान के मूल जनक उन महर्षियों की सन्तति होकर भी हम लोग अपने महर्षियों के सद्वचनो का भी उपयोग नहीं कर रहे हैं एवं अस्तगत अपने विज्ञान भाष्कर के उदय के लिये कुछ भी उद्योग नहीं कर रहे है, दुःख की बात है।
पौराणिक मतानुसार -औषधि के रूप में पारद का अन्वेषण धरती पर सर्वप्रथम "तन्वाद्रिक" मुनि ने "कायझर" जिसका वर्त्तमान नाम कोकराझार (आसाम) में है, स्थान पर किया था। किन्तु कामाख्या देवी के स्थान "कामरूप" पर्वत पर रहने वाले कुछ दुष्ट कापालिको ने उन्हें मार कर उस पहाड़ी पर डाल दिया। उनका शव बहुत दिनों तक उस पहाड़ी के शिला खंड पर पडा रहा। श्वास चलती रही। शरीर सूखता गया। किन्तु पास ही में एक छोटे खड्ड में शुद्ध पारद पडा था। जिसके कारण उनके शव को कोई भी जंतु क्षति नहीं पहुंचा सका था। उस पारद के विकराल विकिरण (High Radiation) से उनके शव को कीड़े भी नहीं छू सके थे।
बहुत दिनों बाद कलिंग नरेश ब्यावर खारवेल (जिनके पोते शाताजीव खारवेल से अशोक सम्राट का युद्ध हुआ था) को शिकार खेलते समय वह मुनि का अनहत शव दिखाई दिया। उस सूखे कंकाल में कुछ अप्राकृतिक हरक़त एक निश्चित अन्तराल पर निरंतर हो रही थी। पास का खड्ड अत्यंत चमक दार सूर्य से भी ज्यादा तेजवान दिखाई दिया। उन्होंने अपने दरबार के चिकित्सकीय सलाहकारों की सहायता से उस चमकदार परत को सावधानी पूर्वक एकत्र करवाकर तथा उस शव को भी लेकर अपने राज्य में वापस आये। अपने दरबार के कुशल चिकित्सक "महेंद्र" की देख रेख में उस पारद का " वाजश्रुत " योग बनाकर उस शव पर लेप एवं गृहणी कपाट तक पहुंचाया। परिणाम स्वरुप वह मुनि कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गये।
मुनि ने सारी कथा बतायी। तथा उस पारद का बहुत भाग उड़ गया था। जिससे राजा बहुत क्षुब्ध हो गये। उन्हें लगा कि महेन्द्र एवं तन्वाद्रिक ने मिल कर उसे चुरा लिया है। अतः उन्होंने उन दोनों को "अहिसार" नामक अति भयानक विष दिलवा दिया। महेन्द्र तो तत्काल मर गया। किन्तु तन्वाद्रि मुनि नहीं मरे। उन्होंने कहा कि हे राजन! यद्यपि यह दूसरा जन्म आप के ही द्वारा दिया गया था। अतः इस पर अधिकार भी आप का ही था। आप चाहे इसे रखे या नष्ट कर दें। क्योकि प्रथम जन्म तो मैंने पहले ही पूरा कर लिया था। लेकिन इतनी बात अवश्य बता दे रहा हूँ कि जिस तुच्छ पदार्थ के लिये तुमने अपने अति कुशल रसायनज्ञ को मरवा डाला वह तुच्छ पदार्थ अब आप के लिये समूल नाश का कारण बनेगा।
कुछ ही दिन बाद दाक्ष्यांग देश (वर्त्तमान उडिशा) के खूंखार नरेश बर्ह्यंग ने लड़ाई कर के "लिंग पत्तन" अर्थात कैलाश पर्वत के तराई वाले अति समृद्ध राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। अब लिंग पत्तन अर्थात कलिंग (पूर्व में इसका नाम "शिव का लिंग" था। कालान्तर में यह मात्र कलिंग बन कर रह गया। उसके बाद यह दो हिस्सों में बँट गया-अँग एवम बंग। अंग देश वर्त्तमान उडिशा है। तथा बंग देश बंगाल है) सिमट कर रह गया। आज कलिंग का बड़ा हिस्सा बर्ज्यांग एवं ह्युंग दोनों चीन देश के कब्जे में है। पौराणिक मतानुसार भगवान शिव का वीर्य जो शिलाखंड के अवरोध से नीचे छेद कर रुकता गया उसका नाम "बाजी अंग" अर्थात जो अंग का बाजीकरण कर दिया, पडा। जो बाद में "बर्ज्यांग" नाम से आज भी याँगटीसीक्यांग नदी के किनारे चीन देश में है। यह स्थान अनेक अमोघ खनिजो का विशाल भण्डार है।
इधर उस परम शक्ति शाली पारद के कारण जो शिलाखंड, खड्ड समेत राजा ने उठवा लाया था। वह वज्रनाभ में बदल गया था। उससे तेज किरणे निरंतर प्रस्फुटित होती रहती थी। जिसके विकिरण से अन्य धातुओ का स्वर्ण आदि में परिवर्तन होता रहता था। अतः यह देश अति समृद्ध हो गया था।
इस बात का पता कालान्तर में बिन्दुसार के वंशज अशोक को लग गया। उसने भयंकर मार-काट एवं नरसंहारक युद्ध के बाद उस पारद संग्रह को छीन लिया। किन्तु दुर्भाग्य वश उस पदार्थ के बारे में किसी को ज्ञान नहीं था। अतः युद्ध बंदी बनाकर लाये गये खारवेल के रसायनज्ञ "वह्नितुंग" से उसके सेवन विधि के बारे में पूछे। अपने साथ हुए व्यवहार से क्षुब्ध उस रसायनज्ञ ने कुटिलता वश उसका सेवन आहार नाल से करवा दिया। परिणाम स्वरुप अशोक उग्र एवं असाध्य कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गया। और इन सारे कुटिल सांसारिक व्यवहारो से उसका मन उचट गया। तथा वह भिक्षु बन गया।
साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,
तबसे भारत में इस पदार्थ के खोज एवं संग्रह से लोग भयभीत हो गये। इस पदार्थ का कोई भण्डार आज भारत में नहीं है। अभी हाल ही में चित्राल (पंजाब) में नदी के रेत में हिंगुल के अस्तित्व का पता लगा है। और सरकार के द्वारा इस स्थान को सावधानी पूर्वक सुरक्षित कर दिया गया है। यह अदन, अफगानिस्तान,आयरलैंड, बर्मा, तिब्बत, युनियन आफ साउथ अफ्रिका के ट्रांसवाल जिले में, तथा गेलेना में,यूनाईटेड स्टेट्स आफ अमेरिका के

चिली प्रांत में, आस्ट्रेलिया के सिडनी एवं वेलिंग्टन के मध्यवर्ती समुद्री क्षेत्र में, अलवेनिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्रांस, कार्सिका, जर्मनी, हंगरी, इटली, पुर्तगाल, रूमानिया, रूस, स्पेन, एसिया माइनर, चीन, जापान, फारस, ट्यूनिसिया, होंडुरास, मेक्सिको, अलास्का, एरिजोना, केलिफोर्निया, कार्नकाउंटी, इडाहो, निवाडा, ओरेगन, लेन, टेक्सास, डच गुयाना, कोलंबिया, पेरू, ज़ुनिन, हुवानुको एवं वेनेजुएला में ज्यादा पाया जाता है किन्तु सबसे ज्यादा चीन उसमें भी तिब्बत तथा जापान में एवं आस्ट्रेलिया में पारद प्राकृतिक रूप में पाया जाता है।
पारद पांच तरह का ही होता है-
" पारदो रसधातुश्च रसेंद्रश्च महारसः ।
 चपलः शिववीर्यश्च रसः सूतः शिवाह्वयः ।
 रसेन्द्र: पारदः सूतः हरजः सूतको रसः ।
 मिश्रकश्चेति नामानि ज्ञेयानि रसकर्मसु ।"
 रस - रस नाम का पारद लाल रंग का होता है। यह सब प्रकार के दोषों से रहित होता है। इसी पारद के सेवन से देवता रोग तथा बुढापा आदि से रहित हो मृत्यु मुक्त हो गए थे।
 रसेन्द्र - यह स्वभाव से ही निर्दोष, श्याव (काला-पीला), रूखा,और अत्यंत निर्मल होता है। इसी पारद के भक्षण से नागदेव ज़रा और मृत्यु से छूट गये। इस पारद के भक्षण से मनुष्य अजर-अमर न हो जाय, इस कारण देवताओं ने माता पार्वती को प्रसन्न कर उनसे इसके उत्पत्ति स्थल वाले कूप को पाट देने का वरदान ले लिया। माता पार्वती तो पहले से ही शिव के वीर्य स्खलन से खिन्न थी। अतः उन्होंने वरदान दे दिया। और देवताओं एवं नागो ने इसके स्रोत को ही निर्मूल कर दिया। और तबसे ये दोनों पारद- रस और रसेन्द्र मनुष्यों के लिये दुर्लभ हो गये।
 सूत - सूत नामक पारद कुछ पीला, रूखा तथा दोषों से मिला होता है। 18 संस्कारों द्वारा शुद्ध होने पर देह एवं लौह सिद्धि के लिये इसका उपयोग किया जाता है।
 पारद - यह चंचल और सफ़ेद होता है। आज कल यही एक पारद मिलता है। और इसी को शुद्ध करके विविध औषधियों का निर्माण किया जाता है।
 मिश्रक - यह पारद मयूर पंख के समान चमकदार तथा पतलापन लिये हुए होता है। इसको भी अट्ठारह संस्कारों द्वारा शुद्ध करके ही काम में लाया जाता है।
ग्रंथो में इस योगिराज भगवान शिव के अत्यंत दुर्लभ वरदान स्वरुप पारद के बारे में बताया गया है कि-
"जिस प्रकार शिवमूर्ति में मग्न हुए योगिराज मोक्ष को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अभ्रक द्वारा जारण किये हुए पारद में सुवर्णादि धातुएं लीन हो जाती हैं। जड़ी-बूटियों के सत्वादिक-क्षार शीशे में लीन हो जाते है। इसी प्रकार शीशा वंग में, वंग ताम्बा में, ताम्बा चांदी में, चाँदी सोने में और सोना पारद में लीन हो जाता है। जिस प्रकार समस्त जीव (प्राणी) ब्रह्म में लीन हो जाते है, उसी प्रकार समस्त रसादि धातुएं पारद में लीन हो जाती है।"
ये ऊपर बताये पारद के पाँच वही प्रकार है जिस आधार पर यूरोप एवं अमेरिका के विद्वान वैज्ञानिक आविष्कार कर के इसे अंग्रेजी नामो से व्यवस्थित कर अपनी विद्वत्ता का डंका सारे संसार में पीट दिये। मेंडलीफ के पीरियाडिक टेबिल (आधुनिक आवर्त सारणी) की व्यवस्था देखने से इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है।
अपने मूल रूप में प्रत्येक पदार्थ गैस रूप में ही था। ज्यो ज्यो धरती का सतह ठंडा होता गया इन पदार्थो ने ठोस एवं द्रव रूप धारण किया। अभी आप देखें अत्याधुनिक तत्व सारणी में भी मात्र पांच ही गैसों का ज़िक्र है- हाईड्रोजन (H1), हीलियम(He2), आक्सीजन(O8), नाइट्रोजन(N7) एवं क्लोरिन(Cl17)। सारणी में यदि इसके अलावा कोई और गैस है तो वह इनका समस्थानिक (Isotopes) ही है।
पारद भी मूल रूप में गैस के रूप में या वाष्प के रूप में मिलता है। पुनः उस वाष्प को सांद्रित कर द्रव रूप दिया जाता है। ऊपर के पांचो गैसों से ही उपरोक्त पाँच प्रकार के पारद को प्राप्त किया जाता है। किन्तु जैसा कि सर्व विदित है कि हाईड्रोजन एवं हीलियम का आनयन भयंकर विनाश को जन्म देना ही है। अतः इन दो तरह के पारद की उपलब्धि असंभव है। उपरोक्त रस और रसेन्द्र नामक दो पारद इसीलिए अनुपलब्ध है।

क्योकि एक निश्चित ताप एवं दाब (Normal Temperature & Pressure) उपरांत ही निर्धारित द्रव्यों (गैसों) से पारद को पृथक किया जा सकता है।
इसी ताप एवं दाब के परिणाम स्वरुप पारद धरती के निचे वाष्प में परिवर्तित होकर विविध आग्नेय चट्टानों पर जम जाता है। और उसे अनेक उपायों से संगृहीत किया जाता है।
इसके जमने के क्रम को Dr. C. G. Collis जो Imperial College of London में प्रोफ़ेसर है, के मतानुसार
"सबके निचे पातालिक आग्नेय पाषाण (Granite) और उसके ऊपरी भागो में एक तेज जलज , पारद, तुर्मुली, पुखराज, बंग और टंगस्टन होते हैं। तथा दूसरी और भारी धातुएं जैसे ताम्र, नाग, यशद, सुवर्ण, रजत और रौप्य माक्षिक आदि रहते हैं। जो लोग ऐसी खानों को खोदते है, वे प्रायः एक के बाद दूसरे खनिज पदार्थ को निकाल कर लाभ
उठाते हैं। यह भी निश्चित है कि जहाँ

जहाँ पारद की खाने हैं, वहाँ पर किसी किसी स्थान पर कुवें मिलते हैं। इटली में ऐसे कुवें मौजूद हैं। यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में भी पारद की खानों में नलाकार कूप मिलते है। इन देशो में पारद के कूप 2450 फुट तक गहरे है। जहाँ पर इन गैसों पर भयंकर दाब एवं तत्परिणाम से ताप पड़ता है। 'लैटिन गैबर" के अनुसार पारद के मिश्रक (गैसों आदि) पर अत्यधिक दबाव पड़ते ही पारद इनसे अलग हो जाता है।"

शंगरी ला घाटी का रहस्य .....

      आज हम एक ऐसी जगह के बारे में बात करेंगे जहाँ हर चीज गायब हो जाती है। वैसे तो दुनिया में कई ऐसे स्थान है जहाँ वायु शून्य है मतलब हवा है ही नहीं हमारे देश में भी एक ऐसा स्थान है जहा न सिर्फ हवा शून्य है बल्कि जो भू हीनता के प्रभाव क्षेत्र में आता है। यहाँ एक बात जान लेते हैं की भू हीनता के प्रभाव क्षेत्र में आने वाले स्थान धरती के वायुमंडल के चौथे आयाम से प्रभावित होते हैं इसलिए ये इस तरह के स्थान बन जाते हैं जो की तीसरी आयाम वाली धरती की किसी भी वस्तु से संपर्क तोड़ देते हैं, यानी कोई भी इन्सान भी अगर किसी ऐसी जगह के संपर्क में जाता है तो वह पृथ्वी से गायब हो जाता है अर्थात् चौथे आयाम में पहुँच जाता है, जहां समय का कोई मूल्य नहीं होता अर्थात् आयु स्थिर हो जाती है !

शंगरी ला घाटी का रहस्य..........
शंगरी ला घाटी ऐसी ही एक जगह है जहाँ कोई वस्तु उसके संपर्क में आने पर गायब हो जाती है। यह घाटी तिब्बत और अरुणांचल प्रदेश की सीमा पर स्थित है यदि आप इस स्थान को देखना चाहते हैं तो इसे आप बिना किसी तकनीक के नहीं देख सकते यह घाटी चौथे आयाम (Fourth dimension) से प्रभावित होने के कारण रहस्यमयी बनी हुई है। बहुत से लोग यह भी कहते हैं की इस जगह का संपर्क अंतरिक्ष में किसी दूसरी दुनिया से भी है यदि आप इस घाटी के बारे में और अधिक जानना चाहते हैं तो आपको एक प्राचीन किताब काल विज्ञान पढनी होगी यह किताब आज भी तिब्बत के तवांग मठ के पुस्तकालय में मौजूद है और यह तिब्बती भाषा में लिखी गयी है। इस किताब में लिखा है कि इस तीन आयाम वाली (third dimension) की दुनिया की हर वस्तु देश, समय और नियति में बंधी हुई है यानी हर वस्तु एक निश्चित स्थान, समय और नियमों के हिसाब से काम करती है लेकिन शंगरी ला घाटी में समय नगण्य है यानी वहां समय ना के बराबर है हम इसे सरल शब्दों में ऐसे समझ सकते हैं की हमारे यहाँ के सैकड़ो साल और वहाँ का एक सेकेण्ड (second)।

शंगरी ला घाटी में प्राण, मन और विचारों की शक्ति एक विशिष्ट सीमा तक बढ़ जाती है अगर इस धरती पर अध्यात्मिक नियंत्रण केंद्र है तो वह शंगरी ला घाटी ही है अगर इस शंगरी ला घाटी में कोई वस्तु या प्राणी अनजाने में चला जाता है तो तीसरे आयाम (third dimension) वाले इस जगत की दृष्टि में उसकी सत्ता गायब हो जाती है। सरल शब्दों में कहे तो जब तक वह वहां से वापस आयेगा तब तक यहाँ ना जाने कितनी सदियाँ बीत गयी होंगी लेकिन शंगरी ला घाटी मे उसका अस्तित्व बना रहता है और यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता की भविष्य में कब उसका अस्तित्व प्रकट हो या न हो यानी कि वहाँ जाने के बाद वह वापस आयेगा या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि जब तक वह वापस आयेगा तब तक यहाँ सदियाँ बीत चुकी होंगी।

शंगरी ला घाटी में जाने के बाद किसी इन्सान की आयु बहुत धीमी गति से बढती है मान लीजिये किसी इंसान ने इस घाटी में 20 साल की उम्र में प्रवेश किया तो उसका शरीर लम्बे समय तक जवान ही बना रहेगा शंगरी ला एक आम इंसान के लिए अनजान जगह हो सकती है लेकिन उच्च स्तरीय अध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़ा व्यक्ति इस जगह से अनजान नहीं रह सकता फिर वह व्यक्ति चाहे योग से या तंत्र से या किसी अन्य तरह के अध्यात्म क्षेत्र से जुड़ा हो, हाँ लेकिन उस इंसान की स्थिति उच्च अवश्य होनी चाहिए।

शंगरी ला घाटी सिर्फ भारत का ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के अध्यात्म जगत का नियंत्रण और पथ प्रदर्शक क्षेत्र है साथ ही इसको आम इंसान की दृष्टि से देखा भी नहीं जा सकता जब तक वहां रहने वाले सिद्ध न चाहें तब तक इस घाटी को न तो कोई देख सकता है और न ही वहां जा सकता है जो लोग इस घाटी से परिचित हैं उनका कहना है कि प्रसिद्ध योगी श्यामाचरण लाहिड़ी के गुरु अवतारी बाबा, जिन्होंने आदि शंकराचार्य को भी दीक्षा दी थी शंगरी ला घाटी के किसी सिद्ध आश्रम में अभी भी निवास कर रहे हैं जो कभी आकाश मार्ग से चलकर अपने शिष्यों को दर्शन भी देते हैं ।

यहाँ पर तीन साधना के केंद्र प्रसिद्ध हैं -

1. ज्ञान गंज मठ

2. सिद्ध विज्ञान आश्रम

3. योग सिद्ध आश्रम

(संभवत: इन तीन रहस्यमय स्थानों का एक रास्ता कैलाश मानसरोवर से हो कर भी जाता है, और दूसरा रास्ता तिब्बत और अरुणांचल प्रदेश की सीमा से हो कर जाता है, कहा जाता है कि कैलाश पर्वत के समीप पहुंचने पर आयु बहुत तेजी से बढ़ने लगती है, वहीं शंगरी ला घाटी, ज्ञानगंज मठ और योग सिद्ध आश्रम में पहुचने पर आयु का बढना रुक जाता है)

1/2 @Sanatan

इन तीनो साधना केंद्रों पर आपको ऐसे अनेक योगी मिल जायेंगे जो जन्म मृत्यु के अधीन ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जो यह साबित करती हैं कि मरने के बाद सब कुछ समाप्त नहीं होता बल्कि किसी न किसी रूप में अस्तित्व बचा रहता है इसे योग की भाषा में सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। मृत्यु के पश्चात आत्मा सूक्ष्म शरीर में वास करती है सामान्यतः यह सूक्ष्म शरीर अल्प
विकसित होते हैं व अधिक कुछ कर पाने में असमर्थ होते हैं। योगी लोग अपने जीवित रहते सूक्ष्म शरीर को विकसित कर लेते हैं जिस से यह बहुत कुछ करने में समर्थ हो जाते हैं। यहाँ की दुर्गम पर्वत श्रृंखला में ऐसी ही सूक्ष्म शरीर धारी आत्माओ का निवास स्थान है जो अपने स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म शरीर में विद्यमान हैं यह अपने सूक्ष्म शरीर से विचरण करते हैं लेकिन कभी कभी स्थूल शरीर भी धारण कर लेते हैं।

शंगरी ला घाटी में प्रवेश करने पर उस स्थान पर न तो सूरज की रौशनी है और न चाँद की चांदनी वातावरण में एक दूधिया प्रकाश फैला हुआ है से आ रहा है इसका कुछ पता नहीं है। यह घाटी एक महान योगी की इच्छाशक्ति की वशीभूत है इस घाटी के बारे में कहा जाता है की यहाँ कोई सामान्य साधक जा नहीं सकता और उच्च साधक भी अपनी इच्छा से इसे नहीं देख सकता।

समय समय पर कई पर्यटको, सैनिको, खोजकर्ताओं और लेखको ने अपने लेखों के द्वारा इस जगह के बारे में लिखा है। उन लोगो के अनुसार यह एक ऐसी दुनिया है जो रहस्य जादू और रोमांस से भरपूर है कई सारी किदवंतिया इस जगह के बारे में प्रचलित हैं। मगर इस जगह को पूरी तरह से समझने में हर इंसान नाकाम है।