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बाणलिङ्गकवचम् ।।

इस कवच के शिवरात्रि को 108 पाठ से शिवलोक प्राप्ति, रोग नाश, शोक नाश, प्रचुर धन व सुख प्राप्त होता है। 

 ध्यान दें, नर्मदा जी से प्राप्त शिवलिंग को ही बाणलिंग भी कहते हैं। 

ॐ अस्य बाणलिङ्ग कवचस्य संहारभैरवऋषिर्गायत्रीच्छन्दः, हौं बीजं, हूं शक्तिः, नमः कीलकं, श्रीबाणलिङ्ग सदाशिवो देवता,
ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥

ॐ कारो मे शिरः पातु नमः पातु ललाटकम् ।
शिवस्य कण्ठदेशं मे वक्षोदेशं षडक्षरम् ॥ १॥

बाणेश्वरः कटीं पातु द्वावूरू चन्द्रशेखरः ।
पादौ विश्वेश्वरः साक्षात् सर्वाङ्गं लिङ्गरूपधृक् ॥ २॥

इतिदं कवचं पूर्व्वं बाणलिङ्गस्य कान्ते
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिः शुद्धचित्तः ।
व्रजति शिवसमीपं रोगोशोकप्रमुक्तो
बहुधनसुखभोगी बाणलिङ्ग प्रसादतः ॥ ३॥

इति बाणलिङ्ग कवचं समाप्तम् ॥

श्रीयंत्र साधना ।।

चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥

श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकलाविलास , त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है । इन्हीं पुराणों में वर्णित भगवती महात्रिपुरसुन्दरी स्वयं कहती हैं- ‘श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’’

श्री यंत्र में २८१६ देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है। इसीलिए इसे यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दूर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है । जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है.

जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । जिस तरह मंत्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।

मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्री यंत्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। श्री यंत्र की पूजा से लाभ: शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है। इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मंत्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है।

यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है । इस यंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं । श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुख दारिद्र्य का नाश होता है । श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं कीे कृपा भी प्राप्त हो सकती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।

श्री यंत्र का निर्माण श्री यंत्र का रूप ज्यामितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है । तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो ‘सृष्टि-क्रिया निर्माण’ कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो ‘संहार-क्रिया निर्माण’ कहलाता है। श्री यंत्र में ९ त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की ९ मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाये जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ५ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये ५ ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। ४ अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और ५ अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं। यह श्रीयंत्र कश्मीर संप्रदाय में कौल मत के अनुयायी उपयोग में लाते हैं। क्रमशः

श्री यंत्र में ९ त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर ४३ छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो ४३ विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो ४३ त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम १०, नियम १०, आसन ८, प्रत्याहार ५, धारण ५, प्राणायाम ३, ध्यान २, होते हैं । इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ ८ कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर १६ दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है।
मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी ९ चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ रक्त बिंदु फिर पीला त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर हरे रंग के ८ त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर काले रंग के १० त्रिकोण सर्वरोगनाशक हैं। फिर लाल रंग के १० त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर नीले १४ त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर गुलाबी ८ कमलदल का समूह दुख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर पीले रंग के १६ कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर हरे रंग का भूपुर त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन ९ चक्रों की अष्ठिात्री ९ देवियों के नाम इस प्रकार हैं:- १. त्रिपुरा २. त्रिपुरेशी ३. त्रिपुरसुंदरी ४. त्रिपुरवासिनी, ५. त्रिपुराश्री, ६. त्रिपुरामालिनी, ७. त्रिपुरासिद्धा, ८. त्रिपुरांबा और ९. महात्रिपुरसुंदरी।

आज बाजार में अनेक धातुओं ओर रत्नों के बने श्री यंत्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, किंतु वे विधिवत सिद्ध व प्राणप्रतिष्ठित नहीं होते हैं । सिद्ध श्री यंत्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन आदि करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्री यंत्र समृद्धि देने वाला बनता है । ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि श्री यंत्र रत्नों का ही बना हो, श्री यंत्र तांबे पर बना हो अथवा भोजपत्र पर बना हो, जब तक उसमें मंत्र व देवशक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात फल प्रदान करने वाला नहीं होता है, इसलिए सदैव विधिवत प्राणप्रतिष्ठित श्रीयन्त्र ही स्वीकार करना चाहिए।

श्रीयंत्र स्थापन पूजन विधान
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इस यंत्र को पूजा स्थान के अलावा अपनी अलमारी में भी रखा जा सकता है, फैक्टरी या कारखाने अथवा किसी महत्वपूर्ण स्थान पर भी स्थापित किया जा सकता है। जिस दिन से यह स्थापित होता है, उसी दिन से साधक को इसका प्रभाव अनुभव होने लगता है।

श्रीयंत्र का पूजन विधान काफी विस्तृत है लेकिन साधकों की आवश्यकता अनुसार हम यहाँ बहुत ही सरल और स्पष्ट विधान दे रहे है। स्नान, ध्यान शुद्ध पीले रंग के वस्त्र धारण कर, पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर पीले या सफेद आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक चौकी स्थापित कर उस पर लाल वस्त्र बिछा लें। गृहस्थ व्यक्तियों को श्रीयंत्र का पूजन पत्नी सहित करना सिद्धि प्रदायक बताया गया है। आप स्वयं अथवा पत्नी सहित जब श्रीयंत्र का पूजन सम्पन्न करें तो पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ही पूजन सम्पन्न करें।

साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर गुरु का ध्यान करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।
बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें। इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का आगे लिखे विधान से पूजन आरंभ करें।

“ श्री यन्त्र पूजन विधान (संक्षिप्त) “ 
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( “प्रपञ्चसार तन्त्र”, “श्रीविद्यार्णव तन्त्र” एवं “शारदातिलक तन्त्र” के आधार पर )

विनियोगः-
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ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि । अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे । श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये । “तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ ।मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमःसर्वांगे।

अंग-न्यासः-
‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें । 
१ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७॰ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१० ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः

षडङ्ग-न्यास---कर-न्यास---अंग-न्यास 
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ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।

ध्यानः-

या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।

अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः- 

इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें -
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ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
 ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।

अब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से( पात्रासादन पूजनं ) अर्घ्य एवं पाध्य -आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें।

‘सर्वतोभद्र-मण्डल′ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें।
यथा -
श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः।

मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके - “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ‘ का पूजन करे।

‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे। भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे। 

यथा -
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !

हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।

श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि, इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव !

आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके –
 “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः । 
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।

” इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे ।

उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे । 

यथा -
१ आसन -
ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।।
देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।

२ अर्घ्य-दान -
ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।।
‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।

३ पाद्य -
ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।।
चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।

४ आचमनीय -
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।।
मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।

५ - मधु-पर्क -
ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।।
।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा । 
पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।।
पुनः आचमन समर्पित करें ।

६ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) -
ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।।
‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।

७ वस्त्र -
ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।।
पुनः आचमन कराए ।

८ आभूषण -
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।

९ गन्ध -
ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।

१० पुष्प -
ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।।

११ धूप -
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।।
ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।
।।श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।
१२ दीप -
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।।
ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।।
दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।

१३ नैवेद्य -
देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल′ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें -
ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें ।
दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा ।
तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ । 
“हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें । 
फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।

१४ ताम्बूल -
ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।।
‘ताम्बूल′ देकर प्रणाम करें ।

आवरण-पूजा पुरश्चरण-विधान
आवरण-पूजा
भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे । 

यथा -
ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।

प्रथम आवरण केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे -

१ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।

द्वितीय आवरण पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा -
१ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । क्रमशः

८ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । 

यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

तृतीय आवरण भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे । यथा -
लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच ।
तृतीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, तृतीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

चतुर्थ आवरण इन्द्रादि दिक्पालों के समीप ही उनके ‘वज्र’ आदि आयुधों का अर्चन करें । यथा -
ॐ वं वज्राय नमः, ॐ वज्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ शक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ दण्ड-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ खड्ग-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ पाश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ अंकुश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं गदायै नमः, ॐ गदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः, ॐ त्रिशूल-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पं पद्माय नमः, ॐ पद्म-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ चं चक्राय नमः, ॐ चक्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
चतुर्थ आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, चतुर्थावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
प्रथम ऋचा से कर्णिका में महा-देवी महा-लक्ष्मी का पुष्प-धूप-गन्ध, दीप और नैवेद्य आदि उपचारों से पुनः पूजन करें ।

तत्पश्वात् पूजा-यन्त्र में देवी के समक्ष गन्ध-पुष्प-अक्षत से भगवती के ३२ नामों से पूजन-तर्पण करें ।
१ ॐ श्रियै नमः । श्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२ ॐ लक्ष्म्यै नमः । लक्ष्मी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३ ॐ वरदायै नमः । वरदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
४ ॐ विष्णु-पत्न्यै नमः । विष्णु-पत्नी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
५ ॐ वसु-प्रदायै नमः । वसु-प्रदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
६ ॐ हिरण्य-रुपिण्यै नमः । हिरण्य-रुपिणी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
७ ॐ स्वर्ण-मालिन्यै नमः । स्वर्ण-मालिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
८ ॐ रजत-स्रजायै नमः । रजत-स्रजा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
९ ॐ स्वर्ण-गृहायै नमः । स्वर्ण-गृहा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१० ॐ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
११ ॐ पद्म-वासिन्यै नमः । पद्म-वासिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१२ ॐ पद्म-हस्तायै नमः । पद्म-हस्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१३ ॐ पद्म-प्रियायै नमः । पद्म-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१४ ॐ मुक्तालंकारायै नमः । मुक्तालंकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१५ ॐ सूर्यायै नमः । सूर्या-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१६ ॐ चन्द्रायै नमः । चन्द्रा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१७ ॐ बिल्व-प्रियायै नमः । बिल्व-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१८ ॐ ईश्वर्यै नमः । ईश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१९ ॐ भुक्तयै नमः । भुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२० ॐ प्रभुक्तयै नमः । प्रभुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२१ ॐ विभूत्यै नमः । विभूति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२२ ॐ ऋद्धयै नमः । ऋद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२३ ॐ समृद्धयै नमः । समृद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२४ ॐ तुष्टयै नमः । तुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२५ ॐ पुष्टयै नमः । पुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२६ ॐ धनदायै नमः । धनदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२७ ॐ धनेश्वर्यै नमः । धनेश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।

२८ ॐ श्रद्धायै नमः । श्रद्धा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२९ ॐ भोगिन्यै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३० ॐ भोगदायै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३१ ॐ धात्र्यै नमः । धात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३२ ॐ विधात्र्यै नमः । विधात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
उपर्युक्त ३२ नामों से भगवती के निमित्त हविष्य ‘बलि’ प्रदान करने का भी विधान है ।
श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं से नीराजन और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदुपरान्त पुनः न्यास करके श्री-सूक्त का पाठ करे । ‘क्षमापन-स्तोत्र’ का पाठ करके पूजन और पाठ का फल भगवती को समर्पित करके विसर्जन करे ।

विशेष पुरश्चरण-काल में और बाद में भी प्रति-दिन सूर्योदय के समय जलाशय में स्नान करके सूर्य-मण्डलस्था भगवती महा-लक्ष्मी का उपर्युक्त ३२ नामों से तर्पण करना ‘श्री-सूक्त’ के साधकों के लिए आवश्यक है ।( संक्षिप्त आराधन )

माँ परा अम्बा भगवती राजराजेश्वरी महालक्ष्मी प्रसन्नोस्तु

विभिन्न शिवलिङ्ग ।।

         हमारे देश में प्राय सर्वत्र पार्थिव पूजन प्रचलित है परंतु विशेष विशेष स्थानों मैं शिवलिंग की स्थापना है। यह स्थावर मूर्तियां होती है। बाणलिंग या सोने चांदी के छोटे लिंग जग्ड़ंम कहलाते हैं। इन्हें प्राचीन पाशुमत संप्रदाय वाले एवं आजकल के लिंगायत संप्रदाय वाले पूजा के व्यवहार में लाने के लिए अपने साथ लिए फिरते हैं अथवा बाह गले में बांधे रहते हैं।
  लिंग विविध द्रव्यों के बनाए जाते हैं गरुण पुराण में इसका अच्छा विस्तार है यहां जानकारी के लिए संक्षेप में वर्णन दे रहा हूं।
गंधलिङ्ग --- दो भाग कस्तूरी 4 भाग चंदन और 3 भाग कुमकुम से बनाते हैं। शिवसायुज्यार्थ इसकी अर्चना की जाती है।
पुष्प लिङ्ग -- विविध सौरभमय फूलों से बना कर पृथ्वी के आधिपत्य लाभ के लिए पूजते हैं।
गोशकृल्लिंग --स्वच्छ कपिल वर्ण के गोबर से बनाकर पूजने से ऐश्वर्य मिलता है परंतु जिसके लिए बनाया जाता है वह मर जाता है। मिट्टी पर गिरे गोबर का व्यवहार वर्जित हैं।
रजोमयलिङ्ग -- रज से बना कर पूजने वाला विद्याधरत्व और फिर शिवासायुज्य पता है।
यवगोधूमशालिज -- जौं, गेहूं, चावल के आटे का बना कर श्रीपुष्टि और पुत्र लाभ के लिए पूजते हैं।
सीताखण्डमय लिङ्ग -- से आरोग्य लाभ होता है।
लवणजलिंङ्ग -- हरताल, त्रिकटु को लवण मे मिलाकर बनता है। इससे उत्तम प्रकार का वशीकरण होता है।
तिलपिष्टोत्थलिङ्ग --अभिलाषा सिद्धि करता है।
तुषोत्थलिङ्ग--मारणशील है, भस्ममयलिङ्ग --सर्वफलप्रद, गुडोत्थलिङ्ग --प्रीति बढ़ाने वाला है और शर्करामयलिंग सुखप्रद है।
वंशाङ्कुरमयलिङ्ग--वंशकर है केशास्थिलिङ्ग सर्व शत्रु नाशक है।
द्रुमोद्भूतलिङ्ग--दारिद्र्यकर, पिष्टमय विद्याप्रद और दधीदुग्धोद्भतलिङ्ग कृर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है। धात्रीफलजात मुक्तिप्रद नवनीतज कृर्ति और सौभाग्य देता है। दूर्वाकाण्डज अपमृत्युनाशक, कर्पूरज मुक्ति प्रद, अयस्कान्तजमणिज सिद्धि प्रद, मौक्तिक सौभाग्यकर स्वर्ण निर्मित महामुक्ति प्रद, रजत भूति वर्धक है।
पित्तलज तथा कास्यज मुक्ति प्रदान करने वाला, त्रपुज,आयस और सीसकज शत्रु नाशक होता है। अष्टधातुज सर्व सिद्धिप्रद अष्टलोहजात कुष्ठ नाशक, वैदूयर्ज शत्रुदर्पनाशक और स्फटिकलिङ्ग सर्वकामप्रद है। परंतु ताम्र, सिसक, रक्त चंदन, शड़्ख, कांसा लोहा इन के लिङ्गो की पूजा कलयुग में वर्जित है। पारे का शिवलिंग विहित है और ऐश्वर्य दायक है।
         लिङ्ग बनाकर उसका संस्कार पार्थिव लिङ्गो को छोड़ और सब लिङ्गो के लिए करना पड़ता है। स्वर्ण पात्र में दूध के अंदर तीन दिनों तक रखकर त्रयंबक यजामहे आदि मंत्रों से स्नान कराकर वेदी पर पार्वती जी की सर षोडशोपचार से पूजा करनी उचित है। फिर पात्र से उठाकर लिंग को 3 दिन तक गंगाजल में रखना होता है फिर प्राण प्रतिष्ठा करके स्थापना की जाती है।
       पार्थिवलिङ्ग एक या दो तोला मिट्टी लेकर बनाते हैं। ब्राह्मण सफेद, क्षत्रिय लाल, वैश्य पीली और शूद्र काली मिट्टी लेता है परंतु यह जहां अव्यवहार्य हो वहां कोई हर्ज नहीं मिट्टी चाहे जैसी मिले।
     लिङ्ग साधारणतया अङ्गुष्ट प्रमाण का बनाते हैं। पाषाण आदि के लिङ्ग मोटे और बड़े बनते हैं। लिङ्ग से दुगनी वेदी और उसका आधा योनिपीठ करना होता है।
लिङ्ग की लंबाई कम होने से शत्रु की वृद्धि होती है। योनिपीठ बिना या मस्तक आदि अंग बिना लिङ्ग बढ़ाना अशुभ है। पार्थिवलिङ्ग अपने अंगूठे के एक पोरवे भर बनाना होता है। लिङ्ग सुलक्षणा होना चाहिए। लक्षण मंगलकारी होता है।

         लिङ्ग मात्र की पूजा में पार्वती परमेश्वर दोनों की पूजा हो जाती है। लिङ्ग के मूल में ब्रह्मा मध्य देश में त्रिलोकीनाथ विष्णु और ऊपर प्रणव वाख्य महादेव स्थित हैं। वेदी महादेवी है और लिङ्ग महादेव हैं। अतः एक लिङ्ग की पूजा से सब की पूजा हो जाती है (लिङ्ग पुराण)। पारद के लिङ्ग का सबसे अधिक महात्मय है। पारद शब्द में प= विष्णु, आ=कालिका, र=शिव, द=ब्रह्मा इस तरह सभी स्थित हैं। उसके बने लिङ्ग की पूजा से जो जीवन में एक बार भी की जाए तो धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य मिलते हैं।
     यहां तक तो लिङ्ग निर्माण की बात हुई परंतु नर्मदा आदि नदियों में भी पाषाण लिङ्ग मिलते हैं। नर्मदा बाणलिङ्ग भुक्ति मुक्ति दोनों देता है। बाणलिङ्ग की पूजा इंद्र आदि देवों ने की थी। इसकी वेदिका बनाकर उस पर स्थापना करके पूजा करते हैं। वेदी तांबा स्फटिक सोना पत्थर चांदी या रुपए की भी बनाते हैं परंतु नदी से बाणलिङ्ग निकाल कर पहले परीक्षा होती है। फिर संस्कार पहले एक बार लिङ्ग के बराबर चावल लेकर तौले। फिर दूसरी बार उसी चावल से तौलने पर लिङ्ग हल्का ठहरे तो गृहस्थों के लिए वह लिङ्ग पूजनीय है। 3-5 या 7 बार तौलने पर भी तौल बराबर निकले तो उस लिङ्ग को जल में फेंक दे। यदि तौल मैं भारी निकले तो वह लिङ्ग उदासीनो के लिए पूजनीय है। तौल मैं कमी बेशी ही बाणलिङ्ग की पहचान है। जब बाणलिङ्ग होना निश्चित हो जाए तब संस्कार करना उचित है। संस्कार के बाद पूजा आरंभ होती है। पहले सामान्य विधि से गणेशादि की पूजा होती है। फिर बाणलिङ्ग को स्नान कराते हैं। स्नान कराकर यह ध्यान मंत्र
ॐ प्रमत्तं शक्तिसंयुक्तं बाणाख्यं च महाप्रभम् ।
कामवाणान्वितं देवं संसारदहनक्षमम् ।
श्रडङ्गारादिसोल्लासं वाणाख्यं परमेश्वरम्।।

पढ़कर मनसोपचार से तथा फिर से ध्यान कर पूजा करनी होती है। भरसक षोडशोपचार पूजा होती है फिर जब करके स्तवन पाठ करने की पद्धति है। बाणलिङ्ग की पूजा में आवाहन और विसर्जन नहीं होती।
     बाणलिङ्ग के प्रकार बहुत हैं। विस्तार भय से यहां हम उनका उल्लेख नहीं करते हैं। हां यह जानना आवश्यक है कि बाणलिङ्ग निन्द्य ना हो। कर्कश होने से पुत्र दारादिक्षय, चिपटा होने से गृह भंग एकपाशर्वस्थि होने से पुत्र- दारादि-धनक्षय शिरोदेश स्फुटित होने से व्याधि छिद्र होने से प्रवास और लिङ्ग ने कर्णिका रहने से व्याधि होती है। ये निन्द्य लिङ्ग है, इनकी पूजा वर्जित है। तीक्ष्णाग्र, वक्र शीर्ष तथा त्रिकोण लिङ्ग भी वर्जित है। अभी स्थूल, अति कृश, स्वल्प, भूषणयुक्त मोक्षार्थियों के लिए है, गृहस्थों के लिए वर्जित है।
    मेघाभ और कपिल वर्ण का लिङ्ग शुभ है परंतु गृहस्थ लघु या स्थूल कपिल वर्ण वाले की पूजा ना करें। भौरे की तरह काला लिङ्ग सपीठ हो गया है अपीठ संस्कात हो या मंत्र संस्कार रोहित भी हो तो गृहस्थ उसकी पूजा कर सकता है। बाणलिङ्ग प्रायः कमलगट्टे की शक्ल का होता है। पकी जामन या मुर्गी के अंडे के अनुरूप भी होता है। सफेद, नीला और शहद के रंग का भी होता है। यही लिङ्ग प्रशस्त है। इन्हें बाणलिङ्ग इसलिए कहते हैं कि बाणासुर ने तपस्या करके महादेव जी से वर पाया था कि वे पर्वत पर सर्वदा लिङ्ग रूप में प्रकट रहे। एक बाणलिङ्ग की पूजा से अनेक और लिङ्गो की पूजा का फल मिलता है। 

महाकुम्भ क्या है?

 कुम्भ परिपूरित करने को कहते हैं।इसका अर्थ हुआ जो अपने प्रभाव से पृथ्वी को
तेज और दिव्यता से भर दे वह कुम्भ है।

-- भारतवर्ष में चार स्थानों पर महाकुम्भ लगते हैं।ये चार स्थान हैं --१. हरिद्वार (माया) २. प्रयाग ३- उज्जयिनी
और ४. नासिक ।

-- महाकुम्भ सूर्य,चंद्र और बृहस्पति के योग से लगते हैं।अतःप्रत्येक स्थान में महाकुम्भ बारह वर्षों के अन्तर पर पड़ता है।कभी कभी यह बारह वर्ष की जगह ग्यारह वर्ष या तेरह वर्ष पर भी पड़ता है पर यह स्थिति बृहस्पति की गति के कारण आती है।
हम यहाँ एक सारिणी दे रहे हैं जिसमें महाकुम्भ की ग्रह स्थिति को देखा जा सकता है।
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स्थान सूर्य चन्द्र बृहस्पति नदी
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१.हरिद्वार--- मेष मेष कुम्भ गंगा

२. प्रयाग--- मकर मकर वृष गंगा(त्रिवेणी)

३. उज्जयिनी--मेष मेष सिंह शिप्रा

४. नासिक--- सिंह सिंह सिंह गोदावरी
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-- बृहस्पति प्रायः बारह वर्षों बाद घूम कर पुनः उसी राशि पर आता है।इसी कारण महाकुम्भ बारह वर्षों पर पड़ता है। ८४ वर्षों में यह ११ वर्षों पर ही पुनः उसी राशि पर आता है।यह अपवाद होता है।

-- ध्यानरहे महाकुम्भ में सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि पर रहते हैं। यह स्थिति अमावस्या के दिन आती है। सूर्य और चन्द्र की युति ( योग ) ही अमावास्या है।अतःमहा कुम्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्नान अमावस्या के दिन होता है। इसके बाद सूर्य संक्रान्ति के दिन का स्नान होता है।तीसरा स्नान पूर्णिमा का होता है। शेष दो स्नान अन्य दो महत्त्वपूर्ण तिथियों में होते हैं।इस प्रकार महा कुम्भ में पांच महत्त्वपूर्ण स्नान होते हैं।

-- चार महाकुम्भ चार नदियों के तट पर लगते हैं। हरिद्वार का महाकुम्भ भगवतीं गंगा के तट पर लगता है और प्रयाग का महाकुम्भ गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम स्थल तीर्थराज में लगता है।उज्जयिनी का महाकुम्भ शिप्रा नदी के तट पर लगता है।यहनदी अपेक्षाकृत छोटीहै अन्य की अपेक्षा।नासिकका महाकुम्भ गोदावरीके तटपरलगता है।गोदावरीको गंगाकी तरह पवित्र और तारक मानाजाता है।

--उज्जयिनी और नासिक में ज्योतिर्लिंग हैं।महाकाल के कारण उज्जयिनी और त्रयम्बकेश्वर के कारण नासिक के महाकुम्भ का महत्त्व बढ़ जाता है। तीर्थराज प्रयाग भगवान ब्रह्मा की यज्ञभूमि है और हरिद्वार स्वर्गद्वार है।
अंग्रेजों ने १७५० में गंगा को बांधने की योजना बनाई।न रहेगी गंगा न लगेंगे हरिद्वार और प्रयाग के दो महाकुम्भ।
सन २००० के महाकुम्भ के बाद टेहरी बांध में गंगा पूरी तरह रोक दी गयी। फिर भी महाकुम्भ का फैलाव और चकाचौंध बढ़ता ही जा रहा है।

--महाकुम्भ द्वि चान्द्रमास स्पर्शी होता है।अतः यह अधिक से अधिक दो माह के लिए ही लगता है।जो इसे व्यावसायिक बना कर चार माह का लगाते हैं वे गलत करते हैं और प्रकृति द्वारा दंडित भी होते है। मध्यप्रदेश सरकार ने पिछला महाकुम्भ चार मास तक चलाया था।परिणाम अशुभ ही रहा।

-- महाकुम्भ धार्मिक पर्व है।इसे पर्यटन या उत्सवधर्मी प्रधान नहीं बननेदेना चाहिए।सम्पूर्ण भारतकी धर्मपरम्परा
इस मेलेमें एकसाथ देखनेको मिलतीहै।उत्सव औरपर्यटन के अतिरिक्त इसमें भारत और नेपाल के गुमनाम संत भी देखने को मिलते हैं। सरस्वती अन्तःसलिला भले हो पर महाकुम्भ में संस्कृति सलिला नदीतो प्रत्यक्ष दिखलाईदेती है।

-- हरिद्वार,प्रयागऔर उज्जयिनीके महाकुम्भ पूर्णिमा से आरम्भ होते हैं। नासिक का महाकुम्भ अमावस्या से आरम्भ होता है।गोदावरी का प्राचीन नाम गौतमी भी है।
हरिद्वार और उज्जयिनी के कुम्भ अप्रैल मास में लगते हैं।
प्रयाग का महाकुम्भ जनवरी में और नासिक का कुम्भ अगस्त मास में सम्पन्न होते हैं।
      कुम्भके चारों स्थानोंके अनेक दर्शनीय स्थलोंका दर्शन श्रद्धालु गण करते हैं। महाकुम्भ स्नान का फल अश्वमेध और वाजपेय यज्ञके तुल्य कहा गयाहै।आंखों कीसफलता महाकुम्भ को देखने मेंहै जहाँ सहस्रनयन होनेकासुख इन्द्र को शुभ महसूस होता है।

शनिदेव से संबंधित कुछ प्रश्न एवं उनके उत्तर ।।

शनिदेव मानव शरीर के किस स्थान पर निवास करते हैं?
शनिदेव मानव शरीर में उदर स्थान पर निवास करते हैं एवं यहीं पर राहु केतु के साथ मिलकर क्रियाशील होते हैं। शनी स्नायु मंडल के स्वामी हैं।

शनि देव के अधिदेवता एवं प्रत्याधि देवता कौन-कौन हैं?
शनिदेव के अभी देवता यम एवं प्रत्यादी देवता प्रजापति हैं।

शनि का वाहन क्या है?
मुख्य रूप से शनि का वाहन गीद्ध एवं लोहे से बना रथ है परंतु यह काले कुत्ते के ऊपर भी आरुढ़ होते हैं।

शनि देव के अस्त्र-शस्त्र क्या है?
शनि देव मुख्य रूप से गदा, धनुष, बाण एवं त्रिशूल धारण करते हैं। इनका एक हाथ वर मुद्रा में भी होता है इनके शरीर से नीली किरणें उत्सर्जित होती रहती है।

शनि देव एक राशि में कितने समय रुकते हैं।
शनि देव एक एक राशि में 30-30 माह रहते हैं। और 30 वर्ष मैं ही सब राशियों को पार कर जाते हैं। यह मकर और कुंभ राशि के स्वामी हैं।

किन राशियों में उच्च और नीच के होते हैं?
तुला राशि में यह उच्च के होते हैं एवं मेष राशि में नीच स्थान के होते हैं।

शनी की धातु क्या है?
शनि ग्रह की धातु लोहा अनाजों में चना और दालों में उड़द की दाल है। लौह तत्व की कमी से मनुष्य का चलना फिरना भी असंभव हो जाता है। शनि के प्रभाव के कारण शरीर में लौह तत्व की अचानक कमी हो जाती है एवं औषधि खाने पर भी लौह तत्व की कमी पूरी नहीं होती है।

शनि गायत्री मंत्र क्या है?
शनि गायत्री मंत्र "ॐ कृष्णांगाय विद्ममहे रविपुत्राय धीमहि तन्न: शौरि: प्रचोदयात्" हैं।
                 
शनी कितने चरणों में प्रभाव डालते हैं?
शनी अपना प्रभाव तीन चरणों में दिखाते हैं जो साढे सात सप्ताह से साढे वर्ष तक के समय के लिए होता है पहले चरण में जातक का अपना संतुलन बिगड़ जाता है और वह अपने निश्चय विचार से इधर उधर भटक जाता है। अर्थात उसके हर कार्य में उसके विचारों में स्थिरता का अभाव होने लगता है और वह बेकार की परेशानियों से गिरने लगता है। दूसरे चरण में उसे कुछ मानसिक तथा शारीरिक रोग भी घेरने लगते हैं एवं उसका कष्ट भी और भी बढ़ जाता है। तीसरे तथा अंतिम चरण तक पहुंचते जातक का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है और उसमें क्रोध की मात्रा और अधिक हो जाती है इस समय कोई और ग्रह भी प्रताड़ित कर रहा हो तो जातक के दुखों में और बढ़ोतरी हो जाती है।

ब्रह्मांड में शनि किस जगह स्थित है?
बृहस्पति से दो लाख तथा सूर्य से 14 लाख योजन ऊपर शनि ग्रह मंडल स्थित है।यह वहां से काले एवं नीले रंग की किरणें प्रक्षेपित करते हैं। इनके ऊपर 11 लाख योजन के ऊपर दूरी पर सप्त ऋषि मंडल स्थापित है यहां पर शनि का प्रभाव शुन्य है। सप्त ऋषि मंडल भगवान विष्णु के परम धाम ध्रुव लोक की परिक्रमा करता है शनि ग्रह पश्चिम दिशा में स्थित माने जाते हैं।

शनी के अन्य ग्रहों से कैसे संबंध है?
केतु एवं गुरु से इनकी मित्रता है चंद्रमा से समता बुध से प्रेम एवं मंगल और सूर्य से घोर शत्रुता है। अश्विनी, मधा, मूल, विशाखा, पुनर्वसु नक्षत्रों में यह शुभ फल प्रदान करते हैं एवं पुष्य अनुराधा मृगशिरा चित्रा घनिष्ठा तथा भरनी नक्षत्रों में अशुभ फल देते हैं।

एक बार में बताएं कि शनी को कैसे अनुकूल करें?

उच्च कोटि के तीन सात मुखी वृहद आकार के रुद्राक्ष फल चांदी में बनवाकर धारण कर ले। इसे शनि कवच कहते हैं इस प्रकार आप दुर्लभ शनि कवच से सुरक्षित होंगे।

ब्रह्मांड में सबसे कम घनत्व का ग्रह कौन सा है?
शनि ग्रह आकार में तो बहुत बड़ा है परंतु सबसे हल्का ग्रह शनि ग्रह ही है वास्तव में यह विभिन्न ब्रह्मांड गैसों मुख्य रूप से हिलियम और हाइड्रोजन की एक घनीभूत संरचना है इनके चारों तरफ हिम रूप में छोटे छोटे ग्रह नुमा पिंड परिक्रमा करते रहते हैं।

हमारी पृथ्वी की तुलना में शनि कितने वृहद हैं?
शनि ग्रह दूसरे सबसे बड़े ग्रह हैं हमारे ग्रह मंडल में यह पृथ्वी से 750 गुना ज्यादा बड़े हैं एवं इनके अभी तक 17 चंद्रमा ढूंढ निकाले गए हैं कुछ और भी हो सकते हैं।

शनि ग्रह पर कितने घंटे की रात होती है?
प्रत्येक ग्रह का अपना कालचक्र है पृथ्वी के साढे 29 साल शनि ग्रह के 1 वर्ष के बराबर है। सामान्यतः इस ग्रह पर 10 घंटे 14 मिनट का एक दिन होता है।

क्या शनी जीवित जागृत ग्रह हैं?
ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह जीवन शक्ति से पूर्ण है। प्रत्येक ग्रह पर उसकी संरचना अनुसार जीवन किसी ना किसी विलक्षण रूप में उपस्थित है। हमारी पृथ्वी पर पंचेेंद्रीय जीवन वृहद जीवन संरचना में मात्र राई के बराबर है। शनी क्रियाशील है आंधी तूफान वर्षा सब कुछ यहां पर होता है।

शनि देव के परिवार का परिचय दीजिए?
शनि देव सूर्य पुत्र हैं। इनकी माता का नाम छाया देवी है। इनका गोत्र कश्यप है। इनके भाई का नाम यम है बहन यमुना है पुत्र मंदी, खर, सुप्त, कुंद, वृद्ध, क्षय, विकृति, चौर्य इत्यादि है इन्हें नमकीन चीजें अत्यधिक प्रिय है।