आज इन महत्वपूर्ण क्षणों में मैं आपके उस दुर्लभ गोपनीय और महत्वपूर्ण दुर्लभोपनिषद के श्लोकों की चर्चा करना चाहूंगा जो समस्त उपनिषदों में अद्वितीय और श्रेष्ठ हैं। अद्वितीय और श्रेष्ठ इस कारणवश क्योंकि जहां उपनिषद उस अद्वितीय तत्व ब्रह्म की अमूर्त व्याख्या करते है वहीं यह उपनिषद संक्षिप्त और गूढतापूर्वक उसकी प्रप्ति का मार्ग वर्णित करता है। समस्त उपनिषदों में से केवल यही है वह उपनिषद जो प्रथम बार जीवन की धन्यता के प्रतीक गुरु तत्व का पूर्णता से निरूपण करता है। अपने विन्यास में उपनिषदों की पारम्परिक शैली से भिन्न होने के कारण अथवा अपने निरूपित विषय की भिन्नता के कारण इस उपनिषद का वर्णन प्रायः नहीं प्राप्त होता है। प्रायः एक सौ आठ उपनिषदों के मध्य भी इस उपनिषद के नाम का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है जिसका कारण मात्र यही प्रतीत होता है कि इसकी व्यंजना अथवा अभिव्यक्ति की शैली में एक प्रकार का विद्रोह परिलक्षित होता है। और उपनिषदाकारों के मध्य भी महर्षि विश्वामित्र सरीखे विद्रोही व्यक्तित्व हुए है, जिन्होंने प्रचलित शैली अथवा परम्परा से हट कर अपने धारणाओं को दृढ़ता व स्पष्टता पूर्वक कहने का साहस किया है।
इसके अतिरिक्त इस उपनिषद के मंत्रों में कुछ ऐसी विलक्षण शक्तिया समाहित है जो इसे केवल तत्व वर्णन की एक घटना न रहने देकर साक्षात मंत्र स्वरूप में परिवर्तित कर देती है, क्योंकि विद्रोह अपने निश्छल स्वरूप मे चेतना का एक ऐसा झंकरण होता है जो स्वतः ही मंत्र स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है।
ऋषियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जहां दुर्लभोपनिषद की चर्चा होती है, वहां पवित्रता का वातावरण बन जाता है। जहां दुर्लभोपनिषद के श्लोकों का उच्चारण होता है, वहां के वातावरण में प्रसन्नता और आनन्द का अमृत छलकने लग जाता है। जो कोई इसके पदों को गेय अवस्था में कोई गाता है या श्रवण और मनन करता है वह स्वतः साधक और सिद्ध बन जाता है, समस्त सिद्धियां स्वतः उसके सामने उपस्थित हो जाती हैं। उसको साधना करने की विशेष आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि ये श्लोक अपने-आप में दिव्य और चैतन्य हैं।
इन श्लोकों की रचना ही इस प्रकार हुई है कि वह सुनने वालों के हृदय और प्राणों पर प्रहार करती है। प्रभाव डालती है, और उसके समस्त शरीर को साधनामय बना देती है। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि वे अत्यन्त सौभाग्यशाली व्यक्ति होते हैं, जिनके घर में 'दुर्लभोपनिषद' होता है, वास्तव में उनके पुण्य उदय हो जाते हैं वे जब इनकी चर्चा करते हैं। इसके श्लोकों का पाठ करने से व्यक्ति के पूर्व जन्मों के पुण्यों का उदय उसके जीवन में होने लगता है जब व्यक्ति का शुभ समय शुरु होता है, तभी वह दुर्लभोपनिषद के श्लोक का मनन करता है।
दुर्लभोपनिषद के प्रारम्भ में ऋषि ने आप्त वाक में स्पष्ट किया है कि जो 108 दिन तक नित्य दुर्लभोपनिषद का पाठ करता है या श्रवण करता है, उसे विशेष सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं, वह चाहे महाकाली, महालक्ष्मी, भैरव, यक्ष, किन्नर या किसी भी प्रकार की साधना या सिद्धि हो वास्तव में यह एक अद्वितीय उपनिषद है। इसके कुछ महत्वपूर्ण व अति विशिष्ट श्लोकों को स्पष्ट कर रहा हूं और यह आप लोगों का सौभाग्य है कि आप के घर में दुर्लभोपनिषद है।
इसके प्रारम्भ में कहा गया है कि गुरु द्वारा प्रदत्त श्लोक का ही पाठ या श्रवण हो, क्योंकि इसका तात्पर्य यह है कि गुरु स्वयं आप के घर में उपस्थित होते ही हैं। प्रत्येक व्रत, उपवास, साधना या पूजन के पूर्व इसका श्रवण या उच्चारण अवश्य करना चाहिए। इसकी चर्चा होने से समस्त देवता व ऋषियों का घर में पदार्पण होता है और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसलिए यह उपनिषद अत्यन्त कम लोगों को ज्ञात हो सका। वशिष्ठ ने स्वयं कहा है कि दुर्लभोपनिषद जैसा ग्रन्थ तो बन ही नहीं सकता। विश्वामित्र ने कहा कि मेरी समस्त साधनाओं का सार दुर्लभोपनिषद ही है। शंकराचार्य ने कहा कि मैं जो कुछ हूं उसका आधार दुर्लभोपनिषद है।
इसका तात्पर्य है कि यह उपनिषद अत्यन्त दुर्लभ कृति है। ऐसा इसलिए है कि इसकी रचना किसी एक ऋषि ने नहीं की है। समस्त ऋषियों के शरीर से निकले तेजपुंज ने एक आकार ग्रहण किया और उस तेज पुज ने इसके श्लोकों का उच्चारण किया, जिस प्रकार से समस्त देवताओं के शरीर से तेजपुंज निकला और भगवती जगदम्बा अवतरित हुई। इसीलिए इस दुर्लभोपनिषद को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि मूलतः यह गुरु चिन्तन और गुरु मनन है। जब हम गुरु शब्द का उच्चारण करते हैं, तब हम समस्त तीर्थों का उच्चारण करते हैं। समस्त देवताओं का उच्चारण करते हैं।
जहां हमने गुरुदेव का आह्वान किया वहां ब्रह्मा, विष्णु महेश अवतरित होते ही हैं। यदि हम गुरु शब्द की गरिमा समझें। उसका महत्व और मूल्य आंक सकें तो यह शब्द अपने-आप में अत्यन्त दिव्य, पवित्र और उच्चकोटि का है। अतः उपनिषद में गुरु से सम्बन्धित उन श्लोकों की रचना की गई है जिनके उच्चारण मात्र से देवता सामने प्रकट हो जाते है दृश्य-अदृश्य रूप में समस्त ऋषि वहां उपस्थित होते ही है, जहां दुर्लभोपनिषद का उच्चारण व श्रवण होता है, जिस घर में इसका उच्चारण होता है, उस घर के सामने स्वर्ग और इन्द्रपुरी भी नगण्य और तुच्छ मानी जाती है, क्योंकि उस घर में गुरु चिन्तन होता है, गुरु के हृदय का आगार होता है।
गुरु के हृदय से भाव-भूमि स्पष्ट होती है और हम उन तत्वों को स्पष्ट रूप से समझते हैं, जिसके द्वारा गुरु पद विन्यास को स्पष्ट रूप में समझा जाता है। इसलिए इस उपनिषद के श्लोक अपने-आप में एक अद्वितीय चिन्तन हैं। मैं आज पहली बार उन महान और श्रेष्ठ श्लोकों को स्पष्ट कर रहा हूं जिससे कि आपका जीवन पवित्र हो सके, दिव्य बन सके। आप सही अर्थों में साधक बन कर पूर्णता प्राप्त कर सकें। आपके घर का वातावरण पवित्र बन सके, आपके घर में सुख-सौभाग्य आ सके, आपके जीवन के कष्ट और अभाव दूर हो सकें, आप समस्त ऋषियों और देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करके अपने जीवन का ध्येय, और उद्देश्य प्राप्त कर सकें। आप जब इन श्लोकों का उच्चारण या श्रवण करें तो उसके पूर्व अत्यन्त पवित्र होकर गुरु चित्र के सम्मुख प्रणम्य हो करके अपने-आपको गुरु से जोड़ते हुए इनका मनन करें, इनको अपने हृदय और प्राणों मे उतारें, समस्त परिवार के साथ बैठकर शान्त चित्त से इसका पाठ करें, जिससे परिवार के लोगों के विचार संस्कारित हो सकें, प्रेम और आदर की भावना का विकास हो सके। इस प्रकार श्रवण या उच्चारण करने से उस व्यक्ति के घर में समस्त देवगण, ऋषिगण मरुद्गण तथा अटूट लक्ष्मी का स्थायी निवास होता ही है ।
दुर्लभोपनिषद्
गुरुवै सदां पूर्ण मदैव तुल्यं, प्राणो चिन्त्यं वदायें वहितं सदैव ।
विचिन्त्यं भव मेक रूपं गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं ।।
मैं इस जीवन में क्यों आया हूँ? मैं इस पृथ्वी तल पर क्यों हूँ? मेरे जीवन की डोर कहां बंधी है? मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? इनको तो केवल गुरुदेव आप ही समझा सकते हैं, अन्य किसी में यह क्षमता ही नहीं है. अन्य सभी का साथ तो केवल स्वार्थ का बन्धन है। इन पाशों से बंधा हुआ मैं छटपटा रहा हूं भय ग्रस्त हो रहा हूं। मैं प्रत्येक पल मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा हूं, मेरे जीवन में सुख-सौभाग्य का सर्वथा अभाव है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर मेरे जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य क्या है? मुझे समझाने में समर्थ कोई शक्ति है तो वह केवल एकमात्र आप हैं।
इसीलिए हे गुरुदेव ! मैं अत्यन्त विगलित कण्ठ से अत्यन्त भाव-विह्वलता के साथ आपको दण्डवत् प्रणाम करता हुआ, आपके श्री चरणों में अपने सिर को रखता हुआ प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे उस मर्म, उस रहस्य को समझाएं, जो मेरे जीवन का लक्ष्य है, जिसमें मेरे जीवन की पूर्णता है, क्योंकि मैं आप की शरण में हूं और निश्चित रूप से केवल और केवल एकमात्र आप की ही शरण में हूं।
(क्रमशः)
जब "ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः" गुरु मंत्र जैसा महामंत्र मेरे पास है तो अन्य मंत्रों की मुझे क्या आवश्यकता है? इसलिए मैं चाहता हूं कि जीवन का प्रत्येक क्षण आपके साथ, आपके लिए व्यतीत हो, मेरा शरीर आपके काम आ सके, मैं आपके चरणों से लिपट सकूं मैं आपकी देह की सुगन्ध से सुवासित हो सकूं और यदि आप से अलग होना ही पड़े तो मछली की तरह तड़प कर मर जाऊं, पत्थर पर सिर फोड़ कर मर जाऊं, मृत्यु प्राप्त हो जाए. मैं तो आप से ऐसा ही आशीर्वाद चाहता हूं कि मैं एक क्षण भी आप की जुदाई सहन नहीं कर सकूं। मेरी आंखों से प्रवाहित आंसू की प्रत्येक बूंद पर आपका बिम्ब हो, मैं जीवन की ऐसी स्थिति चाहता हूं और यदि ऐसी स्थिति प्राप्त नहीं होती है तो मेरे जैसा पापी, अधर्मी कोई नहीं हो सकता, आप मुझे आशीर्वाद दें तो ऐसा ही आशीर्वाद दें कि मैं हर क्षण आप के पास रह सकूं आपको अपनी आंखों से पी लेना चाहता हूं आप से एकाकार हो जाना चाहता हूं क्योंकि गुरुदेव मैं आपकी शरण में हूं, केवल और केवल मात्र आपकी शरण में हूँ।
चैतन्य रुपं अपरं सदैव
प्राणोदवेवं चरणं सदैव।
सतीर्थो सदैवं भवतं वदैवं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
और लोगों ने अनुभव किया हो या न किया हो, किन्तु मैं तो आपके शरीर का एक हिस्सा हूं। मैंने अनुभव किया है कि आप हिमालय से भी अधिक गर्व युक्त और सागर से भी ज्यादा विशाल हैं। आपका गर्वोन्नत भाल हिमालय से भी ज्यादा ऊंचा है, जब मैं आप की तरफ देखता हूं तो मेरी आंखें चौंधिया जाती है, मैं नहीं समझ पाता हूं कि इस श्रेष्ठतम-गर्वोन्नत भाल को आंखों के माध्यम से कैसे ह्रदय में समाहित कर सकूंगा? मैं जब आपके वक्षस्थल की ओर देखता हूं तो सातों समुद्र हिलोरे मारते हुए दिखायी पड़ते हैं और मैं आपके वक्षस्थल में दुबक जाना चाहता हूं, जहां मुझे सुख-सौभाग्य, तृप्ति व पूर्णता प्राप्त हो सकेगी। जब मैं आप के सम्पूर्ण शरीर को देखता हूं तो मेरे सामने समस्त ब्रह्माण्ड साकार हो उठता है।
मुझे आपके शरीर में ही इन्द्र लोक, ब्रह्म लोक, रुद्र लोक दिखाई देता है. फिर मैं ब्रह्माण्ड साधना क्यों करूं, उससे होगा भी क्या ? आपके चेहरे पर आई मुस्कुराहट से ही सारे ब्रह्माण्ड में आहलाद व्याप्त हो जाता है, और इस पूरे ब्रह्माण्ड को जब मैं अपने सम्मुख देखता हूं तो अपने-आप को बहुत छोटा और नगण्य लगने लगता हूं, ऐसा लगता है कि इन लाखों-करोड़ों लोगों में जहां महानतम ऋषि हैं, समस्त देव योनियां हैं, ब्रह्मा, विष्णु रुद्र और अगस्त्य, पुलस्त्य, अत्रि, कणाद जैसे ऋषि हैं, इन सबके आगे तो मेरा अस्तित्व एक अत्यन्त सूक्ष्म कण के समान दिखाई देता है। इसके बावजूद भी आपने इस कण को अपनाया इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है? इस कण पर आपने कृपा-दृष्टि की अपने हाथों का स्पर्श प्रदान किया, यह मेरे जीवन का सौभाग्य है, अहोभाव है, मेरे पूर्व जन्मों के पुण्यों का उदय है।
मुझे गर्व है कि मैं ब्रह्माण्ड का एक हिस्सा बन सका। आपकी तुलना हो ही नहीं सकती, हजारों जन्म लेने के बाद भी आपके मेरी बराबर चिन्तन कर ही नहीं सकता। दीपक से सूर्य की बूंद से सागर की तुलना नहीं हो सकती, ठीक इसी प्रकार मेरी और आप की तुलना करना ही व्यर्थ है। यदि मैं इस ब्रह्माण्ड का एक कण बना हुआ रह सकूं तो यह मेरी बहुत बड़ी उपलब्धि है कि इस ब्रह्माण्ड में मेरा अस्तित्व है। इससे भी बड़ा सौभाग्य यह है कि इस कण पर आप की कृपा-दृष्टि है। इससे बड़ा सौभाग्य मुझे क्या चाहिए? जब मैं पूर्ण भावना के साथ आपके चरणों में झुकता हूं तो मुझे वहां विश्वनाथ की नगरी दिखाई देती है. समस्त तीर्थों का दर्शन स्वतः हो जाता है, ये मात्र चरण ही नहीं हैं, अपितु सम्पूर्ण देवलोक हैं। जब श्री चरणों को आंसुओं से प्रक्षालित करता हूं तो ऐसा लगता है कि समस्त देवताओं का पूजन एक साथ कर लिया हो।
आपका यह दिव्यतम, अद्वितीय शरीर, गर्वोन्नत भाल तीक्ष्ण और सुन्दर आंखें और होठों पर खेलती मुस्कुराहट मुझे पागल कर देती है। मैं इन सब में खो जाता हूं, हर क्षण इस मुस्कान में निमग्न रहता हूं, हर क्षण यह इच्छा रहती है कि दौड़ कर आपके पास आऊं। जब मैं वक्षस्थल की दृढ़ता को देखता हूं तो स्पष्ट होता है कि आपके वक्षस्थल में इतनी तीव्रता, इतना भाव है कि यदि हिमालय से टकरा जाए तो कई कदम उसे पीछे हटना पड़ जाए। ऐसा अद्वितीय वक्षस्थल न किसी का रहा है, न किसी का हो सकता है, मैंने इस वक्षस्थल में सिमट कर इसका स्पर्श व इसकी गर्मी का अहसास किया है, उस ऊष्णता को मैंने अपने हृदय में, अपने प्राणों में उतारा है। आपके लम्बे और अजानु बाहु, ताकत और प्रभुता के परिचायक हैं। ऐसा लगता है कि स्वयं इन्द्र मेरे सामने उपस्थित हो गया हो।
(क्रमशः)
वास्तव में ही आपके वरदहस्त आपकी श्रेष्ठता और आपकी अद्वितीयता को वर्णित नहीं किया जा सकता। सहस्रों मुख से भी यदि शेषनाग आपके गुणों को स्पष्ट करे तो उनके लिए सम्भव नहीं है।
मैं तो एक अकिंचन हूं, शब्दों का भिखारी हूं मैं आप का वर्णन कर ही नहीं सकता, मैं तो आप को एकटक देखते हुए इन आंखों के माध्यम से हृदय में उतार लेना चाहता हूं, मैं अपनी धड़कन में आपकी धड़कन को मिला देना चाहता हूं, अपने-आपको आप के चरणों में निमग्न कर देना चाहता हूं, अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहता हूं, क्योंकि गुरुदेव मैं आप का हूं, केवल मात्र आपका हूं और आपकी शरण में हूं। इस ब्रह्माण्ड में आपके अलावा और कोई मेरा रखवाला नहीं है, कोई मेरा अस्तित्व रखने वाला नहीं है. मैं तो केवल और केवल आप की ही शरण में हूं।
चैतन्य रुपं भवतं सदैव,
ज्ञानोच्छवासं सहितं तदैव।
देवोत्त्थां पूर्ण मदैव शक्तीं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
इस समस्त ब्रह्माण्ड की शक्तियां वह चाहे महाकाली, महालक्ष्मी या महासरस्वती हो, चाहे वह बगला, तारा, धूमावती या जगदम्बा, किसी भी प्रकार की शक्ति हो, मैं तो यही देखता हूं कि वे आपके सामने आप को प्रसन्न करने के लिए नृत्य कर रही हैं. आप की कृपा कटाक्ष पाने के लिए प्रयत्नशील है। जब मैं यह देखता हूं तो सोचता हूं कि आप को छोड़कर अन्य कौन-सी साधना मेरे लिए उपयुक्त है? क्या होगा इन शक्तियों की आराधना से? क्या मिलेगा नवार्ण मंत्र के उच्चारण से? इन सब को तो आपके सामने नृत्य करते देखता हूं। यह सब देखकर मैं सोचता हूं कि आप से बड़ा देवत्व क्या हो सकता है? आप अपने-आप में समग्र हैं, आप के दर्शन मात्र से ही मैं पूर्ण कुण्डलिनी जागरण व क्रिया योग से सम्पन्न हो जाता हूं, पूर्णत्व प्राप्त कर लेता हूं और सही अर्थों में देखा जाए तो वशिष्ठ, विश्वामित्र व अत्रि बन जाता हूं, ब्रह्मा व रुद्र बन जाता हूं।
आप के दर्शन मात्र से ही मैं इन देवताओं व ऋषियों के समान बन जाता हूं। यह सम्भव है कि वे थोड़ा आगे हों और मैं थोड़ा पीछे रुका हुआ हूं। हो सकता है कि उनके और मेरे बीच में फासला हो, लेकिन आप की कृपा-दृष्टि उन पर है तो उनसे भी पहले मुझ पर है, यह मेरे लिए प्रसन्नता, सौभाग्य व आनन्द की बात है। मुझे मंत्र, तंत्र, योग, दर्शन और मीमांसा नहीं चाहिए, क्योंकि आपके मुंह से निकला शब्द मंत्र है, तंत्र है, यदि उन शब्दों को अपने जीवन में उतार लेता हूं तो ये सब मेरे सामने स्पष्ट हो जाएगा. आपके स्पर्श मात्र से सारी योग की भावभूमियां मेरे शरीर में अवतरित हो जाएगी।
मैं तो आपके चरणों में निमग्न हो जाना चाहता हूं। जब मैंने समुद्र को देखा है तो बूंद को देख कर क्या करूंगा? वसन्त के आगे एक हल्का सुगन्ध का झोंका मिला भी तो उससे क्या हो जाएगा? गुरुदेव मैं तो केवल यही मंत्र जानता हूं कि मैं आपका हूं, आप और आपकी कृपा-दृष्टि ही मेरी है। मैं तो यही साधना जानता हूं कि मैं आपकी शरण में हूं।
(क्रमशः)
न तातो वतान्यै न मातं न भ्रातं
न देहो वदान्यै पत्निर्वतेवं।
न जानामी वित्तं न वृत्ति न रुपं
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
न मैं तो माता को जानता हूं, न पिता को जानता हूं, क्योंकि उनसे सिर्फ स्वार्थमय सम्बन्ध है। पिता इसलिए मुझे पुत्र कहते हैं कि मैं जीवन में उनके काम आ सकूं। मेरा न तो भाई है, न पत्नी है, न बन्धु है, न कोई बान्धव है और न ही वित्त है, न धन है और न ही कोई ऐश्वर्य है। मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं, क्योंकि मैं जीवन में कुछ चाहता ही नहीं हूं। यह सब तो क्षणभंगुर हैं. इनके द्वारा मुझे मेरे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। ये तो इस जीवन यात्रा के पड़ाव है, क्योंकि मैं जन्म से मृत्यु की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा हूं श्मशान की यात्रा ये मेरे सहायक हैं, जो मुझे ठेल कर उधर अग्रसर कर रहे हैं। ये तो मात्र मेरी देह, मेरी सेवा व मेरे जीवन का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करना चाहते हैं। इससे तो मैं एक देहधारी गंदा कीड़ा बन जाऊंगा। मैं पुत्र उत्पन्न करूंगा तो ज्यादा से ज्यादा वह मेरी अर्थी को कंधा दे देगा, पत्नी मेरी मृत्यु पर चार आंसू बहा देगी, किन्तु यह मेरे जीवन का प्रयोजन नहीं है, मैं उस स्थान पर खड़ा हूं, जहां ये सब तुच्छ हैं।
हिमालय के सामने एक बड़ा पत्थर कंकर के समान दिखता है. उसी प्रकार आपके सामने ये सारे सम्बन्ध बेमानी और अस्तित्व हीन लगने लगे हैं। मैं इन सम्बन्धों से जीवित नहीं रहना चाहता, इन बनानों में फंसना नहीं चाहता, ये मेरे जीवन का अभिशाप और पैरों की बेड़ियां हैं जो मुझे जकड़े हुए हैं।मैं एक अंधेरी कोठरी में फंस गया हूं मुझे द्वार नहीं मिल रहा है. दीवारों से टकरा कर मेरा सिर लहूलुहान हो गया है। इस समाज ने अंधकार व आलोचना के अलावा मुझे कुछ नहीं दिया है।मैं इस अंधकार से, इस दल-दल से निकलना चाहता हूँ।
मैं गुरुमय बन करके अपने जीवन को पवित्र और दिव्य बनाना चाहता हूं। मैं उस स्थिति को प्राप्त करना चाहता हूं जिसको ऋषियों ने "अहं ब्रह्मास्मि" कहा है। आप मुझ पर कृपा करें, वापस इन बंधनों में नहीं फंसने दें, मुझे किसी प्रकार का कोई मोह नहीं रहा है, यदि कोई मोह है तो आप उसे समाप्त करें। मैं मानसरोवर के पास आकर प्यासा नहीं रहना चाहता, आपके सामने आकर दुर्भाग्यमय नहीं बनना चाहता। मैं आपके चरणों में समर्पण चाहता हूं आपसे एकाकार हो जाना चाहता हूं, आपके प्राणों की धड़कन बनना चाहता हूं।हे गुरुदेव! मैं आपकी शरण में हूं और इस ब्रह्माण्ड में केवल मात्र आपकी ही शरण में हूं।
वदियं त्वदेयं भवत्वं भवेयं,
चिन्त्यंविचिन्त्यं सहितं सदैव।
आर्तोनवातं भवमेक नित्यं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार रहा हूं पूरी शक्ति प्राणों में भरकर उच्चारण कर रहा हूं मैं अपनी बात आप तक पहुंचाना चाहता हूं मेरा सारा शरीर कांप रहा है. आंखों से आंसू प्रवाहित हो रहे हैं. मुंह से वाणी नहीं निकल पा रही है. पूरे शरीर के रोम-रोम से आवाज आने लग गई है,मैं अपने आप में नहीं रहा हूं।
मैं एक ऐसी बूंद हूं जो अंगारे पर पड़ते ही समाप्त हो जाती है,मैं एक बादल का टुकड़ा हूं जो किसी पहाड़ से टकरा कर समाप्त हो जाना चाहता है।मैं तो एक ऐसा कण बनना चाहता हूं जो आप का स्पर्श प्राप्त करना चाहता है।मैं आप में एकाकार और लीन होना चाहता हूं और यदि ऐसा सम्भव नहीं है तो यह जीवन मेरे लिए मूल्यहीन है,व्यर्थ है, एक जीवित लाश है जिसे अपने कंधे पर उठाए हुए मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा हूं।क्या मेरी पुकार आप तक नहीं पहुंच रही है? क्या आप के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है? ऐसा हो ही नहीं सकता है,प्रभाव तो अवश्य पड़ रहा होगा,किन्तु मेरा ही कोई दुर्भाग्य है कि आप आगे बढ़कर मुझे अपना नहीं रहे हैं, मेरे अन्दर अवश्य कोई न्यूनता होगी, कि आपकी कृपा-दृष्टि मेरे ऊपर हो ही नहीं रही है. मेरे पाप ही आपके और मेरे बीच में पर्दा डाल रहे हैं. इन सब से आप ही मुझे बचाएं मेरे अन्दर इतनी क्षमता नहीं है कि इन्हें अपने से दूर ढकेल सकूं। मुझे कोई साधना या सिद्धि नहीं आती है, किसी मंत्र का ज्ञान नहीं है। मुझे तो केवल एक शब्द "गुरु" ही बोलना आता है। मैंने तो केवल एक यही मंत्र सीखा है कि "गुरुदेव मैं आपकी शरण में हूं और गुरुदेव मात्र आपकी ही शरण में हूं।"
अवतं सदेवं भवतं सदैवं,
ज्ञानं सदेवं चिन्त्यं सदैवं।
पूर्णं सदैवं अवतं सदैवं,
गुरुर्वै शरण्यं गुरुर्वै शरण्यं।।
कई-कई जन्मों से आपका और मेरा साथ रहा है. कई-कई जन्मों से आपने मुझे खींच कर सही रास्ते पर खड़ा किया है कई-कई जन्मों से आपने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। हर बार आपने मुझे समझाया है, हर बार मुझे चेतना दी है मेरे प्राणों को झंकृत किया है. हर बार आपने मुझे यह बताया है कि जीवन की पूर्णता क्या है?
(क्रमशः)
इसके बावजूद मैं अज्ञानी हूं बुद्धि से ग्रस्त हूं आपको मैं समझ नहीं पा रहा हूं, इसलिए समझ नहीं पा रहा हूं कि आप हर क्षण परिवर्तनशील हैं. हर क्षण एक नए स्वरूप में मेरे सामने खड़े हो जाते हैं। मैं एक स्वरूप को समझने का प्रयास करता हूं तो दूसरा, तीसरा, चौथा और न जाने कितने स्वरूप मेरे सामने आ जाते हैं।
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि किस स्वरूप को समझू? ज्यों ही मैं समझने का प्रयत्न करता हूं आप मेरे सामने माया का पर्दा डाल देते हैं और मैं फिर आपको सामान्य मानव समझने लगता हूं और अपने जैसा मानव समझने लगता हूं। इस माया के आवरण में फंसकर उसी जगह जा कर खड़ा हो जाता हूं, जहां से मैं चला था। प्रभु! ऐसा मत करिए. यह बार-बार मेरी परीक्षा मत लें, बार-बार माया के आवरण में मुझे मत डालिए. बार-बार मुझे पीछे मत हटाइये, मुझमें किसी प्रकार का बल, साहस या क्षमता नहीं है, मैं तो अत्यन्त तुच्छ और नगण्य हूं। मुझमें कोई ज्ञान की चेतना नहीं है, यदि आप की कृपा-कटाक्ष मेरे ऊपर है तो आप मेरी भावनाओं को जाग्रत करें। यदि आप अपना समझते हैं तो मुझे अपने सीने से लगा लीजिए, मैं आप की धड़कन को अपने जीवन में उतार सकूं, अपने प्राणों को आप में लीन कर सकूं, आप से अलग मेरा अस्तित्व नहीं रहे, बूंद पूर्णतया समुद्र में विसर्जित हो जाए. मैं इसी प्रकार आप में समाहित हो जाना चाहता हूं, क्योंकि मेरा एकमात्र सहारा मेरा एकमात्र अवलम्ब गुरुदेव! आप हैं. मैं आप की शरण में हूं, केवल मात्र आप की शरण में हूं।
(दुर्लभोपनिषद्)