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जैसे जैसे हम् आधुनिक होते गए वैसे वैसे हम् हमारी जड़ों को काटते गए उन्हीं जड़ों में से एक महत्वपूर्ण जड़ है पितृ ।

सबसे पहले पितृ होते कौन हैं ?

इन्हें आम भाषा में पितर , घर का प्रेत भी बोलते हैं। यह आपके परिवार की वो आत्माएं होती हैं जिनका अभी दूसरा जन्म नहीं हुआ है मुक्ति नहीं हुई है । ये आत्माएं पितृ बनके पितृ लोक नामक सूक्ष्म लोक में वास करते हैं । यह लोक हमारी धरती पर ही स्थित होता है । जिसके कारण पितरों से संपर्क बनाना या इनकी कृपा प्राप्त करना सहज हो जाता है । वहीं दूसरी और यह रूष्ट होने पर शीघ्र विपरीत प्रभाव भी दिखाते हैं।

इनमें अलग अलग श्रेणी होती है पितृ की जिसे आऊत प्रेत , जुझार , सगस , वीर आदि कहकर संबोधित करते हैं । इनपर बाद में बात करेंगे ।

इनका पितृ लोक में फसने का मुख्य कारण होता है अपूर्ण इच्छाएं एवं अविवाहित मृत्यु को प्राप्त होना , निसंतान मृत्यु को प्राप्त होना , अन्य भी कारण कहे गए है इसके जैसे पराई स्त्री का हरण , माता पिता की हत्या करना , गौ हत्या आदि , इनके विषय में गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है ।

पितृ हमारा सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण रक्षा कवच होते हैं, पितृ रूष्ट होने पर अन्य देवता तक आपका पूजन नहीं पहुंचता है न ही कोई अन्य कार्य सिद्ध होता है । यह ठीक उसी प्रकार है अगर नींव कमजोर हो तो ऊपर की मंजिल नहीं डाली जा सकती और अगर नींव मजबूत है तो मंजिल के ऊपर मंजिल डाल सकते हैं ।

हर व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वो अपने कुल के पितरों की मुक्ति एवं सद्गति के लिए प्रयास करें , जिसके विपरीत आज लोग अपने घर के पितृ को अपने स्वार्थ के लिए बैठा कर उनसे काम लेते है । जो कि पितृ और स्वयं दोनों के लिए हितकारी नहीं है ।

पितृ दोष या पितृ के रूष्ट होने के लक्षण क्या है ?

● घर में बरकत न रहना
● किसी बात को लेकर हर छोटी छोटी बात पर झगड़ना
● घर के एक दूसरे सदस्य को बैर भाव से देखना
● संतान नहीं होना
● परिवार में किसी भी प्रकार का संतुलन नहीं होना
● हमेशा बीमारी बने रहना
● अजीब अजीब घटना होना
● घर के सदस्य आपस में किसी की भी नहीं बने
● संतान माता-पिता का आदर नहीं करती हैं
● माता-पिता भी संतान को हमेशा प्रताड़ित करते रहते हैं
● मरे हुए बच्चों के सपने आना
● मरी स्त्रियों दिखना
● हमेशा मन में शंका बनी रहना कि कुछ न कुछ होने वाला है
● आदमी अपने कार्य की सफलता के लिए आश्वस्त रहता है 95 पर्सेट तक पहुंचता है और फिर नीचे गिर जाता है
● हर बनते काम बिगड़ जाना
● सपने में बार बार सर्पो का दिखना
● परिवार के बुजुर्गों का स्वप्न में दिखना
● सपनो में अपने माता पिता दादा दादी को रोते हुए देखना
● घर परिवार में क्लेश होना

जो कुंवारे पितृ होते है उनका दिन चौदस का होता है और जो विवाहित होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हो उनका मुख्य दिन अमावस्या का होता है , जो पूर्ण आयु में जाते है उनके लिए पूर्णिमा ।

पितृ प्रसन्नता हेतु सबसे आसान उपाय तो यह है कि इन 4 दिनों में ( दोनो चतुर्दशी , अमावस्या एवं पूर्णिमा ) पितृ के लिए नियमित धूप दीप करे तो वो हमेशा प्रसन्न रहते है ।

दूसरा एक सरल एवं असरदार उपाय है वो है - पितृ के लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ । 

यह उपाय आप श्राद्ध में करें ।

पूर्णिमा के दिन सुबह पितरों को हल्दी चावल से निमंत्रण दें कि आज से मैं आपके लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ कर रहा हूँ आपको यह पाठ सुनने के लिए रोज आना होगा जो आपको समय उचित लगे उन्हें वो समय भी बता दें कि इतने बजे पाठ करूंगा । ऐसा कहकर हल्दी चावल दहली के बाहर डाल दें ।

अब जो निश्चित समय है उससे थोड़ा पहले से यह तैयारी कर लें ।

अपने कक्ष को झाड़ू पोंछा करके साफ करें । फिर गौमूत्र का छिड़काव करें । गाय के गोबर से भूमि लीपें । फिर उसपर सफेद वस्त्र बिछाएं , 2 गांठ का एक हरा बांस का टुकड़ा लाएं । इसके एक तरफ सफेद कपड़ा कलावे से बांध दें । सुपारी जनेऊ और हल्दी की गांठ लाएं ।

सफेद वस्त्र के ऊपर 1 पीछे और 7 ढेरी आगे लगाएं चावल की एक के ऊपर बांस को खड़ा रखें जसमे वस्त्र बांधा हुआ हिस्सा ऊपर की तरफ होगा और बाकी 7 ढेर पर एक एक सुपारी रखें और सुपारी पर जनेऊ पहनाए , सुपारी की जगह चुना पत्थर मिल जाये तो अति उत्तम होगा । अब आपके दिये गए निश्चित समय पर दहली पर खड़े होकर हल्दी कुमकुम और अक्षत डालकर पितरों का स्वागत करें और उनके अंदर आने का बोलें और सफेद आसन के ऊपर उनका आसान बताये और कहे आप अपने आसन पर विराजमान होजाये । अब आप धूप दीप प्रज्वलित करें । बांस पर और चुना पत्थरों ( सुपारी ) पर हल्दी कुमकुम आदि चढ़ाएं ।

अपने सामने श्रीमद्भागवत गीता रखें , ग्रंथ का कुमकुम अक्षत से पूजन करें ।

पितृ हेतु भोजन एवं पानी रखें भगवान विष्णु के लिए 2 पीली मावे की मिठाई रखें ।

अब पाठ शुरू करें , रोज इसी प्रकार पाठ करना है संभव हो तो रोज सभी अध्यायों का पाठ करें और अगर सामर्थ्य नही हो तो 16 दिन में 18 अध्यायों का पाठ पूरा करलें ।

पाठ पूरा होने के बाद जो पितृ के लिए भोग रखा था वो गाय के उपलों की अगियारी करके उसपर भोजन करवाये फिर जल अर्पित करें।

फिर उन्हें कहे अब अपने स्थान को चले जाइये कल फिर इस समय पर आजायेगा । आगे भी इसी तरह से करना है

जब 16 दिन के पाठ पूरे होजाये तब भगवान विष्णु से अपने पितरों की सद्गति हेतु प्रार्थना करें । उनहे वैकुंठ में स्थान देने के लिए प्रार्थना करें ।

अगर आप चाहे तो पाठ 15 दिन में पूरे करके सोलहवें दिन सर्व पितृ अमावस्या को ब्राह्मण जन से पितृ हेतु तर्पण भी करवा सकते है । 7 ब्राह्मणों को सात सफेद वस्त्र दान करें ।

क्रिया पूरी होने के बाद सभी सामग्रियों को एकत्रित करके किसी बहती नादि में प्रवाहित करदें । क्रिया के बाद निश्चित लाभ होगा ।

अंतिम दिन पितरों को वापिस आने का नही बोलें उन्हें बोलें की अबसे आप श्री हरि के लोक में वास करना ।
आप चाहे तो अंतिम दिन तर्पण एवं त्रिपिंडी भी करवा सकते है । सोने पर सुहागा होगा ।

अब दूसरा प्रयोग बताते है ।

🚩🚩 दूसरा प्रयोग 🚩🚩

यहां एक स्तोत्र दे रहा हूँ । जिसकी पाठ विधि इस प्रकार है ।

पहले इसका एक पाठ पूरा होगा १ श्लोक से लेकर २४ फिर २२ २३ २४ के क्रम में दो बार पाठ करें ।

एक पूरे पाठ का क्रम यह होगा -

१ २ ३ ...... २४ , २२ २३ २४ , २२ २३ २४

फिर इसका हवन भी इसी क्रम से होगा काले तिल और गाय के घी से ।

१ , २२ , २३ , २४ वे श्लोक में आहुति के समय स्वधा बोलके आहुति देनी है और अन्य श्लोकों में स्वाहा बोलकर ।

स्तोत्र --

नमो वः पितरो, यच्छिव तस्मै नमो, वः पितरो यतृस्योन तस्मै।
नमो वः पितरः, स्वधा वः पितरः । ।।१।।

नमोऽस्तु ते निर्ऋर्तु, तिग्म तेजोऽयस्यमयान विचृता बन्ध-पाशान्।
यमो मह्यं पुनरित् त्वां ददाति। तस्मै यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे । ।।२।।

नमोऽस्त्वसिताय, नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय वभ्रवे नमो, नमो देव जनेभ्यः। ।।३।।

नमः शीताय, तक्मने नमो, रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येद्युरूभयद्युरभ्येति, तृतीय कायं नमोऽस्तु तक्मने। ।।४।।

नमस्ते अधिवाकाय, परा वाकाय ते नमः। सुमत्यै मृत्यो ते नमो, दुर्मत्यै त इदं नमः। ।।५।।

नमस्ते यातुधानेभ्यो, नमस्ते भेषजेभ्यः। नमस्ते मृत्यो मूलेभ्यो, ब्राह्मणेभ्य इदं मम। ।।६।।

नमो देव वद्येभ्यो, नमो राज-वद्येभ्यः। अथो ये विश्वानां, वद्यास्तेभ्यो मृत्यो नमोऽस्तु ते। ।।७।।

नमस्तेऽस्तु नारदा नुष्ठ विदुषे वशा। कसमासां भीम तमा याम दत्वा परा भवेत्। ।।८।।

नमस्तेऽस्तु विद्युते, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्तेऽस्तु वश्मने, येना दूड़ाशे अस्यसि। ।।९।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते प्राण तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।१०।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते रूद्र तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।११।।

नमस्ते जायमानायै, जाताय उत ते नमः। वालेभ्यः शफेभ्यो, रूपायाघ्न्ये ते नमः। ।।१२।।

नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते प्राण विद्युते, नमस्ते प्राण वर्षते। ।।१३।।

नमस्ते प्राण प्राणते, नमोऽस्त्वपान ते।
परा चीनाय ते नमः, प्रतीचीनाय ते नमः, सर्वस्मै न इदं नमः। ।।१४।।

नमस्ते राजन् ! वरूणा मन्यवे, विश्व ह्यग्र निचिकेषि दुग्धम्।
सहस्त्रमन्यान् प्रसुवामि, साकं शतं जीवाति शरदस्तवायं। ।।१५।।

नमस्ते रूद्रास्य ते, नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्य मानायै, नमो निपतितायै। ।।१६।।

नमस्ते लांगलेभ्यो, नमः ईषायुगेभ्यः। वीरूत् क्षेत्रिय नाशन्यप् क्षैत्रियमुच्छतु। ।।१७।।

नमो गन्धर्वस्य, नमस्ते नमो भामाय चक्षुषे च कृण्मः।
विश्वावसो ब्रह्मणा ते नमोऽभि जाया अप्सासः परेहि। ।।१८।।

नमो यमाय, नमोऽस्तु, मृत्यवे, नमः पितृभ्य उतये नयन्ति।
उत्पारणस्य यो वेद, तमग्नि पुरो दद्येस्याः अरिष्टतातये। ।।१९।।

नमो रूद्राय, नमोऽस्तु तक्मने, नमो राज्ञ वरूणायं त्विणीमते।
नमो दिवे, नमः पृथिव्ये, नमः औषधीभ्यः। ।।२०।।

नमो रूराय, च्यवनाय, रोदनाय, घृष्णवे। नमः शीताय, पूर्व काम कृत्वने।। ।।२१।।

नमो वः पितर उर्जे, नमः वः पितरो रसाय। ।।२२।।

नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरा मन्धवे। ।।२३।।

नमो वः पितरां पद घोरं, तस्मै नमो वः पितरो, यत क्ररं तस्मै। ।।२४।।

कई बार पितृ तांत्रिक बंधन में बंधे होते है तब कितना ही कर्म कांड करने पर भी उनका शुभ प्रभाव नही मिलता , ऐसी स्थिति में तांत्रिक प्रयोग के द्वारा उनकी मुक्ति का मार्ग खोला जाता है ।
चलिए यह एक अलग विषय है आगे,,,

गणेशजी को दूर्वा और मोदक चढ़ाने का महत्व क्यों..??

भगवान गणेशजी को 3 या 5 गांठ वाली दूर्वा (एक प्रकार की घास) अर्पण करने से शीघ्र प्रसन्न होते और भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। इसीलिए उन्हें दूर्वा चढ़ाने का शास्त्रों में महत्त्व बताया गया है। इसके संबंध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है-"एक समय पृथ्वी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था।उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-साथ स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था। यह भगवद्-भक्ति व ईश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगों को जिंदा निगल जाता था। देवराज इंद्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा परास्त होना पड़ा। अनलासुर से पराजित होकर समस्त देवता भगवान शिव के पास गए। उन्होंने बताया कि उसे सिर्फ गणेश ही खत्म कर सकते हैं, क्योंकि उनका पेट बड़ा है इसलिए वे उसको पूरा निगल लेंगे। इस पर देवताओं ने गणेश की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। गणेशजी ने अनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गए। इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी। अनेक उपाय किए गए, लेकिन ज्वाला शांत न हुई। जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई, तो ये तुरंत कैलास गए और । दूर्वा एकत्रित कर एक गांठ तैयार कर गणेश को खिलाई, जिससे उनके पेट की ज्वाला तुरंत शांत हो गई।

गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है। गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में कहा है–

गाइये गणपति जगवंदन । 
संकर सुवन भवानी नंदन। 
सिद्धि-सदन गज बदन विनायक । 
कृपा-सिंधु सुंदर सब लायक ॥
मोदकप्रिय मुद मंगलदाता । 
विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ॥

इसमें भी उनकी मोदकप्रियता प्रदर्शित होती है। महाराष्ट्र के भक्त आमतौर पर गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं। उल्लेखनीय है कि मोदक मैदे के खोल में रवा, चीनी, मावे का मिश्रण कर बनाए जाते हैं। जबकि लड्डू मावे व मोतीचूर के बनाए हुए भी उन्हें पसंद है। जो भक्त पूर्ण श्रद्धाभाव से गणेशजी को मोदक या लड्डुओं का भोग लगाते हैं, उन पर वे शीप प्रसन्न होकर इच्छापूर्ति करते हैं।

मोद यानी आनंद और 'क' का शाब्दिक अर्थ छोटा-सा भाग मानकर ही मोदक शब्द बना है, जिसका तात्पर्य हाथ में रखने मात्र से आनंद की अनुभूति होना है। ऐसे प्रसाद को जब गणेशजी को अर्पण किया जाए तो सुख की अनुभूति होना स्वाभाविक है। एक दूसरी व्याख्या के अनुसार जैसे ज्ञान का प्रतीक मोदक यानी मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान का प्रसाद भी मीठा होता है।

गणपति अथर्वशीर्ष में लिखा है

यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति स मेघावान् भवति ॥ 
यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फलमवाप्राप्नोति ॥

अर्थात जो भगवान को दूर्वा चढ़ाता है वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो (धान-लाई) चाढाता है, वह यशस्वी हो जाता है, मेधावी हो जाता है और जो एक हजार लड्डुओं का भोग गणेश भगवान् को लगाता है, वह वांछित फल प्राप्त करता है।

गणेशजी को गुड भी प्रिय है। उनकी मोदकप्रियता के संबंध में एक कथा पद्मपुराण में आती है। एक बार गजानन और कार्तिकेय के दर्शन करके देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने माता पार्वती को एक दिव्य लड्डू प्रदान किया। इस लड्डू को दोनों बालक आग्रह कर मांगने लगे। तब माता पार्वती ने लड्डू के गुण बताए-इस मोदक की गंध से ही अमरत्व की प्राप्ति होती है। निस्संदेह इसे सूंघने या खाने वाला संपूर्ण शास्त्रों का *मर्मज्ञ, सब तन्त्रो में प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान, ज्ञान-विज्ञान विशारद और सर्वज्ञ हो जाता है। फिर आगे कहा-"तुम दोनों से जो धर्माचरण के द्वारा अपनी श्रेष्ठता पहले सिद्ध करेगा, *वही इस दिव्य मोदक को पाने का अधिकारी होगा।'

माता पार्वती की आज्ञा पाकर कार्तिक अपने तीव्रगामी वाहन मयूर पर आरूढ होकर त्रिलोक की तीर्थयात्रा पर चल पड़े और मुहर्त भर में ही सभी तीर्थों के दर्शन, स्नान कर लिए। इधर गणेशजी ने अत्यत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक माता-पिता की परिक्रमा की और हाथ जोड़कर उनके सम्मुख खड़े हो गए और कहा कि तीर्थ स्थान, देव स्थान के दर्शन, अनुष्ठान व सभी प्रकार के व्रत करने से भी माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर पुण्य प्राप्त नहीं होता है, अतः मोदक प्राप्त करने का अधिकारी मैं हूँ। गणेशजी का तर्कपूर्ण जवाब सुनकर माता पार्वती ने प्रसन्न होकर गणेशजी को मोदक प्रदान कर दिया और कहा कि माता-पिता की भक्ति के कारण गणेश ही यज्ञादि सभी शुभ कार्यों में सर्वत्र अग्रपूज्य होंगे।

तज मन हरि विमुखन को संग भावार्थ सहित।।


तज मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति उपजत है, परत भजन में भंग॥ [1]
कहा होत पय पान कराए विष, नहिं तजत भुजंग।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाऐ गंग॥ [2]
स्वर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूपन अंग।
गज को कहा सरित अन्हवाऐ, बहुरि धरै वह ढंग॥ [3]
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करौ निषंग।
'सूरदास' कारी काँमरि पे चढ़त न दूजौ रंग॥ [4]
- श्री सूरदास जी, सूर सागर, वीनय तथा भक्ति (44)


भावार्थ:

हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं, उन प्राणियों का संग न कर। उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं, उनके संग से क्या लाभ? [1]

आप चाहे कितना ही दूध साँप को पिला दो, वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा, कुत्ता (स्वान) कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता। [2]

आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता, मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा। एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है। [3]

भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें, चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है)।" [4]

श्री राधा ।।


परम धन राधा नाम आधार ।
जाकौ श्याम मुरली में टेरत, सुमिरत बारम्बार ॥ [1]
जंत्र, मंत्र और वेद तंत्र में, सभी तार को तार ।
श्री शुक, प्रगट कियू नहीं जाएं, जानी सार को सार ॥ [2]
कोटिन रूप धरे नंदनंदन, तोउ न पायौ पार ।
'व्यासदास' अब प्रगट बखानत डारि भार में भार ॥ [3]
- श्री हरिराम व्यास, व्यास वाणी, पूर्वार्ध (38)

श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि श्री राधा नाम ही हमारा परम धन है।  जिस नाम को श्री कृष्ण मुरली में गाते हैं, और बार बार सुमिरन करते हैं । [1]

जंत्र, मन्त्र और वेद तंत्र में जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती जो नाम रहस्यों का भी परम रहस्य है। श्री शुकदेव परमहंस जी ने वेदों का सार का भी सार मान कर इसको प्रगट नहीं किया । [2] 

श्री कृष्ण कोटि रूप धारण कर के भी श्री राधा नाम का पार नहीं पा सके। श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि अब श्री राधारानी की ही कृपा जान उन्होंने  श्री राधा नाम प्रगट कर दिया, अब उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं (सब भाड़ में जाए) । [3]


कर्म और भाग्य ।।

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं तब फल चाखा।।


कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।

भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।

प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।

अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।

पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -

"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"


अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है -

"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"

अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।

'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?

अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।

भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं-

१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म

१) संचित कर्म :-  जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।

२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।

३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।

इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।

प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।

इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।

संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?