त्रिनेत्रधारी की पत्नी भी त्रिनेत्री ही होंगी। रुद्ध की पत्नी भी रौद्री ही होंगी। महाकाल की पत्नी भी महाकाली ही होंगी। और काल की अर्धांगिनी भी काली ही होंगी। रुद्र जब शांत भाव में लीन होते हैं तब उनकी अर्धागिनी आदि शक्ति मां भगवती पार्वती कहलाती हैं एवं पार्वती का स्वरूप भी उतना ही शांत, निर्मल और सरल होता है परंतु जब शिव रौद्र रूप धारण करते हैं तो पार्वती भी समयानुसार काली स्वरूप में प्रकट होती हैं । अर्धनारीश्वर स्वरूप का चिंतन भी यही है । अर्धनारीश्वर स्वरूप वह विलक्षण स्वरूप है, वह अभेदात्मक स्थिति है जहां पर शिव शक्ति, शिव पार्वती और महाकाली महाकाल एक ही हैं। मां भगवती जब काली स्वरूप में दुष्टों का संहार करती हैं और फिर एक बार शंकर के समान प्रलयकारी हो जाती हैं तब शिव ही उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं अन्यथा समस्त योनियां ही सदा के लिये समाप्त हो जायें। ठीक इसी प्रकार जब भगवान शिव पार्वती के सती हो जाने की स्थिति में प्रलयकारी हो जाते हैं तो फिर माँ भगवती पुनः अवतरित हो उन्हें शांत करती हैं। काली पूजन, शिव पूजन साधक की दृष्टि में अभेदात्मक है। जिसे शिव से प्रेम होगा वह स्वत: ही शिवत्व अर्थात कालशक्ति के प्रेमपाश में बंधा हुआ होगा ।
शिव भी परिवर्तनकारी हैं और महाकाली भी । महाकाली भी चर्मोत्कर्ष की द्योतक हैं तो शिव भी चर्मोत्कर्ष तक संहारक है। चाहे साधक हो, ऋषि हो या फिर गृहस्थ जीवन में आदि शक्तियों से साक्षात्कार तो निश्चित है। आदि शक्तियां शाश्वत है, निरंतर सर्वसुलभ एवं गतिमान हैं। यह बात अलग है कि शक्ति का स्वरूप क्या होगा । दृष्टि में दोष तो नहीं है, या फिर अर्न्तवच विकसित ही नहीं है परंतु सर्वभौमिकता से किसी भी जीव की मुक्ति नहीं है। साधक का तात्पर्य ही मस्तिष्क, ज्ञान, बुद्धि और चेतना को उस आयाम में स्थापित करना जहां वह आकृति से परे हट शक्ति के वास्तविक स्वरूप को समग्रता के साथ ग्रहण कर सके, उससे तारतम्य स्थापित कर सकें और सत्य से परिचित हो सकें। पंचभूतों का यह शरीर परमचेतना के द्वारा नियंत्रित हैं। मनुष्य के अंदर बैठी यह चेतना सार्वभौमिक चेतना का मात्र अंश ही है। सार्वभौमिक चेतना, सार्वभौमिक परमसत्ता का ही प्रतीक है एवं इससे सम्पर्क, साक्षात्कार चेतना के माध्यम से ही सम्भव है। दृष्टि, बुद्धि और ज्ञान इसके स्वरूपों, आकृति और वर्णन को ही प्रकट कर सकते हैं। स्वरूप, ज्ञान, आकृति भूतकाल को इंगित करते हैं। वर्तमान तो चेतना क्षेत्र की ही बात है।
महाशक्ति के वर्तमान स्वरूप से साक्षात्कार प्रज्ञापुरुष या प्रकृति पुरुष के ही बस की बात है। वे निरंतर प्रतिक्षण शक्ति के स्वरूप से संस्पर्शित होते रहते हैं। शक्ति केवल एक तत्व विशेष तक ही सीमित नहीं है। महाकाली स्वरूपी शक्ति से तो समुद्र, आकाश, वायु, जल, कण एवं समस्त ब्रह्माण्ड संस्पर्शित होता रहता है। प्रचण्डता प्राप्त करता रहता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक उज्जयिनी स्थित महाकाल के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति आधे पाप से मुक्त हो जाता है तो वहीं काशी में विश्वनाथधाम में मृत्यु पाकर व्यक्ति प्राप्त- पुण्यों के चक्रव्यूह से निकलकर मुक्ति प्राप्त करता है और जन्मों की अनंत श्रृंखला से मुक्त हो सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त करता है वहीं महाकाली समस्त असुरों को शरीर से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करती हैं। काली का स्वरूप ही मोक्ष प्रदायी है। असुर क्या है ? हम जो आकृति चित्रों में देखते हैं वह तो बस असुरों के शरीर की छाया है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ सभी सूक्ष्म से सूक्ष्म योनियों एवं आवृत्तियों में भी पायी जाती से हैं। समस्त ब्रह्माण्ड आसुरी शक्तियों से भरा हुआ है। ये नकारात्मक शक्तियाँ तो बस केवल शरीर रूपी माध्यम ढूंढती हैं। शरीर के अलावा अन्य माध्यमों पर भी नियंत्रण कर हाहाकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। कभी-कभी तो जिस माध्यम या शरीर को वे धारण करती हैं वह शरीर स्वयं भी मुक्ति के लिये छटपटाता रहता है।
माध्यम को यह भी मालुम रहता कि आसुरी शक्तियों के नियंत्रण में वह अनर्थकारी कर्म सम्पादित कर रहा है परन्तु वास्तव में आसुरी शक्तियाँ इतनी ज्यादा नियंत्रण शील होती हैं कि माध्यम बेबस होता है। रावण की आसुरी सेना में रावण के साथ-साथ सभी असुरों को यह मालुम था कि वे जो कुछ कर रहे हैं ठीक नहीं है। युद्ध में उनकी पराजय निश्चित है परन्तु फिर भी जिस शरीर के माध्यम से उन्होने आसुरी कर्मों को सम्पूर्ण जीवन सम्पादित किया था वह इतनी जल्दी सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता। आसुरी शक्तियाँ स्वयं के मायाजाल में जीती हैं और मायावी भी हो हैं। सत्य से उनका कोई लेना देना नहीं होता। आसुरी शक्तियों की मुक्ति तभी सम्भव है जब वे माध्यम से विमुख कर दी जायें .
परन्तु माध्यम और आसुरी शक्तियों का समायोजन इतना प्रचण्ड होता है कि उन्हें एक-दूसरे से विमुख करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आसुरी शक्तियों का एकमात्र लक्ष्य येन केन प्रकरेण शीघ्र अतिशीघ्र समग्रता के साथ सभी व्यवस्थाओं को अपने नियंत्रण में ले लेना होता है । आसुरी शक्तियाँ अत्यधिक चतुर और उच्च कोटि की बुद्धिमानी से युक्त होती है। इनमें स्वरूप बदलने की और माध्यम और व्यवस्था के हिसाब से परिवर्तित होने की अति विलक्षण प्रणाली या सिद्धि होती है।आसुरी शक्तियाँ भोगवादी संस्कृति में ही फलती फूलती हैं। आसुरी शक्तियों का एकमात्र उद्देश्य भक्षण, भोग और शोषण होता है। जिस माध्यम में वे एक बार स्थापित हो गई उसे तब तक नहीं छोड़ती हैं जब तक वह पूरी तरह निस्तेज न हो जाये। ऐसी शक्तियों का नाश महाकाली ही करती हैं।
जिस प्रकार आसुरी शक्तियाँ माध्यम के प्रति निष्ठुर होती हैं उसी प्रकार महाकाली के विभिन्न स्वरूप आसुरी शक्ति के प्रति निष्ठुर होती हैं तभी आसुरी शक्तियों का सम्पूर्ण विनाश सम्भव हो सकता है। महाकाली भी असुरों के शीष को उतनी ही निष्ठुरता से धड़ से अलग कर देती हैं और तो और उन अपवित्र रक्त को स्वयं पान कर सम्पूर्ण जगत की रक्षा के लिये सब कुछ अपने उपर ले लेती हैं तभी तो उनकी परमेश्वरी मातृ शक्ति के रूप में उपासना की जाती है। भगवान शिव सृष्टि की रक्षा के लिये समस्त विषों का पान कर नील कण्ठेश्वर बने हुये हैं। इन दोनों आदि शक्तियों की दिव्य युति ही इस सृष्टि को विराजमान रखे हुये है। आसुरी शक्तियाँ सर्वप्रथम ब्रह्मा द्वारा निर्मित समस्त योनियों को त्रस्त करती हैं फिर प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन करने लगती हैं। उनके हस्तक्षेप से प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। तत्पश्चात् देव पुरुषों एवं ऋषि-मुनियों की बारी आती है फिर वे देवलोक को भी नहीं छोड़ती । देवलोक के बाद फिर बचती है आदि शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, जब असुर इन दिव्य लोकों पर भी विध्वंश मचाने की कोशिश करते हैं तब महाकाली के स्वरूप का प्राकट्य होता है और प्रचण्डता, विकरालता और अद्भुत तेज के साथ समस्त असुरगण महाकाली के हाथ मृत्यु प्राप्त कर दुष्कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। यही सृष्टि का परा नियम है।
असुरों का निर्माण होता कैसे है ? सीधी सी बात है असुर भी इतने शक्तिशाली शिव के सानिध्य में ही होते हैं। सभी आसुरी शक्तियाँ शिव अर्थात परमतत्व की कम से कम प्रारम्भिक स्थिति में तो अति मे भक्ति करती हैं। वे अपनी घोर तपस्या के कारण भगवान शिव को प्रसन्न कर लेती हैं और फिर वरदान स्वरूप उन्हीं के तेज से महिमा मण्डित हो प्रपंचकारी युग की शुरुआत करती हैं। ब्रह्मा जिन जीवों की रचना करते हैं वे आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण नहीं होते हैं परन्तु कालान्तर में भोग प्रवृत्तियों के चलते जीव अपना वास्तविक स्वरूप खोकर नकारात्मक शक्तियों के लिये आकर्षण केन्द्र बन जाते हैं। भोग प्रवृत्तियाँ सभी व्यवस्थाओं और चक्रों में देव कवचों को क्षीण कर देती हैं । इन कवचों की क्षीणता के पश्चात् ही आसुरी शक्तियाँ माध्यम के सूक्ष्म धरातल तक पहुँचने में सफल हो जाती हैं।
प्रत्येक वैदिक पूजन, रुद्र पूजन, योग प्रणाली इन सभी का मूल उद्देश्य काली साधना ही है। उस परम सुरक्षा चक्र की साधना जो कि मातृ स्वरूप में साधक को रोग, शोक और वियोग से सदैव रक्षित करता है। साधक जीवन पर्यन्त एक प्रकार से महाकाली साधना ही करता है ये बात और है कि अज्ञानवश वह इसके विभिन्न स्वरूपों को नहीं समझ पाता । बुद्धि में स्थित कुतर्क की दुष्ट आवृत्तियाँ, शरीर के विभिन्न अंगों में विद्यमान रोग, मस्तिष्क के अंदर सुप्त अवस्था में बैठी व्यभिचारी ग्रंथियाँ यह सभी कुछ आसुरी शक्ति का ही प्रतीक है। जब तक साधक निर्मूलता के साथ इन आसुरी केन्द्रों को नष्ट नहीं करेगा वह मोक्ष या सत्य की प्राप्ति कदापि नहीं कर सकता। सत्य और साधक के बीच मायावी आवरण ही असुर शक्ति है और इस आवरण का विनाश महाकाली साधना के विभिन्न स्वरूपों के द्वारा ही सम्भव है। उन गृहस्थों या साधकों की बुद्धि या सोच तरस योग्य है जो कि महाकाली को हमेशा भय प्रकट करने वाले स्वरूप में देखते हैं।
इस ब्रह्माण्ड में विशुद्ध प्रेम का प्रतीक अगर कोई दिव्य मातृ शक्ति है तो वह है महाकाली । हाँ निश्चित ही नकारात्मक तत्वों और दुष्टों के लिये वह भय का प्रतीक है। उनकी संहारक है वह, परन्तु मनुष्य, देव और आदि शक्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश के लिये तो वे अत्यन्त ही प्रेम मयी हैं। उनका प्रेम तो इतना निश्छल है कि वे इनकी रक्षा के लिये असुरों के अपवित्र रक्त का पान भी कर लेती हैं जिससे कि वे पुनः प्रकट न हो सकें। इस तरह का महाकर्म तो केवल महाकाली के ही बस की बात है।
वे परा हैं, बुद्धि से और ज्ञान से परे वे उस उन्मुक्त व्यवस्था का प्रतीक है जो कि एक बार अगर क्रियाशील हो जाये तो फिर कार्य सिद्धि के पश्चात् भी शांत होने के लिये शिव को ही चरणों में लेटना पड़ता है। असुर अगर मायावी शक्ति पर घमण्ड करते हैं तो फिर महाकाली अपने अनावृत्त स्वरूप के द्वारा यह दिखला देती हैं कि असत्य का महाभ्रम अनावृत्त शाश्वत् सत्य के सामने क्षण भर भी नहीं टिक सकता है। उनके गले में असुर मुण्डों की माला एवं कटि पर बंधी हाथों की माला यही दर्शाती है कि अनावृत्त सत्य द्वारा असत्य रूपी मायाजाल को खण्ड-खण्ड किस प्रकार से किया जाता है।
गीता के समस्त उपदेश भगवान कृष्ण द्वारा की गई महाकाली साधना का ही प्रतीक हैं। अर्जुन की बुद्धि और भावनाओं में बैठी कायरता ने उसे युद्ध के मैदान में अवसाद से ग्रसित कर दिया था एक क्षत्रिय जिसका कर्म ही युद्ध करना हो वही अगर युद्ध के मैदान में कुण्ठित हो जाये तो फिर उसकी गति निश्चित ही अधोगामी होगी यही बात समझाने के लिये कृष्ण ने उसकी समस्त जिज्ञासाओं और आशंकाओं को महाकाली रूपी शक्ति से सदा के लिये शांत किया तब कहीं जाकर वह समग्रता के साथ युद्ध में रत हुआ। कृष्ण के समस्त गीता उपदेशों का सार ही मनुष्यों को मोह, लोभ, माया, विषाद, तर्क, ज्ञान और बुद्धि से मुक्त करा परम गति को प्राप्त कराना है। वे काल पुरुष हैं, काल के अनुसार ही काली साधना करा मनुष्यों के कर्मों को सम्पन्न करवाते हैं और जिस प्रकार महाकाली ने असुरों का विनाश कर सृष्टि को पुनस्थापित किया उसी प्रकार उनके उपदेश भी मनुष्यों को धर्म की संस्थापना के लिए पुन: प्रेरित करते हैं। जब साधक गुरु स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है तब वह भी महाकाली की परम शक्ति से अनुयायियों के वंश वृक्ष में बैठे पाप को, दोषों को, दरिद्रता को नष्ट करते हुये उन्हें अवरोध विहीन माध्यम बनाकर उनमें देवी शक्तियों की स्थापना करता है।
महाकाली के सभी शस्त्र तेज व धारयुक्त हैं। धार ही शस्त्र हैं अन्यथा तो फिर वह धातु विशेष या फिर तत्व विशेष का कुंद टुकड़ा है। जीवन में दिव्य फल तत्व प्राप्ति महाकाली के बिना सम्भव ही नहीं हैं। बुद्धि के द्वारा सम्पादित किये गये कर्म अधिकांशतः क्षयकारी फल ही प्रदान करते हैं परन्तु निष्काम भाव से सम्पादित किये गये कर्म इतना फल प्रदान करते हैं कि जिसकी आपने कल्पना ही नहीं की है। महाकाली की शक्ति बुद्धि के द्वारा नहीं नापी जा सकती । न ही उनकी उपासना बुद्धि के द्वारा सम्भव है। वे ही अक्षय फलों को प्रदान करने वाली हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस महाकाली के अनन्य उपासक हुये हैं। उनका प्रत्येक दिन काली उपासना एवं उनके मूर्ति स्वरूप के श्रृंगार और देखभाल में ही बीत जाता था। उनके पास इतना समय भी नहीं था कि वे ग्रंथ लिख सकें, प्रवचन दे सकें या फिर अन्य किसी सामाजिक कार्य को सम्पन्न कर सकें। वे तो बस काली आराधना में ही लीन रहते थे। उनके परमहंसी स्वरूप से यह समस्त जग जो कि पंचेन्द्रिय व्यवस्थाओं में डूबा रहता है अपरिचित ही रह जाता अगर विवेकानंद जैसा धारदार व्यक्तित्व उन्हें नहीं मिलता। यही महाकाली का अक्षय फल है जिसने कि समस्त विश्व में परमहंस को विवेकानंद के द्वारा स्थापित करा दिया। बुद्धि से आप देखेगे तो विवेकानंद और रामकृष्ण ही नजर आयेंगे परन्तु हृदय से देखेंगे तो महाकाली ही नजर आयेंगी। कहीं भी अभेदात्मक स्थिति निर्मित नहीं होगी।
जितने भी अवतारी महापुरुष, ऋषि-मुनि हुये हैं उनके मूल में महाकाली साधना ही विराजमान हैं। उसी की शक्ति ने इन्हें अर्ध्वगामी बनाया, समस्त अवरोधों को जिन्हें कि हटानें में अनेको जन्म लग जाते हैं मात्र कुछ ही वर्षों में समाप्त कर ईष्ट से साक्षात्कार करवाया। मृत्यु तो आपको प्रदान करनी ही पड़ेगी और वह भी निर्ममता के साथ अपनी कमजोरियों को, अपने दोषों को, अपनी नकारात्मक सोच को तभी आप ऊर्ध्वगामी हो सकेंगे, तभी आप व्यर्थ के बोझों को उतारकर फेंक सकेंगे और वह मृत्यु प्रदान करेगी महाकाली साधना । वे श्मशान वासिनी हैं श्मशान अर्थात वह दिव्य स्थान जहाँ शाश्वत् सत्य मात्र का ही वाश है। माया, मनुष्यों द्वारा निर्मित बेतुके नियम, व्यर्थ की उपाधियाँ, तथाकथित ज्ञान सब कुछ शून्य है।
कुछ भी अहंकार करने योग्य नहीं है। अहंकार और बोझ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिन पर आप अहंकार करते हैं वे ही बोझवत आपको आसुरी गति प्रदान करते हैं। अहंकार असुरों का श्रृंगार है वे इसी से सुशोभित होते हैं। इसी अहंकार से मुक्त होने के लिये असुर स्वयं भी लालायित रहते हैं। सच्चाई तो यह है कि आंतरिक दृष्टि से आसुरी शक्तियाँ इतनी कमजोर होती हैं कि वे जानते हुये भी बोझों से मुक्त नहीं हो पाती और अंत में थक हारकर वे नाना प्रकार के प्रयत्नों से महाकाली के चरणों तक पहुँच उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त करती हैं। अनंतकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है और ऐसा ही होता रहेगा। आसुरी शक्तियों का अंतिम लक्ष्य महाकाली के द्वारा मुक्ति पाना ही है। समस्त चिकित्सा जगत का एकमात्र लक्ष्य महाकाली रूपी शक्ति को समग्रता से प्राप्त करना है। औषधियाँ काली का ही अंश हैं वे उन्हीं की पराशक्ति से शक्तिकृत होती हैं तभी वे शरीर रूपी व्यवस्था में प्रवेश कर रोग रूपी आसुरी शक्तियों का विनाश करने में सक्षम हो पाती हैं। रोगों का क्या है ? वे रक्त में भी पहुँच जाते हैं, मस्तिष्क की एक-एक कोशिका तक पहुँच नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। सारे मानस को प्रदूषित कर देते हैं परन्तु इन सबसे भी विकट स्थिति होती है आध्यात्मिक रोगों की। अनेकों तथाकथित अध्यात्मिक साधु-संत, मठाधीश इन्हीं रोगों से ग्रसित हो सिद्धियाँ खो बैठते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं, भोग एवं लोलुपता उनमें इतनी बढ़ जाती है कि वे साधारण गृहस्थ से भी ज्यादा कामान्ध हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि काली साधना उनके बस की बात नहीं रह जाती है। काली साधना प्रतिक्षण की क्रिया है। प्रतिक्षण त्याग की क्रिया । प्रतिक्षण मृत्यु प्रदान करने की क्रिया, प्रतिक्षण मोह से मुक्त होने की क्रिया, समस्त प्रकार के मोह से मुक्त होने की क्रिया ।
यही क्रियाऐं साधक को विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व में परिवर्तित करती हैं। विशुद्धतम प्रेममयी व्यक्तित्व का तात्पर्य उस प्रकृति पुरुष से है जो कि योनि बंधनों, तत्व बंधनों, ज्ञान बंधनों एवं समस्त गृह बंधनों से मुक्त हो। उसे प्रेम करने के लिए मुख से बोलने या गाने की जरूरत नहीं होती है उसका प्रेम पंचेन्द्रियों द्वारा प्रकट होने की परिधि में नहीं आता है। ठीक उसी प्रकार जिस -प्रकार महाकाली स्वरूप में माँ पार्वती अपना समस्त सौन्दर्य, श्रृंगार, आभूषण और सम्मोहन त्याग कर अपने भक्तों के लिए वह रूप भी धारण कर लेती हैं जिसे देखकर असुर भी कांप उठते हैं। ब्रह्माण्डीय प्रेम रूप, रंग, श्रृंगार इत्यादि जैसी क्षण भंगुर स्थितियों का दास नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने विशुद्धतम प्रेम किया। उनके विशुद्धतम् प्रेम का प्रतीक थी राधा। उम्र में उनसे बड़ी, रंग रूप में भी अत्यंत साधारण, पारिवारिक दृष्टि से भी सामान्य परन्तु प्रेम की दृष्टि से दिव्यतम, सब कुछ कृष्ण पर न्यौछावर कर देनी वाली। कृष्ण की राह देखते-देखते अंतिम श्वास ली । कृष्ण उनसे कभी दूर थे ही नहीं। शरीर दूर हो सकता है परन्तु प्रेम मे दूरी जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं । शरीर भोग का प्रतीक है परन्तु प्रेम भोग का प्रतीक नहीं है। राधा और कृष्ण एक ही आवृत्ति हैं दिव्यतम प्रेम आवृत्ति । जिस प्रकार शिव शक्ति । शरीर तो आते जाते रहते हैं। शरीर कालजयी नहीं है। आप महाकाली की गीता के रूप में उपासना करें, रोगों के नाश के लिए औषधि स्वरूप में अनुसंधान करें, साधक के रूप में इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करें, मोक्ष के लिए कर्म श्रृंखलाओं से मुक्ति का प्रयास करें, ले देकर करनी आपको महाकाली साधना ही पड़ेगी।
शिव शासनत: शिव शासनत: