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रक्षाबंधन और भाई दूज में अंतर ।।


भाई दूज का त्योहार आज देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई का तिलक करती हैं। उसका स्वागत सत्कार करती हैं और उनके लम्बी उम्र की कामना करतीं हैं। भाई दूज के दिन भाई के माथे पर तिलक लगाने की प्रथा के बारे में तो सब जानते हैं, इस त्योहार में कई अन्य लोग भी शामिल हो सकते हैं। भाई दूज का पवित्र त्योहार स्नेह और सम्मान का पर्व है। इसलिए घर के जिस भी सदस्य के प्रति आपका स्नेह ज्यादा है उनके माथे पर भी आप चंदन का टीका लगा सकती हैं। जैसे कि कई परिवारों में भाई के साथ-साथ भतीजे के माथे पर भी टीका करने का रिवाज होता है। भाई और भतीजे के अतिरिक्त महिलाएं घर के सबसे छोटे सदस्यों को भी टीका लगा सकती हैं। आप चाहें तो भाई के किसी प्रिय मित्र को भी भाई दूज पर तिलक लगा सकती हैं। इस दिन कई जगहों पर तो भगवान गणेश के माथे पर भी तिलक लगाया जाता है। ऐसा करके महिलाएं उनसे सुख-समृद्धि का वरदान पाती हैं। गणेश को तिलक लगाने के बाद भाई की तरह ही नारियल और मिष्ठान अर्पित किए जाते हैं।

यह पर्व नहीं बल्‍कि एक ऐसी भावना है जो रेशम की कच्‍ची डोरी के द्वारा भाई-बहन के प्‍यार को हमेशा-हमेशा के लिए संजोकर रखती है। रक्षा बंधन का त्‍योहार हिन्‍दू धर्म के बड़े त्‍योहारों में से एक है, जिसे देश भर में धूमधाम और पूरे हर्षोल्‍लास के साथ मनाया जाता है। यह त्‍योहार भाई-बहन के अटूट रिश्‍ते, प्यार‍, त्याग और समर्पण को दर्शाता है। इस दिन बहनें अपने भाई की कलाई पर राखी या रक्षा सूत्र बांधकर उसकी लंबी आयु और मंगल कामना करती हैं। वहीं, भाई अपनी प्यारी‍ बहन को बदले में भेंट या उपहार देकर हमेशा उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं। यह इस बहन को बदले में भेंट या उपहार देकर हमेशा उसकी रक्षा करने का वचन देते हैं. यह इस त्योहार की विशेषता है कि न सिर्फ हिन्‍दू बल्‍कि अन्‍य धर्म के लोग भी पूरे जोश के साथ इस त्‍योहार को मनाते हैं। 

भाई दूज और रक्षा बंधन का त्योहार दोनों ही भाई बहन के रिश्तों से जुड़ा हुआ त्योहार है। रक्षा बंधन जहां हिन्दू माह श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है वहीं भाई दूज कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। भाई दूज दीपावली के पांच दिनी महोत्सव का अंतिम दिन होता है। 

>> रक्षा बंधन और भाई दूज में प्रमुख अंतर <<

1👉 भाई दूज का त्योहार यमराज के कारण हुआ था, इसीलिए इसे यम द्वितीया भी कहते हैं, जबकि रक्षा बंधन का प्रारंभ जहां राजा बली, इंद्र और भगवान श्रीकृष्ण के कारण हुआ था वहीं।

2👉 रक्षा बंधन के दिन बहनों का विशेष महत्व होता है। रक्षा बंधन में भाई के घर जा कर बहने राखी बांधतीं हैं और भाई उन्हें उपहार देता है जबकि भाई दूज के दिन भाई बहनों के घर जा कर टिका कराता है और बहनें, उसे तिलक लगाकर उसकी आरती उतारकर उसे भोजन खिलाती है।

3👉 रक्षा बंधन को संस्कृत में रक्षिका या रक्षा सूत्र बंधन कहते हैं जबकि भाई दूज को संस्कृत में भागिनी हस्ता भोजना कहते हैं।

4👉 रक्षा बंधन 'रक्षा सूत्र' मौली या कलावा बांधने की परंपरा का ही एक रूप है आधुनिक युग में विभिन्न तरह की राखियाँ आ गयी है जिनसे इस पर्व की परम्परा को निभाया जाता है, जबकि भाई दूज में ऐसा नहीं है। भाई दूज किसी अन्य परंपरा से निकला त्योहार नहीं है, बल्कि यम द्वारा यमुना को दिए गए आशीर्वाद और वचन के फलस्वरूप इस पर्व को मनाया जाता है।

5👉 रक्षा बंधन को राखी का त्योहार भी कहते हैं और प्राय: इसे दक्षिण भारत में नारियल पूर्णिमा के नाम से अलग रूप में मनाया जाता है जबकि भाई दूज के अन्य प्रांत में नाम अलग अलग है लेकिन यह त्योहार भाई और बहन से ही जुड़ा हुआ है। इसे सौदरा बिदिगे (कर्नाटक), भाई फोटा (बंगाल) में भाई दूज को इस अन्य नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र में भाऊ बीज, गुजरात में भौ या भै-बीज कहते हैं तो अधिकतर प्रांतों में भाई दूज। भारत के बाहर नेपाल में इसे भाई टीका कहते हैं। मिथिला में इसे यम द्वितीया के नाम से ही मनाया जाता है।

6👉 रक्षा बंधन पर महाराजा बली की कथा सुनने का प्रचलन है जबकि भाईदूज पर यम और यमुना की कथा सुनने का प्रचलन है।रक्षा बंधन पर बहनें अपने भाई को राखी बांधती हैं जबकि भाई दूज पर सिर्फ तिलक लगाया जाता है।

7👉 रक्षा बंधन पर मिष्ठान खिलाने का प्रथा है जबकि भाई दूज पर भाई को भोजन के बाद पान खिलाने का प्रथा है। मान्यता है कि पान भेंट करने से बहने अखण्ड सौभाग्यवती रहती है।

8👉 भाई दूज पर जो भाई-बहन यमुनाजी में स्नान करते हैं, उनको यमराजजी यमलोक की प्रताड़ना नहीं देते हैं। इस दिन मृत्यु के देवता यमराज और उनकी बहन यमुना का पूजन किया जाता है जबकि रक्षा बंधन पर ऐसा नहीं होता है।



गोवत्स द्वादशी ( बछ बारस )।।

बछ बारस को गौवत्स द्वादशी और बच्छ दुआ भी कहते हैं। बछ बारस कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है। आइये जानें इसका महत्त्व।
बछ यानि बछड़ा, गाय के छोटे बच्चे को कहते हैं। *इस दिन को मनाने का उद्देश्य गाय व बछड़े का महत्त्व समझाना है। यह दिन गोवत्स द्वादशी के नाम से भी जाना जाता है।* गोवत्स का मतलब भी गाय का बच्चा ही होता है।
          
कृष्ण भगवान को गाय व बछड़ा बहुत प्रिय थे तथा गाय में सैकड़ो देवताओं का वास माना जाता है। गाय व बछड़े की पूजा करने से कृष्ण भगवान का, गाय में निवास करने वाले देवताओं का और गाय का आशीर्वाद मिलता है जिससे परिवार में खुशहाली बनी रहती है ऐसा माना जाता है।
इस दिन महिलायें बछ बारस का व्रत रखती है। यह व्रत सुहागन महिलाएँ सुपुत्र प्राप्ति और पुत्र की मंगल कामना के लिए व परिवार की खुशहाली के लिए करती हैं। गाय और बछड़े का पूजन किया जाता है। 
           
इस दिन गाय का दूध और दूध से बने पदार्थ जैसे दही, मक्खन, घी आदि का उपयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा गेहूँ और चावल तथा इनसे बने सामान नहीं खाये जाते।
        
भोजन में चाकू से कटी हुई किसी भी चीज का सेवन नहीं करते है। इस दिन अंकुरित अनाज जैसे चना, मोठ, मूंग, मटर आदि का उपयोग किया जाता है। भोजन में बेसन से बने आहार जैसे कढ़ी, पकोड़ी, भजिये आदि तथा मक्के, बाजरे, ज्वार आदि की रोटी तथा बेसन से बनी मिठाई का उपयोग किया जाता है।
        
बछ बारस के व्रत का उद्यापन करते समय इसी प्रकार का भोजन बनाना चाहिए। उजरने में यानि उद्यापन में बारह स्त्रियाँ, दो चाँद सूरज की और एक साठिया इन सबको यही भोजन कराया जाता है। 
शास्त्रों के अनुसार इस दिन गाय की सेवा करने से, उसे हरा चारा खिलाने से परिवार में महालक्ष्मी की कृपा बनी रहती है तथा परिवार में रोग, अकालमृत्यु की सम्भावना समाप्त होती है।

         बछ बारस की पूजा विधि 

सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर शुद्ध कपड़े पहने। दूध देने वाली गाय और उसके बछड़े को साफ पानी से नहलाकर शुद्ध करें। गाय और बछड़े को नए वस्त्र ओढ़ाएँ। फूल माला पहनाएँ। उनके सींगों को सजाएँ। उन्हें तिलक करें। 
           
गाय और बछड़े को भीगे हुए अंकुरित चने अंकुरित मूंग, मटर, चने के बिरवे, जौ की रोटी आदि खिलाएँ। गौ माता के पैरों धूल से खुद के तिलक लगाएँ। 
           
इसके बाद बछ बारस की कहानी सुने। इस प्रकार गाय और बछड़े की पूजा करने के बाद महिलायें अपने पुत्र के तिलक लगाकर उसे नारियल देकर उसकी लंबी उम्र और सकुशलता की कामना करें। उसे आशीर्वाद दें। 
           
बड़े बुजुर्ग के पाँव छूकर उनसे आशीर्वाद लें। अपनी श्रद्धा और रिवाज के अनुसार व्रत या उपवास रखें। मोठ या बाजरा दान करें। सासुजी को बयाना देकर आशीर्वाद लें।
यदि आपके घर में खुद की गाय नहीं हो तो दूसरे के यहाँ भी गाय बछड़े की पूजा की जा सकती है। ये भी सम्भव नहीं हो तो गीली मिट्टी से गाय और बछड़े की आकृति बना कर उनकी पूजा कर सकते है। 
           
कुछ लोग सुबह आटे से गाय और बछड़े की आकृति बनाकर पूजा करते है। शाम को गाय चारा खाकर वापस आती है तब उसका पूजन–धूप, दीप, चन्दन, नैवेद्य आदि से करते है।

      बछ बारस की कहानी (1)

एक बार एक गाँव में भीषण अकाल पड़ा। वहाँ के साहूकार ने गाँव में एक बड़ा तालाब बनवाया परन्तु उसमे पानी नहीं आया। साहूकार ने पण्डितों से उपाय पूछा। पण्डितों ने बताया की तुम्हारे दोनों पोतों में से एक की बलि दे दो तो पानी आ सकता है। 
           
साहूकार ने सोचा किसी भी प्रकार से गाँव का भला होना चाहिए। साहूकार ने बहाने से बहु को एक पोते हंसराज के साथ पीहर भेज दिया और एक पोते को अपने पास रख लिया जिसका नाम बच्छराज था। बच्छराज की बलि दे दी गई। तालाब में पानी भी आ गया।
          
साहूकार ने तालाब पर बड़े यज्ञ का आयोजन किया। लेकिन झिझक के कारण बहू को बुलावा नहीं भेज पाये।
           
बहु के भाई ने कहा–‘तेरे यहाँ इतना बड़ा उत्सव है तुझे क्यों नहीं बुलाया ? मुझे बुलाया है, मैं जा रहा हूँ।’ 
           
बहू बोली–‘बहुत से काम होते हैं इसलिए भूल गए होंगें, अपने घर जाने में कैसी शर्म, मैं भी चलती हूँ।’
घर पहुँची तो सास ससुर डरने लगे कि बहु को क्या जवाब देंगे। 
सास बोली–‘बहु चलो बछ बारस की पूजा करने तालाब पर चलें।’ दोनों ने जाकर पूजा की।

सास बोली–‘बहु तालाब की किनार कसूम्बल से खण्डित करो।’ 
           
बहु बोली–‘मेरे तो हंसराज और बच्छराज है, मैं खण्डित क्यों करूँ ?’ 
           
सास बोली–‘जैसा मैं कहूँ वैसे करो।’ बहू ने सास की बात मानते हुए किनार खण्डित की और बोली।
           
बहु ने कहा–‘आओ मेरे हंसराज, बच्छराज लडडू उठाओ।’ सास मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगी–‘हे बछ बारस माता मेरी लाज रखना।’
         
भगवान की कृपा हुई। तालाब की मिट्टी में लिपटा बच्छराज व हंसराज दोनों दौड़े आये। 
बहु पूछने लगी–‘सासूजी ये सब क्या है ?’ 
           
सास ने बहु को सारी बात बताई और कहा–‘भगवान ने मेरा सत रखा है। आज भगवान की कृपा से सब कुशल मंगल है। खोटी की खरी, अधूरी की पूरी। हे बछ बारस माता ! जैसे इस सास का सत रखा वैसे सबका रखना।’

       बछ बारस की कहानी (2)

एक सास बहु थीं। सास को गाय चराने के लिए वन में जाना था। 
सास ने बहु से कहा–‘आज बछ बारस है मैं वन जा रही हूँ तो तुम गेहूँ लाकर पका लेना और धान लाकर उछेड़ लेना।’
          
बहु काम में व्यस्त थी, उसने ध्यान से सुना नहीं। उसे लगा सास ने कहा गेहूंला धानुला को पका लेना। गेहूला और धानुला गाय के दो बछड़ों के नाम थे। 
           
बहु को कुछ गलत तो लग रहा था लेकिन उसने सास का कहा मानते हुए बछड़ों को काट कर पकने के लिए चढ़ा दिया ।
          
सास ने लौटने पर कहा–‘आज बछ बारस है, बछड़ों को छोड़ो पहले गाय की पूजा कर लें।’ बहु डरने लगी, भगवान से प्रार्थना करने लगी बोली–‘हे भगवान ! मेरी लाज रखना।’
          
भगवान् को उसके भोलेपन पर दया आ गई। हांड़ी में से जीवित बछड़े बाहर निकल आये। सास के पूछने पर बहु ने सारी घटना सुना दी। और कहा–‘भगवान ने मेरा सत रखा, बछड़ों को फिर से जीवित कर दिया। खोटी की खरी, अधूरी की पूरी। हे बछ बारस माता ! जैसे इस बहु की लाज रखी वैसे सबकी रखना।’ 
इसीलिए बछ बारस के दिन गेहूँ नहीं खाये जाते और कटी हुई चीजें नहीं खाते है। गाय बछड़े की पूजा करते है।
          

धनतेरस 2025: कैसे गरीब ब्राह्मण बने कुबेर.. देवताओं के धन कोषाध्यक्ष ।।

दीपावली से दो दिन पहले धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। इस बार धनतेरस का त्योहार 18 अक्टूबर 2025 शनिवार को मनाया जाएगा। इस पर्व पर मां लक्ष्मी और भगवान धनवंतरी के साथ-साथ धन के देवता कुबेर की भी विधिवत पूजा की जाती है। यक्षों के राजा कुबेर को धन का स्वामी और उत्तर दिशा का दिक्पाल माना जाता है। भगवार कुबेर रक्षक लोकपाल भी कहलाते हैं। कुबेर को भगवान शिव का द्वारपाल भी कहा जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुबेर रावण, कुंभकर्ण और विभीषण के सौतेले भाई थे, लेकिन उन्हें अपने ब्राह्मण गुणों के कारण उन्हें देवता का दर्जा प्राप्त हुआ। कुबेर सुख-समृद्धि और धन प्रदान करने वाले देवता हैं, जिन्हें देवताओं का कोषाध्यक्ष यानी कैशियर माना गया है।

कुबेर का निवास उत्तर दिशा में होता है इसलिए घर में इस दिशा में कुबेर देवता की प्रतिमा स्थापित करने से परिवार पर उनकी कृपा बनी रहती है। भगवान कुबेर जो हम भक्तों की तिजोरिया भरते हैं, वो एक गरीब ब्राह्मण थे। आइए जानते हैं कुबेर देवता की पौराणिक कथा क्या है, वो कैसे एक गरीब ब्राह्मण से देवताओं का कोषाध्यक्ष बन गए?

>> गरीब ब्राह्मण थे भगवान कुबेर <<

पौराणिक कथा के अनुसार पूर्वजन्म में भगवान कुबेर एक गरीब ब्राह्मण थे, जिनका नाम गुणनिधि था। बचपन में उन्होंने अपने पिता से धर्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की लेकिन बुरी संगत में आकर वो जुआ खेलने लगे। उनके पिता ने उनकी ऐसी गलत आदतों और हरकतों से तंग आकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। घर से निकाले जाने के बाद गुणनिधि की हालत बहुत खराब हो गई, वो अपना पेट भरने के लिए लोगों के घरों में भोजन मांगने लगे।

>> भटकते हुए जंगल के शिवालय पहुंच गए <<

एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल होकर भटकते हुए एक जंगल में पहुंच गए। जंगल में उन्हें कुछ ब्राह्मण भोग सामग्री ले जाते हुए दिखाई दिया। भगवान की भोग सामग्री देखकर गुणनिधि की भूख और बढ़ गई और वो भोजन की लालसा में उस पंडित के पीछे-पीछे चलने लगे और एक शिवालय में पहुंच गए।

>> रात के अंधेरे में चुराया भोजन <<

शिवालय में उन्होंने देखा कि ब्राह्मण भगवान शिव की पूजा कर रहे थे और भोग अर्पित कर भजन-कीर्तन में मग्न थे। भोजन चुराने की ताक में गुणनिधि शिवालय में ही बैठ गए। जब भजन-कीर्तन समाप्त होने के बाद सभी ब्राह्मण सो गए तब उन्हें भोजन चुराने का मौका मिल गया और वो चुपके से शिव भगवान की प्रतिमा के पास पहुंचे लेकिन वहां खूब अंधेरा था इसलिए गुणनिधि को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।

इसलिए उन्होंने एक दीपक जलाया, लेकिन वह हवा के कारण बुझ गया लेकिन वो बार-बार वो दीपक जलाते रहे। जब यह कई बार हुआ तो भोलेनाथ और औघड़दानी शंकर ने इसे अपनी दीपाराधना समझा और प्रसन्न होकर गुणनिधि को धनपति होने का आशीर्वाद दिया।

>> अनजाने में रखा महाशिवरात्रि का व्रत <<

गुणनिधि भूख से इतने व्याकुल थे कि भोजन चुराकर भागते समय ही उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन मृत्यु से पहले अनजाने में ही उनसे महाशिवरात्रि के व्रत का पालन हो गया था और उसका उन्हें शुभ फल मिला। अनजाने में ही सही महाशिवरात्रि का व्रत पालन करने के कारण गुणनिधि अपने अगले जन्म में कलिंग देश के राजा बने।

>> शिव की कृपा से गरीब ब्राह्मण धन के देवता 'कुबेर' कहलाए <<

इस जन्म में भी गुणनिधि भगवान शिव के परम भक्त थे और सदैव उनकी भक्ति में लीन रहते थे। उनकी इस कठिन तपस्या और भक्ति को देखकर भगवान शिव उन पर प्रसन्न हुए। यह भगवान शिव की ही कृपा थी, जिसके कारण एक गरीब ब्राह्मण धन के देवता कुबेर कहलाए और संसार में पूजनीय बन गए।

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धनतेरस पर्व ।।

धनतेरस या धनत्रयोदशी सनातन धर्म का एक प्रमुख पर्व हैं। पंचांग के अनुसार कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि (तेरहवे दिन) को यह पर्व मनाया जाता हैं, आमतौर पर दीपावली से दो दिन पहले। 

इस दिन प्राचीन समय में समुद्र मंथन हुआ था, भगवती लक्ष्मी और भगवान विष्णु के अवतार भगवान धनवंतरी अवतरित हुए थे। भगवती लक्ष्मी धन की देवी हैं, भगवान धनवंतरी आयुर्वेद के देवता है। भारत सरकार धनतेरस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाती हैं।

भगवान धनवंतरी समुद्र मंथन के समय पीतल के कलश में अमृत लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इस दिन नए पीतल के बर्तन क्रय (खरीद) ने की परंपरा हैं। इस दिन चाँदी क्रय करने की भी प्रथा हैं। इसका कारण यह माना जाता हैं चाँदी चंद्रमा का प्रतीक हैं, चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता हैं और मन में संतोष रूपी धन का वास होता हैं। संतोष को सबसे बड़ा धन माना गया है जिसके पास संतोष है वह सुखी हैं वही सबसे बड़ा धनवान हैं।

धनतेरस की रात को देवी लक्ष्मी और भगवान धनवंतरी के सम्मान में रात भर दीप प्रज्ज्वलित रहते हैं, भजन गाए जाते हैं, मुख्य द्वार पर रंगोली बनाई जाती हैं। धनतेरस पर धन के देवता कुबेर की भी पूजा की जाती हैं। सामान्य तौर पर लोग धनतेरस के दिन दीपावली के लिए गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा हेतु मूर्ति क्रय करते हैं।

जैन पंथ के तीर्थंकर महावीर स्वामी धनतेरस के दिन योग ध्यान अवस्था में चले गए थे तथा दीपावली के दिन निर्वाण को प्राप्त हुए थे। तभी से जैन पंथ धनतेरस को ध्यान तेरस या धन्य तेरस के रूप में मनाता हैं।

धनतेरस की संध्या पर घर मुख्य द्वार और आंगन में दीप प्रज्ज्वलित करने की प्रथा भी है। यह दीप मृत्यु के देवता यमराज के लिए जलाए जाते हैं। इस प्रथा के पीछे एक लोककथा है। 

कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक हेम नाम के राजा थे। ईश्वर कृपा से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। ज्योंतिष आचार्यो के अनुसार बालक अल्प आयु है तथा इसके विवाह के चार दिन पश्चात मृत्यु का योग है। राजा ने राजकुमार को एक गुप्त स्थान पर भेज दिया, जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। देवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उस गुप्त स्थान पर पहुंच गई और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये, उन्होंने गन्धर्व विवाह किया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन पश्चात यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार के प्राण ले जा रहे थे, उस समय नवविवाहित पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा, किंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमदूत ने पूरी घटना यमराज को बताई तथा एक यमदूत ने यम देवता से विनती की हे यमराज! क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु से मुक्त हो जाए। दूत के अनुरोध करने पर यम देवता बोले, हे दूत! अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है, इससे मुक्ति का एक सरल उपाय मैं तुम्हें बताता हूं, सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी रात को जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीपमाला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। यही कारण है कि धनतेरस पर घर के मुख्य द्वार पर दक्षिण दिशा की ओर दीप प्रज्जवलित किया जाता हैं।

करवाचौथ व्रत से संबंधित दो मुख्य कथा ।।

1. एक समय की बात है एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे एक गाँव में रहती थी। अपने पति के प्रति गहन प्रेम और समर्पण से उसे आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया तब एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया। पति करवा करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा, पति की पुकार सुनकर पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को रस्सी से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी - हे देव! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ। यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, इसलिए मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। यह सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।

2. दूसरी कथा वीरवती महिला की हैं। भारत के अलग - अलग क्षेत्रों में वीरवती से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलन में हैं, इसलिए जो महिला वीरवती की जिस कथा को पढ़ती सुनती आ रही हैं वह उसे ही पूरी श्रद्धा से पढ़ें सुने। उदाहरण के लिए वीरवती से संबंधित एक कथा

एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी वीरवती थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। भाई पहले बहन को भोजन खिलाते और उसके पश्चात स्वयं खाते थे। वीरवती विवाह के पश्चात अपने ससुराल में रहने लगी। एक बार वीरवती ससुराल से मायके आई हुई थी। करवा चौथ का दिन आया, वीरवती ने मायके में ही व्रत किया। संध्या को सभी भाई जब अपना व्यापार - व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई भोजन करने बैठे और अपनी बहन से भी भोजन का आग्रह करने लगे, किंतु बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह भोजन चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही ग्रहण करेंगी। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल है। सबसे छोटे भाई से अपनी बहन की स्थिति देखी नहीं गई और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर छलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके पश्चात भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देकर भोजन कर सकती हो। बहन सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है तथा अर्घ्‍य देकर भोजन करने बैठ जाती है। वह भोजन का पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है, दूसरा टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने का प्रयास करती है तो उसके पति के रोगग्रस्त होने का समाचार उसे मिलता है। वह तुरंत अपने ससुराल पहुँचती है। वीरवती का पति मर चुका होता है, वीरवती एक सच्ची पतिव्रता महिला थीं वह अपने पति के शव के पास बैठ कर देवी पार्वती को स्मरण करते हुए रातभर रोती रहती हैं। वीरवती की भक्ति की शक्ति से माँ पार्वती प्रकट होकर उसे बताती है कि उसके भाई के छल के कारण उसका व्रत अनुचित ढंग से टूट गया। वीरवती माँ पार्वती के पैरों में गिरकर क्षमा माँगती है तथा अपने पति को जीवित करने की विनती करती हैं। माँ पार्वती कहती हैं वीरवती तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर तेरे पति को जीवित तो कर रही हूँ किंतु तेरा पति पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं रहेगा जब तक तू अपनी भूल सुधार नहीं लेती, अपनी भूल सुधारने के लिए तुझे हर महीने आने वाले चौथ व्रत करते हुए अगला करवा चौथ व्रत पूरी श्रद्धा से करना है तब करवा माता ही तेरे पति को पूर्ण स्वस्थ करेगी। 
वीरवती हर महीने के चौथ व्रत को करती हुई करवा चौथ का व्रत भी सफलता पूर्वक करती हैं। करवा माता वीरवती से प्रसन्न होकर उसके पति को पूर्ण स्वस्थ कर देती हैं। हे माँ पार्वती, माता करवा जिस प्रकार वीरवती को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।