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"सनातन विद्या से 𝗖𝘆𝗯𝗲𝗿 𝘀𝗲𝗰𝘂𝗿𝗶𝘁𝘆"



जी हाँ, शास्त्रों में एक ऐसी भी विद्या है जिससे आप अपने pin को सुरक्षित और गोपनीय रख सकते हैं, 
उस विद्या का नाम है "कटपयादी सन्ख्या विद्या"

●कटपयादि संख्या 

हम में से बहुत से लोग अपना Password, या ATM PIN भूल जाते हैं इस कारण हम उसे कहीं पर लिख कर रखते हैं पर अगर वो कागज का टुकड़ा किसी के हाथ लग जाए या खो जाए तो परेशानी हो जाती
पर अपने Password या Pin No. को हम लोग “कटपयादि संख्या” से आसानी से याद रख सकते है।
“कटपयादि”( क ट प य आदि) संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति है

चूँकि भारत में वैज्ञानिक/तकनीकी/खगोलीय ग्रंथ पद्य रूप में लिखे जाते थे, इसलिये संख्याओं को शब्दों के रूप में अभिव्यक्त करने हेतु भारतीय चिन्तकों ने इसका समाधान 'कटपयादि' के रूप में निकाला।

कटपयादि प्रणाली के उपयोग का सबसे पुराना उपलब्ध प्रमाण, 869 AD में “शंकरनारायण” द्वारा लिखित “लघुभास्कर्य” विवरण में मिलता है

तथा “शंकरवर्मन” द्वारा रचित “सद्रत्नमाला” का निम्नलिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है -
इसका शास्त्रीय प्रमाण -

नज्ञावचश्च शून्यानि संख्या: कटपयादय:।
मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वर: ॥

[अर्थ: न, ञ तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरम्भ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। 
किसी संयुक्त व्यंजन में केवल बाद वाला व्यंजन ही लिया जायेगा। बिना स्वर का व्यंजन छोड़ दिया जायेगा।]

अब चर्चा करते हैं कि आधुनिक काल में इस की उपयोगिता क्या है और कैसे की जाए ? 
कटपयादि – अक्षरों के द्वारा संख्या को बताकर संक्षेपीकरण करने का एक शास्त्रोक्त विधि है, हर संख्या का प्रतिनिधित्व कुछ अक्षर करते हैं जैसे 

1 – क,ट,प,य 
2 – ख,ठ,फ,र 
3 – ग,ड,ब,ल 
4 – घ,ढ,भ,व 
5 – ङ,ण,म,श 
6 – च,त,ष 
7 – छ,थ,स 
8 – ज,द,ह 
9 – झ,ध 
0-ञ,न,अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ए,ऐ, ओ,औ 
 【 ऊपर चित्र देखें】 
हमारे आचार्यों ने संस्कृत के अर्थवत् वाक्यों में इन का प्रयोग किया, जैसे गौः = 3, श्रीः = 2 इत्यादि । 

इस के लिए बीच में विद्यमान मात्रा को छोड देते हैं । स्वर अक्षर ( vowel) यदि शब्द के आदि (starting) मे हो तो ग्राह्य ( acceptable) है, अन्यथा अग्राह्य (unacceptable) होता

जैसे समझिए कि मेरा ATM PIN 0278 है- पर कभी कभी संख्या को याद रखते हुए ATM में जाकर हम Confuse हो जातें हैं कि 0728 था कि 0278 ? यह भी अक्सर बहुत लोगों के साथ होता है, ये इन से बचने के उपाय हैं 

जैसे ATM PIN के लिए कोई भी चार अक्षर वाले संस्कृत शब्द को उस के कटपयादि मे परिवर्तन करें ( उस शब्द को सिर्फ अपने ही मन मे रखें, किसी को न बताएं )

उदाहरण के लिए –

इभस्तुत्यः = 0461

गणपतिः = 3516

गजेशानः = 3850

नरसिंहः = 0278

जनार्दनः = 8080

सुध्युपास्यः = 7111

शकुन्तला = 5163

सीतारामः = 7625

इत्यादि ( अपने से किसी भी शब्द को चुन लें )
ऐसे किसी भी शब्द को याद रखें और तत्काल “कटपयादि संख्या” मे परिवर्तन कर के अपना ATM PIN आदि में प्रयोग करें । 

सत्य सनातन धर्म की जय।

पूजा करने के नियम क्या हैं ?

✤ सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु, ये पंचदेव कहलाते हैं, सभी कार्यों में भगवान विष्णु की पूजा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। प्रतिदिन पूजन के समय इन पंचदेवों का ध्यान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी कृपा और समृद्धि प्राप्त होती है।


✤ शिवजी, गणेश जी और भैरव जी को तुलसी नहीं चढ़ानी चाहिए।

✤ मां दुर्गा को दूर नहीं करना चाहिए। यह गणेश जी को विशेष रूप से निर्विकार की तरह माना जाता है।

✤ सूर्य देव को शंख के जल से अर्घ्य नहीं देना चाहिए।

✤ तुलसी का पत्ता बिना स्नान किये नहीं तोड़ना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति बिना नहाए ही तुलसी के अवशेषों को तोड़ता है तो पूजन में इन पुष्पों को भगवान द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता है।

✤ प्लास्टिक की बोतल में या किसी भी अपवित्र धातु के पॉट में गंगाजल नहीं रखना चाहिए। अपवित्र धातु जैसे एल्युमिनियम और आयरन से बने पोइंटर। गंगाजल के भंडार में शुभ रहता है।

✤ शैतान को और अपवित्र अवस्था में पुरुषों को शंख नहीं बजाना चाहिए। यहां इस नियम का पालन नहीं किया जाता है तो जहां शंख बजाया जाता है, वहां से देवी लक्ष्मी चली जाती हैं।

✤ मंदिर और देवी-देवताओं की मूर्ति के सामने कभी भी पीठ नहीं दिखानी चाहिए।

✤ केतकी का फूल शिवलिंग पर नहीं करना चाहिए।

✤ किसी भी पूजा में मन की शांति के लिए दक्षिणा अवश्य लेनी चाहिए। दक्षिणा निकेत समय अपने दोषों को शामिल करने का संकल्प लेना चाहिए। दोषों को जल्दी से जल्दी अलग करने पर विचार अवश्य करें।

✤ दूर्वा (एक प्रकार की घास) रविवार को नहीं तोड़नी चाहिए।

✤ माँ लक्ष्मी को विशेष रूप से कमल का फूल दिया जाता है। इस फूल को पांच दिनों तक जल छिड़क कर पुन: चढ़ाया जा सकता है।

✤ शास्त्रों के अनुसार शिवजी को प्रिय बिल्व पत्र छह माह तक नहीं माने जाते हैं। अत: उदाहरण के लिए जल छिड़क कर पुन: लिंग पर निशान लगाया जा सकता है।

✤ तुलसी के दुकानदारों को 11 दिन तक बासी नहीं माना जाता है। इसके रिटायरमेंट पर हर रोज जल स्प्रेडर पुन: भगवान को बर्बाद किया जा सकता है।

✤ आम तौर पर फूलों को हाथ में लेकर भगवान को भगवान को समर्पित किया जाता है। ऐसा नहीं करना चाहिए। फूल चढाने के लिए फूलों को किसी भी पवित्र पात्र में रखना चाहिए और उसी पात्र में से लेकर देवी-देवताओं को बचाकर रखना चाहिए।

✤ कांच के बर्तन में चंदन, घीसा हुआ चंदन या चंदन का पानी नहीं रखना चाहिए।

✤ हमेशा इस बात का ध्यान रखें कि कभी भी दीपक बात से दीपक न जलाना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति दीपक से दीपक जलते हैं, वे रोगी होते हैं।

✤ रविवार और रविवार को पीपल के पेड़ में जल संरक्षण नहीं करना चाहिए।

✤ पूजा हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख से करनी चाहिए। यदि संभव हो तो सुबह 6 से 8 बजे तक बीच में पूजा अवश्य करें।

✤ पूजा करते समय ध्यान दें कि आसन का आसन एक होगा तो श्रेष्ठ रहेगा।

✤ घर के मंदिर में सुबह और शाम को दीपक जलाएं। एक दीपक घी का और एक दीपक तेल का जलाना चाहिए।

✤ पूजन-कर्म और आरती पूर्ण होने के बाद एक ही स्थान पर 3-3 बार पूजा-अर्चना करनी चाहिए।

✤ रविवार, एकादशी, द्वादशी, संक्रांति तथा संध्या काल में तुलसी के पत्ते नहीं तोड़ना चाहिए।

✤ भगवान की आरती करते समय ध्यान दें ये बातें- भगवान के चरण की चार बार आरती करें, नाभि की दो बार और मुख की एक या तीन बार आरती करें। इस प्रकार भगवान की समस्त क्रियाओं की कम से कम सात बार आरती करानी चाहिए।

✤ पूजाघर में मूर्तियाँ 1, 3, 5, 7, 9, 11 इंच तक की होनी चाहिए, इससे बड़ी नहीं, लेकिन गणेश जी, सरस्वतीजी, लक्ष्मीजी की मूर्तियाँ घर में नहीं होनी चाहिए।

✤ गणेश या देवी की प्रतिमा तीन तीन, शिवलिंग दो, शालिग्राम दो, सूर्य प्रतिमा दो, गोमती चक्र दो की संख्या में कदापि न स्थान। घर में बीच बीच में घर बिल्कुल वैसा ही वातावरण शुद्ध होता है।

✤ अपने मंदिर में विशेष प्रतिष्ठित मूर्तियाँ ही उपहार, काँच, लकड़ी और फ़ाइबर की मूर्तियाँ न रखें और खंडित, जलीकटी फोटो और बर्तन काँच तुरंत हटा दें। शिलालेखों के अनुसार खंडित ज्वालामुखी की पूजा की जाती है। जो भी मूर्ति स्थापित है, उसे पूजा स्थल से हटा देना चाहिए और किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए। खंडित भगवान की पूजा अशुभ मानी जाती है। इस संबंध में यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल भाषा ही कभी भी, किसी भी अवस्था में खंडित नहीं मानी जाती

अवतार और देवत्व : एक शास्त्रीय विवेचन 🍁

पञ्चदेव — रुद्र, मरुत, वसु, वासव आदि — के विविध अवतार यदि पृथ्वी पर हुए हों, तो मात्र अवतार-स्वरूप होना ही उन्हें पूज्य देवता सिद्ध कर देगा — ऐसा सामान्य जन मान लेते हैं, किंतु यह शास्त्रसम्मत नहीं।


◆ लोग कहते हैं – “गङ्गाजल यदि लौटे में रखा हो, तब भी वह गङ्गाजल ही कहलाता है।” इसी प्रकार “विष्णु या शिव के अवतार भी तो देवता ही होंगे।”
● यह भ्रान्ति है। देवत्व कोई साधारण बात नहीं है जिसे हर अवतार को सौंप दिया जाए। शास्त्रों में अवतारों के भी भेद स्पष्ट हैं — पूर्णावतार, अंशावतार, आवेशावतार, लीलावतार आदि।

● श्रीराम व श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं — समस्त कलाओं से युक्त, शाश्वत, पूज्य।
● किन्तु पृथु, ऋषभदेव, कपिल, नर-नारायण, सनकादि, दुर्वासा, पिप्लाद आदि — ये सभी अंशावतार अथवा ऋष्यवतार हैं — इनकी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है।

▪︎ महत्त्व का तथ्य यह है कि —
वह अवतार ही पूज्य है जिसका शास्त्रसम्मत पूजन-विधान, आगम-विधि, मन्त्र-विनियोग, मूर्तिस्थापन एवं प्रतिष्ठा का स्पष्ट विधान उपलब्ध हो।

● कालभैरव पूज्य हैं — तांत्रिक, यांत्रिक, लिंगात्मक विधियों सहित।
परंतु अर्जुन का परीक्षण करने आए किरात, या चाण्डालरूप धारी शिव — उनकी पूजा नहीं होती।

▪︎ अश्वत्थामा, गृहपति, वीरभद्र आदि आवेशावतार माने जाते हैं, किन्तु सभी की प्रतिष्ठा नहीं होती।

यदि भविष्य में किरात, चाण्डाल, वैश्य आदि जातियों से प्रेरित होकर कोई “शिवावतार” मानकर मंदिर निर्माण करने लगे — तो क्या वह धर्मसंगत होगा?

◆ यदि वे मूर्तिपूजनीय नहीं हैं, तो शास्त्र का उल्लंघन कर उनके नाम पर मूर्तियाँ स्थापित करना, उत्सव करना — क्या यह श्रद्धा है या उन्मत्त विकृति?
यह शिवभक्ति नहीं, अपितु शिवावतारों के नाम पर कुतर्कयुक्त विघटन है।

▪︎ यदि आपको किसी अमुक अवतार से गहन अनुराग हो, तो प्रत्यक्ष शिवलिंग की आराधना कीजिए, रुद्राभिषेक कीजिए, सहस्रपार्थिव लिंगों का पूजन कर प्रवाह कीजिए — वही शास्त्रसम्मत मार्ग है।

आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि—

● भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जिन बातों को कभी स्वप्न में भी स्वीकार न करते, वे कार्य आज उन्हीं के प्रतिष्ठित मठों से प्रचारित हो रहे हैं।

◆ संघी-समाजी विचारधारा कहती है — “राम-कृष्ण आदि केवल महापुरुष हैं, कोई देवता नहीं!”
ऐसा विचार दैवद्रोह है।
इसे “महापुरुष” बनाकर दीनदयाल, पटेल आदि की श्रेणी में ला देना शास्त्र का उपहास है।

▪︎ मूर्तिभंजक उन्मादतंत्र के नेताओं को “दीर्घायु” का आशीर्वाद देना —
क्या यह धर्म की रक्षा है?
या गौवध, देवविरोध व परम्पराभंजन के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन?

"न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्"

● चिदानन्द देह को पञ्चभौतिक शरीर मान लेना घोर मूर्खता है।
भगवान जिस दिव्य चिद्देह को धारण करते हैं, वह साधारण मरणशील देह नहीं।
उन्हें “मृत” कहना देवनिन्दा है।

◆ यह अत्यन्त दुर्भाग्य है कि शास्त्रप्रणीत मर्यादा को छोड़कर केवल जातिगत भावना, राजनीतिक प्रवाह, और सांप्रदायिक संकीर्णता के कारण हम उन कार्यों को भी धर्म मानने लगे हैं जिनका शास्त्र में लेशमात्र भी समर्थन नहीं।



जानियें, क्या करें - गुरु पूर्णिमा के दिन ।।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। 
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिवस भी है। व्यास जी ने ही चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन ये करें -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। 

* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।

* फिर हमें 'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।

* तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। 

* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा करना चाहिए। 

* अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

गुरु पूर्णिमा पर यह भी है विशेष -
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। 

* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं। 

* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। 

* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। 

* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

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पूजा पाठ में आचमन का महत्त्व ।।

पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है।   

यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम: 
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।  
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
 
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।  

आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।  
 
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को 
अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। 
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