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अवतार और देवत्व : एक शास्त्रीय विवेचन 🍁

पञ्चदेव — रुद्र, मरुत, वसु, वासव आदि — के विविध अवतार यदि पृथ्वी पर हुए हों, तो मात्र अवतार-स्वरूप होना ही उन्हें पूज्य देवता सिद्ध कर देगा — ऐसा सामान्य जन मान लेते हैं, किंतु यह शास्त्रसम्मत नहीं।


◆ लोग कहते हैं – “गङ्गाजल यदि लौटे में रखा हो, तब भी वह गङ्गाजल ही कहलाता है।” इसी प्रकार “विष्णु या शिव के अवतार भी तो देवता ही होंगे।”
● यह भ्रान्ति है। देवत्व कोई साधारण बात नहीं है जिसे हर अवतार को सौंप दिया जाए। शास्त्रों में अवतारों के भी भेद स्पष्ट हैं — पूर्णावतार, अंशावतार, आवेशावतार, लीलावतार आदि।

● श्रीराम व श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं — समस्त कलाओं से युक्त, शाश्वत, पूज्य।
● किन्तु पृथु, ऋषभदेव, कपिल, नर-नारायण, सनकादि, दुर्वासा, पिप्लाद आदि — ये सभी अंशावतार अथवा ऋष्यवतार हैं — इनकी मूर्तिपूजा का विधान नहीं है।

▪︎ महत्त्व का तथ्य यह है कि —
वह अवतार ही पूज्य है जिसका शास्त्रसम्मत पूजन-विधान, आगम-विधि, मन्त्र-विनियोग, मूर्तिस्थापन एवं प्रतिष्ठा का स्पष्ट विधान उपलब्ध हो।

● कालभैरव पूज्य हैं — तांत्रिक, यांत्रिक, लिंगात्मक विधियों सहित।
परंतु अर्जुन का परीक्षण करने आए किरात, या चाण्डालरूप धारी शिव — उनकी पूजा नहीं होती।

▪︎ अश्वत्थामा, गृहपति, वीरभद्र आदि आवेशावतार माने जाते हैं, किन्तु सभी की प्रतिष्ठा नहीं होती।

यदि भविष्य में किरात, चाण्डाल, वैश्य आदि जातियों से प्रेरित होकर कोई “शिवावतार” मानकर मंदिर निर्माण करने लगे — तो क्या वह धर्मसंगत होगा?

◆ यदि वे मूर्तिपूजनीय नहीं हैं, तो शास्त्र का उल्लंघन कर उनके नाम पर मूर्तियाँ स्थापित करना, उत्सव करना — क्या यह श्रद्धा है या उन्मत्त विकृति?
यह शिवभक्ति नहीं, अपितु शिवावतारों के नाम पर कुतर्कयुक्त विघटन है।

▪︎ यदि आपको किसी अमुक अवतार से गहन अनुराग हो, तो प्रत्यक्ष शिवलिंग की आराधना कीजिए, रुद्राभिषेक कीजिए, सहस्रपार्थिव लिंगों का पूजन कर प्रवाह कीजिए — वही शास्त्रसम्मत मार्ग है।

आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि—

● भगवत्पाद आदि शंकराचार्य जिन बातों को कभी स्वप्न में भी स्वीकार न करते, वे कार्य आज उन्हीं के प्रतिष्ठित मठों से प्रचारित हो रहे हैं।

◆ संघी-समाजी विचारधारा कहती है — “राम-कृष्ण आदि केवल महापुरुष हैं, कोई देवता नहीं!”
ऐसा विचार दैवद्रोह है।
इसे “महापुरुष” बनाकर दीनदयाल, पटेल आदि की श्रेणी में ला देना शास्त्र का उपहास है।

▪︎ मूर्तिभंजक उन्मादतंत्र के नेताओं को “दीर्घायु” का आशीर्वाद देना —
क्या यह धर्म की रक्षा है?
या गौवध, देवविरोध व परम्पराभंजन के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन?

"न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्"

● चिदानन्द देह को पञ्चभौतिक शरीर मान लेना घोर मूर्खता है।
भगवान जिस दिव्य चिद्देह को धारण करते हैं, वह साधारण मरणशील देह नहीं।
उन्हें “मृत” कहना देवनिन्दा है।

◆ यह अत्यन्त दुर्भाग्य है कि शास्त्रप्रणीत मर्यादा को छोड़कर केवल जातिगत भावना, राजनीतिक प्रवाह, और सांप्रदायिक संकीर्णता के कारण हम उन कार्यों को भी धर्म मानने लगे हैं जिनका शास्त्र में लेशमात्र भी समर्थन नहीं।



जानियें, क्या करें - गुरु पूर्णिमा के दिन ।।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। 
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिवस भी है। व्यास जी ने ही चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन ये करें -
* प्रातः घर की सफाई, स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ-सुथरे वस्त्र धारण करके तैयार हो जाएं। 

* घर के किसी पवित्र स्थान पर पटिए पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर 12-12 रेखाएं बनाकर व्यास-पीठ बनाना चाहिए।

* फिर हमें 'गुरुपरंपरासिद्धयर्थं व्यासपूजां करिष्ये' मंत्र से पूजा का संकल्प लेना चाहिए।

* तत्पश्चात दसों दिशाओं में अक्षत छोड़ना चाहिए। 

* फिर व्यासजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, गोविंद स्वामीजी और शंकराचार्यजी के नाम मंत्र से पूजा करना चाहिए। 

* अब अपने गुरु अथवा उनके चित्र की पूजा करके उन्हें यथा योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

गुरु पूर्णिमा पर यह भी है विशेष -
* गुरु पूर्णिमा पर व्यासजी द्वारा रचे हुए ग्रंथों का अध्ययन-मनन करके उनके उपदेशों पर आचरण करना चाहिए। 

* यह पर्व श्रद्धा से मनाना चाहिए, अंधविश्वास के आधार पर नहीं। 

* इस दिन वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। 

* गुरु का आशीर्वाद सभी-छोटे-बड़े तथा हर विद्यार्थी के लिए कल्याणकारी तथा ज्ञानवर्द्धक होता है। 

* इस दिन केवल गुरु (शिक्षक) ही नहीं, अपितु माता-पिता, बड़े भाई-बहन आदि की भी पूजा का विधान है।

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पूजा पाठ में आचमन का महत्त्व ।।

पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है।   

यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम: 
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।  
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
 
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।  

आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।  
 
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को 
अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। 
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दक्षिणमुखी मुख्य द्वार हेतु वास्तु के क्या क्या उपाय हैं ?

1. गणेश प्रतिमा या यंत्र: मुख्य द्वार के ऊपर या पास गणेश जी की प्रतिमा या गणेश यंत्र लगाएं। यह बुरी शक्तियों को दूर करता है और सकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है।

2. स्वस्तिक चिन्ह: मुख्य द्वार के दोनों ओर या ऊपर स्वस्तिक का चिन्ह लगाएं। यह शुभता और समृद्धि लाता है।

3. ऊर्जा संतुलन के लिए पौधे: मुख्य द्वार के बाहर हरे पौधे या तुलसी का पौधा रखें। यह सकारात्मक ऊर्जा को बनाए रखने में मदद करेगा।

4. लाल रंग का प्रयोग: दक्षिण दिशा अग्नि तत्व से संबंधित है, इसलिए मुख्य द्वार पर लाल रंग का प्रयोग शुभ माना जाता है। आप मुख्य द्वार पर लाल रंग की पट्टी या वस्त्र लगा सकते हैं।

5. मुख्य द्वार पर दर्पण: मुख्य द्वार के अंदर या बाहर की ओर दर्पण लगाने से नकारात्मक ऊर्जा वापस हो जाती है। ध्यान दें कि दर्पण का आकार और स्थान वास्तु के अनुसार सही होना चाहिए।

6. मुख्य द्वार पर वास्तु पिरामिड: वास्तु पिरामिड को मुख्य द्वार के आसपास स्थापित करें, जो नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है।

7. दरवाजे की दिशा सुधारें: यदि संभव हो, तो मुख्य द्वार को थोड़ा पूर्व या दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थानांतरित करें।

8. लक्ष्मी जी का चित्र: मुख्य द्वार के सामने लक्ष्मी जी का चित्र या प्रतिमा रखें ताकि समृद्धि और सौभाग्य घर में प्रवेश कर सके।

मृत्यु महोत्सव ।।

      देखिए तीन रस हैं सत, तम और रज। आप फल खाते हैं उसमें जो सत होता है अर्थात अमृत्व वह शरीर में रह जाता है। रज फल का आकर्षण उसका स्वरूप, उसकी गंध, उसका स्वाद इत्यादि के रूप में आप महसूस करते हैं। रज अति महत्वपूर्ण है। रज सक्रियता प्रदान करता है। रज रस को स्त्रावित करता है। मस्तिष्क को इन्द्रियों के माध्यम से रसों के स्त्राव के लिए आदेशित करता है। तीसरा  हिस्सा है तम अर्थात अनुपयोगी वह प्रातः काल मलमूत्र के रूप में विसर्जित हो जाता है। तम विष प्रधान हिस्सा हैं। मल मूत्र अगर विसर्जित नहीं होगा तो मृत्यु आ जायेगी । जो फल आपको जीवन दे रहा था वही फल मृत्यु को कारण बन जायेगा। फल मृत्यु का कारण नहीं बनेगा। मृत्यु होगी तम के कारण अर्थात विष के कारण। 

          सत अत्यंत ही न्यून होता है। एक किलो सब्जी में से मात्र एकांश और ज्यादा से ज्यादा दशांश ही सत होगा बाकी सब मलमूत्र बनकर विसर्जित हो जायेगा। सत भी आगे चलकर परिष्कृत होता है। मस्तिष्क के अंदर सत की अति परिष्कृत श्रृंखला ही प्रविष्ट हो पायेगी अन्य सब शरीर के काम आ जायेगी। भोजन का सबसे परिष्कृत एवं विशुद्धात्मक अर्क हीं मस्तिष्क में प्रविष्ट हो पाता है यही सबसे जटिल व्यवस्था है। मस्तिष्क चारों तरफ से पूरी तरह से प्रतिबंधित है। चाहे स्वाद हो, ध्वनि, गंध, संवेदन इत्यादि-इत्यादि यह सब मस्तिष्क तक स्थूल रूप में नहीं पहुँचते हैं। वहाँ पर तो सिर्फ अत्यंत ही सूक्ष्म संवेग ही पहुँच पाते हैं और वह भी अनंत प्रकार के इन्द्रिय जालों से छनकर। केवल अमृत ही मस्तिष्क में पहुँचेगा इसीलिए मृत्यु के कई घण्टों पश्चात भी मस्तिष्क जीवित रहता है, क्रियाशील रहता है। मस्तिष्क की मृत्यु आसान नहीं है। मस्तिष्क जब स्थूल ग्रहण ही नहीं करता है तो फिर उसकी स्थूल मृत्यु होती ही नहीं है। मृत्यु से पूर्व ही मस्तिष्क अपनी सूक्ष्मतम आवृत्ति में आ जाता है और आत्मा के साथ शरीर से बाहर निकल आगे की यात्रा तय करता है। वह अपने साथ समस्त कर्म प्रणाली, स्मृति प्रणाली, संस्कार एवं ज्ञान लेकर चलता बनता है। 

         ज्ञान इसलिए कभी खत्म नहीं होता अगर जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह वास्तव में होने लगे तो फिर दूसरे ही क्षण नये मनुष्य का बनना बंद हो जायेगा। आप एक मानव निर्मित यंत्र को उठाइये और उसे तोड़ डालिये। अब उसमें से नया यंत्र नहीं उत्पन्न होगा परन्तु मनुष्य के शरीर त्यागने के पश्चात भी नया मानव निर्मित हो जाता है ठीक वही सब ज्ञान लिए हुए। एक पीढ़ी पहले जो ज्ञान कठिन लगता है वही ज्ञान दूसरी पीढ़ी में सहज हो जाता है। पचास वर्ष पूर्व कम्प्यूटर चलाना किसे आता था परन्तु अब तो दस वर्ष के बच्चे भी उसमें निपुण हो गये हैं । यह है मस्तिष्क के स्वतः प्रतिरोपित होने की अद्भुत क्षमता । यह पूरी तरह से पूर्व जन्म के संस्कारों से जुड़ी हुई है। गाय के पेट से निकलते ही बछड़ा कूदने लगता है अर्थात उस बछड़े की आत्मा के अंदर संस्कार पूर्व से ही मौजूद थे बस अनुकूल परिस्थिति मिलते ही स्मृति पटल पर क्रियाशील हो गये। एक तरह से आत्मा अर्थात आत्म अर्थात वह ब्रह्माण्डीय बीज है जो कि अपने अंदर उन सब गुणों और संस्कारों को युक्त किए हुए है जो कि इस ब्रह्माण्ड के प्रादुर्भाव में आते समय उसे मिले थे। आत्मा सभी गुणों, ज्ञानों और संस्कारों से युक्त होती है एवं शरीर मात्र माध्यम होता है इन्हें प्रदर्शित करने का ।

             एक कम्प्यूटर चिप में लाखों तरह की फाइलों को भण्डारित किया जा सकता है। अब तो विज्ञान भी इतना आगे बढ़ गया है कि नाखून बराबर एक माइक्रोचिप के ऊपर पता नहीं कितना ज्ञान भण्डारित कर सकता है। जैसे ही इस चिप को आप कम्प्यूटर में लगाते हैं परदे पर बटन दबा दबाकर आप सब कुछ विस्तृत रूप से पढ़ सकते हैं। मनुष्य सारा जीवन पराशक्ति या परम परमेश्वर की नकल करने में लगा रहता है और काफी हद तक वह कर भी लेता है परन्तु स्थूल रूप में क्योंकि वह स्वयं स्थूल है। उसे अभी अदृश्य आत्मा का निर्माण करना नहीं आया है। हमें जो जानकारी चाहिए होती है हम उस फाइल को खोलते हैं नियंत्रण का केन्द्र हमारा मस्तिष्क होता है ठीक ऐसे ही हमें जो योनि चाहिए होती है उसे ईश्वर देता है। अतः आत्मा तो अजर-अमर है बस शरीर आते जाते रहते हैं कर्म सम्पादित होते रहते हैं। आत्मा के कर्म । क्या ज्ञान की मृत्यु होती है? क्या संस्कार की मृत्यु होती है? क्या प्रकाश की मृत्यु होती है? कभी नहीं। जो तत्व आत्मा से जुड़े हुए हैं वे कभी नहीं मरते। वे अमर होते हैं इन्हीं का समूह आत्मा है। अमरता है प्रतिक्षण इसीलिए अमरता की बात की जाती है प्रतिक्षण मृत्यु है इसीलिए मृत्यु की बात की जाती है।

           संगठन टूटता है। यह शरीर भी सत्रह से इक्कीस तत्वों का संगठन है टूट जाता है। जिसे हम मृत्यु कहते हैं। टूटता क्यों है? टूटना ही पड़ेगा क्योंकि सूर्य मृत्यु है, सूर्य मृत्यु क्यों है? इसलिए कि वह हमारे शरीर से सूर्य तत्व को खींच लेता है प्रतिक्षण खींचता रहता है। ज्यादा देर के लिए वह सूर्य तत्व प्रदान नहीं करता है। यह एक सिद्धांत है। तत्व विशेष का मूल लोक उन आवृत्ति विशेषों को अपनी तरफ स्वत: ही आकर्षित करता है। वर्षा की प्रत्येक बूंद को समुद्र का जल अपनी और प्रतिक्षण आकर्षित करता है। प्रत्येक जल की बूंद को एक निश्चित यात्रा के पश्चात् समुद्र में विलीन होना ही पड़ेगा। हम कुछ देर के लिए अगर कड़ी धूप में खड़े हो जायें तो हमारे शरीर में मौजूद जल को सूर्य रश्मियों के माध्यम से समुद्र अपनी तरफ खींच ही लेगा। यही हाल चन्द्र तत्व का भी है। चन्द्रमा भी धीरे-धीरे शरीर से मौजूद चन्द्र तत्व को खींचता ही रहता है। ऊर्जा से पदार्थ और पदार्थ से ऊर्जा का एक अद्भुत चक्र है। ऊर्जा के घनीभूत और समायोजित होने से पदार्थ का निर्माण होता है और कालान्तर पदार्थ से ऊर्जा निष्कासित होती रहती है। जब तक कि सम्पूर्ण ऊर्जा निष्कासित न हो जाये पदार्थ जीवित कहलाता है। इनके केन्द्र में आत्मा है। 

         एक शरीर मरता है उसे अनि पर रख दिया जाता है कुछ ही देर में अग्नि की लपटें पदार्थ में से ऊर्जा पूरी तरह से ब्रह्माण्ड में विलीन कर देती हैं। अमृत तत्व है तो मृत्यु तत्व भी है। दोनों एक साथ गतिशील होते हैं। अमृत घट से उत्पन्न शक्ति जोड़ने का काम करती है। एक अणु से कई परमाणु इसी अमृत तुल्य शक्ति के कारण जुड़ते हैं। दूसरी तरफ मृत्यु घट से उत्पन्न शक्ति प्रतिक्षण एक-एक करके पदार्थों को अलग करती हैं। बड़ा अजीब खेल है। ब्रह्मा ने दोनों को एक साथ निर्मित किया है। दोनों को एक साथ सभी जगह प्रतिष्ठित किया है। एक अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करती है तो दूसरी अपने चरित्र के अनुसार अमृत को मृत्यु नहीं मार सकती और मृत्यु को अमृत नहीं मार सकता। सभी पिण्ड, सभी पदार्थ, सभी परमाणु काल के अधीन हैं। काल की भी मृत्यु होती हैं। अत: काल के अंतर्गत आने वाले सूर्य, चंद्र, सप्त ऋषिगण तारे, ब्रह्मा, इन्द्र इत्यादि सभी मृत्यु के अधीन हैं काल परिवर्तन का नाम है। 

         जब सूर्य की ही मृत्यु हो रही है उसकी भी उम्र निर्धारित है तो वह भी मृत्यु प्रदान करेगा। सभी देव काल के अधीन आते हैं। ये भी मृत्यु के कारक हैं। पंचभूतों की तो बात ही क्या यह तो साक्षात प्रतिक्षण मृत्यु उत्पन्न करते हैं। मृत्यु शाश्वत् सत्य है। इस ब्रह्माण्ड में स्वीकारोक्ति अगर किसी की सबसे कम है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति भागता है तो वह है मृत्यु । मृत्यु ही पुनर्जन्म एवं परिवर्तन का कारक हैं। प्रतिक्षण मृत्यु हैं। मृत्यु प्रतिक्षण होती है। अभी तीस वर्षों की उम्र की मृत्यु हो गयी कुछ देर बाद अभी दिन की मृत्यु हो जायेगी । प्रतिक्षण जाना है कुछ न कुछ तो जाना ही है। क्षण की भी मृत्यु हैं श्रम भी मृत्यु हे श्रम से भी कुछ न कुछ जायेगा सब कुछ निश्चित है श्रम की सीमा भी निश्चित है। एक पुरानी कहावत है जो व्यक्ति इण्डे के भय और स्त्री के लटके झटके से मुक्त हो गया वह तो भगवान बन ही जाता है। इस बात में बड़ा गृढ़ अर्थ है। दण्ड का भय पकड़े जाने का भय पाप और पुण्य का भय चोट लग जाने का भय लक्ष्मी के चले जाने का भय। भय सबसे बड़ा कारक है मृत्यु प्राप्त करने का, श्वास के रुक जाने का यही है यमराज का अंकुश यही है यमराज द्वारा रस्सी में बांधे जाने का तात्पर्य भय ही बांधता है।

          दूसरी तरफ स्त्री है वह उलझाती है सांसारिक बंधनों में। वह मोहित करती है। सब कुछ खींचने की शक्ति है उसमें । इस दुनिया के नाना प्रकार के प्रपंचों के पीछे केवल स्त्री है। जो इन दोनों से मुक्त गया वही मृत्युंजय साधना में सफल हुआ। उसे ही शिव का सानिध्य प्राप्त होगा। वही वास्तविक संन्यासी है। मृत्यु से परे । वास्तविक संन्यासियों को देखिए उनकी चाल की गर्विता को देखिए, उनके चेहरे के आभामण्डल को देखिए। एक प्रधानमंत्री के चेहरे पर भी इतनी सौम्यता नहीं होती है। एक सम्राट के पास हजारों स्त्रियाँ होने के पश्चात भी वह इतना शालीन नहीं होता है। संन्यासी ने संसार की सच्चाई को जान लिया है कि जिसे वह अमृत समझ रहा है वास्तव में वह तो विष है। वह तो मृत्यु का कारण है। जितने ज्यादा कारण पालोगे उतनी ही जल्दी मृत्यु आयेगी। 

         अमेरिका में एक अभिनेत्री थी मरलिन मुनरो अत्यधिक खूबसूरत खूबसूरती ही उसके लिए जीवन था। जैसे ही वह अधेड़ हुई उसने आत्महत्या कर ली। वह अपनी जाती हुई खूबसूरती को बर्दाश्त नहीं कर सकी। खूबसूरती मृत्यु बन गई।

           एक गुरु महाराज थे उन्हें अपना मान सम्मान, यश, प्रसिद्धि इत्यादि अत्यधिक प्रिय थे। उन्हें प्रतिदिन अगर कोई चरण स्पर्श न करे तो आनंद ही नहीं आता था। अचानक एक दिन अपयश दरवाजे पर आ धमका। गुरु महाराज का गुरुत्व धरा रह गया। अपशय को देखते ही हृदय गति रुक गई। वह लिप्त था यश में ऐसा ही होता है इन स्थितियों के बीच कभी-कभी कुछ विहंगम स्थितियाँ भी बनती हैं। तुलसीदास को उनकी पत्नी ने अपमानित कर दिया वे गंगा में शरीर त्यागने जा रहे थे पर अचानक किसी संन्यासी ने आकार झंझकोर दिया यहाँ पर शरीर त्यागने के विचार की मृत्यु हो गयी। तुलसीदास पुनः जीवित हो उठे। उनका पुनर्जन्म हो गया रामायण का अनुवाद कर बैठे। 

          हम सबके साथ एक अत्यंत ही विलक्षण ग्रंथि जुड़ी हुई है जो कि मृत्यु के कारणों को भी मृत्यु प्रदान कर देती है । यही वह सबसे दुर्लभ ग्रंथि है जिसका कि साधक को अनुसंधान करना चाहिए। जिसे कि प्रत्येक आध्यात्मिक महामानव सिद्ध इत्यादि चैतन्य और जाग्रत करते हैं। यह है यमराज साधना । इसे कहते हैं महाकाल साधना। पहले यम को साधो । स्वयं साक्षात यमराज बनो किसी और के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए। यमराज का रंग काला है। काले भैसे पर सवार हैं, हाथ में गदा, अंकुश और पाश है बिल्कुल निर्मोही हैं कृष्ण के समान । वे किसी की नहीं सुनते हैं बस सीधे मृत व्यक्ति की आत्मा को घसीटकर रस्सी से बांधकर अपने साथ ले जाते हैं सीधे चित्रगुप्त के पास। जहाँ पर आत्मा के कर्मों का लेखा-जोखा होता है। 

         यमराज से सब डरते हैं। सांसारिक आत्माऐं तो रोती हैं, चिल्लाती हैं, घिघयाती हैं, हाथ पैर जोड़ती हैं परन्तु वे कदापि नहीं छोड़ते हैं। अपने कर्म के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। हम सब भी यमराज हैं यमराज की नकल करते हैं। न जाने कितने जीवों को अपने स्वार्थ के लिए मृत्यु प्रदान करते हैं। वे चिल्लाते हैं, रोते हैं, तड़पते हैं फिर भी हम मनुष्यों का शोषण करते हैं, जीवों को काटकर खा जाते हैं और भी न जाने क्या-क्या। स्वयं की मृत्यु टालने के लिए दूसरों को मृत्यु प्रदान करना। यह है इस काल के अधीन संसार में सभी का कार्य इसीलिए कालाधीन सभी पिण्ड, शरीर और जीव इत्यादि यम के द्वारा ही मृत्युलोक में ले जाये जाते हैं। हमें भी अपने मृत्यु के कारकों को यमराज के समान एक-एक करके पाश से बांधकर घसीटते हुए पूरी निर्ममता के साथ निकालना होगा तब कहीं जाकर मृत्यु को टालने में हम कुछ हद तक सफल हो पायेंगे। नहीं तो मृत्यु शीघ्र ही दरवाजे पर खड़ी होगी। 

             जितना हम मृत्यु का खेल खेलेंगें एक तरह से उसका आह्वान करेंगे वह उतनी ही जल्दी प्रकट होगी। देखिए अंतिम समय सांसारिक व्यक्ति कितना तड़पता है अपनी सारी दौलत लुटाने को तैयार हो जाता है। कुछ भी करके वह कुछ क्षण हासिल करना चाहता है । मृत्यु को भगाना चाहता है परन्तु मृत्यु इतनी ज्यादा कण-कण में, रग-रग में प्रविष्ट हो चुकी होती है कि कहाँ कहाँ से भगायेगा। कहीं न कहीं से पकड़ में आ ही जायेगा। यह है ऋण मुक्ति का सिद्धांत। पंचभूतों का यह शरीर सिर्फ कुछ समय के लिए सभी तत्वों को उधार में लेता है विभिन्न स्त्रोतों से ऋण की एक अवधि होती है उस अवधि में ऋण के साथ ब्याज भी चुकाना पड़ता है। लोग ब्याज ही नहीं चुकाते हैं मूलधन की तो बात ही छोड़ो। एक दिन तो दिवालिया होना निश्चित है। 

          लिया अर्थात ऋण ऋण है तो व्याज भी है। देना तो पड़ेगा ही। शरीर प्राप्त किया तो फिर कर्म भी करने पड़ेगें। कर्म ही ब्याज है, कर्म ही मूलधन की वापसी है। जब तक इस भाव से कार्य नहीं करोगे हर समय मृत्यु दरवाजे पर खड़ी होगी मांगने वाले के समान। रोने से मृत्यु थोड़ी टल जायेगी। आपको शरीर क्यों दिया गया? क्योंकि आपने कर्म सम्पादित करने के लिए उसे मांगा। युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा कि इस पृथ्वी का सबसे बड़ा सत्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा इस पृथ्वी का सबसे बड़ा सत्य यह है कि सभी लोग मृत्यु से भाग रहे हैं अर्थात मृत्यु परम सत्य है इससे भागने से कुछ नहीं होगा। क्या मृत्यु एक आयामी है? नहीं कदापि नहीं। मृत्यु के अनंत आयाम हैं। एक शरीर में अनेक पुरुष हैं किसी न किसी पुरुष की मृत्यु किसी न किसी क्षण हो हीं जाती है।

            किसी स्त्री ने शिकायत की उसका पति काम रहित हो गया है। वह कामरहित, नहीं हुआ है बल्कि उसके अंदर विराजमान काम पुरुष की मुत्यु हो गई है। मृत्यु हो गई है तो हो गई । उसका यह निम्र कोटी का कर्म समाप्त हो गया तो हो गया। क्रोध चला गया तो चला गया क्रोध रूपी पुरुष की मृत्यु हो गई तो हो गई। सबकी सब ग्रंथियाँ मृत्यु के अधीन हैं। बाल सफेद हो गये अर्थात बाल काला करने की ग्रंथि की मृत्यु हो गई। वह निष्क्रिय हो गई। उसका जीवन चक्र पूरा हो गया। अब परेशान होने से क्या फायदा जब तुम्हारा स्वयं का शरीर अमर

       नहीं है तो किसी एक ग्रंथि विशेष । मृत्यु पर इतना संताप क्यों । कुल मिला-जुलाकर दो की बाते स्पष्ट होती हैं पहली जो तत्व जितना ज्यादा गतिशील, जितना ज्यादा काल के प्रभाव से ग्रसित होगा उसकी मृत्यु उतनी ही निकट है दूसरी जो नित्य और प्रति नूतन है जिसके ऊपर काल का प्रभाव नगण्य या शून्य है वह अमर है अजर है। वह मृत्यु के अधीन नहीं है। दो विपरीत धारा बह रही है एक बिन्दु मृत्यु का है दूसरा अमृत्व का मृत्यु के क्षेत्र में काल आता है। जैसे ही आप अमृत्व की और बढ़ेंगे मृत्यु के कारक पीछे छूटते जायेंगे और काल के प्रभाव को जहाँ आपने लांघा अमृत कुण्ड सामने दिखाई देगा।

                          शिव शासनत: शिव शासनत: