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जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है जानिए...

जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
 
1. नित्य जप

प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
 
2. नैमित्तिक जप

किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।   
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
 
3. काम्य जप

किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
 
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
 
4. निषिद्ध जप

मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
 
5. प्रायश्चित जप

अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
 
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
 
6. अचल जप

यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
 
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
 
7. चल जप

यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
 
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप

जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
 
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
 
9. उपांशु उपाय

वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
 
10. भ्रमर जप

भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
 
11. मानस जप 

यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए

कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
 
12. अखंड जप 

यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
 
13. अजपा जप 

यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 
 
राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
 
14. प्रदक्षिणा जप

इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है।

महामृत्युंजय मंत्र की महिमा ।।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

देवाधिदेव महादेव ही एक मात्र ऐसे भगवान हैं, जिनकी भक्ति हर कोई करता है, चाहे वह इंसान हो, राक्षस हो, भूत-प्रेत हो अथवा देवता हो, यहां तक कि पशु-पक्षी, जलचर, नभचर, पाताललोक वासी हो अथवा बैकुण्ठवासी हो, शिव की भक्ति हर जगह हुई और जब तक दुनिया कायम है, शिव की महिमा गाई जाती रहेगी। 

शिव पुराण कथा के अनुसार शिव ही ऐसे भगवान हैं, जो शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों को मनचाहा वर दे देते हैं, वे सिर्फ अपने भक्तों का कल्याण करना चाहते हैं, वे यह नहीं देखते कि उनकी भक्ति करने वाला इंसान है, राक्षस है, भूत-प्रेत है या फिर किसी और योनि का जीव है, शिव को प्रसन्न करना सबसे आसान है। 

शिवलिंग की महिमा अपरम्पार है, शिवलिंग में मात्र जल चढ़ाकर या बेलपत्र अर्पित करके भी शिव को प्रसन्न किया जा सकता है, इसके लिए किसी विशेष पूजन विधि की आवश्यकता नहीं है, एक कथा के अनुसार वृत्तासुर के आतंक से देवता भयभीत थे, वृत्तासुर को श्राप था कि वह शिव पुत्र के हाथों ही मारा जायेगा। 

इसलिए पार्वती के साथ शिवजी का विवाह कराने के लिए सभी देवता चिंतित थे, क्योंकि भगवान शिव समाधिस्थ थे और जब तक समाधि से उठ नहीं जाते, विवाह कैसे होता? देवताओं ने विचार करके रति व कामदेव से शिव की समाधि भंग करने का निवेदन किया, कामदेव ने शिवजी को जगाया तो क्रोध में शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया, रति विलाप करने लगी तो शिव ने वरदान दिया कि द्वापर में कामदेव भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे। 

इस बात में तो सभी यकीन करते होंगे, कि वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता, पर यह सभी जानते है कि वक़्त और किस्मत पर भी विजयी हो सकते हैं, अगर आप भगवान् भोलेनाथ की असीम शक्ति में विश्वास रखते है, इसके उदाहरण स्वरुप मैं एक कथा बताना चाहूंगा।

भगवान शिव यानि देवाधिदेव महादेव को तो सब जानते हैं जो परमपिता परमेश्वर, जगत के स्वामी और सब देवो के देव है, कथा से पहले आपको यह बता दूँ की यह वह समय हैं, जब महादेव की अर्धांगिनी देवी पार्वती, बाल्यवस्था में अपनी माता मैना देवी के साथ मार्कंडय ऋषि के आश्रम में रहती थी, और पार्वती देवी एक दिन असुरो के कारण संकट में पड़ गयी और महादेव ने उनके प्राणों की रक्षा की।

मैना ने जब अपनी पुत्रि की जान पर आई आपदा के बारे में सुना तो वह अत्यंत दुखी और भयभीत हो गयी, पर ऋषि मार्कंडय ने उन्हें जब बताया कि कैसे महादेव ने देवी पार्वती की रक्षा की, पर वह तब भी संतोष न कर सकी, मैना देवी विष्णु भगवान की उपासक थी, जिस वजह से शिव की महिमा में ज़रा भी विश्वास नहीं रखती थी, शिवजी ठहरे वैरागी और श्मशान में रहने वाले तो भला वह कैसे उनकी पूजा करे। 

तत्पश्चात ऋषि मार्कंडय ने मैना को शिव भगवान की महिमा के बारे में बताने का विचार किया, और उनको यह कथा विस्तार से बताई- जब मार्कंडय ऋषि केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब उनके पिता ऋषि मृकण्डु को गुरुकूल आश्रम के गुरु से यह ज्ञात हुआ की मार्कंडय की सारी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो चुकी है और अब वह उन्हें अपने साथ ले जा सकते है।

क्योंकि उन्होंने सारा ज्ञान इतने कम समय में ही अर्जित कर लिया और अब उनको और ज्ञान देने के लिए कुछ शेष नहीं था, यह जानने के बाद भी की उनका पुत्र मार्कंडय इतना बुद्धिमान और ज्ञानवान है, उनके माता पिता खुश नहीं हुयें, मार्कंडय ने जब पूछा की उनके दुःख का कारण क्या है? तब उनके पिता ने उनके जन्म की कहानी बताई कि पुत्र की प्राप्ति हेतु उन्होंने और उनकी माता ने कई वर्षो तक कठिन और घोर तप किया है।

तब भगवान् महादेव प्रसन्न होकर प्रकट हुयें, और उनको इस बात से अवगत कराया की उनके भाग में संतान सुख नहीं है, परन्तु उनके तप से प्रसन्न होकर उनको पुत्र का वरदान दिया, और उनसे पूछा की वह कैसा पुत्र चाहते है, जो बुद्धिवान ना हो पर उसकी आयु बहुत ज्यादा हो या ऐसा पुत्र जो बहुत बुद्धिमान हो परन्तु जिसकी आयु बहुत कम हो।

मृकण्डु और उनकी पत्नी ने कम आयु वाला पर बुद्धिमान पुत्र का वरदान माँगा, महादेवजी ने उनको बताया की यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही जीवित रहेगा, वह फिर विचार कर ले, पर उन्होंने वही माँगा और महादेव उनको वरदान देकर भोलेनाथ अंतर्ध्यान हो गये, ऋषि मृकंदु ने यह सब अपने पुत्र को बताया, जिसको सुनने के बाद वह बहुत दुःखी हुआ, यह सोचकर की वह अपने माता -पिता की सेवा नहीं कर सकेगा।

परन्तु बालक मार्कंडय ने उसी समय यह निर्णय किया की वह अपनी मृत्यू पर विजय प्राप्त करेंगे और भगवान शिव की पूजा से यह हासिल करेंगे, बालक मार्कंडय ग्यारह वर्ष की आयु में वन को चले गयें, लगभग एक वर्ष के कठिन तप के दौरान उन्होंने एक नए मंत्र की रचना की जो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सके, वह है- "ॐ त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं, उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्योर्मोक्षिय मामृतात्" 

जब वह 12 वर्ष के हुए तब यमराज उनके सामने, प्राण हरण के लिये प्रकट हो गये, बालक मार्कंडय ने यमराज को बहुत समझया और याचना की, कि वह उनके प्राण बक्श दे, परन्तु यमराज ने एक ना सुनी और और वह यमपाश के साथ उनके पीछे भागे बालक मार्कंडय भागते-भागते वन में एक शिवलिंग तक पहुचे जिसे देख कर वह उनसे लिपट गये, और भगवान् शिव का मंत्र बोलने लगे जिसकी रचना उन्होंने स्वयं की थी। 

यमराज ने बालक मार्कंडय की तरफ फिर से अपना यमपाश फेका परन्तु शिवजी तभी प्रकट हुए और उनका यमपाश अपने त्रिशूल से काट दिया, बालक मार्कंडय शिवजी के चरणों में याचना करने लगे की वह उनको प्राणों का वरदान दे, परन्तु महादेव ने उनको कहा की उन्होंने ही यह वरदान उनके माता-पिता को दिया था, इस पर बालक मार्कंडय कहते है कि यह वरदान तो उनके माता पिता के लिये था ना कि उनके लिये? 

यह सुनकर महादेव बालक मार्कंडय से अत्यंत प्रसन्न होते है और उनको जीवन का वरदान देते है, भगवान् भोलेनाथ ने यमराज को आदेश देते है की वह इस बालक के प्राण ना ले, कथा से क्या इस बात पर पुन: विचार करने का मन होता है की भक्ति में बहुत शक्ति है, ऐसा क्या नहीं है जो इस संसार में ईश्वर की भक्ति करने से प्राप्त ना किया जा सके, भगवान् भोलेनाथ की भक्ति और शक्ति की महिमा का बहुत बड़ा महात्म्य है।

        
       

संस्कृत मंत्रो में बहुत बार आनेवाले शब्द - "धीमहि", "पाहि माम्" और "प्रचोदयात्" का क्या अर्थ होता है।?

संस्कृत मंत्रों में आनेवाले शब्द- धीमहि,पाहि माम् और प्रचोदयात् शब्दों के अर्थ इस प्रकार होते हैं।-


धीमहि- यह शब्द "ध्या" धातु के लिङ् लकार का बहुवचन में छान्दस(वैदिक) प्रयोग है। जिसका अर्थ है। - ध्यायेमहि= हम सब ध्यान करते हैं।

प्रचोदयात्- यह शब्द प्रेरणार्थक चुद् धातु के लिङ् लकार का रूप है। जिसमें प्र उपसर्ग लगा है। जो प्रकृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ का वाचक है। अतः प्रचोदयात् शब्द का अर्थ है।- अच्छे(श्रेष्ठ) कर्मों में प्रेरित करें।

इन दोनों शब्दों का प्रयोग प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में किया गया है। जो इस प्रकार है-ऊँ भूर्भुवःस्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि।धियो यो नः प्रचोदयात्।।ऋग्वेद ३।६२।१०।। उँ प्रणव,ब्रह्मस्वरूप। भूर्= पृथ्वीलोक, भुवः=अन्तरिक्षलोक,स्वः=द्युलोक।गायत्री मंत्र में प्रणव(ऊँ) एवं व्याहृति(भूर्भुवःस्वः) लगाकर ही जप करने का विधान है। अतः गायत्री मंत्र का प्रणव एवं व्याहृति सहित उल्लेख किया गया है।

गायत्री मंत्र के विश्वामित्र ऋषि एवं सविता देवता हैं। गायत्री मंत्र नही,महामंत्र है। गायत्री के जाप एवं अराधना से सभी देवताओं अथवा स्व इष्ट की अराधना हो जाती है।इसीलिए कहा गया है।- अभावे सर्व विद्यानां गायत्री जपेत्= सभी विद्या(ब्रह्मविद्या) के अभाव में गायत्री जपना चाहिए।

अन्वय- देवस्य सवितुः वरेण्यं तत् भर्गो धीमहि यो नः धियः प्रचोदयात्।अर्थ- सविता(=सूर्य,प्रेरणा देने वाले,सृजन करनेवाले) देव(=देवो दानात् दीपनात् वा= जो दाता है। अथवा, प्रकाशमान हैं। )के वरणीय सर्वश्रेष्ठ(=वरेण्य)तेजःस्वरूप(=भर्गः)का हम ध्यान करते हैं। (=धीमहि)जो(=यः)हम सबकी(=नः)बुद्धि को(=धियः)अच्छे कर्मों में प्रेरित करें(=प्रचोदयात्)।

ऊपर गायत्री मंत्र का शास्त्र सम्मत अर्थ दिया गया है। एवं कोष्ठ में उनके संस्कृत शब्दों को रखा गया है।

पाहि माम्— याचना अर्थ में पा रक्षणे धातु से लोट् लकार में मध्यम पुरुष में पाहि शब्द बनता है जिसका अर्थ होता हैह - रक्षा करो।

माम् - अस्मद् शब्द(सर्वनाम) के द्वितीया विभक्ति,एकवचन में माम् शब्द का अर्थ होता है।- मुझको। किन्तु यहां अर्थ होता है।- मेरी।

अतः पाहि माम् का अर्थ होगा= मेरी रक्षा करो। यहां माम् =मेरी(मेरा) का अर्थ संबंध वाचक नहीं है। उसके लिये संस्कृत में मम शब्द है।

पाहि माम् का प्रयोग चन्द्रशेखर अष्टकम् में किया गया है।

चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर पाहि माम्।चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर चन्द्रशेखर रक्ष माम्।। अर्थ- हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर(भगवान् शंकर) मेरी रक्षा करो। हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर हे चन्द्रशेखर मेरी रक्षा करो।।

      ।। जय श्री महाकाल।।


☀️ भगवन्नाम-जप में होने वाले दस नामापराध ☀️

सन्निन्दासति नामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधीरश्रद्धा
श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्र्यर्थवादभ्रम:।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ च धर्मान्तरै:
साम्यं नामजपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश॥

भगवन्नाम-जप में दस अपराध होते हैं। उन दस अपराधों से रहित होकर हम नाम जपना चाहिए। कई ऐसा कहते हैं—

राम नाम सब कोई कहे, दशरथ कहे न कोय।
एक बार दशरथ कहे, तो कोटि यज्ञ फल होय॥

और कई तो । ‘दशरथ कहे न कोय’ की जगह । ‘दशऋत कहे न कोय’ कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत’—दस अपराधों से रहित नहीं करते।

‘सन्निन्दा’—(१) पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषों की निन्दा की जाय। अच्छे-पुरुषों की, भगवान के प्यारे भक्तों की जो निन्दा करेंगे, भक्तों का अपमान करेंगे तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायँगे। इस वास्ते किसी की भी निन्दा न करें; क्योंकि किसी के भले-बुरे का पता नहीं लगता है।
ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ- आश्रम में रहनेवाले, मामूली वर्ण में, मामूली आश्रम में, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान के बड़े प्रेमी और भगवान का नाम लेनेवाले होते हैं। उनका तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान के भक्त की निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे।

‘असतिनामवैभवकथा’—(२) जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान की महिमा नहीं जानता, भगवान् की निन्दा करता है, जिसकी नाम में रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान् के नाम की महिमा मत सुनाओ। वह सुनने से तिरस्कार करेगा तो नाम महाराज का अपमान होगा। वह एक अपराध बन जायगा। इस वास्ते उसके सामने भगवान् के नाम की महिमा मत कहो।
भगवान् के ग्राहक के बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई ? वह तो आया है दो पैसों की मूँगफली लेने के लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना ? क्या करेगा वह रतन का ? उसके सामने भगवान् का नाम क्यों रखो भाई ? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नाम की महिमा सुन नहीं सकते। उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है।

तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात।
जैसे जुर के जोर से, भोजन की रुचि जात॥

‘श्रीशेशयोर्भेदधी:’—(३) भगवान् विष्णु के भक्त हैं तो भगवान शंकर की निन्दा न करें। दोनों में भेद-बुद्धि न करें। भगवान् शंकर और विष्णु दो नहीं हैं—
उभयो: प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद्भाति।
कलयति कश्चिन्मूढो हरिहरभेदं विना शास्त्रम्॥

भगवान् विष्णु और शंकर इन दोनों का स्वभाव एक है। परन्तु भक्तों के भावों के भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं। इस वास्ते कोई मूढ़ दोनों का भेद करता है तो वह शास्त्र नहीं जानता। दूसरा अर्थ होता है ‘हृञ् हरणे’ धातु तो एक है पर प्रत्यय-भेद है। हरि और हर ऐसे प्रत्यय-भेद से भिन्न की तरह दीखते हैं। ‘हरि-हर’ के भेद को लेकर कलह करता है वह ‘विना शास्त्रम्’ पढ़ा लिखा नहीं है और ‘विनाशाय अस्त्रम्’—अपना नाश करने का अस्त्र है।

उपनिषदों में कहा गया है —

येनमस्यन्तिगोविन्दंतेनमस्यन्ति_शंकरम् ।
येऽर्चयन्तिहरिंभक्त्यातेऽर्चयन्तिवृषध्वजम् ॥
जो गोविंद को नमस्कार करते हैं ,वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं । जो लोग भक्ति से विष्णु की पूजा करते हैं, वे वृषभ ध्वज भगवान शंकर की पूजा करते हैं ।

यद्विषन्तिविरूपाक्षंतेद्विषन्ति_जनार्दनम्।
येरुद्रंनाभिजानन्तितेनजानन्तिकेशवम् ॥
जो लोग भगवान विरुपाक्ष त्रिनेत्र शंकर से द्वेष करते हैं, वे जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। जो लोग रूद्र को नहीं जानते ,वे लोग भगवान केशव को भी नहीं जानते ।
(रुद्रहृदय उपनिषद)

‘अश्रद्धा_श्रुतिशास्त्रदैशिकगिराम्’—वेद, शास्त्र और सन्तमहापुरुषोंके वचनोंमें अश्रद्धा करना अपराध है! (४) जब हम नाम-जप करते हैं तो हमारे लिये वेदों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है ? वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है। इस प्रकार वेदों पर अश्रद्धा करना नामापराध है।

(५) शास्त्रों ने बहुत कुछ कहा है। कोई शास्त्र कुछ कहता है तो कोई कुछ कहता है। उनकी आपस में सम्मति नहीं मिलती। ऐसे शास्त्रों को पढऩेसे क्या फायदा है ? उनको पढऩा तो नाहक वाद-विवाद में पडऩा है। इस वास्ते नाम-प्रेमी को शास्त्रों का पठन-पाठन नहीं करना चाहिये, इस प्रकार शास्त्रों में अश्रद्धा करना नामापराध है।

(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करने की क्या आवश्यकता है ? गुरु की आज्ञापालन करने की क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जप को गुरु-सेवा आदि से बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जप में इतनी सामथ्र्य नहीं है जो कि गुरु की सेवा करनी पड़े ? सहारा लेना पड़े ? इस प्रकार गुरु में अश्रद्धा करना नामापराध है।

वेदों में अश्रद्धा करनेवाले पर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते। वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं। सबको रास्ता बतानेवाली हैं। इस वास्ते वेदों में अश्रद्धा न करे। ऐसे शास्त्रों में—पुराण, शास्त्र, इतिहास में भी अश्रद्धा न करे, तिरस्कार-अपमान न करे। सबका आदर करे। शास्त्रों में, पुराणों में, वेदों में, सन्तों की वाणी में, भगवान् के नाम की महिमा भरी पड़ी है। शास्त्रों, सन्तों आदि ने जो भगवन्नाम की महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारत से बड़ा पोथा बन जाय। इतनी महिमा गायी है, फिर भी इसका अन्त नहीं है। फिर भी उनकी निन्दा करे और नाम से लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?

‘नाम्र्यर्थवादभ्रम:’—(७) नाम में अर्थवाद का भ्रम है। यह महिमा बढ़ा-चढ़ाकर कही है; इतनी महिमा थोड़ी है नाम की ! नाममात्र से कल्याण कैसे हो जायगा ? ऐसा भ्रम न करें; क्योंकि भगवान् का नाम लेने से कल्याण हो जायगा। नाम में खुद भगवान् विराजमान हैं। मनुष्य नींद लेता है तो नाम लेते ही सुबोध होता है अर्थात् किसी को नींद आयी हुई है तो उसका नाम लेकर पुकारो तो वह नींदमें सुन लेगा।
नींदमें सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें और बुद्धि अविद्यामें लीन हुई रहती है—ऐसी जगह भी नाम में विलक्षण शक्ति है।

अनेक तार्किकों के मन में यह कल्पना उठती है कि नाम की महिमा वास्तविक नहीं है, अर्थवादमात्र है। उनके मन में यह धारणा तो हो ही जाती है कि शराब की एक बूँद भी पतित बनानेके लिये पर्याप्त है, परंतु यह विश्वास नहीं होता कि भगवान्‌ का एक नाम भी परम कल्याणकारी है। शास्त्रों में भगवन्नाम-महिमा को अर्थवाद समझना पाप बताया है।

पुराणेष्वर्थवादत्वं ये वदन्ति नराधमा:।
तैरॢजतानि पुण्यानि तद्वदेव भवन्ति हि ।।
मन्नामकीर्तनफलं विविधं निशम्य
न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् ।।
यो मानुषस्तमिह दु:खचये क्षिपामि संसारघोरविविधार्तिनिपीडिताङ्गम् ।।
अर्थवादं हरेर्नाम्रि संभावयति यो नर:।
स पापिष्ठो मनुष्याणां नरके पतति स्फुटम् ।।

‘जो नराधम पुराणोंमें अर्थवादकी कल्पना करते हैं उनके द्वारा उपाॢजत पुण्य वैसे ही हो जाते हैं।’

‘जो मनुष्य मेरे नाम-कीर्तन के विविध फल सुनकर उसपर श्रद्धा नहीं करता और उसे अर्थवाद मानता है, उसको संसार के विविध घोर तापों से पीडि़त होना पड़ता है और उसे मैं अनेक दु:खों में डाल देता हूँ।’ – – – – ‘जो मनुष्य भगवान्‌ के नाम में अर्थवादकी सम्भावना करता है, वह मनुष्यों में अत्यन्त पापी है और उसे नरक में गिरना पड़ता है।’

‘नामास्तीति_निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ’—(८) निषिद्ध आचरण करना और
(९) विहित कर्मोंका त्याग कर देना।
जैसे, हम नाम-जप करते हैं तो झूठ-कपट कर लिया, दूसरों को धोखा दे दिया, चोरी कर ली, दूसरों का हक मार लिया तो इसमें क्या पाप लगेगा। अगर लग भी जाय तो नाम के सामने सब खत्म हो जायगा; क्योंकि नाम में पापों के नाश करने की अपार शक्ति है—इस भाव से नामके सहारे निषिद्ध आचरण करना नामापराध है।

भगवान् का नाम लेते हैं। अब सन्ध्या की क्या जरूरत है ? गायत्री की क्या जरूरत है ? श्राद्ध की क्या जरूरत है ? तर्पणकी क्या जरूरत है ? क्या इस बात की जरूरत है ? इस प्रकार नाम के भरोसे शास्त्र-विधिका त्याग करना भी नाम महाराजका अपराध है। यह नहीं छोडऩा चाहिये। अरे भाई ! यह तो कर देना चाहिये। शास्त्रने आज्ञा दी है। गृहस्थोंके लिये जो बताया है, वह करना चाहिये।

नाम्रोऽस्ति यावती शक्ति: पापनिहर्रणे हरे:।
तावत् कर्तुं न शक्रोति पातकं पातकी जन:॥

‘धर्मान्तरै:_साम्यम्’ (१०) भगवान् के नाम की अन्य धर्मों के साथ तुलना करना अर्थात् गङ्गास्नान करो, चाहे नाम-जप करो। नाम-जप करो, चाहे गोदान कर दो । सब बराबर है। ऐसे किसी के बराबर नाम की बात कह दो तो नाम का अपराध हो जायगा। नाम महाराज तो अकेला ही है। इसके समान दूसरा कोई साधन, धर्म है ही नहीं। भगवान् शंकर का नाम लो चाहे भगवान् विष्णु का नाम लो। ये नाम दूसरों के समान नाम नहीं हैं। नाम की महिमा सबमें अधिक है, सबसे श्रेष्ठ है।
इसलिए नामजप सदैव इन दस नामापराधों से रहित हो कर करना चाहिए ।

।। नारायण ।।

सूर्य उपासना से हमें क्या-क्या लाभ होते हैं?

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1) भगवान सूर्य की उपासना से दाद फोड़ा कुष्ठ हैजा प्रभृत्ति रोग नष्ट हो जाते हैं
( वही -75/88)

 2) भगवान सूर्य का उपासक कठिन से कठिन रोगों से मुक्ति पाकर अनेकों वर्ष की लंबी आयु प्राप्त करता है
( वही -75/88)

3) भगवान सूर्य की उपासना मात्र से सभी रोगों से मुक्ति मिल जाती है

( पद्म पुराण सृष्टि खंड अध्याय नंबर 79 श्लोक नंबर 17)

4) जो भी भक्ति पूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करता है वह निरोग होता ही है।

( स्कंद पुराण भाग 2 काशी खंड महत्यम अध्याय नंबर 3 श्लोक नंबर 15)

5) सूर्य देव उदय होने पर रोगो का अपहरण कर लेते हैं
( शुक्ल यजुर्वेद 33/36)

6) शरीर के सभी रोग भगवान सूर्य की रश्मियों के द्वारा नष्ट हो जाते हैं
( अथर्ववेद)
7) अगर शरीर में तेज की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( श्रीमद्भागवत महापुराण)

8) अगर सुख की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( स्कंद पुराण)
9) अगर शत्रु को पराजय करना हो शत्रु विजय प्राप्त करनी हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए।
( वाल्मीकि रामायण)
10) अगर आरोग्य की कामना हो तो सूर्य की आराधना करनी चाहिए
( मत्स्य महापुराण 67/61)

11) भगवान सूर्य की उपासना करने पर वह शरीर को निरोग तो बनते ही बनाते हैं साथ में दृढ़ भी कर देते हैं
( स्कंद पुराण)

12) भगवान भास्कर जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं उसे निः संदेह धन और यश भी प्रदान करते हैं।
( पद्म पुराण)

13) सूर्य की जो लालिमा युक्त किरणे होती है इसका सेवन करने से शरीर का पीलापन और हृदय रोग नष्ट होते हैं
( अथर्ववेद)

14) भगवान सूर्य की लालिमा युक्त किरणो का सेवन करने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है
( अथर्ववेद)

15) सूर्य की विधिवत उपासना करने पर नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं
( चाक्षुषोपनिषद्)

16) भगवान सूर्य की उपासना करने पर प्राण शक्ति प्रबल होती है
( यजुर्वेद)

17) ज्योति युक्त चीजों में मैं सूर्य हूं।
( गीता)
18) सूर्य में जो तेज है उसे तू मेरा ही तेज जान
( गीता)
19) विराट स्वरूप में मै सूर्य को आपका नेत्र देख रहा हूं
( गीता)
20) शिव जी की आठ मूर्तियों में से एक मूर्ति सूर्य है
( शिव महापुराण)

21) भगवान सूर्य की विधिवत आराधना करने से बुरे सपनों का नाश हो जाता है
( सामवेद)

22) भगवान सूर्य की उपासना करने से घर में कभी अन्न जल की कमी नहीं रहती है
( यजुर्वेद)

23) भगवान सूर्य सभी प्राणियों के जीवन है
( ब्रह्म पुराण)

24) सूर्य अपने उपासक को दीर्घायु आरोग्य ऐश्वर्या धन पशु मित्र पुत्र स्त्री विविध प्रकार की उन्नति के क्षेत्र आठ प्रकार के भोग स्वर्ग और सब कुछ प्रदान कर देते हैं
( स्कंद पुराण)